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॥श्रीजिनाय नमः॥
(गुर्जरनाषांतरोपेतः) ॥ श्रीलोकप्रकाशः जाग ३. ॥ __ (क्षेत्रलोकप्रकाशः परिछेद १.)
पल८
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(मूलकर्ता-नपाध्याय श्रीविनयविजयजी) नाषांतरकर्ता तथा छपावी प्रसिद्ध करनार, ___पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज.
(जामनगरवाला)
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वीरसंवत् २४४२. विक्रमसंवत १७५.
सने १७१६. जामनगरजैनभास्करोदय प्रिन्टिंग प्रेस.
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अनुक्रमणिका.
॥ जंगणीसमो सर्ग |
नीलवानपर्वतनुं वर्णन .... तेनां नव शिखरोनुं वर्णन ... केसरीहद तथा नारीकांताच्यादिक नदीननुं वर्णन रम्यकक्षेत्रनं वर्णन रुक्मिपर्वतनुं वर्णन ... तेना या शिखरों वर्णन महापुं कहद तथा नरकांताध्यादिक नदीनुं वर्णन ११
१०
१४
हैरण्यवंत क्षेत्रनुं वर्णन... विकटापा तिपर्वतनुं वर्णन.... शिखरीपर्वत ने तेनां शिखरो पुंमरी कहद, तथा नदीन.... ऐखतक्षेत्र छाने तेना व नागो जंबूद्दीपना पर्वतो, शिखरो, हृदो तथा नदीन. जंबूदीपना सूर्यादिकनी संख्या
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॥ वीसमो सर्ग ॥
विषय.
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सूर्यनी गतिनी प्ररूपणा... तेना पांच अनुयोगद्वारो...
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पृष्ट.
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१५
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७६
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() विषय. सूर्यनां मांझलां ... ... सूर्यना मंडलोनी थवाधा... ... सूर्यना बाह्यांतरमंडलो...... .... सूर्यनां उत्तरायन दक्षिणायन ... सूर्यनुं तापक्षेत्र... ... ... सूर्यमंडलना घेरावा.... ... सूर्यनी दृष्टिमर्यादा... सूर्यनुं नजदीक तथा दूर देखावू ... चंद्रनी गतिनी प्ररूपणा.... चंद्रनी मंडलगतिनी प्ररूपणा ... चंद्रनी दृष्टिमर्यादा चंनी वृधिहानि ग्रहणनी समज नदात्रोनुं वर्णन... नदात्रोना अधिष्टायकदेवो ताराजनुं स्वरूप नदत्रोना याकार कुल उपकुल अने कुलोपकुलनदात्रो
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१५४
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विषय. नदात्रोतुं प्रयोजन ... ... ग्रहोनू वर्णन... ... ...
॥ एकवीसमो सर्ग ॥ लवणसमुऽनुं वर्णन ... ... लवणसमुद्रनुं घनगणित... ... लवणसमुजनां दारो ... लवणसमुऽमां भरतीजुटनुं वर्णन.... पातालकशोन स्वरूप ... लवणसमुद्रनी जलशिखा... ... वेलंघरदेवो.... ... वेलंधरदेवोने रहेवाना पर्वतो ... गौतमद्दीपनुं वर्णन ... ... क्रीमावासञ्चमिगृह ... ... चंद्रसूर्यना द्वीपो खणसमुऽना चंडसूर्यविगेरे लवणसमुन्ना मत्स्योनी कुलकोटी...
॥ बावीसमो सर्ग॥ धातकीखंडनुं वर्ण...
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२४
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(४) विषय.
पृष्ट. इषुकारपर्वतो तथा क्षेत्रो...
श्एण वैताब्यादिकपर्वतो तथा नदीन .... ३नए धातकीखंडमाना वनमुखो... नऽशालादिक वनोनुं वर्णन... ... कालोदधिसमुद्रनुं वर्णन...
॥ त्रेवीसमो सर्ग ॥ पुष्करवरद्दीपनुं वर्णन... मानुषोत्तरपर्वत तथा तेनां शिखरो ... ते दीपनां क्षेत्रो पर्वतो तथा नदीन.... ३१७ मनुष्यक्षेत्रनी सीमा... मनुष्यक्षेत्रनुं संग्रहवर्णन... ... तेमानां शाश्वतां चैत्यो तथा प्रतिमान
॥ चोवीसमो सर्ग ॥ स्थिरसूर्यादिकनुं वर्णन.... ... ... ४३५ पुष्करोद महासागर... .... ... ४७ वारुणीवर हीप तथा वारुणीवरोद महासागर ... ४२७ दीवरादिसमुद्रो तथा दीरोदधियादिक महासागरो ४६० नंदीश्वरदीप.... ...
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४०४
४०७
४२०
... ४६७
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विषय. अंजनाजलपर्वतो, वावडीन तथा दधिमुख अने रतिकर पर्वतो... ... ... ... पर्वतोपरनां जिनमंदिरो.... ... .... ४६ चंऽवामा रहेली मोतीननी मान..... ... जिनमंदिरोमां रहेली प्रतिमान... ... देवीननी राजधानीन... नंदीश्वरोद महासागर तथा घरुणादिक दीपो ५११ कुंमलद्दीप तथा कुंडलगिरि... ... बीजा द्वीपसमुद्रो... ... ... नाषांतरकारनी प्रशस्ति... ... ...
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॥ श्रीजिनाय नमः ॥ ॥ श्रीचारित्रविजयगुरुभ्यो नमः ॥ ॥ अथ श्रीक्षेत्रलोकप्रकाशः प्रारभ्यते ।
(गुर्जरनाषांतरोपेतः)
॥ द्वितीयः परिजेदः ॥ ( मूलकर्ता-उपाध्यायजी श्रीविनयविजयजी)
भाषांतरकर्ता तथा उपावी प्रसिद्ध करनार पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज. जामनगरवाला.
॥ अथैकोनविंशः सर्गः प्रारम्यते ॥ अथो महाविदेहाना-मुदक्सीमाविधायकः ।। धरो श्रीशांतिनाथस्य नवाननेंदु- याऊनानां प्रमदाब्धिवृ. ध्यै ॥ यत्रोदिते वै परतीर्थनाथ स्तेनानिलाषाः प्रययुर्वि नाशं ॥ १ ॥ सत्यासत्योरुग्धोदककलविधिविधंसराजा. मजेन । हीरालालेन नत्या म्वपरहितकृते गुर्जराख्योरु. वाचा॥ अर्थो मुग्धप्रबोधप्रकटनसबलो गुंफ्यते न्याययुक्त्या । ग्रंथस्यास्येढ चारित्रविजयगुरुतः सुप्रसादान्मनोज्ञः ॥शा
॥ हवे नगणीशमा सर्गनो प्रारंन थाय . ॥ हवे महाविदेहनी नत्तरसीमा करनारो वैर्यमणि
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नीलवानाम । स्यादैसूर्यमणीमयः ॥ १ ॥ स्वामिनो नील. वान्नाम्नो । योगात्पश्योपमस्थितेः॥ नीलवानित्यसौ ख्यातो । यद्देदं नाम शाश्वतं ॥ २॥ जंबूद्वीपेऽन्यत्र चास्य मेरोरुत्तरतः पुर। ॥ वक्ष्यमाणसुराणाम-प्येवं पुर्यायुरा • दिकं ॥ ३ ॥ दक्षिणोत्तरविस्तीर्णः । स पूर्वपश्चिमायतः ।। सर्वमस्य निषधवद् । झेयं धनुःशरादिकं ॥ ४ ॥ किंतु जी. वा दक्षिणस्या-मुत्तरस्यां शरासनं । दक्षिणानिमुखो बाण । एवमग्रेऽपि भाव्यतां ॥ ५ ॥ दीप्रप्रभैरयं कूटै-नवतिः नो बनेलो नीलवान नामे पर्वत . ॥ १॥ एक पट्योपमना आयुवाळा नीलवान नामना स्वामिना संबंधथी ते नीलवान पर्वत कहेवाय . अथवा तेनुं ते नाम शा. श्वतुं ने ॥२॥ या देवनी बीजा जंबूद्दीपमां मेरुयी नत्तरे राजधानी , तेमज हवे वर्णवाता देवोनी राजधानी तथा घायुादिक एवीजरीते . ॥ ३ ॥ ते पर्वत उत्तरदक्षिण पहोळो तथा पूर्वपश्चिम लांबो . तथा तेनुं धनुःपृष्ट अने शरादिक सघq वर्णन निषधपर्वतनी पेठे जाणवू. ॥ ४ ॥ परंतु दक्षिणतरफ तेनी जीवा, उत्तरमां धनुःपृष्ट, तथा दक्षिणतरफ बाण , अने एवीरीते आगळ पण भावी लेवं. ॥ ५ ॥ नव गुप्तिनवडे जेम ब्रह्म
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शोभितोऽजितः ॥ ब्रह्मवतश्रुतस्कंध । श्व गुप्तिनिरूपणैः ॥ ६ ॥ तत्र सिघायतनाख्यं । समुद्रासनमादिमं ॥ द्वितीयं नीलवत्कूटं । नीलवत्पर्वतेशितुः ॥७॥ ततः पूर्व विदे. हेश-सुपर्वैश्वर्यशालितं ॥ कूटं पूर्व विदेहाख्यं । तृतीयं परिकीर्तितं ॥ ७ ॥ शीताकूटं तुरीयं च । शीतानदीसुरी श्रितं ।। नारीकांत पंचमं त-नारीकांतासुरी श्रितं ॥४॥ केसरिहदवासिन्याः। कीर्तिदेव्या निकेतनं ॥ षष्टं स्पष्टं जिनप्रष्टैः । कीर्तिकूटं प्रकीर्तितं ॥ १० ॥ तथापरविदेहा. व्रतश्रुतस्कंध तेम था पर्वत तेजस्वी कांतिवाळा नव शिखरोवडे चारेबाजुथी शोजितो थयेलो . ॥ ६ ॥ ते. नमा पहेधुं समुद्रनी नजीक सिघायतन नामनुं शिखर बे, घने बीजं ते पर्वतना नीलवान नामना स्वामीनु नी. लवान नामनुं शिखर . ॥ ७॥ पजी पूर्व विदेहना स्वामीदेवनी ऋघियी मनोहर थयेळू पूर्व विदेह नामर्नु त्रीजु शिखर कहेवू . ॥ ॥ शीतानदीनी देवीथी था. श्रित थयेवु चोथु शीताकूट नाम, शिखर ने, तथा ना. रीकांता नामनी देवीथी आश्रित थयेवू पांचमुं नारीकांत नामनुं शिखर ने. ॥ ए ॥ केसरिहदमा रहेनारी की. र्तिदेवीना स्थानरूप जिनेश्वरोए स्पष्टरीते तुं कीर्तिकूट
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(४) ख्यं । कूटं सप्तममीरितं ।। सदापरविदेहेश-निर्जरस्थानमुत्तमं ॥ ११ ॥ रम्यकक्षेत्रनाथेन । रम्यकाख्यसुधानुजा ॥ अधिष्टितं यबिष्टेष्टै-स्तन्निष्टंकितमष्टमं ।। १२ ॥ तमा चानवमझानैः । कूटं नवममोरितं ॥ उपदर्शनसंझं तदुपदर्शनदैवतं ॥ १३ ॥ एषामाये जिनगृहं । शेषेषु पुनः . रष्टसु ।। तत्तत्कूटसमाख्यानां । प्रासादाः कूटनाकिनां ।।१४।।
नक्तवदयमाणकूट-प्रासादचैत्यगोचरं ॥ स्वरूपं हिमव. स्कूट-प्रासादजिनसद्मवत ॥ १५ ॥ अस्योपरि महानेकनामनुं शिखर कहेछ जे. ॥ १० ॥ हमेशां अपर विदेहना स्वामीदेवना नत्तम स्थानरूप अपरविदेह नामे सा तमुं शिखर कहेवू . ॥ ११ ॥ रम्यकक्षेत्रना स्वामी र. म्यक नामना देवथी अधिष्टित थयेबु आठमुं रम्यक नामे शिखर जिनेश्वरोए कहेतुं . ॥ १५ ॥ वळी नपद शन नामना देववाळू उपदर्शन नामे नवमुं शिखर के. वलझानीए कहेलु . ॥ १३ ॥ तेनमा पहेला शिखरपर जिनमंदिर ने, अने बाकीना आठ शिखरोपर ते ते शिखरसरखा नामवाळा देवोना प्रासादो . ॥ १४ ॥ कहेला अने हवे कहेवाता प्रासादो तथा चैत्योसंबंधि स्वरूप हिमवंतपर्वतना प्रासाद तथा जिनमंदिरसर ने.
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( ५ ) कास्ति केस रिहृदः ॥ निषधोपरिनागस्थ - तिगिन्छे खि सोदरः ।। १६ ।। प्रत्यंतसुंदराकार - केसराखी परिष्कृतैः ॥ शोभते शतपत्राद्यैः । ख्यातोऽयं केसरी ततः ॥ १७ ॥ दे निम्न हृदादस्मा - निर्गते कन्यके श्व | शीता च नारीकांता च । दक्षिणोत्तरगे क्रमात् ॥ १८ ॥ दाक्षिणात्यतोरणेन । निर्गत्य दक्षिणामुखी || शीता पूर्वविदेहांतवैति प्राक्पयोनिधिं ॥ ११५ ॥ विशेषतोऽस्याः स्वरूपं च प्रागुक्तमेव.
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॥ १५ ॥ या पर्वतपर एक मोटो केसरिहृद शोने बे. - ने ते निषधपर्वत पर रहेला तिमिचिहृदजेवोज बे ॥१६॥ अत्यंत सुंदर व्याकारवाळा केसराजनी श्रेणिथी वेरायेलां कमलयादिको ते पर्वत शोने बे. पने तेथी ते केसरी नामथी प्रख्यात श्रयेलो बे ॥ १७ ॥ या हृदमांथी कन्यानी पेठेशीता ने नारीकांता नामनी बे नदीन निकळेली वे, तथा तेन अनुक्रमे दक्षिण तथा उत्तरतरफ वहे वे ॥ १८ ॥ दक्षिणतरफना तोरणमांथी निकळीने दक्षिणसन्मुख वती ते शांता नंदी पूर्वविदेह: नी अंदर थने पूर्वसमुद्रने मले ते ॥ १७ ॥ या नदीनुं विशेष स्वरूप पूर्वेकहेतुं बे.
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नत्तराहतोरणेन । विनिर्गत्योत्तरामुखी ॥ नारीकांता स्वप्रपात-कुंडे निपत्य निर्गता ॥ २० ॥ दक्षिणार्धरम्यकस्य । विदधाना द्विधा खबु ॥ असंप्राप्ता योजनेन | माव्यवंतं नगं ततः ॥ ११ ॥ रम्यकस्यापरभागं । विधा कृत्वा परांबुधौ ॥ षट्पंचाशवलिनी-सहस्रैर्याति संश्रिता ॥ ५॥ अस्या वार्धिप्रवेशांत । स्वरूपमादोजमात । विज्ञेयं हरिसलिला-नद्या श्वाविशेषितं ॥ ३ ॥ हृदेऽस्मिन्मूलकमलं । चतुर्योजनसमितं ॥ तदर्धार्धप्रमा णानि । पद्मानां वलयानि षट् ॥ २४ ॥ पव्योपम स्थिति
नत्तरतरफना तोरणमांथी निकलीने उत्तरसन्मुख वहेती नारीकांता नदी पोताना प्रपातकुंममां पमीने, त्यांथी निकळी ॥ २०॥ दक्षिणार्धरम्यकक्षेत्रना बे विजाग करतीथकी, माव्यवंतपर्वतने एक जोजन दूर गेमीने ॥ ॥ १ ॥ त्यांथी रम्यकक्षेत्रना बीजा जागने बे नागमां वहेंची उपनहजार नदीनयी आश्रित अश्याकी पश्चिमसमुद्रमां जाय . ॥ २॥ हृदमांथी निकळवाबाद क समुडमां मळनांसुधीजें या नदीनुं स्वरूप कई पण फेर. फारविना हरिसलिला नदीनीपेठे जाणवं. ॥ ३ ॥ श्रा हृदमां मूळकमल चार जोजननुं ने, अने तेथी अरघां
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स्तत्र । कीर्तिता कीर्तिदेवता ॥ नवनादिस्थितिस्त्वस्याः । श्रीदेव्या व जाव्यतां ॥ २५॥ इति नीलवान् पर्वतः.
उत्तरस्यां नीलवतो। दक्षिणस्यां च रुक्मिणः ॥ राजते रम्यकदेोत्रं । रम्यकामरभर्तृकं ॥ २६ ॥ स्वर्णमा णिक्यखचितै- प्रदेशैर्मनोरमैः ॥ नानाकल्पडुमै रम्यतयेदं रम्यकान्निधं ॥ २७ ॥ परमायामरूपास्य । प्रत्यंचा हरिवर्षवत् ॥ किंवत्र सा दक्षिणस्या-मुत्तरस्यां शरासनं घरवां प्रमाणवाळां कमलोनांज वलयो ने. ॥ २४ ॥ ते कमलपर पढ्योपमना आयुवाळी कीर्तिदेवी कहेली ने, तथा तेणीना नवनयादिकनी स्थिति श्रीदेवीना भवन नीपेठे जाणवी. ॥ २५ ॥ एवीरीते नीलवान पर्वतर्नु व. र्णन कयु.
नीलवान पर्वतनी उत्तरे अने रुक्मिपर्वतनी ददिणे रम्यकनामे देव ने स्वामी जेनो एवं रम्यकदेव .॥ ॥ १६ ॥ स्वर्ण तथा माणेक जडेला मनोहर प्रदेशोवडे तथा विविधप्रकारना कल्पवृदोथी मनोहर होवाथी ते दत्रनुं नाम रम्यकक्षेत्र ने. ॥ २७ ॥ तेनी नत्कृष्टी लं. बाइपी जोवा हविर्षक्षेत्रनीपेठे ने, परंतु ते दक्षिणमा बे, अने उत्तरमां तेनुं धनुःपृष्ट . ॥ २० ॥ तेनां शर
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॥ २० ॥ षुवाहा क्षेत्रफला-द्यपीह हरिवर्षवत् ॥ दे. वानुभावकालादि-ग्वरूपं तहदेव च ॥ २५ ॥ क्षेत्रस्यास्य मध्यभागे। विभाजकोऽर्धयोईयोः ॥ माव्यवानिति विख्यातो। वृत्तवैताव्यपर्वतः ॥ ३०॥ माव्यवत्सदृशाका. रै-स्तहदेवारुणप्रनैः ॥ सदा राजन्नुत्पलाथै-माव्यवानिति कीर्त्यते ॥ ३१ ॥ जंबूढीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तु माव्यव. त्पर्याय इति नाम दृश्यते. प्रनासाख्यसुरस्तत्र | स्वामी पव्योपमस्थितिः । मेरोरुत्तरतस्तस्य । पुरी नीलवदादिवबाहा तथा क्षेत्रफलादिक पण हविर्षनीपेठे . तेमज क्षेत्रनो प्रभाव तथा कालव्यादिकनुं स्वरूप पण तेनीपे. तेज . ॥ २७ ॥ आ क्षेत्रना मध्यभागमा बन्ने अर्धभा. गोने जुदा करनारो माव्यवान नामे गोळाकार वैताब्य. पर्वत प्रख्यात ३. ॥ ३० ॥ माव्यवानजेवा याकाखाळा अने तेनीजपेठे लाल कांतिवामा कमलपादिकधी ह. मेशां शोभतो होवाथी ते माव्यवान नामे पर्वत कहेवा. य. ॥ ३१ ॥ जंबूद्दीपपन्नत्तिसूत्रमा तो माव्यवत्पर्याय एवं नाम देखाय . एक पत्योपमना आयुवाळो प्रभास नामनो देव ते पर्वतनो स्वामी ने, अने तेनी राजधानी मेरुथी उत्तरे नीलवंतपादिकनीपेठे. ॥ ३२ ॥ हरि.
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(ए) त् ॥ ३२ ॥ हरिवर्षस्थायिगंधा-पाति वैताब्यशैलवत् ॥ ज्ञेयमस्यापि सकलं । स्वरूपमविशेषितं ॥ ३३ ॥ नदक्. रम्यकवर्षस्या पारदरण्यवतस्य च ॥ रुक्ष्मी नाम्ना वर्षध रः । प्राप्तः परमर्षिभिः ॥ ३४ ॥ स पूर्वपश्चिमायामो । दक्षिणोत्तरविस्तृतः ।। महाहिमवतो बंधु-स्विात्यंतसमाकृतिः ॥ ३५ ॥ रुक्मं रूप्यं तदस्यास्ती-त्यन्वर्थकलिता. भिधः ॥ सर्वात्मना रूप्यमयो । रुक्मिनामसुराश्रितः ॥ ॥३६ ।। इदं जंबूदीपप्रज्ञप्तिवृत्तौ. देवसमासवृत्तौ तु रु. क्मं श्वेत हेम, तन्मयोऽयमुक्त इति ज्ञेयं. विशिष्टैष्टभिः वर्षमा रहेला गंधापातिवैताब्यपर्वतनीपेठे तेनुं सघ स्व. रूप कई पण फेरफारविना जाणी लेवं. ॥ ३३ ।। रम्यकक्षेत्रनी उत्तरे तथा हैरण्यवंतनी दक्षिणे गणधरोए रुक्मी नामनो वर्षधर पर्वत कहेलो . ॥ ३४ ॥ ते पर्वत पूर्व पश्चिम लांबो तथा उत्तरदक्षिण पहोळो , अने महाहिमवंतपर्वतना बंधुनीपेठे ते तमाम तेनासरखी थाकृ. तिवाळो . ॥ ३१ ॥ रुक्म एट्ले रु' ते जेने , एवी रीतना सार्थक नामवाळो तथा तमाम रुपामय अने रु. मि नामना देवश्री ते पाश्रित थयेलो . ॥ ३६ ॥ भावीरीते जंबूद्दीपपन्नत्तिसूत्रनी टीकामां ने. क्षेत्रसमास
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कूटैः । सोऽतितुंगैरलंकृतः ॥ दिगंगनानामष्टानां । क्रीमा पर्वतकैखि ॥ ३४ ॥ श्राद्यं पूर्वार्णवासन्नं । सिघायतन संझितं ॥ रुक्मिदेवाधिष्टितं च । रुक्मिसंझं द्वितीयकं ।। ॥ ३० ॥ रम्यकाधीश्वरस्थानं । तृतीयं रम्यकाभिधं ।। तुर्य नरकांतादेव्या । नरकांतानिधं च तत् ॥ ३५ ॥ तया म. हापुमरीक-हृदेशायाः शुगास्पदं ॥ बुद्धिकूटं बुधिदे. व्याः । पंचमं परिकीर्तितं ।। ४०॥ रूप्यकूलानदीदेव्याः। षष्टं कूटं तदाख्यया ॥ सप्तमं हैरण्यवतं । हैरण्यवतदैवतं ।। नी टीकामां तो रुक्म एटले सफेद स्वर्ण, तेमय पाक हेलो . एम जाणवू. ते पर्वत अति उंचा पाठ शिख. रोवडे शोनितो ने, अने ते पाठे शिखरो आठ दिक्कुमारीनना क्रीडा करवाना पर्वतजेवा लागे . ॥ ३७ ।। पूर्वसमुद्रनी पासे रहेछु पहेबु सिहायतन नामनुं शिखर
अने बीजं रुक्मिदेवथा अधिष्टित थयेवु रुक्मि ना. मन शिखर . ॥ ३० ।। वीजु रम्यक नामर्नु रम्यकक्षेत्र ना स्वामिना स्थानरूप ने, तथा चोथु नरकांता देवीनू नरकांत नामनुं शिखर . ॥ ३५ ॥ तथा महापुंडरीकह दनी स्वामी बुधिदेवोर्नु बुद्धिकूट नामनुं पांचमु मनोहर शिखर कहेवू . ॥ ४० ॥ रूप्यकूलानदीनी देवीनुं वं
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॥ १ ॥ मणिकांचनदेवाढ्यं ! मणिकांचनमष्टमं ॥ या ये जिनालयोऽन्येषु । प्रासादाः स्वामिनाकिनां ॥ ४ ॥ मानं स्वरूपं कूटानां । चैयनिर्जरसद्मनां ।। हिमवजिरिख त्सवे । तथैवास्य गिरेरपि ॥ ४३ ।। हृदो महापुमरीको । महापद्महृदोपमः ॥ विनाति सलिलैः स्व-निर्जयन्मानसं सरः ।। ४४ ॥ अस्मिंश्च मूलकमलं । योजनद्दयसंमितं ।। तदर्थार्धप्रमाणानि । शेषाजवलयानि षट् ॥४॥ अत्राधिष्टायिका बुबै बौधिता बुधिदेवता ॥ नवनादि ते नामर्नु शिखर , तथा सातमु हैरण्यवंत देवगें हैर एयवत नामर्नु शिखर , ॥४१॥ तथा मणिकांचन दे. वर्नु आठमुं मणिकांचन नामनुं शिखर , तेनमांथी प. हेला शिखरपर जिनमंदिर , अने बाकीनानपर तेना स्वामिदेवोना प्रासादो . ॥ ४२ ॥ या पर्वतना शिख. रोनुं मान तथा स्वरूप. तथा तेपरनां चैत्य अने देवोना प्रासादोन सघळु स्वरूप हिमवंत पर्वतनीपेठे . ॥४३॥ महापुंमरीकहृद महापद्महदसरखो , तथा ते पोतानां खब जलथी मानस सरोवरने जीततोयको शोने जे. ॥ ॥ ४ ॥ आ हृदमां मूलकमल बे जोजन- बे, अने तेथी अर्धापर्धा प्रमाणवाळा बाकीनां न कमलवलयो जे.
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समृष्ट्या सा । श्रीदेवतानुकारिणी ॥ १६ ॥ हृदादस्मादा. पगे हे । दक्षिणोदग्मुखे क्रमात् ॥ विनिर्गते श्मश्रुलेखे 17वोत्तरौष्टमध्यतः ॥ ४ ॥ दाक्षिणात्यतोरणेन । निःसृत्य दक्षिणामुखी । नरकांता स्वके कुंडे । गत्वा स्ना. त्वेव निर्गता ।। ४ ॥ रम्यकोदीच्यभागस्य । द्वैधीकारनयादिव ॥ अर्वाक्स्थिता योजनेन । माल्यवघरणीधरात् ॥ ४ ॥ ततो वलित्वा मिंदाना । पूर्वार्ध रम्यकस्य मा ॥ ४५ ॥ त्यां केवलिनए बुधिदेवता नामजी अधिष्टायकदेवी कहेली ने, अने जवनप्रादिकनी समृघियी ते देवी लक्ष्मीदेवीजेवी . ॥ ४६ ॥ ते हृदमांयी अनुक्रमे दक्षिण तथा नत्तरतरफ बे नदीन निकळेली ने ते जा
के उपरना होठमांथी बे बाजुए मुनगेनी श्रेणि निकळी होय नहि तेम लागे . ॥ ४॥ तेनमाथी नर. कांता नदी दक्षिणतरफना तोरणमांथी निकळीने ददिणतरफ वहेतीथकी पोताना कुंममा पमीने जाणे स्नान करीने निकळी होय नहि तेम, ॥ ४ ॥ तथा रम्यकक्षेत्रना नत्तरतरफना भागना टुकडा थवाना जयथी जा. णे माव्यवानपर्वतथी एक जोजन पागळ रहीथकी ॥ ॥ ४ ॥ त्यांथी वळीने रम्यकक्षेत्रना पूर्वार्धने नेदतीय
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॥ पूर्वानोधौ याति नदी-षट्पंचाशत्सहस्रयुक् ॥ २० ॥ नत्तराहतोरणेन । विनिर्गयोत्तरामुखी ॥ रूप्यकूला स्व. प्रपात–कुंडे निपत्य निर्गता ॥ ५१ ॥ दक्षिणार्धं च हैराण्य-वतस्य कुर्वती धिा ॥ क्रोशदयेनासंप्राप्ता । विक टापातिनं गिरिं ॥ ५५ ॥ ततो निवृत्त्य हैरण्य–वतापराधनेदिनी ॥ अष्टाविंशत्या सहस्रैः । सरिनिराश्रिता पथि ॥ ५३ ॥ ताहक्षेत्रविभेदोड–पातकानुशयादिव ।।प पात पश्चिमांभोधौ । तदुष्कृतजिघांसया एणा इति रु. की उपनहजार नदीनसहित ते पूर्वसमुद्रमा जश् मळे .॥५०॥ हवे रूप्यकूला नदी उत्तरतरफना तोरणमां. थी उत्तरतरफ वहीने तथा पोताना प्रपातकुंडमां पडीने, त्यांथी निकळी ॥ ११ ॥ हैरण्यवंतक्षेत्रना दक्षिणार्धने बे विजागमां वहेंचतीथकी विकटापातिपर्वतथी बे कोश दूर रहीने, ॥ ५५ ॥ त्यांथी पानी वळीने हैरण्यवंतना नत्तराधना बे विजाग करतीयकी, तथा मार्गमां अठावीसह. जार नदीनथी आश्रित यश्यकी ॥ ५३ ।। जाणे तेवां क्षेत्रना टुकमा करवाश्री नत्पन्न थयेलां पापना पश्चात्ता पथी होय नहि, तेम ते पापनो नाश करवामाटे ते प. श्चिमसमुद्रमां जश् पमी. ॥ २४ ॥ एवीरीते रुक्मिपर्वतर्नु
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(१४) क्मिपर्वतः । क्षेत्रं च हैरण्यवत-मुदीच्यां रुक्मिणो गिरेः ॥ दक्षिणस्यां शिखरिणो । यो नमिवांतरे ॥ १५ ॥ रुप्यं हिरण्यकाब्देन । सुवर्णमपि वोच्यते ॥ ततो हिर. एयवंती दौ। तन्मयत्वाधराधरौ ॥ १६ ॥ रुक्मी च शि. खरी चापि । तहिरण्यवतोरिदं ॥ हैरण्यवतमित्याहुः । क्षे. त्रमेतन्महाधियः ।। ५७ ॥ प्रयति हिरण्यं वा । युग्मि नामासनादिषु ॥ यत्संति तत्र बहवः । शिलापट्टा हिरएयजाः ॥ १७ ॥ प्रडतं तन्नित्ययोगि । वास्यास्तीति हि. वर्णन जाणवं. ॥ हवे रुक्मिपर्वतथी उत्तरे तथा शिख. रीपर्वतथी दक्षिणे जाणे तेन बन्नेनी बच्चे बुपाश् रहेछ होय नहि एवं हैरण्यवंतनामे क्षेत्र . ॥ ५५ ॥ हिरण्य शब्दवडे रु' अयवा सुवर्ण पण कहेवाय . माटे ते. मय होवायी तेन बन्ने हिरण्यवंत पर्वतो कहेवाय ने.॥ ॥ ५६ ॥ रुक्मी अने शिखरी बन्ने पर्वतो हिरण्मय होवाथी ते क्षेत्रने पण महाबुध्विानो हिरण्यवंत कहे जे. ॥ ५७ ॥ अथवा ते क्षेत्र त्यांना युगलीयांनने घj हि. रण्य एटले सुवर्ण अासनादिकमाटे आपने, केमके त्यां सुवर्णना घणा शिलापट्टो ने. ॥ २७ ॥ अथवा ते. नने हमेशां नपयोगमां यावती घणी वस्तु सुवर्णवा
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(१५) रण्यवत् ॥ तदेव हैरण्यवत-मित्याहुर्मुनिसत्तमाः॥॥ हैरण्यवतनामा वा । देवः पढ्योपमस्थितिः ॥ ऐश्वर्य कआयत्यत्र । तद्योगात्प्रथितं तथा ॥ ६० ॥ क्षेत्रानुनावो मानं च । नृतिरश्चामपि स्थितिः ॥ निखिलं हैमवतवदिशेयमिह धीधनैः ।। ६१ ॥ क्षेत्रस्यास्य मध्यजागे । चतुरंशविभाजकः ॥ वैताब्यो विकटापाती। रानिकः पत्यः संस्थितः ॥ ६१ ॥ पद्मोत्पलशतपत्रो-दीनि संत्यत्र संततं ॥ विकटापातिवर्णानि । विकटापात्ययं ततः ॥ ६३ ।। ली ने, अने तेथीज मुनिराजोए तेने हिरण्यवतक्षेत्र क. हो . ॥ ५ ॥ अथवा एक पव्योपमनी स्थितिवाळो हैरण्यवत नामनो देव तेनुं स्वामिपाणु भोगवे , तेथी ते नामयी ते प्रसिध. ॥ ६० ॥ श्रा क्षेत्रनो प्रनाव, प्रमाण तथा त्यांना मनुष्य अने तिर्यचोनी स्थिति, ए सघबुं बुध्विानोए हैमवतदोवनीपेठे जाणवं. ॥ ६१ ।। था देवना मध्यजागमां चार जागोमां वहेंचायेलो रत्न मय पालायाकारे विकटापाती वैताब्यपर्वत श्रावेलो ने. ॥ ६ ॥ त्यां विकटापातीरंगना पद्मो, नत्पलो तथा श. तपत्रादिक हमेशां . अने तेथी ते विकटापाती कहेवाय . ॥६३॥ त्यां अरुण नामनो एक पत्योपमना अा.
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( १६ ) यस्ते देवोऽरुणाख्योऽत्र । स्वामी पब्योपमस्थितिः ॥ जंबूदीपेऽन्यत्र नग - र्युदीव्यामस्य मेरुतः ॥ ६४ ॥ शेषमस्य स्वरूपं तु | गंधापातिनद्रवत् । एवं चत्वारोऽपिवत- वैताढ्या रात्निकाः समाः ।। ६२ ।। एवं च क्षेत्रविचारसुववृत्त्यभिप्रायेण हैमवते शब्दापाती. हैरण्यवते विकटापाती, दविर्षे गंधापाती, रम्यके माव्यवानिति वृत्तवैता - ढ्यानां व्यवस्था. जंबूदीपप्रज्ञप्यभिप्रायेण तु हैमवते श दापात दविर्षे विकटापानी, रम्यके गंधापाती, हैरण्यवते माल्यवानिति व्यवस्थेत्यत्र तत्त्वं सर्वविद्देद्यं इति हैरण्ययुवाळो देव रहे बे, घने तेनी राजधानी बीजा जंबूद). मां मेरुथी उत्तरे वे. ॥ ६४ ॥ बाकीनुं तेनुं सघळु स्वरूपगंधापातिपर्वतनीपेठे जाणवुं, एवीरीते ते चारे वृत्तवैताढ्यो सरखा तथा रत्नोना बनेला बे ॥ ६५ ॥ एवी ते क्षेत्र विचारसूत्रवृत्तिनिप्राये हैमवतमां शब्दापा ती, हैरण्यवतां विकटापाती, हरिवर्षमां गंधापाती तथा रम्यकमां माल्यवान, एरीतनी वृत्तवैताढ्योनी व्यवस्था के. परंतु जंबूद्दीपपन्नत्तिने निप्राये तो हैमवतमां शब्दापाती. हरिवर्षमां विकटापाती, रम्यकमां गंवापाती तथा ढैरयवतमां माल्यवान एव । व्यवस्था बे, माटे यहीं तत्व
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( ११ )
नदीच्यां हैरण्यवता – दपागैवतादपि ॥ षष्टो वर्ष
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वतक्षेत्रं ॥
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धरः ख्यातः । शिखरी नाम पर्वतः || ६६ || ज्ञेयः शिखरिशब्देन । वृक्षस्तदाकृतीनि च । नयांसि रत्नकूटानि । संत्यत्रेति शिखर्यसौ || ६ || संत्येकादश कूटानि । वयमाणानि यानि तु ॥ तेज्योऽमुन्यतिरिक्तानि । कूटानीति विभाव्यतां ॥ ६८ ॥ अन्यथा सर्वशैलानां । यथो
कूटयोगतः ॥ शिखरित्वव्यपदेशः । संभवन् केन वार्यते || ६ || स चैकादशनिः कूटैः । परितोऽलंकृतो गि. केवली जाणे. एवीरीते हैरण्यवतक्षेत्रनं वर्णन जाणवुं.
हैरण्यवतथी उत्तरे तथा ऐखतथी दक्षिणे बो शि खरी नामनो वर्षधर पर्वत कहेलो बे ॥ ६६ ॥ शिखरि - शब्दवडे वृक्ष जाणवो, छाने तेवा व्याकारनां यहीं घ णां रत्नमय शिखरो बे, अने तेथी ते शिखरी पर्वत क वाय बे ॥ ६१ ॥ जे शिखरो दवे वर्णवाशे, तेथी प. ए या अग्यार शिखरो व्यतिरिक्त बे, एम जावं. ॥ ॥ ६८ ॥ नहितर यथोक्तशिखरना योगी सर्व पर्वतोने लागुपमती शिखरीपणानी व्यवस्था कोण निवारी शके ? ॥ ६० ॥ सुख प्रापनारुं बे सम्यक्त्व जेमां एवो श्रावक
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(१७) रिः॥ प्रतिमाभिरिव श्राध-धर्मः शर्मददर्शनः ॥ ७० ॥
आद्य सिहायतनाख्यं । पूर्ववारिधिसन्निधौ । दितीयं शिखरिस्वर्गि-कूटं शिखरिसंझकं ॥ ११ ॥ तृतीयं हैरण्यवत-कूटं तत्स्वामिदैवतं ॥ तुर्य सुवर्णकूलाख्यं । तन्नदी. देवतास्पदं ॥ ७२ ॥ दिक्कुमार्याः सुरादेव्याः । पंचमं च तदाख्यया ॥ षष्टं रक्तावर्तनाख्यं । लक्ष्मीकूटं च सप्तमं ।। ॥ ७३ ॥ रक्तवत्यावर्तनाख्यं । प्रज्ञप्तं कूटमष्टमं । श्लादे. व्या दिक्कुमार्या । नाम्ना च नवमं मतं ॥ १४ ॥ दशमं धर्म जेम प्रतिमानवडे तेम या पर्वत फरता अग्यार शिखरोयो शोनितो . ॥ ७० ॥ तेमां पहेबु पूर्वसमुद्रनी पासे सिघायतननामनुं शिखर ने, बीजु शिखरिनामना देवन शिखरिनामे शिखर . ॥ ११ ॥ त्रीजु हिरण्यवत. क्षेत्रना स्वामिनुं हैरण्यवतनामनुं शिखर , अने चो) सुवर्णकुलानदीनी देवता- सुवर्णकूलनामर्नु ॥ ७ ॥ पांचमुं सुरादेवीनामनी दिक्कुमारीनुं ते नामनुं शिखर ने, अने हुं रक्तावर्तननामनु, अने सातमु लदमीकूटः नामनुं . ॥ १३ ॥ आठमुं रक्तवत्यावर्तन नामनुं कहेबु के, तथा नवमुं श्लादेवी दिक्कुमारीनुं ते नामनु कहुं . ॥ १४ ॥ दशमुं ऐरावत नामना देवथी पाश्रित थयेवू
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( १७ ) चैरखताख्य – मैरावतसुराश्रितं ॥ स्यात्तिविहृदेशायास्तिगिरिकूटमंतिमं ॥ ७५ ॥ इदं जंबूद्दीपप्रज्ञप्तिसूत्राभि प्रायेण, क्षेत्रसमासे त्वव पंचमं श्रीदेवीकूटं नवमं गंधापाती कूटमिति दृश्यते. याद्ये चैत्यं शेषकूट – दशके च सुधानुजां ॥ तत्तत्कूटसमाख्यातां । स्युः प्रासादावतंसकाः || १६ || पुंमरीकहृदश्चात्र । पद्महृदसहोदरः || अस्मिंश्च मूल कमल - मेक योजन संमितं ॥ 99 ॥ तदर्धार्धप्रमाणानि । शेषाज्जवलयानि षट् ॥ लक्ष्मीदेवी वसत्यव । स्थि. त्या श्रीदेवतेव सा || 9 || हिमवद्विवित्स वै । मानमऐरावत नामनुं वे, पने बेल्लुं तिगिंहिदनी मालिक देवतानुं तिगिंबिकूट नामनुं वे ॥ ७५ ॥ या अभिप्राय जंबूदीपपन्नतिसूत्रनो बे, परंतु क्षेत्रसमासमां तो पांच श्रीदेवीकूट तथा नवमं गंधापातीकूट देखाय बे. पहेला शिखरपर जिनमंदिर के पने बाकीनां दश शिखरोपर ते ते शिखरसरखा नामवाळा देवोना महेवी वे. ||१६|| ह्या पर्वतपर पद्महृदसरखोपुंडरीकहृद वे, खने तेमां मू लकमल एक जोजन जेवरुं वे ॥ 99 ॥ खने तेथी प प्रमाणना बीजां व वलयो वे, ने तेमां श्रीदेव ताजेवीज लक्ष्मीदेवी बसे वे ॥ 9 ॥ या पर्वतनुं जी
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( २० )
त्रापि चिंत्यतां || ज्याबाहाधनुरादीनां । केवलं दिग्विपर्ययः || १ || नद्यस्तिस्रो हृदादस्मा - न्निर्गतास्त्रिनिर ध्वनिः ॥ नदी सुवर्णकुलाख्या । रक्ता रक्तवतीति ॥ ८० ॥ दक्षिणेनाध्वना तत्र । निर्गत्य दक्षिणामुखी ॥ सुवर्णकूला पतति । कुंडे स्वसमनामनि ॥ ८१ ॥ ततो निर्गत्य हैरण्य - वतोत्तरार्धमेदिनी ॥ योजनार्थेन दूरस्था | विकापातिरात् ॥ ८२ ॥ प्राक्परावर्त्य हैरण्य -वतपूर्वार्धमादितः । सूत्रधारस्येव रज्जु - द्विधा विदधती क्रमात् ॥ ८३ ॥ प्रष्टाविंशत्या सहस्रै — नदीभिः परिपूरि वा, बाहा तथा धनुरादिकनुं सर्व प्रमाण ढिमरपर्वत ती पेठे जारावं. फक्त दिशामां फेरफार वे ॥ १९ ॥ या हृ दमांथी सुवर्णकूला, रक्ता तथा रक्तवतीनामनी त्रण नदीप्रो त्रण मार्गे निकळेली . ॥ ८० ॥ तेमांथी सुवर्णकूलानदी दक्षिणमार्गे त्यांयी नीकळीने दक्षिणतरफ पोतानानामना कुंरुमां प . ॥ ८१ ॥ तथा त्यांथी निक ळीने ते हैरण्यवतक्षेत्रना उत्तरार्थना वे विजाग करतीथकी, विटापातिपर्वतीर्धो जोजन दूर रहीने, ॥ ८२॥ तथा पूर्वतरफ वळीने सुतारनी दोरीनीपेठे हिरण्यवतना पूर्वार्धनावे विभाग करती की अनुक्रमे ॥ ८३ ॥ -
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( २१ ) ता ॥ गृहिणी स्वामिगेहे । विशति प्राच्यवारिधौ ॥८४॥ अस्मादेव हृदात्प्राच्य - तोरणेन विनिर्गता ॥ रक्तानदी पूर्वदिशि । प्रवृत्ता पर्वतोपरि ।। ८९ । योजनानां पंचशती - मतिक्रम्य ततः परं । रक्तावर्त्तनकूटस्या - धस्तादुतरतो भवेत् || ६ || त्रयोविंशां पंचशतीं । योजनानां कलालयं ॥ सार्धं गत्वाधिकमुदक्- शिखरिदमाधरोपरि || ॥ ८१ ॥ वज्र जिह्विकयोत्तीर्य । कुंडे राप्रपात के | श तयोजनमपाता । भुजंगीवा विशद्विर्दे || 00 || नदीच्य तोरणेनास्मा – द्विनिर्गत्योत्तरामुखी || नदी सप्तसहस्राढ्या
छावीसहजार नदीनथी संपूर्ण थथकी बहु जेम स्वामिने वेर तेम ते पूर्वसमुद्रमां जइ मळे वे ॥ ८४ ॥ वळी तेज हृदमांथी पूर्वतरफना तोरणमांथी निकळेली त था पर्वत पर पूर्वदिशामां वहेती एवी रक्तानदी || ८५ ॥ पांचसो जोजन जळग्याबाद रक्तावर्तन शिखरनी नीचे थइने उत्तरतरफ वहे . ॥ ८६ ।। तथा एवीरीते पांचसो देवीस जोजन सामावण कला शिखरिपर्वतपर उत्तरतरफ वही || १ || वज्रजिह्वाने याकारे नागणी जेम विलमां तेम एकसो जोजन उंचेथी उतरीने रक्ताप्रपातकुंमां पडे वे ॥ ८ ॥ तथा ते कुंडमांथी उत्तरबाजुना
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( 22 ) | वैताढ्य गिरिसीमया ॥ ८ ॥ दर्याः खम्प्रपातायाः । प्राच्यां वैताढ्य धरं ॥ भित्वौदीच्यैः सप्तनदी – सदखैराश्रिताध्वनि ॥ ५० ॥ सहस्रैः सरितामेवं । चतुर्दशनिराश्रिता । विभिद्य जगतीं पूर्वा-वेऽसौ विशति डुतं ॥ || १ || पश्चिमेन तोरणेन । हृदादस्माद्दिनिर्गता । रकावती पश्चिमायां । प्रवृत्ता पर्वतोपरि || २ || अतिक्रम्य पंचशतीं । निजावर्तनकूटतः ॥ पर्वतोपर्युत्तरस्यां । व्यूढा तत्र व्यतीत्य च ॥ ८३ ॥ वयोविंशां पंचशतीं । सायं सार्धकलात्रयं ॥ वज्रमय्या जिह्विकया | योजनैकतोरणमांथी निकळीने उत्तरतरफ वहेतीथकी सातहजार नदीजना संगमवाळी, वैताढ्यपर्वतनी हृदमां ॥ ८५ ॥ खंमप्रपातगुफानी पूर्वे वैताढ्यपर्वतने नेदीने उत्तरतरफनी सातहजार नदीजवडे मार्गमां याश्रित की |०|| तथा एवीरीते चौदहजार नदीनना संगमवाळी ते नदी जगतीने भेदीने तुरत पूर्वसमुद्रमां ज५ मळे वे. ॥५१॥ हवे ते हृदना पश्चिमतरफना तोरणमांथी निकळेली र तावती नदी पश्चिमतरफ पर्वतपर वढीने पांचसो जोजन जळग्यावाद पोताना व्यावर्तनकूटी उत्तरतरफ पर्वतपर वळीने ॥ ५३ ॥ पांचसो त्रीस जोजन पने सामान्रण
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(२३) शतोन्नतात् ।। ए ॥ निपत्य पर्वताद्रक्ता-वतीप्रपातकुं. डके । रोषावेशान्मानिनीव । दत्तकंपा महावटे ॥५॥ नदीच्येनाध्वना तस्मा–दुदग्मुखी विनिर्गता । यावताव्यांतिकं सप्त-नदीसहस्रसेविता ॥ ए६ ॥ कंदरायास्तमिस्रायाः । पश्चिमायां धराधरं ॥ तं विभिद्य वैतान्यमुत्तरार्ध समागता || ए ॥ औदीच्यैः सप्तनिः सिंधुसहस्रैः सह गबति ॥ पश्चिमाब्धाविति नदी-चतुर्दश महस्रयुक् ॥ एज ॥ इति शिखरीपर्वतः ।।
उत्तरस्यां शिखरिण । नदीच्यलवणार्णवात् ॥ द. कला नळंग्यावाद वज्रमयजिह्वायाकारे एकसो जोजन जंचा || ४ || पर्वतपरथी मानिनी स्त्री क्रोधयी जेम मोटा कुवामां ऊंपापात करे तेम रक्तावती प्रपातकुंडमां पमीने. ॥ ५॥ तथा त्यांधी नत्तरमार्गे नत्तरतरफ वहे. तीयकी नेक वैताब्यसुधी सातहजार नदीनवडे सेवाये लीयकी ॥ ६ ॥ तमिस्रागुफाथी पश्चिमे तुरत वैताब्यके नेदीने उत्तरार्धमां यावतीयकी ॥ 3 ॥ नत्तरतरफनी सातहजार नदीनसहित, तथा एवीरीते चौदहजार नदीनेसहित ते पश्चिमसमुद्रमा मले ने. ॥ ॥ एवी रोते शिखरिपर्वतनुं वर्णन जाणवू.
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(१४)
क्षिणस्यामैरखत-क्षेत्रं नाति मनोहरं ॥ एए॥ ऐरावतः सुरो ह्यस्य । ग्वामी पढ्योपमस्थितिः॥ वसत्यत्र ततः ख्यात-मिदमैरावताख्यया ॥ १०० ॥ भरतस्य प्रतिबिंब-मि वेदं संमुखेंबुधौ ॥ तत्प्रमाणं तेन तुव्यं । सदा तदनुव तते ॥ १॥ नानुना नासिते तस्मिं-स्तेनेदमपि भा. सितं ॥ इंजुना शोजिते तत्रा-दोऽपि स्यात्तेन शोभित ॥२॥ तद्यदा भिररकै-भिन्न भिन्नां दशां श्रयेत् ।। तथेदमपि सन्मित्र-मिव मित्रानुवृत्तिकृत् ।। ३ ॥ जिने
शिखरिपर्वतथी नत्तरे तथा नत्तरलवणसमुऽथी दक्षिणे मनोहर ऐवतक्षेत्र शोने . ॥ ॥ तेनो स्वामी एक पढ्योपमना श्रायुवाळो ऐखतदेव त्यां वसे ने. अने तेथी ते ऐवतनामथी प्रसिधवे. ॥ १०० ॥ श्रा क्षेत्र सन्मुख रहेला समुद्रमां जाणे भरतक्षेत्रनुं प्रतिबिंब होय नहि तेवू दे, तेनुं प्रमाण तेना सरखं , तथा ते मुंज हमेशां ते अनुवर्तन करे . ॥ १ ॥ ज्यारे नरत क्षेत्रमा सूर्य नगे , त्यारे यहीं पण सूर्य नगे , तथा ज्यारे त्यां चंद्र नगे , त्यारे अहीं पण चंद्र नगे. ॥२॥ वळी व धारानवडे ज्यारे जरतक्षेत्र जुदी जुद) अवस्था पामे ने, तेम या पण नत्तम मित्रनीपेठे तेनुं
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(१५) तत्र जिनोऽत्रापि । चक्यत्र तत्र चक्रिणि ॥ वासुदेवादि. षु सत्सु । तत्रातापि भवंति ते ॥ ४ ॥ इदं दशाश्चर्ययु. तं । स्यात्तत्राश्चर्यशालिनि । हसतीव निजं मित्रं । भरतं तुल्यचेष्टया ॥ ५॥ मध्ये स्थितेन देधेदं । वैताब्य गिरिणा कृतं ॥ दाक्षिणात्यैरावतार्ध-मुदीच्यैरावतार्धक ॥ ६ ॥ यदुदीच्यार्णवासन्न-मुत्तरार्ध तदुच्यते ॥ शिखरिमाधरासनं । दक्षिणार्धमुदीरितं ॥ ७ ॥ क्षेत्राशापेदया ह्येषा । दक्षिणोदव्यवस्थितिः ॥ सूर्याशापेदाया त्वस्य । अनुकरण करे . ॥ ३ ॥ त्यां ज्यारे जिनेश्वर होय . सारे यहीं पण जिनेश्वर होय , त्यां ज्यारे चक्री त्या रे यही पण चक्री, अने वासुदेवादिक होते ते यहीं पण तेन होय . ॥ ४ ॥ त्यां ज्यारे दश अरां थाय त्यारे अहीं पण दश अरां थाय , ते जाणे के तुल्य चेष्टाथी पोताना मिलने हसतुं होय नहि तेम लागे जे. ॥ ५ ॥ मध्यमां रहेला वैताब्यपर्वते तेना बे विभाग क. रेला बे, घने ते दक्षिणार्ध ऐखत अने उत्तरार्ध ऐव तना नामथी नळखाय . ॥ ६ ॥ तेमां जे उत्तरसमुद्रनी पासे नेते उत्तरार्ध कहेवायचे, अने जे शिखरिपर्वतनी पासे ने ते दक्षिणार्ध कहेवाय जे. ॥ ७॥ क्षेत्र
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(२६) याम्याई वार्षिसन्निधौ ॥ ७ ॥ नदीच्या नगासनं । व्यवहारस्त्वयं पुनः॥ क्षेत्राशापेक्षया सर्वो। न तापदिगपेद या । ए ॥ नदीच्याईमस्य याम्य-भरतार्धन सन्निन।। तहजीवेषु चापानि । बाहानापि न संभवेत् ॥ १० ॥३. तः प्रभृति याम्या -दिषु सर्व विवर्धते ॥ श्राविदेहा. धमिष्वास -जीवाबाहाशरादिकं ॥ ११ ॥ वैताब्यस्याप्यत्र तत । उत्तरस्यां किलापकः ॥ आयामो दक्षिणस्यां च । वर्धमानः क्रमान्महान् ॥ १५ ॥ याम्य विद्याधरश्रेण्यां । नी दिशानी अपेदाये आ दक्षिणनत्तरनी व्यवस्था ने, परंतु सूर्यनी दिशानी थपेदाये तो तेनुं दविणार्थ समुद्रपासे ने, ॥ ७ ॥ अने उत्तरार्ध पर्वतपासे , परंतु सर्व व्यवहार क्षेत्रदिशानी अपेदाये थाय ने, सूर्यदिशानीय पेदाये थतो नयी. ॥ ए॥ तेनुं उत्तरार्ध दक्षिण गरता. र्ध जेवं ने, माटे तेनीपेठे जीवा, बाण, धर्नु बाहा यहीं फ्ण संनवती नथी. ॥ १० ॥ अने त्यांयी मांडीने दक्षिणार्धादिकमां क विदेहाईसुधी धनुष, जीवा, बाहा तथा शस्थादिक सघच वृद्धि पामे . ॥ ११ ॥ या क्षे. त्रमा वैतादयनी लंबा पण नत्तरे स्वल्प , तया ददिणे अनुक्रमे वधतीयकी मोटी ने. ॥ १२ ॥ अने तेथी
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(१७) विद्याधरपुराण्यतः ॥ षष्टिनवत्युदीच्यायां । श्रेण्या पंचाश. देव च ॥ १३ ॥ शेषं सर्वमाभियोग्य-श्रेणिवेदीवनादिकं ॥ ज्ञेयं चरतवैताब्यो-पममुक्तानुसारतः ॥ १४ ॥ कूटान्येकादशात्रापि । तन्नामानि तथा क्रमात् ॥ किंतु नाम्नि विशेषोऽस्ति । द्वितीयस्याष्टमस्य च ॥ १५ ॥ द. दिणैरखतार्धाख्यं । दैतीयीकं भवेदिह । नत्तरैरावता - ख्यं । जवेच्च कूटमष्टमं ॥ १६ ॥ रक्तारक्तवतीश्रोत-स्विनीन्यां तस्थुषांतरे ॥ वैताढयेन च षट्खम-मिदमैराव तं कृतं ॥ १७ ॥ तत्र च-नत्तरार्धमध्यखंडे । नदीच्य. दक्षिणतरफनी विद्याधरोनी श्रेणिमा विद्याधरोनां साठ न. गरोने, घने नत्तरश्रेणिमां पचास . ॥ १३ ।। बाकीन
आनियोगिकश्रेणि, वेदी तथा वनयादिक सघळु वर्णव्यामुजब जरतक्षेत्रना वैताढयसरखं जाणवू. ॥ १४ ॥ श्र. ही पण अग्यार शिखरो, अने तेनां नामो पण तेजरीते अनुक्रमे ३, परंतु बीजा अने घाउमा शिखर ना नाममां तफावत ने. ॥ १५ ॥ बीजु शिखर दक्षिणैरवता नामनु, तथा अाठमुं नत्तरैरवता नामर्नु . ॥ ॥ १६ ॥ रक्ता अने रक्तवती नदीये तथा बच्चे रहेला वैताढयपर्वते या ऐवतक्षेत्रना व विजाग करेला . ॥
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(२) लवणोदधेः । दक्षिणस्यामुदीच्यां च । वैताढयाभिवत्रधरात् ॥ १७ ॥ चतुर्दशाधिकशतं । योजनानां कलास्तथा ॥ एकादशातिक्रम्याब्धि-वैतादयाच्यामिहांतरे ।। ॥ १५ ॥ नगरी स्यादयोध्याख्या । नवयोजनविस्तृता ॥ हादशयोजनायामा-ऽलंकृतोत्तमपूरुषैः ॥ १०॥ शेषाः पं. चापि खमाः स्यु-रनार्या धर्मवर्जिताः ॥ अत्रापि चार्य: देशाना-मध्यर्धा पंचविंशतिः ॥२१॥ एतेष्वेव हि दे. शेषु । जिनचक्रर्धचक्रिणां ।। स्यादुत्तमनृणां जन्म । प्रा. यो धर्मव्यवस्थितिः ॥ १॥ एवं च जंबूद्दीपेऽस्मिन् । स॥ १७ ।। अने तेमां-नत्तरलवणसमुद्रश्री दक्षिणे नत्त रार्धमध्यखंडमां, तथा वैताव्यपर्वतथी नत्तरे ॥ १७ ॥ ए. कसो चौद जोजन अने अग्यार कला नळंग्याबाद स. मुद्र बने वैताब्यनी बच्चे ॥ १५ ॥ नव जोजन पहोळी अने बार जोजन लांबी तथा उत्तमपुरुषोथी शोनिती अयोध्या नगरी. ॥ १० ॥ बाकीना पांचे खमो धर्मरहित अनार्य , अने तेमां पण सामापचीस वार्यदेशो
॥ १ ॥ वळी तेज साडापचीस थार्यदेशोमां जिन, चक्री तथा वासुदेवश्रादिक नत्तमपुरुषोनो जन्म थाय बे, तथा त्यांज धर्मनी व्यवस्था जे. ॥१२॥ एवीरीते या
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(२०) तक्षेत्री विराजते । मध्ये महाविदेहाख्य-मपागुदक् त्रयं त्रयं ॥ २३ ।। भरतैरावते तत्र । तुव्यरूपे निरूपिते॥ समस्त्ररूपे हैरण्य-वते हैमवते अपि ॥ २४ ॥ रम्यकाख्यहरिवौं । नन्ने तुलाधृते व ॥ पूर्वापरविदेहाना-म. प्येवं तुव्यता मता ॥ २५॥ देवोत्तरकुरूणाम-प्येवं तु. व्यत्वमाहितं ॥ विना नरतैरवत-विदेहानपराः पुनः ।। ॥ १६ ॥ अकर्ममयः षट् स्युः । कृष्यादिकर्मवर्जिताः॥ तिस्रो भरतैरवत-विदेहाः कर्ममयः ॥ २७ ॥ तथा चाजंबूद्दीपमां सातक्षेत्रो शोने , तेमां मध्यमां महाविदेह नामर्नु ने. तथा उत्तरदक्षिणेत्रण त्रण . ॥ ३ ॥ ते. मां भरत अने ऐवत ए बन्ने सरखां कहेलांने तया है। रण्यवत बने हैमवतमरखां ने. ॥ २४ ॥ वळी रम्यक त. था हविर्षक्षेत्र ए बेन जाणे त्राजवामां मूक्यां होय ते. म सरखां , तया एवीजरीते पूर्वपश्चिम महाविदेहर्नु पण सरखापणुं कर्तुं . ॥ ५५ ।। क्ळी एवी रीते देवकुरु तथ उत्तरकुरुनु पण तुव्यपणुं कहेवू . तथा भरत ऐरवत अने विदेहविना बीजां ॥ २६ ॥ गए खेतीयादिक कर्मविनाना अकर्म मिरूप ने, तथा भरत, ऐरवत अने विदेह ए त्रणे कर्मऋमिरूप . ॥ २७ ॥ वळी ग्रहीन
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( ३० ) त्र वर्षधर - पर्वताः षट् प्रकीर्त्तिताः || विदेहेन्यो दक्षिणास्या - मुदीच्यां च त्र्यं वयं || २० || हिमवखिरी चैका - दशकटौ मिथः समौ ॥ रुक्मिमहाहिमवता - वष्टकुष्टौ तथैव च ॥ २८५ ॥ नीलवन्निषधौ तुल्यौ । नवकूटौ परस्प रं || मेरुर्निरूपमः सोऽपि । नवकूटोपशोभितः ॥ ३० ॥ नरतैवत क्षेत्र - द्वात्रिंशविजयोद्भवाः । वैताढ्याः स्युश्चतुस्त्रिंश - प्रत्येकमेकभावतः || ३१ ॥ सर्वेऽप्येते वर्णा | नवकूटोपशोभिताः ॥ दशोत्तरशतऊंगा - जियोग्यालि
बयास
ए
वर्षपर्वतो कहेला, ने तेन महाविदेदथी दक्षिणे पने उत्तरे वण त्रण वे ॥ २८ ॥ हिमवान ने शि खरी बन्ने पर्वतो यार शिखरोवाळा याने परस्पर सरखा, ने एवीजरी रुक्मि तथा महाहिमवंत पर्वतो पाठ शिखरोवाळा वे. ॥ २०७ ॥ नव शिखरोवाळ नीलवान ने निषधपर्वतो परस्पर सरखाने, तथा को इन पण उपमाविनानो मेरुपर्वत नव शिखरोथी शो. भितो बे ॥ ३० ॥ भरत तथा ऐखतक्षेत्र ने बत्रीस विजयोमां दरेकमां एकेक दोवाथी सर्व मली चोंलोस वैताढ्यपर्वतो वे ।। ३१ ।। ते सर्वे वैताढ्यो रुपाना वर्णवा ळा नव शिखरोथी शोजिता तथा एकसोदश नगरोवा
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( ३१ ) दयान्विताः || ३२ ॥ चत्वारो वृत्तवैताढ्याः । समरूपाः प रस्परं । दविर्ष हैमवत — हैरण्यवतरम्य के || ३३ || देवो
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तरकुरुथेषु | हृदेषु दशसु ध्रुवं ॥ प्राक्प्रत्यक् च दश द श | कांचनाचलभावतः || ३४ ॥ द्वे शते कांचननगाः । परस्परानुकारिणः || स्थिता जोक्तुं चतसृभिः । पंक्तिजिबंधवा व || ३ || गजदंतौ सौमनस - गंधमादनसं शितौ ॥ रुप्यपीतरत्नमयौ । सप्तकूटोपशोभितौ ॥ ३६ ॥ विद्युत्प्रभमाल्यवतौ । वैसूर्यतपनीयजौ ॥ नवकूटांचितौ तुळी ववे श्रेणिडवाळावे. ॥ ३२ ॥ वळी हरिवर्ष, चैमवत. हैरण्यवत तथा रम्यकक्षेत्रमां परस्पर तुल्य स्वरूपवाला चार वृत्तवैनाढ्यो बे ॥ ३३ || उत्तरदेवकुरुमां रहेला द श हृदोमां पूर्व ने पश्चिममां दश दश कांचनाचलो दोवाथी || ३४ ॥ चार पंक्तिवडे जाणे बांधवो जमवा बेठा होय नहि तेम परस्पर अनुकरण करनारा बसो कांचनाचलो बे ॥ ३२ ॥ रूपा ने पीळा रत्नमय तथा सान शिखरोथी शोभिता सौमनसाने गंधमादन नामना वे गजदंत पर्वतो वे ॥ ३६ ॥ वळी वैसूर्य तथा सुवर्णना बनेला ने नव शिखरोथी शोभिता विद्युत्प्रभ तथा माख्यवंत पर्वतो वे अने एवीरीते या सर्व पर्वतो
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(३२) व्या । इत्याकृत्या नगा अमी ॥ ३७ ।। चतु कूटाः षोम. शापि । वदस्काराद्रयः समाः ॥ विचित्रचित्रयमकाः । समरूपाः परस्परं ॥ ३० ॥ दिशत्येकोनसप्तत्या-धिकेत्य: व धराधराः । हिमवबिखरिस्पृष्टा । दंष्ट्राश्चाष्टौ मियः स. माः ।। ३ए॥ वैताढयेषु नव नव । कूटाः प्रत्येकमित्यतः ॥ सर्व वैताब्यकूटानि । षमुत्तरं शतत्रयं ॥ ४० ॥ प्रतिवैताब्यमेतेषु । कूटत्रयं तु मध्यमं ।। सौवर्ण शेषकूटाश्च । रात्रिका इति तहिदः ।। ४१ ॥ सक्रोशषमयोजनोचासरखा आकारवाळा . ॥ ३७ ॥ वळी शोळ वदास्कारपतो पण चार शिखरोवाळा अने सरखा ने, तेमज वि. चित्र. चित्र बने यमकर्वतो. पण परस्पर सरखा . ॥ ॥ ३० ॥ एवीरीते बसो एकोतेर पर्वतो , तथा हिमवंत धने शिखरीपर्वतने स्पर्श करी रहेली पाठ दाढान परस्पर सरखी . ॥ ३५॥ वळी दरेक वैताब्यपर्वतपर नव नव शिखरो ने. अने एवीरीते सर्व मलीने त्रणसो वैताब्यनां शिखरो ने. ॥ ४० ॥ तेनमां दरेक वैताब्यना वचलांत्रण शिखरो सुवर्णनां ने, घने बाकीनां शिखरो रत्नोनां , एम तेना जाणकारो कहे . ॥ ४१ ॥ वळी ते शिखरो उ जोजन अने एक कोश नंचा , तथा
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श्चैत्यप्रासादशोजिताः॥ सर्वेऽपि भरतस्थायि-वैताब्यकू. टसोदराः ॥ ४२ ॥ कूटाः सप्त सौमनस-गंधमादनशैल. योः ॥ रुक्मिमहाहिमवतो-रष्टावष्टौ पृथक्पृथक् ॥४३॥ विद्युत्पनमात्यवतो-नीलवनिषधागयोः ।। मेरोश्च नंद. नवने । कूटा नवनवोदिताः ॥ ४ ॥ हिमवबिखस्कूिटा । एकादश पृथक्पृथक ॥ षोमशानां चतुःषष्टि-वंदस्कार महीभृतां ॥ ४५ ॥ हरिस्सहह रिकूट-बलकूटोनिता श्मे ॥ शतं सर्वेऽष्टपंचाशं । हिमवत्कूटसन्निभाः ॥ ४६॥ यो. चैत्यप्रासादोथी शोगिता अने भरतक्षेत्रमा रहेला वैता. ढ्यना शिखरोजेवां ने. ॥४२॥ सौमनस बने गंधमाद. न पर्वतनां सात सात शिखरो ने, अने रुक्मि तथा मढाहिमवंतपर्वतना जुदां जुदां पाठ पाठ शिखरो ने. ॥ ॥ ४३ ॥ विद्युत्पन यने माल्यवान पर्वतना, नीलवान थने निषधपर्वतना तथा मेरुना नंदनवनमां नव नव शिखरो ने. ॥ ४ ॥ हिमवान अने शिखरीपर्वतना जुदा जुदा अग्यार शिखरो . तथा शोळ वदस्कारपर्वतो. नां चोसठ शिखरो . ॥ ४५ ॥ हरिस्सह, हरिकूट अने बलकूट शिवायना ते सघला हिमवान पर्वतना शिखरजेवा एकसो अठावन . ॥ ४६॥ वळी तेन सघळा पां.
