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भगवानका दिव्योपदेश। २०३ क्योंकि उनकी सत्ता सिद्ध है। परन्तु संसारी जीव सदैवसे शरीर पुद्गलसे सम्बंधित है इसलिए अपने स्वाभाविक गुण अनन्तज्ञान, अनन्तवल और अनन्त सुखके उपभोगसे वंचित है। ___ जो संसारी आत्माएं चार गतियों देव, मनुष्य, नारकी और पशुमें भ्रमणकर रही हैं, उनके संसारी जीवनकी रक्षाके लिए दश प्राण हैंतीन बलपाण, पांच इन्द्रिय प्राण, एक आयुप्राण और एक उच्छास प्राण | कायबल, वचनबल और मनोबल तीन बलपाण हैं। पांच इन्द्रिय प्राण इस प्रकार हैं अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द । आयुप्राण जीवनकी उमर व्यक्त करता है। और उच्छासप्राण श्वासोस्वासकी क्रिया है। जिन संसारी जीवोके एक बल प्राण, एक इन्द्रिय प्राण, एक २ आयु और उच्छ्रासप्राण होते हैं वे स्थावर जीव कहलाते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर जीव हैं । अवशेषमें कमवार प्राणोंको रखनेवाले त्रस जीव कहलाते हैं। यह सैनी अर्थात् ज्ञानवान और असैनी अर्थात् ज्ञान जिनका मन्द पड़ा हुआ है ऐसे दो प्रकारके होते हैं।
जीवात्माके साथ जो पौद्भलिक संबन्ध है वह निर्जीव पदार्थ है, अनीव तत्व है, चेतना रहित है, और पांच प्रकारका है (१) पुदल (२) धर्म (३) अधर्म (४) आकाश और (५) काल । अनादिनिधन अक्रत्रिम संसारका कार्य इन पांच पौगलिक द्रव्यों और छठी (६) जीव द्रव्यके संयोगसे होता है। पुद्गलद्रव्य संसारकी श्रष्टिकी जड़ है। यह स्पर्श, रस, गंध, वर्णमय है जिनका शुद्धात्म द्रव्यमें अभाव है, पुद्गल परमाणुओ और स्कन्धोंमें विभक्त है। आकाश जीवादि पदार्थोको स्थान देनेके लिए आवश्यक है, तो