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परिशिष्ट न०२० हो कितनेक आर्यगण जन्ममरणके झूले से छूटनेके लिए-मोक्ष पानेके लिए विविध प्रयत्न करते हैं। कर्मकी चाबीको किसी तरह खपादेनेके यह प्रयत्न करते हैं |....महावीरस्वामी इसी प्रकृतिकी एक प्रतिमा हैं। बुद्धकी प्रकृति इससे भिन्न है । पहिले जन्मकी
और मृत्योपरान्त दूसरी स्थितिकी चिन्ता करना उसके निकट आवश्यक नहीं । जन्म नो दुःखरूप होय तो फिर इस जन्मकेदुःखतो सहन हो गए। पुनर्जन्म यदि होता होगा तो वह इस जीवनके सुस्त और दुष्कृतके अनुसार होगा। इस लिए यही जन्म सर्वका
आधार है । बुद्धने इसी विश्वासके अनुसार वर्तमान दुःखकी स्थितिको दूर करनेके प्रयत्न किए। और अपने अष्टांगिक मार्गका उपदेश दिया।" (देखो बुद्ध अने महावीर १०५-१०९)
परिशिष्ट नं०३। महावीरस्वामीकी सर्वज्ञताके प्रमाण ।
भगवान महावीरखामीके जीवनपर अब इतना प्रकाश पड़ चुका है कि उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्वमें अब किसी विद्वान्को संदेह नहीं रहा है। यह भी पूर्णतः सिद्ध हो गया है कि महावीरखामी जैन धर्मके स्थापक नहीं थे, किन्तु एक सुप्रचलित धर्मके नायक थे। वे जैनियोंके अन्तिम तीर्थकर थे। 'तीर्थकर ' वही पुरुष होता है जो सर्वज्ञता प्राप्त कर धर्मोपदेश करे और चार प्रकारके संघकी व्यवस्था करे। महावीरस्वामी सर्वज्ञ थे, इस व्याख्यानकी पुष्टिमें जैन साहित्यमें इस विषय के स्पष्ट उल्लेखोंके अतिरिक्त एक प्रबल और परोक्ष प्रमाण यह है कि जैन सिद्धान्त या दर्शनमें
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