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. (३४) जनानां पंच शता-न्युचा राना मियः समाः ॥ साहस्राः वर्णजास्तुल्या । हरिस्सहादयस्त्रयः ॥ ४ ॥ एवं च गिस्कूिटानां । त्रिविधानां प्रमाणतः । सर्वसंख्या सप्तषष्ट्या । समन्विता चतुःशुती ॥ ४ ॥ द्वात्रिंशतिविजयेषु । जस्तैखताख्ययोः । चतुस्त्रिंशधि वृषभ-कूटास्तुल्याः परस्परं ॥ ४५ ॥ भद्रशालानिधवने । जंबूशाल्मलिवृदयोः ।। अष्टाष्टेत्यष्टपंचाशद् । ऋमिकूटा मिथः समाः ॥ ५० ॥ ए. तेषां वक्तुमुचिते १ पर्वतत्वेऽपि वस्तुतः ॥ कूटत्वव्यवहा. रोऽयं । पूर्वाचार्यानुरोधतः ॥ ११ ॥ महाहृदाश्च षट् पद्म चसो जोजन जंचा रत्नोना बनेला तथा परस्पर सरखा , घने हरिस्सहादिक त्रणे स्वर्णना बनेला सरखा अ. ने एकेकहजार जोजन नंचा ॥ ४ ॥ एवीरीते त्र. णप्रकारना प्रमाणवाळा पर्वतमा शिखरो सर्व मली चार सो सडसठ . ॥ ४ ॥ बत्रीस विजयोमां तथा भरत अने ऐवतक्षेत्रमा परस्पर सरखा चोंत्रीस वृषनकूटो . ॥ए। वळी भद्रशाल नाम ना वनमां तथा जंबू अने शाल्मलीवृदपर पाठ पाठ शिखरो ने, एम सर्व मली प. रस्पर सरखा अठावन ऋमिकूटो . ॥ ५० ॥ तत्वयी तो तेनन पण पर्वतपाणुं कहेवू नचित , परंतु पूर्वाचार्यना
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(३५) -पुमरीको समाविह ॥ महापद्ममहापुम-रीकावपि मिथः समौ ॥ ५५ ॥ तिगिंबिकेसरिणौ च । तुल्यौ हिनौ ययोत्तरं ॥ दश देवोत्तरकुरु-हृदाः पद्महृदोपमाः ।।१३।। एवं हृदाः षोमशैते । षएमहाहददेवताः ॥ श्रीहीधृतिकी. र्तिबुद्धि-लदभ्यः परस्परं समाः ॥ १४ ॥ चतुर्दश महानद्यो । गंगाद्याः सपरिबदाः ।। जंबूद्दीपशुनक्षेत्रे । तुल्या तुल्या विजांति याः ॥ ५५ ॥ गंगासिंधू रोहितांशा-रो. हिता च तथापरा ॥ हरिकांताहरिनदी-शीतोदा चेति अनुरोधथी तेननो या कूटपणानो व्यवहार ने. ॥ ११ ॥ व महाहृदो चे, तेमां पद्महृद अने पुंगरीकहृद सरखा , तथा महापद्म अने महापुमरीकहृद सरखा . ॥ ५ ॥ वळी तिगिछिहृद अने केसरिहृद सरखा बे, तथा तेन उत्तरोत्तर बमणा ने, वळी देवकुरु अने नत्तरकुरुना दश हृदो पद्महदसरखा . ॥ ५३॥ एवीरीते शोळ हृदो ने, तथा परस्पर सरखी श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि अने ल. क्ष्मीनामनी र महाहदनी देवीयो . ॥ ५४ । वळी या जंबूढीपरूपी शुनक्षेत्रमा परिवारवाळी अने परस्पर तुल्य गंगासादिक चौद महानदीयो शोने . ॥ ५५॥ गंगा, सिंधु, रोहितांशा, रोहिता, हरिकांता, हरिनदी, अने शी.
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(३६) नामतः ॥ ५६ ।। मेरोदक्षिणतः सप्त । ख्याता एता म. हापगाः ॥ मेरोरुत्तरतोऽप्येवं । शोनंते सप्त सिंधवः ।। ॥ २७ ॥ शीता च नारीकांता च । नरकांता तथा परा ।। रुप्यकूला म्वर्णकूला । रक्ता रक्तवतीति च ॥ २७ ॥ हि. मवत्पर्वतस्थायि-पद्महदादिनिर्गताः ॥ गंगाधिरोहितां शा । नाम्न्यस्तिस्रो महापगाः ॥ एए ॥ महा हमवददिस्थ-महापद्महदात्पुनः ॥ रोहिता हरिकांतेति । निर्गते हे महापगे ॥ ६० ॥ निषधाचलमौलिस्थ-तिगिनिहृद. मध्यतः ॥ समुद्ते हरिनदी। शीतोदेति महापगे ॥ तोदा ॥ ५६ ॥ ए सान महानदीयो मेरुग्री दक्षिणेकहेली ने, घने एवीजरीते मेरुयी उत्तरे पण सात महान दीयो शोने , ।। ५७ ॥ अने तेश्रो शीता, नारीकांता, नरकांता, रुप्यकूला, स्वर्णकूला, रक्ता अने रक्तवती . ॥ १७ ॥ हिमवानपर्वतपर रहेला पद्महदमांथी निकळेली गंगा, सिंधु अने रोहितांशा नामनीत्रण महानदीन ने. ॥ एए ।। महाहिमवंत पर्वतपर रहेला महापद्महृदमांथी निकळेली रोहिता अने हरिकांता नाम नी बे महानदीजने ॥ ६० ॥ निषधाचलपर्वतना शिखरपर रहेला तिगिनिहृदमांयी निकळेली हरिनदी बने शीतोदा नाम
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4.1
(३७) ॥ ६१ ॥ नीलवपर्वतगत-केसरिहृदतः किल ॥ शीता च नारीकांता च । निर्गते हे महापगे ॥ ६ ॥ तथा म. हापुंडरीक-हृदाऽस्मिनगाश्रितात् ॥ नरकांता रूप्यकुले -त्युसते निम्नगे नन्ने ॥ ६३ ॥ शिखरिदमाघरस्थायि-पु. मरीकहृदोलिताः ॥ रक्तारक्तवतीस्वर्ण-कूलाभिधा महापगाः ॥ ६४ ॥ एवं च
तिस्रो नद्यो हिमवत-स्तिस्रः शिखरिणो गिरेः/। शेषवर्षधरेज्यश्च । महानद्योईयं यं ॥ ६५ ॥ वर्षाण्याश्रित्य सरितः । प्रतिवर्ष दयं यं ॥ हे विदेहेष्वपाच्यां नी बे महानदीन ने ॥ ६१ ॥ नीलवान पर्वतपर रहेला केस रिहदमांयी निकळेली शीता तथा नारीकांता नामनी बे महानदीन ने ॥ ६ ॥ वली रुक्मिपर्वतपर रहेला म. हापुमरीकहृदमांयी निकलेली नरकांता अने रुप्यकूला नामनी बे महानदीन ने. ॥ ६३ ॥ शिखरीपर्वतपर रहेला पुंडरीकहृदमांथी निकलेली रक्ता, रक्तवती, अने स्वर्णकूलानामनी महानदीन ने.॥ ६४ ॥श्रने एवीरीते
त्रण नदीन हिमवंतपर्वतमांयी अने त्रण शिखरीपर्वतमाथी मिकळे ने. अने बाकीनी बबे महानदीन बाकीना वर्षवरपर्वतोमांथी निकले . ॥६५॥ क्षेत्रोनीय.
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३० )
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षट् । उदीच्यां ततो यथा || ६६ || गंगासिंधू च जश्ते | रोदितारोदितां शिके ॥ हैमवते / दविर्षे | हरिकांताहरी उने / ॥ ६१ ॥ शीताशीतोदे विदेद-क्षेत्रे तथा च रके || नारीकांतारकांते । हैरण्यवत बने ॥ ६८ ॥ रूप्यकूला स्वर्णकूले । तथा चैवतस्थिते ॥ नद्यौ रक्तारक्तवत्या - वेवमेताश्चतुर्दश || ६ || गंगासिंधुरक्तवती - रक्तानां सरितामिह || चतुर्दश सहस्राणि । परिवारः प्र. कीर्तितः ॥ १० ॥ रुप्यकूला स्त्रर्णकूला - रोहितारो दितां पेक्षाये दरेक क्षेत्रमां बबे नदीन वे, वे विदेदोमां वे. ाने तेथी छ दक्षिणमां ने व उत्तरमां बे ॥ ६६ ॥ गंगा ने सिंधु भरतमां बे, रोहिता छाने रोहितांशा हैमवतमां बे. हरिकांता ने दरी हरिवर्षमां वे ॥ ६७ ।। विदेदक्षेत्रमां शीता पने शीतोदा बे, रम्यकमां नारीकां ता ने नरकांता वे, तथा हैरण्यवतमां ॥ ६८ ॥ रुप्यकूला ने खर्णकला ने ने ऐखतमां रक्ता ने रक्तवती बे. एम सर्व मलीने ते चौद नदीन बे. ॥ ६५ ॥ गंगा, सिंधु, रक्तवती ने रक्ता ए चार नदीननो यहीं चौददजारनो परिवार कहेलो वे ॥ ७० ॥ रुप्यकूला. स्व
कूला, रोहिता पने रोहितांशा ए चार नदीन पा
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(३४) शिकाः ॥ अष्टाविंशत्या सहस्रैः । श्रोतस्विनीनिराश्रिताः ॥७१ नारीकांता नरकांता । हरिकांता हरिस्तथा ॥ष. ट्पंचाशजैवलिनी-सहस्रैः परिवारिताः ।। ७२ ॥ शीता. शीतोदयोनद्योः । प्रत्येकं च परिबदः ॥ पंचलदाः सढ. स्राणि । द्वात्रिंशत्परिकीर्तितः ।। ७३ ।। श्लोककमेण स. रिता-मिह श्लोकचतुष्टये ॥ हिगुणं जितकामान-वि. स्तारोदिछतादिकं ॥ १४ ॥ एकश्लोकोदितानां तु । सर्व तुल्यं परस्परं ।। गंगासिंधुरक्तवती-रक्तानां तुव्यता यथा ॥ १५॥ दश लदाश्वतःषष्टिः । सहस्राणि विदेहगाः ।।
वीस हजार नदीनथी पाश्रित थयेली . ॥ ११ ॥ नारीकांता. नरकांता, हरिकांता तथा हरिनदी ए चार नदी. उ उपनहजार नदीनथी याश्रित थयेली . ॥ ११ ॥ शीता अने शीतोदा ए बन्ने नदीननो दरेकनो परिवार पांच लाख अने बत्रीसहजारनो कहेलो . ॥ १३ ॥ श्लोकना क्रमवडे चारे श्लोकमां वर्णवेली नदीननी जि. खानु प्रमाण, पहोळा तथा माश्यादिक बमणुं बमाणु जाणवू. ॥ १४ ॥ एट्लेके एक श्लोकमां वर्णवेली नदी. उनु सघळू परस्पर तुब्य , जेमके गंगा, सिंधु, रक्तावती अने रक्तानुं ए सघg तुल्य ने. ॥ ७५ ।। महाविदे.
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(४. नद्योऽपाच्या. लदमेकं । षमवतिसहस्रयुक् ॥ १६ ॥ न. दीयामपि तावंय । एवं च सर्वसंख्यया ॥ षट्पंचाशम. हस्राब्या । नदीलदाश्चतुर्दश ॥ ॥ जंबूढीपोऽभितो रुघः । स्वविरुध्न वार्धिना ॥ स्वमोदायेव दत्त स्मै । कनीः शैवलिनीरिमाः ॥ 90 | चतुःषष्टिविजयगा । महा. नद्यश्चतुर्दश ।। अंतर्नयो द्वादशाति-रिच्यते नवतिस्वि. यं ॥ gon तथाहुः श्रीरत्रशेखरसूरयः स्वक्षेत्रसमासेयमस्यरि महाणश्न । बारस अंतरणश्न सेसा ॥ हमां दश लाख चोसठ हजार नदीन, दक्षिणमां एक लाख अने उन्नुहजार . ॥ १६ ॥ उत्तरमां पण तेटलीज, अने एवीरीते सर्व मलीने चौद लाख उपन हजार नदीन. ।। 99 ॥ या जंबूदीप चोतरफ पोता. ना शत्रुसरखा समुद्रधी जाणे घेरायेलो होवायी पोताना बुटकारामाटे या नदीनरूपी कन्या तेने यापे . ॥ ॥ ७० ॥ चोसठ विजयोमा रहेली अने चौद महानदी न तथा बार अंतर्नदीलं, एम मली नेवु नदीने वधारे .॥ ए॥ तेमाटे श्रीरत्रशेखरसूरिजी पोताना क्षेत्रसमासमां कहे में केअठोतेर महानदीन, बार अंजन दीन, तथा बाकीनी चौद लाख उपनहजार परिवाररूप
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( ४१ )
परिव्रणईन चलदस । लेका उप्पन्नसदस्सा य ॥ १ ॥ श्रीमलय गिरयस्तु प्रवेशे च सर्वसंख्यया व्यात्मना सह चतुर्दशभिर्नदीसहस्रैः समन्विता जयंतीति क्षेत्रसमासवृत्ती. कल विजयगत सिंधुनदीं वर्णयंतो महानदीनां न पृथग्गनेति सूचयांचक्रुः तथापि द्वादशांतरनद्यो ऽतिरिच्यंत एवेत्यत्र तत्वं बहुश्रुतगम्यमिति ज्ञेयं. तथापि पूर्वाचार्यानु - रोधात्संख्या तथोदिता || नात्र पर्यनुयोगा । वयं प्राच्यपथानुगाः ॥ ८० ॥ केचित्तु ' गादावइमहानईपवूडासमाली सुकच महाकच विजए हावि जयमाणी अठा नदीन . ॥ १ ॥ श्रीमलयगिरिजी तो प्रवेशमां सर्वसंख्यावडे पोतासाथे चौदहजार नदीनसहित होय वे, एम क्षेत्रसमासनी टीकामां ने कविजयमां रहेली सिंधुनदीने वर्णवतायका महानदीजनी जूदी गणना न करवी एम सूचन करता दवा. तोपण बार अंतरनदीन तो वधारे थाय बेज, माटे तत्व बहुश्रुत जाणे एम जाणवुं. तोपण पूर्वाचार्यना अनुरोधथी ते संख्या कही ने. केमके पूर्वाचार्यना मार्गे चालनारा मो तेमां फेरफार कर वाने लायक नथी. ॥ ८० ॥ केटलाक तो - ' सुकब छाने महाकच विजयमां गादावती महानदी बे फांटामां
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(४२)
विसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीयं महानई समप्पेश्' इत्यादि जंबडीपप्रज्ञप्तिवचनात. तथा नः यो विजयदिन्यो रोहितावत्कुंमाः स्वनामसमदेवीवासा अष्टाविंशतिनदीसहस्रानुगाः प्रत्येकं सर्वसर्वसमाः पंचविं शशतविस्तृता अर्थतृतीययोजनावगाहा गाहावती पंकव. ती, इत्याद्यमावातिवाचकवचनाच द्वादशानाम गर्नदीना. मपि प्रत्येकमष्टाविंशतिसहस्ररूपं परिवारं मन्यमानाः षट् . त्रिंशत्सहस्राधिकनदीलदत्रयेणांतर्नदीपरिवारेण सह हि. नवतिसहस्राधिकानि सप्तदश नदीलदाणि मन्यते. नक्तं वहेंचातीयकी बघावीस हजार नदीनसहित दक्षिणमा सीता महानदीने मले ' श्यादि जंबूदीपपत्रत्तिना व.. चनथी, तथा विजयोने दनारी नदीन रोहितानीपेठे कुंमोवाळी, पोताना नामसरखी देवीनना यावासवाळी, अठावीशहजार नदीनना संगमवाळी, दरेक सरखी, प. चीससोना विस्तारवाळी तया बढी जोजन मी, गाहा: वती, पंकवती श्यादि नमास्वातिवाचकना वचनथी बार अंतरनदीननो पण दरेकनो बाधीश अावीश हजार नो परिवार मानतायका त्रण लाख तीस हजार अंतर. नदीनना परिवारसहित सतर लाख बाणु हजार नदीन
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(४३) च-सुत्ते चनदसलका । उप्पन्नसहस्स जंबूदीमि ॥ हं. तिन सतरस लका । बाणवश सहस्स मेलविया ॥१॥ अन्ये तु यातनंदीध्वनेकानि परिवारनदोसहस्राणि प्रवे. शेयुस्तदा कथं तासां क्रमेण परतः परतो गतीनां कि. स्तारविशेषो गंगानदीनामिव न संपद्येत? यस्तु परिवारः मिछांतेऽभिदधे. स तु यथाष्टाशीतिहाश्चंद्रस्यैव परिवार तया प्रसिधा अपि सूर्यस्यापि स एव परिवारः, न पुनः पृथक् प्रतीयते. नक्तं च समायांगवृत्तौमाने ने. कर्जा ने के-सूत्रमा जंबूद्दीपनी अंदर चौद लाख छपनहजार नदीन ने. तथा ते मां (बोजी) ने. व्ववाथी सतर लाख बाणु हजार थाय . ॥ १॥ बीजा. नहीं एम शंका करे ये के-जो के अंतर्नदीनमां हजारोगमे परिवारनदीन प्रवेश करे . तो पछी क्रमे क्रमे आगळ आगळ जती एवी ते नदीननो विस्तारविशेष गंगाधादिक नदीननीपेठे केम न थाय ? ( तेमा से कहे ने के)-जे परिवार सिघांतमां कह्यो , ते तो जेम अठ्यासी ग्रहो चंद्रना परिवाररूप प्रसिक, बने सूर्यनो पण तेज परिवार ने, परंतु जूदो परिवार देखातो नथी, समवायांगनी टीकामां कां ने के
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(४४) .. अष्टाशीतिर्महाग्रहा एते यद्यपि चंद्रस्यैव परिवारोऽ. न्यत्र श्रूयते, तथापि सूर्यस्यापीऽत्वादेत एव परिवारतयाऽवसेया इति. तथा गंगादिसंबंधीन्येवाष्टाविंशतिनदीसह स्राणि, अंतर्नदीनामपि परिवार इति. एवं चांतर्नदीनां पृथक्परिवारमनन्युपगबंतो यथावस्थितामेव नदीसंख्यां मन्यते इत्यादिकं जंबूद्वीपसंग्रहणीवृत्ती. तथा चाहुः श्री. हरिभद्रसूरयः-सीया सीनयाविय । बत्तीससहस्सपंचल केहिं ।। सवे चनदसलका । उप्पन्नं च सहस्स मेलवि. या ॥ १ ॥ दिक्पटोऽप्येवमाह-जंबूद्दीवि नरादिव । सं
श्रा अठ्यासी महाग्रहो जो के अन्यजगोए चंड. नोज परिवार कहेवाय . तोपण सूर्य पण इंद्र होवाथी तेना परिवाररूप पण तेनेज जाणवा. एवीरीते गंगायादिकनीज अठावीश हजार नदीन अंतर्नदीनना पण प. रिवाररूप . अने एवीरीते अंतर्नदीनना जुदा परिवार ने नहि स्वीकारताथका यथास्थितज नदीननी संख्या माने ने, इत्यादिक जंबूढीपसंग्रहणीनी टीकामां ने. ते. माटे श्रीहरिनद्रसूरिजी कहे जे के-सीता अने सीतो. दा नदी पण पांच लाख बत्रीस हजार नदीनना परिवा. खाळी ने, अने तेथी सर्व मली चौद लाख छपन हजार
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(४५) खा सघनश् चनदहय लका । उप्पन्नं च सहस्सा । न. वश्नश्न कहति जिणा ॥२॥ कुंमोद्देधस्तथा द्वीपोब्रायस्तवनस्य च ॥ परिमाणं समग्रासु । नदीषु सदृशं भवेत् ॥ ७१ ॥ शीता च हरिसलिला। गंगासिंधू च रोहिता ॥ स्वर्णकूला नरकांता । नद्योऽमूर्दक्षिणामुखाः॥ ॥ २॥ नदक् याता रक्तवती । रक्ता च रुप्यकूलिका। नारीकांता रोहितांशा । शीतोदा हरिकांतिका ॥ ३ ॥ सिंधुं विना याः सरितो । दक्षिणां दिशमागताः ॥ ताः पूर्वाधिं गामिन्यः । सिंधुस्तु पश्चिमाब्धिगा ।। ४ ॥ न. नदीन ने. ॥१॥ दिगंबर पण एमज कहे -हे रा. जन् ! जंबूद्दीपमां सर्व मलीने चौद लाख उपन हजार नेवु नदीन , एम जिनेश्वरो कहे .॥॥ सघळी न. दी-मां कुंमोनी नंमा, द्वीपोनी जंचाइ, तथा जवननु प्रमाण सरखं होय . ॥ ७१ ॥ शीता, हरिसलिला, गं. गा, सिंधु, रोहिता, स्वर्णकूला तथा नरकांता एटली न. दीन दक्षिणसन्मुख वहे . ॥ २॥ रक्तवती, रक्ता, रु. प्यकूला, नारीकांता, रोहितांशा, शीतोदा तथा हरिकांता, एटली नदीन उत्तरसन्मुख वहे . ॥ ३ ॥ सिंधुशिवाय जे नदीन दक्षिण दिशासन्मुख वहे , तेन पूर्वसमु.
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(४६) दग्याताश्च या नद्यो । विना रक्तामहानदी ॥ ताः पश्चि. माब्धिगामिन्यो । रक्ता पूर्वाब्धिगामिनी ॥५॥ खकीय हृदविस्तारे-शीतिजक्ते यदाप्यते ॥ दक्षिणाभिमुखी. नां सा । नदीनां मुखविस्तृतिः ।। ७६ ॥ नत्तराभिमुखी. नां तु । स्वकीयहृदविस्तृतौ ॥ चत्वारिंशदिभत्तायां । यः लब्धं तन्मिता मता ॥ ७ ॥ व्यवस्थेयं दक्षिणस्यां । स. रितां मंदराचलात ॥ उदग्याम्योत्तरदिशा-भिमुखीनां विपर्ययात ॥ ७ ॥ सर्वासां मुखविस्तारे। दशन्ने प्रांतविः द्रमां मळे , अने सिंधु पश्चिमसमुद्रमां मळे जे ॥४॥ रक्तामहानदीशिवाय जे नदीने उत्तरतरफ वहे , तेन पश्चिमसमुद्रमा मले बे, घने रक्तानदी पूर्वसमुद्रमा मले
॥ ५ ॥ पोताना हृदनी पहोळाश्ने एसोए जागवा थी जे रकम बावे. तेटली दक्षिणतरफ वहेनारी नदी. जना मुखनी पहोळा जाणवी. ॥ ६ ॥ अने उत्तरतरफ वहेनारी नदीनना मुखनी पहोच तेना पोताना ह. दनी पहोळाश्ने चाळीसे भागवाथी जे रकम आवे ते. टती ॥ 9 ॥ दक्षिण अने उत्तरदिशातरफ जतीनदीनना विपर्ययथी मंदराचलथी दक्षिण तथा उत्तरे या व्यवस्था ने. ॥ 1 ॥ सर्व नदीनना मुखना विस्तारने
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(9) स्तृतिः ॥ व्यासपंचाशत्तमांशः। सर्वत्रोदेध घाहितः ।। ॥जए ॥ मुखपर्यंत विस्तार-विश्लेषे गतयोजनैः ॥ गुणिते पंचवारिंशत्सहस्र विभाजिते । ए०॥ लब्धं यत्तदुजयतो । व्यासवृधिरजीप्सिते ॥ योजनादौ गते सवा-स्वपि तस्यार्धमेक्तः ॥ १ ॥ चतुःषष्टिविजयेषु । सप्तवा चतुर्दश ।। द्वादशांतनदीनां च । कुंडानां नव तिस्त्वियं ॥ ए ॥ विघ्नविघ्नप्रमाणानि । कुंमानि जिहि कादिवत् ।। तुव्यान्यंतर्निम्नगानां । मियो विजयगानि च दशगणो करवाथी माना विस्तारन माप थावे , तथा पहोळाश्ना पचासमा जागजेटली सर्व जगोए जंडाश्कहेली . ॥ नए ॥ मुखसुधिना विस्तारना विश्लेषमा र. हेला जोजनवडे गुणवाथी तथा पस्तालीसहजारे नाग वाथी ॥ ५० ॥ जे रकम थावे तेटली सर्व नदीनमा शचित स्थानकमां जोजनादिक जते थके बन्ने पडखे प. होबश्नी वृधि जाणवी, अने तेथी | एक बाजुनी जारावी. ॥ ७१ ॥ विजयोमा चोसठ, सातक्षेत्रोमां चौद, थने अंतर्नदीनना बार, एम सर्व मली नेवु कुंडो .॥ ॥ ए२ ॥ जिहादिकनीपेठे कुंडो बमणा बमणा प्रमाण वाळा , अने अंतर्नदीनना तथा विजयोना कुंमो पर
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(G) ॥ ए३ ।। प्रागुक्ताः पर्वताः कूटाः । कुंमानि च महापगाः ॥ सवै वृता वेदिकया। वनाब्योनयपार्श्वया ॥ ए॥ वेदिकावनखमानां । सर्वत्राप्यविशेषितं ॥ स्वरूपं जगतीस्थायि-वेदिकावनखंडवतः ॥ ए५ ॥ ऐरावते च भरते । विजयेष्वखिलेषु च । प्रत्येकं त्रित्रिसन्नावा-तीर्थानां ट्युत्तरं शतं ॥ १६॥ श्रेण्यश्वतस्रः प्रत्येकं । वैताढयेषु गु. हादयं ॥ श्रेण्यः शतं स्युः षदात्रिंश-मष्टषष्टिश्च, कंदराः ॥ ॥ दशोत्तरं पुरशतं । प्रतिवैताब्यपर्वतं ।। सप्तत्रिंस्पर सरखा . ॥ १३ ॥ पूर्व वर्णवेला सघला पर्वतो, शिखरो, कुंडो थने महानदीन कने परखे रहेला वनवाळी वेदिकावडे घेरायेला . ॥ ए ॥ सर्व वेदिका अने वनखंडोनुं स्वरूप कई पण फेरफारविना जगतीने फरती रहेली वेदिका तथा वनखमजेवू . ॥ ए५ ॥ ऐ. रावतमां अने भरतमां तथा सघळा विजयोमा दरेकमां त्रण त्रण तीर्थो होवाथी सर्व मली एकसोबे तीर्थो . ।। ॥ ए६ ॥ दरेक वैताब्यमां चार चार श्रेणिन अने बबे गुफान ने, थने तेथी सर्व मली एकसो उत्रीस श्रेणिन थने अडसठ गुफान . ॥ ए७ ।। दरेक वैताब्यपर्वतपर एकसोदश नगरोने, थने तेथी सर्व मली साडत्रीससो
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(४ ) शबतान्येवं । चत्वारिंशानि तान्यपि ॥ ए ॥ द्वात्रिंशच्च विदेहस्था । नरतैरखते इति ॥ विजयाः स्युश्चतुस्त्रिंशचक्रिजेतव्य समयः ॥ ७ ॥ चतुस्त्रिंशद्राजधान्यो । दौ कुरुस्थौ महामौ ॥ यस्यांतिकतरदीपाः । षट्पंचाशच वार्धिगाः ॥ २०० ॥ ___ एवं च संग्रहहारा । यउक्तमप्यनूदितं ॥ सुखायो. धोधतानां । तदस्माकं न दोषकृत् ॥ १ ॥ जिनैश्वक्रिनिः सीरिभिः शाङ्गिभिश्च । चतुर्भिश्चतुर्निर्जघन्येन युक्तः ॥ सनाथस्तथोत्कर्षतस्तीर्थनाथ–श्चतुस्त्रिंशतायं भवेद् दी. चालीस नगरो . ॥ ए ॥ चक्रिनने जीतवानी मिरूप विदेहमा बत्रीस अने भरत तथा ऐवतमां एकेक एम मळी चोत्रीस विजयो ने, ॥ ए॥ चोत्रीस राजधानीन , कुरुमां रहेला बे महावृदो ने, अने तेनीपासे समुद्रमा रहेला छपन अंतरदीपो . ।। २०० ॥
एवीरीते सामटीरीते वर्णन करतां पूर्व वर्णवेढुंपण बे यहीं नथी वर्णव्यु, ते सेहेलायी जाणपणु कराववाने नद्यमवंत थयेला एवा अमोने दोषकारक नथी.॥ ॥१॥ एवीरीते जघन्यथी चार चार जिन, चक्री, बलदेव तथा वासुदेवोश्री युक्त थयेलो, धने नत्कर्षयी चों
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(५०) पराजः ॥॥ चक्रवर्तिबलदेवकेशवै-स्त्रिंशता परिचितः प्रकर्षतः ॥ भारतैरखतयोईयं तथा । ते परे खलु म. हाविदेहगाः ॥ २॥ जंबुढीपे स्युनिधीनां शतानि । ष. मयुक्तानि त्रीणि सत्तामपेक्ष्यं । पत्रिंशत्ते चक्रिजोग्या जघन्या-दुत्कर्षेण हे शते सप्ततिश्च ॥ ३ ॥ चक्री गं. गाद्यापगानां मुखस्था-नेतानात्ताशेषषट्खमराज्यः ॥ व्यावृत्तः सन्नष्टमस्य प्रभावा-त्साधिष्टातृनात्मसानिर्मिमीते ॥ ४॥ पंचादरत्नाहिशती दशाधिको-कर्षण नोग्यात्र त्रीस तीर्थकरोथी युक्त थयेलो या दीपराज बे. ॥२॥ वळी ते नत्कर्षथी त्रीस चक्री, बलदेव तथा वासुदेवोथी युक्त थयेलो, ते मांथी भरत तथा ऐखतमां बे तथा बाकीना महाविदेहमां थाय .॥२॥ सत्ताने अपेदी. ने जंबूद्वीपमा त्रणसो उनिधानो , तेनमां जघन्यथी छत्रीस श्रने नत्कर्षयी बसो सीतेर चक्रीना नपयोगमां यावे . ॥ ३ ॥ गंगासादिक नदीनना मुखमां रहेला ते निधानोने तेजना अधिष्टातानसहित चक्री समस्त
खेमराज्यने जीत्याबाद पागे वळतोयको अठमना प्रभा. वथी पोताने ग्वाधीन करे . ॥ ४ ॥ नत्कर्षयी पंचेंद्रियरत्नो बसोदश चक्रीजना नपयोगमां आवे , अने ज
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च चक्रवर्तिनां अबन्यतोऽष्टात्यधिकैव विंशति-रेकादरत्नेष्वपि भाव्यतामिदं ॥ ५॥ द्वौ चंद्रौ दो दिनेंद्रावि. ह परिलसतो दीपको सद्मनीव । षट्सप्तत्या समेतं ग्रह शतमजितः कांतिमाविःकरोति ॥ षट्पंचाशच लदाण्यनिलपथपृथून्निद्रचंद्रोदयांत-मुक्ताश्रेण्याः श्रयंति श्रियमतिविततश्रीजरर्विश्रुतानि ॥ ६ ॥ एकं लदं सहस्राः सतत. मिह चतुस्त्रिंशदुद्योतहृया । न्यूनाः पंचाशतोचैर्दयति रु. चिरतां तारकाकोटिकोट्यः १३३५५० ॥ प्रौद्यत्प्रस्वेदविंदा वलय व निशि व्योमलदमीमगादया । रयध्यासं विधाघन्यथी अठावी श्रावे , अने तेज कम एकेंद्रियरनो. ना संबंधमां पण जाणी लेवो. ॥ ५॥ घरमां जेम दीपक तेम या जंबूद्दीपमां बे चंद्र बने बे सूर्य दीपे , तथा फरता एकसो छहोतेर ग्रहो कांति प्रकट करे , त. था आकाशमां अति प्रकाशता चंद्रोनी अंदर उपनलाख नदत्रो पोतानी अतिविस्तारवाळी शोजाना समूहयी मो. तीनी श्रेणिनी शोजाने धारण करे . ॥ ६॥ वळी अही एक लाख तथा चोंत्रीस हजारमां पचास उछा (१. ३३५५०) एटला कोटाकोटी तारान तेजथी मनोहर थयाथका आनंद पामे , अने ते तारान जाणेके रा.
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( ५२ ) तुं प्रियतम विधुना गाढमालिंगितायाः ॥ ७ ॥ कोटाकोटिपदेन केचन बुधाः कोटिं वदंव्यव यत् । क्षेत्रस्तोकतयावाघटना नैषां वेदन्यथा ॥ अन्ये कोटय एव तारकत ते रौत्सेधकैरंगुलैः । कोटाकोटिदशां भजंति घटिता इत्युचिरे सूरयः ॥ ८ ॥ तथा च संग्रहणीवृत्तौ – ५३ दे मते, तत्रैके कोटीनामेव कोटीकोटीति संज्ञांतरं नामांतरं मन्यंते, क्षेत्रस्य स्तोकत्वेन, तथा पूर्वाचार्य प्रसिद्धेः अन्ये त्रिये विषयसुख भोगववामाटे पोताना स्वामी चंद्रग्री छा त्यंत प्रालिंगित थयेली घ्याकाशलक्षीरूपी स्रीना उत्प न्न थयेला पसीनाना बिंदुनी श्रेणितं होय नहि तेवा शोने वे ॥ ७ ॥ यहीं केटलाक विद्वानो कोटाकोटीपदवडे करीने कोटि एटले कोड कहे बे, केमके नदितर क्षेत्र टुंकुं होवाथी तेजना व्यवकाशती घटना संभवी श कती नथी, छाने बीजा घ्याचार्यों एम कहे बे के ताराजनी श्रेणिनी कोटीन उत्सेधांगुलोव डे कोटाकोटीनी द शाने प्राप्त थ शके बे. ॥ ८ ॥ ते माटे संग्रहणीनी टीकामां कहां के अहिं वे मत बे, तेमां केटलाक क्षे नी तंगासथी कोटी जनुंज 'कोटाकोटी ' एवं संज्ञांतर बीजुं नाम माने बे, घने पूर्वाचार्योनो पण एज रीते प्र
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(५३) वाहुः–'नगपुढविमाणाई। मिणसु पमाणंगुलेणं तु' इति वचनात्ताराविमानानां स्वरूपेण कोटय एव सत्यो य. दौत्सेधांगुलेन सर्वतो मीयते तदा कोटीकोटयो जायते, तथोक्तं विशेषणवत्यां
कोमाकोमी सत्रं-तरं तु मनंति केश थोवतया ॥ भने उस्सेहंगुल-माणं काऊण ताराणं ॥ १ ॥ जयति जगति जंबूद्दीपनमीववोऽयं । सततमितरवाधिदीपसामंतसेव्यः । सुरगिरिरयमुच्चैरंशुको नीलचूलः । श्रयति कनसिक मत ने. अने बीजान एम कहे के–पर्वत पृ. थ्वीनुं प्रमाण प्रमाणांगुलथी मापवू ' एवां वचनथी ता. रानना विमानो स्वरूये कोटीज होवा उतां जो नत्सेधां. गुलवडे सर्व बाजुथी मापवामां आवे तो कोटाकोटी थाय . तेमाटे विशेषणवतीमां कां ने के__ केटलाक याचार्यो क्षेत्रनी तंगासथी कोटाकोटीने संझांतर माने , अने बीजा प्राचार्यो तारानतुं प्रमाण उत्सेधांगुले करे . ॥ १॥ हमेशां बीजा समुद्र धने द्वीपोरूपी सामंतोथी सेवायेलो एवो या जंबूद्दीपरूपी दी. पराजा जगतमां जयवंतो वर्ते , तथा नीलचूलारूपी नं. चां करेला वस्त्रवाळो भने सुवर्णना दंभवाळो था मेरु
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(५४) कदंडो यस्य राजध्वजत्वं ।। १० ॥ विश्वाश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेंद्रांतिष-द्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः ॥ काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्व. प्रदीपोपमे । सर्गः पूर्ति मितो युतोऽद्भुतगुणैरेकोनविंशः सुखं ॥ ११ ॥ इति श्रीलोकप्रकाशे एकोनविंशः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु॥
॥ श्रय विंशतितमः सर्गः प्रारम्यते ॥ प्रणम्य परमझान-प्रजाप्रस्तावकं प्रभुं ॥ दीपेऽस्मिपर्वत जेना राजध्वजपणाने धारण करे . ॥ १० ॥ जगतने आश्चर्य पापनारी ने कीर्ति जेनी एवा श्रीकीर्ति विजयजीवाचकेंना शिष्य तथा राजश्री अने तेजपा लना पुत्र एवा श्रीविनयविजयजी महाराजे निश्चित क. रेला जगतना तत्वने प्रकाशवामां दीपकसमान एवं जे था काव्य रच्यु , तेमां अछुत गुणोवालो या जंगणीसमो सर्ग सुखेथी संपूर्ण थयो. ॥ ११ ॥ एवीरीते था श्रीलोकप्रकाशमा जंगणीसमो सर्ग समाप्त थयो.
॥ हवे वीसमा सर्गनो प्रारंन थाय .॥ केवलज्ञानरूपी तेजने प्रकाशनार श्रीतीर्थकरप्रभुने
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(५५) नथ सूर्येदु-चाररीतिर्विभाज्यते ॥ १ ॥ सर्वेषां कालमाना. ना-मादिरादित्य एव हि ॥ ततोऽस्य वक्तुमुचिता । पूर्व चारनिरूपणा ॥२॥ तथाहुः पंचमांगे-से केणठेणं नंते एवं वुच्चर सूरे पाश्चे? सूरे आश्चे गो० सूराश्या. णं समवाश्या बावलिया वा जाव व नसप्पिणीति वा अवसप्पिणीति वा. ततोऽत्र बहुवाच्येऽपि । प्रथमं सैव त. न्यते ॥ पंचानुयोगदाराणि । तस्यामाहुर्जिनेश्वराः ॥३॥ मंमलानामिह क्षेत्र—प्ररूपणा ततः परं ॥ संख्याप्ररूपणा नमस्कार करीने हवे था जंबूढीपमा रहेला सूर्यचंद्रन) गतिनी रीत कहे . ॥ १ ॥ सघळा कालप्रमाणोनुं मूळ सूर्यज ने, अने तेथी प्रथम सूर्यनी गतिनुं निरूपण कखुं नचित . ॥२॥ तेमाटे पांचमा अंगमां कह्यं ने के-हे भगवन् ! सूर्यने यादित्य केम कहेवामां आवे ने? (नगवान कहे के) हे गौतम ! समय तथा प्रा. वलिथी मामीने क नत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीसुधी. ना काळनुं मान सूर्यथी थाय , अने तेथी तेने प्रा. दित्य कहे . अने तेथी यहीं घाणुं वर्णववान होवा - तां पण प्रथम ते सूर्यनी गतिनी प्ररूपणा कहे , अने तेमाटे जिनेश्वरोए पांच अनुयोगहारो कहेला . ॥३॥
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(५६) तेषां । तदवाधाप्ररूपणा ॥ ४ ॥ ततः परं मंमलानामंतरस्य प्ररूपणा ॥ चारप्ररूपणा चैषां । भाव्यतेऽनुक्रमा. दिमाः ॥ ५ ॥ इह प्रकरणे यत्र । काप्यंशा थविशेषतः ॥ कथ्यते तत्रैकषष्टि-छिन्नांस्तान परिचिंतयेत् ॥ ६ ॥ अत्यंतरादिभिर्वाह्य-पर्य तैः सूर्यमंडलैः ॥ श्राकाशं स्पृ. श्यते यत्त-न्मंडलक्षेत्रमुच्यते ॥ ७॥ योजनानां पंचशती । दशोत्तरा तथा लवाः ॥ अष्टचत्वारिंशदस्य । विकंनश्चक्रवालतः ॥ ७ ॥ तथाहि-पष्टचत्वारिंशदंशा । यही प्रथम मंमलोना क्षेत्रनी प्ररूपणा, पजी तेननी संख्यानी प्ररूपणा, पनी तेजनी अबाधाप्ररूपणा ॥ ४ ॥ पती मंमलोना अंतरनी प्ररूपणा, अने पनी ते मंमलो. नी गतिनी प्ररूपणा, एम अनुक्रमे आ प्ररूपणान कहे .॥ ५॥ या प्रकरणमां ज्यां को पण जगोए अविशेषपणे अंशो कहेवामां श्रावे त्यां तेनने एक एकसठांशजेवडा चिंतववा. ॥ ६ ॥ अंदरना सूर्यना मंडलो. थी मांडीने केक बहारनां मंगलोवडे जेटलो अाकाशप्र. देश स्पर्श कराय, तेटयु मंडलक्षेत्र कहेवाय . ॥ ७ ॥ अने तेनो विस्तार चोतरफ पांचसो दश जोजन बने घडतालीस लवोनो . ॥ ७॥ ते याची रीते-दरेक
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विष्कंजः प्रतिममलें ।। मंडलानां च चतुर-शीत्याढ्यं श. तमीरितं ॥ ए॥ अष्टचत्वारिंशता सा । गुण्यते मंडला. वली ॥ हात्रिंशानि शतान्यष्टा-शीतिजागा भवंति ते ॥ ॥ १० ॥ विभज्यंते चैकषष्ट्या । योजनानयनाय ते ।। पूर्वोदितानामंशाना-मेकषष्ट्यात्मकत्वतः ॥ ११॥ चतुः श्चत्वारिंशमेवं । योजनानां शतं भवेत् ॥ अष्टचत्वारिंशदंशाः । शेषमत्रावशिष्यते ॥ १५ ॥ मंडलानामंतराणि । स्युस्त्र्यशीत्यधिकं शतं ॥ स्युः सर्वत्राप्यंतराणि । रूपोनान्यंगुलीष्विव ॥ १३ ॥ योजनद्दयमानं स्या-देकैकं मंडमंडलनी पहोला अडतालीस अंशजेटली ने, अने ए. वां एकसो चोर्यासी मंमलो . ॥ ए॥ अने मंमलोनी ते श्रेणिने घडतालीसे गुणवाथी बठ्यासीसो बनीस अंशो थाय , ॥ १० ॥ अने तेनना जोजन करवामाटे ते रकमने एकसठे भागवी, केमके पूर्व कहेला अं. शो जोजनना एकसठमा नागजेवमा ने. ॥ ११ ॥ एवी. रीते एकसो चमालीस जोजन अने नपर अडतालीस अंशो वधे . ॥ १२ ॥ हवे ते मंडलोना अांतरा एकसो व्यासी ने, केमके सर्व जगोए अांगला मां जेम तेम ते प्रांतरा एक रूप लेग होय . ॥ १३ ॥ हवे
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(५०) लांतरं ॥ शतं त्र्यशीत्यान्यधिकं । दिकेन गुण्यते ततः॥ ॥ १४ ॥ शतानि त्रीणि षट्षष्ट्या-त्यधिकानि नवंत्यतः॥ प्राच्यमत्र चतुश्चत्वारिंशं प्रदिप्यते शतं ॥ १५ ॥ योजनानां पंचशती । दशोत्तरा तया लवाः॥ अष्टचत्वा. रिंशदेषा । मंगलक्षेत्र विस्तृतिः ॥ १६ ॥ इति सूर्यमंडल. क्षेतं. ॥ समाक्रम्य योजनाना-मशीतिसंयुतं शतं ॥ पं. चषष्टिमंडलानि । जंबुद्दीपे विवस्वतः ।। १७ ॥ विशेषश्चायमत्र-पंचषष्ट्या मंडलैः स्या-देकोनाशीतियुक्शतं ॥ योजनानामेकषष्टि-भागैर्नवभिरंचितं ।। १७ ॥ ततः ष ते मंमलोनो एकेको अांतरो बबे जोज जेवमो होय ने, अने तेथी ते एकसोत्र्यासीनी रकमने बेये गुणवी, ॥ ॥ १४ ॥ एटले त्रणसो गसठ जोजन थाय, अने तेमां पूर्व कहेला एकसो चमालीस नमेवा, ॥ १५ ॥ एटले पांचसो दश जोजन बने थमतालीस लवो थया. एट लो मंडलदारनो विस्तार जाणवो. ॥ १६ ॥ एवरीते सू. र्यममलना क्षेत्रनुं स्वरूप जाणवू ॥ जंबूढोपमा रहेला सूर्यनां पांसठ मंडलो एकसो एंसी जोजन दवावीने रहे. लांजे ॥ १७ ॥ वही थाटq विशेष के-पांसठ मांडला. जवडे एकसो गणाएंशी जोजन अने एक जोजनना
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(५ ) ट्षष्टितमस्य । मंडलस्य लवैः सह ॥ स्याद् दिपंचाशता. शीति-युक योजनशतं ह्यदः ॥ १७ ॥ तथा-साष्टच त्वारिंश-ड्रागां योजनशतत्रयीं त्रिंशां ॥ व्याप्याब्धी मंडलशत-मर्कस्यैकोनविंशं स्यात् ॥ २० ॥ एवं च मंमलशतं । रवेश्चतुरशीतिमत । पूर्वोक्तं ममलक्षेत्रं । समाक्र. म्य व्यवस्थितं ॥ ११ ॥ यत्र जंबूद्दीपवर्तिनां पंचषष्टेड लानां विषयव्यवस्थायां संग्रहणीवृत्त्यायुक्तोऽयं वृघसंप्रदायः. यथैकतो मेरुगिरे-त्रिषष्टिनिषधोपरि ॥ हरिवर्षजीवाकोट्यां । विज्ञेयं ममलयं ॥ २२ ॥ मेरोरपरतोऽप्यूर्व एकसठमा जागजेवमा नव जागोनपर थाय. ॥ १० ॥प. जी गसठमा मंडलना,लवसहित एकसो एंसी जोजन अने बावन लो थाय. ॥ १५ ॥ वळ)-त्रणसो त्रीस जोजन अने अडतालीस अंशजेटला आकाशप्रदेशमा व्यापीने रहेलां सूर्यनां एकसो नगणीस मांडलां थाय. ॥ २० ॥ एवीरीते सूर्यनां एकसो चोर्यासी मामलां पूर्वे वर्णवेलां मंमलक्षेत्रने व्यापीने रहेला . ॥ २१ ॥ यहीं जंबूद्वीपमा रहेलां पांसठ मामलांननां विषयनी व्यवस्था माटे संग्रहणीनी टीकामादिकमां कहेलो था वृक्षसंप्रदाय . जेम मेरुपर्वतथी एक बाजुए निषधपर्वतपर त्रेसठ,
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( ६० ) । विषष्टिर्नीलव गिरेः ॥ रम्यकजीवाकोट्यां च । मंमले दे विवस्वतः || २३ || इयं जस्तैखता-पेक्षया मंगल स्थितिः ॥ यमिवायुस्थयो मेरो - या निषवतीलयोः ॥ २४ ॥ प्राग्विदेदापेक्षया तु । मेरो रैशान कोणगे || स्त्रिपष्टिर्नीलवति । मंगलानीति तदिदः || २५ || एवं प्रयग्विदे दाना - मपेक्षया सुमेरुतः || नै उस्थायिनिषधे । वि. ज्ञेया मंगलावली ॥ २६ ॥ किंच - विदिग्गतान्यां श्रे
ने हरिवर्षनी जीवानी कोटीमां बे मांमलां वे ॥ २२ ॥ वळी मेरुनी बीजी बाजुए नीलवान पर्वतपर त्रेसठ पनेर म्यकक्षेत्रनी जीवानी कोटीमां सूर्यनां वे मांडलां बे. ॥ ॥ २३ ॥ मेरुश्री मिने वायव्यवृणामां रहेला निघ ने नीलवानपर्वतपर मांमलांनी या स्थिति भरतपने ऐवतक्षेत्रनी यपेक्षाये जाणवी ॥ २४ ॥ परंतु पूर्व विदेदनी यपेक्षाये तो मेरुथी ईशा खुरामा रहेला नीलवान पर्वत पर त्रेसठ मांडला होय, एम तेना जाएकारो कहे बे. ॥ २५ ॥ एवीरीते पश्चिमविदेदनी पेदाए मेरुथी नैऋत्यखुणामां रहेला निषधाचलपर मंमलोनी श्रेणि जाणवी ॥ २६ ॥ वळी - उदय क्षेत्रना प रावर्तनथी बन्ने यनोमां विदिशामां रहेली बे श्रेणिन
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( ६१ ) जीभ्यां । ममलाव्यौ स्थिते श्मे ।। औदयिकक्षेत्रपरा-वदियनयोईयोः ॥ २७ ॥ कांतिहान्याऽयने याम्ये-ऽर्वागर्वागतौ खी ॥ दृश्येते कांतिवृष्ट्या च । दूरतोऽप्युत्तराय
णे ॥ २० ॥ एवं हरिवर्षरम्यकजीवाकोट्योरपि भावना. तथाहुर्जबूद्दीपप्रज्ञप्तिसूत्रे___जंबद्दीवेणं भंते दीवे सूरियो नदीण पाईणमुग्गबपाश्ण दाहिणमागचंति १, पूर्वविदेहापेदयेदं. पाश्णदाहिणमुग्गब दाहिणपमीणमागबंति २, नरतापेदयेदं. दाहिणपडीणमुग्गल पडीण नदीमागबंति ३, पश्चिमवडे या बन्ने मंमलपंक्तिन रहेली . ॥ २७॥ दक्षिणायनमां कांतिनी हानिथी बागळ आगळ पावेला बन्ने सूर्यो उत्तरायनमां कांतिनी वृधिवडे दूरथी पण देखाय
. ॥ ॥ एवीरीते हरिवर्ष तथा रम्यकक्षेत्रनी जीवानी बने कोटीनमां पण जावी लेवं. तेमाटे जंबूद्दीपपन्नत्तिसूत्रमा कांबे के. हे भगवन् ! जंबूद्दीपमां सूर्य नत्तरपूर्वमां नगीने पूर्वदक्षिणमां आवे ने १, घने ते पूर्व विदेहनी अपेदाये . पूर्वदक्षिणमां नगीने दक्षिणपश्चिममां बावे ३२, अने ते जरतक्षेवनी थपेदाये जे. दक्षिणपश्चिममां न.
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( ६१ ). विदेहापेदयेदं पड़ी नदी मुगल नदी पाईएमाग - चंति, ऐरावतापेक्षयेदं ४ ॥ या मंमलानां विषय-व्यवुस्थेयमुदीरिता । जारतादिमध्यजागा - पेक्षया सा वि भाव्यतां ॥ ५ ॥ यन्यत्र तु स्वस्वनानू - दयक्षेत्रे यथोदिता ॥ मंगलानां व्यवस्था सा । व्यक्त्या वक्तुं न श. क्यते ॥ ३० ॥ एवं च - येषामदृश्यो दृश्यत्वं । दृश्यो वा यात्यदृश्यतां ॥ यत्र तत्रैवोदयास्तौ । तेषां नानुमतो नृणां ॥ ३१ ॥ नन्वेवं सति सूर्यस्यो - दयास्तमयने खलु गीने पश्चिम उत्तरमां यावे बे ३, ने ते पश्चिमविदेहनावे. पश्चिम उत्तरमां लगीने उत्तरपूर्वमां घ्यावे ४, ने ते ऐवतक्षेत्रनी यपेक्षाये बे. ॥ मांमलां - जनी जे या विषयव्यवस्था कही. ते भरतक्षेत्रादिकना मध्यभागनी यपेक्षाये जाणवी ॥ २५ ॥ बीजी जगोए तो पोतपोताना सूर्यना उदयक्षेत्रमां मांडलांनी जे व्यवस्था बे, ते प्रकटते कही शकाय नही. ॥ ३० ॥ श्र ने एवीरीते - जेनने ज्यां नही देखातो सूर्य देखवामां घ्यावे, ने देखा तो दृश्य थाय, त्यांज ते मनुष्योने सूर्यना उदयास्त d. ॥ ३१ ॥ अहीं शंका करे बे के, एम होते छते तो सूर्यनां उदयास्त बेहदरीते कोइ पण
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(६३) ॥ स्यातामनियते बाढं । स्तो (स्तां ) यदुक्तं पुरातनैः।। ॥ ३ ॥ जह जह समए समए । पुरन संचरश् जकरो गयणे ॥ तह तह श्नवि नियमा । जायश्रयणी नावहो ॥ ३३ ॥ एवं च सश्नराणां । उदयबमणाई होत नियया ॥ सश्देसकालनेए । कस्स किंचिव दिस्सए नियमा ॥ ३३ ॥ सश् चेव अनिदियो । रुद्दमुहुत्तो क मेण सवेसि ॥ तेसिंचीदाणिपि य । विसयपमाणो स्वी जेसिं ॥ ३४ ॥ भगवती मूत्रशत०५ प्रथमोद्देशकवृत्ती. इ. ति सूर्यमंझलसंख्या प्रसंगात्तविषयव्यवस्था च. वाच्याय प्रकारना नियमविनानां थाय, केमके तेमाटे पूर्वाचार्योए कां ने के, ॥ ३२ ॥ जेम जेम समये समये सूर्य था काशमां श्रागळ चाले , तेम तेम त्यांथी निश्चयपूर्वक रात्रिनो संभव थाय . ॥ ३३ ॥ अने एवीरीते चोकस माणसोने सूर्यना उदयास्त देशकालना नेदथी निश्चय वाळा होय , केमके कोकने पण ते नियमितरीते दे. साय . ॥ ३३ ॥ वळी अनुक्रमे ते सर्वने अदृश्य थाय बे, अने जेने जेने ते पागे देखाय ने तेनी तेनी अ. पेदाये ते नदय थयेलो . ॥३४॥ एवीरीते जगवती. सूत्रना पांचमा शतकना पहेला नद्देशानी टीकामां .
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(६४) मंडलाबाधा । त्रिविधा सा निरूपिता ॥ नघतो मंडलक्षे. त्रा-बाधाधिकृत्य मंदरं ॥ ३५ ॥ मेरुमेवाधिकृत्यान्या । चाबाधा प्रतिमंडलं ॥ ममले ममलेऽवाधा। तृतीया वर्कयोर्मियः ॥ ३६ ॥ सहस्राणि चतुश्चत्वारिंशदष्टौ शतान च ॥ विंशानि मेरुतो दूरे। मंडलक्षेत्रमोघतः ॥३७॥ तथाहि जंबूद्वीपांतः । सर्वात्यंतरमंमलं ॥ साशीतियोज नशतं । स्थितं वगाह्य सर्वतः ॥ ३० ॥ ततश्च दीपविष्क. भा-बदरूपादियोज्यते ॥ साशीतियोजनशतं । प्रत्ये. एवीरीते सूर्यना मंमलोनी संख्या तथा प्रसंगथी तेना विषयनी व्यवस्था कही. हवे ते मंडलोनी अबाधा त्रण प्रकारनी जाणवी, तेमां नघथी मंदराचलनी अपेदाये मंडलक्षेत्रनी अबाधा जाणवी. ॥ ३५ ॥ बीजी पण मेरु नेज अपेदीने दरेक मंडलपते जाणवी, अने त्रीजी - ने सूर्यनी परस्पर मंडलमंमलमां बाधा जाणवी. ॥३६॥ नघथी मंमलनुं क्षेत्र मेरुयी चमालीसहजार पाउसो वीस जोजन दूर . ॥ ३७ ॥ ते कहे -सर्वथी अंदरनु मंगल जंबूद्दीपमां फरतुं एकसो एंशी जोजन सुधी श्रवगाढीने रहे . ॥ ३० ॥ थने तेथी एकलाख जोजननी हीपनी पहोळाश्मांश्री दरेक बने बाजुएथी एकसो.
