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वैराग्य और दीक्षाग्रहण |
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वे उनमें संलग्न नहीं थे । उनको विश्वास था कि जीवनकी शुद्धावस्थाका अनुभव करना जीवनोद्देश्य है । और सांसारिक धनसम्पदा बाह्य वस्तुऐं संसार परिभ्रमणकी कारण हैं। इसी भावका ध्याने रखते हुए उन्होने अपने तीस वर्ष श्रावककी दशामे व्यतीत कर दिए थे । इसी समय में उनके पिताने उनसे विवाहक लिए कहा था परन्तु आपने इन्द्रिय सुखोकी अनित्यताका विचार करके उनके इस उद्देश्यको स्वीकार नही किया था। एक दिवस जब आप अपनी आत्माका ध्यान कर रहे थे, तब सहसा आपको वैराग्य होगयाआप विषयोंसे विरक्त होगए। आपको अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण हो आया। आपने नान लिया कि उद्धत इन्द्रियोंके विषयोंकी तृप्ति कभी नहीं होनेकी और अपने निर्मल अवधिज्ञानसे अपनी आयुकी स्थिति भी जान लो, इन निमित्त करणोको पाकर उन्होंने सुनिव्रत धारण करनेका दृढ़ निश्चय कर लिया । यद्यपि आप अभी यौवना'वस्था में ही थे । सुतरां उन्होने अपनी आत्मग्लानिमें विचारा कि " मैं तीन ज्ञान नेत्र रखता हूं, आत्मज्ञानी हूं, तो मैने मूर्खके समान इतना काल वृथा ही गृहस्थाश्रममें ठहरकर खो दिया । " इस तरह घरको जेलखाना जानकर उसे राज्यलक्ष्मीके साथ छोडकर वनमें तपके लिए जानेका प्रभुने परम उद्यम कर लिया ।
आपके माता पिताओने जब आपका यह निश्चय सुना, तो बड़े व्याकुल और विह्वल होगए और आपको राजषी सम्पत्तिका न त्याग करनेकी सम्मति देने लगे । रानी त्रिशलादेवी स्वभावसे भाववत्सला - कोमल हृदयकी थी । वे अपने पुत्रको इस तरह समझाने लगी- " प्यारे पुत्र राजकुमार वर्द्धमान ! तुम अभी युवक