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तीर्थकर कौन है? आयु, नाम, गोत्र ये आठ कर्म हैं। इनमेंसे पहिले चार कर्मोको धातिया (आत्माके अनन्तज्ञान, सर्वज्ञत्व, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख अनन्तवीर्यको आवृत करनेवाले ) और शेष चारको अघातिया कर्म कहते हैं । तपके प्रभावसे जिस समय यह आत्मा घातिया कर्मोको नष्ट कर देता, उस समय उसके पूर्वोक्त चारों गुणोंका आर्विभाव होता है । उससे वर्तमान, भूत, भविष्यत् कालके सपूर्ण पदार्थोको आत्मा युगपत जानता और रागद्वेष विहीन ( वीतराग) जाता है। ऐसे आत्माको अर्हन्त ( अर्हन्त ) केवली, सर्वज्ञ, वीतराग आदि नामोंसे पुकारते हैं। अर्हन्त ( केवली ) दो प्रकारके होते हैं । एक सामान्य, दूसरे तीर्थकर । तीर्थकर केवलियोके केवलज्ञान . होनेसे पहिले गर्म, जन्म और तपके समय देवता स्वर्गसे आकर उत्सव किया करते हैं । फिर सामान्य केवलियोंके केवलज्ञान होते समय ही देवता उत्सव करते हैं । जिस समय केवलज्ञान होता है, उस समय कुवेर इन्द्रकी आज्ञासे समवशरण ( धर्मसभा ) की रचना बनाते हैं । उसमेंसे एकमें मुनि, एकमें आर्यिका, एकमें श्राविका, एकमें श्रावक, एकमें पशुपक्षी, ४ में चारों तरहके (भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक) देव, और चारमें चारों प्रकारकी देवाङ्गनाऐं बैठकर भगवानका पवित्र उपदेश सुनते हैं। भगवानके विराजनेका एक खास स्थान होता, निसे गन्धकुटी कहते हैं । कुवेर रत्नमय सिहासन पर सुवर्णके कमल रचता है. भगवान उस पर भी चार अङ्गुल अन्तरिक्ष विराजते हैं। देव उनपर चवर दोरते हैं, कल्पवृक्षोके फूलोकी वर्षा होती है। देवोद्वारा बनाए गए दुन्दुभि बाजोके शब्दोंसे आकाश पूर्ण होजाता है। उस समय