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( ६५ ) कं पार्श्वयोर्द्वयोः || ३७ ॥ सदस्रा नवनवति - चत्वारिंशा च षट्शती । ईदृग्रूपः स्थितो राशि -- रस्मादप्यपनीयते ॥ ४० ॥ सहस्राणि दश व्यासो । मेरोस्ततोऽवशिष्यते ॥ नवाशीतिः सहस्राणि । चत्वारिंशा च षट्शती ॥ ४१ ॥ एतावान्मंडलदोत्रे | मेरुयासो न यद्यपि || तथापि तलगतो । व्यवहारादिहोच्यते ॥ ४३ ॥ तथाहुः श्रीमलयगिरिपादा बृहत्क्षेव समासवृत्तौ – यद्यपि च नाम मंमलक्षेत्रे मेरोर्विष्कंभो दशयोजनसदस्रात्मको न लन्यते, किंतून स्तथापि धरणितले दशयोजनसदस्रप्रमा
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ऐसी एकसोएंसी जोजन बाद करवा ॥ ३० ॥ त्यारे न वाणु हजार छसो छाने चाळीस जेटली रकम रहेशे, अ. ने मांथी पण ॥ ४० ॥ मेरुतो व्यास दश हजार जोजन बाद करवायी नेव्यासी हजार बसो चालीस जेटली रकम रहेशे ॥ ४१ ॥ एटला मंडल क्षेत्रमां जो के मेरुनो व्यास नथी, तोपण पृथ्वीतलपर रहेलो ते व्यवहारथी -
कवा d. ॥ ४३ ॥ माटे श्रीमलयगिरिजी महाराज बृहत्क्षेत्रसमासनी टीकामां कहे वे के—जो के मंडलक्षेत्रमां मेरुनो विष्कंन दश हजार जोजन जेटलो नथी, परंतु नंगे बे, तोपण पृथ्वीतलपर ते दशहजार
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(६६) णः प्राप्यते इति तत्रापि स तावान व्यवहारतो विवदयते. अस्मिनाशावर्धिते च । संपद्यते यथोदितं ॥ नघतो मंडलदेोत्रां'तरं मेरुण्यपेदया ॥ ४३ ॥ इति मेरु प्रतीस्य मंडलक्षेत्राबाधा. ॥ एतदेवांतरं मेरोः। सर्वातमैडल. स्य च ॥ प्रतः परं यदपरं । नास्ति मंडलमांतरं ॥ ४ ॥ सर्वांतरानंतरे तु । द्वितीयमंडले ततः । साष्टाचत्वारिंशदं
। वर्धते योजनवयं ॥ ४५ ॥ प्राग्मंडलादग्र्यमंमले योजनयं ॥ साष्टाचत्वारिंशदंश-मवाधायां विवर्धते ॥ ४५ ॥ एवं यावत्सर्वबाह्य-मंडलं मेरुतः स्थितं जोजनजेटलो प्राप्त थाय ने, अने तेथी त्यांपण व्यवहा रथी तेटलो कहेवामां आवे . अने दिशामां ते वध. ते ते मेरुनी अपेदाये नघथी कह्यामुजब मंगलक्षेत्रनुं अंतर थाय . ॥ ४३ ॥ एवीरीते मेरुने पाश्रीने मंडलक्षेत्रनी अबाधा कही. ॥ तेज अंतर मेरुनु भने सघळा अंदरना मंमलनु , केमके ते शिवाय बीजं अंदरनुं मं. मात्र नथी.॥४४॥ सघळा अंदरना मंमलपत्रीबीजा मं. मलमांयमतालीस अंशसहित बे जोजन वधे ने.॥४५॥ अने एवीरीते पूर्वना मंमलथी घागला मंमलमां अवाधामां अमतालीस अंशसहित बे जोजन वधे. ॥ ४५ ॥
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(६७) ॥ सहस्रैः पंचचत्वारिं-शता त्रिंशैत्रिनिः शतैः ॥ ४६ ।। इति मेरुं प्रतीत्य प्रतिमंमलमबाधा. ॥ यदाकौं चरतः प्राप्य । सर्वात्यंतरमंमलं ॥ तदा सूर्यस्य सूर्यस्य । स्यात्पर स्परमंतरं ॥ ४ ॥ सहस्रा नवनवति-श्चत्वारिंशा च षट्शती ॥ दीपव्यासादुनयतो । मंडलक्षेत्र १०० कर्षणात्॥ ॥ ४ ॥ सर्वांतरानंतरं तौ । द्वितीयं ममलं यदा ॥ नपसंक्रम्य चरत-स्तदा मिथोंतरं तयोः ॥ ए॥ सहस्रा न. वनवति-योजनानां च षदशती ॥ पंचचत्वारिंशदाव्या । एवीरीते सघळू बाह्यमंमल मेस्थी पस्तालीसहजार त्रणसो त्रीस जोजने रहेQ . ॥ ४६॥ एवीरीते मेरुने था. श्रीने दरेकममलनी अबाधा कही. ॥ ज्यारे बन्ने सूर्यो सघळा अंदरना मंमलने प्राप्त थश्ने चाले , त्यारे सू. र्यसूर्यवच्चेनो परस्पर अंतर थाय . ॥ ४ ॥ हीपनी पहोळाश्मांथी मंमलक्षेत्रना बन्ने बाजुएथी एकसोएंसी ए. कसोएंसी जोजन बाद करवाश्री नवाणुहजार उसोने चाळीसजेटली रकम रहे . ॥ ४ ॥ अंदरना सर्व मांग लां पनी ज्यारे ते बन्ने सूर्यो बीजा मामलामा संक्रमीने चाले , त्यारे तेन बन्नेनो परस्पर अंतर ॥ ४ ॥ नवाणु हजार उसो पस्तालीस जोजन अने पांतीस लवो.
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( ६ ) पंचत्रिंशत्तथा लवाः ॥ १० ॥ तथा कोऽप्यर्क श्द | द्वितीयमंडले व्रजन् । साष्टाचत्वारिंशदंशे । द्वे योजने व्यतिक्रमेत् ॥ २१ ॥ एवं द्वितीयोऽपि ततो । वर्धते प्रतिमंडलं ॥ | योजनानि पंच पंच - त्रिंशङ्गागा मिथोंतरे ॥ ५२ ॥ एवं यावत्सर्व बाह्य- -ममले चरतस्तदा । तयोमिथोंतरं लक्षं । सष्टीनि शतानि षट् ॥ ५३ ॥ त्र्यंतर्विशंतौ तौ सर्व - बाह्यमंडलतः पुनः ॥ पर्वाचीने सर्ववाह्या - र्तेते मंडले यदा ॥ ९४ ॥ तदार्कयोरंतरं स्या
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नो दोय बे. ॥ ९० ॥ वळी एक सूर्य पण यहीं बीजा मंगलमां जतोथको बे जोजन ने घडतालीस अंश जाय ॥ ९१ ॥ यने एवीरीते बीजो सूर्य पण जाय, यने तेथी दरेक मंडले तेनुं परस्पर अंतर पांच जोजन
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ने पांत्रीस शोजेटबुं थाय ॥ ५२ ॥ छाने एवीरीते ज्यारे ते बन्ने सूर्यो बहारनां सघलां मंडलोमां विचरे, त्यारे ते बन्नेनुं परस्पर अंतर एकलाख बसो साठ जोजनजेटबुं थाय ॥ ९३ ॥ पी ज्यारे सघळां बहारना मंडलमांथी ते पाना यंदर दाखल थताथका सघला बदारना मंमलमांथी पर्वाचीन मंगलमां यावे बे ॥९४॥ त्यारे ते बन्ने सूर्यवच्चेनो अंतर एक लाख बसो चोपन
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(६०) खदमेकं शतानि षट् ॥ चतुःपंचाशानि लवाः । पतिशतिः पुरोदिताः॥ ५५ ॥ एवमंतः प्रविशतः । प्रतिमंडलमंतरं ॥ पंचभिर्योजनैः पंच-त्रिंशतांशैश्च हीयते ॥२६॥ एवं पूर्वोदितमेव । सर्वात्यंतरमंमले ॥ मिथोंतरं योर्भान्वोः । पुनस्तदवशिष्यते एए६४० ॥ ५७ ॥ इति मंडले मंडले सूर्ययोः परस्परमवाधा. ॥
हे हे च योजने सूर्य-मंगलानां मिथोंतरं ॥ कथ मेतदिति श्रोतुं । श्रघा चेत् श्रूयतां तदा ॥ २७ ॥ सू. जोजन बने पूर्व कहेला वीस अंशोजेटलो होय . ॥ ५५ ॥ बने एवीरीते अंदर दाखलथतां दरेक मंडले तेजनुं अंतर पांच जोजन धने पांत्रीस लवोजेटधं उडं
बुं यतुं जाय . ॥ ५६ ॥ एवीरीते सघला यंदरना मंडलमां ते बन्ने सूर्योर्नु परस्पर अंतर पूर्वे कह्यामुजब (ए७६४० जोजनजेटबुं बाकी रहे . ॥ २७ ॥ एवी रीते मंडलमंमलाते बने सूर्योनी परस्पर अबाधा कही. ॥
. बबे जोजने रहेलां सूर्यनां मामलाउनु परस्पर थाटेबु अंतर केम होय? ते सांगलवानी जो तारी श्बा होय तो सांभल ? ॥ २७ ॥ सूर्यमंमलनी पहोळाश्ने एकसोचोर्यासीए गुणवाथी बने तेने मंमलक्षेत्रनी पहो.
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(७०) यमंमल विष्कने । स्फुरचतुरशीतिना ॥ शतेन गुणिते त्यक्ते । मंडलक्षेत्र विस्तृतेः ॥ एए॥ शेषा स्थिता योजनानां । सषट्षष्टिः शतत्रयी ॥ सत्र्यशीतिशतेनास्यां । नक्तायामेतदंतरं ॥ ६० ॥ इति मंगलांतरप्ररूपणा ॥ क. तव्या मंडलाचार-प्ररूपणा च संप्रति ॥ सप्तानुयोगदाराणि । तत्राहुस्तत्ववेदिनः ।। ६१ ॥ प्रत्यब्दं मंमलाचारसंख्याप्ररूपणा रवेः ॥ वर्षातः प्रत्यहं रात्रि-दिनमानप्ररूपणा ॥ ६॥ ममले मंगले क्षेत्र-विभागेनाप्यहर्निशोः ॥ प्ररूपणा मंमलानां । परिक्षेपप्ररूपणा ।। ६३ ॥ प्ररूप. ळाश्मांथी बाद करवायी ॥ रए । बाकी त्रणसो छासठ जोजन रह्या. तेने एकसो त्र्यासीए जांगवायी ते अंतर श्रावे . ॥ ६०॥ एवीरीते ममलना अंतरनी प्ररूपणा जाणवी. ॥ हवे ममतनी चार प्ररूपणा कवी जोध्ये. तेमाटे तत्ववेत्तानए सात अनुयोगदारो कहेला . ॥ ॥ ६१ ॥ दरवर्षे सूर्यना मांडलानी गतिसंख्यानी प्ररूपणा, वर्षमां हमेशनी रात्रि तथा दिवसना प्रमाणनी प्ररूपणा, ॥ ६ ॥ मंडलमंडलाते क्षेत्र विनागवडे करीने पण दिवस अने रात्रिनी प्ररूपणा, मंडलना वेरावानी प्ररूपणा, ॥ ६३ ॥ तथा सातमी अर्धममलनी स्थितिनी
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(७१) णा सप्तमी च । ख्यातार्धमंगलस्थितेः ॥ अनुयोगद्दारमथ। प्रथमं पस्तिन्यते ॥ ६४ ॥ चरतोऽौ यदा सर्वातरानंतरमंमले ॥ सूर्यसंवत्सरस्याहो-रात्रोऽयं प्रथमस्तदा ॥ ६५ ।। त्र्यशीतियुक्शततमे । दैतीयीकात्तु मंमलात ॥ परिपाट्या सर्वबाह्य-मंमले तो यदागतौ ॥ ६६ ॥ संपू
र्णाः सूर्यवर्षस्य । षएमासाः प्रथमे तदा ॥ एतदेव च वर्षेऽस्मिन् । दक्षिणायनमुच्यते ॥ ६७ ॥ सर्वबाह्याक्तिने. ऽथ । ममलेऽकौ यदा पुनः ॥ तदोत्तरायणस्याहो । रात्रोऽयं प्रथमो भवेत् ॥ ६७ ॥ त्र्यशीतियुक्शततमे । बा. प्ररूपणा कहेली . हवे तेमांथी पहेला अनुयोगद्दारनु वर्णन करे . ॥ ६४ ॥ ज्यारे बने सूर्यो सघला अंदर. ना मंमलपबीना मंडलमां चाले ने, त्यारे सूर्यसंवत्सरनो पहेलो अहोरात्र थाय . ॥ ६५ ।। पनी ज्यारे ते बन्ने सूर्यो बीजा मंडलथी एकसोत्र्यासीमा एटले सर्वथी बहा. रना मंडलमां अनुक्रमे थावे , ॥ ६६ ॥ त्यारे सूर्यवपना पहेला उ मासो थाय ने, अने तेज था वर्षतुं द. क्षिणायन कहेवाय . ॥ ६७ ।। बहारनां सघळां मंगलोथी पहेला मंडलमां ज्यारे ते बन्ने सूर्यो होय , त्यारे उत्तरायणनो ते पहेलो यहोरात्र थाय ने. ॥ ६० ॥ प.
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(७१) ह्या चीनमंडलात् ॥ यदा क्रमाञ्ची प्राप्तौ । सर्वात्यंतर मंमले ॥ ६॥ ॥ पूर्णा द्वितीया षएमासाः । पूर्ण तथोत्त रायणं ॥ पूर्ण वर्ष सषट्षष्ट्य-होरात्रविशतात्मकं ॥ ॥ ७० ॥ एवं च-सर्वातरसर्वबाह्य-ममलयोः किलैकशः॥ प्रत्यब्दं सूर्यचारः स्या-सर्वेष्वन्येषु च दिशः ॥११॥ तथा चागमः-जयाणं सूरिए सवप्नंतरान ममला सवबाहिरं ममलं नवसंमित्ता चार चश्, सबबाहिरान य मंगला सवप्नंतरमंमलं नवसंकमित्ता चार चरश्, एस णं जी ते बहारना पहेला मंगलथी सर्वथी अंदरना एकसो त्र्यासीमा मंडलमां अनुक्रमे ज्यारे ते बन्ने सूर्यो थावे बे, ॥ ६७ ॥ त्यारे बीजा ब मास पूरा थाय , तेम न. त्तरायण संपूर्ण थाय ने, घने त्रणसोछासठ अहोरात्रन एक वर्ष पण पूर्ण थाय.. ॥ ७० ॥ श्रने एवीरीतेसर्वथी अंदरना अने सर्वथी बहारना एम ते बे मंमलो. मां एकवार बने बाकीना सर्व मंडलोमां बेवार दरवर्षे सूर्यनी गति थाय ने. ॥ ११ ॥ तेमाटे यागममां कडं ने के-ज्यारे सूर्य सघळा अंदरना मंमलोमांयी सघळा बहारना मंमलोमां संक्रमीने गमन करे , तथा सघता बहारना मंडलोमांथी सघच अंदरना मंडलोमां संक्रमीने
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नाई
(93) हा केवणं राई दियग्गेणं व्यादयत्तिव एद्या? तिन्निबा व राईदियस राईदियग्गेणं याहियत्तीवएज्जा, तो एयाएणं खाए सूरिए कश्मंडलाई चरश्ता ? चुलसीयं मंमलसयं चारं चरश बासीयं मंमलसयं दुख्खुत्तो चर5, तं जहा - निकममाणे 'चैव पविसमाणे चैव दुवेय खलु मंमलाई सयं चर, तं जहा - सघनंतरं चैव सवबादिरं चेव मंडलं. ॥ इति मंमलचारसंख्या प्ररूपणा ||
याक्रमेते यदा जानू । सर्वान्यंतरमंमले ॥ यष्टादगमन करे वे, त्यारे ते काळ केला रात्रिदिवसोनो क हेवाय बे ? ( तेमाटे कहे बे के ) ते काळ वणसो बां
रात्रिदिवसोनो कहेवाय बे. त्यारे एटला वखतमां सूर्य केलां मंमखोमां गमन करे बे ? ( तेमाटे कहे वे के) तेलावखतमां सूर्य एकसो चोर्यासी मंगलमांगमन करे बे, यने तेमांथी एकसो व्यासी मंगलोमां ते बेवार गमन करे बे, ते नीचेमुजब - निकळती छाने प्र. वेश करतीवखते वे मंगलमां ते एकवार गमन करे बे,
ते वे मंगलोमा एक सर्वथी अंदरनुं ने बीजुं सवैथी बहारनुं मंगल बे. ॥ एवीरीते मंगलनी गतिनी संख्यानी प्ररूपणा कही. ॥
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(१४) श मुहूर्तात्मा । सर्वोत्कृष्टो दिनस्तदा ॥ १२ ॥ रात्रिः स. र्वजघन्या तु । स्याद् द्वादशमुहूर्तिका ॥ अथ क्रमाद्रात्रि वृधि-विनीया दिनदतिः ।। १३ ।। यदा तस्मादिनिः यौतौ । सर्वान्यंतरमंमलात ॥ धारजमाणो नयाब्दमहोरात्रेऽस्य चादिमे ॥ १४ ॥ संक्रम्य चरतः सर्वा-ज्यं. तरानंतरस्थितं ॥ द्वितीयं मंडलं सूर्यो । दीपमंदिरदीपको ॥ ७९ ॥ दान्यां मुहूर्तेकषष्टि-जागान्यां दिवसस्तदा । हीयते वासतेयी च । तान्यामेव विवर्धते ॥ ७६ ॥ अ
हवे ज्यारे ते बन्ने सूर्यो सर्वथी अंदरना मंमलमां जाय, त्यारे सर्वथी नत्कृष्टो दिवस अढार मुहूर्तानो थाय ॥ ७ ॥ बने सर्वथी जघन्य रात्रि बार मुहूर्तानी थाय , धने पनी अनुक्रमे रात्रिनी वृद्धि अने दिवस. - कमतीपणुं भावी लेवं. ॥ ३३ ॥ हवे ज्यारे ते सर्वथी अंदरना मंमलमांथी ते बने सूर्यो निकलताथका नवां व. पनो प्रारंन करे , त्यारे तेना पहेला अहोरात्रमा ॥ ॥१४॥ सर्वथी अंदरना मंमलनी पासे रहेला बीजा मं. मलमां दीपरूपी मंदिरमां दीपकसमान ते बन्ने सूर्यो ग. मन करे , ॥ १५ ॥ थने ते वखते मुहूर्तना एकसठीया जागजेवमा बे नागोजेटलो दिवस नंगे थाय बे,
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(१५) होरात्रे द्वितीयेऽस्य । तृतीयमंडले यदा ॥ संक्रांती तरणी सवी-तरानंतरमंडलात् ॥ 9 ॥ मुहूत्तैकषष्टिनाग-श्वतुभिर्दिवसस्तदा ॥ हीयते वर्धते रात्रि-भांगैस्तावद्भिरेव च ॥ ७० ॥ एवं मुहूर्तेकषष्टि-जागौ हौ प्रतिमंडलं ॥ हापयंतौ दिनक्षेत्रे । वर्धयंती निशादिशि ॥ ३ ॥ अर्को यदा सर्वबाह्य-मंडले समुपस्थितौ ॥ अहोरात्रेऽस्य वर्षस्य । त्र्यशीतियुक्शतोन्मिते ॥ ७० ॥ तदा तान्यां मु. हुक-षष्टयंशानां शतत्रयं ॥ सृष्ट्षष्टि दिनाकृष्टं । रजन्यां थने तेस्ला नागजेटली रात्रि वृधि पामे . ॥ ६ ॥ पली ते वर्षना बीजा अहोरात्रमा ज्यारे तेन सर्वथी अं. दरना मंमलथी त्रीजा मंमलमा दाखल थाय ने, ॥७॥ त्यारे मुहूर्तना चार एकसठीया भागजेटलो दिवस कमी थाय , अने तेटला नागजेटली रात्रि वृद्धि पामे .॥ ॥ ७० ॥ एवीरीते दरेक मंडलपते मुहूर्तना बबे एकस. ठीया भागजेटवू दिनक्षेत्रमा कमी करताथका तथा रात्रिक्षेत्रमा तेटर्बु वधारताथका ॥ ४५ ॥ ते बन्ने सूर्यो ज्यारे ते वर्षना एकसो त्र्यासीमा अहोरात्रमा सर्वथी बहारना मंडलमां आवे , ॥ ७० ॥ त्यारे तेन दिवसमांथी खें. चेला मुहूर्तना एकसठीया जागजेवमा वणसो छासठभा
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(१६) चाभिवर्धितं ॥ ७१ ॥ तावनिश्च मुहूर्तेक-पष्टिमागैर्यथोदितैः ॥ विभाजितैरेकषष्ट्या । मुहूर्तानि नवंति षट् ॥ . ॥ २ ॥ अहोरात्रेऽत्र तदात्रि-रष्टादशमुहूर्तिका ॥ नत्कृ टाहश्चापकृष्टं । स्याद्वादशमुहूर्तकं ॥ ७३ ॥ याम्यायनस्य पूर्णस्या होगत्रोऽयं किटांतिमः ॥ त्र्यशीतियुगहो. रात्र-शतेनेदं हि पूर्यते ॥ ॥ लोके तु–रसाई नाड्योऽपलामगे स्युः। संचापकुंनेष्टयतः पलैस्ताः ।।
लौ च मीनेऽष्टयमाः सशक्रा । मेर्षे तुलायामपि त्रिंगोने रात्रिमा वधारी आपे ने. ॥ १ ॥ एवीरीते नपर कहेला तेटला मुहूर्तना एकसठीया भागोने एकसठे नांगवाथी न मुहूर्तो थाय . ॥ ७ ॥ हवे ते अहोरात्रमा नत्कृष्टी रात्रि अढार मुहूर्तानी थाय ने, अने जघन्य दि. वस बार मुहूर्तानो थाय ने, ॥ ३ ॥ तथा ते संपूर्ण थयेला दक्षिणायननो मेलो अहोरात्र ने. अने ते ददिणायन एकसो त्र्यासी अहोरात्रथी संपूर्ण थाय ॥ ॥ ४ ॥ लोकमां तो-मकरसंक्रांतिमां वीस घडी बने बार पलनुं दिनमान होय, तथा धनुष धने कुंभसंक्रां. तिमां ग्वीस धमी अने पाठ पलोनुं दिनमान होय , वृश्चिक अने मीनसंक्रांतिमां अठावीस घडी चौद पल,
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शदेव ॥५कन्यावृषे शिखिनोंगवेदाः'। सास्त्रिरामा मिथुने च सिंहे॥ कर्के त्रिरामा वसुदेवयुक्ता। ए. षा मितिः संक्रमवासराणां ॥ ६ ॥ ततश्च-एकार्कपददिशास्त्रिंदता-त्रिदतपदेशिराः कुसूर्योः ॥ मृगादिषट्केऽहनि वृधिरेवं । कर्कादिषट्केऽपचितिः पलाया । ॥15॥ प्रविशंतो सर्वबाह्य-मंडलातरणी यदा ॥ सं. क्रम्य चरतः सर्व-बाह्या चीनमंमले ॥ ७ ॥ तदा दा. श्रने मेष तथा तुलासंक्रांतिमां त्रीस घडी होय . ॥ ॥ ५ ॥ कन्या अने वृषसंक्रांतिमां एकत्रीस घडी बने तालीस पल होय , तथा मिथुन अने सिंहसंक्रांति मां तेंत्रीस घडी अने बार पल होय , तथा कर्कसंक्रां तिमां तेंत्रीस घडी यमतालीस पल होय , एवी रीतर्नु संक्रांतिना दिवसोनुं माप , ॥ ६ ॥ अने तेथी-एक, बार, बे, पांच,त्रण, अने बत्रीस, तथा त्रपा, बत्रीस, बे, बे, पांच, एक अने बार, ए रीतनी पलादिकरूप मकरश्रादिक छ संक्रांतिमां वृधि थाय , अने कर्कश्रादिक उ संक्रांतिमां कमी थाय . ॥ ७ ॥ सर्वथी बहारना मंडलमाथी ते बन्ने सूर्यो संक्रमीने ज्यारे सर्वथी बहारना अर्वाचीन मंमलमां गमन करे , ॥ 1 ॥ त्यारे मुहूर्त
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(90) ज्या मुहूर्तेक-षष्टयंशान्यां विवर्धते ॥ दिवस/ दीयते रात्रि-स्तान्यामेव यथोत्तरं ॥ जए ॥ क्रमादेवं यदा प्रा. सौ । सर्वाच्यंतरमंमले ॥ त्र्यशीतियुक्शततमे । बाह्याचीनमंडलात् ॥ ए०॥ तदोत्कृष्टं दिनमान-मष्टादशमुहतकं ॥ रात्रिः सर्वजघन्या तु । स्याद् द्वादशमुहूर्तिका ।। ॥ १ ॥ एतदेवोदगयन-स्यात्यं दिनमुदीरितं ।। पूर्ण चास्मिन्नहोरात्रे । संपूर्णः सूर्यवत्सरः ॥ ७॥ अत्युत्कृष्टं चापकृष्टं ।, प्रत्यब्दमेकमेव हि ॥ दिनं रात्रिस्तथै वैका । सर्वोत्कर्षापकर्षभाक् ।। ७३ ॥ रात्रिर्याम्यायनांतेऽति-गुना बे एकसठीया भागवडे अनुक्रमे दिवस वृधिपामे ने, अने रात्रि तेटलीज घटे . ॥ नए ॥ श्रने एवीरोते अनुक्रमे ज्यारे ते सर्वथी अंदरना एटले बहारना अ. वर्वाचीन मंगलथी एकसोत्र्यासीमा मंमलमां जाय ॥ ॥ ए. ॥ त्यारे नत्कृष्टुं दिनमान बढार मुहूर्तोतुं श्राय से बने सर्वथी जघन्य रात्रि बार मुहूर्तोनी थाय .॥ ॥१॥ अने तेनेज उत्तरायणनो बेल्लो दिवस कहे. लोने, अने ते अहोरात्र पूर्ण थवाथी सूर्यसंवत्सर संपू
थाय ने ॥ ए॥ एवीरीते दरवर्षे अति उत्कृष्ट य. ने अतिजघन्य एकज दिवस तथा यतिनत्कृष्ट बने श्र
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(90) : लघुतमं दिन ॥ दिनः सौम्यायनांतेति-गुरुर्निशा लघीयसी/॥ ४ ॥ तथा च सिधांतः-श्ह खबु तस्सेवं थाश्चसंवबरस्स सई यहारस मुहुत्ते दिवसे भव सई बारसमुहुत्ता राई जवर, सई दुवालसमुहुत्तो दिवसो नव. सयं दुवालसमुहुत्ता राश्न वा. जंबूद्दीपे यदा मेरो-दक्षिणोत्तरयोर्दिनं ॥ चकितेव तदा रात्रिः । स्यात् पूर्वापरयोर्दिशोः ॥ ५॥ सर्वोत्कृष्टं दिनमानं । दक्षिणोतिजघन्य एकज रात्रि यावे . ॥ ५३ ॥ दक्षिणायनने बेडे रात्रि अति मोटी होय , धने दिवस अत्यंत नानो होय , अने उत्तरायणने डे दिवस अतिमोटो तथा रात्रि अति नानी होय . ॥ ए ॥ ते माटे सि. छांतमां पण कडं ने के-अहीं ते सूर्यसंवत्सरनो एक ज दिवस अढार मुहूर्तातो थाय ने, अने रात्रि पण ए. कज अढार मुहूर्तोनी थाय , तेम एकज दिवस बार मुहूर्तानो थाय ने, अने एकज रात्रि बार मुहूर्तोनी थाय बे. जंबूद्दीपमां ज्यारे मेरुथी दक्षिणे अने उत्तरे दिवस होय , त्यारे जाणे मरी गए होय नहि तेम रात्रि तेथी पूर्व बने पश्चिम दिशामां होय . । ए५ ॥ वली दक्षिण अने उत्तरमा ज्यारे सर्वयी उत्कृष्टुं दिनमान
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(७०) तरयोर्यदा ॥ रात्रिः सर्वजघन्या स्या-त्पूर्वपश्चिमयोस्तदा॥ ए६ ॥ सर्वोत्कृष्टं दिनमानं । पूर्वपश्चिमयोर्यदा ॥ रात्रिः सर्वजघन्या स्या-दक्षिणोत्तरयोस्तदा ॥ ए॥ किंच क्षेत्रेषु सर्वेषु । समं मानमहर्निशोः ॥ किंत्वेतयोरवस्थाने । यथोक्तः स्यादिपर्ययः ।। ए ॥ क्षेत्रे काले च सर्वस्मि-नहोरात्रो जवेध्रुवं ॥ त्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणो । न तु न्यूनाधिकः कचित् ॥ "ए ॥ एवमहोरात्रे विशेष व. दंति, अत एव दक्षिणायनं देवानां रात्रिरुत्तरायणं तेषां होय , त्यारे पूर्व अने पश्चिममां सर्वथी जघन्य रात्रि होय ॥ ६ ॥ तथा ज्यारे पूर्व बने पश्चिममां सर्वथी नत्कृष्टुं दिनमान होय , त्यारे दक्षिण अने नतरमां सर्वथी जघन्य रात्रि होय ॥ एy ॥ वळी जो. के सर्व क्षेत्रोमां रात्रिदिवसनुं सरखं प्रमाण होय , तोपण तेनुनी अवस्थामां नपर कह्या मुजब फेरफार थाय
. ॥ एG ॥ सर्व क्षेत्र धने सर्व कालमा अहोरात्र तो त्रीसमुहूर्तोनोज होय , परंतु क्यांय पण तेथी जजोय दको थतो नथी. ॥ ए ॥ एवीरीते अहोरात्रना संबं धमां एटलो तफावत कहे जे, अने तेथीज दक्षिणायन देवोनी रात्रि, तथा उत्तरायन तेननो दिवस कहेवाय
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(७१) दिनमिति शुभकार्य तत्र विधेयमिति मन्यते. ननु चाष्टादशमुहू-तात्माहभरते यदि ॥ स्यात्तदा च विदेहेषु । रात्रिः सर्वलघीयसी ॥ २०० ॥ तर्हि रात्रदिशानां । मुहू: तानां व्यतिक्रमे ॥ स्यात्क्षेत्रे तत्र कः काल । इति चे च्यते शृणु ॥ १ ॥ गुरालिमानविश्लेषे । शेषार्धा नवेद् द्वयोः ॥ सामान्य क्षेत्रयो रात्रि-दिनपूर्वापरांशयोः ।।शा तद्यथा-दाणेन्योऽष्टादशज्यो दा-दशापकर्षणे स्थिताः ॥ षट् तदधै त्रयं साधा-रणं ज्येष्टदिनोषयोः ॥ ३॥ एवं बे, अने तेथी शुभकार्य उत्तरायनमां करवू एम माने. यही शंका करे के ज्यारे जरतक्षेत्रमा अढार मुहूर्तानो दिवस होय , त्यारे महाविदेहमां रात्रि सर्वयी ना नी होय ॥१०० ॥ त्यारे रात्रिना बार मुहूतौनो ज्य तिक्रम होते ते ते क्षेत्रमा कयो काळ थाय? तेमाटे उत्तर आपे ने के सांजल ? ॥१॥ दिवस अने रात्रि ना प्रमाणनो विश्लेष करवाथी वाकी रहेल जागर्नु अर्ध अर्ध बन्ने क्षेत्रोमां रात्रिदिवसना पूर्व अने पश्चिमांशमां सामान्यपणे रहे. ॥५॥ ते नीचेमुजब-अढार मुहूर्तमांथी बार बाद करते उते बाकी छ रह्या, तेनुं अर्थ जे त्रण ते उत्कृष्टा दिवस अने रात्रिमा सामान्य जाणवं.
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(२) च-अष्टादशमुहूर्तात्मा । यदोत्कृष्टदिनस्तदा ॥ पश्चात् त्रिदणशेषेऽह्नि । जवेनानूदयोऽग्रतः ॥ ४ ॥ तथाहित मुहूर्तत्रयशेषेऽह्नि । नरतैरवताख्ययोः ॥ नवेदव्युदयो भानोः । पूर्वापरविदेहयोः ॥ ५ ॥ दिने त्रिदाणशेषे त्र । पूर्वापरविदेहयोः ॥ स्याहारतैरवतयो-स्तरणेरुदयः ख. लु ॥ ६ ॥ एवं च-स्यानारतैरवतयो-रह्नोंत्यं यदाणत्र यं ॥ ज्येष्टेऽहनि तदेवाद्यं । पूर्वापरविदेहयोः ॥ ७ ॥ ॥३॥ अने एवीरीते-बढार मुहूर्तानो ज्यारे नत्कृष्टो दिवस होय, त्यारे दिवसना पाग्ला पहोरनी त्रण घडी बाकी रहेते बते बागला भागमा सूर्योदय थाय. ॥४॥ ते कहे जे-जरत अने ऐवतक्षेत्रमा ज्यारे त्रण मुहूर्त जेटलो दिवस बाकी रहे त्यारे पूर्व अने पश्चिम महाविदेहमां सूर्यनो नदय थाय. ॥ ५ ॥ तेमज पूर्व अने प. श्चिम महाविदेहमांत्रण घडी दिवस बाकी रहेते छते नरत अने ऐवतमां सूर्यनो उदय थाय. ॥ ६ ॥ अने एवीरीते-भरत अने ऐखत देत्रमा दिवसनी जे गेली त्रण घडीन रहे, तेज तण घडीन पूर्व अने पश्चिम महाविदेहमां नत्कृष्टा दिवसनी पेहेली त्रण घमीरूप जा. पावी. ॥9॥ श्रने नत्कृष्टता दिवसमां पूर्व तथा पश्चिम
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(७३) दिने गुरौ यदेवायं । पूर्वापरविदेहयोः ॥ तमारतैरवतयो -रहोत्यं स्यात्दाणत्रयं ॥ ७ ॥ तथा-अष्टादशमुहूर्ता स्या-द्यदोत्कृष्टा निशा तदा ॥ तन्मुहूर्तत्रयेऽतीते । भवे. दर्कोदयः पुरः ।। ७ ।। तथाहि-पूर्वापरविदेहेषु । भानो. रस्तातत्रिभिः दाणैः ।। स्यानारतैरवतयो-स्तरणेरुदयः खलु ॥ ॥ भारतैरवतयोश्च । जानोरस्तादनंतरं ॥ त्रिभिः दणैः स्यात्प्रत्यूषं । पूर्वापरविदेहयोः ॥ १०॥ दाणशब्दश्वात्र प्रकरणे मुहूर्त्तवाचीति ध्येयं. तथा च-नवेदिदे. हयोगद्यं । यन्मुहूर्तत्रयं निशः ॥ स्याद्भारतैखतयो-स्त. महाविदेहमा जे पहेली त्रण घडीन ने, ते जरत अने ऐखतना दिवसनी गेली त्रण घमीन . ॥ ७ ॥ वळीज्यारे अढार मुहूर्तनी नत्कृष्टी रात्रि होय, त्यारे तेनात्र ण मुहर्ता गयाबाद अगाडीना नागमा सूर्योदय थाय.॥ ॥ ७ ॥ ते कहे -पूर्व अने पश्चिम महाविदेहमा सू. स्तिथी त्रण घमीय भरत बने ऐरखतमा सूर्योदय थाय.
ए॥ श्रने भरत तथा ऐखतमां सूर्यास्त पनी त्रण घ. मीये पूर्व अने पश्चिम महाविदेहमां प्रनात थाय. ॥१०॥ दणशब्द या प्रकरणमा मुहूर्तवाची , एम जाणवू. व. की-बन्ने विदेहोमां रात्रिनी जे पहेली त्रण घमीन ,
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(08) देवांत्यं दाणत्रयं ॥ ११ ॥ स्याद्भारतैरवतयो-निशों दाणत्रयं ॥ नवेदिदेहयो रात्रे-स्तदेवांत्यं दाणत्रयं ।। ॥ १५ ॥ इह च प्राग्विदेहादि-क्षेत्राह्वानोपलादिताः ॥ पूर्वादिक्षेत्रदिग्मध्य-जागा ज्ञेया विवेकिभिः ॥ १३ ॥ तेविदं कालनयत्यं । ज्ञेयमन्यत्र तु स्फुटं ॥ भाव्यमस्यानुसारेणा-ऊदयास्तविभावनात् ॥ १३ ॥ एवं च-अ. पाच्युदीच्योः प्रत्यूषा-न्मुहूर्तत्रितये गते ॥ लघार्निशायाः प्रारंजः । स्यात्पूर्वापरयोर्दिशोः ॥ १४ ॥ अपराह्नत्रिमुहूतेज भरत यने ऐवतनी ही त्रण घडीन. ॥११॥ तेमज भरत अने ऐखतनी जे रात्रिनी चेली त्रण घडी नने, तेज बन्ने विदेहोमां शत्रिनी चेली बण घडीन ने. ॥ १५ ॥ अहीं पूर्व विदेहादिक क्षेत्रना नामथी जे भागो कह्या , तेने विवेकिनए पूर्वादिक क्षेत्रनी दिशाना मध्यभागो जाणवा. ॥ १३ ।। एवीरीते ते क्षेत्रोमां कालर्नु चोकसपणुं जाणवू, घने बीजी जगोए तो तेने अनुसारे सूर्यना नदयास्तनी भावनायी प्रगटरीते जाणी लेवं. ॥ १३ ॥ श्रने एवी रीते-दक्षिण भने उत्तर दिशामां प्रभातथीत्रण घडी जाते ते पूर्व बने पश्चिम दिशामां जघन्यरात्रिनो प्रारंन थाय ३. ॥ १४ ॥ वळी ते बन्ने दि
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(१) या । शेषायां चानयोर्दिशोः ॥ प्रत्यक्षाकं च निशांतः स्या-देवं सर्वत्र नाव्यतां ।। १५ ।। श्दं गुरु दिने गुा। रात्रौ त्वस्याः दाणत्रये ॥ गते शेषे च कल्पाहः-प्रांतावु. क्तदिशोः क्रमात ॥ १६ ॥ निशां चाह्रां मध्यमाना-मप्येवं स्तो यथोचितं । विश्लेशशेषार्धे शेषे । याते. चादिपरिदयौ ॥ १७ ।। इति कृता वर्षमध्ये दिनरातिप्रमाणप्ररू. पणा. ॥ मंडलस्यान्यंतरस्य । दशात्र परिधर्मवाः ॥ क. प्यास्तत्रोद्योतयेत्तां-स्त्रीनेकोऽर्को दिने गुरौ ॥ १७ ॥ शानमां दिवसना पाउला पहोरनी त्रण घडी बाकी रहे. ते ते पश्चिम अने पूर्वमां रात्रिनो अंत थाय, अने ए. वीरीते सर्व जगोये जावी लेवु. ॥ १५ ॥ वळी ते नत्कृया दिवसमां जाणवू, घने उत्कृष्टी रात्रिमां तो तेनी त्रण घकी गयाबाद बाकीमां कहेली दिशाना अनुक्रमे क. स्पदिनना बेडा ने. ॥ १६ ॥ वळी एवीरीते मध्यमरात्रि धने दिवसोना पण विश्लेष कर्यावाद बाकीनाने अर्ध करवाथी अने बाकी- जवाथी यथोचितरीते यादि थ. ने दय थाय . ॥ १७ ॥ एवीरीते वर्षनी अंदर दिवस रात्रिना प्रमाणनी प्ररूपणा करी. ॥ हवे यहीं अंदरना मंडलना धेरावाना दश विभागो हटपवा, तेमांथी त्रण
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त्रींश्च तत्संमुखानन्यः । पदवशेषु दिनं ततः ॥ मध्ये त. योलवौ दो दौ । रजनीति लवा दश ॥ १४ए ।। जघन्ये. ऽहनि च दो दौ । नागौ दीपयतो खो ॥ दिनं चतुर्यु नागेषु । निशा षट्सु लवेष्वतः ॥ २० ॥ प्रकाशः क्षेत्रतश्चैवं । दशांशी दक्षिणायने ॥ हीयेते क्रमतस्तौ च । वर्धते उत्तरायणे ॥ २१ ॥ यत्रोपपत्तिः-हान्यां किलाहोरात्राज्या-मेकेनार्केन मंमलं । पूर्यतेऽहोरात्रयोश्च । विज्ञागोने उत्कृष्टे दिवसे एक सूर्य प्रकाशे . ॥ १० ॥
बने तेनी सामेना त्रण विनागोने बीजो सूर्य प्रकाशे बे, अने तेथी विभागोमां दिवस होय , अने ते बन्नेनी बच्चे रहेला बे बे विनागोमां रात्रि होय , एटले ते दश विजागो थया. ॥ १५ ॥ हवे जघन्य दिव. से बे बे विनागोने बन्ने सूर्यो प्रकाशे बे, अने तेथी चार विभागोमां दिवस, अने विभागोमां रात्रि होय . . ॥ २० ॥ एवीरीते क्षेत्रथी बन्ने दशांशमां प्रकाश थाय ने, थने ते बन्ने दशांशो दक्षिणायनमां अनुक्रमे नंग थाय ने, अने उत्तरायनमा वृद्धि पामे . ॥ २१ ॥ अ. ही युक्ति कहे -बे अहोरात्रवडे एक सूर्यवडे मंगल पूर्ण थाय , अने तेवा बे अहोरात्रनासाठ मुहौ था.
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( 59 ) मुहूर्ताः षष्टिराहिताः ॥ २२ ॥ षष्टेश्व दशमो नागः । षट् ते च त्रिगुणीकृताः ॥ दशांशत्रयरूपाः स्युः । षष्टेरष्टादश क्षणाः || १३ || तदे निरष्टादशनि - मुहूर्तेः परिघेरपि ॥ उत्कृष्ट दिवसे युक्तं । दशांशतयदीपनं ॥ २४ ॥ दशांशइयंरूपाश्च । षष्टेर्द्वादश निश्चिताः ॥ तत्तैर्द्वादशभिर्युक्तं । दशांशद्द्यदीपनं ॥ २५ ॥ तथाहुः - हते सूर्यो ५६ चिदसनाए । जंबूद्दीवस्स दुन्निं दिवसेयरा || ताविंति दित्तलेसा | भिंतरमंडले संता ॥ २६ ॥ चतारिय दसनाएं | जंबूद्दीवस्स दुन्नि दिवसयरा ॥ ताविं
pe
ઓ
इलामा
य बे ॥ २२ ॥ सानो दशमो भाग छ थाय बे, अने
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तेने गणा करवाथी साउना दशांशवयरूप पदार मुहूर्तो थाय. ॥ २३ ॥ तो ते दार मुहूर्तोवडे उत्कृष्टे दिवसे घेरावाना दशांशत्रयनुं प्रकाशवुं युक्त बे. ॥ २४ ॥ साउना दशांशने बमणा करवाथी बार थाय बे, माटे ते बार मुहूतवडे दशांशवाळा बे विभागोनुं प्रकाशवुं युक्त बे ॥ २५ ॥ तेमाटे कहे वे के
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ने सूर्यो ज्यारे यंदरना मंडलमां दोय त्यारे जंबूद्दीपना दशांस माहेला व भागोने दिलेश्याथी तेजस्वी करे बे ॥ २६ ॥ तथा ज्यारे तेज बन्ने बहारना मंडल
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(10) ति मंदलेसा । बाहिरए मंडले संता ॥ २७ ॥ एवं प्रकाशक्षेत्रस्य । दशांशकल्पना बुधैः ॥ श्रापुष्कराध कर्तव्या । खानामथ तत्र च ॥ २० ॥ दिशत्येकोनपंचाशा । च. तुस्त्रिंशत्सहस्रकाः ॥ विचत्वारिंशच लदाः। कोट्येका प. रिधिनवेत् ॥ श्ए ॥ दशांशत्रितयं लदा । द्विचत्वारिंश दस्य च ॥ सप्तत्रिंशाश्चतुस्त्रिंश-सहस्राः परमे दिने ॥ ॥ ३० ॥ तापक्षेत्रं तिर्यगेत–पुष्करार्धे विवस्वतां ॥ त. तस्तदर्धे पश्यंति । तत्रत्याः सूर्यमुद्गतं ॥ ३१ ॥ तथोक्तंलकेहिं एगवीसाश् । सारेगेहिं पुस्करईमि ॥ नदए मां होय , त्यारे तेन जंबूद्दीपना दशांसमाहेला चार नागने मंदलेश्याथी तेजस्वी करे . ॥ २७ ॥ एवीरीते सूर्योना प्रकाशक्षेत्रना दशांसनी कल्पना विज्ञानोए क पुष्करार्धदीपसुधी करी लेवी. ॥ ॥ हवे त्यां एक क्रोड तालीस लाख चोंत्रीस हजार अने जगणपचास जे. टलो वेरावो ने. ॥ २७ ॥ तेना दशांशने त्रणगणा करखाथी बेतालीस लाख चोंत्रीस हजार अने सामत्रीस नत्कृष्टे दिवसे थाय. ॥ ३० ॥ एटवू पुष्करार्धद्दीपमां सूयौन तीर्घ तापक्षेत्र बे, घने तेथी तेना वर्षभागमां त्यांना लोको सूर्यने नगेलो जुए . ॥ ३१ ॥ कह्यं ने के
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(10) पिति नरा । सूरं नकोसए दिवसे ॥ ३ ॥ सर्वातर्मडलगत-सूर्ययोरातपाकृतिः ॥ ऊर्ध्वास्यनालिकापुष्पसंस्थानसंस्थिता मता ॥ ३३ ।। मेरुदिश्यर्धवलया-कारा वारिनिधेर्दिशि ॥ शकटो/मूलनागा-नुकारेयं प्रकी. र्तिता ॥ ३४ ॥ मेरोर्दिशि संकुचिता । विस्तृता चांबुधे. दिशि ॥ प्रत्येकमस्या थायामो । दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः ।। ॥ ३५॥ मेरोरंताघोजनानां । सहस्राण्यष्टसप्ततिः ॥ शतत्रयं त्रयस्त्रिंशं । तृतीययोजनांशयुक् ॥ ३६॥ सहस्राः -पुष्करार्धदीपमां नत्कृष्टे दिवसे लोको कक अधिक एकवीस लाख जोजनसुधीमां सूर्यने नगेलो जोश् शके . ॥ ३५ ॥ सर्वथी अंदरना मंडलमां गयेला बन्ने सूर्यो ना तापनी याकृति जंचा मुखवाळी नालिकावाळां पुष्प ना याकारजेवी मानेली . ॥ ३३ ॥ वळी ते मेरुतरफ अर्धवलयाकारवाळी, तथा समुद्रतरफ नना करेला गा. डाना मूलभागजेवी कहेली . ॥ ३४ ॥ मेरुतरफ ते सं. कोचायेली ने, तथा समुऽतरफ विस्तारवाळी . तथा ते दरेक श्राकृतिनी लंबाश् दक्षिण अने उत्तरखच्चे . ॥ ॥३५॥ पने ते मेरुना डाथी अठोतेर हजार त्रणसो तेंत्रीस पूर्णाक एकतृतीयांश जोजनजेटली . ॥ ३६ ॥
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(ए.) पंचचत्वारिं -शद्योजनानि तत्र च ॥ जंबूद्वीपे शेषम धौ ३३३३३९३ । द्वयोर्योगे यथोदितं ॥ ३७ ॥ मेरुणा यन्मते सूर्य-प्रकाशः प्रतिहन्यते ॥ तेषां मते मानमिदं । तापक्षेत्रायतेधूवं ॥ ३८ ॥ येषां मते मेरुणार्क-प्रकाशो नाभिहन्यते ॥ किंतु मेरुगुहादीना-मप्यतः प्रथते. महः ॥ ३० ॥ तेषां मते मंदरार्धा-दारन्य लवणोदधेः ॥ पञ्जागं यावदायाम-स्तापक्षेत्रस्य निश्चितः ॥४०॥ तदा च-योजनानां सहस्राणि । पंच राशौ पुरातने ॥ तेमांथी पस्तालीस हजार जोजनजेटली जंबूद्दीपमां बे, भने बाकीनी ३३३३३९३ जेटली समुद्रमां ने, तथा ते बन्नेनो सरवाळो करवाथी नपर कहेली संख्या थाय. ॥ ॥ ३७ ॥ जेन्ना मतमां मेरुखडे सूर्यनो प्रकाश हणाय बे, तेजने मते या तापक्षेत्रनी लंबाइन निश्चित मान .॥ ३० ॥ परंतु जेनना मतमां मेरुथी सूर्यनो प्रकाश हणातो नथी, तोपण मेरुनी गुफाबादिकनी अंदर पण ते प्रकाश फेलाय ने, ॥ ३० ॥ तेनने मते मेरुना श्रर्धनागथी मांझीने लवणसमुद्रना नागसुधी तापक्षेत्रनी
आ लंबाश निश्चित थयेली . ॥ ४० ॥ अने त्यारेपांचहजार जोजन घागली रकममां जो नेळवीएं तो मं.
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( १) दिप्यते मंदरार्धस्य । ततो मानमिदं भवेत् ॥ ४१ ॥ योजनानां सहस्राणि । व्यशीतिस्त्रिशती तथा ॥ त्रयस्त्रिंश समधिका । तृतीयोंशश्च योजनः ॥ ४२ ॥ सुपर्वपर्वतादेवं । पूर्वपश्चिमयोरपि ॥ तापक्षेत्रस्य प्रत्येक-मायामो झा यतामियान् ।। ४३ ॥ सर्वेषु मम्लेष्वेष । चरतो नुमा लिनोः ॥ अवस्थितः सदा ताप-क्षेत्रायामः प्रकीर्तितः ॥ ॥ विष्कंजस्तु मेरुपार्श्वे । तस्यार्धवलयाकृतेः ॥ स्यान्मेरुपरिधेर्भागे । दशमे त्रिगुणीकृते ॥ ४५ ॥ तथा च-सहस्रा नव षडश)-त्यधिका च चतुःशती ॥ योजनानां दश छिन योजनस्य लवा नव ।। ४६ ॥ विष्कं. दरार्धन या मुजब मान थाय. ॥ ४१ ॥ व्यासीहजार त्रएसो तेंत्रीस पूर्णाक एकतृतीयांश जोजन थाय. ॥४॥ थने एवीरीते मेरुपर्वतथी पूर्व अने पश्चिममां पण दरे क तापक्षेत्रनी लंबाश एटली जाणवी. ॥ ३ ॥ सघळा मंडलोमां विचरता बन्ने सूर्योना तापक्षेत्रनी लंबार हमे
शां तेटलीज निश्चितपणे कहेली . ॥ ४४ ॥ मेरुनी पासे अर्धवलयन) श्राकृतिवाळा एवा ते तापक्षेत्रनी पहोलाश मेरुना घेरावाना दशमा नागने वणगणो करवाथी थाय ने ॥ ४५ ॥ अने तेथी-नवहजार चारसो ब्या.
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(U9) नोनोधिपार्श्वे तु । तापक्षेत्रस्य निश्चितः ॥ अंतमंडलपरिघे - दशांशे विगुणीकृते ॥ ४७ ॥ स चायं - योजनानां सहस्राणि । चतुर्नवृतिदेव च ॥ १दविंशा पंचशत्यंशाः । षष्टिजा व्यब्धि ४३ संमिताः ॥ ४८ ॥ नन्वेवमधेः षनागं । ययातिमुपेयुषः || तापक्षेत्रस्य विष्कंभः | संभवेन्नाधिकः कथं ॥ ४० ॥ तथाहि - पूर्वोक्ततापक्षेत्रस्य । प्रांतेऽध परिधिस्तु यः ॥ तद्दशांशत्रयमितो | विष्कंनः संभवेन्न किं ॥ ९० ॥ यत्रोच्यते - संभवत्येव सीपूर्णांक नवदशांस जोजन जेटली ते थाय बे. ॥ ४६ ॥
समुद्रपा ते तापक्षेवनी पहोळा व्यंतमंडलना वेरावाना दशांशने त्रगणा करवायी घ्यावे . ॥ ४१ ॥ अने ते नीचेमुजब बे-चोरा हजार पांचसो छत्रीसपूकि बेंतालीस साठांश जोजन जेटली बे ॥ ४८ ॥ - ही शंका करे बे के समुद्रना बनागसुवी फैलायेला ता पक्षेत्रनी पदोळा व्यधिक केम न संभवे ? ॥ ४७ ॥ जेमके - समुद्रमां बेडे पूर्वे वर्णवेला तापक्षेत्रनो जे वेवो बे, तेना गणा दशांशजेटली पढोळाइ केम सं नवे नहि ? || १० || तेमाटे यहीं कहे बे-तेम संभवेज बे, परंतु यहीं करणवडे मळ्ती एवी ते पहोळाइ
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किंवत्र । करणेनैष संवदन ॥ चतुर्नवतिसहस्रा-दिक एव मतो बुधैः ॥ ११ ॥ व्यक्तिस्तु करणस्यास्य । मुहूर्तगति. चिंतया ॥ कार्या दृग्गोचरस्येव । साम्या दृक्पयतापयोः ॥ ५॥ तथाः -अत्रोदयास्तांतरं प्रकाशक्षेत्रं तापक्षे. मित्येकार्थाः. विष्कंभस्त्वेष तापस्य । विविधोऽप्यनवस्थितः ॥ याम्येऽयने हीयमानः । सौम्ये वृधिमवाप्नुयात ॥ ५३ ॥ मुहूर्तेकषष्टिभाग-द्दयगम्यं तु यन्नवेत् ॥ क्षेत्रं तावन्मिता वृद्धि हानिश्च प्रतिमंडलं ॥ १४ ॥ तथा मंमलैः सार्ध-त्रिंशतैकैकनानुमान ॥ क्षेत्रं गम्यं मुहूर्तेन । विद्वानोए चोराण्डजास्यादिकनीज मानेली. ॥५१॥ बने नजरे देखाता एवा था करणनी व्यक्ति मुहूर्तगतिना विचारवडे दृष्टिमर्यादा तथा तापनी सरखी करवी. ॥ ५५ ॥ कां के-यहीं नदय श्रने अस्तनी बच्चे नो नाग प्रकाशदेोत्र अथवा तापदेोत्र भने एकार्थवाची .॥ तापोवनी बन्ने प्रकारनी था पहोलाइ पण अ. निश्चित , केमके दक्षिणायनमां ते नंगी थाय ने, श्वने उत्तरायनमां ते वधे . ॥ ५३ ॥ मुहूर्तता एकसठी या भागमाहेला बे भागमा जेटलां देत्रमा गमन कराय तेटली वृद्धि अने हानि दरेक मंडले थाय. ।। ५४ ॥ए.
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(06) वर्धयेद्दा दायं नयेत ॥ ५५ ॥ मंडलानां सत्र्यशीति-श. तेनैवमनुक्रमात् ।। वर्धितं दापितं तान्यां । सौम्ययाम्यायनांतयोः ॥ ५६ ।। मुहूतैः षनिराकम्यं । क्षेत्रं स्यादेष एवं च । बाह्यांतरमंडलान्यां । दशांशो वृधिहानिनाक् ।। ॥ ५७ ॥ युग्मं ॥ प्रकाशपृष्टलमस्यां-धस्येव तमसोऽप्यथा ॥ आकृतिश्चित्यते नान्वोः । सर्वातमैडलस्थयोः ॥ २७॥ अस्याप्याकृतिरूवा॑स्य-नालिकापुष्पसंस्थिता ॥ ताप वीरीते साडात्रीस मंडले एकेको सूर्य एक मुहूर्तमां गमन करीशकाय तेस्ला क्षेत्रने वधारे अग्रवा घटाडे. ॥१५॥ भने एवीरीते एकसो त्र्यासी मंडलमां फरीने उत्तरायन तथा दक्षिणायनने बेडे ते बने सूर्योये जे क्षेत्र वधार्य अथवा घटाड्युं , ॥ ५६ ॥ ते उ मुहूर्तमां गमन करी शकाय तेटट्युज ने, केमके बहारना अने अंदरना मंड लवडे दशांश वृधिहानिने भजनारो ने, ॥ २७ ॥ युग्म ॥ हवे बन्ने सूर्यो सर्वथी अंदरना मंडलमां होतेछते धं धनीपेठे प्रकाशनी पाछळ लागेला अंधकारनी श्राकृतिनो पण आपणे विचार करीये. ॥ २० ॥ तेनी प्राकृति पण तुंचां मुखनी नालिकावाळां पुष्षजेवी , अने तेनी लंबाचं प्रमाण पण तापक्षेत्रनी लंबाश्नीपेठे निश्चित
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( ५) क्षेत्रवदायाम-मानं चास्याप्यवस्थितं ॥ ५॥ अस्तं गते दिनपतौ । मेरोरपि गुहादिषु ॥ ध्वांतोपलब्धेरायाम ----स्तमसोऽपि प्रकाशवत् ।। ६० ॥ विष्कंभो मेरुसलमे । स्यादेवं ध्वांतचोलके ॥ मंदराद्विपरिक्षेप-दशांशे द्विगुणी. कृते ॥ ६१ ॥ पम्योजनसहस्राणि चतुर्विशं शतत्रयं ।। दशनागीकृतस्यैक-योजनस्य उवाच षट्दालवणांनोधिदिशि तु । विष्कभस्तमसो भवेत् ॥ अंतर्ममलपरिधे-र्दशांशे हिगुणीकृते ॥ ६३ ॥ स चायं-योजनानां सहस्रास्त्रि-षष्टिः सप्तदशाधिकाः ।। अष्टाचत्वारिं. यये . ॥ ५५ ॥ सूर्य अस्त पामते ते मेरुनी गु. फायादिकमां पण अंधकार होवाथी ते अंधकारनी लं. बा पण प्रकाश जेटलीज . ॥ ६० ॥ एवीरीते अंध. काररूपी वस्त्र मेरुने लाग्ये बते तेनो विस्तार मंदराच. लना घेरावाना दशांशने बेवडो करवाथी थाय ने, ॥१॥ अने ते नहजार त्रसो चोवीस पूर्णाक बदशांस जोजनजेटलो थाय . ।। ६५ ॥ अने लवणसमुद्रतरफ तो ते अंधकारनो विस्तार अंदरना मंडलना घेरावाना दशां शने बक्षणो करवायी थाय ने. ॥ ६३ ॥ अने ते नीचे मुजब -त्रेसठहजार अने सतरपूर्णाक अमतालीस
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शदंशाः । षष्टिजास्तव मंडले ॥ ६४ ॥ इति कर्कसंक्रांती धातपक्षेत्रतमःक्षेत्रयोः स्वरूपं. ।।।
सर्वबाह्यमंडलं तु । प्राप्तयोरुष्णरोचिषोः ॥ तापांध: कारयोः प्राग्य-संस्थानादिनिरूपणं ॥ ६५ ॥ किंवधिदिशि विष्कने । विशेषोऽस्ति नवेत्स च ।। बाह्यमंडलपरिधे-र्दशांशे द्विगुणीकृते ॥ ६६ ॥ स्युत्रिषष्टिः सहस्राणि । सत्रिषष्टिश्च षट्शती ॥ तद्दशांशे त्रिगुणिते । ध्वांतव्यासोऽप्यसौ तदा । ६ ॥ सहस्राः पंचनवति-श्चत्वासायंस जोजनजेटलो ते मंमलमां ते थाय . ६४ ॥ एवीरीते कर्कसंक्रांतिमां, घातपदोन अने अंधकारक्षेत्रनु स्वरूप क[. ॥ .
हवे ज्यारे ते बन्ने सूर्यो सर्वथी बहारना मंडलमां श्रावे, त्यारे ताप तथा अंधकारना आकारयादिकर्नु स्वरूप पूर्वनीपेठे जाणवं. ॥ ६५ ॥ परंतु समुषतरफनी पहोळाश्मां तफावत , अने ते बहारना मंडलना घेरा. वाना दशांशने बमणो करवायी थाय ने, ॥ ६६ ॥ श्रने ते सतहजार उसोने त्रेसठ जोजनजेटलो ने, तथा ते दशांशने त्रणगणो करवाथी अंधकारनो व्यास पण नीचेमुजब थाय . ॥ ६७ ॥ श्रने ते पंचाएहजा: चारसो
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यैव शतानि च ॥ चतुर्नवतियुक्तानि । त्रिंशदंशाश्च षष्टि जाः || ६ || बाह्यांत मलस्थार्क - तापदोत्रानुसारतः ॥ वृद्धिहानिव्यतीहारः । प्रकाशतमसोर्भवेत् ॥ ६ ॥ सामीयाद्दीप्रतेजस्त्वा सर्वात मलेऽर्कयोः ॥ दिनात पदक्षेत्रवृद्धि - धर्मस्तीबस्तमोऽपता ॥ ७० ॥ मंदतेजस्तया दूरतया च बाह्यमंडले || निशातमः दत्रवृद्धि - स्तापदोत्राल्प-ता हिमं ॥ ११ ॥ यत्तु जंबूद्दीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सर्वोतमलस्थे खौ समुद्रदिशितापक्षेत्र विष्कंभः चतुर्नवतिर्योजन सहस्रा: ९४८ ५९ ६ चोरा पूर्णांक त्रीससाठांस जोजन जेटलो थाय वे. ॥६॥ बहारना पने यंदरना मंडलमां रहेला सूर्यना तापक्षेत्रने सारे प्रकाराने अंधकारनी वृद्धिहानिनो व्यवहार थाय बे ॥ ६५ ॥ सर्वथी अंदरना मंडलमां बने सूर्यो नजीक तथा तीव्रतेजवाळा होवाथी दिवस तथा यातपक्षेत्रनी वृद्धि थाय बे, अने तेथी तीव्र ताप लागे बे, अंधकार खल्प रहे वे ॥ ७० ॥ पने बहारना मंडलमां तेन होते ते मंदतेजवाव्य तथा दूर होवाथी रात्रि ने अंधकारना क्षेत्रनी वृद्धि थाय बे; तापक्षेत्र स्वल्प थाय बे, ने बरफ पडे बे. ।। ११ ।। वळी जंबूपपन्नति मां सर्वथी अंदरना मंडलमां सूर्य होते ते
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योजनस्योक्तः, तथा ध्वांतविष्कंजश्व त्रिषष्टियोजनसहस्रा णि हे च पंचचत्वारिंशदधिके योजनशतें षट् च दश" नागा योजनस्यायमेव च सर्वबाह्यमंडलस्थे खौ तापदे ध्वांतक्षेत्रयोविपर्ययेण विष्कंन नक्तः, स तु जंबुद्धीपपरिधेरेव दशांशयत्रयकल्पनयेति व्यामोहो न विधेयः. यत्तु तत्र सर्वातर्मडले उभयतः समुदितं हीपसंबंधि ष. ष्ट्यधिकं योजनशतत्रयं न्यूनतया न विवदितं, यच्च सवेबाह्यममले नन्जयतः समुदितानि समुद्रसंबंधानि षष्ट्यसमुद्रतरफ तापक्षेत्रनी पहोळा चोराणहजार पाठसो अमसठ पूर्णाक चारदशांस जोजननी जे कहीने, तथा अं. धकारनी पहोळाश्त्रेसठहजार बसो पस्तालीस पूर्णाकन दशांस जोजननी जे कहीजे. घने तेटलीज सर्वथी ब. हारना मंडलमा सूर्य होते छते तापक्षेत्र तथा अंधकार क्षेत्रनी पहोला उलटीरीते कहेली ने, ते तो जंबूद्दीपना घेरावाना बे तथा त्रण दशांशनी कल्पनायी कहेली बे, माटे तेना संबंधमां व्यामोह करवो नहि. वळी त्यां सर्वथी अंदरना मंमलमा बन्ने तरफना मळीने समुद्रसंबं. घि बसो साठ जोजन न्यूनपणे नथी कह्या, तेमज स.
