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भगवान महावीर ।
जैन विचारकके वैज्ञानिक मस्तिष्क में इसकी महत्ता नहीं है। उसके निकट तो जीवित पदार्थ जीव, मृत पदार्थ पुद्गलसे नितान्तं विभिन्न और विच्छिन्न है। दोनो पदार्थ एक दूसरे से इतनी विभिन्नता रखते हैं कि चाहे जैसा ही सैद्धांतिक गोरखधन्धेका पेच क्यों न हो वह दोनोंका एक में समावेश नहीं कर सक्ता । नीव और अजीव
दोनों ही दो विभिन्न, अकृत्रिम, नित्य सत्तात्मक पदार्थ हैं। फिर
भी जैनधर्मके अनुसार केवल एक ही आत्मा नही है बल्कि अनन्त आत्माऐं हैं । एक मजिष्ट्रेटकी आत्मा उस कैदीकी आत्मासे विलकुल दूसरी है, जिसको वह सजा दे रहा है। किन्तु सर्व जीवोंका असली स्वभाव एक समान है । जब योग और सांख्य दर्शनोंकी तुलना जैनधर्मसे करते हैं तो दोनों ही जैनधर्मसे इतने सहमत हैं कि आत्माकी सत्ता और अनन्तराशिको स्वीकार करते हैं और एक विभिन्न अचेतन शक्तिके अस्तित्वको मानते हैं । परन्तु सांख्य दर्शनमे कोई ऐसा उद्देश्य नहीं माना गया है जिसके प्रति मनुष्य प्रगतिशील हो । तब जैनी अर्हत् पढ़को अपना उदेश्य मानते हैं 'और पाताञ्जलि परमात्मपदको । जैनधर्म वैशेषिक मतके समान ही अगु, काल और आकाशको अकृत्रिम और नित्य मानता है। और जैसे न्याय दर्शनमे विविध नैयायिक सिद्धान्त माने गए है वैसे ही जेनधर्ममें भी विविध न्याय सिद्धान्त धार्मिक सिद्धातोंको व्यक्त करनेको व्यवहृत किए जाते हैं । परन्तु जैन न्यायमें अपने मुख्य 'विशेषण भी हैं । और उसे अपने स्याहाट सिद्धांतपर वस्तुतः गवं करना चाहिए जिससे कि जैनधर्मकी महत्ता न्यायवादमें भी जाती है । इम प्रकार हम देखते हैं कि जननमें बहुतसी
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