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भगयान महावीर । मिलनेको जा रही है । इस प्रकार संपूर्ण सृष्टिसौंदर्य मौजूद है तो. भी एक मनुष्य वृक्षके नीचे ध्यानस्थ खड़ा हुआ है वह किसी भी ओर नहीं देखता । एक दंपति सृष्टिसौदर्यका निरीक्षण करते खेलते हंसते उस शांति मूर्तिको ध्यानस्थ मूर्तिको देखकर चौंक पड़े !, स्त्री पुंछती है "प्रियतम, 'यह कौन है ? हा ! सुन्दर सौम्य युवा होनेपर भी इसने किस दुःखसे यह वनवास स्वीकार किया है?" पतिने कहा " प्यारी ! यह क्यो पुछती हो ? सारी सम्पत्तिको छोड़कर-राज्य लक्ष्मीको त्यागकर जगतके उद्धारार्थ योग धारणकर यह महात्मा दुःख-समूहोंका नाश कररहे है । एकान्तमे एकाकी रहन्नर सूक्ष्म विचार रूपी डोरीको आकाशकी ओर फेंककर संसारकी अशान्त-जलतीवलती आनाओके उद्धारके लिए-तारनेके लिए मानो पुल ही बना रहे हैं।" "अहा ! प्रियतम, समझी ,समझी, यह ' तो महाप्रमू-जग-उद्धारक महात्मा “वीर जिनेश्वर" है। हम इस प्रेमसागरके समान कब बनेंगे। " दंपति वीरप्रमू-भगवान महावीरके चरणोंपर नतमस्तक होते हैं । बारबार चरणो पर गमन करते • हैं, बारबार प्रसूके प्रफुल्लित कमल पदन देखकर पति मनमें
उल्हासित होरहे हैं।" - जैनहितेच्छुकी कवितासे
पाठकों, यह दिव्य दृश्य आनसे करीब २५०० वर्ष पहिलेका है । और इसी भव्य भारत महीका है। भगवान महावीर अपने श्रेष्ठ कल्याणकारी तीर्थकालमें प्रवर्त रहे थे । स्वध्यान अवस्थामे लवलीन हो उन्होंने दिव्य केवलज्ञान प्राप्त किया था और संसाराताप तप्त जीवोको परमानन्द पूर्ण मोक्षका मार्ग बतलाया