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धिकानि षट्योजनशतान्यधिकतया न विवदितानि तत्राविवदव बीजमित्यादिकमर्थत उपाध्यायश्रीशांतिचंद्रोपइजंबूद्दीपप्रज्ञप्तिवृत्तेवसेयं.
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तापक्षेत्रस्य च व्यासो । यावान स्याद्यत्र मंमले || करप्रसारस्तस्यार्धे । पूर्वतोऽपरतोऽपि च ॥ ७२ ॥ मेरोर्दिशित मेव । यावत्तेजः प्रसर्पति ॥ पाथोधिदिशि पाथोधेः । षङ्गागं यावदर्कयोः || १३ || करप्रसार ऊर्ध्वं तु । योजनानां शतं मतः ॥ यत्तापर्यंत एताव - दूर्ध्वं निज
थी बहारना मंगलमां बन्ने तरफना मळीने समुद्रसंबंधि सो साठ जोजन अधिकपणे जे नथी कह्यां, ते माटे विवाज कारण जाणवु, इत्यादि नावार्थ उपाध्याय श्री शांतिचंद्रजीए करेली जंबूदीपपन्नत्तिनी टीकाथी जापी लेवो. ॥
जे मंडलमा तापक्षेत्रनो जेटलो व्यास होय, तेथी मां पूर्व ने पश्चिममां सूर्यना किरणोनो फेलावो होय. ॥ ७२ ॥ मेरुतरफ ते बन्ने सूर्योनुं तेज मेरुना भागसुधी फेलाय वे. पने समुद्रतरफ छतागसुधी फे लाय वे. ॥ १३ ॥ जंचे तेजना किरणोनो फेलावो एकसो जोजनसुधी कहेलो बे, केमके तेज पोताना वि.
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(१००) . विमानतः ॥ १४ ॥ शतेष्वष्टासु सूर्याच्या-मधस्तात्सम नृतलं ॥ सहस्रं च योजनाना-मधोग्रामास्ततोऽप्यधः॥ ॥ ३५॥ तांश्च यावत्तापयतः । प्रसति करास्ततः ॥ वि. वस्वतोर्योजनाना-मष्टादश शतान्यधः ॥ १६ ॥ सप्तचत्वारिंशदथ। सहस्राणिशतध्यं ॥ त्रिषष्टिश्च योजनानां । षष्ट्यंशा एकविंशति ।। ७ ॥ करप्रसार एतावान् । सतिर्मडलेऽर्कयोः ॥ पूर्वतोऽपरतश्चाथ । दक्षिणोत्तरयो वे ॥ ७० ॥ सहस्राणि पंचचत्वारिंशत्स्वर्गिगिरेर्दिशि ॥ मानथी जंचे तेलु क्षेत्र तपावी शके .॥ १४ ॥ बन्ने सूर्योथी पाठसो जोजन नीचे समपृथ्वीतल . थने तेथी पण एकहजार जोजन नीचा अधोग्रामो , ॥१५॥ अने क त्यांसुधी ते बन्ने सूर्यो ताप थापे , अने तेथी तेजेनां किरणो नीचे अढारसो जोजनसुधा फेलाय . ॥ १६ ॥ सडतालीस हजार बसो त्रेसठ पूर्णाक एकवीस सागंश जोजनसुधी, ॥ ७ ॥ सर्वथी अंदरना मं. मलमा रहेला बन्ने सूर्योनो पूर्व धने पश्चिमतरफ किर णोनो फेलावो थाय ने, हवे दक्षिण तथा उत्तर तरफनो कहुं बु. ॥ ७० ॥ मेरुपर्वत तरफ़ पस्तालीस हजार जो. जनमा एकसो एंसी जोजन नछासुधी तेजना किरणो.
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( १०१ ) साशी तियोजनशतो - नान्यथान्धेर्दिशि ब्रुवे ॥ १९ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि । त्रयस्त्रिंशं शतत्रयं ॥ योजनत्र्यंशयुक् वा । दीपेऽशीतियुतं शतं ।। 5० ॥ सर्वबाह्यमं ले तु । चरतोरुष्णरोचिषोः ॥ करप्रसार एतावान् । स्यात्पूर्वापरयोर्दिशोः ॥ ८१ ॥ एकत्रिंशत्सहस्राणि । शतान्यष्टौ तथोपरि । एकत्रिंशद्योजनानि । त्रिंशदंशाश्च पष्टिजाः || २ || मेरोर्दिशि योजनानां । वार्यौ त्रिंशं शतत्रयं ॥ द्वीपे च पंचचत्वारिंशत्सहस्रास्ततः परं ॥ ८३॥ त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि । सत्र्यंशं योजनत्रयं ॥ करप्रसारो नो फेलावो थाय बे, हवे समुद्रतरफनो कहुं बुं. |9|| तेंत्रीस हजार ऋणसो तेंत्रीस पूर्णांक एकतृतीयांश जोजनसुधी समुद्रमां छपने एकसो एंसी जोजन सुधी दीपमां थाय े ॥ ८० ॥ सर्वथी बहारना मंडलमां विचरता एवा ते बेड सूर्यना किरणोनो फेलावो पूर्व छाने पश्चिम दिशामां नीचेमुजब थाय बे. ॥ ८१ ॥ एकलीस हजार
सो एकत्रीस पूर्णांक तीससाठांस जोजनजेटलो वे.. ॥ ८२ ॥ वळी मेरुनरफ समुद्रमां वणसो त्रीस जोजनसु घी ने मां पस्तालीस हजार जोजनसुधी, तथा तेथी यागळ || ३ || लवणसमुद्रमां शिखातरफ ते बन्ने
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( १०२ ) नान्वोः स्या— लवणान्धौ शिखादिशि ॥ ८४ ॥ ऊर्ध्व तु योजनशतं । तुल्यं सर्वत्र पूर्ववत् ॥ यष्टादशयोजना - नां । शतान्यधस्तथैव च ॥ ८५ ॥ इति क्षेत्रविभागेन दिनरात्रिमानप्ररूपणा, तत्प्रसंगादातपतमः संस्थानादिप्ररूपणा च कृता क्षेत्रविभागेन । दिनराविप्ररूपणा || परिक्षेप मिति ब्रूमः । सांप्रतं प्रतिमंडलं ।। ८६ ।। वगाह्योनयतो द्वीपे । सर्वोतमंडलं स्थितं ॥ साशीतियोजनशतं । दिघ्नं कार्यमिदं ततः ॥ ८७ ॥ सषष्टियोजनशत - त्रयं सूर्योनां किरणोनो फेलावो त्रीसहजार ऋणपूर्णांक एकतृतीयांश जोजनसुधी थाय बे. ॥ ८४ ॥ उंचे एकसो जोजनसुधी. अने नीचे ढारसो जोजनसुधी तेजनो फेलावो थाय बे, एटले ते पूर्वे कह्यामुजब बे ॥ ८५ ॥ एवीरीते क्षेत्र विज्ञागवडे करीने दिवस तथा रात्रिना प्र मानी प्ररूपणा, तथा तेना प्रसंगथी ताप तथा अंधका रना याकारादिकनी प्ररूपणा करी. एवीरीते क्षेत्र वि नागवडे दिवस तथा रात्रिनी प्ररूपणा करी, दवे दरेक मंडले तेनो परिक्षेप कहुं हुं ।। ८६ ।। बन्ने तरफथी ही पमां प्रवगादीने सर्वथी यंदरनुं मंमल एकसो एंसी जोजन रहेकुं वे, तेने बमणा करवा ॥ ८१ ॥ खने तेथी
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(१०३) जातमिदं पुनः ॥ दीपव्यासाबदारूपा-दिशोध्यते ततः स्थितं ॥ ७ ॥ विष्कंभायामतो नूनं । सर्वान्यंतरमंडलं ॥ सहस्रा नवनवति-श्चत्वारिंशा च षदशती ॥ ए | प. रिधिस्तु यथाम्नाय-मस्य लदात्रयं युतं । सहस्रैः पंचद. शनि-नवाशी तिश्च साधिका ॥ ५० ॥ सषष्टियोजनशत-त्रयं यत्प्रागपाकृतं ॥ तस्य वा परिधिः कार्यः । पृथः गीदग्विधस्तु सः ॥ ए१ ॥ एकादश शतान्यष्ट-त्रिंशा न्येनं विशोधयेत् ॥ जंबूद्दीपस्य परिधेः । स्यादप्येवं यथोदितः ॥ ७॥ अथैकतः स्थितं सर्वां-तरानंतरमंडलं ॥ ते त्रणसोसाठ जोजन थया, तेने एकलाख जोजनना द्वीपना घेरावामांथी बाद करखा, अने तेथी ॥ ७ ॥ सर्वथी अंदरनुं मंडल लंबा पहोळाश्मां नवाणुहजार छ. सो चालीस जोजन रह्यु. ।। नए ॥ श्रने थाम्नायपूर्वक तेनो घेरावो त्रणलाख पंदरहजार नेवासी जोजनजेटलो
थयो. ॥ ३० ॥ अथवा पूर्व जे त्रणसो साठ जोजन बा.द कर्या , तेनो जूदो घेरावो करवो, अने ते नीचेमु. ब॥ १॥ अग्यारसो थामनीस जोजन थाय , तेने जंबूद्दीपना वेरावामाथी बाद करवा, अने तेथी पण न. पर कह्यामुजब घेरावो आवी जाय . ॥ ए॥ हवे ए.
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( १०४ ) अष्टचत्वारिंशदंशान् । सर्वोतमंडलात्मकान् ॥ ९३ ॥ द्वे योजने च त्यक्त्वा - परतोऽप्येवमेव तत् । एवं पंचत्रिशदंशं । वेद्योजनपंचकं ॥ ५४ ॥ ततोऽर्कयुग्मांतरखइर्धते प्रतिमंडलं | योजनानि पंच पंच । विंशदेशाश्च विस्तृतौ ॥ ५५ ॥ ततस्तेषां परिक्षेपा । ज्ञेया व्यासानु सारतः || सपंचत्रिंशदंशस्य | योजनपंचकस्य वा ||६|| परिक्षेपः पृथक्कार्य । ईररूपः स जायते || साधिकाष्टात्रिंशदेश - युक्सप्तदशयोजनी || १ || अष्टादश योज-: कतरफथी सर्वश्री अंदरना मंडलनी पासेनुं मंगल सर्वथी
दरना मंडलना पडतालीस घंशो || ३ || छाने बे जोजन पूर्व तथा पश्चिममां बोडीने रहेतुं ने, छाने तेथी ते सर्व मली पांच जोजन पने पांत्रीस अंशो थाय. ॥ || ४ || पछी ते ने सूर्योना छांतरनीपेठे दरेक मंगले पांच पांच जोजन छाने वीस अंशो पदोळाइमां वधे बे. ॥ ९५ ॥ पछी तेना घेरावा व्यासने अनुसारे पांवीस शोसहित पांच जोजनना जाणी लेवा ॥ ५६ ॥ प छी ते परिक्षेपने जूदो करवाथी ते सतर जोजन पने पाडत्रीस अंशोथी कक अधिक थाय ॥ ७१ ॥ परंतु व्यवहारथी ते संपूर्ण दार जोजन कहेवाय ने, पबी ते
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नानि । परंतु व्यवहारतः ॥ संपूर्णानि विवदयंते । ततो. ऽष्टादशयोजनीं ॥ एक् ॥ प्राच्यप्राच्यमंडलस्य । परिक्षेपे नियोजयेत् ॥ ततोऽध्याय्यमंडलस्य । परिक्षेपमितिर्भवेत् ॥ एए॥ एवं वृधिः परिक्षेपे ।, यावच्चरममंडलं ॥ ततो यथा वृधिहानि-रासर्वातरमंमलं ॥ २०० ॥ एवं च परि. धिः सर्वो-तरानंतरमंमले ॥ लदानयं पंचदश-सहस्राः सप्तयुक्शतं ॥ १॥ तार्तीयिके मंडले च । सर्वान्यंतरमंमलात ॥ लदास्तिस्रः पंचदश । सहस्रास्तत्वयुक्शतं ।।। लदास्तिस्रोऽष्टादशैव । सहस्रास्त्रिशती तथा ॥ युक्तो नैः वाढार जोजनने । ए ॥ पूर्व पूर्वना ममलना घेरावा. मां नेलववा, पने तेथी आगल बागलना मंडलना वेरावानुं माप थाय . ॥ एए॥ एवीरीते क बेल्हा मं. मलसुधी घेरावामां वृद्धि कर्ये जवी, अने तेथी जेम वृ. हि थाय तेमज सर्वथी थंदरना मंडलसुधीमा हानि था य. ॥ २०० ॥ एवी सर्वथी अंदरना मंगलपनीना मंडलतो घेरावो त्रणलाख पंदरहजार एकसो सात जोजननो थाय ॥ १॥ सर्वथी अंदरना मंगलथी त्रीजा मंडलमांत्रण लाख पंदरहजार एकसो त्रण जोजननो थाय .॥२॥ अने सर्वथी गेला ममलनो वेरावो त्रणलाख
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पंचदशभिः । सर्वोत्ये परिधिर्मवेत् ॥ ३॥ तयाहुः श्री. मलयगिरिपादाः क्षेत्रविचारबृहवृत्तौ-एवं मंडले मंडले थायामविष्कंभयोः पंच पेच योजनानि पंचत्रिंशदेकषष्टिः भागाधिकानि परिरयेऽष्टादश २ योजनानि परिवर्धयता तावद्वक्तव्यं यावत्सर्वबाह्यमंडलं एकं योजनशतसहस्रं षट्शतानि षष्ट्यधिकानि, अायाम विष्कंचा त्यां त्रीणि योज नशतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि त्रीणि शतानि पंच दशोत्तराणि किंचिदूनानि परिरय इति. अत्र च यद्यपि प्रतिपरिक्षेपं अष्टादश अष्टादशौ त्र्यशीत्यधिकशतस्याथाढार हजार वणसो जोजनमां पंदर जोजन नंगे थाय
॥३॥ तेमाटे क्षेत्र विचारनी मोटी टीकामां श्रीमलयगिरिजी महाराज कहे जे के-एवीरीते मंमले मंडले लंबा पहोलश्ना पांच पांच जोजन बने पांत्रीम एक सपीया जागो एटले वेरावामां अढार श्रढार जोजन व. धारताथका त्यांसुधी बोलवं, के ज्यांसुधी सर्वथी बहारनु मंडल श्रावे, के जेनी लंबा पहोळाश एक लाख छसो साठ जोजननी तथा जेनो घेरावो त्रण लाख अढार ह. जार त्रणसो पंदर जोजनमां कक नंगे थाय ने. वळी यहीं जोके दरेक घेरावे अढार बढारनी वृद्धि होते बते
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(१००) टादशभिर्गुणने चतुर्नवत्यधिकानि हात्रिंशबतानि नवंति. एतेषां च सैकोननवतिपंचदशसहस्राधिकलदानयरूपप्रथः ममंगलपरिक्षेपेण सह योगे सर्वबाह्यमंमलपरिरयस्तिस्रो लदा अष्टादश सहस्रास्त्रिशतीत्र्यशीत्युत्तरा नवंति. परंतु प्रागुक्तानि सप्तदशयोजनानि साधिकयोजनसत्काष्टात्रिंशदेवनागाधिकानि प्रतिपरिरयवृधिरिति विजाव्यैव, न्यून पंचदशाधिकशतत्रययुक्ताष्टादशसहस्राधिकलदात्रयरूपःस बाह्यमंडलपरिधिरुक्त इति संभाव्यते. यद्यप्यत्रापि उपस्तिनं शतत्रयं चतुर्दशोत्तरमेव भवति, तथापि उपस्तिएकसो व्यासीने अढारे गुणवायी बत्रीससो चोराणु थाय. अने तेमां प्रथममंडलना घेरावाना त्रण लाख पं. दर हजार अने नेवासी जोजन नेळववाथी सर्वयी बहा. रना ममलनो घेरावो त्रण लाख अढार हजार वणसो अने व्यासी जोजननो थाय ने. परंतु पूर्वे कहेला सतर पूर्णाक एक धाडत्रीसांश जोजनजेटली दरेक घेरावे वृ. हि थाय ने, एम भावीनेज त्रण लाख अठार हजार त्र. णसोमां पंदर जोजन नंगे सर्वथी बहारना मंडलनो वे. रावो कहेलो . एम संभवे ने. जो के अहीं पण नुपरना त्रणसो चौदसहितज होय , तोपण नपरना बाड
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(१००) नानां अष्टात्रिंशतो जागानां साधिकत्वान्यूनानि पंचदशैव विवक्षितानीति सम्यग्विभावनीयं गणितज्ञैः. एवं कृता में डलानां । परिक्षेपप्ररूपणा ॥ गति प्रतिमुहूर्त च । महे प्रतिमंडलं ॥ ४ ॥ एकैकं ममलं ह्येक-मार्तडेन समाप्यते ॥ दान्यां किटाहोसलान्यां । मुहूर्ताः षष्टिरेतयोः॥ ॥५॥ ततः षष्ट्या विनज्यंते । परिक्षेपाः स्वकस्वकाः॥ एवं सर्वमंगलानां । मुहूर्तगतिराप्यते ॥ ६ ॥ एवं चसंक्रम्य चरतः सूर्यो । सर्वोतममले यदा ॥ तदा प्रत्येक मेकैक-मुहूर्तेऽसौ गतिस्तयोः ॥ ७ ॥ नूनं पंच सहस्रा. त्रीस भागोनुं अधिकपणुं होवाथी पंदरज जंग कहेलां बे, एम सारीरीते गणितना विद्वानोए जाणी लेवं. एवी रीते मंमलोना घेरावानी प्ररूपणा करी, हवे दरेक मंड लाते दरमुहूर्ते तेनुनी गति कहीये जीये. ॥ ४ ॥ ए. केकुं मंमल बे अहोरात्रिनवडे एक सूर्य समाप्त करे ने, श्रने ते बे अहोरात्रना साठ मुहूर्ती होय . ॥ ५ ॥ थने तेथी पोतपोताना घेरावाने जो साठे नागवामां था. वे तो सर्व मंमलोनी मुहूर्तगति यावे . ॥ ६॥ श्रने एवीरीते-सर्वथी अंदरना मंमलमां संक्रमीने ज्यारे ते ने सूर्यो गमन करे , त्यारे दरेक मंमले एकेका मु.
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( १०५ ) लि। योजनानां शतद्वयं ॥ एकपंचाशमेकोन - त्रिंशदशाश्च षष्टिजाः ॥ ८ ॥ द्वितीयादिमंडलेष्व - प्येवं परिरयैः स्वकैः ॥ मुहूर्त गतिरानेया । षष्ट्या नक्तैर्विवस्वतोः ॥ ॥ ॥ यदा प्रतिपरिक्षेपं । योक्ताष्टादशयोजनी ॥ वृद्धिः षष्ट्या विभक्तुं ता - मूर्वाधस्तद्वयं न्यसेत् १ ॥ १० ॥ राशिः षष्टेर्न दत्तेशं । तवाष्टादशलक्षणः ॥ ततोऽष्टादश षष्टिनाः । स्युः सहस्रमशीतियुक् १०८० ॥ ११ ॥ तेषां षट्या ते भागे । यष्टादश स्फुटं ॥ एतावंतः षष्टिनागाः । किंचिदूनास्तु निश्चयात् ६० ।। ११ ।। प्राच्यहूर्तमां तेनी गति नीचेमुजब थाय बे. ॥ ७ ॥ पांचहजार बसो एकावन पूर्णांक जंगणवीस साठांश जोजन - जेटली थाय बे. ॥ ८ ॥ एवीरीते बीजाच्यादिक मंगलोमां पण ते ना घेरावाने साठे जांगवाथी बन्ने सूर्यों मुहूर्तगतिनुं प्रमाण लाववुं ॥ ५ ॥ यावा दरेक वेरावाते पदार जोजननी जे वृद्धि कहेली बे, तेने साठे नांगवामाटे ते बन्ने रकमने उंचे नीचे मूकवी. ॥ १० ।। "त्यारे पदारनी रकमनो साउनी रकमे जाग चाले नहि, ते पारने साठे गुणवाधी एक हजारने एंसी थाय. ॥ ११ ॥ तेने साठे नांगवाथी प्रगटरीते व्यढार याव्या,
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(११०) मंडलमुहूर्त-गतौ क्षिप्यंत इत्यतः॥ यथोक्तं तत्परिमाणं नवेदेवं यथोत्तरं ६० ॥ १२ ॥ एतद्याम्यायने सौम्यायने तु प्रतिममलं ॥ अष्टादशांशाः दीयते । मुहूर्तीयगतौ रवेः ॥ १३ ॥ एवं च-सर्वबाह्ये योजनानां । पंचो. त्तरं शतत्रयं ।। सहस्राणि पंच पंच-दश भागाश्च । षष्टिः जाः ॥ १४ ॥ सर्वातीमार्वाचीने तु । त्रिशती चतुरुत्तरा ॥ सहस्राणि पंच सप्त-पंचाशत षष्टिजा लवाः ॥ १५ ॥ मुहूर्तगतिरित्येवं । विवस्वतोर्निरूपिता ॥ अथ प्रपंच्यते एटला निश्चयथी कर्शक जंग साठीया नागो थया. ॥११॥ ते रकमने पूर्वना मंडलनी मुहूर्तनी गतिमां नाखवायी पूर्व कहेधुं तेनुं प्रमाण थावे, एवीरीते उत्तरोत्तर जाणबु.॥१२॥ एवीरीते दक्षिणायनमां , उत्तरायणमां तो दरेक मंडले सूर्यनी मुहूर्तनी गतिमाथी बढार अंशो में. छा थाय . ॥ १३ ॥ श्रने एवीरीते-सर्वथी बहारना मंमलमां पांच हजार त्रणसो पांच पूर्णाक पंदर साठांश जोजन थाय. ॥ १४ ॥ अने सर्वथी साथी पहेलाना मंडलमां पांचहजार त्रणसो चार पूर्णीक सतावन साठांश जोजन थाय. ।। १५ ।। एवीरीते ते बने सूर्योनी मुहूर्त गतिनी प्ररूपणा करी, हवे दृष्टिमर्यादानी प्ररूपणा करे
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( १११ )
दृष्टि - पथप्राप्तिप्ररूपणा || १६ || मुहूर्तगतिरर्कस्य । या विवदितमंडले || यच्च तस्मिन दिनमानं । इयमेतत्पृथग्न्यसेत || १७ || मुहूर्त गतिरेषाथ । दिनमानेन गुण्यते ॥ एकार्कस्य तदैकाहः - प्रकाश्यं क्षेत्रमाप्यते ॥ १८ ॥ यावच्चैकाहः प्रकाश्यं । क्षेत्र मे कत्रमंडले || तदर्धेन मनुष्याणां । नवेद् दृग्गोचरो रविः ॥ ११५ ॥ यं जावः - यावत्क्षेत्रं दिनार्धेन । जानूर्नासयितुं दमः ॥ दृश्यते तावतः क्षेत्रा - मंडलेष्वखिलेष्वपि ॥ २० ॥ यथा पंच सद स्राणि । योजनानां शतद्दयं । एकपंचाशमेकोन - त्रिंप्रध्य
वे ।। १६ ।। विवक्षित मंमलमां सूर्यनी जे मुहूर्तगति बे, तथा तेमां जे दिनमान बे, ते बन्ने रकमने जूदी स्थापवी. ॥ १७ ॥ पी मुहूर्तनी ते गतिने दिनमानथी गुणवी, त्यारे एक सूर्य एक दिवसमां जेटनुं क्षेत्र प्रकाशे तेनुं प्रमाण घ्यावे . ॥ १८ ॥ एक मंडलमां एक दिवसमां जेटलुं क्षेत्र प्रकाशवाळु थाय बे, तेथी यरघा क्षेत्रमां मनुष्योने सूर्य देखाय बे. ॥ १५ ॥ तेनो नावार्थ घ्या. वीरीते बे-परधा दिवसमां जेटनुं क्षेत्र सूर्य प्रकाशी श के बे. तेल क्षेत्रथी सर्व मंगल मां सूर्य देखाय वे. ॥ ॥ २० ॥ जेमके पांचहजार बसो एकावन पूर्णांक जंग
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(११२) शदंशाश्च षष्टिजाः ॥ १० ॥ मुहूर्तगतिरेषा या। प्रोक्ताज्यंतरमंडले ॥ गुण्यते सा दिनार्धेन । मुहूर्तनवकात्मना ॥ १ ॥ सप्तचत्वारिंशदेवं । सहस्राणि शतयं ॥ त्रिषटिश्च योजनानां । षष्ट्यंशा एकविंशतिः ॥ ॥ नद्गल. नियतः क्षेत्रा-भानुरस्तमयन्नपि ॥ श्हत्यैदृश्यते लोकैः । सर्वात्यंतरमंडले ॥ ३ ॥ ततश्चैतद् द्विगुणित-मुदया. स्तांतरं भवेत् ॥ प्रकाशक्षेत्रमप्येता-वदेवोनयतोऽन्वितं॥ ॥ २४ ॥ तथाः-रविणो नदयबंतर-चनणवश्सहस्स पणसयविसा ।। बायाणसहिनागा। ककमसंकतिदिपत्रीस साठांश जोजनजेटली ॥२०॥'जे अंदरना मेंमलमा रहेला सूर्यनी मुहूर्तगति कहेली बे, तेने नवमु. हूर्तरूप अर्धा दिवसथी गुणवी, ॥ २१॥ एटले समता. लीस हजार बसो त्रेसठ पूर्णाक एकवीससाठांस जोजन थशे, ॥॥ एटलां क्षेत्रथी नगतो तथा बाथमतो सूर्य सर्वथी अंदरना मंमलमां यहींना लोकोथी जोश शकाय. ॥ ३ ॥ बने तेथी बमाणु उदयास्तवच्चेनु अंतर होय, अने तेटझुंज बमणुं प्रकाशक्षेत्र पण होय. ॥ २४ ॥ कह्यं ने के-कर्कसंक्रांतिमां दिवसे सूर्यना नदयास्तनो अंतर चोराणु हजार पांचसो वीस पूर्णाक:
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( १९३) यहमि ॥ २५ ॥ एवं च
सहखैः सप्तचत्वारिं-शता हितीयमंडले ॥ सैकोना. शीतिनादृश्यो ! योजनानां शतेन च ॥ २६ ॥ सप्तपंचा शता षष्टि-भागैरेकस्य तस्य च ॥ अंशैरेकोनविंशत्या । विभत्तस्यैकषष्टिधा ४७१७[Ux५७-६०॥ ११५-६१॥१-६० ॥७॥ एवं च-त्र्यशीतिर्योजनान्यंशा-त्रयोविंशतिरेव च ॥ षष्टिभक्तयोजनस्यै-कस्यपिष्टिलवस्य च ॥२७॥ एकषष्टिविनक्तस्य । विचत्वारिंशदंशकाः॥ हानिरत्रेयमा. बेतालीस साठांश जोजनजेटलो होय . ॥ २५ ॥ श्रने एवीरीते
बीजा मंडलमां ते सूर्य सडतालीस हजार एकसो जंगणाएंसी जोजने अदृश्य थाय ने, ॥ २६ ॥ वळी ते उपर एक जोजनना साठ नागमाहेला सतावन नागो, तथा एकसठीया नागमाहेला जंगणीस नागो ४१ए ४५७-६० ॥ १५-६१ ॥ १-६० जाणवा. ॥ २१ ॥ ने एवीरीते-त्र्यासी जोजन, तथा एक जोजनना साठीया नागमाहेला त्रेवीस भागो, तथा ते साठीया नागना ॥ ॥ जेटला एकसठीया भागो थाय, तेमाहेला बेतालीस अंशो, एवीरीतनी अहीं थाधमांथी हानि था
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(११४) द्यात्स्या-पुरो हानौ ध्रुवोऽप्ययं ॥ १० ॥ किंच-स. वातमैडलात्तार्ति-यीक यत्किल मंमलं ॥ तदेवायं प्र. कटप्याग्रे । येषु येषु विजाव्यते ॥ ३०॥ दृग्मार्गस्तरणेस्तत्र । तत्रैकट्या दिसंख्यया ॥ हत्वा पत्रिंशतं नागं । भागांस्तान योजयेद् ध्रुवे ।। ३१ ॥ युग्मं ॥ ततश्च-पूमंमलदृग्मार्ग प्राप्तिस्तेन विवर्जिता ॥ खरांशोईक्पथप्राप्ति-मानं स्यादिष्टमंडले ॥ ३ ॥ यथांतर्ममलाताति
-यीके तरणिमंडले ॥ पंदत्रिंशदेकेन गुण्या । स्थितो राशिस्तथैव सः ॥ ३३॥ ततः पदत्रिंशदे वैते । व्यशीत्यु य, धने वागळ हानिमां ध्रुव पण ते थाय. ॥ २५ ॥ वळी-सर्वथी अंदरना मंडलथी जे त्रीजु मंडल ने, ते. नेज पहेबु कल्पीने वागळ जेमां जेमां ॥ ३० ॥ सूर्यनी दृष्टिमर्यादा नाववामां थावे, तेमां एकबेधादिक सं. ख्यावडे छत्रीसमा जागने गुणीने ते नागोने ध्रुवमां जोडवा. ॥ ३१ ॥ युग्मं ॥ अने पनी-तेविनानी पूर्व मंगलना दृष्टिमार्गनी प्राप्ति थाय, बने इजित मंडलमां सूर्यनी दृष्टिमर्यादानी प्राप्तिनुं प्रमाण आवे. ॥ ३ ॥ जेम अंदरना मंगलथी त्रीजा सूर्यमंमलमा छत्रीसने एके गुणवाथी तेटलीज रकम रहे. ॥ ३३ ॥ तेथी तेज स्त्री.
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(२११५) परिवर्तिषु ।। योजिता नागभागेषु । जातास्ते चाष्टमप्ततिः ॥ ३४ ॥ एकषष्ट्या लवैश्चैकः । षष्टिनागो भवेत्स च ॥ योज्यते षष्टिभागेषु । शेषाः सप्तदश स्थिताः ॥ ३५ ॥ एवं च-त्र्यशीतियोजनान्यंशाः । षष्टिजाता जिनैर्मताः ॥ सप्तदशैकषष्ट्यंशा । शोध्यराशिर्भवत्यसौ ॥ ३६ ।। श्रनेन राशिना हीने । द्वितीयमंडलाश्रिते ॥ दृग्गोचरे तृ. तीये स्या-मंडले दृक्पयो रवेः ॥ ३७॥ एवं च-सहौः सप्तचत्वारिं-शता पाणवतिं श्रितैः ॥ योजनानां प. ष्टिभाग-स्त्रयस्त्रिंशन्मितैस्तथा ॥ ३० ॥ एकस्य षष्टिभा. सनी रकमने त्र्यासीपर रहेला (बेतालीस ) नागना प. ण नागोमां नेळववा, के जेथी ते अठ्योतेर थाय. ॥ ॥ ३४ ॥ हवे तेवा एकसठीया लवोवडे एक साठीयो भाग थाय, तेने साठीयानागमां नेलववाथी बाकी सतर वध्या. ॥ ३५ ॥ श्रने एवीरीते-त्र्यासी जोजन साठीया जागो तथा सतर एकसठीया भागो जिनेश्वरोए क हेला , थने ते शोध्यराशि थाय . ॥ ३६ ॥ आटली रकमजेटली नछी बीजा मंमलनी दृष्टिमर्यादा ज्यारे होय त्यारे वीजा मंडलमा सूर्यनी दृष्टिमर्यादा थाय. ॥३॥ बने एवीरीते-सडतालीस हजार उन्नु जोजन, तेंत्रीस
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( ११६ ) गस्य । विभक्तस्यैकषष्टिधा || भागद्दयेन चोष्णांशु - ई. श्यस्तृतीयमंडले ४१० [०६×३३-६०–२–६१-१-६० ॥ ॥ ३५ ॥ एवमुक्तप्रकारेण | बहिर्निष्क्रमतो वेः ॥ दृक्प'थप्राप्तिविषयात् । दीयते प्रतिमंमलं ॥ ४० ॥ व्यशीतिः साधिका क्वापि । चतुरशीतिरेव च ॥ साधिका सावापि पंचा - शीतिः साप्यधिका कचित ॥ ४१ ॥ योजनानां दानिरेवं । जाव्या गणितपंडितैः ॥ पूर्वोक्तगणिताम्नाया - द्यावत्सर्वात्यमंगलं ॥ ४२ ॥ तव चैकत्रिंशतैव । सदखैसाठीया भागो तथा ॥ ३८ ॥ ते साठीया भागोमाहेला एक जागना एकसठ जागो करवा. छाने तेमाहेला बेभा गोलेवा, एटला क्षेत्रमां त्रीजे मंमले सूर्य देखाय वे. ४१०[U६×३३–६० ।। २–६१ ।। १-६० ।। ३५ ।। एवीरीते उपर कह्यामुजब बहार निकलता सूर्यना दृष्टिमर्यादाना विषयमांथी दरमंमले जनुं थाय बे. ।। ४० ।। क्यांक क ड्रंक घ्यधिक त्र्यासी, क्यांक चोर्यासीज, क्यांक कक अधिक चोर्यासी, क्यांक पच्यासी ाने क्योंक कड्रंक छा धिक पच्यासी ॥ ४१ ॥ एवीरीतें पूर्व कहेला गणितानायथी बेक सर्वथी बेल्लां मंडलसुधी गणितशास्त्रीनए योजनोनी हानि भावी लेवी ॥ ४२ ॥ छाने त्यां एक
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( ११७) रष्टभिः शतैः ।। एकत्रिंशैस्त्रिंशता च । षष्ट्यंशैदृश्यते रविः ॥ ४३ ॥ यद्यपि थांतरतृतीयममलापेदया ट्यूशीत्यधिकशततमेऽस्मिन्मंडले पूर्वोक्तकरणप्रक्रियया शोध्यराशिः पंचाशीतियोजनानि एकादश षष्टिभागा एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षडेकषष्टिनागा ५, ११-६० ॥ ६-६१ ए. वंरूपो जायते, तथापि पूर्वोक्ताः पत्रिंशन्नागभागाः क. लान्यूना थपि व्यवहारतः पूर्णा विवदिताः, तस्मिंश्च कलान्यूनत्वे अंत्यमंडले एकत्र पिंमिते सति अष्टषष्टिरेकषटिनागास्तुट्यंति, तदपसारेण पंचाशीतिर्योजनानि नव त्रीस हजार पाठसो एकतीस पूर्णाक बीस साठांश जो. जने सूर्य देखाय . ॥ ४३ ॥ जोके अंदरना त्रीजा मं. डलनी अपेदाये या एकसो ब्यासीमा मंमलमा पर्व कहेला करणनी प्रक्रियावडे शोध्यराशि पंच्यासी पूर्णाक अग्यार साठांश, तथा एकसाशना एकसठीया भा. गो, ७५, ११-६० ॥ ६-११, एटलो थाय ने. तोपण पूर्वे कहेला नत्रीस एवा नागना पण नागो कलाजेटला न. ग, तोपण व्यवहारथी पूर्ण कह्या , अने ते कलान्यूनपणाने बेला मंडलमा एक करवाथी अडसठ एकसठीया भागो त्रुटे , ते बाद करवाथी पंच्यासी पूर्णीक
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(११०) षष्टिनागा योजनस्य एकस्य षष्टिनागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिजागा जायंते. ७५, ७-६० ॥ ६०-६१. अयं च शोध्यराशिः सर्वबाह्या चीनमंडलगतदृक्पथप्राप्तिपरिमाणा द्यदि शोध्यते, तदा यथोक्तं सर्वात्यममले दृक्पथप्राप्तिपरिमाणं भवतीति ध्येयं. पूर्वोक्तध्रुवकाद्युपपत्तिस्त्वत्रोपाध्यायश्रीशांतिचंद्रोपझजंबूद्दीपप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्तेरवसेया, ग्रंथगौरवभयानात्रोच्यत इति ज्ञेयं. यहा-पंचयोजनसहस्राः । पंचोत्तरं शतत्रयं ॥ षष्टिभागाः पंचदश-मुहूर्तगतिरत्र नवसारांश, तथा एकसागंशना साठ एकसठीया नागो. एटदा जोजन थाय ने, , ए-६० ॥ ६०-६१. या शोध्यराशिने सर्वथी बहारना मंगलथी अर्वाचीन मंडल नी दृष्टिमर्यादाना परिमाणथी जो शोधवामां आवे, तो कह्यामुजब सर्वथी बेल्लां मंडलनी दृष्टिमर्यादानुं परिमाण थाय एम जाणवू. पूर्व कहेला ध्रुवकम्पादिकनी नपप. त्ति तो अहीं नपाध्याय श्रीशांतिचंद्रजीए रचेली जंबृद्दी पपन्नत्तिसूत्रनी टीकाथी जाणवी, ग्रंयविस्तारना जययी यहीं कही नथी, एम जाणवू. अयवा-यहीं एक मु. हूर्तमां पांच हजार त्रणसो पांच पूर्णाक पंदर साठांस जो. जनजेटली सूर्यनी गति . ॥ ४४ ॥ तेने अर्धा दिवसः
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( ११ ) हि || ४ || मुहूर्तात्मना चैषा । दिवसार्धेन गुण्यते ॥ ततोऽप्येतद्दृक्पथाप्ति – मानं सर्वोत्यमले ॥ ४९ ॥ सबाह्याने तु । चतुरशीतिवर्जितैः ॥ द्वात्रिंशता योजनानां । सहस्रैर्दृश्यते रविः || ४६ ॥ शैश्चैकोनचत्वारिं- - शता षष्टिसमुद्रवैः ॥ एकस्य षष्टिनागस्य । षष्ट्यांशैश्चैकषष्टिः ॥ ४७ ॥ ३११६, ३०-६० ।। ६०-६१ ॥ १ - ६१. पंचाशीतिर्योजनानि । नवनागाश्च षष्टिजाः ॥ - ष्टयंशस्यैकस्य नागाः । षष्टिस्तथैकषष्टिजाः ॥ ४८ ॥ स व त्यमंडलादव - चीन द्दितीयमंडले । एषा वृद्धिस्ततो बृना व मुहूर्तोथी जो गुणवामां यावे, तोपण सर्वथी . लामंडलमां सूर्यनी दृष्टिमर्यादानं प्रमाण यावे. ॥४९॥ा सर्वथी बहाना मंडली पहेलाना मंडलमां तो वत्रीस दजारमा चोर्यासी जंग जोजने सूर्य देखाय बे ॥ ४६ ॥ वळी ते संख्यापर एक जोजनना साठीया जंगलचालीस नागो, तथा एक साठीया जागना साठ एकसठीया ना . गो जात्रा, एट ३१०१६, ३०-६० ।। ६०-६१ ॥ १६१ जोजन थया. ॥ ४७ ॥ मतलब क्रे पंच्यासी पूर्णांक नवसाठांश, तथा एक साठीया जागना साठ एकसठीया नागो ॥ ४८ ॥ एटला जोजननी सर्वथी बेला मंगलनी
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छौ । पुरतो ध्रुवकोऽप्यसौ ॥ ४ ॥ सर्वबाह्यात्तृतीयादि -मंझलेष्वथ दृक्पथं ॥ ज्ञातुं गुणितया पत्रिं-शतैः कट्यादिसंख्यया ।। ५० ॥ ध्रुवांकान्यूनितेऽसौ स्यात् । क्षेप्यराशिरनेन च ॥ प्राच्यमंमलदृग्मार्गो । युक्तः स्यादिष्टमंमले ॥ ५१ ॥ तथाहि-तृतीये मंडले बाह्यात । षट्त्रिंशदेकताडिता ॥ ध्रुवकात्तदवस्यैव । विशोध्यते ततः स्थितं ॥ ५५ ॥ पंचाशीतिर्योजनानि । षष्टिजाश्च लवा नव ॥ षष्टयंशस्यैकस्य लवा-श्चतुर्विंशतिरेव च ॥१३॥ पहेलाना बीजा मंडलमां वृद्धि जाणवी, अने पछी वृद्धि होते छते अगामी ते ध्रुवक पण जाणवो. ॥ ४ ॥ हवे सर्वथी बहारना मंगलथी त्रीजाआदिक मंम्लोमां दृष्टिमर्यादा जाणवामाटे एक बे श्रादिक संख्यावडे . त्रीसे गुणवायी ॥ ५० ॥ श्रने ध्रुवांकमांथी नछी करवाथी तेमां मेळ्ववानी रकम यावे, अने तेसहित इहित मंमलमां पूर्वना मंमलनी दृष्टिमर्यादा थाय. ॥ ११ ॥ ते कहे -बहारना मंमलथी वीजा मंडलमां एके गु. गेली बत्रीसनी स्कमने तेज स्थितिमां ध्रुवांकमाथी बाद करवी, अने तेथी॥ ५५ ॥ पंच्यासी पूर्णाक नवसाठांस जोजन, तथा एकसायंसना चोवीस एकसठीया जागो,॥
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( १२१ ) द्वितीयमंमलस्यादि - गोचरोऽनेन संयुते । तृतीयमंडले दृष्टि - पथमानं नवेदिदं ॥ ९४ ॥ योजनानां सहस्राः स्यु - द्वत्रिंशत्सक योजनाः ॥ भागा एकोनपंचाश-द्यो जनस्य च षष्टिजाः || १५ || एकषष्टिविजक्तस्यै— कस्य षष्टिलवस्य च । त्रयोविंशतिरेवांशा । एवं सर्वत्र भावना ॥ ५६ ॥ एवमंतः प्रविशतः । सूर्यस्य बाह्यमंडलात् ॥ पूंर्वोक्तरीत्या हग्मार्ग - प्रमाणे वर्धिते रवेः ॥ ९७ ॥ पंचाशीतिः सातिरेका । संपूर्णा सैव कुत्रचित् ॥ सांधिका चतुरशीतिः । कापि सा केवला कचित् ॥ ५८ ॥ त्र्यशीतिः
|| ३ || एटली रकम बीजा मंडलनी दृष्टिमर्यादानी - कममां नेलववाथी त्रीजा मंडलनी दृष्टिमर्यादानुं नीचे - मुजब प्रमाण थाय. ॥ ९४ ॥ बलीस हजार एक पूर्णांक जंग पचास साठांश जोजन ॥ ९५ ॥ तथा एक साठांश जोजनना जेवीस एकसठीया भागो थाय, ने एरीतनी जावना सर्व जगोए जावी. ।। ५६ ।। एवीरीते सू
ना बहारना मंगलथी अंदर जतांकां पूर्वे कहेली रीतमुजब सूर्यनुं दृष्टिमर्यादानुं प्रमाण वधारते ते ॥ १७ ॥ क्यांक ककयधिक पंन्यासी, क्यांक संपूर्ण पंच्यासी, क्यांक कक व्यधिक चोर्यासी, क्यांक केवल चोर्यासी,
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( १२२ ) साधिका कापि । योजनानां यथायथं ॥ सर्वोतमंडलं याव - प्राव्यं तच्च प्रदर्शितं ॥ ५ ॥ यद्यपि बाह्यतृतीयमंमलाद शीत्यधिकशततमे सर्वान्यंतरमंगले यथोक्तकरऐन त्र्यशीतिर्योजनानि द्वाविंशतिः षष्टिनागा योजनस्य: एकस्य षष्टिनागस्य सत्काः पंचत्रिंशदे कषष्टिभागाः २१x ६० || ३९ ६१ एवंरूपः क्षेप्यराशिवति, तथापि येन ध्रुवकात पत्रिंशद्यथोक्तरूपाः शोधितास्ते कलया न्यूना व्यपि पूर्णा एव विवदिताः, ततः किंचिदधिकं निर्गतं, त ॥ ९० ॥ क्यांक कड्रंक अधिक व्यासी जोजनो थाय. एवीरीते सर्वयी दरना मंमखसुधी जाववु, याने ते देखाडेनुं वे ॥ ९ ॥ जोके बढ़ारना त्रीजा मंडलथी सर्वथी अंदरना एक सोन्यासीमा मंगलमां उपर कह्यामुजब करवडे करीने त्र्यासी पूर्णांक बावीस साठांश जोजन, तथा एकसाठांश भागना पांत्रीश एकसठीया ना गो २२x६० ।। ३५×६१ ए रीतनी जेव्ववानी रकम थाय बे, तो पण जे यहीं ध्रुवकमांथी उपर कह्या मुजब ब त्रीस बाद कर्या बे, ते एक कलाजेटला जळावे. बतां पण संपूर्णज कहेला के, खने तेथी कक व्यधिक निकळंबे, नेते अधिकने सर्वश्री अंदरना मंगलमां
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(१२३) चाधिकं सर्वात्यंतरे मंडले एकत्र पिंडितं सत् अष्टषष्टिरे. कषष्टिभागा नवंति, ततस्ते नूयः क्षेप्यराशौ क्षिप्यंते, त. तो जातः क्षेप्यराशिः यो०७३ षष्टिभा० २३४६० एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिभा० ४२४६१, अस्मिंश्च राशौ सर्वा. ज्यंतरानंतरद्वितीयमंडलगतहक्पथपरिमाणे योजिते सति यथोक्तं सर्वात्यंतरमंडले दृक्पयपरिमाणं नवतीति ज्ञेयं. . कथं चैवं योजनानां । सहर्दूरगावपि ॥ आसन्ना. विव दृश्यते । तरणी नदयास्तयोः ॥ ६ ॥ मध्याह्ने तु एक करते बते श्रमसठ एकसठीया नागो थाय बे, अ. ने तेथी तेन फरीने भेळववानी रकममां नेळवाय , अने तेथी ते नेलववानी रकम व्यासी पूर्णाक त्रेवीस साठांश जोजन, तथा एकसारांश जोजनना बेतालीस एकसठीया भागोजेटली थर, अने ते रकममां सर्वथी अंदरना मंडलपजीना बीजा मंझलनी दृष्टिमर्यादानुं प्र. माण नेलववाथी कह्यामुजब सर्वथी अंदरना मंमलमां दृष्टिमर्यादानुं प्रमाण थाय ने, एम जाणवू.
एवीरीत हजारो जोजन दूर छतां पण ते बने सूयो उदयास्तसमये नजीकजेवा केम देखाय ? ॥६॥ वळी मध्याह्ने तो पाठसो जोजनमा रह्या उतां पण ते व
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(१२४) योजनाना-मष्टशत्यां स्थितावपि ॥ दूरस्थाविव दृश्येते । कथमुष्णत्विषो ननु ॥ ६३ ॥ यत्रोच्यते-दूरत्वेन प्र. तिघाता-स्वबिंबमहसां रखी॥ श्रासन्नौ सुखदृश्यत्वाद् । झायेते नदयास्तयोः ॥ ६४ ॥ मध्याह्ने चासन्नतया । प्र. सर्पत्तीवरश्मिभिः ॥ झायेते दुर्निरीदत्वा-दासन्नावपि दू. रगौ ॥ ६५ ॥ तथा चागमः-लेस्सापडिघाएणं नग्गम णमुहत्तंसि दूरे अमूले श्रदीसंति. अत्र दूरे चेति दृ. दृस्थानापेदया विप्रकृष्टे, मूले चेति दृष्टप्रतीत्यपेदया ने सूर्यो दूर रहेलानीपेठे केम देखाय ? ॥ ६३ ॥ ते माटे अहीं कहे -दूर होवाथी पोताना बिंबना तेजना प्रतिघातथी ते बन्ने सूर्यो सुखे जो शकवायी नदयास्तसमये नजीक देखाय . ॥ ६४ ॥ अने मध्याह्नवखते नजीक होवाथी फेलातां एवां तेजनां तीव्र किर. णोथी फुःखे जो शकाता होवाथी नजीक छतां पण तेन दूर रहेलाजेवा देखाय जे. ॥६५॥ आगममां पण का ने के-लेश्याना प्रतिघातवडे नगतीसमये दूर हो. वा छतां पण ते नजीकजेवा देखाय . पहीं दूर ए. टले जोनारना स्थाननी अपेदाये दूर, अने मूल एटले जोनारने पडता थाभासनी अपेदाये नजीक. एवीरीते
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( १२५ ) व्यासन्ने, इति भगवतीशत० ८ ० ८. दुरत्वादेव जुलमा-विव ताबुदयास्तयोः । नैकट्यादेव दृश्येते । मध्याह्वे खाग्रगाविव ।। ६६ ।। उच्चत्वं तु सर्वदापि । समानमेव सूर्ययोः ॥ योजनानां ष्टात्या । नावम परतश्व तौ ॥ ॥ ६७ ॥ एवं दृष्टिपथप्राप्ति - प्ररूपणा प्रपंचिता ॥ यथ प्ररूपणां नान्वोः । कुर्मोऽर्ध मंगलस्थितेः ॥ ६८ ॥ एकं मं डल मेकेना - होरात्रेण समाप्यते || न्यामभिमुखस्था - ज्यां । रविन्यां प्रतिवादिवत् || ६ || मेरोर्दक्षिणपूर्वस्यां भगवतीसुत्रना पाठमा शतकना व्याउमा उद्देशामां बे. दूर होवाथीज ad बन्ने उदयास्तसमये पृथ्वीमां लागे - लानीपेठे देखाय वे, तथा नजीक होवाथीज तेज म ध्याह्नवखते व्याकाशना ग्रभागमा रहेलानीपेठे देखाय बे. ॥ ६६ ॥ वळी ते बन्ने सूर्योनी उंचाई तो हमेशां सरखीज बे, केमके ते याउसो जोजनथी घ्यागळ के पाछळ होता नथी. ॥ ६७ ॥ एवीरीते ते बन्ने सूर्योनी ह टिमर्यादानी प्ररूपणा करी, दवे तेजना व्यर्धमंमलनी स्थितिनी प्ररूपणा करीये छोये ॥ ६८ ॥ प्रतिवादीनी पेवे एकबीजानी सामे रहेला ते बन्ने सूर्यो एक प्रहोरा
वडे एक मंडल संपूर्ण करे बे. ॥ ६५ ॥ मेरुथी द
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( १२६ ) | यदा प्रथममेव हि ॥ एकः सूर्यः प्रविशति । सर्वान्यतरमंडलं ॥ १० ॥ पश्चिमोत्तरदिग्भागे । तदैवान्योऽपि भास्करः ॥ समकालं स्पर्धयेव । सर्वोतमेडले विशेत ॥ ॥ ११ ॥ छं ताभ्यां प्रविशद्द्भ्यां । व्याप्तं यत्प्रथमक्षणे ॥ क्षेत्रं व्यपेक्षया तस्य । कल्प्य मांतरमंडलं ॥ ७२ ॥ प्रथमान्तु दादूर्ध्वं । विवस्वतौ शनैः शनैः ॥ क्रमादपसरंतौ च । सर्वाभ्यंतरमंडलात् || १३ || अनंतर बहिर्भाविमंगला निमुख किख ॥ सर्पतौ चरतश्वारं । ततश्च प्रथमदणे ॥ १४ ॥ स्पृष्टं क्षेत्रं यदेतान्यां । तदपेक्ष्य प्रकल्पक्षिणपूर्व दिशामां ज्यारे एक सूर्य सर्वयी अंदरना पहेला मंगलमां दाखल थाय बे ॥ ७० ॥ त्यारेज बीजो सूर्य पण पश्चिमोत्तर दिशामां तेज वखते जाणे स्पर्धाथी होय नहि तेम सर्वथी चंदना मंडलमां दाखल थाय वे. ॥ ॥ ११ ॥ एवीरीते प्रवेश करता एवा ते बेज सूर्योवडे पहेले दाणे जेटं क्षेत्र व्याप्त ययुं बे, तेनी छापेक्षाये यंदरनुं मंडल कल्प. ।। १२ ।। पहेला दणथी घ्यागळ धीरे धीरे ते बन्ने सूर्यो अनुक्रमे सर्वथी अंदरना मंडलमांथी चालताका || १३ || तेपबीना बहारना मंडलनी सन्मुख चालताथका गमन करे वे, अने तेथी पट्टे
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( १२७) तं ॥ ज्ञेयं मंडलतुव्यत्वा-न्मंडलं न तु तात्विकं ॥ ७५ । तथाहुः-रविदुगनमणवसाने । निप्पज्जर मंडलं हं एगं ॥ तं पुण मंडलसरिसंति । मंडलं वुच्च तहाहि ॥ ॥ ७६ ॥ गिरिनिसिढनीलवतेसु । नग्गयाणं वीणककं. मि ॥ पढमान चेव समया-सरणेणं जन जमणं॥ ॥ ७ ॥ तो नो निबयरूवं । निप्पज्जा मंमलं दियराणं ॥ चंदाणवि एवंचियं । निजयन मंमलाभावो ॥ ॥ ७० ॥ मेरोदक्षिणपूर्वस्या-मेकोऽन्यंतरमंडले ॥ सं. लेकणे ॥ १४ ॥ तेनए जेटवं क्षेत्र स्पर्शवं. तेनी अपेदाये ते मंडलसरखं होवाथी तेने कल्पित मंडल जाणवू, परंतु ते खरेखरं मंमल नथी. ॥ ३५ ॥ कर्जा ने के–बे सूर्योना नमवाथी अहीं एक मंडल थाय ने, पं. रंतु ते मंमलसमान होवाथी तेने मंडल कहेवामां आवे बे, जेमके-॥ १६ ॥ निषध अने नीलवंतपर्वतपर क. र्कसंक्रांतिमां नगता सूर्योना प्रथम समयथी गतिवडे व मण थाय ने, ॥ 9 ॥ अने तेथी सूर्योनु ते निश्चयरू. "प मंमल थतुं नयी, अने एवीज रीते चंद्रोनो पण नि. श्चयश्री मंगलनो अभाव . ।। 90 ॥ मेरुथी दक्षिणपूर्वे ज्यारे एक सूर्य अंदरना मंमलमा दाखल थश्ने मेरुना
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क्रम्य याम्यदिग्नागं । यदा मेरोः प्रकाशयेत् ॥ १९ ॥ तदापरोत्तरदिशि । प्राप्तोऽन्यंतरमंमलं ॥ पन्यो मेरोरुंदनागं | प्रकाशयति जानुमान् ॥ ८० ॥ दक्षिणोत्तरयोर्मे रोः । सर्वोत्कृष्टं दिनं तदा ।। रात्रिः सर्वजघन्यैषोऽहोरावो वत्सरेतिमः ॥ ८१ ॥ यहोरात्रे नवाब्दस्य । चरतः प्र थमे यदि || द्वितीयस्मिन् मंडलेsa | निष्क्रम्यांतरमंम लात् ॥ ८२ ॥ दाक्षिणात्यस्तदा सूर्यः । सर्वात मला श्रितात् || विनिर्गत्य दक्षिणार्धा - हायव्यां सुरभृतः ॥ || ३ || द्वितीयस्य मंडलस्यो - तरार्धमाश्रितश्चरन् ॥ मे दक्षिणतरफा जागने प्रकाशे वे ॥ ५ ॥ त्यारे बीजो सूर्य मेरुथी पश्चिमोत्तरागमां अंदरना मंगलमां दाखल थने मेरुना उत्तरतरफना भागने प्रकाशे वे ॥ ८० ॥
ने ते वखते मेरुखी दक्षिणे पने उत्तरे सर्वथ मोटो दिवस, तथा सर्वथी जघन्य रात्रि थाय बे ने ते वर्ष - मां बेलो व्यहोरात्र बे ॥ ८१ ॥ पछी ज्यारे ते बन्ने सूर्यो नवा वर्षना पहेला अहोरात्रमां अंदरना मंगलमांथी निकळीने बीजा मंडलमां चाले बे ॥ ८२ ॥ त्यारे द दितरफनो सूर्य सर्वथी अंदरना मंडलमा रहेला दक्षि णार्धमांथी निकळीने मेरुथी वायव्य दिशामां ॥ ८३ ॥
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(१ ) रोरुत्तरदिग्भागं । प्रकाशयति दीपक्त् ॥ ४ ॥ औत्तरा. हः पतंगस्तु । सर्वांतमंडलाश्रितात् ॥ औत्तरार्धादिनिर्ग त्य । मेरोदक्षिणपूर्वतः ॥ ५ ॥ द्वितीयस्य मंमलस्य । दक्षिणार्धमुपाश्रितः ।। मेरोर्दविणदिग्नागं । प्रकाशयति लीलया ॥ ७६ ।। क्षेत्रमान्यां च यत्स्पृष्टं । तस्याह्नः प्रथ. मदणे ॥ द्वितीयं ममलं बुख्या । कटप्यते तदपेदया । ॥ ७ ॥ एवं च-एकैकस्मिन्नहोरात्रे । एकैकमर्धममलं ॥ संक्रम्य संचरंतौ ता-वन्योन्यव्यवहारतः ॥ ७ ॥ बीजा ममलना उत्तरार्धमां दाखल यश् चालतोयको मेरुथी उत्तरतरफना भागने दीपकनीपेठे प्रकाशे . ॥ ॥ ॥ अने उत्तरवाजुए सूर्य सर्वथी अंदरना मंडला. ना उत्तरार्धमांथी निकळीने मेरुथी दक्षिणपूर्वे ।। ५ ॥ बीजा मंडलना दक्षिणार्धमां दाखल थश् मेरुथी दक्षिणतरफना नागने सहेलाथी प्रकाशे . ॥ ६॥ हवे ते बने सूर्योए ते दिवसना पहेले दाणे जे क्षेत्र स्पर्शेढुंबे, तेनी अपेदाये बीजं मंमल बुध्थिी कल्पी लेवं. ॥७॥ अने एवीरीते- एकेका अहोरात्रमा एकेका अर्धा मंडलमां संक्रमीने परस्पर व्यवहार चालता एवा ते बने सूयो, ॥ 1 ॥ दिवसे दिवसे दरेक मुहूर्तना बे एकसठी
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( १३० )
त्येकं हौ मुहूर्तेक - पष्टिजागौ दिने दिने || रुपयंतौ सर्वबाह्य - मंगलावधिगतः || ५ || तस्मात्पुनः सर्ववाद्या - र्वाचीनमंडल स्थितात || दक्षिणार्धाद्विनिर्गत्य | सर्वा त्यमंलाश्रितं ॥ [ ० ॥ उत्तरार्धं स विशति । यः प्रकाशितवान् पुरा । रविर्मेरोर्याम्यभागं । सर्वान्यंतरमंमले ॥ ॥ १ ॥ यस्तु तत्रोत्तरभाग - म दिदीपविः पुरा ॥ स सर्व बाह्यार्वाचीन - मंडलस्योत्तरार्धतः ॥ २ ॥ निर्गत्य दीपयेद्याम्य - म सर्वोत्यमंडले ॥ याद्यं संवत्सरस्यार्ध - मेवमान्यां समाप्यते ॥ ३ ॥ ततस्तौ दावपि खी । सौ
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या जागोने खपावताका सर्वथी बहारना मंगलमां यावे वें. ॥ ८५ ॥ वळी सर्वश्री बदारना पर्वाचीन मंगलमां रहेला ते दक्षिणामांयी निळीने सर्वथी बेल्ला मं मलमा रहेला ॥ ९० ॥ उत्तरार्धमां ते दाखल थाय बे, के जे सूर्ये प्रथम सर्वथी अंदरना मंडलमां मेरुना दक्षि नागने प्रकाशेलो दतो. ॥ ५१ ॥ तथा जे सूर्ये त्यां प्रथम उत्तरभागने प्रकाश्यो हतो ते सूर्य सर्वथी बहार - ना पर्वाचीन मंगलना उत्तरार्धमथी || २ || निकळीने सर्वथा बेल्लां मंडलमां दक्षिणार्धने दीपावे बे, व्यने एवीरीते ते बन्ने सुर्योथी वर्षनो पहेलो अर्धाग समाप्त
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(१३१) म्यायनादिमदणे ॥ अनंतरं सर्वबाह्याद्-द्वितीयं मंडलं श्रितौ ॥ ४ ॥ उत्तरार्ध योऽदिदीप-सर्वोत्यमंडलाश्रितं ॥ दीपयेत्सोऽत्र याम्याई–मुत्तरार्ध ततः परं ॥ ५ ॥ एवं पुनर्मडलार्ध-मेककै व्यतिहारतः ।। एकैकस्मिन्नहोरात्रे । थाक्रमंतौ दिवाकरौ ॥ ६ ॥ प्रत्येकं द्वौ मुहूर्त क-पष्टिनागौ दिने दिने ॥ वर्धयंती क्रमाप्राप्तौ । सर्वाज्यंतरमंमले ॥ ७ ॥ ममलेऽस्मिन्नहोरात्रे । गताब्दस्यां तिमे खी॥ यथादिदीपतामधैं । पुनःपयतस्तथा ॥९॥ थाय . ॥ ए३ ॥ पछी ते बन्ने सूर्यो नत्तरायनना पहे. ले दणे सर्वथी बहारना मंडलथी बीजा मंडलमां आवे . ॥ ४ ॥ सर्वयो बेला मंडलना उत्तरार्धने जे सूर्ये प्रकाशित कर्यु हतुं, ते अहीं दक्षिणार्धने प्रकाशे , त. था पछी नत्तरार्धने प्रकाशे . ॥ ५५ ॥ एवीरीते एके. का अहोरात्रमा वाराफरती एकेका मंझलार्धने आक्रमण करताथका ते बने सूर्यो ॥ ७६ ॥ दरेक मुहूर्तना बे एकसठीया भागो दिवसे दिवसे वधारताथका अनुक्रमे सवथी अंदरना मंगलमां दाखल थाय . ॥ ॥ श्रा मंमलमां गया वर्षना डेल्ला अहोरात्रमा जेम ते बन्ने सू. यो अर्ध अर्ध मंडलने दीपावता हता, तेम पाछा तेन
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( १३२ )
इत्यर्धमंमल स्थितिः | सूर्यवक्तव्यता चैवं । यथाम्नायं प्रपंचिता ॥ एवं प्रपंचयामोऽथ | चंद्रचारप्ररूपणां ॥ ए॥
यादौ क्षेत्रं मंगलानां १ | तदबाधा २ तदंतरं ३ ॥ " तच्चारश्च ४ वृद्धिहानि - प्रतिभासप्ररूपणा ५ ॥ ३०० ॥ यात्रानुयोगद्वाराणि । पंचास्तत्ववेदिनः ॥ तत्रादौ मंडलक्षेत्र - परिमाणं प्रतन्यते ॥ १ ॥ मंडलानि पंचदश । चंद्रस्य सर्वसंख्यया ॥ षट्पंचाशद्योजनैक - षष्टिभागपृथून्यतः ॥ २ ॥ गुणिताः पंचदशनिः । षट्पंचाशद्भवंति ते ॥ दीपावे . ॥ ८ ॥ एवीरीते मंगलनी स्थितिनुं स्वरूप कां. ॥ एवीरीते प्राम्नायपूर्वक सूर्यनी गतिध्यादिकनुं वर्णन कर्य, हवे एवीरीते चंद्रनी गतिनी प्ररूपणा करीये बी. ॥ ॥
तेमां प्रथम मंडलोनुं क्षेत्र, तेजनी यवाधा, तेजनो व्यंतर, तेजनी गति, तथा वृद्धिदानिनी प्ररूपणा, ॥ ॥ ३०० ॥ एवीरी यहीं पांच अनुयोगद्दारो तत्ववेत्ता - नए कहेलां बे, तेमां प्रथम मंगलक्षेत्रनं प्रमाण कहे बे. ॥ १ ॥ चंद्रनां सर्व मली पंदर मंमलो बे, पने ते जोजनना उपन एकसठीया नागजेवमा पहोळा वे. अने तेथी ॥ २ ॥ ते उपनने पंदरे गुणवाथी पाठसो चालीस
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(१३३) अष्टौ शतानि चत्वारिं-शान्येकषष्टिजा लवाः ॥ ३ ॥ ए. कषष्ट्या विभज्यंते । योजनानयनाय ते ॥ त्रयोदश योजनानि । लब्धान्येतत्तु शिष्यते ॥ ४ ॥ सप्तचत्वारिंशदशा । योजनस्यैकषष्टिजाः ।। मंडलानां पुनरेषा-मंतराणि चतुर्दश ॥ ५ ॥ पंचत्रिंशद्योजनानि । त्रिंशतयुषष्टिजाः ॥ लवा एकस्यैकषष्ट्यं-शस्य कुम्मस्य सप्तधा ।।६।। नागाश्चत्वार एकैक-मेतावदंतरं भवेत ॥ शीतयतेममनेषु । तत्रोपपत्तिरुच्यते ॥ ७ ॥ चंद्रमंडलविष्कने । प्राग्व पंचदशाहते ॥ शोधिते मंडलक्षेत्रा-द्योजनानां चतुःशती ॥ ७ ॥ शेषा सप्तनवत्याढ्या । हकोंशश्चैकषष्टिजः एकसठीया नागों थाय . ॥ ३ ॥ तेना जोजन करवा माटे तेनने एकसठे गांगवा, के जेथी तेर जोजन था. व्या, अने नीचेमुजब बाकी रह्यु. ॥ ४ ॥ एकजोजनना समतालीस एकसठीया भागो बाकी रह्या, वळी ते मंग
लोना अांतरा चौद . ॥ ५॥ पांत्रीस जोजन, त्रीस . एकसठीया जागो, तथा एक एकसठीया भागने साते भा.
