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वैराग्य और दीक्षाग्रहण।
भला या बुरा कार्य । अस्तु प्यारी माता ! मेरा वनमें जाकर आत्मध्यानमें लीन होना परमोपादेय कर्तव्य है।"
पुत्र विछोहके भयके मोहसे व्याकुल माता प्रभूको पहिले तो छोड़ न सकी, किन्तु प्रभूके हदनिश्चय और संसारकी नश्वरता समझाने पर उन्होने अपनी मिथ्या भ्रान्तिको त्याग दिया। भगवानने तीस वर्षकी अवस्थामें निर्ग्रन्थ मुनिपदको धारण किया।
और उप्ण सुवर्णके समान भगवान्का शरीर नग्न अवस्थामें अपने स्वाभाविक तेन और प्रकाशसे सूर्यके समान शोभता हुआ।
जिस समय आपने गृहस्थावस्थाको त्यागनेका निश्चय कर लिया था, उस समय कहते हैं कि आपने अपनी. सर्व वस्तुओंका दान कर दियाथा।अपनी विशालसम्पदाको याचकोमें वितीर्ण करदिया था। बादमें, श्रेष्ट रत्नमई चन्द्रप्रभा नामकी पालकीमें आरुढ़ होकर भव्यजनोंसे वेष्टित वीरनाथ भगवान कुण्डलपुरके बाहर निकले। नागखंड (ज्ञात्रिखंड) वनमें पहुंचकर आपने पालकीको रुकवाया।
और पालकीमेसे उतरकर भगवान अत्यंत निर्मल स्फटिकमाणमय पाण्डुशिला पर विराजमान हुए थे। इस शिलाके निकट ही अशोक • वृक्ष था। भगवान उसी वृक्षके नीचे इस शिलापर उत्तर दिशाको मुखकर बैठे और सर्व आभूषणो व वस्त्रोंको उन्होने त्याग दिया। फिर उन्होंने सिद्धोंको नमस्कारकरके परिग्रहका त्यागकर २८ मूलगुणोंको धारण किया था और पंचमुष्टि केशलुंचन किया था। (जैन साधुओंके लिए यह नियम है कि वे हाथसे पांच दफेमें अपने बालोको उखाड़कर फेंक दें। वे हिन्दू सन्यासियोकी तरह बाल बनवाते नहीं हैं। ) इस प्रकार मगसिर शुक्ला दशमीको भगवानने