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"भगवान महावीर ।
यदि उन्होंने भी अपराधीको दोषी पाया तो 'सूत्रधार' के हवाले कर दिया, अन्यथा छोड़ दिया। सूत्रधारके अधिकारमें, प्राचीन' कानून और रिवाजका कायम - चालू रखना आवश्यक था । वे 1 अपराधकी विशेष छानवीन करने थे । यदि निर्दोष पाया तो छोड़ दिया अन्यथा अपराधीको 'अठ्ठकूलक' के समक्ष मेजं दिया । यह 'अटकूलक' एक प्रकारका न्यायालय (Judicial Institution) था जिसमे आठ न्यायाधीस आठो कुलके होते थे । यदि यह दोषीके अपराधसे सहमत हो गए तो उसे सेनापतिकें सुपुंद कर देते थे । सेनापति उपराजाको, और उपराजा राजाके सुपुर्द कर देता था । राजा यदि अपराधीको निरापराध पाता तो मुक्त कर देता । वरनं कानून और नजीरोंकी पुस्तकसे उसके अपराधका दण्ड निर्णय करता था । इस प्रकार उनके राज्यका प्रवन्ध था । प्रत्येक चातका इन्तजाम इस ही प्रजासत्तात्मक दरबारसे होता था. जिसके मेम्बर प्रत्येक वंशसे होते थे, और राजा कहलाते थे । इन राजाओंके अपनी निजी सम्पत्ति और पृथ्वी आदि भी होती थी । और सेनापतिं व भण्डारी भी होते थे। ऐसा प्रो० भाण्डारकर का मत है । जो संभवता ठीक जंचतः है । लिच्छवियोका अन्य राज्योसे भी विशेष सम्पर्क था। भगवेश श्रेणिककी महाराज्ञी चेलना लिच्छवी गणराज्य के मुख्वराजा चेटक्की पुत्री थी। इससे इनकी आपस में मित्रता थो । नल राजाजांचे श्री समग्नेका व्यवहार था । कौशलके राजा प्रत वजीत से भी मैत्री थी । लिच्छाविचोका अन्त मगधके राजा अजं न शत्रुद्वारा अगाट्री चलकर हुआ था। इसके उपरान्त्र मौथे सम्राट चन्द्रगुप्त तक इनका पता चलता है ।,,
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