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जैनधर्मका महत्व और उसकी स्वाधीनता । ४५
काण्डका निषेध किया है । परन्तु उसने बौद्धोंके समान ही चार्वा - कोंका घृणित दुराचार नीच दृष्टिसे देखा है। जैनधर्मका कहना है कि हमारे इन सुख व दुःखमय दशाओंके कारणभूत हमारे ही कर्म हैं । उसी तरह वह अहिंसा और त्यागके सिद्धान्तोंको मानव चारित्रके उत्तम अंग बतलाता है । जैनधर्मके अनुसार तपश्चरणका उद्देश्य बौद्धोके उद्देश्यसे निहायत विपरीत है। एक जैनीके निकट उस तपसे भाव आत्माकी पूर्णता और शुद्धता प्राप्त करनेका होगा। जबकि बौद्धके निकट इसके विपरीत आत्माके अभाव में ! जैनी आत्माको नित्य और अकृत्रिम मानते हैं । जीवद्रव्य एक नित्य और अकृत्रिम सत्तात्मक पदार्थ है । भले ही वह जन्म मरण धारण करता है और दुःख व सुख अनुभव करता है पर उसके यथार्थ गुण अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्तसुख हैं। इस प्रकार जैनधर्म और वेदान्त दोनों ही बौडोके सैद्धान्तिक क्रियाकाण्डका निषेध करते हैं । और आत्माकी नित्यात्मक सत्ताको स्वीकार करते हैं । परन्तु अब दोनों धर्म एक दूसरेसे विपरीत होजाते हैं । वेदान्ती केवल आत्माकी सत्ता स्वीकार करके ही संतोष धारण नही कर लेता, बल्कि अगाड़ी बढ़कर उसे संसारभरकी आत्मा व्यक्त करता है । वेदान्तदर्शन के अनुसार समस्त चेतन अचेतन पदार्थोंसे पूर्ण जगत एक और समान सत्ताका ही विकाश है । "मैं वह हूं। सांसारिक शक्ति जो मुझसे बाहर है और जो मेरा सामना करती है, मेरेसे भिन्न और स्वतंत्र सत्ता नही है । केवल एक ही यथार्थ सत्ता है । और आप, 1 मैं व अन्य चेतन पढ़ार्थ एवं समस्त अचेतन पदार्थ इसी एक सत्तात्मक सत्ताके रूप हैं । " यह सिद्धान्त यद्यपि उच्च है किन्तु