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भगवान महावीर ।
चंद्रलेखाने अर्धफालक साधुओं के पास
राजाको ब्याही गईं। विद्याध्ययन किया था, इसलिए वह उनकी भक्त थी। एक बार
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उसने अपने पतिसे उक्त साधुओं को अपने यहां बुलानेके लिए कहा। राजाने बुलानेकी आज्ञा दे दी । वे आये और उनका खूब घूमघामसे स्वागत किया गया । पर राजाको उनका वेष अच्छा न मालूम हुआ। वे रहते तो थे नग्न, पर ऊपर वस्त्र रखते थे । रानीने अपने पति हृदयका भाव ताड़कर साधुओंके पास खेतचत्र पनि के लिए भेज दिए । साधुओने भी उन्हें स्वीकार कर लिया । उस दिनसे वे सब साधु श्वेतांबर कहलाने लगे ।, इनमें जो साधु प्रधान था उसका नाम जिनचन्द्र था ।"
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यह उपर्युक्त वर्णन जैनहितैषी भाग १३ अंक ९-१० के ३९८-४०० पर वर्णित है । और इस पर सम्पादक महोदयकी विवेचना है कि " अब इस बातका विचार करना चाहिए कि भावसंग्रहकी कथाने इतना परिवर्तन क्यों किया गया । हमारी समझमें इसका कारण भद्रवाहुका और श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पतिका समय है । भावसंग्रहके कर्ताने भद्रवाहको केवल निमितज्ञानी लिखा है, पर रत्ननंदि उन्हें पंचम श्रुतकेवली लिखते है | दिगम्बर ग्रंथोके अनुसार भद्रबाहु श्रुतकेवलीका शरीरान्त्र चीरनिर्वाण संवत् १६२ मे हुआ है और श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति वीर नि० सं० ६०३ (विक्रम संवत् १३६ ) में हुई है। दोनों बीचमें कोई साढे चारसो वर्षका अन्तर है । रत्ननन्दिनीको से पूरा करनेकी चिन्ता हुई पर और कोई उपाय न था, इस कारण उन्होंने भद्रबाहु समयमे दुर्भिदांके कारण जो मत चला था, उसको