गवाथी ॥६॥ थयेला चार जागो, एटबु चंद्रना मंगलोमां अंतर , त्यां युक्ति कहे . ॥ ७ ॥ चंद्रना मंमलनी पहोळाश्ने पूर्वनीपेठे पंदरे गुणवाथी, तथा तेने मं.
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(१३४ ) ॥ विज्यंते च ते चतु-र्दशभिर्मडलांतरैः ॥ ५ ॥ पंचत्रिंशद्योजनानि । लब्धान्युधरिते हते ॥ एकषष्ट्यैकष: ष्ट्यंशेर नैकेन च समन्विते ।। १० ॥ अष्टाविंशा चतुः शत्ये-तस्याश्च भजने सति ॥ चतुर्दशभिराप्यते । त्रिं. शदंशाः पुरोदिताः ॥ ११ ॥ शेषा अष्टौ स्थिता जाज्या । भाजकाश्च चतुर्दश ॥ भागाप्राप्त्यापवय॑ते । ततोहाज्यामुनावपि ॥ १२ ॥ नागनागास्ततो लब्धा-श्चत्वारः साप्तिका इति ॥ एतचतुर्दशगुणं । कर्तव्यं प्रथमं स्विह ॥ १३ ॥ पंचत्रिंशद्योजनानि । चतुर्दशगुणानि वै ॥ शमलना क्षेत्रमांधी बाद करवाथी चारसो ॥ ७॥ सताण जोजन अने एक एकसठीयो जाग रहे, तेने मंमलना चौद यांतरानथी भांगवा, ॥ ७ ॥ त्यारे पांत्रीस जोजन यावे, घने नपर जे सात वध्या तेने एकसरे गुण. वाथी, तथा तेमां एक एकसठीयो भाग नेळववाथी॥१०॥ चारसो अठावीस थया, तेने चौदे भांगवाथी पूर्वे कहे. ला वीस अंश याव्या, ॥ ११ ॥ बाकी आठ भाज्य र. ह्या, अने नाजक चौद , परंतु नाग न चालवाथी बन्ने स्कमनो नेद नमामवो. ॥ ११ ॥ श्रने तेथी चारसप्तमा: श याव्या, हवे यहीं प्रथम तो पाटर्बु चौदगणुं करवं,
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(१३५) तान्यवंश्चत्वारि । नवत्याव्यानि येऽपि च ॥ १४ ॥ त्रिशदेकषष्टिनागाश्चतुर्दशगुणीकृताः ॥ जाताः शतानि चत्वारि । विंशत्याव्यानि ते त्वय ।।१५।। एकषष्ट्या वि. भज्यंते । योजनप्राप्तये ततः ।। लब्धा षट्योजनी शेषाश्चतुःपंचाशदंशकाः ॥ १६ ॥ सप्तभक्तस्यैकषष्टि-जागस्य या चतुर्लवी ॥ चतुर्दशगुणा सापि । षट्पंचाशनवंयमी ॥ १७ ॥ अष्टावेकषष्टिजागा । जायंते सप्तभाजिताः ॥ हाषष्टिरते स्युः प्राच्य-चतुःपंचाशता युताः ।। १७ ।। ए. कषष्ट्यैषां च भागे । प्राप्तं सैकांशयोजनं ॥ योज्यतेश॥ १३ ॥ पांत्रीस जोजनने चौदगणा करवाथी चारसो नेवु याव्या, वळी जे ॥ १४ ॥ त्रीस एकसठीया जागो बे, तेनने चौदगणा करवायी ते चारसोने वीस श्रया. ॥ १५॥ पनी तेना जोजन करवामाटे तेने एकसठे भागवाथी उ जोजन अने माथे चोपन अंश वधे. ॥१६॥ साते नांगेला एकसठीया नागना जे चार लवो , ते. ने चौदगणा करवायी तेन पण छपन थाय ने. ॥१७॥ तेने साते जांगवाथी आठ एकसठीया नागो थाय, ते. मां पूर्वना चोपन नेळववाथी बासठ थाय . ॥ १७ ॥ तेने एकसठे भांगवाथी एक जोजन अने एक अंश य
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( १३६ ) श्रांशराशौ | योजनं योजनेषु च ॥ ११७ ॥ एवं च - योजनानां पंचशती । दशोत्तरैकषष्टिजाः ॥ यष्टचत्वारिंशदेशा | मंडल क्षेत्रसमितिः ॥ २० ॥ कृतैवं मंडलक्षेत्रपरिमाणप्ररूपणा || संख्याप्ररूपणां त्वेषा-माहुः पंचदशात्मिकां ॥ २१ ॥ तत्र पंच मंगलानि । जंबूदीपे जिना जगुः ॥ शेषाणि तु दशांभोधौ । मंगलान्यमृततेः ॥ ॥ १२ ॥ बाधा तु त्रिधा प्राग्वत् । तत्राद्या मेर्वपेदया ॥ उघतो मंडलसेवा - बाधान्या प्रतिमंडलं ॥ २३ ॥ तृ तीया तु मिथोऽबाधा | शशिनोः प्रतिमंडलं ॥ तत्रौघतो
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यो, तेमांथी ते शने शोमां ने जोजनने जोजनोमां नेळववो || १ || अने एवीरीते - पांचसो दश जोजन ने पडतालीस एकसठीया भागो थया, अने तेनुं मंमलक्षेत्रनुं माप थयुं ॥ २० ॥ एवीरीते मंडलक्षेत्रना प्रमाणन प्ररूपणा करी, पने तेजनी संख्यानी प्ररूपणा पंदरनी कहेली . ॥ २१ ॥ तेमां पांच मंमलो जिनेश्वरोए जंबूदीपमां कह्यांबे, पने बाकीनां चंद्रनां दश मंलो समुद्रमां वे ॥ २२ ॥ बाधा पूर्वनीपेठे त्रण प्रकारनी बे, तेमां पहेली लघयी मेरुनी अपेक्षाये, बीजी दरेक मंडले मंगलक्षेत्रनी वाधा ॥ २३ ॥ अने
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(१३७) ऽर्कवन्मेरो-मैडलक्षेत्रमीरितं ॥ २४ ॥ चतुश्चत्वारिंशतव । सहस्रैरष्टनिः शतैः ।। विंशत्याढ्यैर्योजनाना-मियतवाद्य. मंमलं ॥ २५॥ षट्त्रिंशद्योजनान्येक-षष्ट्यंशाः पंचविं. शतिः ॥ एकस्यैकषष्टिजस्य । चत्वारः सप्तजा लवाः॥१६॥ वर्धतेंतरमेताव-प्रतिमंमलमादिमात् ॥ सर्वोत्यमंडलं या व-त्ततो द्वितीयमंडलं ॥७॥ सत्सहश्चतश्चत्वारिंशता चाष्टभिः शतैः ॥ षट्पंचाशैरेकषष्टि-जागैस्तत्वमितैस्तथा ॥ २ ॥ एकस्यैकषष्टिजस्य । चतुर्निः सप्तजैल वैः ॥ स्यान्मंदरादंतरित-मेकतोऽपरतोऽपि च ॥ २७ ॥ सत्रीजी बन्ने चंद्रोनी दरमंडले परस्पर थवाधा. तेमां नघथी मेरुनी अपेदाये सूर्यनीपेठे तेनुं मंडलक्षेत्र कहेछ .॥ २४ ॥ चमालीस हजार पाठसो वीस जोजनोनुं पहेबु मंडल ने. ॥ २५॥ त्रीस पूर्णाक पचीस एकसठांश जोजन तथा एक एकसठीया नागना सप्तमांशजेवडा चार लवो, ॥ २६ ॥ एटबु पहेला मंगलथी मांडीने सर्वथी बेल्ला मंडलसुधी दरमंडले अंतर वधे चे, अने तेथी बीजं मंगल ॥ २७ ॥ चमालीस हजार आठसो उपन पूर्णाक पचीस एकसगंश जोजन, ॥ ॥ तथा एक एकसठीया जागना सप्तमांशजेवडा चार नागो, एट्वं
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(१३०) बाह्यमंमलं तु । स्थितं दूरे सुमेरुतः ॥ सहस्रैः पंचच त्वारिं-शता त्रिंशैत्रिनिः शतैः ॥ ३० ॥ योजनानां योजनैक-पष्टिभागाष्टकोनितैः ॥ श्रयो मिथोंतरं वदये । शशिनोः प्रतिमंमलं ॥ ३१ ॥ इंदोमिथोऽर्कवत्सर्वा-त. रंगमंमलेंतरं ॥ सहस्रा नवनवति-श्वत्वारिंशा च षट्शती ॥ ३२ ॥ तश्व-हाशप्ततिर्योजनाना-मेकपंचाश दंशकाः ॥ एकषष्टिनवाः सप्त-नक्तस्यास्य लवोऽपि च ॥३३ ॥ एतावदंतरं ग्लावों-वर्धते प्रतिमंडलं ॥ बहिः निष्क्रमतोरत-विशतोः परिहीयते ॥ ३४ ॥ एतच्च यत्पुरा मेरुथी एक श्रने बीजी बाजुथी दुर रहेछ . ॥ श्ए । अने सर्वथी बहारनुं मंडल तो मेरुथी पस्तालीस हजार त्रणसो त्रीस पूर्णाक ॥३०॥ जोजनमा एक जोजनना पाठ एकसठीया भागो नछा, एटयु मेटे रहेवू . हवे ते बने चंडोनुं दर मंडले परस्पर अंतर कहं बु. ॥३१॥ सर्वथी अंदरना मंडलमा बन्ने चंद्रोर्नु परस्पर अंतर सूर्यो नीपेठे नवाणु हजार सो चमालीस जोजनन . ॥३॥ अने पली-बहोतेर पूर्णाक एकावन एकसठांश जोज. न, अने एक एकसठीया भागनो एक लव, ।। ३३ ।। ए. रंतु ते बन्ने चंद्रोनुं अंतर बहार निकळतांथकां दर मंमले
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प्रोक्तं । प्रतिमंडलमेकतः ॥ अंतरं तद् द्विगुणितं । भवे. पार्श्वयोजवं ॥ ३५ ॥ एवं च-सहस्रा नवनवतियों जनानां शतानि च ॥ द्वादशोपेतानि सप्त । विभागश्चै. कषष्टिजाः ॥ ३६॥ एकपंचाशदेकोश । एकषष्टिलवस्य च ॥ सप्तनागीकृतस्यैतद् । द्वितीयमंडलेंतरं ।। ३७ ॥ स.
तिमेंतरं लदं । सषष्टीनि शतानि षट् ॥ योजनानामे कषष्टि-नागैः षोडेशनिर्विना ।। ३७ ॥ अष्टांशोव्यासमिंदु-मंडलं नानुमंडलात् ।। अष्टाष्टाकिक्षेत्रनागा। थान्यां रुघास्ततोऽधिकाः ॥ ३५॥ ततः षोमशभिर्ना गैवधे , श्रने अंदर दाखल थतां नवं थाय . ॥३४॥ एवीरीते जे पूर्व दर मंझले एकतरफ४ अंतर कडं, तेने बमाणुं करखाथी बन्ने बाजुनुं अंतर थाय . ॥ ३५ ॥ अ. ने एवीरीते-नवाणु हजार सातसो बार पूर्णाक तथा एकसठीया ॥ ३६ ॥ एकावन भागो, अने एक एकसठी. या जागनो एकसप्तमांश एटयु बीजा मंमलमां अंतर . ॥ ३७ ॥ सर्वथी उल्ला मंमलमा एक लाख उसो साठ जोजनमा शोळ एकसठीया भाग बं अंतर . ॥३०॥ सूर्यना मंडलथी चंद्रनुं मंडल पाठ अंश वधारे घेरावावाळू , अने तेथी ते बने चंद्रोए क्षेत्रना आठ पाठ
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(१४०) न्यूँनं परममंतरं । सर्वोत्यमंडले ग्लाबो-रर्कयोः परमांतरात् ॥ ४० ॥ एवं कृता चंद्रमसो-र्मियोऽबाधाप्ररूपणा ॥ सांप्रतं मम्लाचार-प्ररूपणा प्रपंच्यते ॥ ४१ ॥
परिक्षेपा मंगलानां १ । मुहूर्तगतिरत्र च ॥ मंडलार्धममलयोः । कालसंख्याप्ररूपणा ३ ॥ ४२ ॥ साधारणासाधारण-ममलानां प्ररूपणा ४ ॥ एवं चत्वार्यनुयोग
-वाराण्यत्र जिना जगुः ॥ ४३ ॥ विष्कंचायामतस्तत्र । सर्वान्यंतरमंडलं । सहस्रा नवनवति–श्चत्वारिंशा च षपागला जागो वधारे रोकेला . ॥ ३५ ॥ श्रने तेथी सर्वथी नेल्ला मंडलमा सूर्योना नत्कृष्टा अंतरथी बन्ने चंदोन नत्कृष्टुं अंतर शोळ नागोजेटद्यं नवं . ॥१०॥ एवीरीते ते बन्ने चंद्रोनी परस्पर अबाधानी प्ररूपणा करी, हवे मंडलगतिनी प्ररूपणा कराय . ॥ ४१ ॥ ___तेमां मंमलोना घेरावा, मुहर्तनी गति, मंमल तथा अर्धममलनी कालसंख्यानी प्ररूपणा, ॥ ४॥ तथा साधारण अने असाधारण मंमलनी प्ररूपणा, एवी रीतना यही चार अनुयोगदारो जिनेश्वरोए कहेला ने. ॥४३।। सां सर्वयी अंदरनुं मंमल लंबा पहोळाश्मां नवाणु ह. जार बसो चाळीस जोजननुं . ॥ ४५ ॥ वळी अंदरना
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( १४१ )
दशती ॥ ४४ ॥ तिस्रो लदाः पंचदश । सहस्रा योजनान्यथ || नवाशीतिः परिक्षेपो - ऽधिकोऽन्यंतरमंमले || ॥ ४५ ॥ जावना तूनयोरपि सूर्याभ्यंतरमंडलवत || हि तीयमंमलव्यासं । विभाव्योक्तानुसारतः || भावनीयः परिक्षेपः । स चायमुपपद्यते ॥ ४६ ॥ तिस्रो लाः पंचदश । सहस्राणि शतत्रयं ॥ योजनान्ये कोनविंशं । साधिकं किंचनाथवा ॥ ४५ ॥ पूर्वमंमल विष्कंना - परमं मलविस्तृतौ ॥ द्वासप्ततियोजनानि । वृद्धिः प्राक् प्रत्यपादि या ॥ ४६ ॥ तस्याः पृथक्परिक्षेपः । कर्तव्यः को विदेदुना || दे शते त्रिंशदधिके । योजनानां नवेदसौ ॥ ४७ ॥ २४० रिासायी
मंगलनो घेरावो त्रण लाख पंदर हजार नेव्यासी जोजननो वे. ॥ ४५ ॥ ते बन्नेनी भावना तो सूर्यना चंदरना मंडलनीपेठे जाणवी || वळी कह्यामुजब बीजा मं." मनो व्यास विचारीने तेनो वेरावो नावी लेवो, ने ते नीचेमुजब थाय े ॥ ४६ || लाख पंदर हजार . वसो जंगणवीस जोजनथी कड्रंक घ्यधिक के, घ्यथवा ॥ ४५ ॥ पूर्वमंगलनी पहोळाश्थी पश्चिमममलनी पहोळाश्मां बहोतेर जोजननी पूर्वे जे वृद्धि कहेली वे, ॥ ॥ ४६ ॥ तेनो पहेलां विधाने जूदो परिक्षेप करवो, छा
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(१४) पूर्वपूर्वपरिक्षेपे । यद्ययं दिप्यते तदा ॥ परापरपरिक्षेपा । भावनीया यथोत्तरं ॥ ४ ॥ श्यमिदुमंडलानां । परिक्षे. पप्ररूपणा ॥ मुहूर्तगतिमाख्यामि । संप्रति प्रतिमंडलं ॥ ॥ ४ ॥ नपसंक्रांतयोरिंदोः। सर्वाच्यंतरमंडले ॥ पंच पंच सहस्राणि । योजनानां त्रिसप्ततिः ॥ ५० ॥ सहस्रस्त्रयोदशन्निः। सूतत्वैः सप्तभिः शतैः ७२५ ॥ छिन्नस्य योजनस्यांश-शताश्च सप्तसप्ततिः ॥ ५१ ॥ चतुश्चत्वारिंश. दाब्या २०७३ । 9988x१३७२५ । मुहूर्तगतिरेषिका ॥ ने ते बसो त्रीस जोजननो थाय . ॥ ४ ॥ प्रागळ वागळना घेरावामां ज्यारे ते नाखवामां आवे, त्यारे नत्तरोत्तर आगळ आगळना घेरावा भावी लेवा. || ४ || एवीरीते चंद्रमंझलना घेरावानी प्ररूपणा करी, हवे दरमंडले तेननी मुहूर्तगति कहं बु. ॥ भए॥ सर्वधी अं. दरना मंमलमां गयेला ते बन्ने चंद्रोनी पांच हजार त. होतेर पूर्णाक ॥ ५० ॥ तथा एक जोजनना तेर हजार सातसो पचीसे भागेला सीतोतेरसो ।। ५१ ॥ चमाली. स नागो एटले सात हजार सातसो चमालीस तेरहजार सातसो पचीसांश जोजनजेटली मुहूर्तगति ने, हवे तेनुं बीजक जाणवानी जो इजा होय तो तेनी भावना सां
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( १४३) जिज्ञास्यतेऽस्याश्चेद्रीजं । श्रूयतां तर्हि भावना ॥ ५५ ॥
हैकैकोऽप्यमृतांशु-रेकैकमर्धमंमलं ॥ एकेनाहोराने णैक-मुहूर्ताधिक्यशालिना ।। ५३ ॥ शतान्यामेकविं शान्यां । हान्यां छिन्नस्य निश्चितं ॥ मुहूर्त्तस्यैकादशन्निः । साधैर्भागैः प्रपूरयेत् ॥२५॥ ॥ युग्मं ॥ एवं शशी वि. तीयोऽपि । द्वितीयमर्धमंडलं ।। काले नैतावतैव द्रा-ग्न. मणेन प्रपूरयेत् ॥ ५५ ॥ संपूर्णस्य मंगलस्य । पूर्तिकालो यदेष्यते ॥ अहोरात्रदयं दात्यां। मुहूर्तान्यां युतं तदा ॥ ५६ ।। एकविंशत्यधिकान्यां । शतान्यां चूर्णित स्य च ॥ त्रयोविंशतिरंशानां । मुहूर्तस्य विनिर्दिशेत् ॥ ॥ ५७ ॥ दि० २, मु० १, अं० २३, ३० १५१ ॥ मंगले भल? ॥ ५५ ॥ अहीं एकेको चंद्र एकेका अर्धमंडलने एक मुहूर्त अधिक एक अहोरात्रे ।। ५३ ॥ तथा नपर एक मुहूर्तना साडायग्यार बसो एकवीसांश भागे संपूर्ण करे . ॥ २४ ॥ युग्मं ॥ एवीरीते बीजो चंड पण ते. टलेज काळे जमीने बीजां अर्धममलने पूर्ण करे . ॥ ॥ ५५ ॥ एवीरीते संपूर्णममलने पूर्ण करवानो काल जो जाणवो होय तो ते बे अहोरात्र, बे मुहूर्ता ॥१६॥ तथा बसो एकवीसे लांगेला एक मुहूर्तना त्रेवीम अंशो
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पूर्तिकालेऽत्र । प्रत्ययः केन चेदिति ॥ त्रैराशिकेन तदपि । श्रूयतां यदि कौतुकं ॥ २७ ॥ नानुर्खघुविमानत्वाबीघगामितयापि च ॥ षष्ट्या मुहूतैरेकं । मंमलं परिपू. रयेत ॥ ५५ ॥ तद्वैपरीत्या दाषष्ट्या । साग्रया तैर्विधुस्तु तत ॥ साष्टषष्टिः सप्तदशशती तानि युगें ततः ।।६।। एकचंद्रापेदयार्ध-मंडलानि भवति हि ॥ तावत्येव च पू.
नि । द्वयोरिंदोरपेदया ॥ ६१ ॥ ततश्च-साष्टषष्टिः सप्तदश-शतमानार्धमंमलैः ॥ युगांत विभी रात्रिं-दि. जेटलो जाणवो. ॥ ५७ ॥ दि० १, मू० १, अं० २३, ३० २२१ ॥ मंडल पूर्ण करवामां थाटला कालनी खातरी शें? एम जो तने आश्चर्य लागतुं होय तो ते त्रैराशिकने हिसाबे पण सांभल ? ॥ २७ ॥ सूर्य नाना विमानवाळो होवाथी, सेम उतावळी गतिवालो पण होवाथी ते साठ मुहूर्ते एकेकुं मंगल पूरे , ॥ एए॥ अने तेथी नलटुं चंद्र कश्क अधिक बासठ मुहूर्ते ते पूर्ण करे , अ. ने तेथी युगमां ते सतरसो बमसठ थाय, ॥ ६० ॥ अ. ने तेटलां एक चंनी अपेदायें अरधां ममलो थाय, अने बे चंद्रोनी अपेदाये तेटलां संपूर्ण मंमलो थाय. ॥ ६१ ।। अने तेथी-युगांतरनां सतरसो अडसठ अर्ध
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(१४५) वानां यदि लन्यते ॥ ६ ॥ अष्टादशशतीत्रिंशा । तदा ननु किमाप्यते ॥ हान्यामर्धमंडलान्या-मिति राशिका यं लिखेत् ॥ ६३ ॥ १७६०, १०३०, २॥ अंत्येन राशि ना राशौ । मध्यमे गुणिते सति ॥ जातः शतानि षट्त्रिंश-सषष्टीन्येष भज्यते ॥ ६ ॥ साष्टषष्टिसप्तदश-श. तात्मकायराशिना ॥ अहोरात्रयं लब्धं । चतुर्विशं शतं स्थितं ॥६५॥ अहोरात्रस्य च त्रिंश-न्मुहूर्ता इति ताडितं ॥ त्रिंशतावदिशतीयुक् । सप्तत्रिंशबतात्मकं ॥६६॥ अस्मिन् साष्टषष्टिसप्त-दशशत्या हृते यं । लब्धं मुहूतयोः शेषं । शतं चतुरशीतियुक् ॥ ६७ ॥ १४-१७६७. मंडले जो ॥ ६ ॥ अढारसो त्रीस अहोरात्रो थाय, तो बे अर्धमंडले केटला थाय? एवीरीते ते त्रिराशि लखवी. ॥ ६३॥ १७६०, १०३०, २. ॥ चेल्सी राशिथी वचती राशिने गुणते छते त्रीससो साठ श्राव्या, ॥६५॥ तेने सतरसो घडशठरूप पहेली राशिए भागवाथी बे अहोगत्र याव्या, अने नपर एकसो चोवीस वध्या. ॥ ६५ ॥ हवे एक अहोरावना त्रीस मुहूर्तो होय , तेथी तेने त्रीसे गुणवाथी सामंत्रीससो वीस थया. ॥ ६६ ॥ तेने सतरसो घडसठे नागवाथी बे मुहूर्तो याव्या, तथा न.
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(१४६), जागाप्राप्त्यापवत्यैते । अष्टनिर्माज्यभाजकौ ॥ त्रयोविंशतिरेकोऽन्य-श्चैकविंशं शतयं ॥ ६ ॥ एषा मुहूर्तदा. , षष्टिः । सवर्णनाय गुण्यते ॥ एकविंशान्यां शतान्यां।। ये चोपरितना लवाः ॥ ६॥ ॥ त्रयोविंशतिरुक्ताः पाक । ते क्षिप्यंते नवेत्ततः ॥ त्रयोदश सहस्राणि । सतत्वा सप्रशत्यपि १३७२५ ॥ ७० ।। सर्वातमैडलस्थस्य । परिधिर्यः पुरोदितः ॥ एकविंशत्यधिकान्यां । शताभ्यां सोऽपि गु. एयते ॥ ११ ॥ जातः षट् कोटयः षण-वतिर्खदाः खरूपतः ॥ चतुस्त्रिंशत्सहस्राणि । पदशत्येकोनसप्ततिः ॥ पर एकसो चोर्यासी बाकी वध्या. ॥ ६७ ॥ १०४–१७६७. तेनो भाग नहि चालवायी ते जाज्य नाजकनो बारे बेद उडामवाधी त्रेवीस बसोएकवीसांश थया. ॥ ६ ॥ हवे ते बासठ मुहतोंने बसो एकवीसे गुणवा, तथा न. परना ॥ ६ए॥ जे वीस लवो पूर्वे कहेला , तेने अंदर नेळववा, के जेथी तेरहजार सातसो पचीस थाय. ॥७० ॥ वळी सर्वयी अंदरना मंडलमा रहेलानो जे पूर्वे घेरावो कहेलो बे, तेने पण बसोएकवीसे गुणवो, ॥१॥ सारे व क्रोम बन्नु लाख चोवीस हजार सो गणो. तेर श्रया. ॥ ७ ॥ ते रकमने तेर हजार सातसो पचो.
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( १४५ ) ॥ ७२ ॥ सहस्रैस्त्रयोदशनिः । सतत्वैः सप्तभिः शतैः ॥ एषां भागे हृते लब्धा | मुहूर्त गति देवी || १३ || योजनानां सहस्राणि । पंचोपरिचिसप्ततिः ।। चतुश्चत्वारिंशान्यंश - शतानि सप्तसप्ततिः ॥ ७४ ॥ मुहूर्त गतिरित्येवं । नाव्येोः प्रतिमंमलं ॥ विनाज्योक्तनाजकेन । प्राग्वत्परिश्यं निजं ॥ ७५ ॥ मुहूर्तीयगतौ यथा । वर्धते प्रतिमंडलं ॥ त्रियोजनी पंचपंचां— शाश्च षणवतिः शताः ॥, || १६ || जागा एकयोजनस्य । विजक्तस्य सहस्रकैः ॥ त्रयोदशमितैः सप्त -शता च पंचविंशया ॥ 99 ॥ यत्रो - पपत्तिः - योजनद्दिशती त्रिंशा । या वृद्धिः प्रतिमंडलं ॥ से जागवायी नीचेमुजब चंद्रनी मुहूर्त गति थ. || १३ || पांच हजारने तदोंतेर जोजन तथा तेपर सीतोतेरसो चमालीस अंश वध्या ॥ १४ ॥ एवीरीते ते बने चंद्रोनी दरमंडले मुहूर्त गति कहेला भाजकथी पूर्वनीपेठे पोतानो घेरावो भांगीने भावी लेवी ॥ ७५ ॥ व्यथवा दर मं मले मुहूर्तनी गतिमां त्रण जोजन तथा एक जोजनना बन्नुसो पंचावन ॥ ७६ ॥ तेर हजार सातसो पचीसे भांगेला जागो वधे वे. ॥ 99 ॥ यहीं युक्ति कहे ने - दर मंडले घेरावामां जे बसोत्रीस जोजननी वृद्धि कही ने,
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(१०) नक्ता परिये गुण्या । सा द्विशत्यैकविंशया ॥ ॥ भक्ता त्रयोदशसह-सादिना राशिना च सा। दत्तेत्रियोजनी शेषा-नंशानपि यथोदितान ॥ १५ ॥ सर्वातमैडले चंडौ । जनानां दृष्टिगोचरौ । सहः सप्तवत्वारिं-शता त्रिषष्टियुक्तया ॥ ७० ॥ शित्या च योजनानां । एकस्य योजनस्य च ॥ षष्ट्यशैरेकविंशत्या । तत्रोपपत्तिरुच्यते। ॥ १ ॥ अंतर्ममलपरिधे-दशांशे त्रिगुणीकृते ॥ इंदोः प्रकाशक्षेत्रं स्यात । तापक्षेत्रमिवार्कयोः ॥ ७॥ अर्धे प्र. काशक्षेत्रस्य । पूर्वतोऽपरतोऽपि च ॥ इंदोरपि दृष्टिपथतेने बसोएकवीसे गुणवी, ॥ १७ ॥ तथा तेने तेरहजा रयादिकनी रकमे मांगवाथी त्रण जोजन अने कह्यामुजब अंशो यावे . ॥ ७ ॥ सर्वयी अंदरना मंडलमां रहेला ते बने चंद्रो सडतालीस हजार बसो त्रेसठ पूर्णा क ॥ ७० ॥ एकवीस सायंश जोजने माणसोने दृष्टि गोचर थाय ने, त्यां युक्ति कहे . ॥ १ ॥ अंदरना मंगलना घेरावाना दशांशने त्रणगणो करवाथी सूर्योना तापक्षेत्रनीपेठे बन्ने चंद्रोनू प्रकाशक्षेत्र थाय. ॥ ७ ॥ पजी पूर्व धने पश्चिम एम बन्ने तरफ प्रकाशक्षेत्रनुं अर्ध करवाथी सूर्योनीपेठे चंद्रोनी पण दृष्टिमर्यादानी प्राप्ति
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धडगतस्य
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( १.४०) प्राप्तिर्विवस्वतोखि ॥ ८३ ॥ तथा च जंबूदीपप्रज्ञप्तिसूत्रंतयाणं व्हायरसमसस्स सीयालीसाएर जोयसदस्सेहिं दोहियतेवेहिं जो णसएहिं एगवीसाए सहिना एहिं जो णस्स चंदे चख्खुफासं दवमाग र एतद्वृत्तौ च - यत्तु षष्टीनागीकृत योजनसत् कैकविंशतिजागाधिकत्वं तत्तु संप्रदाय गम्यं, अन्यथा चंद्राधिकारे सा धिकद्याषष्टिमुहूर्त प्रमाणमंडलपूर्तिकालस्य बेदराशित्वेन न नात् सूर्याधिकारसत्कषष्टिमुहूर्त प्रमाणमंडलपूर्तिकालस्य वेदराशित्वेनानुपपद्यमानत्वात् इति दृश्यते, तदत्र तत्वं थाय बे. || ३ || जंबूद्दीपपन्नत्तिसूत्रमां कांबे के - त्यारे यहीं रहेला मनुष्यने ते बन्ने चंद्रो सडताखीस हजार बसो त्रेसठ पूर्णांक एकवीस साठांश जोज़ने दृष्टिगोचर थाय बे. ' छाने तेनी टीकामां - एक जोजनना एकवीस साठीया भागजेनुं जे अधिक कां बे, ते तो संप्रदायगम्य बे, नहितर चंडना अधिकारमां कक अधिक बासठ मुहूर्तमां मंगल पूरखाना काळने बेदराशिपणे कवाथी सूर्यना अधिकारवाळा साठ मुहूर्तना प्रमाणवाळा मंडलपूर्तिकाळने वेदराशिपएं प्राप्त थ श कतुं नथी, एम देखाय ने, माटे ही तत्व बहुश्रुत जा
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( १५० ) बहुश्रुतगम्यं. पंचयोजन सदस्राः | पंचविंशतियुक्शतं ॥ : योजनस्य कस्य | पंचविंशतिसंयुतैः ॥ ८४ ॥ त्रयोद शभिः सदस्रै – नक्तस्य सप्तजिः शतैः ॥ जागा नवत्यधिकानि । शतान्ये कोनसप्ततिः ॥ ८५ ॥ मुहूर्त गतिरे पेंहोः । सर्वपर्यंत मंडले । यथाचैव दृष्टिपथ - प्रातिर्विविच्यते ऽनयोः ॥ ८६ ॥ एकत्रिंशता योजन - सहखैरष्टभिः शतैः ॥ एकत्रिंशैः सर्ववायें | दृश्येते मंमले विधू ||9| पत्र सूर्याधिकारोक्तं ॐ तीसाए सहिभाएहिं इत्यधिकं मंतव्यं, इति जंबूदीप प्रतिवृत्तौ पत्र सर्वान्यतरसर्ववा णे. पांचहजार एकसो पचीस पूर्णांक तथा एक जोजनना ॥ ८४ ॥ तेर हजार सातसो पचीसे भांगेला जंगपोतेरसो नेवु जागो, ॥ ८५ ॥ एटली ते बन्ने चंद्रोनी सर्वथी बेल्ला मंडलमां मुहूर्त गति वे. दवे यहींज ते बन्ने चंद्रो दृष्टिमर्यादानुं विवेचन करे वे ।। ८६ ।। सर्वश्री बहारना मंगलमां ते बने चंद्रो एकत्रीस हजार व्याउसो एकवीस जोजने देखाय बे. ॥ 9 ॥ यहीं सूर्यना - धिकारमां कहेला ' बीस साठीया भागो' एटं अधिक जावं. एम जंबूदीपपन्नत्तिनी टीकामां कां वे यहीं सर्व अंदर ने सर्वथी बहारना मंडलोमां चंद्रोनी ह
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( १५१ ) ह्यचंद्रमंडलयोईष्टिपथप्राप्तिता दर्शिता, शेषमंडलेषु सा चं द्रप्रज्ञप्तिबृहत्क्षेत्रसमासजंबूद्दीपप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्त्यादिग्रंथेषु पूर्वैः क्वापि दर्शिता नोपलन्यते. ततोऽत्रापि न दर्शितेति ज्ञे यं. प्रतिममलमित्येवं । मुहूर्तगतिरीरिता ।। मंमलार्धमंड लयोः । कालमानमय ब्रुवे ।। G || नवशत्या विभक्त स्य । चंच पंचदशाब्यया ॥ विनागैर्मडलार्धस्य । किलैकत्रिंशतोनितं ।। अर्धमंडलमेकेना-होरात्रेण स. माप्यते ॥ एकैकेन शशांकेन । यत्र कुत्रापि ममले ॥ ॥ ७० ॥ विचत्वारिंशदधिकैः । शनैश्चतुर्निरेव च ।। थ.. ष्टिमर्यादा देखाडी, अने बाकीना मंडलोनी दृष्टिमर्यादा चंपन्नत्ति, बृहत्क्षेत्रसमास, जंबूदोपपन्नत्तिसूत्र तथा ते. ननी टीकासादिक ग्रंथोमां पूर्वाचार्योए क्यांय पण दे. खाडेली मलती नथी, माटे यहीं पण देखामी नथी ए.. म जाणवं. एवीरीते दर मंमले मुहूर्तगति कही, हवे मं. मल तथा अर्धमंमलन काळमान कहुं बु. ॥ ७ ॥ मं. मलाधना एकत्रीस नवसो पंदरांश भाम नवं ॥GU || एटर्बु अर्धमंमल कोइ पण मंमलमा रहेलो एक चंद्र ए. क अहोरात्रे संपूर्ण करे . ॥ ५० ॥ एक अहोरात्रना चारसो बेतालीस भागमाहेला एकत्रीस जागं वधारे, ॥
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( १५२) होरात्रस्य भक्तस्य । लवैकत्रिंशताधिको ।। ५१ ॥ अहो. रात्रौ पूर्तिकाल । एकस्मिन्मंडले विधोः ॥ रविस्तु पूरये. त्पूर्णा-होरात्रहितयेन तत् ॥ ए॥ ममलार्धमंमलयो
-रुक्तैवं कालसंमितिः ॥ साधारणासाधारण-मंमलानि ब्रवीम्यथ ॥ ५३॥ प्रथम च तृतीयं च । षष्टं सप्तममष्टमं ॥ दशमैकादशे पंच-दशमित्यष्टमंडली ॥ ए ॥ नदत्रैरविरहिता । सदापि तुहिनतेः ॥ मंडनेष्वेषु नदाता एयपि चार चरंति यत् ॥ ए५ ॥ द्वितीयं च चतुर्थ च । पंचमं नवमं तथा ॥ त्रीणि च हादशादीनि । किलैषा म. ॥ १॥ एवा बे अहोरात्रजेटलो चंद्रनो एक मंडलमां पूर्तिकाल थाय ने, अने सूर्य तो संपूर्ण बे अहोरात्रमां एक मंमल संपूर्ण करे . ॥ २२ ॥ एवीरीते मंगल तथा अर्धमंडलना काळy प्रमाण कहां, हवे साधारण त. था असाधारण मंमलो कहुं बु. ॥ ५३ ॥ पहेवू, त्रीजु, बवं, सातमुं, बाग्मुं, दशमुं, अग्यारमुं, बने पंदरमुं, ए रीतनां चंद्रनां बाठ मंडलो ॥ ४ ॥ हमेशां नदतोस. हित होय , केमके ते मंमलोमां नदात्रो पण गमन करे . ॥ ५५ ॥ बीजं चोथु पांचमुं नवमुं तथा बारथादिक त्रण, एटले बारमु तेरमुं अने चौदमुं, एम चं.
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(१५३ ) सममली ॥ ६ ॥ ऋदः सदा विरहिता । ममलेष्वेषु नो भवेत् ।। कदापि चार ऋदाणा-मूषरेषु गवामिव ।।। प्रथमं तृतीयमेका-दशं पंचदशं तथा ॥ रविचंद्रोसामान्या । मंमलानां चतुष्टयी ॥ एक् ॥ एतेषु मंडबिंदुनंदात्राणि तथा रविः ॥ चारं चरति सर्वेऽपि । राजमार्ग जना व ॥ एए॥ षष्टादीनि पंच सूर्य-चारहीनानि सर्वथा । शेषाणि ममलानींदोः । किंविनानुः स्पृशेदपि ॥ ४०० ॥ साधारणासाधारण-मंम्लान्येवमूचिरे ॥ संप्र. द्रना सात मंडलो ॥ ६ ॥ हमेशां नदाविनानां होय बे, केमके ते मंडलोमां नपरचूमिपर जेम गायोनी तेम नदात्रोनी गति थती नथी. ॥ ए७ ॥ पहेबु, त्री, य. ग्यारमें अने पंदरमुं, ए चार मंडलो सूर्य, चंद्र अने नदातोमाटे सामान्य . ॥ ७ ॥ केमके ए चार मंमलोमां राजमार्गमा जेम माणसो तेम चंड, नदात्रो अने सूर्य, ए सर्वे गमन करे . ॥ एy ॥ श्रादिक पांच, एट्ले टुं, सातमुं, बाठमुं, नवमुं अने दशमुं, ए पांच मंडलो बिलकुल सूर्यनी गतिविनानां ने, अने बाकीनां चंद्रनां मंडलोने सूर्य किंचित पण स्पर्श करे ने. ॥४००।। एवीरीते चंद्रनां साधारण तथा असाधारण मंडलो कह्यां,
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(१५४ ) तांदोधिहानि-प्रतिभासः प्ररूप्यते ॥ १॥ अवस्थितस्वनावं हि । स्वरूपेणेंदुमंडलं ॥ सदापि हानिर्वृहिर्वा । प्रेदयते सा. न तास्विकी ॥२॥ केवलं या शुक्लपक्षे । वृ. बिर्हानिस्तथा परे। राहुविमानावरण-योगात्सा प्रतिगासते ॥ ३ ॥ तथाहि-ध्रुवराहुः पर्वराहु-रेवं राहुर्दिया नवेत् ॥ ध्रुवराहोस्तत्र कृष्ण-तमं विमानमीरितं ॥४॥ तच्च चंद्रविमानस्य । प्रतिष्टितमधस्तले ॥ चतुरंगुलमप्राप्तं । चार चरति सर्वदा ॥ ५॥ तेनापावृत्त्य चावृत्त्य । चरहवे चंडनी वृधिहानिनो प्रतिभाप कहे . ॥ १ ॥ स्वरूपवडे हमेशां चंद्रमंमल निश्चित स्वभाववाचु ने, परंतु जे तेनी हानिवृधि देखाय , ते खरेखरी नथी. ॥२॥ तोपण शुक्वपदमां तेनी जे वृधि श्रने कृष्णपदमा हानि देखाय , ते केवल राहुना विमानना आवरणना योगयी जासन पडे ॥ ३ ॥ ते कहे जे-एक नित्यराह अने बीजो पर्वराहु एम राहु बे प्रकारनो , तेमां नित्य राहुर्नु विमान अत्यंत श्याम कहेवू . ॥ ४ ॥ अने ते विमान चंद्रना विमाननी नीचे थावेल चे. अने ते ह. मेशां तेथी चार बांगळ बेटे रहीने चाले . ॥ ५॥ ते विमान चंद्रमंमलथी दूर रहीने तथा तेने ढांकीने धीरे
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( १५५ ) त्यवः शनैः शनैः ॥ वृधिहानिप्रतिभासः । पोस्फुरीतींदुमंडले ॥ ६ ॥ तथोक्तं-चंदस्स नेव हाणी। नवि वुट्ठी वा अवहिन चंदो ॥ सुक्किलगावस्म पुणो । दीसश् वुढ्ढी य हाणी य ॥ ७॥ किन्हें राहुविमाणं । निचं चंदेण हो अविरहियं ॥ चनरगुलेमप्पत्तं । हिछा चंदस्स तं च. र ।। ७ ॥ तेणं वडर चंदो । परिहाणी वावि हो चं दस्स ॥ तत्र प्रकटप्य दाषष्टिं । जागान शशांकममले ॥ हियते पंचदशजि-लन्यतेशचतुष्टयं ॥ ७॥ एतावदात्रियते त-प्रत्यहं जारणीचवा ॥ अहोभिः पंचदशभि-रेधीरे नीचे चाव्यों करें चे, अने तेथी चंद्रमंडलमा वृद्धि हानिनो प्रतिभास थाय ने. ॥ ६ ॥ कां ने के-चंद्र नी हानि वृधि थती नथी, ते तो संपूर्णरीते रहेलो ने, परंतु नीचेमुजब कारणथी तेमां हानि वृद्धि देखाय . ॥ ७ ॥ श्याम रंगनुं राहुनुं विमान हमेशां चंद्रनी साथे रहे . तथा ते चंद्रनी नीचे चार यांगळ दूर रहीने चा. ले . ॥ ७॥ अने तेथीज चंनी हानिवृधि देखाय वे. ॥ त्यां चंद्रमंडलना बासठ जागो कटपीने, ते भागोने पंदरे भांगवा. के जेथी चार जागो पावे. ॥ ५ ॥ एटला भागमां ते हमेशां नित्यराहुना विमानवडे ढंकाय
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( १५६ ) वमावियतेऽखिलं ॥ १० ॥ द्वौ नागौ तिष्टतः शेषौ । म दैवानावृतौ च तौ ॥ एषा कला षोडशीति । प्रसिधिमः गमद्भुवि ॥ ११ ॥ कटप्यं तेंशाः पंचदश । विमाने राह वेऽथ सः ॥ जयत्येकैकांशवृष्ट्या । नीतिज्ञोऽरिमिवोरुपं ॥ ॥ १५ ॥ तचैवं___ वीयपंचदशांशेन । कृष्णप्रतिपदि ध्रुवं । मुक्त्वांशी द्वावनावा?। शेषषष्टेः सितत्विषः ॥ १३ ॥ चतुनोगात्म: कं पंच-दश भाग विधुतुदः ॥ श्रावृणोति द्वितीयायां। बे, घने एवीरीते पंदर दिवसे ते संपूर्ण ढंका जाय जे. ॥ १० ॥ बाकीना बे जागो हमेशां खुल्ला रहे , अने ते चंदनी शोळमी कळा बे, एम पृथ्वीपर प्रसिह थयेल ने.॥ ११ ॥ हवे ते राहना विमानना पंदर भागो क. पीयें, अने तेमाना एकेका जागनी वृधिवडे नीतिनिपुण जेम शत्रुने तेम ते चंद्रने जीते . ॥ १॥ ते थावीरीते- कृष्णपदाना पडवाने दिवसे न थावरी शकाय एवा चंद्रना बे नामोने छोमीने बाकीना साठ भागोना ॥१३॥ चार नागजेवडा पंदरमा नागने राहु पोताना पंदरमा नागवडे याबादित करे , घने वद बीजने दिवसे पो
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(१५७) निजभागद्दयेन च ॥ १४ ॥ अष्टनागात्मको पंच-दशांशौ हौ रुणधि सः ॥ षष्टिं भागानित्यमायां । स्वैः पंचदशनिल वैः ॥ १५ ॥ त्रिनिर्विशेषकं ॥ ततः शुक्लप्रतिपदि । चतुर्भागात्मकं लवं ॥ एकं पंचदशं व्यक्ती-करोत्यपसरन् शनैः ॥ १६ ॥ द्वितीयायां दो विजागौ । पूर्णिमायामिति क्रमात ॥ झाषष्टयंशात्मकः सर्वः । स्फुटीभवति चंद्रमाः ॥ १७ ॥ इंदोश्चतुर्सवात्मांशो। यावत्कालेन. स. हुणा ॥ विधीयते मुच्यते च । तावत्कालमिता तिथिः ।। ॥ १७ ॥ इंदोः विधीयमानाः स्युः । कृष्णाः प्रतिपदादि. ताना बे भागोवडे ॥ १४ ॥ चंद्रना पाठनागरूप बे पं. दरमा जागोने ते थावरे , अने एवीरीते श्रमासने दिवसे ते पोताना पंदर भागोवडे साठ जागोने थावरे
. ॥ १५ ॥ त्रिनिर्विशेषकं । पनी शुक्लपदाना पडवाने दिवसे ते धीमेथी खसीने चंद्रना चारभागरूप एक पंद रमा भागने प्रकट करे . ॥ १६ ॥ बीजने दिवसे बे भागोने प्रकट करे , अने एवीरीते अनुक्रमे पुनमने दिवसे बासठ भागोरूप संपूर्ण चंद्रमा प्रकट थाय ने. ॥ ॥ १७ ।। चंद्रनो चार जागरूप अंश जेटला काळमुधी रा. हुवडे ढंकाय , तथा मूकाय , तेटला काळजेवडी.ति.
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( १५७) काः ॥ तिथयो मुच्यमानाः स्युः । शुक्लाः प्रतिपदादिकाः ॥ १५ ॥ तथाहुः—कालेण जेण हायश् । सोलस जागो तु सा तिही हो ॥ तह चेव य वुढ्ढीए । एवं तिहिणो समुप्पत्ती ॥ २० ॥ एकोनत्रिंशता पूर्णे-मुहूर्तेश्च विषष्टिः जैः ॥ हात्रिंशता मुहूतीशै-रेकैको रजनीपतेः ॥२१॥ चतुर्धा षष्टयंशरूपो । राहुणा गद्यते लवः ॥ मुच्यते च तदैतावन्मानाः स्युस्तिथयोऽखिलाः ॥ १२॥ एवं चहाषष्टिभक्ताहोरात्र–स्यैकषष्टया लवैर्मिता ॥ तिथिरेवं वथि थाय ने. ॥ १७ ॥ राहुथी ढंकाती चंद्रनी कळावाळी पत्वाखादिकतिथिन कृष्णापतनी कडेवाय ने बने रा. हथी मुकाती एव चंद्रनी कळावाळी पडवासादिक ति. थिन शक्लपदानी कहेवाय ॥ १७ ॥ कांकेजेटले काळे चंद्रनो शोळ्मो भाग नछो थाय, तेम जेटले काळे वधे, तेटला तेटला काळजेवडी तिथि थाय, थने एवीरीते तिथिनी उत्पत्ति थाय . ॥ २०॥ नंगपत्रीस पूर्णाक बत्रीस बासगंश मुहूर्ताए चंद्रनो ॥ २१ ॥ चार साठीया नागजेटलो अंश राहवडे ढंकाय ने तथा मुकाय, थने तेटलाज प्रमाणनी रुघळी तिथि था. य..॥॥ श्रने एवारीते-एक यहोरात्रना बास
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(१५ए) दयते यद् । तयुक्तमुपपद्यते ॥ २३ ॥ तिश्रिमानेऽस्मिंश्च हते । त्रिंशता स्याद्यथोदितः ॥ मासश्चांद्र एवमपि । त्रिशत्तिथिमितः खलु ॥ २४ ॥ ननु राहुविमानेन । योजनामितेन वै ॥ षट्पंचाशद्योजनक-पष्टिभागमितं ख. दु ॥५॥ कथमाजादितुं शक्यं । गरीयः शशिमंडलं ।। लघीयसा गरीयो हि । दुरावारमिति स्फुटं ॥ २६॥ एवमुत्तरयंत्यत्र । केचित्प्राक्तनपंमिताः ॥ लघीयसोऽप्यस्य कांति-जालेरत्यंतमेचकैः ।। २७ ॥ याबाद्यते महदपि । शशिक्विं प्रसृत्वरैः ॥ दावानलोबलधुम-स्तोमैखि ठीया नागजेवडा एकसठ जागोजेवमी जे तिथि कहेवाय
, ते युक्तज . ॥ २३ ॥ तिथिना या प्रमाणने तीसे गुणवाथी त्रीस तिथिननो एक चांद्रमास थाय ने. ॥२४॥ यही शंका करे ने के अर्धा जोजनजेवडा राहुना विमानथी उपन एकसाठांश जोजनजेवहुं ॥ २५ ॥ मोटुं चंऽमंडल केम ढंकाश् शके ? केमके नानाथी मोटुं ढंकाबुं प्रगटरीते मुश्केल . ॥ २६ ॥ अहीं तेमाटे केटला. क प्राचीन पंडितो एवो नत्तर पापे ने के, जो के राहुनु विमान नानु ने तोपण तेना अत्यंत श्यामरंगना फेला. ता कांतिना समूहोथी ॥ २७ ॥ ते मोटुं चंद्रबिंब पण ढं
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नजोंगणं ॥ २० ॥ अन्ये त्वभिदधुरा । योजनार्ध य. दुच्यते ॥ मानं ग्रहविमानस्य । तदेतत्प्रायिकं ततः ॥ ॥ शए॥ योजनायामविष्कंनं । तद् द्वात्रिंशांशमेदुरं ।। वर्नाणुमंमलं तेन । विधुरावियते सुखं ॥ ३०॥ तथा चाहुः-आयामो विखंभो । जोधणमेगं तु तिगुणिन परिही॥ यदाज्जघणुसया। राहुस्स विमाणबाहा ॥ ॥ ३१ ॥ संग्रहण्यादर्शे प्रक्षेपगाथेयं दृश्यते. भगवती. त्तावप्येतस्याश्चालनाया एवं प्रत्यवस्थानं-यदिदं ग्रहविका जाय , जेम दावानलथी नछळेला धुमामाना समूहोथी आकाशमंमल ढंका जाय . ॥ २० ॥ बीजा केटलाक विद्वानो एम कहे ने के, ग्रहना विमानतुं प्रमाण जे अर्ध जोजननु कहुं , ते प्रायिक जाणवू, अने तेथी। शए ॥ एक जोजन लांबुं पहोळु, अने बत्रीस भागजेटबु जाउं राहुनुं मंगल , अने तेथी सुखेथी ते चंद्रने ढांकी शके . ॥ ३०॥ कां ने के-राहना वि. माननी लंबाई पहोळा एक जोजननी, तेथीत्रणगणो तेनो घेरावो , घने जामा अढीसो धनुषनी ने. ॥ ३१ ॥ संग्रहणीनी प्रतिमां या प्रक्षेपगाथा देखाय ने. भगवतीनी टीकामां पण या बाबतनो नीचेमुजब नल्लेख
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( १६१ ) मानमर्धयोजनप्रमाणमिति तत्प्रायिकं, ततश्च राहोर्ग्रहस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं संजायते मन्ये पुनराहुलघीय सोऽपि राहुविमानस्य महता तमिस्रजालेन तदावियत इति भगवती सूत्रवृत्तौ १२ शते पंचमोद्देशके, तत्वं तु केवलिनो विदंति
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कदाचिद् ग्रहण व । विमानमुपलभ्यते ॥ वृत्ताकृति ध्रुवराहोः । कदाचिन्न तथा च किं ॥ ३४ ॥ दिनेषु येषु तमसा - निनृतः स्याद भृशं शशी ॥ तेषुपलबे. - जे ग्रहनुं विमान अर्धा जोजना प्रमाणवाळु बे, ते प्रायिक बे, घने तेथी राहुग्रहनुं विमान तेथी छा धिक प्रमाणवाळु पण संगवे वे. बीजा याचार्यो वळी ए. मकहे के नाना एवा पण राहुना विमानना मोटा व्यंधकारता समूहथी ते चंद्रमंमल ढँकाइ जाय बे, एवीरीते जगवती सूत्रनी टीकामां बारमा शतकना पत्रमा उदेशामां बे, बाकी तत्व तो केवली जाणे.
