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पर सोना, हर दो महीनों में केशोंका लोंच करना और असहनीय
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बाईस परीषह आदि बड़े ही कठिन आचरण हैं । इस समय हम लोगोंने जो आचरण ग्रहण कर रक्खा है, वह इसे लोकमें भी
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सुखका कर्ता है | इस दुःषमा कालमें हम उसे नहीं छोड़ सके । तब शांत्याचार्यने कहा कि यह चारित्रसे भ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं, यह जैन मार्गको दूषित करता है । जिनेन्द्र भगवानने निग्रन्थ प्रवचनको ही श्रेष्ठ कहा है उसे छोड़कर अन्यकी प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व है। इस पर उस शिष्यने रुष्ट होकर अपने बड़े डंडेसे गुरुके सिरमें आघात किया, जिससे शांत्याचार्यकी मृत्यु होगई और वे मरकर व्यन्तर देव हुए। उसके बाद वह शिष्य संघका खामी बन गया और प्रकटरूपमें सेवड़ा या श्वेताम्बर होगया । वह लोगोंको धर्मका उपदेश देने लगा और कहने लगा कि सग्रन्थ या सपरिग्रह अवस्थामें निर्वाणकी. प्राप्ति होती है । अपने अपने ग्रहण किए हुए पाखण्डक सहश उसने और उसके अनुयायियोंने शास्त्रोंकी रचना की, उनका व्याख्यान किया और लोगोमें उसी प्रकारके आचरणकी प्रवृत्ति
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'चलादी ' वे निर्मथ नार्गको दूषित बतलाकर उसकी निदा और अपनी प्रशंसा करने लगे । ....... अव वह जो शांति आचार्यका नीव व्यंतरदेव हुआ था, सो उपद्रव करने लगा और पहने लगा कि तुम टोग जैन धर्मको पाकर मिध्यात्द मार्गपर मत चलो इससे इन सबको पड़ा भय हुआ और वे उसकी सम्पूर्ण द्रव्योसे संयुक्त अष्ट प्रकारकी पूजा करने लगे । वह जिनचंद्रकी रची हुई या चलाई हुई उस व्यंतर देवकी पूजा आज भी की जाती । आन
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भगवान महावीर
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