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भगवान महावीर ।
हो। तुमने कभी भी सूरजकी गर्मी सर्दी नहीं सही है। तुम कैसे धूपकी तपसको सहन कर सकोगे ? तुम्हारा सुकुमार शरीर और कोमल अवयव दिगम्बरीय दीक्षाके कठिन परीषहोको नहीं सह सकेंगे ! तुम तो राज्यकीय महलोंमें रहो और पिताजीको राज्यमार संभालने में सहायता दो। वैसे मैं जानती हूं कि वत्स ! तुम्हारा जन्म संसारके सामान्य मनुष्योंकी भांति इन्द्रियतृप्तिमे ही सुख माननेको नहीं हुआ है। तुम जगतको विषयवासनाके कूपसे निका-लने, प्रत्येकको स्वतंत्रताका पाठ पढ़ा उसे स्वावलम्बी बनाने और
लोगोंको यह बतानेके लिए कि मनुष्य निज आत्माका आश्रय लेकर अपनी गुप्त शक्तिको प्रकाशमें लाकर ही खाधीनता स्वतंत्रत्ता - मोक्ष पासक्ता है; अवतीर्ण हुए हो । परन्तु नंदन | अभी तुम्हारी अवस्था दुर्धर तपश्चरण करनेके योग्य नहीं है । परन्तु भगवान - महावीर अब रुकनेवाले नहीं थे । उनके वैराग्यको देवोंने आकर और पुष्ट कर दिया था । वे मातासे इस प्रकार उत्तरमें
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लगे कि “ पूज्य मातुश्री !. संसार इन्द्रजालवत् है, इसकी वस्तुऐं सांसारिक मोहान्धव्यक्तियोंको देखनेमें अपनी असलियतसे विभिन्न दीखतीं हैं । इसलिए मनुष्यको रागको छोड़कर सन्यास धारण करना चाहिए, जिससे मोक्षकी प्राप्ति हो । नगके दृश्य "पदार्थ जलबुदबुदकी तरह नष्ट होजानेवाले है । रोग, शोक, परिताप सदा मनुष्यके साथ लगे रहते हैं । ये शारीरिक सौन्दर्यको नष्ट कर देते है । मृत्यु हरघड़ी व्याधि भांति पीछे लगी रहती है और अवसर पाते ही फौरन शस्त्रप्रहार कर देती है, फिर आत्माके साथ कुछ नहीं रहता, रहता है तो केवल अपना किया हुआ