हवे पवळी शंका करे वे के ग्रहणवखते जेम ते को वखते ध्रुवराहूनुं विमान गोळाकार देखाय बे छपने को वखते तेवुं नथी देखातुं तेनुं कारण शुं ? ॥ ३४ ॥ ( माटे कहे वे के ) जे दिवसोमां चंद्र
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(१६२). ज्यते वृत्तं । विमानमस्य येषु च ॥ ३५ ॥ शशी विशु. छकांतित्वा-त्तममा नानियते ॥ वृत्तं विमानं नैतस्य । दिनेषु तेषु दृश्यते ॥ ३६॥ तयोक्तं-बट्टन कश्व । दिवसे धुवराहुणो विमाणस्स ।। दीस।परं न दी. स। जह गहणे पवराहुस्स ॥ ३७ ॥ आचार्य बाहबच्चबं न हि तमसा-जिन्य तेज ससी विसुनंतो ॥ तेण न वट्टलेन । गहणे न तमोतमो बहुलो ॥ ३० ॥ अंधकारथी अत्यंत पराजय पामेलो होय. ते दिवसोमां तेनुं विमान गोळ देखाय ,॥३५॥ अने जे दिवसोमां चंद्र तेजस्वी कांतिवाळो होवाथी अंधकारवडे पराभव पामतो नथी, ते दिवसोमां तेनुं विमान गोळ देखातुं नयी. ॥ ॥ ३६ ॥ कां ने के-(शिष्य शंका करे के ) ग्रह एवखते जेम पर्वराहुनुं तेम नित्यराहुर्नु विमान कोश्क दिवसे गोलाकार केम देखाय ? अने कोक दिवसे तेवू केम देखातुं नयी? ।। ३७ ॥ त्यारे प्राचार्य कहे ने के-ज्यारे चंद्र निर्मल होय ने त्यारे ते अंधकारथी अ. त्यंत पराभव पामतो नथी, थने तेथी राहुनु विमान गोनकार देखातुं नयी, अने ग्रहणवखते तो घणो अंध. कार होय . ॥ ३० ॥ नगवतीनी टीकामां कां ने के
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( १६३ नगवतीवृत्तौ-यदा तु लेश्यामावृण्वन् । पर्वराहुर्वजत्ययः ॥ पुष्पदंतमंगलयो-यथोक्तकालमानतः ॥ ३५ ॥ तदा भवत्युपरागो । यथार्ह चंडसूर्ययोः ।। जनैर्ग्रहणमित्यस्य । प्रसिदिः परित्नाव्यते ॥ ४० ॥ जघन्यतस्तत्र षणां । मा सामंते शशिग्रहः ॥ नत्कर्षतो विचत्वारिं-शतो मासामतिक्रमे ॥ ४१ ॥ मासर्जघन्यतः षनि-र्जायते तरणिग्रदः ॥ संवत्सरैरष्टचत्वारिंशतोत्कर्षतः पुनः ॥ ४॥ यदा स्वर्भाणुरागबन् । गबन वा पुष्पदंतयोः ॥ लेश्यामावृणुया. त्तर्हि । वदंति मनुजा भुधि ॥ ३ ॥ चंद्रो रविर्वा तमसा ज्यारे पर्वराहु सूर्यचंद्रना ममलनी लेश्याने याबादित करतोथको नीचेथी यथोक्तकाले चायो ज़ाय , ॥३॥ यारे चंऽसूर्यनो योग्यतामुजब नपराग थाय ने, अने लोकोमां ते ग्रहणना नामथी नळखाय . ॥ ४० ॥ ज. घन्यथी उमासे चंद्रग्रहण थाय ने, थने नत्कृष्टुं बेता. लीस मासे थाय . ॥ ४१ ॥ वळी सूर्यग्रहण जघन्यथी छमासे थाय ने, अने नत्कुष्टुं अमतालीस वर्षे थाय ने. ॥ ४२ ॥ राहु ज्यारे पावतोयको अथवा जोतोयको सू. र्यचंद्रनी लेश्याने आबादित करे , त्यारे पृथ्वीपरना मनुष्यो कहे ने के, ॥ ४३ ॥ चंद्र अथवा सूर्य अंधकार
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( १६४ )
| गृहीत इति यद्यथ ॥ लेश्यामावृत्त्य पार्श्वेन । गन्नत्य र्कशशांकयोः ॥ ४४ ॥ तदा वदंति मनुजा । रविणा श शिनाथवा || राहोः कुक्षिर्जिन इति । यदा पुनर्विधुंतुदः ॥ ४९ ॥ पकै दुलेश्यामावृत्त्या – पसर्पति तदा भुवि ॥ वदंति मनुजा वांतौ । राहुणा शशिचास्करौ ।। ४६ ।। यदा तु गहन वागवन | राहुश्चंद्रस्य वा रवेः ।। लेश्यामावृस्य मध्येन । गच्छत्याहुर्जनास्तदा || 89 || राहुणा रविरिंदुर्वा । विभिन्न इति चेत्पुनः । सर्वात्मना चंद्रसूर्य-लेश्यामावृत्त्य तिष्ठति ॥ ४८ ॥ वावदंतीह मनुजाः । परमावडे ग्रहण करायेलो बे, वळी ज्यारे ते सूर्यचंद्रनी लेश्याने ढांकीने पडखेथी चाल्यो जाय वे ॥ ४४ ॥ त्यारे लोको कहे बे के सूर्य अथवा चंडे राहुनी कुदि नेदीने. वळी ज्यारे राहु || ४५ || सूर्यचंद्रनीलेश्याने ढांकीने खसी जाय बे, त्यारे पृथ्वीपरना लोको कहे बे के राहुए चंद्रसूर्यने वमी कहाड्या वे. ॥ ४६ ॥ वळी जतो यावतो राहु चंद्र यथवा सूर्यनी लेश्याने यवादित करीने म. ध्यागमांथी जाय बे, त्यारे लोको एम कहे वे के, ॥ ॥ ४७ ॥ राहुए सूर्य अथवा चंद्रने नेद्यो वे, वळी ज्यारे ते चंद्रसूर्यनी लेश्याने सर्वथाप्रकारे व्याहादित करीने ते
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( १६५) विदस्तथा ॥ राहुणा क्षुधितेनेव । ग्रस्तश्चंडोऽथवा रविः ॥ ४५ ॥ शृंगाटकश्च जटिलः । दत्रकः खरकस्तथा ॥ दुर्धरः सगरो मत्स्यः । कृष्णसर्पश्च कबपः ॥ १०॥ ३ त्यस्य नव नामानि । विमानत्वस्य पंचधा ॥ कृष्णनीलर क्तपीत-शुक्लवर्णमनोरमाः ॥ २१ ॥ नगवतीसूत्र शत ११ षष्टोद्देशके. संपूर्णसर्वावयवो विशिष्टा-लंकारमात्यांवर म्यरूपः ॥ महर्डिको राजति राहुरेष । लोकप्रसिद्यो ननु मौलिमात्रः ॥ ५५ ॥ किंच-विधोरेकैकमयन-महोरारहे हैं, ॥ ४ ॥ त्यारे परमार्थने नहि जाणनारा लोको एम कहे ने के, जाणे ख्या राहुए चंद्र अथवा सूर्यने असी लीधेल. ॥ ॥ श्रृंगाटक, जटिल, दात्रक, ख. रक. दर्धर, सगर. मत्स्य, कृष्णसर्प, काप.॥५०॥ ए. वीरीतनां तेनां नव नामो . वळी तेनां श्याम, लीवं, लाल पीलु तथा सफेद रंगथी मनोहर पांच प्रकारनां विमानो . ॥ ५१ ॥ एवीरीते भगवतीसूत्रना बारमा शतकना बहा नद्देशामां ने. संपूर्ण ने सर्व अवयवो जेनां, तथा नत्तम भाषण, पुष्पमाला, अने वस्त्रोथी मनोहर रूपवाळो, महासमूहिवाळो या राहु शोने में, परंतु लो. कोमां ते फक्त मस्तकरूपेज प्रसिध. ॥ ५५ ॥ वळी
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( १६६ ) त्रास्त्रयोदश ॥ चतुश्चत्वारिंशद हो - रात्रशाः सप्तषष्टिजाः ॥ || ३ || धान्यां चंद्रायणान्यां स्या- प्रमासः सप्तविंशतिः || अहोरात्राः सप्तषष्टि - नागास्तत्रैकविंशतिः ॥ ९४ ॥ पत्रोपपत्तिस्त्वेवं – सर्वोरुनां चंद्रनोगो । वक्ष्यमाणः समुचितः ॥ मुहूर्तानां शतान्यष्टै — कोनविंशान्यथो लवाः ॥ ९५ ॥ स्युः सप्तविंशतिः सप्त - पष्टिजास्त्रिंशता तनः ॥ मुहूर्तीके हृते कुधा - दोरात्र सप्तविंशतिः ॥ ९६ ॥ मुहूर्ता नव शिष्यंते । भागाश्च सप्तविंशतिः । मुहूर्ताः सप्त षष्टिनाः । कार्याः कर्तुं सवर्णनं ।। ९७ ।। षट्शती त्र्युत्तरा ॐॐ तेर पूर्णांक चमालीस सडसठांश अहोरात्रोनुं एक चंद्रायथाय ॥ ९३ ॥ ने एवां वे चंद्रायणोनो एक ची दमाम था. पने तेमां सतावीस पूर्णांक एकवीस सडसठांश अहोरात्रो थाय. ॥ ९४ ॥ यहीं युक्ति नीचेमुज ब-सर्व नदोनो चंद्रनो जोगवटो एकठो करवायी घ्यावसो जंगलीस पूर्णांक || १५ || सतावीस सडसठांश मुहूर्तोनो थाय मुहूर्तेन ते रकमने बीसे गांगवाथी सतावीस अहोरात्रो थया. ॥ ५६ ॥ तेपर नव मुहूर्ती तथा सत्तावीस जाग वध्या, तेने तुल्य करवामाटे नव मुहूर्तोने समसठे गुणवा ॥ १७ ॥ त्यारे बसो वा थया, ते
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( १६9 ) स्यात्सा | सप्तविंशतिजागयुक् ॥ वव षट्शती त्रिंशा । नागोऽस्यास्त्रिंशता पुनः ॥ ५८ ॥ सप्तषष्टिजवा भागाः । लन्यं ते एकविंशतिः ॥ यथोक्तोऽयं भमासोऽस्या – धर्ध याम्योत्तरायणे || ९ || चंद्रोत्तरायणारंनो । युगादिसमये भवेत् ॥ प्रागुत्तरायणं पश्चाद्याम्यायनमिति क्रमः ॥ ६० ॥ प्रवृत्तिः स्याद्यतो ज्योति - चक्रचौरकमूलयोः ॥ सूर्ययाम्यायनशीतां - शूत्तरायणयोः किल ॥ ६१ ॥ युगादावेव युगप - तवार्क दक्षिणायनं ॥ पुषाससषष्टिजांश - वयोविंशत्यतिक्रमे ॥ ६२ ॥ युगादावभिजिद्योग - मां सतावीस भागो वायी बसो वीस थया, तेने वळी त्री से भांगवा ॥ ९८ ॥ त्यारे एकवीस समसठीया भागो याव्या, एटला काळनो चांद्रमास थयो, यने तेथी चंदनं दक्षिणायन तथा उत्तरायन थयुं. || || युगना घ्यादिसमये चंद्रना उत्तरायणनो प्रारंग थाय यने तेथी पहेलां उत्तरायण ने पी - दिपायन एवो अनुक्रम वे ॥ ६० ॥ के जेथी ज्योतिवनी गतिना एक मूलसमान एवां सूर्यनां दक्षिणायन पने चंद्रना उत्तरायणनी प्रवृत्ति थाय बे ॥ ६१ ॥ वळी युगनी यादिमां साथेज पुष्पनदना वेवीस सडसठीया
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( १६८ )
प्रथमण एव तु ॥ चंद्रोत्तरायणारंभ - स्ततो युक्तं पुरोदितं || ६३ || तथोक्तं जंबूद्दीपप्रज्ञप्तिवृत्तौ - सकल ज्योतिश्वारमूलस्य सूर्य दक्षिणायनस्य चंद्रोत्तरायणस्य च युगपत्प्रवृत्तिर्युगादावेव, साऽपि चंद्रायणस्याभिजिद्योगप्रथमसमय एव, सूरायणस्य तु पुष्पस्य त्रयोविंशतौ सप्तषष्टिनागेषु व्यतीतेषु तेन सिद्धं युगस्यादित्वमिति.
पुष्पस्य सप्तषष्टयुद्ध - विंशत्यंशाधिके ततः ॥ मुहर्त्तदशके लुंक्ते । मुहूर्तेकोनविंशतौ ॥ ६४ ॥ नोग्यायां भागो जातेथ के सूर्यनुं दक्षिणायन थाय बे ॥ ६२ ॥
युगनी यादिमां अभिजित नक्षत्रना योगना पहे ला दणमांज चंद्रना उत्तरायणनो प्रारंभ थाय बे, माटे पूर्वेकहेतुं युक्त d. ॥ ६३ || तेमाटे जंबूद्वीपपन्न तिनी टीकामां कहां वे के - सर्वज्योतिश्चक्रना मूलरूप सूर्यना दक्षिणायननी छपने चंद्रना उत्तरायणनी युगनी आदिमांज एकीहारे प्रवृत्ति थाय बे, खाने तेमां पण चंद्रायनी व्यनिजित् नक्षत्रना योगना पहेले समयेज थाय ते. प्र. ने सूर्यायननी पुष्पनक्षत्रना देवीस समसठीया भागो जातेथ थाय बे ने तेथी युगनुं यादिपं सिद्ध थयुं. पुष्पनक्षत्रना दशपूर्णांक वीससडसठांश मुहूर्त जो
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( १६० ) सप्तचत्वारिं - शर्दशायां समाप्यते ॥ विधुनोदीच्यमयनं । याम्यमान्यतेऽपिच ॥ ६५ ॥ एवं च सर्वनदात्रं - भोगार्धानुभवात्मके || सामर्थ्यादवसीयेते । याम्योत्तरायणे विधोः ।। ६६ ।। नत्वाद्यांत्य मंडला भि- मुखप्रसरणात्मके । याम्योत्तरायणे स्यातां । भानोखि विधोरपि ॥ ६१ ॥ किंच - लोकप्रसिकमकर - कर्कराशिस्थितस्ततः ॥ औदीच्यं याम्यमयनं । विधुरारते क्रमात् ॥ ६८ ॥ युगे युगे चतुस्त्रिंशं । शतं चंद्रायणानि वै । त्रिंशान्यष्टादशशता
32 हापसमा २रायण
गवते छते || ६४ || भोगवालायक समतालीस शोसदित एकवीस मुहूर्तो मां चंद्रवडे उत्तरायन समाप्त थाय बे, घने दक्षिणायननो प्रारंभ पण थाय वे ॥ ६५ ॥ एवीरी सर्व नक्षत्रोना अर्ध जोगना अनुजवरूप चंद्रनां दक्षिणायन ने उत्तरायण सामर्थ्यथी जणाई यावे वे. ॥ ६६ ॥ परंतु सूर्यनीपेठे पहेला धने बेल्ला मंडलनी सन्मुख फेलावारूप चंद्रनां पण दक्षिणायन ने उत्तरायन थतां नथी. ॥ ६७ ॥ वळी - लोकमां प्रसिद्ध एवा मकर ने कर्कराशिमां रहेलो चंद्र अनुक्रमे उत्तरायन
दक्षिणायनो प्रारंभ करे बे ॥ ६८ ॥ युगे युगे एकसो चौत्रीस चंद्रायण थाय वे, घने तेथी पदार
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(१७०) न्येनिश्च युगवासराः ॥ ६५ ॥ युगातीतपर्वसंख्या । का: या पंचदशाहता । दिप्यंते तत्र तिथयः । पर्वोपरिगता स्ततः ॥ ३० ॥ राशेरस्मादिवज्यंते-ऽवरात्रास्ततः परं ।। ऋदमासान जागे । यल्लब्धं तदिचार्यते ॥ १॥ लब्धे समें के विज्ञेय-मतीतं दक्षिणायनं ॥ विषमेंके पुनर्लब्धे । व्यतीतमुचरायणं ॥ १२ ॥ शेषांस्तूकरितानंशान । सतषष्ट्या हरेः बुधः ॥ लब्धांकप्रमिता वर्त-मानायनदि. नागताः ॥ १३ ॥ तत्राप्युघरिता येंका-स्ते विज्ञेया विसो त्रीस युगना दिवसो थाय . ॥ ६५ ।। युगातीत प. धोनी संख्याने पंद्ररे गुणवी, अने पछी पर्व नपर रहेली तिथिनने तेमां नाखवी. ॥ १० ॥ ते रकममांयी अवमरात्रोने बाद करवा, अने पछी तेने अर्ध चंद्रमासे नांगवाथी जे यावे तेनो विचार करीये. ॥७१ ॥ जो सरखो श्रांक श्रावे तो जाणवू के दक्षिणायन व्यतीत थयुं , श्रने विषम ांक जो आवे तो जाणवू के उत्तरायण व्यतीत ययु ३. ॥ ३२॥ बाकी जे अंशो वधे तेनुने विद्याने समसटे गुणवा, जे रकम आवे तेटला चालता अयनना दिवसो गयेला जाणवा. ॥ १३ ॥ तेमांथी पणजे रकम बाकी रहे, तेने पंमितोए दिवसना समस:
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( १७१) शारदैः ॥ दिनस्य सप्तषष्टयंशा । दर्श्यतेऽत्र निदर्शनं ॥ ॥ ७४ ॥ यथा युगादेरारय । नवमासव्यतिक्रमे ॥ पंचम्यां केनचित्पृष्टं । किं चंद्रायणमस्ति जोः ॥ १५ ॥ कुर्यात्पंचदशन्नानि । पर्वाण्यष्टादशात्र च ॥ क्षिपेद्गतान पंच तिथीन । त्यक्त्वावमचतुष्टयं ॥ ७६ ॥ एकसप्तत्या समेतं | संजातं शतयोर्द्वयं || जाजकोऽस्य भमासार्धं । पूर्णरूपात्मकं न तत् ॥ 99 ॥ किंतु सप्तषष्टिनागैः । कियद्भिरधि
ततः । एष राशिः सप्तषष्ट्या | भागसाम्याय गुण्यते ॥ १८ ॥ यष्टादश सहस्राणि । सप्तपंचाशताधिकं ॥ शतं ठीया जागो जावा. तेमाटे यहीं दाखखो देखाडे बे. ॥ ७४ ॥ जेम युगनी यादिथी मांडीने नव मासो गया बाद पांचमने दिवसे कोइ पूयं के कयुं चंद्रायण के ? || १५ || त्यारे वहीं पार पर्वोने पंदरे गुणवा, तेमां पांच तिथि ळववी ने चार वमरात्रोने बाद करवी ॥ १६ ॥ त्यारे बसोने एकोतेर घ्याव्या, दवे तेनो भाजक जे चंद्रार्धमास ते समांकवाळो नयी ॥ 99 ॥ परंतु केटलाक सडसठीया नागे घ्यधिक वे, अने तेथी ते रकमने नागनी तुल्यतामाटे सडसठे गुणवी ॥ ७८ ॥ एटले पठार हजार एकसो सतावन थया, पबी पर्धा चं
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जातमितश्चोरु – मासार्धदिवसा यपि ॥ ५ ॥ सप्तष - ष्ट्या हताः शेषै - वैदवेद ४४ लवैर्युताः । जाताः पंचदशान्यानि । शतानि नव तैः पुनः ॥ ८० ॥ हृते भाज्यां १८१५७ यनानि । लन्धान्येकोनविंशतिः ॥ शे षा भागसप्तशती । दिसप्तत्यधिका स्थिता ॥ ८१ ॥ अस्या जागे सप्तषष्टया । लब्धा रुद्रमिता दिनाः । शेषाः पंच-5 त्रिंशदंशा - स्तिष्टंति सप्तषष्टिजाः ॥ ८२ ॥ चंद्रायणान्यतीतानी — त्येवमेकोनविंशतिः ॥ अनंतरमतीतं य-तचंद्रस्योत्तरायणं ॥ ३ ॥ वर्तमानस्य च याम्या – यनस्य
द्रमासना दिवसोने पण, ॥ १९ ॥ समसठे गुणवाथी तथा तेमां बाकीना चमालीस लवो नेळववाथी नवसो पंदर थया, ते रकमवडे ॥ ८० ॥ अढार हजार एकसो सतावननी जाज्य रकमने भांगवाथी जगणीस ायनो याव्यां, छाने बाकी सातसो बहोतेर जागो वध्या ॥ ८१ ॥ तेने सस जांगवाथी व्यग्यार दिवसो व्याव्या, अने बाकी पांत्रीस सडसठीया शो वध्या. ॥ ८२ ॥ एवीरीते जगणीस चंद्रायणो व्यतीत थयां, छाने जे नंतर व्यतीत थयुं ते चंद्रनुं उत्तरायण वे ॥ ८३ ॥ छाने चालता दक्षिणायनना अग्यार दिवसो तथा पांत्रीस सडसठी
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वासरा गताः ॥ एकादश लवाः पंच-त्रिंशच सप्तपष्टिजाः ॥ ४ ॥ यत्र पूर्णा नविष्यति । समाप्ते पंचमे तिथौ ॥ एवमन्यत्रापि भाव्यं । करणं गणकोत्तमैः ।।५।। शंदुस्तत्परिवारश्च । रूपकात्यादिनि शं ॥ सश्रीक इति विख्यातः । ससी प्राकृतभाषया ।। ७६ ॥ मृगश्चित्रं विमानेऽस्य । पीठिकायां प्रतिष्टितं ॥ मृगांकितविमानत्वान्मृगांक इति वोच्यते ॥ ७ ॥ तथा च पंचमांगे-'से केणठेणं नंते एवं वुच्चश्? चंदे ससी चंदे ससीगो, चं. या नागो व्यतीत थया. ॥ ४ ॥ वळी पांचमी तिथि समाप्त थये छते अहीं पूर्ण थशे, एवीरीते अन्य स्थानके पण ज्योतिषीनए करण भावी लेवु. ॥ ५॥ चंद्र अने तेनो परिवार रूप कांतियादिकवडे घणो शोभायमान . भने तेथी प्राकृतजाषामां ते ‘ससी' ए नामथी प्रख्यात . ॥ ६ ॥ तेना विमानमां पीठिकापर मृगर्नु चिन्ह स्थापेबुं ने, अने एवोरीते मृगना चिन्हवाळा विमानवा. को होवाथी ते मृगांक कहेवाय . ॥ 6 ॥ तेमाटे पांचमा अंगमां कह्यं ने के- हे भगवन् ! चंद्रने ससी स. सीग केम कहेवामां आवे ? ( भगवान कहे ने के ) ज्योतिश्चक्रना इंद्र, तथा ज्योतिश्चक्रना राजा एवा ते चं.
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( ११४ ) दस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरमो मियंके विमाणे कंता देवा कंतान देवीन.' श्यादि. १२५ ॥ इति चंद्रस्वरूप निरूपणं. एवं संक्षेपतश्चंद्र-निरूपणं यथा कृतं । तथैव वर्णयामोऽथ । नदत्राणां निरूपणं ॥ ७ ॥ श्रादौ सं. ख्या मंगलानां १ । तेषां क्षेत्रप्ररूपणा ॥ एकदावि मानानां । तथांतरं परस्परं ३ ॥ नए । सुमेरोमंडलावा. 'धा । विनादि च मंडले ५॥ मुहूर्तगतिरावेशः ६ । शशांकममलैः सह 9 ॥ ५० ॥ दिग्योगो ७ देवताए स्तारा-संख्यो १० ॥ मूनां तथाकृतिः ११ ॥ सूर्येदुयो. "द्रना मृगना चिन्हवाळा विमानमां मनोहर देवो तथा
मनोहर देवीन.' इत्यादि, १२५. एवीरीते चंदना स्व-रूपनिरूपण कर्यु. एवीरीते जेम संक्षेपथी चंद्रनुं निरू“पण कयु, तेम हवे नदात्रोनुं निरूपण वर्णवीये जीये. ॥ ७ ॥ प्रथम मंडलोनी संख्या १, तेननां क्षेत्रनी प्र. रूपणा २. एक नदालना विमानोर्नु परस्पर अंतर ३ ॥ ॥ ॥ मेरुप्रते मंडलनी अबाधा , मंगलनी पहोळाश्यादिक ५, मुहूर्तगति ६, चंद्रना मंडलोसाथे आवेश 9. ॥ ए० ॥ दिशाननो योग , देवता ए, ताराननी संख्या १०, ताराननो आकार ११, सूर्यचंद्रना योगथी ते
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( १७५) गाघामानं १२ । कुलायाख्यानिरूपणं १३ ॥ १॥ श्रमावास्यापूर्णिमानां । नदत्रयोगकीर्तनं १४ ॥ प्रतिमास महोरात्र-समापकानि तानि च १५ ॥ ४२ ॥ एभिश्च पंचदशभि-बी रैः पूर्गोपुरैरिख । गम्योमुपरिपाटीति । । तामेव प्रथमं ब्रुवे ॥ ३ ॥ अनिजिबूवणं चैव । ध. निष्टाशततारिका ॥ पूर्वा नऽपदा सैवो–तरादिकाथ रेवती ॥ ए | अश्विनी चरणी चैव । कृतिका रोहिणी तथा ॥ मृगशीर्ष तथा चार्दा । पुनर्वसू ततः परं ॥ए।। पुष्पाऽश्लषा मघाः पूर्वो-फाल्गुन्युत्तरफाल्गुनी॥ हस्तज ११, कुलादिकनां नामोनं निरूपण १३ ॥ १॥यमावास्या तथा पूर्णिमानीसाथे नदात्रता मेलापर्नु कथन १४, तथा दरेक मासे अहोरात्र संपूर्ण करनारां ते नदलो १५, ।। ५२॥ एरीते दरवाजानवडे जेम नगर, तेम ए पंदर द्वारोवडे नदालोनी परिपाटी जणाय , माटे प्र. थम तेज कहुं बु. ॥ ५३॥ अभिजित् श्रवण, धनिष्टा, शततारा, पूर्वप्नद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा, रेवती, ॥ ४ ॥अश्विनी, जरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशीर्ष, आओ, पुनः
सूः, ॥ (५५ ।। पुष्प, अश्लेषा. मघा, पूर्वाफाल्गुनी, न. त्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा,
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( १७६) श्चित्रा तथा स्वाति-विशाखा चानुराधिका ॥ ६ ॥ ज्येष्टा मूलं तथा पूर्वाषाढा सैवोत्तरापि च ।। जिनप्रव. चनोपझो। नदत्राणामयं क्रमः ॥ ॥ अश्विन्याः कृत्तिकाया यद् । प्रसिद्धं लौकिकत्रमं ॥ नवंध्यात्र प्रवचः ने । यदेतजमदर्शनं ॥ ७ ॥ तत्र हेतुः प्रथमतः । संयोगः शशिना ममं ॥ युगस्यादावजिजितः । शेषाणां तु ततः क्रमात् ॥ एए॥ कृत्तिकादिक्रमस्तु लोके सप्तशिसाकचादिष्वेव स्थानेषुपयोगी श्रूयते. पारस्य नन्वनिजितो। नदत्रानुक्रमो यदि ।। शेषोमनामित्र कथं । ॥ ए६ ॥ ज्येष्टा, मूल, पूर्वाषाढा. उत्तराषाढा, एवीरीते जिनशास्त्रमा कहेलो नदात्रोनो क्रम . ॥ 0g ॥ अ. श्विनी अने कृत्तिका जे जगप्रसिह क्रम ने, तेने नवं. घीने वहीं सिघांतमा जे था क्रम देखाड्यो , ॥ए। तेनो हेतु ए के प्रथमथी युगनी आदिमां चंद्रसाथे अ. निजितनदालनो संयोग , अने ते पठी अनुक्रमे बाकीनां नदात्रोनो . ॥ ए ॥ बने कृत्तिकादिकनो क्र. म तो लोकोमा सप्तशिलाकचक्रादिक स्थानकोमांज नः पयोगी संभळाय . अही शंका करे ने के, ज्यारे अभिजित्थी मांझीने नदात्रोनो अनुक्रम , तो बीजां न
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( १99) व्यवहार्यत्वमस्य न ॥ १ ॥ यत्रोच्यतेऽस्य शशिना । योगो दल्पकालिकः ॥ ऋदांतरानुप्रविष्ट - तयास्य तबि दणं ॥ २ ॥ यदुक्तं समवायांगे सप्तविंशे समवाये ' जंबूद्दीवे दीवे भीश्वहिं सत्ताविसादि एकत्तेदिं संववदारे बट्ट ' एतद् वृत्तिर्यथा - जंबूदीपेन धातकीखंडादौ निजिदजैः सप्तविंशत्या नदवैर्व्यवहारः प्रवर्तते, छा निजिन्नात्रस्योत्तराषाढा चतुर्थपादानुप्रवेशनादिति लोके तु - चौतराषाढमं त्यांहिं + चतस्रश्च श्रुतेर्घटीः ॥ वदंत्यनि
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दात्रोनीपेठे तेनुं व्यवहारपं केम नथी ? ॥ १ ॥ तेमाटेकडेने के, चंद्रनी साथे तेनो संयोग स्वल्पकाळनो वे, छाने बीजां नदवोमां ते दाखल थतो होवाथी तेने व्यवहारं कहें वे ॥ २ ॥ तेमाटे समवायांगमां सतावीसमा समवायांगमां कहां वे के -'जंबूदीप नामना दीपमां अभिजित शिवाय सतावीस नक्षत्रोसाथे व्यवहारपणुं वर्ते वे.' तेनी टीका नीचेमुजब वे - जंबूalya करीने धातकी मयादिकमां निजित् शिवा यनां सतावीस नक्षत्रोथी व्यवहार प्रवर्ते वे, केमके प भिजित नक्षवनो उत्तराषाढाना चोथा पायामां प्रवेश गणाय े. दुनियामां तो — उत्तराषाढा नक्षत्रना बेल्ला
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( ११८ ) जितो भोगं । वेधसत्ताद्यवेक्षणे ॥ ३ ॥ यष्टावेव मं लानि । स्युरष्टाविंशतेरपि ॥ नमूनां तत्र चारस्तु । निते स्वस्वमंडले || ४ || इति मंगलसंख्या ॥ साशीतियोजनशते । द्वीपस्यांतरवर्तिनि ॥ उक्तं मुक्तिकां नक्षत्रमंडलईयं ॥ ९ ॥ त्रिंशे च योजनशत -त्रये ल वणवारिधेः ॥ षक नक्षत्रमंडलानि दृष्टानि विष्टपे दि निः || ६ || नक्षत्रमंडलं चक्र -वाल विष्कंनतो जवेत् ॥ गव्यूतमेकं प्रत्येकं । गव्यूता च मेदुरं ॥ ७ ॥ एवं नक्षत्रजातीय - मंमलक्षेत्र संमितिः || दशोत्तरा पंचशती ।
पायानी चार घडीने अभिजितना जोगरूप वेधसत्ता दिक जोवामां कहे बे. ॥ ३ ॥ यावीसे नक्षत्रोनां या उज मंडलो बे, ने तेमां तेजना निश्चित थयेला पोतपोताना मंडलमां तेजनी गति बे. ॥ ४ ॥ एवीरीते मंमलोनी संख्या कही. ॥ दीपनी अंदर रहेला एकसो एंसी जोजनमां जिनेश्वरोए बे नक्षत्रमंडलो कह्यां वे. ॥ ॥ ५ ॥ लवणसमुद्रना त्रणसो तीस जोजनमां केवलिनए छ नक्षत्रमंमलो जोयां बे. ॥ ६ ॥ दरेक नक्षत्रमं मल चक्रवाल पहोळाश्मां एक गव्यूतजेटनुं होय ते. त था पर्थो गाउ पदों होय बे. ॥ ७ ॥ एवीरीते नक्षत्र
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( ११७.) योजनानां निरूपिता ॥ ७॥ नत्वैकैकस्य ऋतस्य । मंड' लक्षेत्रसंभवः ।। रवेरिवायनान्नावा-सदाचाराल्वममले ॥ ॥ ॥ इति मंडलक्षेत्रं.॥
- यत्र यत्र यानि यानि । वदयंते नानि मंमले ॥ स्यात्तदीयविमानानां । हे योजने मिथोतरं ॥ १०॥ मिथोतरमुरुनां चे-दिदमेव नवेत्तदा ॥ मंडलक्षेत्रमन्यत्स्याद्-शून्यं तच्च नेष्यते ॥ ११ ॥ यत्तु-दो जो यणाई एकत्तमंडलस्स, कत्तमंडलस्स य अबादाए धारे पमत्ते' इत्येतांबडीपप्रज्ञप्तिसूत्रं, तत् अष्टावपि संबंधि मंमलक्षेत्रनुं माप पांचसो दश जोजनोनुं कहेबु
. ॥ ७ ॥ सूर्यनीपेठे अयनना अनावथी तथा हमेशां पोताना मंडलमां गमन करवाथी एकेका नदत्रने मंडल. क्षेत्रनो संचव नथी. ॥ ए॥ एवीरीते मंडलक्षेत्रनुं स्वरू. प का.॥
. जे जे मंगलमा जे जे नदात्रो वर्णवाय , तेजनां विमानोर्नु परस्पर अंतर बे जोजननुं . ॥ १० ॥ नदबोर्नु परस्पर अंतर जो तेटबुंज होय, तो बीजु मंडलक्षेत्र जग्याविनानुं थाय, अने ते श्ववाजोग नथी. ॥ ११ ॥ परंतु जे–' दरेक नदात्रमंडलनु अबाधा अंतर बे जो..
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( १७०) मंडलेषु यत्र यत्र मंडले याति नदात्राणां विमानानि तेषामंतरबोधकं, यच्च अभिजिन्नदात्रविमानस्य श्रवणनदात्र विमानस्य च परस्परमंतरं । योजने इति न० श्रीशांति चंद्रगणिनिः स्वकृतवृत्तौ व्याख्यायि तदभिप्रायं सम्यम वि. द्मः, यदपि न० श्रीधर्मसागरगणिभिः स्वकृतवृत्तौ एतत्सूव्याख्याने हे योजने नदात्रस्य श् चाबाधया अंतरं प्रज्ञ समित्येव लिखितमस्ति तदप्यभिप्रायशून्यमेव. चतुश्चत्वा. रिंशतैव । सहस्रैरष्टभिः शतैः ॥ विंशैश्च योजनैमरोः । जननें कह्यं ने' एवीरीते जंबूंदोपपन्नत्तिसूत्रमा कहेल , ते पाठे मंडलोमां जे जे मंडलनी अंदर जेटलां नदाः त्रोनां विमानोने, तेन्नां अंतरने जणाव नारंबे, अने अग्निजित नदालना विमाननु तथा श्रवण नदालना वि. माननु परस्पर अंतर बे जोजनन उपाध्याय श्रीशांतिचं. द्रगणिजीए पोते करेली टीकामां जे कह्यं तेनो अभिप्राय श्रमो सम्यगरीते जाणी शकता नथी, तेमज नपाध्याय श्रीधर्मसागरगणिजीए पोते करेली टीकामां था सूत्रनी टीका करतीवखते नदानदात्रवच्चे- अबाधावडे बे जोजन- अंतर कडं, अने एमज जे लख्यु ने, तेनो अन्निप्राय पण मालुम पडतो नथी. सर्वथी अंदर.
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( १०१) सर्वातरं भमंडलं ॥ १२॥ सहस्त्रैः पंचचत्वारिं-शता वि. शैत्रिभिः शतैः ॥ योजनैर्मरुतः सर्व बाह्यं नदात्रमंम्लं ॥ १३ ॥ इति सुमेरोखाधा ।। विष्कमायामपरिधि-प्रमुख मानमेतयोः॥ रवः सर्वांतरसर्व-बाह्यमंडलयोखि ॥१४॥ इति ममलविष्क आदि ॥ सहस्राणि पंच, शत-द्वयं च पं. चषष्टियुक् ॥ योजनानि योजनस्य नक्तस्यैकस्य नि. श्चितं ॥ १५ ॥ एकविंशत्या सहस्रैः षष्ट्याढ्यैर्नवन्निः शतैः॥ विजागाश्च समधिकाः । पूर्वोक्तयोजनोपरि ॥१६॥ अष्टादश सहस्राणि । शतदयं त्रिषष्टियुक् ॥ सर्वातममनुं नदत्रमंमल मेरुथी चमालीस हजार पाठसो वीस जोजने रहेबु , ॥ १२॥ अने सर्वथी बहारनुं नदात्रमंडल मेस्थी पस्तालीप्त हजार त्रएसो वीस जोजने रहेg . ॥ १३ ॥ एवीरीते मेरुनी बाधा कही. ॥ वळी ते बन्ने मंगलोर्नु लंबाइ, पहोळा अने घेरावाबादिकनुं प्रमाण सूर्यनां सर्वथी अंदरनां अने सर्वथी बहारना मंडलजेवू . ॥ १४ ॥ एवीरीते मंमलनी पहोळाश्यादिक कही. पांचहजार बसो पांसउ पूर्णाक जोजन, अने एक जोज नने ॥ १५ ॥ एकवीस हजार नवसो साठे जांगवाथी जे विभागो थाय तेमाहेला ॥ १६॥ पढार हजार बसोवे.
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( १०२ )
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लोनूनां । मुहूर्तगतिरेषिका ॥ ११ ॥ उपपत्तिश्चावनक्षत्रं सर्वमप्यत्र । पूरयेत् स्वस्वमंमलं ॥ मुहूर्तेरे कोनषष्ट्या | मुहूर्त्तस्य तथा लवैः || १८ || ससप्तषष्टित्रिशतविभक्तस्य त्रिभिः शतैः ॥ सप्तोत्तरैः प्रत्ययश्च । त्रैराशि कात्तदुच्यते ॥ १० ॥ नदवार्धममलानां । संपूर्ण युगव र्तिनां ॥ पंचत्रिंशत्समधिकै - यद्यष्टादशनिः शतैः ॥१०॥ अष्टादशशती त्रिंशा होरात्राणामवाप्यते ॥ द्वान्याम मंखान्यां । किमाप्यते तदा वद || २१ || १०३५ | १ सठ जागो पूर्व कहेला जोजनो उपर ध्यविक जाणवा, एटली सर्वथी यंदरनामंगलमा रहेलां नक्षत्रोनी मुहूर्न गति जाणवी ॥। ११ ॥ महीं युक्ति कहे बे-हीं सर्व नक्षत्र नगणसाठ पूर्णांक मुहूर्त, तथा एक मुहूर्तने ॥ ॥ १८ ॥ त्रणसो समसठे भांगवाथी जे भागो थाय. ते माहेला त्रणसो सात भागे पोतपोतानुं मंगल पूरे बे, ने तेनी खातरी त्रैराशिक दिसावयी कहे वे ॥ ११५ ॥ ज्यारे संपूर्ण युगमां रहेलां यदारसो पांत्रीस नक्षत्रार्धमं लोथी ॥ २० ॥ दारसो वीस अहोरात्रो थाय तो बे अर्धमंडलोथी केटला पहोरात्रो थाय ते कहे ? ॥ २१ ॥ १८३५ | १८३० | २ | यहीं बेली रकमवडे मध्यनी र
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( ३) ७३० । २ । अत्रांत्यराशिना राशौ । मध्यमे गुणिते स. ति ॥ त्रिसहस्री पदशती च । जाता षष्ट्यधिका किल ।। ॥ ॥ पंचत्रिंशत्समधिके-नाष्टादशशतात्मना ॥ श्रा. येन राशिना भागे । रात्रिंदिवमवाप्यते ॥ २३ ॥ अष्टा. दशशती शेषा । पंचविंशतियुक् स्थिता । मुहूर्तानयनायैषा । त्रिंशता गुणिताभवत् ॥ २४ ॥ चतुःपंचाशत्सहस्राः । सार्धा सप्तशतीति च ॥ एषां नागेऽष्टादशनिः । पंचत्रिंशद्युतैः शतैः ॥ २५ ॥ लब्धा मुहूर्ता एकोनत्रिंशत्ततोऽपवर्तनं ॥ द्यदकयोः राश्योः । पंचभिस्तो ततः स्थितौ ॥ २६ ॥ सप्ताब्या त्रिशती नाज्यो । जाज कमने गुणवायी त्रणहजार छसोने साठ थया. ॥ ५ ॥ तेने अढारसो पांत्रीसरूप पहेली रकमे भांगवाथी एक अहोरात्र अाव्यो, ॥ २३ ॥ तथा नपर अढारसोने पचीस बाकी वध्या. तेना मुहूर्तो करवामाटे तेने त्रीसे गुणवाथी॥ २४ ॥ चोपन हजार सातसो पचास थया, तेने अढारसो पांत्रीसे भांगवाथी॥ २५॥ गणत्रीस मुहूर्ता याव्या, पछी ते भाज्य अने भाजकनी रकमनो पांचे बेद नमामवाथी॥ २६ ॥ त्रणसो सात नाज्यनी रकम थइ, अने त्रसो समसठ नाजकनी रकम थर, हवे जे
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( १०४) कः सप्तषष्टियुक् ॥ त्रिशती येऽत्र लब्धाश्चै-कोनत्रिंशन्मुहूर्तकाः ॥ २७ ॥ त्रिंशन्मुहूर्तरूपेऽहो-रात्रे पूर्वागते. न्विताः ॥ ते मुहूर्ताः स्युरेकोन-षष्टी राशिरसौ पुनः ॥॥ गुण्यते नागसाम्याय । सप्तषष्टिसमन्वितैः ॥ त्रिभिः शतैः दिप्यतेऽस्मिन् । सप्ताब्यांशशतत्रयी ॥ श्ए । सषष्टिर्नवशत्येवं । सहस्राश्चैकविंशतिः ॥ अयं च राशिः परिधे-जिकः प्रतिमंम्लं ॥ ३० ॥ तिस्रो लदाः पं. चदश । सहस्राणि तथोपरि ॥ नवाशीतिः परिक्षेपः । सत्यिंतरमंमले ॥ ३१ ॥ राशियॊजनरूपोऽयं । जागात्मकेअहीं नगणत्रीस मुहूर्तो थया ने, ॥ २७ ॥ तेनने त्रीस मुहूर्तरूप पूर्वे श्रावेला एक अहोरात्रमा नेळववाथी सर्व मळी नंगणसाठ मुहूौजेटली रकम थ३ ॥ २७ ॥ हवे ते रकमने सरखा नागमा लाववामाटे त्रणसो समस गुणवी, तथा तेमांत्रणसो सात नागो नेळ्यवा. ॥श्णा एटले एकवीस हजार नवसो साठ थया, अने ते दरेक मंडले परिधिनी नाजक रकम ने. ॥ ३० ॥ हवे सर्वयी अंदरना ममलनो वेरावो त्रण लाख पंदर हजार नेव्यासी जोजननो . ॥ ३१ ॥ था जोजनरूप रकम तुल्य स्वरूपवाळी न होवाथी भागरूप रकमथी शीरीते भांगी
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(१०५) न राशिना ॥ कथं विभाज्योऽसदृश-स्वरूपत्वादसौ ततः ॥ ३५ ॥ तेनैवाईति गुणनं । गुणितो येन नाजकः । ततस्त्रिभिः शतैः सप्त-षष्ट्याढयैरेष गुण्यते ॥ ३३ ॥ जाता एकादश कोट्यः । षट्पंचाशच लदिकाः ॥ सप्तत्रिंशत्सहस्राणि । षदशती च त्रिषष्टियुक् ॥ ३४ ॥ सह
रेकविंशत्या । षष्टयाढ्यैर्नवनिः शतैः ॥ भागेऽस्य राशेः प्रागुक्ता । मुहूर्तगतिराप्यते ॥ ३५ ॥ तथा योजनानां त्रिपंचाश-वृती सैकोनविंशतिः ॥ सहस्रैरेकविंशत्या । षष्टयाढ्यैर्नवभिः शतैः ॥ ३६॥ भक्तस्य योजनस्यांश सहस्राः षोडशोपरि ॥ सपंचषष्टिस्त्रिशती । गतिः सर्वोत्यशकाय? माटे, ३१ जेवडे नाजकने गुणेलो ने, तेवडेज तेने गुणवी जोश्ये, अने तेथी ते स्कमने त्र
सो समसठे गुणवी, ॥ ३३ ॥ त्यारे घग्यार क्रोम ब. पन लाख सामनीस हजार सोने त्रेसठ थया, ॥ ३४ ॥ ते रकमने एकवीस हजार नवसो साठे भांगवाथी पूर्वे कहेली मुहूर्तगति थावे जे. ॥ ३५ ॥ वळी-त्रेपनसो जंगणीस पूर्णाक जोजन, तथा तेपर एकवीस हजार नवसो साठे भांगेला ॥ ३६ ।। एक जोजनना शोळहजार त्रणसो पांसठ नागजेटली गति सर्वथी बेल्ला मंमलमां
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( १०६.) मंडले ॥ ३७॥ तथाहि
लदत्रयं योजनाना-मष्टादशसहस्रयुक ॥ शतत्रयं पंचदशं । परिक्षेपोत्यममले ॥ ३० ॥ अयं त्रिभिः सप्तषः ष्टि-सहितैस्ताडितः शतैः । कोट्य एकादश लदा । श्रटषष्टिः किलाधिकाः ॥ ३ए । सहरेकविंशत्या । शतैः षभिः सपंचन्तिः ॥ राशेरस्यैकविंशत्या । सहजैनवनिःशतैः ॥ ४ ॥ हृते षष्टयधिक गे । मुहूर्तगतिराप्यते ॥ नदवाणां किल सर्व-बाह्यमंडलचारिणां ॥ ४१ ॥ ति मुहूर्तगतिः ।। षट्सु शेषमंझलेषु । मुहूर्तगतिसंविदे ॥ सु. खेन तत्तत्परिधि-झानाय क्रियतेऽधुना ॥ ४२ ॥ नमहोय . ॥ ३१ ॥ ते कहे -
मेला मंगलनो घेराको तण लाख बढार हजार वणसो पंदर जोजननो ने, ॥ ३० ॥ तेने त्रणसो सडसडे गुणवाथी अग्यार क्रोम बडसठ लाख ॥ ३५ ॥ एकवीस हजार छसो पांच थाय, ते स्कमने एकवीस हजार न. वसो ॥ ४० ॥ साठे नागवाथी सर्वथी बहारना ममलमां चालनारां नदबोनी मुहूर्तगति थावे . ॥ ४१ ॥ एवी. रीते मुहूर्तगति जाणवी. ॥ हवे बाकीनां छ मंमलोमां सहेलाथी मुहूर्तगति जाणवामाटे, तेना घेरावानुं ज्ञान
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(१७) डलानां सर्वेषां । मंडलेष्वमृतातेः ॥ समवतारस्तत्राद्यमाये शशांकमंडले ॥४३॥नमंमलं द्वितीयं च । तती. ये चंद्रमंडले ॥ षष्टे तृतीयं विज्ञेयं । लवणोदधिनाविनि ॥ ४ ॥ चतुर्थ सप्तमे ज्ञेयं । तथा पंचममष्टमे ॥ वि. ज्ञेयं दशमे षष्ट-मेकादशे च सप्तमं ॥ ४५ ॥ अष्टमं च पंचदशे । शेषाणि तु सदोमुनिः ॥ सप्त चंद्रमंडलानि । रहितानि विनिर्दिशेत् ॥ ४६ ॥ एषां चंद्रमंडलानां । प. रिक्षेपानुसारतः ॥ पूर्वोक्तविधिना भानां । मुहर्तगतिराप्यते ॥ ४ ॥ इति चंद्रमंडलावेशः॥ अभिजिबूवणश्चैष । मेळववासारूं ॥ ४२ ॥ सघतां नदालमंडलोने चंद्रमंडलो. मां उतारी थे, तेमां पहेवू नदत्रमंडल पहेला चंद्रमंडल मां ने, ॥ ३ ॥ बीजु नदात्रमंडल चंद्रना वीजा मंडलमां ने, अने त्रीजु नदातममल लवणसमुऽमा रहेला उछा चंद्रमंमलमां जाणवू ॥ ४ ॥ चोथु सातमामां तथा पां: चमुं बाठमामां, अने दशमामां, तथा सातमुं अ. ग्यारमामां जाणवू. ॥ ४५ ॥ वळी थाउमुं पंदरमामां ने, घने बाकीनां चंद्रमंडलो हमेशां नक्षत्रविनानां .॥४६॥ था चंद्रमंमलोना घेरावानने अनुसारे पूर्व कहेली विधिमुजब नदात्रोनी मुहूर्तगति थावे . ॥ ४ ॥ एवी.
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(१००) धनिष्टा शततारिका ॥ पूर्वोत्तरा भद्रपदा । रेवती पुनर. श्विनी ॥ ४ ॥ नरणी फाल्गुनी पूर्वा । फाल्गुन्येव त. थोत्तरा ॥ स्वातिश्च हादशैतानि । सर्वात्यंतरमंडले ॥ ॥ ४५ ॥ चरंति तन्मंडलाध । यथोक्तकालमानतः ॥ पू. रयंति तदन्याध । तथा तान्यपराण्यपि ॥ ५० ॥ पुनर्वसूमघाश्चेति । इयं द्वितीयमंडले ॥ तृतीये कृत्तिकास्तुयें । चित्रा तथा च रोहिणी ॥ ५१ ॥ विशाखा पंचमे षष्टेऽनुराधा सप्तमे पुनः ॥ ज्येष्टष्टिमे त्वष्ट भानि । सदा च. रंति तद्यथा ॥ ५५ ॥ पार्दा मृगशिरः पुष्पो- ऽश्लेषा रीते चंद्रममलनो थावेश जाणवो. ॥ अभिजित, श्रवण, धनिष्टा, शततारिका, पूर्वोत्तरभद्रपदा, रेवती, अश्विनी, ॥ ॥ ४ ॥ भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, तथा खाति ए बार नदत्रो सर्वथी अंदरना मंमलमां. ॥ष्णा पूर्व कहेला काळ्पमाणमां तेन ते अर्धा मंडलमां गमन करे , अने तेना बीजा अर्धनागने बीजां नदात्रो पूर्ण करे . ॥ १०॥ पुनर्वसु घने मघा ए बे बीजा मंडलमां, कृत्तिका वीजामां, अने चित्रा तथा रोहिणी वोथामां, ॥ ५१ ॥ विशाखा पांचमामां, अनुराधा ठामां, ज्येष्टा सातमामां, अने आठमामां हमेशां पाठ न
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(१००) मूलं करोऽपि च ॥ पूर्वाषाढोत्तराषाढे । इत्यष्टांतिममंडले. ॥ ५३ ॥ पूर्वोत्तराषाढयोस्तु ! चतुस्तारकयोरिह ॥ हे हे स्तस्तारके मध्ये । बहिश्वाष्टममंडलात् ॥ १४ ॥ अष्टानां द्वादशानां च । बाह्यान्यंतरचारिणां ॥ सर्वेन्योऽपि बहि. मूलं । सर्वेन्योऽप्यंतरेऽनिजित ॥ १५॥ तथाहः-'अ. ह जरणिसाश्नवरि बहिमूलोनिंतरे अनिई' यानि दादश ऋदाणि । सर्वात्यंतरमंमले ॥ तानि चंद्रस्योत्तरस्यां । संयुज्यंतेऽमुना समं ॥ १६ ॥ एनिर्यदोमुभिः सार्धं । दत्रो चाले , ते नीचेमुजब ३. ॥ ५५ ॥ यार्दा, मृग शिर, पुष्प, अश्लेषा, मूल, हस्त, पूर्वाषाढा तथा उत्तरा षाढा ए बाठ नदत्रो रेल्लां मंमलमां गमन करे . ॥ ॥ २३ ॥ वहीं चार तारावाळा पूर्वाषाढा तथा उत्तराषाढाना बबे तारान पाठमा ममलनी अंदर अने बहार होय . ॥ ५४ ॥ बहार थने अंदर गमन करनारां आठ घने बार नदात्रोमांथी सर्वथी बहार मूलनदात्र अने स. 4थी अंदर अनिजित नदात्र ने. ॥ ५५ ॥ कां ने के'नीचे चरणी, उपर स्वाति, बहार मूल, अने अंदर बजिजित ' सर्वथी अंदरना मंगलमां जे बार नक्षत्रो ने, तेन चंद्रनी उत्तरे तेसाथे जोडाय . ॥ ५६ ॥ ज्यारे
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(१००) योगस्तदा स्वजावतः ॥ शेषेष्वेव मंमनेषु । जवेचारो हिमातेः ॥ ५७ ॥ सर्वातमैडलस्थाना-मेषामुत्तरवर्तिता चंद्राक्ता तदेव्यश्च । विधोदक्षिणवर्तिता ॥ २७ ॥ मध्यमीयमम्लेषु । यान्युक्तान्यष्ट तेषु च ॥ विना ज्येष्टां त्रिधा योगः । मप्तानां शशिना समं ॥ ए॥ औत्तराहो दाक्षिणात्यो । योगः प्रमर्दनामकः ॥ श्राद्यो बहिश्वरे चंड़े । द्वितीयोंतश्चरे स्वतः ॥ ६० ॥ प्रमर्दो भविमा नानि । निवेदोर्गबतो नवेत् ।। योगः प्रमर्द एव स्याते नदात्रोसाथे संयोग थाय , त्यारे स्वभावधी बाकीना मंम्लोमांज चंद्रनी गति थाय . ॥ २७ ॥ सर्वयी अंद. रना मंडलमां ज्यारे तेन होय , त्यारे तेनन चंथी नुत्तरमा होवापणु, अने तेनयी चंद्रनुं दक्षिणमां होवापणुं युक्त ने ॥ १७ ॥ मध्यमंमलोमां जे पाठ नदात्रो कह्यां ने, ते मां ज्येष्टाविना सात नदात्रोनो संयोग चं द्रनी साथे त्रण प्रकारे . ॥ ए॥ नत्तरतरफनो घ. ने दक्षिणतरफनो प्रमर्दनामनो योग थाय , तेमां चंद्र बहार चालते ते पहेलो, घने अंदर चालते ते बीजो पोतानी मेळे थाय .॥ ६० ॥ नदत्रोना विमानो. ने नेदीने चंद्र जाते छते प्रमर्द थाय ने, अने ज्येष्टा
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( १९०१ ) ज्येष्टायाः शशिना समं ।। ६९ ।। नून्याद्यानि षनेषु । बाह्यमंमलवर्तिषु || इंदोर्ददिदिक्स्थानि । संयुज्यतेऽमुना समं ।। ६२ ।। पूर्वोत्तराषाढयोस्तु | बाह्यताराव्यपेक्षया ॥ याम्यायां शशिना योगः । प्रज्ञप्तः परमर्षिनिः ॥ ६३ ॥ योर्द्वयोस्तारयोस्तु | चंद्रे मध्येन गछति || जवेत्प्रमर्दयोगोऽपि । ततो योगोऽनयोर्द्विधा ॥ ६४ ॥ उदीच्यां दिशि योगस्तु । संभवेन्नानयोर्नयोः ॥ यदान्यां परतश्चारो | दापोर्न वर्त्तते ॥ ६५ || विभिन्नमं मलस्थानां । पृथक्मंडलवर्त्तिनां ॥ नक्षत्राणां चंद्रमसा । यथायोगस्तथो नो तो चंद्रमा प्रमर्दयोगज थाय वे ।। ६९ ।। बहारनां मंगलमां नदवो होते छते चंद्रथी दक्षिणे रहेला पहेला छनतो तेन साधे जोमाय बे. ॥ ६२ ॥ पने बहार - ना तारानी अपेक्षाये पूर्वाषाढा तथा उत्तराषाढानो चंद्र साथेनो संयोग दक्षिण दिशामां ज्ञानीजए कहेलो वे. ॥ ॥ ६३ ॥ ने बबे ताराना मध्यमांथी चंद्र जाते ते प्रमर्दयोग पण थाय, खने तेथी तेजनो योग वे प्रकास्नो बे ॥ ६४ ॥ उत्तरदिशामां तो या वन्नेनो संयोग संत नथी, केमा बन्नेथी व्यागळ कोइ पण दिसे चंद्रन गति यती नथी. ॥ ६५ ॥ जुदा जुदा मंड
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(१७२) च्यते ॥६६ ।। स्वस्वकालप्रमाणेना-टाविंशत्या किलोमुभिः ।। निजगत्या व्याप्यमानं । क्षेत्रं यावदिभाव्यते ॥ ॥ ६७ ॥ तावन्मानमेंकमर्ध-मंमलं कटप्यते धिया ।। हितीयोमुकदंबेन । हितीयमधममलं ॥ ६७ ॥ अष्टानव तिशताढ्यं । लदं संपूर्णममलेषु स्युः। सर्वेऽप्यंशा एष च । विज्ञेयो मंडलबेदः ॥ ६ ॥ ननु च-मम्लेषु येषु यानि । चरंत्युमूनि तेष्वियं ।। चंद्रादियोगयोग्यानां । भां. शानां कल्पनोचिता ॥ ७० ॥ सर्वेष्वपि ममलेषु । सर्वो लोमा रहेलां नदात्रोनो चंद्रसाथे जेम संयोग थाय ने ते कहे . ॥ ६६ ॥ पोतपोताना कालना प्रमाणवडे करीने पोतानी गतिथी अठावीस नदात्रोवडे व्याप्त थतुं जे. ट्यं क्षेत्र जणाय, ॥ ६७ ॥ तेवहुं एक अधु मंडल बु. हिथी कल्पवू, अने बीजां नदत्रसमूहथी बीजं अर्धमंमल कल्पवं. ॥ ६० ॥ संपूर्ण मंडलोमां सघळा मळी एक लाख नव हजार पाउसो अंशो थाय, अने तेने मंडलबेद जाणवो. ॥ ६ए । यही शंका करे ने के-जे मंडलोमां जे नदात्रो चाले , ते मां चंद्रादिकना योगने लायक नदात्रोना अंशोनी कल्पना चित, ॥७०॥ परंतु सर्व मंगलोमां सर्व नदात्रोना भागोनी कल्पना के
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( १७३.) मुन्नागकट्पना ॥ श्यर्ति कथमौचित्य-मिति चेत् श्रूयतामिह ॥ ११ ॥ भानां चंडादिभिर्योगो । नैवास्ति नियते दिने । न वा नियतवेलायां । दिनेऽपि नियते न सः॥ ॥ ७ ॥ तेन तत्तन्ममलेषु । यथोदितलवात्मसु ॥ तत्त. नदात्रसंबंधि-सीमाविष्कंभ माहितः ॥ १३ ॥ प्राप्तौ सत्यां मृगांकादेोगः स्यादुमुभिः सह ॥ एवमर्कस्यापि योगो । जिन्नमंमलवर्तिनः ॥ १४ ॥ एवं जसीमाविष्कं. ना-दिषु प्राप्तप्रयोजनः ॥ प्रागुक्तो मंडलबेद । इदा नीमुपपद्यते ॥ १५ ॥ त्रिविधानीह ऋदाणि| समक्षेत्रा म नचितपणाने पामे? एम जो शंका होय तो नहीं सांभळ? ॥ ११ ॥ नदात्रोनो चंद्रादिकसाथेनो संयोग कोश निश्चित दिवसे यतो नथी, अथवा निश्चित दिव. से निश्चित वखते पण थतो नथी. ॥ ७॥ अने तेथी कह्यामुजब भागरूप ते ते मंडलोमां ते ते नदात्रसंबंधि सीमानी पहोळा कही. ॥ १३ ॥ अने प्राप्ति होते ते चंद्रादिकनो योग नदालोसाथे थाय , अने एवी रीते जुदा मंडलमा रहेला सूर्यनो पण योग जाणवो. ॥१४॥ अने एवीरीते नदात्रोनी सीमानी पहोनश्यादिकमां जेनुं प्रयोजन प्राप्त थयुं ने एवो ते पूर्व कहेलो मंडलबेद
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(१७४) णि कानिचित् ॥ कियंति चार्धक्षेत्राणि । सार्थक्षेत्राणि कानिचित् ॥ १६ ॥ क्षेत्रमुष्णविषा याव-दहोरात्रेण गम्यते ॥ तावक्षेत्रं यानि भानि । चरति शशिना समं ॥७॥ समक्षेत्राणि तानि म्यु-रक्षेत्राणि तानि च। अर्ध यथोक्तक्षेत्रस्य । यांति यानींदुना सह ॥ 90 य. थोक्तक्षेत्रमध्यर्ध । प्रयांति यानि चेंदुना ।। स्युन्तानि सा. र्धक्षेत्राणि । वयं तेऽग्रेऽभिधानतः ॥ ए॥ तत्र पंचद. शाद्यानि । षट्कं षट्कं परवयं ॥ अहोरात्रः सप्तषष्टिहवे प्राप्त थाय . ॥ १५ ॥ अहीं नदात्रो त्रण प्रकारनां बे, केटलांक समक्षेत्रवाळ, केटलांक अर्थक्षेत्रवाळां अने केटलांक दोढ क्षेत्रवाळां . ॥ १६ ॥ एक अहोरात्रमा सूर्य जेटलां क्षेत्रमा गमन करे, तेटलां क्षेत्रमा जेटलां नदात्री चंद्रसाथे चाले , ॥ ७ ॥ ते नदात्रो समक्षेत्रवाळां कहेवाय, अने जे नदात्रो नपर कहेला क्षेत्रना अ. धनागमां चंद्रनी साथे चाले , तेन अर्धक्षेत्रवाळां क. देवाय ॥ १० ॥ अने नपर कहेला दोढ क्षेत्रमा जे नदतो चंद्रनी साथे चाले , तेन सार्धक्षेत्रवाळां कहे. वाय , अने तेजेनां नामो यागळ कहीशं. ॥ ए॥ त्यां पहेली जातना पंदर, अने बीजी बे जातोनां 3
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(१०५) जागीकृतोऽत्र कल्प्यते ॥ ७० ॥ ततः समक्षेत्रनानि । प्र. त्येकं सप्तषष्टिधा ॥ कटप्यानीति पंचदश । सप्तषष्टिगुणी कृताः ॥ ७१ ॥ जातं सहस्रपंचाब्य-मर्थक्षेत्रेषु नेषु च ॥ सार्धास्त्रयस्त्रिंशदंशाः । प्रत्येकं कल्पनोचिताः ॥७॥ ततश्च-पडनाः सार्धास्त्रयस्त्रिंश-ज्जातं सैकं शतवयं ॥ सार्धक्षेत्रेषु प्रत्येकं । भागाश्चा(शयुक्शतं ॥३॥ सा. र्धदेत्राणि षमिति । त एते षगुणीकृताः ॥ सत्रीणि प. दशतान्येक-विंशतिश्चाभिजिल्लवाः ॥ ४ ॥ अष्टादश बे. हवे यहीं एक अहोरात्र एवो कल्पवो, के जेना समसठ नागो थाय. ॥ ७० ॥ परी समक्षेत्रवाळां दरेक नदात्रने सडसठ भागवाळा कल्पवा. अने तेथी ते पंद. रनी संख्याने समसटे गुणवी, ॥ १ ॥ एटले ते एकह जारने पांच थया. हवे अर्धक्षेत्रवाळां नदात्रोमांथी दरेकने साडीतेंत्रीस भागवान कल्पवा. ॥ २ अने पछीते सामीतेंत्रीसनी रकमने गए गुणवी, के जेथी बसो एक धया. हवे सार्धक्षेत्रवाळां नदात्रोमांना दरेकना एकसो अर्ध भागो कल्पवा, ॥ ७३ ॥ पनी ते सार्धदेतो छ होवाथी तेने छए गुणवा, के जेथी सोने त्रण अने एकवीश अभिजितना लवो थया. ॥ ॥ एवी रीते
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( १९०६) शतान्येवं । त्रिंशानि सर्वसंख्यया || एतावदंशप्रमितं । स्यादेकमर्धमंडलं ॥ ८९ ॥ तावदेवापरमिति । द्वान्यामिदं निहन्यते ॥ षष्ट्यधिकानि षट्त्रिंश - बतानीत्यभवदि ॥ ८६ ॥ त्रिंशन्मुहूर्ता एकस्मिन्नहोराव इति स्फुटं ॥ सषष्टिषद त्रिंशदंश - शतेषु कल्पनोचिताः ॥ ८१ ॥ त्रिंशा विभागाः प्रत्येकं । गुण्यंते त्रिंशतेति ते ॥ जातं लक्षमेकमष्टा - नवत्या सहितं शतैः ॥ ८८ ॥ एतस्मान्मंडलच्छेद - मानादेव प्रतीयते ॥ शशांकनास्करोगूनां । गत्याधिक्यं यथोत्तरं ॥ ८९ ॥ तथाहि - एकैकेन मुहू
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सर्व मळीने पारस वीस थया, पने तेटला अंशोनुं एक अर्धमंडल थाय ॥ ८९ ॥ यने तेटबुंज बीजुं मंडलदोवाथी तेने बेए गुणवाथी बलीसस साठ थया. | || ६ || हवे एक होरात्रमां प्रगटरीते बीस मुहूर्तो होय बे, माटे ते बीससो साठ अंशोमां कल्पवालायक ॥ ८१ ॥ त्रीस बेवडीया भागो वे, जेथी ते दरेकने वी से गुणवाथी एक लाख अठाणुसो थया ॥ ८ ॥ ने मंडल वेदना ते प्रमाणीज चंद्र, सूर्य तथा नक्षत्रोनुं नत्तरोत्तर गतिनुं प्रधिकपणुं प्रतीत थाय वे ॥ ८५ ॥ ते कहे बे- एकेके मुहूर्ते चंद्र ज्यारे लीलापूर्वक चाले ने,
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(१७) तैन । शशी गति लीलया ॥ प्रक्रांतमंडलपरि-क्षेपांशानां यदा तदा ॥ ए०॥ अष्टषष्ट्या समधिक-रधिकं सतभिः शतैः॥ सहस्रमेकमर्कस्तु । मुहूर्तेनोपसर्पति॥१|| त्रिशान्यष्टादश शता-न्युमूनि संचरंति च ॥ पंचत्रिंशसमधिका-न्यष्टादशशतानि वै ।। ए॥ नक्तंदुनास्करोमनां । गतिः प्राग्योजनामिका ॥श्यं वंशात्मिका चिंत्यं । पौनरुक्त्यं ततोऽत्र न ॥ ५३ ॥ विशेषस्त्वनयोर्ग: योः । कश्चिन्नास्ति स्वरूपतः ॥ प्रत्ययः कोऽत्र यद्येवं । तत्रोपायो निशम्यतां ॥ ए ॥ स्वस्वमंगलपरिधि-मंडसारे ते चालता मंमलना घेरावाना अंशोमाहेला ॥५०॥ एक हजार सातसो घडसठजेटला अंशोमां जाय ,अ. ने सूर्य तो एक मुहूर्तमां ॥ १ ॥ बढारसो त्रीस अंशो जाय , अने नदात्रो अढारसो पांतीस अंशो जाय . ॥ ए ॥ चंद्र, सूर्य अने नदालोनी जे पहेलां गति क. ही , ते जोजनरूप जाणवी, अने या अंशरूप में, मा. टे यही पुनरुक्तिदोष चिंतववो नहि. ॥ ५३ ॥ श्राब. ने प्रकारनी गतिमां स्वरूपथी कई तफावत नथी, माटे वहीं खातरी शुं? एम जो शंका होय तो सांभल ? ॥ ॥ ए४ ॥ पोतपोताना मंमलनो वेरावो मंमलबेदनी र.
