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भगवानका दिव्योपदेश। पश्चात् आत्मामें कर्ममेलको एकत्रित होनेसे रोकनेवाला आसवका प्रतिकारक संवर होता है । प्रत्यक्षतः जबतक आत्मासे कर्मबन्धकी पुद्गलवर्गणाएँ दूर नहीं कर दी जायगी, तबतक मुक्ति 'प्राप्त नहीं होसती है। अतः संवर अर्थात् हर समय आत्मामें
आनेवाली कर्मवर्गणाओंको आखवित न होने देना मुक्ति प्राप्त करनेके मार्गमें प्रथम पादुकाकेरूपमें है। अस्तु, जब पुढेलवर्गणा
ओंका आश्रव होना रुक जाता है, तब दूसरी श्रेणीमें उन पूर्वसंचित कर्मवर्गणाओंको एक एक कर निकालना रह जाता है। यही दूसरी श्रेणी निर्जरा तत्व है। जब समस्त कर्मबंध तोड़ दिए जाते हैं और आत्माका पुद्गलसे किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रहता तब आत्मा अपने खाभाविक गुण खतंत्रता, सुख और केवलेज्ञानका अनुभव करती है; अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेती है।'
इस प्रकार पुदलं और मूर्तीक पदार्थोंसे वेष्टित संसारके नीव चेतन पदार्थ हैं । इनमें पूर्णपने और सर्वज्ञताकी शक्ति विद्यमान है । ये शक्तियां उन्हें अपने सम्यक्वर्तावसे प्राप्त होती हैं।' इन जीवोके अनन्त दर्शन और अनन्त सुखसंयुक्त पूर्णपनेका अभाव स्वोपार्जित कर्मोदयके कारण हुआ है अर्थात् इन नीवोंने खतः ही पर पदार्थों को अपनाया है, जिसके कारण वे अपने ही कृत्योंक्श इन कर्मरूपी पुद्गलवर्गणाओंसे बांधे गए हैं और अपने यथार्थ खरूपसे विमुख हैं । अतः अब केवल यही आवश्यक है कि नीव अगाड़ी अन्य पुद्गल वर्गणाओंका समावेश न होने दे, और जो. पूर्वसंचित वधस्वरूप सत्तामें हैं उनको विध्वंश करदे । जिस समय यह किया उसी समय आत्माकी स्वाभाविक सर्वज्ञता और पूर्णपना