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________________ श्री पार्श्वनाथजी। श्री पार्श्वनाथजी। 'बृहत्फणामलमण्डपेन यं स्फुरत्तहित्पिश्चो पसभिणाम् । जुगृह नागो धरणो घराघरं विरागसन्ध्याताडद म्युदो यथा १३२॥ - बृहत्स्वयंभू स्तोत्र। " उपसर्ग युक्त नो पार्श्वनाथ है उसके धरणेन्द्र नामके सर्पराजने अपनी पीली विनलीकी भांति चमकते हुए कांतिवान फण समूहसे वेष्टित किया है ( अर्थात् उपसर्ग दूर किया है। निस प्रकारसे मानो संध्याकी लालिमा नष्ट हो जाने पर उसमें जो पीत विद्युतसे मिला हुआ पीत मेध पर्वतको आच्छादित करता है।" __ श्री महावीर भगवानसे २५० वर्ष पहिले २३ वें तीर्थक्कर काशीके अधिपति अश्वसेनके पुत्र श्री पार्श्वनाथ स्वामी हुए थे। उन्हीका उल्लेख उपर्युक्त श्लोकमें है कि जब आप बरेली जिले में अवस्थित आंवलाके निकट आधुनिक अहिच्छेत्र (रामनगर) स्थानपर शुक्रध्यानमें ध्यानारूढ़ थे तब कमठके नीव देवने अहङ्कार वश क्रोधित हो आपपर उपसर्ग किया था। कारण एक दफेका पूर्व वैर था, - कमठ तापसके शरीरमें लकड़ सुलगाए पंचाग्नितप रहा था। उस लकड़के भीतर खोखालमें एक सर्पयुगल अवस्थित था । तापसको “उनका भान नहीं था। प्रभूपार्श्वनाथ नो तीन ज्ञानके.धारी ये उपरसे विहार करते निकले और तापसकी इस अज्ञानता और - सर्पयुगलकी अकाल मृत्युका चितवनकर उसको यह भ्रम बतलाते
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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