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________________ छ विविध-उपसर्ग - वर्णेन । १०३ होकर चलीं गई । सत्य है - जिस व्यक्तिकै हृदय पर वासनाओंका कुछ प्रभाव नहीं होता, जिसके हृदय में सुख या दुख खेळवली पैदा नहीं करसक्ते; जिसके अविचल मेरुतुल्यं मनको संसारके बड़े बड़े झंझावात नहीं हिला सक्ते ऐसे अचल ध्यानी वज्ञशरीरी वीरके मनको चलायमान करने के प्रयत्न में देवांगनाऐं हताश न होतीं तो क्यों होती । (देखो जैनसंसार वर्ष १ अङ्क ४ ) दूसरा कथानक इस प्रकार है कि दीक्षा ग्रहणकर प्रभू वीर विचरते हुए कुमारगांवके निकट आए, और नासाग्रदृष्टि लगा, हाथ लंबेकर दोनों पैरोंके बीचमें चार अंगुलकी दूरीरख अचल हो, कायोत्सर्ग कर ध्यान करने लगे । पासही में एक खेत था । किसान खेतको जोतकर सांयकालके समय बैलोंको महावीर भगवानके निकट छोड दूध दुहनेके लिए अपने घर चला गया । पीछेसे बैल कहीं जंगलमें चले गये, क्योंकि प्रभू तो कायोत्सर्ग करके खड़े थे अतः उन्हें क्या मतलब था कि वे किसीको देखते या किसीके बैलोंकी रक्षा करते । किसान लौटकर आया तो वहां बैल दिखाई नहीं हुए। उसने प्रभूसे पूछा परन्तु कुछ उत्तर न मिला । इसीलिए किसान उन्हें खोजने के लिए जंगलमे चला गया। बेचारा रातभर बैलोंकी खोज में भटकता रहा, परन्तु कही बैलोका पता नहीं चला। अतः थककर पौफटनेके पहिले वापस लौट आया । वहां आकर क्या देखता है कि बैल महावीरखामीके पास चेठे हुए हैं। यह देखकर उसे बड़ा क्रोषं आया और प्रभूको कष्ट देनेको तत्पर हुआ । भगवानका स्मरण करते हुए सहसा यह बात इन्द्रको मालूम होगई । वह तत्काल ही वहां आया, और
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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