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(१९) लबेदराशिना ॥ विनज्यते यल्लब्धं त-सुधिया तोड्यते किल ॥ ए५ ॥ उक्तेदामुनागात्म-मुहूर्तगतिराशिभिः ॥ मुहूर्तगतिरेषां स्या-त्पूर्वोक्ता योजनामिका ॥ ६ ॥ त्रैराशिकेन यदिवा । प्रत्ययोऽस्या विधीयतां ॥ किं ततत्रैराशिकमिति । यदीडा तन्निशम्यतां ॥ ७ ॥ स्यान्मंडलापूर्तिकालो । विधोः प्राग्वत्स वर्णितः ॥ पंचविशाः शताः सप्त । सहस्राश्च त्रयोदश ॥ ए॥ अस्यो. पपत्तिर्योजनात्मकमुहूर्तगत्यवसरे दर्शितास्ति, ततश्च
पंचविंशसप्तशत-त्रयोदशसहस्रकैः ॥ मुहूर्ताशैलकमश्री नांगवो, अने जे पावे तेने बुध्विाने ॥ ५॥ कहेल चंद्र, सूर्य अने नदात्रना भागरूप मुहूर्तगतिनी र. कमथी गुणवी, के जेथी तेजनी पूर्व कहेली जोजनरूप मुहूर्तगति थाय. ॥ ६॥ अथवा त्रैराशिकथी तेनी खा. तरी करवी, ते त्रैराशी कश? एम जो जाणवानी इला होय तो सांभळ ? ॥ ५ ॥ चंद्रनो मंडल संपूर्ण करवा नो काल पूर्व कह्यामुजब तेर हजार सातसो पचीसनो थाय ने ॥ ॥ पानी प्राप्ति जोजनरूप मुहूर्तगतिव. खते देखामी ने, अने तेथी
तेर हजार सातसो पचीस मुहूर्ताशोए जो एक ला.
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( ? V v.) दमष्टा - नवतिश्च शता यदि ॥ एए ॥ मंगलांशा छावायं । ताप्यं तदा कति ॥ एकेनांतर्मुहूर्तेन । राशिवयमिदं लिखेत् || ६०० | १३१२५, १०[५८००, १ ॥ खाद्य राशिमुहूर्त - रूपों यस्तु मुहूर्त्तकः ।। सावयार्थ - मेकविंश. - द्विशत्यां यो निहन्यते ॥ १ ॥ एकविंशा द्विशती स्या - मध्यराशिरथैतया ॥ हतः कोटिद्वयं लक्षा | विचत्वारिंशदेव च ॥ २ ॥ पंचषष्टिः सहस्राणि । शतान्यष्ट नवंत्यतः || पंचविंशसप्तशत - त्रयोदशसहस्रकैः ॥ ॥ २ ॥ एषां जागे हृते लब्धा | मुहूर्तगतिरैदेवी || नागात्मिका यथोक्ता च । सा रवेरपि जाव्यते ॥ ३ ॥ पूख नवदजार घ्याउसो || || मंडलांशो यावे, तो एक अंतर्मुहूर्ते केटला यावे ? एवीरीते ऋण राशि लखवी . ॥ ६०० ।। १३१२५, १०७८०० १ ॥ दवे तेमां पहेली रकम मुहूर्ताशरूप वे, ने बेल्ली मुहूर्तरूप वे, माटे तेनुं सवर्णपणुं करवामा बेली रकमने बसोएकवीसे गुणवी ... ॥ १ ॥ त्यारे ते बसोएकवीस थाय. तेवडे मध्यनी रकः मने गुणवाथी ने क्रोम बेतालीस लाख ॥ २ ॥ पांसठ हजार ने वासो थाय, तेने तेर हजार सातसो पचीसे जांगवाथी || २ || पूर्वे कह्यामुजब जागरूप चंडनी
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(२००) वोक्तो मंडलबेद-राशिः षष्ट्या मुहूर्त्तकैः॥ यद्याप्यते मु. हूर्तेन । तदैकेन किमाप्यते ॥ ४ ॥ ६०, १०[७००, १॥ गुणितोत्येनैककेन । मध्यराशिस्तथा स्थितः ॥ अष्टाद. शशतीं त्रिंशां । यबत्याधेन नाजितः ॥ ५॥ भमंडलपू. र्तिकाल-मानं नवेत्सवर्णितं ॥ षष्टियुक्ता नवशती. । सहस्राश्चैकविंशतिः ॥ ६॥ नपपत्तिरस्य योजनात्मकगत्यव. सरे दर्शितास्ति, ततश्च-एतावनिर्मुहू शै-ममलबेदसंचयः ॥ प्रागुक्तशेतन्यते त-महतैन किमाप्यते ॥9॥ २१५६०, १०ए०००, १ ॥ सावा याद्यांतिमयो-गुण्यमुहूर्तगति थावे, थने ते सूर्यनी पण भावी लेवी. ॥३॥ पूर्व कहेली मंमलबेदनी रकम जो साठ मुहूर्ते आवे, तो एक मुहूर्ते शुं श्रावे? ॥ ४ ॥ ६०, १०एन००, १॥जे. वी एकनी रकमथी गुणेली वचली रकम एमनी एमज रही, थने तेने पहेली रकमे नांगवाथी बढारसो त्रीस श्राव्या. ॥ ५॥ पनी नदात्रमंडलनुं संपूर्ण कालमाने सवर्णित करवाथी एकवीस हजार नवसो थने साठ थ. या. ॥ ६॥ तेनी युक्ति जोजनरूप गतिने अवसरे दे. खामी ने. अने पली-एटला मुहूर्ताशोए पूर्व कहेलो मंमलबेदनो संचय जो प्राप्त थाय तो एक मुहूर्ते शुं था
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तेंतिम एककः ॥ ससप्तषष्ट्या त्रिशत्या । तादृण्रूपः स जायते ॥ ८ ॥ दतोऽनेन मध्यराशि- चतस्रः कोटयो भवेव ।। द्वे लक्षे षमवतिश्व । सहस्राः षट् शतानि च ॥ ॥ १० ॥ तस्याद्यराशिना जागे । लब्धा जानां लवात्मिका || प्रष्टादशशती पंच - त्रिंशा मुहूर्तजा गतिः ||११|| इति दिग्योगः, तत्प्रसंगात्सीमा विष्कंनादिनिरूपणं च ब्रह्मा १ विष्णु २ र्वसु ३ चैव । वरुणा ४ जा ९ निवृद्ध : यः ६ ।। पुषा 9 श्वश्च यमो ऽमिश्च १० । प्रजापति ११ स्ततः परं ॥ १२ ॥ सोमो १२ रुद्रो) १३ दितिश्चैव १४ वे? ।। ७ ।। २१[५६०, १०[५८००, १ ॥ सवर्णपणाथी पहेली ने बेल्ली रकममांधी एक बेल्ली रकम ऋणसो सडसठे गुणवी, एटले ते तेटलीज रहे बे. ॥ ८ ॥ छाने तेथी गुणेली वचली रकम चार क्रोड, बे लाख छन्नु ह जार छाने बसो थाय बे ॥ १० ॥ तेनें पहेली रकमे नांगवाथी नक्षत्रोनी ढारसो पांत्रीस जागो जेटली मुहूर्त गति यावी. ॥। ११ ॥ एवीरीते दिग्योग को छाने तेना प्रसंगधी सीमा तथा विष्कंभध्यादिकनुं निरूपण क यु. ब्रह्मा, विष्णु, वसु, वरुण, छाज, अभिवृद्धि, पुषा, टाश्व, यमा, मि, प्रजापति ॥ १२ ॥ सोम, रुद्र, दिति.
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(१०२) । बृहस्पति १५ स्तथापरः ॥ सर्पो १६ परः पितृनामा १७ ।नगो १० ऽर्यमानिधोऽपि च १५ ॥१३॥ सूर १० स्त्वथा २१ तथा वायु २५–रिंडामी एकनायकौ २३ ॥ मि३ २४ नैऋता २५-२६ थापो २७ । विश्वदेवास्त्रयोदश २० ॥ १४ ॥ अनिवृधेरहिर्बुध्न । श्त्याख्यान्यत्र गीयते। सोमश्चंद्रो रविः सूर । ईदृशाख्याः परे सुराः ॥ १५॥ बृ. हस्पतिरपि प्रसिझो ग्रह एव. श्रमी अभिजिदादीनामुनामधिपाः स्मृताः ॥ येषु तुष्टेषु नदत्र-तुष्टी रुष्टेषु तपुषः ।। १६ ॥ देवानामप्युठूनां स्युर्यदधीशाः सुराः परे । तत्पूर्वोपार्जिततप-स्तारतम्यानुभावतः ॥ १७ ॥ स्वाबृहस्पति, सर्प, पितृ, भग, अर्यम, सूर, त्वष्टा. वायु, एक नायकरूप इंद्रामि, मित्र, इंद्र, नैऋत, थाप तथा तेर विश्वदेवो ॥ १३-१४ ॥ अहिर्बुध्ननुं अभिवृधिनाम अन्य जगोए कहेवाय बे, तथा सोम, चंद्र, रवि अने सूर, ए नामना बीजा देवो . ॥ १५ ॥ बृहस्पति पण प्रसिद्ध प्रहज . आ देवो अन्निजित्यादिक नदात्रोना स्वामी बे, के जेन तुष्ट होते बते नदालो तुष्टमान थाय ने, यने रुष्ट होते ते रुष्टमान थाय . ॥ १६ ॥ देवरूप एषा ते नदात्रोना पण जे बीजा देवो स्वामी होय बे, ते
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(२०३) मिसेवकन्नावः स्या-द्यसुरेष्वपि नृष्विव ॥ यथा सुकृतमैश्चर्य तेजःशक्तिसुखादि च ॥ १७ ॥ विख्यातौ चंडसूर्यो यौ । सर्वज्योतिष्कनायकौ ।। तयोरप्यपरः स्वामी । परेषां तर्हि का कथा ॥ १५॥ तथा च पंचमांग-स. कस्स देविंदस्स देवरलो सोमस्स महारमो श्मे देवा याणा नववायवयणनिदेसे चिति, तं जहा-सोमकाश्यातिवा सोमदेवकाश्या वा विद्युकुमारा विद्युकुमारोन, अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीन, वानकुमारा वानकुमारीन पूर्व नपार्जन करेलां तपनी तरतमताना यनुनावथी जा. एवं. ॥ १७ ॥ जेम मनुष्योमां तेम देवोमां पण स्वामिसेवकनो नाव, तेमज ऐश्वर्य, तेज, शक्ति तथा सुखादिक सघg पुण्यने अनुसारे . ॥ १७ ॥ प्रसिद्ध एवा चं. 5 सूर्य के जे सर्व ज्योतिष्कना नायको , ते नो प. ण ज्यारे बीजो ग्वामी बे, त्यारे अन्योनी शुं वात कर वी? ॥ १५ ॥ पांचमा अंगमां कडं ने के-देवोनो ईद्र, देवोनो राजा, सौम्य तथा महाराजा एवो जे शकेंद्र, तेनी थाझा एट्ले हुकम नठाववामाटे या देवो तैयार रहे , ते देवो नीचेमुजब जेमोमकायना देवो अथवा सोमदेवकायना देवो, विद्युत्कुमारो, विद्युत्कुमारीन,
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( २०४ )
चंदा सुरा गढ़ा एकता ताराख्वा ' इत्यादि, इति देवताः तिस्रस्तिस्रः पंच शतं । द्वे द्वे द्वात्रिंशदेव च ॥ तिस्रस्तिस्रः षट् पंच । तिस्र एका च पंच च ॥ २० ॥ तिखः पंच सप्त च द्वे । द्वे पंचैकैकिका द्वयोः ॥ पंच चतस्रस्तिखश्च । तत एकादश स्मृताः ॥ ॥ २१ ॥ चतस्रश्च चतस्रश्च । तारासंख्या निजित्क्रमात ॥ ज्ञेयान्युरुविमानानि | ताराशब्दाद्बुधैरिह || २२ || न पुनः पंचमज्योति - मैदगाः किख तारकाः ॥ विजातीयः समुदायी । वि. जातीयच्चयान्न हि || २३ || प्रथीयांसि विमानानि । न
यमकुमारो, यमकुमारी, वायुकुमारो, वायुकुमारील, चंद्र, सूर्यो ग्रहो, नक्षत्रो, तारा, श्यादि देवो जावा. aण, त्रण, पांच, सो, बे, बे, बत्रीस, त्रण, वण, ब, पांच, त्रण, एक, पांच, ॥ २० ॥ त्रण, पांच, सात, बे, बे, पांच, बेमां एकेक, पांच, चार, वण, अभ्यार, ॥ २१ ॥ चार ने चार, एरीते अनुक्रमे अजिजितथी मांमीने तासनी संख्या जावी, छपने यहीं ताराशन्दथी वि
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दान ते नदोनां विमानो जाएवां ॥ २२ ॥ परंतु ज्योतिष्कना पांचमा नेदरूप ताराजने छाहीं न जाणवा, केमके विजातीयना कथनथी समुदायरूप विजातीय ले
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VANI
( ३०५) दाताणां लघूनि च ॥ तारका ततोऽप्यैक्यं । युक्तिः सासहि नानयोः ॥ २३ ॥ किंच कोटाकोटिरूपा । तारासंख्यातिरिच्यते ॥ अष्टाविंशतिरूपा च । ऋदसंख्या वि. लीयते ॥ २४ ॥ तद्विव्यादिविमानेशः। स्याद्देवोन्नि जिदादिकः । गृहध्यायधिपति-र्यथा कश्चिन्महर्धिकः ॥ ॥ २५ ॥ एवं च न काप्युपत्तिः तारासंख्याप्रयोजनं च. वारुण्यां दशमी त्याज्या । द्वितीया पौष्णभे तथा ।। शे पामुष्वशुना स्वस्व-तारासख्यासमाातायः॥ २६॥ खाय नहि. ॥ १३ ॥ नदात्रोनां विमानो महोटां ने, अने तारानां नानां ने, अने तेथी पण तेन बनेनु एकपणुं युक्तिवाळु नथी. ॥ १३ ॥ वळी ताराननी कोटाकोटिरूप संख्या अधिकी ने, अने नदात्रोनी संख्या अगवीसरूप नंगी . ॥ २४ ॥ माटे जेम कोक महासमृधिवालो माणस बेघरबादिकनो स्वामी होय , तेम अभिजित श्रादिक देव पण बे प्रणयादिक विमानोना स्वामी जे. ॥ २५ ॥ एवीरीते तेसंबंधि कई पण युक्ति के ताराना नी संख्या- यही प्रयोजन नथी. उत्तरामां दशमी, त. था पुष्णनदात्रमा बीज तजवी, बाकीना नदात्रोमां पोतपोताना तारानी संख्यासरखी तिथिन अशुभ जाण
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(२०६) वि तागसंख्या ॥
गोशीर्षपुद्गलानां या । दीर्घा श्रेणिस्तदाकृति ॥ गोशीर्षावलिसंस्थान-मनिजित्कथितं ततः ॥ २७ ॥ का. सारानं श्रवणानं । पदिपंजरसंस्थिता ॥ धनिष्टा शततारा च । पुष्पोपचारसंस्थिता ॥ २ ॥ पूर्वोत्तराभद्रपदे । थ र्धिवापिकोपमे ॥ एतदर्धदययोगे । पूर्णा वाप्याकृतिनवेत् ॥ श्ए ॥ पोष्णं च नौसमाकार-मश्वस्कंधाभम श्विनं । नरणी नगसंस्थाना । रारधारेव कृत्तिका ॥३०॥ वी. ॥ २६ ॥ एवीरीते ताराननी संख्या जाणवी.
गोशीर्षपुलोनी जे लांबी श्रेणि तेसरखा श्राकाखाडं एटले गोशीर्षन) श्रेणिजेवा संस्थानवाळु अनिजि. तनदात्र . ॥ २७ ॥ श्रवणनदात्र तळावजेवू . धनिष्टा पदिना पांजरांजेवा याकारवाळु , अने शततारा पुष्पमाळाजेवू . ॥ २० ॥ पूर्वा नत्तरा थने भद्रपदा अर्धा वर्षी वावमीजेवा , घने ते बन्ने अर्धने मेळववाथी संपूर्ण वावडीजेवो आकार थाय . ॥ श्ए ॥ पौष्णनदत्र वहाणसरखा श्राकारवाचु, अश्विन घोडानी खांधसरखा आकारखाबु, भरणी नगसरखा थाकारखाबु, कृत्तिका थनानी धारजेवू. ॥ ३० ॥ ब्राह्मीनदात्र नंचां करेला
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(२०७) शकटोझैसमा ब्राह्मी । मार्ग मृगशिरःसमं । यार्दा रुधिरबिंदाभा । पुनर्वसू तुलोपमौ ॥ ३१ ॥ वर्धमानकसंस्थानः। पुष्पोऽश्लेषाकृतिः पुनः ॥ पताकाया श्व मघाः । प्राकाराकारचारवः ॥ ३ ॥ पूर्वोत्तरे च फाल्गुन्या-व. र्धपत्यंकसंस्थिते ॥ यत्राप्येतद्वययोगे । पूर्णा पट्यंक. संस्थितिः ॥ ३३ ॥ हस्तो हस्ताकृतिश्चित्रा । संस्थानतो नवेद्यथा ॥ मुखममनरैपुष्पं । स्वातिः कोलकसंस्थिता ॥ ॥ ३४ ॥ विशाखा पशुदामामा । राधैकावलिसंस्थिता ॥ गजदंताकृतिज्येष्टा । मूलं वृश्चिकपुलवत् ॥ ३५ ॥ गज गाडांजेवू, मृगशीर हरणना मस्तकजे, बार्दा लोहीना बिंदुजे, पुनर्वसु लाजवांजेवू, ॥ ३१ ॥ पुष्पनदात्र सा. थीया श्राकारे ३, अने अश्लेषानो आकार पताकाजेवो बे, अने मघा प्राकारना याकारजेवी मनोहर . ॥३॥ पूर्वा धने उत्तराफाल्गुनी अर्धपलंगजेवा कारवाळी . श्रने ते बन्नेना मेलापथी संपूर्ण पलंगनो याकार थाय . ॥ ३३ ॥ हस्तनदान हायजेवा आकारखाबु , चित्रा मुखना मंडनरूप स्वर्णपुष्पजेवू , अने स्वातिनदान खी. लाजेवू . ॥ ३४ ॥ विशाखा पशुना दामणाजे, राधा एकावलीहारजे, ज्येष्टा हाथीना दांतजे, अने मूल
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( 200 ) विक्रम संस्थानाः । पूर्वाषाढाः प्रकीर्तिताः ॥ ध्याषाढा श्रोतराः सिंहो - पवेशनसमा मताः || ३६ || खोके तु रत्नमालायां - तुरगमुखसदृद्धं योनिरूपं क्षुराभं । शकटसम मथैणस्योत्तमांगेन तुल्यं ॥ मणिगृदेशरचना निशालोपमं । शयनसदृशमन्यच्चाव पर्यकरूपं || ३१ || दस्ताकारनिजं च मौक्तिकनिमं चान्यत्प्रवालोपमं । धिष्ण्यं तोरावस्थितं मणिनिनं सत्कुंमलानं परं ।। क्रुयत् केस रिविक्रमेण सदृशं शय्यासमानं परं । चान्यद्दंति विलासवत्स्थितमतः शृंगाटकव्यक्ति च ॥ ३८ ॥ विविक्रमानं च मृदं
बीनी पुंबडी जेवुं . ॥ ३५ ॥ पूर्वाषाढा गजवित्र मजेवी कढ़ी वे, तथा उत्तराषाढा सिंहना बेसवासरखी कही बे. ॥ ३६ ॥ रत्नमाला नामना लौकिक शास्त्रमां तोघोडाना मुखजेवं, योनिजेतुं क्षुरजेवं, गाडाजेवुं, मृगना मस्तक जेवुं, तेमज मणि, घर, बाण, चक्रनी घरी तथा वृक्षजेवं नक्षत्र बे, वळी शय्यासरखं तथा बीजुं पलंगस मान नदव बे ॥ ३१ ॥ हाथना घ्याकार, मोती, प्रवाखा, तोरणा, मणि, कुंमलसमान, क्रोधायमान थता सिं हना पराक्रमसमान, शय्या, हाथीना विलास, शिंगोडांसमान ॥ ३८ ॥ विविक्रम, मृदंग, गोळ, बे जोडलां,
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(१० )
san गरूपं । वृत्तं ततोऽन्यद्यमलध्यान । पर्यकरूपं मुरजानु कार-मित्येवमश्वादिभचक्ररूपं ॥ ३५ ॥ इत्याकृतिः ।। समषष्टिलवैः सप्त-विंशत्यान्यधिकान्यथ ॥ योगो नवमुहर्तानि । शशिनानिजितो मतः ॥ ४०॥ ज्येष्टाश्लेषाजरण्याः । स्वातिश्च शततारिका ॥ मुहूर्तोनि पंचदश । योग एषां सुधांशुना ॥ ४१ ॥ उत्तरात्रितयं ब्राह्मो। वि. शाखा च पुनर्वसू ॥ पंचचत्वारिंशदेषां । मुहूर्तान् योग इंदुना ॥ ४२ ॥ पंचदशानां शेषाण-मुनां शशिना सह ॥ योगस्त्रिंशन्मुहूर्तानी–त्येवमाहुर्जिनेश्वराः ॥४३॥ पलंग तथा मुरजसमान, एवीरीते अश्वादिक नदालोना समूहनी श्राकृति . ॥ ३५ ॥ एवीरीते श्राकार जाणवो. ॥ अजिजित्नदात्रनो चंद्रसाथे नव मुहूर्तो बने स. तावीस साठीया नागोजेटलो संयोग . ॥ ४० ॥ ज्येटा, अश्लेषा, नरणी, यार्दा, स्वाति, तथा शततारा, एटलानो चंद्रसाथे पंदर मुहूर्तोनो योग ने. ॥४१॥ त्रण उत्तरा, ब्राह्मी, विशाखा, अने पुनर्वसू, एटलां नदात्रोनो पस्तालीस मुहूर्तोसुवी चंद्रसाथे योग . ॥ ४२ ॥ बाकी नां पंदर नदलोनो चंद्रसाथे त्रीस मुहूर्तासुधी योग ने, एम जिनेश्वरो कहे . ॥ ४३ ॥ तेननुं प्रयोजन कहे
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(२१०) प्रयोजनं त्वेषां-मृते साधौ पंचदश-मुहूर्ते नैव पुत्र कः ॥ एकस्त्रिंशन्मुहूर्तेस्तु । क्षेप्यः शेषैस्तु नेरुनौ ।।४।। एतान्यर्धसार्धसम-क्षेत्राण्याहुर्यथाक्रम ॥ श्रयैषां रविणा योगो । यावत्कालं तदुच्यते ॥ ४५ ॥ मुहूत रेकविंशत्या -ढ्यानि रात्रिंदिवानि षट् ॥ अर्धक्षेत्राणामुमूनां । यो गो विवस्वता सह ॥ ४६॥ सार्थक्षेत्राणां तु भानां । योगो विवस्वता सह ॥ विनिर्मुहूतैर्युक्तानि । रात्रिंदिवानि विंशतिः ॥ ४ ॥ समक्षेत्राणामुना–महोरात्रांस्त्रयोद.
-पंदर मुहूर्तवाळां नदात्रमा जो साधु काळ करे, तो एके पुतळु कर नहि. त्रीस मुहूर्तवाळां नदातमां काळ करे तो एक पुतळं करवू. अने बाकीनां नदात्रोमां जो काळ करे तो बे पुतळां करवां. ॥ ४४ ॥ ते नदालोने वर्ष, सार्ध तथा समक्षेत्रोवाळ अनुक्रमे जाणवां. हवे तेजनो सूर्यसाथे जेटला काळसुधी योग होय , ते कहे . ॥ ४५ ॥ अर्थक्षेत्रवाळां नदात्रोनो सूर्यसाथे एक वीस मुहूर्तासहित छ रात्रिदिवसोसुधी योग होय . ॥ ॥४६ ॥ सार्धक्षेत्रवाळां नदात्रोनो सूर्यसाथे त्रण मुहता. सहित वीस रात्रिदिवसोसुधी योग होय . ॥ ४७ ।। समक्षेत्रवाळां नदात्रोनो बार मुहूर्तासहित तेर अहोरात्रो
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(११) श ॥ मुहतैश्च द्वादशनि-रधिकान रविसंगतिः ॥४॥ रात्रिंदिवानि चत्वारि । षण्मुहूर्ताधिकानि च ॥ नदात्रमनिजिच्चारं । चरत्युष्णरुचा सह ॥ ४ए॥ अत्रायमानायः-सप्तषष्टयुद्भवानंशा-नहोरात्रस्य यावतः ॥ यन्नदा. त्रं चरत्यत्र । रजनीपतिना सह ॥ ५० ॥ तनदत्रं ताव. तोऽहो-रात्रस्य पंचमान लवान् ॥ जानुना चरतीत्यत्र । दृष्टांतोऽप्युच्यते यथा ॥ ११ ॥ सप्तषष्टिलवानेक-विंशति शशिना सह ॥ चरत्यनिजिदर्केण । तावतः पंचमान लवान् ॥ ५५ ॥ अहोरात्रस्येति शेषः, अथैकविंशतिः पं. नो सूर्यसाथे योग होय . ॥ ४ ॥ अभिजित् नदात्र ब मुहूर्त अधिक चार अहोरात्रसुधी सूर्यसाथे गमन करे . ॥ ४५ ॥ यहीं नीचेमुजब थाम्नाय -एक अहो. रावना जेटला समसठीया भागोसुधी जे नदात्र चंनी. साथे चाले बे, ॥ ५० ॥ ते नदात्र यहोरावना तेटला एकपंचमांश नागोसुधी सूर्यनी साथे चाले ने, तेमाटे नीचेमुजब दृष्टांत कहे . ॥ ५१॥ जेमके अभिजितनदात्र चंद्रसाथे एकवीस मडसठीया नागोसुधी चाले ने, त्यारे ते सूर्यसाथे तेटला एकपंचमांश भागोसुधी चाले .॥ ५॥ ते जागो एक अहोरात्रना जाणवा. हवे
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( २१३) च-नक्ता दिनचतुष्टयं ॥ दद्यादेकोंशकः शेष-स्त्रिंशता स निहन्यते ॥ ५३ ॥ जाता त्रिंशदथैतस्याः। पंचन्निनजने सति ॥ षण्मुहूर्ताः करं प्राप्ता । एवं सर्वत्र भावना ॥५४॥ तथाः -जं रिखं जावश्ए । वच चंदेण नागसत्तठी ॥ स पणनागे राई-दियस्स सुरेण तावश्ए ॥ ५५ ॥ सप्तषष्टिस्तदर्ध च ३३॥ । स्त्रिंशं तथा शतं ॥ समाप्रसाईक्षेत्रेषु । सप्तषष्टिलवाः क्रमात् ॥ २६ ॥ ६ ति सूर्ये योगाघामानं ॥ ऋक्षेषु येषु मासानां । प्रायः ते एकवीसने पांचे नागवाथी चार दिवसो आवे, अने बाकी एक अंश वधे, तेने तीसे गुणवा, ॥ ५३॥ त्या रे त्रीस थया, तेने पांचे नागवाथी उ मुहर्तो याव्या, एवीरीते सर्व जगोए नावना करी लेवी. ॥ २४ ॥ कहूं
के–जे नक्षत्र एकरात्रिदिवसना जेटला सडसठीया नागोसुधी चंद्रसाथे चाले तेटला पांचीया भागोसुधी ते सूर्यसाथे चाले . ॥ २५ ॥ सडसठ, साडीतेंत्रीस तथा एकसो चोत्रीस एटला सडसठीया भागो अनुक्रमे सम, वर्ष तथा सार्धक्षेत्रोवाचं नक्षत्रोमां जाणवा. ॥ १६ ॥ एवीरीते सूर्यचंऽसाथेना नदात्रोना योगर्नु कालमान का मु.॥ जे नदात्रोमां प्रायें करीने मासोनी समाप्ति थाय
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परिसमाप्तयः ॥ तानि माससमाख्यानि । स्युः ऋदाणि कुलाख्यया ॥ २७ ॥ प्रायोग्रहणतश्चात्र । कदाप्युपकुलो. मुनिः ॥ समाप्तिर्जायते मासां । नैः कुलोपकुलैरपि ॥ ॥ ५० ॥ कुलोमुन्योऽधस्तनानि । जवंत्युपकुलान्यथ ॥ स्युः कुलोपकुलाख्यानि । तेन्योऽप्यधस्तनानि च ॥१ तानि चैवमाहुः-कुलमान्यश्विनी पुष्पो। मघा मूलोत्त रात्रयं ॥ दिदैवतं मृगश्चित्रा । कृत्तिका वासवानि च ॥ ॥ ६० ॥ उपकुव्यानि जरणी । ब्राह्यं पूर्वोत्रयं करः ॥ ऐंद्रमादित्यमश्लेषा । वायव्यां पौष्णवैष्णवे ॥ ६१ ॥ कु. बे, तेन कुलना नामवडे मास नामना नदत्रो होय . ॥ ५७ ॥ यहीं प्रायशब्दना ग्रहणथी कदाचित् नपकुलनदात्रोयी अने कुलोपकुलनदात्रोथी पण मासोनी समा. प्ति थाय . ॥ २७ ॥ कुलनदत्रोथी नीचेना नपकुल नदात्रो होय . अने तेथी पण नीचेना कुलोपकुल ना. मनां नदत्रो होय . ॥ ५५ ॥ तेन नीचेमुजब कहे वाय -अश्विनी, पुष्प, मघा, मूल, त्रण उत्तरा, बे देववाळू, मृगशीर्ष, चित्रा, कृत्तिका अने वासव, ए कुल नदतो . ॥ ६०॥ भरणी, ब्राह्म, त्रण पूर्वा, हस्त, ऐंद्र, थादित्य, अश्लेषा अने वायव्यमा पौष्ण तथा वैष्णव, ए
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२१४. 3727171
लोपकुल नान्यार्द्रा भिजिन्मैत्राणि वारुणमिति, कुलादिप्रयोजनं त्विदं - पूर्वेषु जाता दातारः । संग्रामे स्थायिनां जयः ॥ प्रन्येषु त्वन्यसेवार्त्ता । यायिनामसदाजयः ॥ ॥ ६२ ॥ इति कुलाद्याख्यानिरूपणं ॥
धनिष्टाथोत्तराद्र - पदाश्विनी च कृत्तिकाः ॥ मा र्गः पुष्पश्चैव मघा । उत्तराफाल्गुनीति च ।। ६३ ।। चि. वा विशाखा मूलं चो - तराषाढा यथाक्रमं ॥ श्रावणादिमासराकाः । प्रायः समापयंति यत् ॥ ६४ ॥ तत एव उपकुलनक्षत्रो वे ॥ ६१ ॥ वळी यार्द्रा, अभिजित, मै. त्राने वारुण ए कुलोपकुलनवो वे, कुखादिकनुं प्रयोजन नीचेप्रमाणे - कुलनात्रोमा जन्मेलान दातार थाय बे, ने संग्राममां जवाथी तेजनो जय थाय बे, छाने बीजां नात्रोमा जन्मेलान परसेवाथी पीडाये. ला, तथा संग्रामादिकमां जवाथी तेजने हमेशां जय म ळतो नथी. ॥ ६२॥ एवीरीते कुलादिकनुं निरूपण कर्यु.
धनिष्टा, उत्तराजद्रपदा, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशीर, पुष्प, मघा, उत्तराफाल्गुनी ॥ ६३ ॥ चित्रा, विशा खा, मूल, पने उत्तराषाढा ए नक्षत्रो अनुक्रमे प्रायें क रीने श्रावणादिक मासोनी पुनमोने संपूर्ण करे बे. ॥
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( २१५ ) पूर्णिमानां । द्वादशानामपि क्रमात् ॥ एषामुमूनां नाम्ना स्यु- र्नामधेयानि तद्यथा ॥ ६९ ॥ श्राविष्टी च प्रौष्टपदी । तथैवाश्वयुजीत्यपि । कार्तिकी मार्गशीर्षा च । पौषी माघीच फाल्गुनी ॥ ६६ ॥ चैती च वैशाखी ज्येष्टी | मौबीत्याख्या तथा परा || व्यापादीत्यन्विता एताः । सदारूदाश्च कर्हिचित ॥ ६७ ॥ श्रविष्टा स्यानिष्टेति । तयेंदु - युक्तान्विता ॥ श्राविष्टी पौर्णमासी स्या - देवमन्या छा पि स्फुटं ॥ ६० ॥ यदा चोपकुलाख्यानि । समापयंति पूर्णिमाः । पाश्चात्यानि तदैतेन्यः । श्रवणादीन्यनुक्रमा॥ ६४ ॥ पने तेथीज ते नवोनां नामथी अनुक्रमे बारे पुनमोनां नामो थाय बे, ते नीचेमुजब वे ॥ ६५ ॥ श्राविष्टी. प्रौष्टपदी, अश्वयुजी, कार्तिकी, मार्गशीर्षी, पौबी, माघी, फाल्गुनी ॥ ६६ ॥ चैत्र, वैशाखी, ज्येष्टी त था मौली एवां बीजां नामवाळी, पने घ्याषाढी एवी रीते मळेल एवी ते कोक वखते सदारूढा वे. || ६ || त्रे. श्रविश ए धनिष्टा छे, छाने चंद्रयुक्त तेसहित श्राविष्टी पू र्णिमा थाय, एवीरीते बीजी पूर्णिमाने पण प्रकटरीते जाणवी ॥ ६० ॥ ज्यारे उपकुलनामनां नक्षत्रो पूर्णि मानने समाप्त करे वे, त्यारे तेथी पावलां श्रवणादि
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त् ॥ ६ ॥ राकास्विमाः समाप्यते । कुलोपकुलगर्यदा ॥ तदोपकुलपाश्चात्यै-रभिजित्प्रमुखैरिह ।। ७० ॥ यद्यप्यभिजिता कापि । राकापूर्तिनं दृश्यते ॥ श्रुतियोगात्त. थाप्येत-द्राकापूरकमुच्यते ॥३१॥ यस्मिन् ऋक्षे पूर्णिमा स्या-त्ततः पंचदशेऽथवा ॥ चतुर्दशेऽमावास्या स्याअपने प्रातिलोम्यतः ॥ १२॥ तद्यथा-माघे राका म. घोपेता- मावास्या च सवासवा । सवासवायां राकायां । श्रावणे सा मघान्विता ॥ १३ ॥ एवमन्यत्रापि नाव्यं, . को अनुक्रमे समाप्त करे ॥ ए॥ अने ज्यारे कु. लोपकुलनदात्रो या पूर्णिमानने समाप्त करे , उपकुलथी पाउला अभिजितयादिकोवडे ते समाप्त थाय ने. ॥ ७० ॥ जो के अन्निजित्नदात्रवडे पूर्णिमानी पूर्ति क्यांय देखाती नथी, तोपण श्रुतियोगथी ते नदत्र पू. र्णिमाने पूर्ण करनारूं कहेवाय . ॥ ७१ ॥ जे नदात्रमा पूर्णिमा थाय तेथी प्रतिलोम गणवाथी पंदरमे अथवा चौदमे अमावास्या थाय. ॥ १२ ॥ ते नीचेमुजब-म. हामासमां पूर्णिमा मघासहित अने अमावास्या वासवसहित होय, त्यारे श्रावणमासमां वासवसहित पूर्णिमा होते ते अमावास्या मघासहित होय . ॥ १३ ॥
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(१७) त्यमावास्यापूर्णिमायोगकीर्तनं ॥ यदा यदा यैर्नदौ-र स्तं यातैः समाप्यते ॥ अहोगवस्तानि वक्ष्ये । नामग्राहं। यथाक्रमं ॥ १३ ॥ तदा समाप्यते ऋदै-रात्रिरप्येभिरेव यत ॥ नच्यते रात्रिनदत्रा-ण्यप्यमून्येव तद्बुधैः ।।४।। समापयति तत्राद्या-नहोरात्रांश्चतुर्दश ॥ नभोमास्युत्तराषाढा । सप्तैतान्यभिजित्तदा ।। ७५ ॥ ततः श्रवणमप्यशा-वेकोनत्रिंशदित्य त् ।। धनिष्टा श्रावणस्यांत्य-महोरात्रं ततो नयेत् ॥ ७६ ।। नयेघनिष्टाहोरातान् । जाडएवीरीते बीजे पण नावी लेवु. एवीरीते अमावास्या अ ने पूर्णिमाना योगर्नु निरूपण कर्यु. ॥ ज्यारे ज्यारे थ. स्त पामेला जे नदात्रोधी अहोरात्र समाप्त थाय , ते. नना हवे अनुक्रमे नामो कहीशं. ॥ १३ ॥ वळी त्यारे ए नदात्रोवडे रात्रि समाप्त थाय ने, अने तेथी विद्वानो तेजनेज राजिनदात्रो कहे . ॥ १४ ॥ त्यां श्रावणमासमां नत्तराषाढा पहेला चौद यहोरात्रोने संपूर्ण करे . थने ते वखते अन्निजित् सात अहोरात्रोने पूर्ण करे .॥ १५ ॥ पली श्रवण पण आठ अहोरात्रोने पूर्ण करे , एवीरीते गणत्रीस थया. पछी धनिष्टा श्रावणनोबेहो अहोरात्र पूर्ण करे. ॥ १६ ॥ पनी नाद्रवाना
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(१०) स्याद्यांश्चतुर्दश ॥ ततः शतभिषक्सप्त । पूर्वा नद्रपदाष्ट च ।।99 ॥ सोत्तरांत्यमहोरात्रं । सैवेषस्य चतुर्दश ॥ ततः पौष्णं पंचदश । चरमं चैकमश्विनी ॥ 9 ॥ अश्विन्येव कार्तिकस्य । नयत्याद्यांश्चतुर्दश ॥ अहोरात्रान पंचदश । जरण्येकं च कृत्तिकाः ॥ ७ ॥ समापयंति ता एव । सहस्याद्यांश्चतुर्दश ।। ब्राह्मी पंचदशांत्यं च । मृगशीर्ष स. मापयेत ॥ ७० ॥ पौषस्यापि तदेवाया-नहोरावान् स. मापयेत ॥ चतुर्दश तथाष्टिौ । ततः सप्त पुनर्वसू ।।१।। चौद अहोरात्रोने धनिष्टा पूर्ण करे, पनी शतन्निषक् सात, अने पूर्वाजद्रपदा बाउ अहोरात्रो पूरा करे. ॥७॥ पछी उत्तराभऽपदा रेल्ला अहोरात्रने पूर्ण करे, अने तेज उत्तरा बासुना चौद पूरा करे, पनीना पंदर पौष्ण पूरा करे, घने गेल्या एक अहोरात्रने अश्विनीनदात्र सं. पूर्ण करे . ॥ ७० ॥ तेज अश्विनी कार्तिकमासना प. हेला चौद अहोरात्रो पूर्ण करे, पछीना पंदर नरणी त. था कृत्तिका एक अहोरात्र पूरो करे. ।। १७ ॥ तेज कृ. तिका मागसरना पहेला चौद अहोरात्रो पुरा करे, बा. झी पंदर अने मृगशीर गेलो अहोरात्र पुरो करे . ।। ॥ ७० ॥ तेज मृगशीर पोषना पहेला चौद समाप्त करे,
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(१५) पुष्पोऽस्यांत्यमहोरात्रं । मावेऽप्याद्यांश्चतुर्दश । समापयेत् पंचदशा-श्लेषा तथांतिम मघाः ॥ ७२ ॥ पूरयंति फा. ल्गुनस्य । मघा वाद्यांश्चतुर्दश ।। ततः पंचदश पूर्वाफाल्गुनी सोत्तरांतिमं ॥ ७३ । नत्तराफाल्गुनी चैत्रे । नयत्याद्यांश्चतुर्दश ॥ ततो हस्तः पंचदश । चित्राहोरात्रमं तिमं ॥ ॥ अहोरात्रांस्ततश्चित्रा । नयेचतुर्दशादिमान ॥ वैशाखस्य पंचदश । स्वातिरंत्यं विशाखिका ॥५॥ पार्दा पाठ अने पनी पुनर्वसु सात समाप्त करे ने, ॥ ॥ १ ॥ तथा तेना बेला अहोरात्रने पुष्प समाप्त करे, थने तेज पुष्प माहामासना पहेला चौद, ते पनीना पं. दर अश्लेषा, अने बेल्ला अहोरात्रने मघा समाप्त करे . ॥ ७ ॥ तेज मघा फागणना पहेला चौदने, तथा ते पजीना पंदरने पूर्वाफाल्गुनी, अने उल्ला अहोरात्रने नत्तराफाल्गुनी पुरो करे . ॥ ७३ ॥ तेज नत्तराफाल्गु. नी चैत्रना पहेला चौदने, तथा पीना पंदरने हस्त, अने उल्ला अहोरात्रने चित्रा समाप्त करे . ॥ ४ ॥ तेज चित्रा वैशाखना पहेला चौदने, स्वाति ते पीना पंदरने अने उल्ला अहोरावने विशाखा समाप्त करे . ॥ ५ ॥ तेज विशाखा जेठमहिनामां पहेला चौदने, ते
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(२०) समापयत्यथ ज्येष्टे । विशाखाद्यांश्चतुर्दश ॥ सप्तानुराधा ज्येष्टाष्टौ । मूलः पर्यंतवर्तिनं ।। ७६ ॥ मूलः समापयत्याद्या-नाषाढस्य चतुर्दश ॥ पूर्वाषाढा पंचदशो-त्तराषा ढांत्यवर्तिनं ।। ७७ ॥ संग्रहश्चात्र-सत्तठ अनिसवणे । । तह सयाभसए य पुखमद्दवए ॥ अद्दा पुणवसूए । रा हा जेहाय अणुकमसो ।। ॥ प..रसादणे सेसा । र त्तिविरामं कुणंति एकत्ता ॥ उत्तरसाढा आसाढ-च. रिमदिवसा गणिऊति ॥ नए॥ प्रयोजनं त्वेषांपछीना सातने अनुराधा, थाउने ज्येष्टा धने वेल्ला य होरात्रने मूल संपूर्ण करे . ॥ ६ ॥ तेज मूल अषाढना पहेला चौदने, तेपबीना पंदरने पूर्वाषाढा अने मेंया यहोरातने उत्तराषाढा पूर्ण करे . ॥ ७ ॥ ते. माटे नीचेमुजब संग्रहगाथा -अनिजित्, श्रवण ते. मज सतभिषक, पूर्वजद्रपदा, आर्द्रा, पुनर्वसु, राधा अने ज्येष्टा, एटलां नदात्रो अनुक्रमे सात अने पाठ अहोरात्रोने संपूर्ण करे . ॥ जज ॥ बाकीनां नदात्रो पंदर दिः वसोए रात्रिविराम करे , अने नत्तराषाढा थाषाढमासना बेला दिवसरूप गणाय . ॥ जए ॥ तेननुं प्रयो. जन नीचेमुजब
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(१५१) यथा ननश्चतुर्नाग-मारूढेऽके प्रतीयते ॥ प्रथमा पौरुषी मध्य-महश्च व्योममध्यगे ॥ ५० ॥ चतुर्मागा वशेषं च | नभःप्राप्तेंत्यपौरुषी ॥ ज्ञायते रजनीयामा । थप्येन्निरुमुगिस्तथा ॥ १ ॥ तथाहुरुत्तराध्ययने-जाणे
जया रत्तिं । णकत्तं तं मिणह चनाजागे ॥ संपत्ते विरमेज्जा । सनान पर्नसकालंमि ॥ २ ॥ तम्मेव य एकत्ते । गयणचन भागसायसेसंमि । विरत्तियंपि कालं । पडिले हित्ता मुणी कुण ॥ ए३ ॥ ग्रंथांतरे च-दह
जेम थाकाशना चोथा नागमां सूर्य आवते ते पहेली पौरुषी थाय , तथा अाकाशना मध्य नागमां श्रावते छते मध्याह्न थाय . ॥ ५० ॥ बने अाकाश. ना बाकीना चोथा जागमां सूर्य थावते छते जेल्ली पौरपीथाय , तेम था नदलोवडे रात्रिना पहोरो जाणवामां थावे . ॥ १॥ तेमाटे उत्तराध्ययनमां कडं ने के-ज्यारे नदात्र रात्रिने नत्पन्न करे, त्यारे ते रात्रिना चार नागो करवा, पहेला जागमां नदात्र आवे त्यारे प्रदोषसमये स्वाध्यायध्यानयी विरमवु. ॥ ४२ ॥ तेज नदात्र ज्यारे बाकीना चोथा नागजेटला थाकाशमां यावे सारे मुनि पडिलेहण करीने वैरात्रिककाससंबंधि क्रिया
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(११) तेरह सोलहमे । विसमे सूरियान एकत्ता ।। मनयगयं मिणेयं । रयणी जा माणपरिमाणं ॥ ४ ॥ शीतकाले च दिनाधिकमानायां रात्री सूर्यनात एकादशचतुर्दश सप्तदशैकविंशतितमैर्नदात्रैर्ननोमध्यं प्राप्तैर्यथाक्रमं प्रथमा. दिपहरांतः स्यादिति संप्रदायः. लोके च-रविरिस्कान गणियं । सिररिखं जाव सत्तपरिहीणं ॥ सेसं गुणं कि चा। तीया राई फुमा हव ॥ ५५ ॥ इत्यादि बहुधा, इत्यहोरात्रसमापकनदातकीर्तनं, समाप्तं चेदं नदानप्रकरकरे. ॥ ३ ॥ बीजा ग्रंथोमां एम कां ने के-सूर्यन दात्रथी दशमुं, तेरमुं, शोळमुं अने वीसमुं नदात्र अनु. क्रमे ज्यारे याकाशना मध्य नागमां आवे, त्यारे रात्रिना प्रथमादिक प्रहरनो अंत जाणवो. ॥ ॥ श्रने शियाळामां दिवसथी वधारे प्रमाणवाळी रात्रि होवाथी सूर्यनदत्रयी घग्यारमुं, चौदमुं. सतरमुं अने एकवीसमुं नदात्र ज्यारे श्राकाशना मध्यभागमां यावे, त्यारे अनुक्रमे रात्रिना प्रथमादिक प्रहरनो अंत थाय, एवो संप्र. दाय ने. अने लोकमां-सूर्यनदालथी नेक शिरनदानसु. धी सात न गणवू, अने बाकीनाने बमणा करखाथी रात्रि प्रकट थाय ने. ॥ ए५ ॥ एवीरीते घणी रीतो .
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(१३) णं. ॥ विकालकोंगारकश्च । लोहितांकः शनैश्चरः ॥ श्राधुनिकः प्राधुनिकः । कणः कणक एव च ॥ १६ ॥ न. वमः कणकणक-स्तथा कणवितानकः ॥ कणसंतानकश्चैवं । सोमः सहित एव च ॥ ए ॥ अश्वसेनस्तथा कार्यो-पगः कर्बुरकोऽपि च ॥ तथाजकरको इंदु-भ. कः शंखाभिधः परः । एज | शंखनाभस्तथा शंख-च. पुनः कंस एव च ॥ कंमनाभस्तथा कंस-वर्णाभो नी. ल एव च ॥ एy ॥ नीलावनासो रूप्यी च । रूप्यावनासनस्मकौ ॥ भस्मराशितिलतिल-पुष्पवर्णदकान्निधाः ॥ ७००॥ दकवर्णस्तथा कायो । वंध्य इंद्रामिरेव च ॥ एवीरीते अहोरात्रने संपूर्ण करनारां नदात्रोनुं स्वरूप कह्यु, अने एरीते नदात्रप्रकरण समाप्त थयु. विकालक, अंगारक, लोहितांक, शनैश्वर, थाधुनिक, प्राधुनिक, कण, कणक, ॥ ए६ ॥ नवमो कणकणक, कणवितानक, कणसंतानक, सोम, सहित, ॥ ए ॥ अश्वसेन, कार्यो पग, कर्बुरक, अजकरक, दुंदुभक, शंख, ॥ एज ॥ शंखनान, शंखवर्णान, कंस, कंसनान, कंसवर्णान, नील,॥ ॥ एए ॥ नीलावन्नास, रूप्यो, रूप्यावभास, नस्मक, भ. स्मराशि, तिलतिल, पुष्पवर्ण, दक, ॥ १०० ॥ दकवर्ण,
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( ४) धूमकेतुर्हरिः पिंग-खको बुस्तथैव च ॥ १॥ शुक्रो बृहस्पती राह-गस्तिमाणवकास्तथा ॥ कामस्पर्शश्व धुरकः । प्रमुखो विकटोप च ॥२॥ विसंधिः कल्पः प्रकस्पः । स्युर्जटालारुणामयः ॥ षट्पंचाशत्तमः कालो । महाकालस्ततः परः ॥ ३ ॥ स्वस्तिकः सौवस्तिकश्च । वर्ष मानः प्रलंबकः ॥ नित्यालोको नित्योद्योतः । स्वयंप्रनावनासकः ।। ४ ॥ श्रेयस्करस्तथा क्षेमं-कर यानंकरोऽ. विच ॥ प्रनंकरो रजाश्चैव । विरजानाम कीर्तितः॥५॥ अशोको वीतशोकश्च । विमलाख्यो वितप्तकः ॥ विवस्त्रश्च विशालश्च । शालः सुव्रत एव च ॥ ६ ॥ अनिवृत्तिकाय, वंध्य, इंद्रामि, धूमकेतु. हरि, पिंगलक, बुध. ॥१॥ शुक्र, बृहस्पति, राहु, अगस्ति, माणवक, तथा कामस्पश, धुरक, प्रमुख, विकट, ॥२॥ विसंधि, कटप, प्रकल्प, जटाल, अरुण. अमि, उपनमो कोल, महाकाल, ॥३॥ स्वस्तिक, सौवस्तिक, वर्धमान, प्रलंबक, नित्या. लोक, नित्योद्योत, स्वयंप्रभ, अवनासक, ॥ ४ ॥ श्रेय स्कर, क्षेमंकर, यानंकर, प्रनंकर, रजः, विरज, ॥ ५॥ अशोक, वीतशोक, विमल, वितप्तक, विवस्त्र, विशाल, शाल, सुव्रत, ॥ ६ ॥ अनिवृत्ति, एकजटी, हिजटी, क.
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( १२५ ) वैकजटी । द्विजट करिकः करः ॥ राजार्गलः पुष्पकेतुनवकेतुरिति ग्रहाः ॥ ७ ॥ ग्रहास्तु सर्वे वक्रातिचा. रादिगतिभावतः । गतावनियतास्तेन । नैतेषां प्राक्तनैः कृता ॥ ८ ॥ गतिप्ररूपणा नापि । मंडलानां प्ररूपणा || लोकानु केषांचित्किंचि - इत्यादि श्रूयतेऽपि हि || || मेरोः प्रदक्षिणावर्त्त । मत्येते ऽपि मंडलैः ॥ सदानवस्थितैरेव | दिवाकरशशांकवत ॥ १० ॥ व्यवस्था यिमंडलत्वा - चंडाद्ययोगचिंतनात || नापि चक्रे तारकाणां । मंमलादिनिरूपणं ॥ ११ ॥ तथोक्तं जीवाजिगमसूत्रे - रिक, कर, राजार्गल, पुष्पकेतु तथा जावकेतु, एटला ग्रहो बे ॥ ७ ॥ घला ग्रहो वांकीचुकी नियमित गतिवाळा होवाथी पूर्वाचार्योए तेजनी || 5 || गतिप्ररूपणा तथा मंडलप्ररूपणा करी नथी, तथा केटलाक ग्रहों
गतिथ्यादिक. किंचित् स्वरूप लौकिक शास्त्रथी संभळाय पण े. || ९ || ते ग्रहो पण सूर्यचंद्रनीपेठे हमेशां
नियमित मंडलवडे मेरुनी प्रदक्षिणा करताथका 'ममे बे. ॥ १० ॥ तेमज ताराजे पवस्थित मंडलवाळा होवाथी ने चंद्रादिकसाथे तेजनो योग नहि थवाथी तेजना मंगलादिकनुं पण निरूपण कर्य नथी. ॥ ११ ॥
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( २२६ )
एकत्ततारगाणं । व्यवट्टिया मंगला मुणेयवा । तेवि य पयादिणाव - तमेव मेरुं परिति ॥ १२ ॥ एवं रवदुग्रह रुदतारा - चारस्वरूपं किमपि न्यगादि || शेषं विशेषं तु यथोपयोगं । ज्योतिष्कचक्रावसरेऽभिधास्ये || || १३ || विश्वाश्वर्यदकीर्तिकीर्तिविजय श्रीवाच केंद्रांतिषद्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः || काव्यं यत्किल तव निश्चित जगत्तत्वप्रदीपोपमे । सर्गो निर्गलि तार्थसार्थ सुनगो विंशः समाप्तः सुखं ।। ११४ ।। इति श्री
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माटे जीवा निगमसूत्रमांकां वे के नत्र ने ता राजने व्यवस्थित मंडलोवाळ जाणवा, पने तेज पण मेरुने प्रदक्षिणा फरे बे ॥ १२ ॥ एवीरीते सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र छपने तारानी गतिनुं किंचित स्वरूप कं, बाकीनुं विशेष जरुरजोगुं स्वरूप ज्योतिश्चक्रना वर्णनव खते कहीशुं ॥ १३ ॥ जगतने आश्चर्य यापनारी वे कीर्ति जेन | एवा श्रीकीर्ति विजयवाचकेंडना शिष्य, तथा राजश्री ने तेजपालना पुत्र एवा श्री विनयविजयजीमदाराजे निश्चित थयेला जगतना तत्वोने प्रकाशवामां दीपकसमान एवं जे या काव्य रच्युं वे, तेमां प्रगट करेला अर्थोना समूहथी मनोहर थयेलो एवो य वीशमो
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( २७) लोकप्रकाशे विंशतितमः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥ .
॥अथैकविंशतितमः सर्गः प्रारम्यते ॥
अथास्य जंबूद्दीपस्य । परिक्षेपकमंबुधि ॥ कीर्तया मि कीर्तिगुरु-प्रसादप्रथितोद्यमः ॥ १४ ॥ तस्थुषो नो गिन श्वा-वेष्ट्यैनं दीपसेवधिं ॥ दारोदकत्वादस्याब्धे
-र्सवणोद इति प्रथा ॥ १६ ।। चक्रवालतया चैष । विस्तीर्णो लदायोईयं ॥ योजनानां परिक्षेप-परिमाणमयोच्यते ॥ १६ ॥ एकाशीतिसहस्राब्या । लदाः पंचदशाय सर्ग सुखेसमाधे समाप्त थयो. ॥ १४ ॥ एवीरीते श्री. लोकप्रकाशमां वीशमो सर्ग समाप्त थयो. ॥ श्रीरस्तु ।
॥ हवे एकवीसमा सर्गनो प्रारंन थाय . ॥
हवे था जंबूद्दीपने वीटीने रहेला समुद्रनुं श्रीकीतिविजयजी गुरुमहाराजनी कृपायी नद्यमवंत थयोथको वर्णन करुं बु. ॥ १४ ॥ सर्पनीपेठे हीपरूपी निधानने वीटीने रहेला एवा या समुद्रनुं जल खारं होवाथी ते लवणोदधि कहेवाय . ॥ १५ ॥ चक्रवालरूपे तेनो विस्तार बेलाख जोजननो , हवे तेना घेरावानुं प्रमाण
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(२) च ॥ शतमेकोनचत्वारिं-शताढ्यं किंचिदूनया ॥ १७ ।। एषोऽस्य बाह्यपरिधि-तिकीखंमसन्निधौ ॥ जंबूदीपस्य परिधियः स एवांतरः पुनः ॥ १० ॥ पूर्वपूर्वदोपवाधिपरिक्षेपा हि येतिमाः ।। त एवास्याग्र्यपायोधि-दीपेष्वाज्यंतरा मताः ॥ १५ ॥ अत्यंतरवाह्यपरि-क्षेपयोगेऽधिते सति ॥ परिक्षेपा मध्यमाः स्यु-विनाधं दीपवार्डिषु ॥१०॥ लदा नवाष्टचत्वारि-शसहस्राणि षट्शती ।। त्र्यशीतिश्च मध्यमोऽयं । परिधिलवणोदधौ ॥ २१ ॥ प्र. कहेवाय जे. ॥ १६ ॥ पात्र लाख एक्यासी हजार अने कक नछा एकसो नगणचालीस जोजनजेटलो ।।१७।। धातकीखमपासेनो तेनो बहारनो घेरावो ने, अने अंदर नो वेरावो जंबद्दीपना घेरावाजेटलो . ॥ १७ ॥ एवीरीते पहेला पहेला दीपसमुद्रोना जे मेला घेरावा, तेटलाज थागळ आगळना दीपसमुद्रोना अंदरना वेरावा कहेला . ॥ १५ ॥ अंदरना अने बहारना घेरावाना सवाळा ने अर्ध करवाथी पहेलाविना सघळा द्वीपसमुद्रोना मध्य भागोना घेरावाचं प्रमाण यावे. ॥ २०॥ लवणसमुद्रनो वचलो घेरावो नव लाख अडतालीस हजार उसो त्र्या सी जोजनजेटलो. ॥ २१ ॥ तळावयादिक जलाशय
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( श ) वेशमार्गरूपो य-स्तटाकादिजलाश्रये ॥ प्रदेशः क्र. मानीचः । सोऽत्र गोतीर्थमुच्यते ॥ १२ ॥ गोतीर्थ तच्च लवणां-बुधावुन्नयतोऽपि हि ॥ प्रत्येकं पंचनवति । स हस्रान यावदाहितं ॥ ३ ॥ जंबूदीपवेदिकां तें-गुलासं ख्यांशसंमितं ॥ गोतीर्थ धातकीखंड-वेदिकांतेऽपि ता. दृशं ॥ २४ ॥ ततश्च-अब्धावुजयतो याव-गम्यतेंशां. गुलादिकं ॥ जक्त तस्मिन पंचनव-त्याप्तं यत्तन्मितोमता ॥ २५ ॥ यथा पंचनवत्यांशै-रतिक्रांतैः पयोनिधौ ॥ मां दाखल थवाना मार्गरूप अनुक्रमे जे नीचो त्रुमिप्र. देश होय , ते यहीं गोतीर्थ कहेवाय ने. ॥ १२ ॥ ए. वीरीतनुं गोतीर्थ या लवणसमुद्रमा बन्ने बाजुए , अने ते दरेक पंचाणु हजार जोजनसुधी कहे . ॥ ३ ॥ जंबूद्दीपनी वेदिकाने रेडे तेवं गोतीर्थ अंगुलना असं ख्याता नागजेवहुंचे, घने धातकीखंडनी वेदिकाने . डे पण तेवुज गोतीर्थ ने. ॥ २४ ॥ अने तेथी-समुद्रमा बन्ने तरफथी जेटला अंशांगुलादिकसुधी जश्यं तेने पंचाणुए भागवाथी जे आवे, तेटली उमाइ जाणवी. ॥ २५ ॥ जेमके समुद्रमां पंचाणु अंश उळंगते बते एकपंचाणुअंश अंगुल जेटलो पृथ्वीनो जाग जंगे थाय.
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(१३०) भुवोंशो हीयते पंच-नवत्यांगुलमंगुलैः ॥ २६ ॥ योजनैश्च पंचनव-त्यैकं योजनमप्यथ ।। शतैः पंचनवत्या च । योजनानां शतं इसेत् ॥ २७ ॥ एवं च पंचनवतिसहस्रांते समदितेः ॥ निम्नतोजयतोऽप्यत्र । जाता सहस्रयोजना ।। २ ॥ तथाहुः-जबिसि नवेहं । नग्गहित्ताण लवणसलिलस्स ॥ पंचाणनविजत्ते । जं लई सो न नवेहो ॥ २॥ ॥ ततश्च-द्वयोर्गोतीर्थयोर्मध्ये । सहस्रयोजनोन्मितः ॥ स्याउद्देधः सहस्राणि । दश या. वत्समाजितः ॥ ३० ॥ जंबृद्दीपवेदिकां तें-गुलासंख्या ॥ १६ ॥ पंचाणु जोजने एक जोजन, थने पंचाणूसो जोजने एकमो जोजनजेटलो नछो थाय. ॥२७॥ ने एवीरीते सम बतलथी पंचाणु हजार जोजन समुद्रमां जाते छते बन्ने बाजुतरफनी तेनी जंडा एक हजार जो. जननी थ. ॥ ॥ कहुं ने के-लवणसमुद्रना पा. णीनी नंडा जे जगोए जाणवानी हा होय, ते ज. गोए जमीनथी जेटली लंबाश्ये गया होइए तेने पचा.
