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________________ कालचका पण्डित समा, वे चंद्रमुखी रानियां, वह उन्मत्त रानपुत्रोंका समूह, वे वन्दीनन और वे कथाएँ ये सब विषय जिसके प्रभावसे स्मृति पथको प्राप्त होगए, उस कालचक्रको नमस्कार है।" वीर वाणीमें कहा है काल अनन्त है । परन्तु इसके अन्तर्गत कितनेक विभाग हैं । प्रत्येक विभाग ( काल ) के दो युग हैं । (१) अविसर्पिणी अर्थात् वह युग निसमे धर्मका ह्रास होता जाता है और अन्तमें निसमें संसारके भीतर अधर्म और अमका साम्राज्य जम जाता है । इस युगमे प्रत्येक शुभ वस्तुकी अवनति होती है और सत्य Muth ) को लोप होनाता है। और (२) उत्सप्पिणीयात् वह युग जिसमें धर्षकी उन्नति होती है, सत्यका कोश होता है । यह दोनों युग प्रत्येक छ कारण (Ages) में विभक्त हैं जिनका समय विभाग एक दूसरेसे विभिन्न और वह सदैवके लिए उसी प्रकार है-किञ्चित भी घट बढ़ नहीं सका और न उनके क्रममें किसी प्रकारका अन्तर आसक्ता है। इस प्रकार वर्तमान युग--अर्धकल्प अविसर्पिणीके छह काल हैं। (१) सुखमा-सुखमा अर्थात् वह काल जिसमें खूब सुख होता है। (२) सुखमा, वह काल जिसमें सुख होता है (३) मुखमा-दुखमा वह काल जिसमें सुख होता है और साथमें कुछ दुःख भी होता है। (४) दुःखमा-सुखमा; वह काल जिसमें दुःख होता है, पर साथमें किञ्चित् सुख भी होता है। (५) दुःखमा; वह काल जो दुःख पूर्ण होता है। यही वर्तमानमें चालू काल है। इसको आए अनुमान २४०० वर्ष गुजर चुके हैं । (६) दुःखमा दुःखमा, वह कालं जिसमें महान् दुःख होगा। दूसरे युग उत्सर्पिणीके
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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