ए भांगवायी जे आवे तेटली त्यांनी नंडा जाणवी. ॥ श्ए ॥ श्रने तेथी—बन्ने गोतीर्थोनी बच्चे चोतरफ स. रखी दशहजार जोजननी जंडा होय. ॥ ३० ॥ जंब.
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(२३१) शसंमितं ॥ सलिलं धातकीखम-वेदिकां तेऽपि तादृशं ॥ ॥ ३१ ॥ ततः पंचनवत्यांशैवते षोडशांशकाः ॥ थं. गुलैः पंचनवत्या । वर्धते षोमशांगुली ॥ ३२ ॥ यत्राय माम्नायः-धातकीखंडतो जंबू-हीपतो वा पयोनिधौ ॥ जिज्ञास्यते जलोत्रायो । यावत्स्वंशांगुलादिषु ॥ ३३ ॥ पंचोनशतमक्तेषु । सत्सु तेषु यदाप्यते ॥ तत् षोमशगुः . णं याव-त्तावांस्तत्र जलोबूयः ॥ ३४ ॥ यथात्र पंचनवते
योजनानामतिक्रमे ॥ विभज्यंते योजनानि । पंचो. नेन शतेन वै ॥ ३५ ॥ एकं योजनमाप्तं य-तषोमहीपनी वेदिकाने वेडे अंगुलना असंख्याता अंशजेटबु पाणी होय , तथा धातकीखंडनी वेदिकापासे पण ते. टबुज होय . ॥ ३१ ॥ अने पी पचाणु अंशोवडे शो. ळ अंशो ववे , अने पचागु आंगळोवडे शोळ बांगुल वधे ॥ ३॥ यहीं नीचेप्रमाणे यानाय -धातकीखमथी अथवा जंबूद्वीपथी समुद्रनी अंदर जेटला अं. श तथा अंगुलादिकमां जलनी चाश् जो जाणवी हो. य तो, ॥३३॥ तेनने पचाणुए जागवाथी जे श्रावे. तेने शोळगणुं करवाथी जे माप आवे तेटली त्यां जलनी खंचाई जाणवी. ॥ ३४ ॥ जेमके पचाणु जोजन नळंग
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(३५) शनिराहतं ॥ योजनानि षोडशैवं । ज्ञातस्तत्र जलोनूयः ॥३६ ॥ तथाहुः दमाश्रमणमिश्राः-जडिबसि नस्सेहं । नंगादित्ताण लवणसलिलस्म ॥ पंचाणनविनत्ते । सोलसगणिए गणियमाह ॥ ३० ॥ एतच्च धातकीखमजंबूद्दीपांत्यमितः ॥ दत्वा दवरिकां मध्ये । शिखोपरितलस्य वै ॥ ३० ॥ विवदित्वा मानमुक्तं । जलोब्यस्य निश्चितं ॥ मेरोरेकादशभाग-परिहाणिरिवागमे ॥३॥ तथाः श्रीमलयगिरिपादाः-इह षोमशसहस्रप्रमाणायाः ते बते तेने पचाणुए भागवा. ॥ ३५ ॥ त्यारे एक जोजन याव्यु. तेने शोळे गुणवाथी शोळ जोजन थया, एटली त्यां जलनी नंचा जाणवी. ॥३६ ॥ तेमाटे दामाश्रमणमहाराज कहे जे के-लवणसमुद्रना पाणीमां जश्ने जे जगोनी पाणीनी नंचा जाणवी होय, तेने पचााए जागवाथी जे आवे तेने शोळे गुणवायी थाय. ॥ ३७ ॥ या प्रमाण धातकीखंम अने जंबृद्दीपना मा. नी मिथी शिखाना नपला तलनी मध्यमां दोरी मूकी. ने ॥ ३० ॥ श्रागममां कह्यामुजब मेरुना अग्यार नागनी हानिनीपेठे निश्चयपूर्वक जलनी नंबाचं प्रमाण कां ने. ॥ ३५॥ तेमाटे श्रीमलयगिरिजी महाराज क
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( २३३ ) शिखायाः शिरसि ननयोश्च वेदिकांतयोर्मूले दवरिकायां दत्तायां यदपांतराने किमपि जलरहितमाकाशं तदपि कर्णगत्या तदा भाव्यमिति सजलं विवदित्वाविवक्षितमुच्यमानमुचत्वपरिमाणमवसेयं, यथा मंदरपर्वतस्यैकादशनागपरिहाणिरिति. वस्तुतः पुनरुभयो-पयोर्वेदिकांततः ।। प्रदेशवृष्योनयतो । वर्धतेबु क्रमात्तथा ॥ ४० ॥ यथास्मिन् पंचनवति-सहस्रांते भवेऊलं ॥ योजनानां सप्तशता-न्युत्रित समन्तलात् ॥ ४१॥ योजनानां सहस्र हे ने के-थहीं शोळहजार जोजनना प्रमाणवाळी ज. लशिखापरथी बन्ने वेदिकाना मापर दोरी मूकते ते बच्चे जे कई जलरहित थाकाश , तेने पण कर्णनी युक्तिथी त्यां भावी लेवं. एटले तेने पण जलवाळु गणीने वर्णव्यामुजब जलनी नंचाचं प्रमाण जाणवू, जेम के मंदराचलपर्वतनी अग्यार नागनी हानि. भावार्थ एके बन्ने दीपोनी वेदिकाना माथी प्रदेशवृध्विडे करीने बन्ने बाजुथी अनुक्रमे जल वृधि पामे . ॥ ४० ॥ जेमके पचाणु हजार जोजनने बेडे ते जल सम नृतलथी सातसो जोजन उचं होय . ॥ १ ॥ वळी यहीं समऋतलथी नंमा एकहजार जोजननी , अने एवीरीते
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(३४) चो-इंधोऽत्र सम नृतलात ॥ एवं सप्तदश शता-न्युद्धे. धोऽत्र पयोनिधेः ॥ ४२ ॥ ततः परं मध्य नागे । सहस्रदशकातते ।। जलोत्यो योजनानां । स्यात्सहस्राणि पो. डश ॥ ४ ॥ सहस्रमत्राप्युद्वेध । नब्योद्रेधतस्ततः ॥ योजनानां सप्तदश । सहस्राण्युदकोच्चयः ॥ ४ ॥ एवं जघन्योन्योऽस्यां-गुलासंख्यांशसंमितः ॥ नत्कर्षतो योजनानां । सहस्राणि च षोमश ॥ ४५ ॥ मध्यमस्तूत्यो वाच्यो । यथोक्तानायतोंबुधेः ॥ तत्र तत्र विनिश्चित्य । जलोनूयमनेकधा ॥ ४६॥ अथास्य लवणांभोधे-र्गसमुद्रनी नंमा सतरसो जोजननी . ॥ ४२ ॥ ते पछी दश हजार जोजन पहोल मध्यजगमां जलनी चाइ शोळहजार जोजननी होय ॥ ३ ॥ अने यही पण एक हजार जोजननी जंडा, माटे ते जंचा अने जंडाश्थी जलनी उँचाइ सतर हजार जोजननी थाय. ॥४४॥ एवीरीते तेनी जघन्य जंचार अंगुलना असंख्याता भागजेटली , अने नत्कृष्टी शोळ हजार जोजननी ने ॥ ४५ ॥ अने मध्यम जंचा तो पूर्व कह्यामु. जब याम्नायथी ते ते जगोए समुद्रना जलनी नंचा निश्चित करीने अनेक प्रकारनी जाणवी. ॥ ४६॥ हवे
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(३५) णितं प्रतरात्मकं ॥ घनात्मकं च निर्णेतुं । यथागममुप क्रमे ॥ ४ ॥ लवणांबुधिविस्तारा-सहस्राणि दश स्फुट ॥ शोधयित्वा शेषमर्धा-कृतं दशसहस्रयुक् ॥ ४ ॥ जातं पंचसहस्राढ्यं । सदमेकमिदं पुनः । अस्मिन प्र. करणे कोटि-स्त्येिवं परिजाषितं ॥ ४५ ॥ श्रयैवंरूपया कोट्या । गणयेल्लवणांबुधेः ।। मध्यमं परिधर्मानं । स्या. देवं प्रतरात्मकं ॥ २०॥ तच्चेदं-सहस्रा नव कोटीनां । तथा नव शतान्यपि ॥ एकषष्टिः कोटयश्वलदाः सप्त. दशोपरि ॥ ५१ ॥ सहस्राणि पंचदश । योजनानामिदं था लवणसमुद्रना प्रतरात्मक बने घनात्मक गणितनो निर्णय करवामाटे आगममां कह्यामुजब नद्यम करुं बु. ॥ ४ ॥ बेलाख जोजनना लवणसमुद्रना विस्तारमांधी दशहजार बाद करवा, बाकीनी रकमने थर्ध करीने ते. मां दशहजार भेळ्ववा, ॥४॥ एटले ते एक लाख पां. च हजार थया, ते रकमने या प्रकरणमां कोटि एवं परिभाषित नाम यापेखु . ॥ ४५ ॥ एवा प्रकारनी कोटिवडे लवणसमुद्रनी परिधिनुं मध्यम प्रमाण गणवं. ब. ने एवीरीते प्रतरात्मक प्रमाण थाय. ॥ २०॥ ते नीचे मुजब -नव हजार नवसो एकसठ क्रोड, सतर लाख,
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(३६) जनैः ॥ प्रतरं लवणे प्रोक्तं । सर्व क्षेत्रफलात्मकं ॥१२॥ मध्यजागे सप्तदश । सहस्राणि यदीरितं ॥ जलमानं त. दनेन । प्रतरेणाहतं धनं ॥ ५३ ॥ कोट्यः षोमश को. टीनां । लदास्त्रिनवतिस्तथा ॥ एकोनचत्वारिंशच । सह स्राणि ततः परं ॥ १४ ॥ सपंचदशकोटीनि । नवकोटीशतान्यथ । परिपूर्णा योजनानां । लदाः पंचाशदेव च ॥ २५ ॥ एतावद्घनगणितं । कथितं लवणार्णवे। वि. लसत्केवलालोक-विलोकितजगतत्रयैः ॥ २६॥ नन्वेता. वद्घनमिह । कथमुत्पद्यते यतः ।। न सर्वत्र सप्तदश । ॥ ५१ ॥ पंदर हजार जोजनजेटवू लवणसमुद्न सघर्छ क्षेत्रफलरूप प्रतरप्रमाण कमु . ॥५२॥ वळी मध्यजागमां सतर हजार जोजन- जे जलप्रमाण कहेवू , तेने या प्रतरे गुणवाथी घन थाय , ॥ ५३॥ शोळ क्रोडत्राए लाख नगणचालीस हजार, ॥ २४ ॥ नवसोपं. दर कोटी अने संपूर्ण पचास लाख जोजन, ॥ ५५ ॥ नवसायमान केवलज्ञानथी जोयेस नेत्रणे जगतो जे. णे एवा केवलीनए नपर कह्यामुजब लवणसमुऽनु घ. नगणित कहेवू . ॥ ५६ ॥ यहीं शंका करे ने के सव जगोए जलनी बंचार कई सतर हजार जोजननी
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(१३७) सहस्राणि जलोचूयः ॥ २७॥ किंतु मध्यानाग एव । स. हस्रदशकावधि ॥ यत्रोच्यते सत्यमेत-तत्वमाकार्यता परं ॥ ५० ॥ युग्मं ॥ बन्धेः शिखाया नपरि । द्वयोश्च वेदिकांतयोः ॥ दत्तायां दवरिकाया-मृज्व्यामेकांततः किल ॥ ६० ॥ अंतराले यदाकाशं । स्थितमबुधिवर्जितं ॥ तत्सर्वमेतदाभाव्य-मित्यंबुधितयाखिलं ॥ ६१ ॥ विव. दित्वा मानमेत-निरूपितं घनात्मकं ॥ एतदिवदाहेतुस्तु । गम्यः केवलशालिनां ॥ ६ ॥ तथाहर्दष्षमाध्वांत -निर्मनागमदीपकाः ॥ विशेषणवतीग्रंथे। जिननद्रगणीहोती नथी, ते तेटवू घन अहीं केम थर शके? ॥१७॥ परंत मध्यभागमा दश हजार जोजनसधी ते संनवे ने ते शंकामाटे हवे यहीं कहे जे के ए खरुंचे, परंतु तुं तत्व सांजल ? २७ ॥ युग्मं ॥ समुद्रनी शिखानी न परथी बन्ने वेदिकाना वेडापर एकांत सिघी दोरी देते ते ॥ ६० ॥ वचमां समुद्रविनानुं जे आकाश रह्यु, ते सर्वने समुद्रपणेज चावी लेवू. ॥ ६१ ॥ अने ते हिसा बेज या घनात्मक प्रमाण कहेवू ने, घने एम कहेवानो हेतु तो केवलिमहाराजज जाणी शके . ॥ ६ ॥ वळी तेमाटे उष्षमकाळरूपी अंधकारमा बुझी गयेल ने
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(३०) श्वराः ॥ ६३ ॥ ' एयं नन्नयवेश्यंतान सोलससहस्सु. 'स्सेहस्स कन्नगईए जं लवणसमुद्दामवंजलसुनंपि खित्तं तस्स गणियं जहा मंदरस्स पवयस्स एकारसजागहाणी. कप्लगइए यामासस्सवि तदा नवंति काऊण गणिया तहा लवणसमुदस्स वि ' मुखैश्चतुर्मुख श्व | दोरैश्चतुः निरेष च ॥ जगत्यालिंगितो जाति । स्थितैर्दिा चतसृषु ॥ ६४ ॥ पूर्वस्यां विजयदारं । शीतोदायाः किलोपरि ॥ बागमरूपी दीपक जेमनो एवा श्रीजिनजद्रगणीश्वर पोताना विशेषणवती नामना ग्रंयमां कहे ने के ॥ ६३ ॥ जेम मंदराचलपर्वतना बग्यार जागनी हानि करणगति'वडे करवामां आवे , तेम बन्ने वेदिकाना माथी शोळ हजार जोजन नंची लवणसमुद्रनी शिखासुधीनुं जे घनात्मक प्रमाण करणगतिवडे गणवामां आवे , ते. मां जलशून्य भागने पण जल हितजेवोज गणवामां यावे . वळी ते लवणसमुद्र चारे दिशानमा रहेला चार दारोवडे, ते जाणे चार मुखोवडे चतुर्मुखवाळो हो. य नहि तेम जगतीवडे बालिंगित थयेलो शोने .॥ ॥ ६४ ॥ तेनमाथी पूर्वतरफ धातकीखमना पूर्वार्धमांथी लवणसमुद्रमां दाखल थती एवी शीतोदानदीपर विजय
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(३५) धातकीखंडपूर्वार्धा-विशंत्या लवणांबुधौ ॥ ६५ ।। डा. गणि वैजयंतादी-न्यप्येवं दक्षिणादिषु ॥ संत्यस्य दिक्षु तिसृषु । जंबूदीप श्व क्रमात् ॥ ६६ ॥ विजयाद्याश्च च. त्वारो। द्वाराधिष्टायकाः सुराः ॥ ज्ञेयाः प्रागुक्तविजयसहदाः सकलात्मना ॥ ६७ ॥ एतेषां राजधान्योऽपि । स्मृताः सर्वात्मना समाः॥ राजधान्या विजयया । प्राक्प्रपंचिस्वरूपया ॥ ६७ ।। एताः किंतु स्वस्वदिशि । दारोदकनयादिव ॥ असंख्यदीपपायोधी-नतीत्य परतः स्थि. ताः ॥ ६ ॥ नाम्नैव लवणांनोधौ । रुचिरेकुरमोदके ।। नामनुं दार . ॥ ६५ ॥ क्ळी एवीरीले तेनी दक्षिणा दिक त्रणे दिशा-मां जंबुद्दीपनीपेठे अनुक्रमे वैजयंता. दिक हारो आवेलां ने ॥ ६६ ॥ वळी ते द्वारोनां विज यादिक चार अधिष्टायक देवो सर्वरीते पूर्व वर्णवेला वि. जयदेवजेवाज जाणवा. ॥ ६७ ॥ तेनुनी राजधानीन पण सर्वरीते पूर्व वर्णवेला वरूपवाळी विजयराजधानी जेवीज कहेली ॥ ६७ ॥ परंतु ते राजधानीन जाणे खारा पाणीना भयथी होय नहि तेम पोतपोतानी दि. शानतरफ असंख्याता द्वीपसमुद्रो नळंगीने दूर रहेली ..॥ ६५ ।। तेन फक्त नामयीज लवणसमुद्र, परंतु म
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(२४०) ॥ योजनानां सहस्राणि । वगाह हादश स्थिताः ॥१०॥ सहस्राः पंचनवति-स्तिस्रो लदाः शतध्यं ॥ अशीति. युक योजनानां । कोशो द्वारामिहांतरं ।। ७१ ॥ द्वाराणां परिमाणं च । निःशेषरचनांचितं ॥ जंबूद्दीपहारगत-म. नुसंघीयतामिह ।। ७२ ॥ यथास्मिन्नबुधौ वेला । वर्धते हीयते च यत् ।। ततादिकारणीनृतान् । पातालकलशान् ब्रुवे ॥ १३ ॥ सहस्रान पंचनवति । वगाह्य लवणांबुधौ। योजनानां स एकैको । मेरोर्दिक्षु चतसृषु ॥ १४ ॥ एवं च-पातालकुंभाश्चत्वारो । महालिंजरसंस्थिताः ॥ वैरं नोहर शेलमीना रससरखा पाणीवाळा समुडमां बार जोजनमा रहेली . ॥१०॥ अहीं ते दारोनुं अंतर त्रण लाख पचाणु हजार बसो एंसी जोजन बने एक कोशन ३. ॥ ११ ॥ अहीं ते दारोनुं प्रमाण सर्व रचनासहित जंबूद्दीपनां दारोसमान जाणवू. ॥ ७ ॥ हवे या समु. द्रमा जे जरतीनंट थाय बे, तेना मुख्य कारणऋत पाता. लकलशोनुं वर्णन करुं बु. ॥ १३ ॥ ते एकेको कलशो मेरुथी चारे दिशामां लवणसमुद्रमां पचाणु हजार जो. जन रोकीने रहेलो . ॥ ४ ॥ श्रने एवीरीते-मोटा अलिंजरनीपेठे रहेला ते चारे पातालकलशोने जाणे
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(२४१) स्मृत्वाब्धिना ग्रस्ता । अगस्त्यस्यैवं पूर्वजाः ।। ७५ ॥ व. डवामुखनामा प्रा-पाकेयूपसंशितः ॥ प्रतीच्यां यूपना माय-मुदीच्यामीश्वरान्निधः ॥ १६ ॥ दाक्षिणात्यकलश. स्य बृहरक्षेत्रसमासवृत्तौ केयूप इति नाम, प्रवचनसारोघा. रवृत्तौ केयूर इति, समवायांगवृत्तौ स्थानांगवृत्तौ च केतु क इति. कालो महाकालनामा । वेलंबश्च प्रनंजनः ॥ क्रमादधीश्वरा एषां । पत्यायुषो महर्धिकाः ।। 99 ॥ समंततो वज्रमया-त्मनामेषां निरूपिताः ॥ बाहव्यतष्ठिक अगस्तिनुं वेर याद लावीने तेना पूर्वजोने गळी गयो होय नहि तेम तेन रहेला . ॥ ७५ ॥ तेनमा पूर्वत रफ वडवामुख नामनो, दक्षिणे केयुप नामनो, पश्चिमे यूप नामनो, अने नुत्तरमां ईश्वर नामनो . ॥ १६ ॥ दक्षिण तरफना कलशनुं बृहत्क्षेत्रसमासनी टीकामां के यूप नाम ने, प्रवचनसारोबारनी टीकामां केयूर नाम , तथा समवायांग अने स्थानांगनी टीकामां केतुक नाम
. काल, महाकाल, वेलंब अने प्रनंजन नामना एक पढ्योपमना अायुवाळा महाध्विाला देवो तेन्ना ष. नुक्रमे अधिष्टायको . ॥ 9 ॥ फरता वज्रमय एवा ते कलशोनी ठीकरीनी जामा एक हजार जोजननी कहे..
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( २४२ ) रिकाः । सहस्रयोजनोन्मिताः ॥ १८ ॥ योजनानां सहस्राणि । दश मूले मुखेऽपि च । विस्तीर्णा मध्यजागे च | लक्ष्योजन संमिताः || ५ || एकप्रादेशिक्या । श्रेण्या मूलादिवर्धमानाः स्युः ॥ मध्यावधि वक्रावधि । ततस्तथा दीयमानाश्च ॥ ८० ॥ इति प्रवचनसारोकारवृत्तौ, परमे तत्तदोपपद्यते यद्येषां मध्यदेशे दशयोजन सहस्राणि यावत लक्ष्योजन विष्कंनता स्याद्यतः प्रदेशवृद्ध्या ऊर्ध्वं पंचचत्वारिंशद्योजनसहस्रातिक्रम एव उज्जयतो मूल विष्कं नाधिकायां पंचचत्वारिंशत्सहस्ररूपायां विष्कंभवृद्धौ सत्यां ली बे. ॥ ७८ ॥ मूळमां तथा मुखयागळ ते कलशोनी पदोळा दश हजार जोजननी बे, तथा मध्यजागमां एक लाख जोजननी बे. ॥ ७९ ॥ एकप्रदेशवाळी श्रेणिवडे ते मूलथी वधताथका मध्यनागसुधी खावे बे, मध्याथी मुखसुधी घटता विस्तारवाळा ते न े. ॥ ८० ॥ एवीरीते प्रवचनसारोहारनी टीकामां बे परंतु या त्यारे घटी शके के, ज्यारे तेजना मध्यभागमां दशहजार जोजनथी मांमीने एक लाख जोजननी पढोळा होय, केमके प्रदेशवृद्धिथी उंचे पस्तालीस ह जार जोजन नळग्यावादज बन्ने तरफथी मूलनी पहोळा
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( २४३ ) यथोक्तलदयोजनरूपो विष्कंनः संपद्यते, एवं हानिरपि. सा त्वेषां मध्ये दशयोजनसहस्राणि यावलदायोजनविकंजता काप्युक्ता न दृश्यते, तदत्र तत्वं बहुश्रुता विदंति, योजनानां लदमेक-मवगाढा जुवोंतरे ॥ रत्नप्रनामूलभागं । दृष्टुमुत्कंचिता श्व ॥ १ ॥ लदाध्यं योजनानां । सहस्राः सप्तविंशतिः ॥ सप्तत्याढ्यं शतमेकं । त्रयः क्रोशास्तथोपरि ॥ ७२ ॥ एतत्पातालकलश-मुखानामंतरं मियः ॥ एतन्मूल विभागाना-मप्येतावदिहांतरं ।। इथी अधिक पस्तालीस हजाररूप पहोळाश्नी वृद्धि होते बते उपर कह्यामुजब लाख जोजननी पहोळाश्थशके, बने एवी रीते हानि पण यश् शके, परंतु तेन्ना मध्यभागमां ते दश हजार जोजनथी मांडीने एक लाख जोजननी पहोळा क्यांय पण कहेली देखाती नथी, माटे यहीं तत्व बहुश्रुतो जाणे. तेन एक लाख जोजनसुधी पृथ्वीनी अंदर खुचेला , ते जाणेके रत्नप्रभाना मूल भागने जोवाने नत्कंठित थया होय नहि तेम ला. गे. ॥१॥ बे लाख सतावीस हजार एकसो सात जोजन अने नपर त्रण कोश, ॥ २॥ एटवू ते पाता. लकलशोना मुखोजें परस्पर अंतर बे, घने तेजना मू
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(२४४) ॥ ३ ॥ नपपत्तिश्चात्र
एषां चतुर्णा वदन-विस्तारपखिर्जिते ॥ पयोधिमध्यपरिधौ । चतुर्नक्ते मुखांतरं ॥ ४ ॥ तथाब्धिमध्यपरिधे-रेतेषां मध्यविस्तृतौ ॥ शोधितायां चतुर्नक्ते । शेषे स्याज्जठरांतरं ॥ ॥ योजनानां लदमेकं । सप्तत्रिंशसहस्रयुक ॥ सप्तत्याढ्यं शतं क्रोशा-स्त्रयस्तदिदमीरितं ॥६॥ कटप्यं तेंशास्त्रयोऽमीषां । स चैकैकः प्रमाणतः ॥ त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि । त्रयस्त्रिंशं शतत्रयं ॥ ७ ॥ यो. लनागोनुं पण परस्पर अंतर तेटर्बुज . ।। ३ ।। यहीं युक्ति नीचेमुजब -
ए चारे कलशोना मुखना विस्तारविनाना समुद्रना मध्यनागना घेरावाने चारे जांगवाथी तेन्ना मुखोजें अंतर पावे. ॥ ४ ॥ तथा समुना मध्यनागना वेरावामांथी ते कलशाना मध्यभागनी पहोळा बाद करीने बाकीने चारे नांगवाथी तेजना पेटारगें अंतर या. वे. ॥ ५॥ बने ते एक लाख सामनीस हजार एकसो सीतेर जोजन धने त्रण कोशोनुं कहेवू . || तेजेंना त्रण भागो कल्पवा, अने ते एकेका भागनुं प्रमाण तेतीस हजार त्रणसो तेत्रीस ॥ ७ ॥ पूर्णाक ए.
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(२४५) जनानां योजनस्य । तृतीयांशेन संयुतं ॥ अधस्तने तृ तीयांशे । तत्र वायुर्विज्रंगते ॥ ७॥ मध्यमे च तृतीयांशे । वायुर्वारि च तिष्टतः ॥ तृतीये च तृतीयांशे । वर्तः ते केवलं जलं ॥ नए ॥ श्रन्येऽपि लघुपाताल-कल. शा लवणांबुधौ ॥ संति तेषामंतरेषु । क्षुद्रालिंजरसंस्थिताः ॥ ॥ ५० ॥ तथोक्तं जीवानिगमवृत्ता'तेषां पाता लकलशानामंतरेषु तत्र तत्र देशे यावत् रुद्रालिंजरसं. स्थानाः क्षुल्लाः पातालकलशाः प्रज्ञता इति. असायं सं. प्रदायः-जंबूद्दीपवेदिकांता-दतीत्य लवणांबुधौ ॥ स. कतृतीयांश जोजन थाय, तेमांथी नीचेना वीजा भाग मां वायु नरळे , ॥ ७ ॥ वचला त्रीजा भागमां वायु अने जल रहेलां , अने वीजा त्रीजा नागमां केवल जल रहेधुं . ॥ जए॥ वळी ते चार महाकलशोनीवचगाळेना जागोमां बीजा पण नाना पातालकलशो ना. ना अलिंजरजेवा आकारखाळा लवणसमुद्रमा रहेला . ॥ ५० ॥ तेमाटे जीवानिगमनी टीकामां कडं ने केते पातालकलशोना वचला नागोमां ते प्रदेशमां नाना यलिंजरजेवा याकाखाल नाना पातालकलशो कहेला बे. अहीं नीचेमुजब संप्रदाय ने जंबूद्दीपनी वेदिकाना
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(१६) हसान पंचनवति । तत्रायं परिधिः किल ॥ १ ॥ सल्ल. दादयनवति-सहस्रविस्तृतेनवेत् ॥ नवलदाः सप्तदश । सहस्राणि च षट्शती ॥ ए॥ अयं नावः-पंचनव. तिः सहस्राः समुद्रसंबंधिन एकपार्श्व तावत एव हितीयपाधै मध्ये चैकं लदं जंबूद्दीपसंबंधि, एवं हिलेदानवतिस. हस्रविष्कंनक्षेत्रस्य परिधिनव लदाः सप्तदश सहस्राः ष. 'दशतीत्येवंरूपो भवतीति. चत्वारिंशत्सहस्रात्मा । शोध्यते मुखविस्तृतिः ।। महापातालकुंनाना-मस्माद्राशेस्ततः स्थि
माथी लवणसमुद्रमां पचाणु हजार जोजन नळंग्याबाद त्यां नीचेमुजब घेरावो ने. ॥ ए१ ॥ बे लाख नेवु हजा. रना विस्तारनो नव लाख सतर हजार बसो जोजननो घेरावो थाय. ॥ ७॥ तेनो नावार्थ नीचेमुजब - समुद्रना एकबाजुना पचाणु हजार जोजन, अने तेटलाज बीजी बाजुना, तथा मध्यमां एक लाख जोजन जंबूद्वीपसंबंधि, एवीरीते सर्व मली बे लाख नेवु हजार जो जननी पहोळाश्वाळां क्षेत्रनो घेरावो नव लाख सतर ह. जार छसो जोजननो थाय बे. ते रकममांथी महापाता. लकलशोनो चालीस हजार जोजनजेटलो मुखविस्तार बाद करवाथी नीचेमुजब रहे . ॥ ७३ ॥ पाठ लाख
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(२४)
तं ॥ ५३॥ अष्टौ लदाः षष्ट्यधिकाः । सहस्राः सप्तस. ततिः ॥ नागे चतुर्निरेतेषां । लब्धं तत्रांतरं नवेत् ॥ ॥ ए ॥ लदादयं सहस्राणा-मेकोनविंशतिस्तथा ।। सपंचषष्टिदिशती । कुंनानां महतां पृथक् ॥ ५५ ॥ च. तुलप्यंतरेष्वेषु । पंक्त्यो नव नव स्थिताः॥ लघुपाताल कुंजाना-मांद्यपंक्तौ च ते स्मृताः ॥ ६ ॥ प्रत्येकं दे शते पंच-दशोत्तरे किलांतरं ॥ पूर्वोक्तं गुरुकुंनानामेवमेभिश्च पूर्यते ॥ ए ॥ एकैकस्योदरव्यासः । सहस्रयोजनात्मकः ॥ ततः शतदयं पंच-दश सहस्रतामितं सीतोतेर हजार घने साठनी रकम रहे, तेने चारे नां. गवायी जे थावे तेटवू अंतर नीचेमुजब थाय, ॥ ॥ ए ॥ बे लाख नगणीस हजार बमो पांसठ जोज. नजेटबुं ते महापातालकुंभो अंतर . ॥ ५५ ॥ हवे ते चारे यांतरानमां नाना पातालकुंनोनी नव नव पं. तिन रहेली , तेमां पहेली पंक्तिमां ॥ ६ ॥ दरेकमां बसो पंदर कलशो ने, घने एवी रीते ते कलशोथी पूर्व कहेगुं महाकुलशोनू अंतर पूरायेद्धं बे. ॥ ए॥ ते दरेक कलशना पेटारनो व्याम एक हजार जोजन नो , अने तेथी ते बसो पंदरने एक हजारे गुणवा
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(UG) ॥ एG ॥ सहस्रैः पंचदशनि-र्युक्तं सदादयं भवेत् ॥ लघुकुंभैरियडुछ-मेकैकस्यांतरस्य वै ।। ए ॥ शेष सहस्राश्चत्वारो। दिशती पंचषष्टियुक् ॥ रु कथंचित्तत्प्रौढकुंनांतरं मिथोंतरैः ।। १०० ॥ परिर्वधमानत्वा-त्पंक्तौ पंक्तौ यथोत्तरं ॥ एकैककलशस्यापि । वृधिर्वाच्या वचस्विन्निः ॥१॥ ततः पंक्तौ हितीयस्यां । हे शते षोडशो. त्तरे ॥ पंक्तौ नवम्यामेवं स्यु-स्त्रयोविंशं शतद्वयं ॥२॥ एकसप्तत्युपेतानि । शतान्येकोनविंशतिः ॥ एकैकस्मिन्नं तरे स्यु-लघवः सर्वसंख्यया ॥ ३॥ चतुर्णामंतराणां च थी, ॥ ए ॥ बे लाख पंदर हजार थाय ने, अने ते. ट्यु एकेका महाकलशन अंतर नाना कलशोथी रोकायेवं . ॥ एए॥ श्रने बाकीनुं चार हजार बसो पांसठ जोजनजेटबुं महाकलशोनुं अंतर कोकरीते परस्पर अंतरोथी रोकायेवं ॥ १०० ॥ वेरावाना वधाराथी जत्त. रोत्तर दरेक पंक्तिमा एकेका कलशनी वृद्धि विद्वानोए भावी लेवी. ॥ १॥ पजीबीजी पंक्तिमां बसो शोळ हो. बे, अने एवीरीते नवमी पंक्तिमा बसोवीस होय .॥ ॥२॥ एवीरीते एकेका यांतरामां सर्व मली जंगणीससो एकोतेर नाना कलशो होय . ॥ ३ ॥ एवीरीते ते
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( श्वए) । मिलिताः सर्वसंख्यया ॥ स्फुरचतुरशीतीनि । स्युः श. तान्यष्टसप्ततिः ॥ ४ ॥ अयं च संप्रदायो ‘विरंजय सेहरे' त्यादिक्षेत्रसमासवृत्त्यजिप्रायेण, बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तौ जीवाभिगमवृत्त्यादौ त्वयं न दृश्यते. लघुपातालकलशा। यमी सर्वेऽप्यधिष्टिताः ॥ सदा महर्षि कैर्देवैः । पव्योपमार्धजीविभिः ॥ ५॥ अयं क्षेत्रसमासवृत्त्याद्यन्निप्रायः, जीवानिगमसूत्रवृत्तौ च अर्धपव्योपमस्थितिकानिर्देवता निः परिगृहीता श्युक्तं. शतयोजनविस्तीर्णा । एते मूले चारे अांतरानमां सर्व मलीने अठोतेरसो चोर्यासी ना. ना कलशो थाय .॥४॥ आ संप्रदाय विरंजय सेहर' इत्यादि क्षेत्रसमासनी टीकाने अभिप्राये , परंतु बृहत्क्षेत्रसमासवृत्ति तथा जीवानिगमनी टीकायादिकमां ते देखातो नथी. या सघला नाना पातालकलशो म. हाऋध्विान तथा अर्धपत्योपमना घायुवाळा देवोथी हमेशां अधिष्टित थयेला . ॥ ५॥ या यभिप्राय क्षे. वसमासनी टीका यादिकनो ने, घने जीवाभिगमनी टीकामां तो अर्धपश्योपमना बायुवानी देवीनधी ते था विष्टित थयेला , एम कडं ले. ते लघुपातालकलशो मूळ तथा मुखपर एकसो जोजन पहोळा, मध्य नागमां
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( २५० )
मुखेऽपि च ॥ मध्ये सहस्र विस्तीर्णाः । सहस्रं मोदरे स्थिताः || ६ || दशयोजनबाहल्य - वज्रकुड्यमनोरमाः ॥ वायुवायृदकांभो जिः । पूर्णत्र्यंशत्रयाः क्रमात् ॥ 9 ॥ स योजनतृतीयांश | त्रयस्त्रिंशं शतत्रयं ॥ तृतीयो नाग एकैक । एषां निष्टंकितो बुधैः ॥ ८ ॥ लघवोऽपि महांतोऽपि । यावन्ममा भुवोंतरे ॥ उत्तुंगास्तावदेव स्यु – मी'तलसमाननाः ॥ ५ ॥ एषां पातालकुंनानां । लघीय सां महीयां ॥ मध्यमेधस्तने चैवं । त्र्यंशे जगत्स्वनावतः ॥ १० ॥ समकालं महावाताः । संमूर्खेति सहस्रशः
20 अभ्यर्थ
एक हजार जोजन पहोळा पने एक हजार जोजनसुधी पृथ्वीनी अंदर खुंचेला बे. ॥ ६ ॥ वळी ते दश जोजन जामी वज्रमय ठीकरीथी मनोहर थयेला पने वायु वायुजल तथा जलथी अनुक्रमे भरेला त्रण त्रीजानागवाळा जे. ॥ 9 ॥ तेजनो एकेको न्रीजो जाग विद्यानोए त्रणसो तेत्रीस पूर्णांक एकतृतीयांश जोजननो निश्चित करेलो बे. ॥ ८ ॥ ते नाना तथा मोटा कलशो जेटला पृथ्वीनी अंदर खुंचेला ने तेटलाज टंचा बे, तथा पृथ्वीतल पर सरखा मुखवाल बे ॥ ५ ॥ एवीरीते ते नाना मोटा पातालकुंभोना वचला छाने नीचेना त्रीजा
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(१५१) ॥ वनितस्तैश्वोपरिस्थं । बहिनिस्सार्यते जलं ॥ ११ ॥ तेन निस्सार्यमाणेन | जलेन क्षुनितोंबुधिः ॥ वेलया व्याकुलात्मा स्या-दुक्ष्मन्निव वातकी ॥ १२ ॥ जगत्स्वा. भाव्यत एव । शांतेषु तेषु वायुषु ॥ पुनः पातालकुंना. नां । जलं स्वस्थानमाश्रयेत् ॥ १३ ॥ जलेषु तेषु स्वस्थानं । प्राप्तेषु सुस्थितोदकः ॥ स्वास्थ्यमापद्यतेनोधि—ा. तकीव कृतौषधः ॥ १४ ॥ मूति दिरहोरात्रे । वाताः स्वजागोमां जगतना खजावथा ॥ १० ॥ एकीवेळाये हजारोगमे महावायुन नबळे , थने तेन्ना उगळायी नपर रहेछु जळ बहार निकळी पडे . ॥ ११ ॥ एवीरीते ते बहार निकळता जलथी दोन पामेलो समुफ वायुविकारवाळो माणस जेम नलटी करे , तेम जरतीथी व्याकुल थाय ने. ॥ १२॥ वळी जगतना स्वनावधीज ते वायुन ज्यारे शांत थाय ने त्यारे वळी पाताळकुंनोनू ते जल पोताने ठेकाणे स्थिर थाय . ॥ १३ ॥ पछी ते जल पोताने ठेकाणे पते छते औषध पायेला वा. युविकारी माणसनीपेठे स्थिर जलवाळो थयोथको समुद्र शांति पामे . ॥ १४ ॥ एवीरीते ते वायुन एक अहोरात्रमा बे वखत नबळे , तथा शांत थाय ने, अने ते.
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(२५) स्थीनवंति च ॥ ततो दिः प्रत्यहोरात्रं । वर्धते हीयतेंबु. धिः ॥ १५ ॥ तथाह जीवाभिगमः-लवणेणं नंते समुहे तीसाए मुहुत्ताणं कश्खुत्तो अगं वह वा हाय वा, गो० दुख्खुत्तो धरेग वढवा हायश् वा. राकाद.
दितिथिषु । चातिरेकेण तेऽनिलाः ॥ दोन प्रयोति मृति । तथा जगत्स्वजावतः ॥ १६ ॥ ततश्च पूर्णिमा. मादि-तिथिष्वतितमामयं ॥ वेलया वर्धते वार्षि-देशम्यादिषु नो तथा ।। १७ ॥ लोकप्रथानुसारेण त्वेवमवो. थी एक अहोरात्रमा समुद्र बेवार वधे ने अने घटे जे. ॥ १५ ॥ तेमाटे जीवाभिगममां कडं ने के-हे भगवन लवणसमुद्र त्रीस मुहूर्तोमा केटलीवार अतिशयपणे वधे ने तथा घटे ? ( भगवान कहे ) हे गौतम ! बेवार ते अतिशयपणे वधे ने अथवा घटे . वळी ते वायुन पूर्णिमा तथा श्रमावास्यानी तिथिनमां तेवीरीतना जगस्वभावथी अतिशयपणे दोन पामी जछले . ॥१६॥ अने तेथी पूर्णिमायादिक तिथि-मां ते समुद्रमां जेवी अतिशय भरती थाय , तेवी दशमादिक तिथि मां जरती थती नथी. ॥ १७ ॥ लोकप्रसिधिने अनुसारे तो अमो एम कहीये गये-कालने अनुसारे प्राप्त करेली
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(२५३) चं-यथायदोर्निजनंदनस्य । कालक्रमप्राप्तकलाकलस्य ॥ श्राश्लिष्यतेऽब्धिदुन्निः करा?-स्तथा तथोदेसमुपैति वृद्धिं ॥ १० ॥ दशैं त्वपश्यन्नतिदर्शनीयं । निजांगजं शीतकरं पयोधिः ॥ विवृष्वेलावलयबलेन । दुःखामित. सो सुवि लोबुठीति ॥ १५ ॥ योजनानामुन्नयतो। वि. मुच्य लवणांबुधौ ॥ सहस्रान पंचनवति । मध्यदेशे शिखैधते ।। २० ॥ योजनानां सहस्राणि । दशेयं पृथुलानितः ॥ चकास्ति वलयाकारा । जलभित्तिरिख स्थिरा ॥ कलानथी मनोहर थयेला पोताना पुत्र चंद्रने समुड जेम जेम पोताना कोमळ हस्ताग्रोवडे थालिंगन करे, तेम तेम ते नछळनोथको वृछि पामे . ॥ १७॥ पर, तु अमावास्याने दिवसे अत्यंत दर्शन करवालायक एवा ते पोताना पुत्र चंद्रने न जोवाथी समुद्र वृद्धि पामेली नरतीना वलयना मिषथी दुःखरूपी अमियी तप्योषको पृथ्वीपर लोटवा लागे . ॥ १७ ॥ ते लवणसमुद्रमांवने बाजुथी पचाणु हजार जोजन बगेमीने मध्यभागमां तेनी जलशिखा वृद्धि पामे . ॥ २० ॥ ते जलशिखा चोतरफथी दश हजार जोजन पहोळी , तथा ते स्थिर थयेली जलन्नित्तिनीपेठे स्थिर वलयाकारे शोभे . ॥
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(२५४) ॥ १ ॥ सहस्राणि षोमशोचा । सममिसमोदकात् ॥ योजनानां सहस्रं च । तत्रोधेन वारिधिः ॥॥ शि. खामिषादधद्योग-पढें योगीव वारिधिः ॥ ध्यायतीव प. रब्रह्म । जन्मजाड्योपशांतये ॥ १३ ॥ सुनगंकरणीं यहा । दारिदारलतामिमां ॥ श्यामोऽपि सुन्नगत्वेच्नु-र्दधौ वार्षिः शिखोपधेः ॥ २४ ॥ जंबूहीपोपाश्रयस्थान । मुनीनु त निनंसिषुः ॥ कृतोत्तरासंगसंगः । शिखावलयकैतवात ॥१॥ समपृथ्वीतलपर रहेला सरखा जलथी ते शिखा शोळ हजार जोजन नंची , धने त्यां समुद्रनी नंडा एक हजार जोजननी . ॥ २॥ ते शिखाना मिषयी जाणे योगपट्टने धारण करतो होय नहि, तथा जन्मथी मळेलां जाड्यपणाने शांत करवामाटे जाणे परम ब्रह्मन ध्यान धरतो होय नहि तेम ते समुद्र योगीजेवो देखाय ने.॥ ५३ ॥ अथवा ते श्याम एवो पण लवण समुद्र पोताना सौजाग्यपणाने बतोथको ते शिखाना मिषयी जाणे मनोहर हारलताने धारण करे . ॥ २४ ॥ अ. थवा जंबुद्दीपरूपी नपाश्रयमा रहेला मुनिनने नमवानी इलाथी ते शिखावलयना मिषथी करेल ने उत्तरासंग जेणे एवो ते शोने . ॥ २५॥ अथवा घणा रत्नोवडे
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(५५) ॥ २५ ॥ पूर्णकुदिर्घशं स्नै-रुन्मदिष्णुतयाथवा ॥ पट्टबडोदर श्व । विद्यादृप्तकुवादिवत् ॥ २६ ॥ नाति यो. ऽब्धिपाल-वृतौ दैवतसेवितः ॥ शिखा मिषाप्तमुकुटो। दधदा वार्धिचक्रितां ॥ २७ ॥ त्रिनिर्विशेषकं । पातालकुंनसंमूढ–दायुविदोनयोगतः ॥ नपर्यस्याः शिखायाश्च । देशोनमर्धयोजनं ॥ २ ॥ द्वौ वारौ प्रत्यहोरात्रमुदकं वर्धतेतरां ॥ तत्प्रशांतौ शाम्यति च । भवेद्देलेयमू.
वंगा ॥ श्ए ॥ तां च वेलामुखलंतीं । दव्यिाकराः पोतानु नदर भरेलु होवाथी मदोन्मत्त थयोथको वि. द्याथी अहंकारयुक्त थयेला कुवादिनीपेठे पाटाथी बांधे. ला नदरवाळानीपेठे ते लागे. ॥ २६ ॥ अथवा घ. णा समुद्रोरूपी राजा थी वीटायेलो अने देवोथी सेवायेलो ते लवणसमुद्र समुद्रोना चक्रिपणाने धारण करतो थको ते शिखाना मिषयी मुकुटबछ थयेलो शोमे . ॥ २७ ॥ विभिर्विशेषकं ॥ पातालकुंजमांथी नगळता वायुना दोगथी आ शिखानपर कईक ना अर्धा जो जनसुधी ॥ २० ॥ दरेक अहोरात्रे बेवखत जल वृद्धि पामे , अने ते वायु शांत थवाथी ते शांत थाय ने. ॥ श्ए । वळी ते नछन्ती जरतीने जगतना वनावथी
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( २५६ )
सुराः । शमयति सदा नाग - कुमारा जगतः स्थिते ः ||३०|| तत्र जंबूद्दीपदिशि । शिखावेलां प्रसृत्वरीं ॥ विचत्वारिंशत्सहस्रा | धरंति नागनाकिनः ॥ ३१ ॥ धतिकीखंड दिश च । प्रसर्पतीमिमां किल || निवारयंति नागानां । सहस्राणि द्विसप्ततिः || ३२ || देशोनं योजनार्थ य- वर्धतेंबु शिखोपरि || षष्टिर्नागसहस्राणि । सततं वारयति तत् ॥ || ३३ || लक्षमेकं सहस्राणि । चतुःसप्ततिरेव च । वेलंधरा नागदेवा । जवंति सर्वसंख्यया || ३ || एषामुपक्रमेणैव । निरुघा नावतिष्टते । वेलेयं चपलातीव । म नागकुमार देवो हमेशां हाथमां कमा लेइने उपशमावे बे ॥ ३० ॥ त्यां जंबूद्दीपनी दिशातरफ फैलाती एवी ते शिखानी नरतीने बेतालीस हजार नागदेवो पटकाव राखे . ॥ ३१ ॥ तथा धातकीखमनी दिशातरफ फैलाती एवं ते नरतीने बहोतेर हजार नागदेवो पटकाव राखे बे. ॥ ३२ ॥ वळी ते शिखापर कक नंबुं वर्धा जोजनसुधी जे जल वृद्धि पामे बे, तेने हमे - शां साठ हजार नागदेवो अटकाव राखे बे. ॥ ३३ ॥ एवीरीते ते वेलंधरदेवो सर्व मळीने एक लाख चमोतेर हजार . ॥ ३४ ॥ एवी रीते तेजना उद्योगथीज या
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(२५७) हेलेव रसाकुला ॥ ३५ ॥ किंतु दीपस्थसंघाई-देवचक्यादियुग्मिनां ॥ पुण्याङगत्खन्नावाच । मर्यादां न ज. हाति सा ॥ ३६॥ इदं जीवानिगमसूत्रवृत्त्यन्निप्रायेण, पंचमांगे तवृत्तौ च– जयाणं दिविच्चयाईसिंणोणं त. या सामुद्दयासिं जयाणं सामुद्दयाई सिंणोणतया दी. विच्चयासिं, गो० तेसिं णं वा याणं अन्नमन्नविवच्चासेणं लवणसमुद्दे वेलं नातिकम, अन्योन्यव्यत्यासेन यदैके नरती कामातुर थयेली स्त्रीनीपेठे अत्यंत चपल घश्यकी कई रोकाश् शकती नथी, ॥ ३५ ॥ परंतु दीपमां र. हेला संघ, अरिहंतप्रनु, तथा चक्रीयादिक अने युगलीयांना पुण्यथी तथा जगतना स्वनावधी ते जरती म. र्यादा लोपती नथी. ॥ ३६ ॥ या लखाण जीवानिगमसूत्रनी टीकाना अभिप्राये में, परंतु पांचमा अंगमां तथा तेनी टीकामां तो हे नगवन् ! ज़्यारे हीपतरफनो वायु ते नरतीने अटकावे त्यारे ते जरती समुऽतरफ वधवी जोश्ये, अने समुद्रतरफनो वायु ज्यारे अटकावे त्यारे द्वीपतरफ ते जरती वधवी जोश्ये, तेनुं शीरीते ? (त्यारे जगवान कहे जे के ) हे गौतम ! ते वायुन परस्पर सामसामा वाय , अने तेथी लवणसमुद्रनी जरती मर्या
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( २५७) पुरोवातादिविशेषणा वांति तदेतरे न तथाविधा वांतीत्यथः. वेलं नाश्कमत्ति' तथाविधवायुद्रव्यसामर्थ्यावे लायास्तथास्वन्नावत्वाचेत्युक्तं. अत्र ईसिं पुरोवातादोनि विशेषणानि त्वेव-ईसिं पुरो वायत्ति' मनाक सस्नेहवाताः ‘पबावायत्ति' पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः, 'मंदावायत्ति' मंदाः शनैः शनैः संचारिणोऽमहावाता इत्यर्थः, “ महावायत्ति'. नदंडा वाता धनल्या इत्यर्थः. वेलंधराणामेतेषां । भवंत्यावासपर्वताः ॥ अस्मिन्नेवांबुधौ दा नळंगती नथी, परस्पर उलटीरीते एटले ज्यारे केटलाक पूर्व कहेला विशेषणवाळा वायुन वाय . त्यारे बीजा वायु तेवीरीते वाता नथी. जरती मर्यादा गेडती नथी' एटले तेवा प्रकारनी वायुद्रव्यनी शक्तिथी तथा भरतीना तेवा स्वभावपणाथी. अही जरा सामो वायु ३त्यादिक विशेषणोनी व्याख्या नीचेमुजव -जरा पु. रोवात ' एटले जरा स्निग्धवायु, पथ्य वायु ' एटले व नस्पतियादिकने हितकारी वायु, ‘मंद वायु ' एटले धीरे धीरे संचरता अर्थात् महावायु नहि, एवो अर्थ जाणवो. 'महावायु' एटले तोफानी ऊपाटाबंध वाता वायु, एवो अर्थ जाणवो. ते वेलंघरदेवोना तेज समुद्रमां पू.
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(१५) पूर्वा-दिषु दिनु चतसृषु ॥ ३७ ॥ तथाहि-जंबूद्दीपवे. दिकांता-त्पूर्वस्यां दिशि वारिधौ ॥ गोस्तूपः पर्वतो भा. ति । वेलंघरसुराश्रयः ॥ ३० ॥ नानाजलाशयोद्तैः । शतपत्रादिभिर्यतः ।। गोस्तूपाकृतिनी रम्यो । गोस्तूपोऽयं गिरिस्ततः ॥ ३५ ॥ जलं यत्रासयत्यष्ट-योजनी परितोंशुभिः ॥ ततो नाम्नोदकनासो-ऽपाच्यां वेलंधराचलः ॥ ४० ॥ पश्चिमायां शंखनामा । नगः सोऽप्यन्वितानिधः ॥ शंखानैः शतपत्राद्यैर्जलाश्रयोद्भवैलसन् ॥ ४१ ।। वयादिक चारे दिशामां आवासपर्वतो . ॥ ३७॥ ते कहे जे-जंबूद्दीपनी वेदिकाना माथी पूर्वदिशामां समुद्रनी अंदर ते वेलंधरदेवोनो याश्रय नृत गोस्तूप पर्वत शोने . ॥ ३० ॥ या पर्वत विविधप्रकारना जलाशयो. मां नत्पन्न थयेलां गोस्तूपजेवां आकारखाळां कमलोयादिकथी मनोहर थयेलो होवायी गोस्तूप पर्वत कहेवाय ने. ॥ ३५ ॥ वळी जे फरता पाठ जोजनसुधपोताना किरणोवडे जलने तेजस्वी करे ने, एवो दक्षिणदिशा मां उदकनास नामनो वेलंधर पर्वत . ॥ ४० ॥ पश्चिमदिशामां जलाशयोमा नत्पन्न थयेलां शंखसरखां कम लोथी नल्लसायमान थतो शंखनामे वेलंवर पर्वत ने. ॥
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(१६०) उत्तरस्यां दिशि वेलं-धरावासधराधरः ॥ दकसीमान्निधः शीता-शीतोदोदकसीमकृत् ॥ ४२ ॥ शीताशीतोदयोनद्योः। श्रोतांसीह धराधरे ॥ प्रतिघातं प्राप्नुवंति । दकसीमाभिधस्ततः ।। ४३ ॥ एवं च शीताशीतोदे । पू. र्वपश्चिमयोर्दिशोः ॥ प्रविश्य वारिधौ याते । नदीच्यामिति निश्चयः ॥ ४४ ॥ गोस्तूपे गोस्तूपसुरो । दकभास. गिरौ शिवः ॥ शंखे शंखो दकसीम-पर्वते च मनःशि. लः॥ ४५ ॥ सामानिकसहस्राणां । चतुर्णा च चतसृणां ॥ पट्टानिषिक्तदेवीनां । तिसृणामपि पर्षदां ॥ ४६॥ सै॥४१॥ उत्तर दिशामां शीता थने शीतोदा नदीना ज. लनी सीमा करनारो दकसीमा नामनो वेलंधर पर्वत . ॥ ४२ ॥ श्रा पर्वतपर शीता थने शीतोदानदीना प्रवा. हो प्रतिघात पामे , थने तेथी तेनुं नाम दकसीमा ने. ॥ ४३ ॥ एवीरीते ते शीता बने शीतोदा नदी पूर्वपश्चिमदिशामां प्रवेश करीने उत्तरतरफ समुद्रमां मळे ने, एवों निश्चय थयो. ॥ ४४ ॥ गोस्तूपपर्वतपर गोस्तूप नामे देव, दकभासपर्वतपर शिव नामे, शंखपर्वतपर शंख नामे अने दकसीमपर्वतपर मनःशील नामे देव वसे . ॥४५॥ ते दरेक देवो चार हजार सामानिक देवो,
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न्यानां सैन्यनाथानां । सप्तानामप्यधीश्वराः ॥ आत्मरदिसहश्च । सेव्याः षोमशन्निः सदा ॥ ४ ॥ स्वस्खावासपर्वताना-माधिपत्यममी सदा ॥ पालयंति पूर्वजन्मार्जितपुण्यानुसारतः ॥ ४ ॥ त्रिभिर्विशेषकं ॥ श्राझाप तीजका एषां । संत्येतदनुयायिनः ॥ अनुवेलंधरास्तेषां । विदिदवावासपर्वताः ॥४०॥ कर्कोटकादिरैशान्यां । विद्यु मनोऽमिकोणके ॥ कैलाशो वायवीयानां । नैऋत्यामरुणप्रभः ॥ ५० ॥ कर्कोटकः कर्दमकः । कैलाशश्वारुणप्रचार पटराणीन, त्रण पर्षदा, ॥ ४६॥ सात प्रकारनां सैन्य तथा सेनापति ना नायको डे, तथा शोळ हजार यात्मरदकदेवोवडे हमेशां सेवायेला . ॥ ४ ॥ वळी तेन हमेशां पूर्वजन्ममां नपार्जित करेलां पुण्यने अनुसारे पोतपोताना आवासपर्वतोनुं अधिपतिपणुं नोगवे बे.॥ ४ ॥ विभिर्विशेषकं ।। वळी तेननी घाझा पा. लनारा तथा तेनना जे अनुचर देवो , तेन्ना प्रा. वासपर्वतो विदिशानमां ने. ॥४॥ ईशान दिशामां का कर्कोटक नामनो, अमिखूणामां विद्युत्प्रभ नामनो, वायव्यमां कैलाश नामनो अने नैऋत्यमा अरुणप्रन नामनो पर्वत . ॥ ५० ॥ कर्कोटक, कर्दमक, कैलाश ने अ.
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(१६) नः॥ एषां चतुर्णामद्रीणा-मीशा गोस्तूपसश्रियः॥११॥ यथास्थमेषामष्टानां । रम्या दिकु विदिक्षु च ॥ राजधान्यः स्वस्वनाम्ना । परस्मिन लवणार्णवे ॥ ५॥ असंख्येयान् दीपवा(-ननीय परतः स्थिते ॥ योजनानां सहस्राणि । वगाह्य द्वादश स्थिताः ॥ ५३ ॥ जंबूंदीपवेदिकांतादष्यामि स्वस्वविश्वमी॥ विचत्वारिंशत्सहस्त्र-योजनाति क्रमेऽद्रयः ॥ २४ ॥ सुवर्णाकरत्नरूप्य-स्फटिकैघटिताः क. मात ॥ दिश्याश्चत्वारोऽपि शैलाः । सर्वे विदिक्ष स्त्रजाः रुणप्रन नामना गोस्तूपसरखी ऋदिवाळा चार देवो ते चार पर्वतोना स्वामी जे. ॥ ११ ॥ ते आठे देवोनी पो.. तपोताना नामवाळी मनोहर राजधानीने वीजा लवणसमुद्रमां दिशाने तथा विदिशामां . ॥ ५५ ॥ असं. ख्याता द्वीप समुद्रोने नळंगीने दूर रहेला लवणसमुद्रमां ते राजधानीन बार हजार जोजनमा रहेली . ॥२३॥ जंबूद्दीपनी वेदिकाना डाथी पोतपोतानी पाठे दिशानमां बेतालीस हजार जोजन नळंग्याबाद ते पर्वतो ने. ॥ १४ ॥ दिशातरफना ते चारे पर्वतो अनुक्रमे सुवर्ण, अंकरत्न, रुघु तथा स्फटिकवडे घडेला ने, अने वि. दिशा-मां रत्नोना बनेला . ॥५५॥ ते बारे पर्वतो.
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( २६३ ) ॥ ९५ ॥ यष्टाप्यमी योजनानां । सहस्रं सप्तभिः शतैः ॥ एकविंशैः समधिक- मुत्तुंगत्वेन वर्णिताः ॥ ९६ ॥ चः तुःशती योजनानां । त्रिंशां कोशाधिकाममी । वसुधांत: र्गताः पद्म-वेदिकावनमंडिताः ॥ ९७ ॥ मूले सहस्रं द्वाविंशं । सर्वेऽपि विस्तृता यमी ॥ त्रयोविंशानि मध्ये च । शतानि सप्त विस्तृताः ॥ ५ ॥ योजनानां चतुर्विंशां । चतुःशतीमुपर्यमी ॥ विस्तृताः सर्वतो व्यास - ज्ञानोपायोऽथ तन्यते || १ | योजनादिषु यावत्सू – तीर्णेषु शिखराग्रतः || वेलंधरपर्वतानां । विष्कंनो ज्ञातुमिष्यते नी उंचाई एक हजार सातसो एकवीस जोजननी कहेली बे. ॥ ५६ ॥ वळी तेन चारसो वीस जोजन ने एक कोशजेला पृथ्वीनी अंदर खुंचेला बे, तेमज पद्म वेदिका ने वनखथी शोजिता वे. ॥ ९७ ॥ ते सर्वे मूलमां बावीस हजार जोजन पढोळा वे, छाने मध्य भागमां चेवीस हजार सातसो जोजन पहोळा . ॥ तेमज उपरना नागमां तेन चोवीस हजार चारसो जोजन पदोळावे, हवे तेजनो फरतो व्यास जाणवानो उपाय कहे . ॥ ७ ॥ शिखरनी टोचेथी जेटला जोजनसुधी उतरीने ते वेलंधरपर्वतोनी पहोळा जाणवी
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नाशा
( २६४ ) ॥ ६०॥ अतिक्रांतयोजनादि-रूपं तं राशिमंजसा ॥ अष्टानवत्यान्यधिकैर्गुणयेः पंचनिः शतैः ॥६१॥ जातं चैतेषां गिरीणा-मुत्येण विभाजय ॥ यल्लब्धं तच्च. तुर्विश-चतुःशतयुतं कुरु ॥ ६ ॥ कृते चैवं तत्र तत्र । विष्कंनोऽनीतिस्पिदे । वेलंधराजिषु ज्ञेयो। दृष्टांतः श्रूयतामिह ।। ६३ । सपष्टीनि शतान्यष्ट । द्रौ कोशौ च शिरोऽग्रतः ॥ अतीत्य व्यासजिज्ञासा । चेदिदं गुणयेत्तदा ॥ ६४ ॥ अष्टानवत्याढ्यपंच-शत्यैवं पंचलदकाः ॥ सहस्रा हिः सप्तपंच-शती सैकोनसप्ततिः ॥ ६५ ॥ जाहोय तो, ॥६॥ नळंगेला जोजनादिकनी रकमने तु. रत पांचसो अठाणुए गुणवी. ॥ ६१ ॥ जे यावे तेने ते पर्वतोनी चंचाश्थी नांगवी, जे यावे तेमां चारसो चो. वीस भेळववा, ॥ ६ ॥ एम करवाथी त्यां त्यां बित स्थानकनो वेलंधरादिक पर्वतमां विष्कंन जाणवो, तेमा टे वहीं दृष्टांत सांगल ? ॥ ६३ ॥ टोचना अग्रजागथी पाठसो साठ जोजन बे कोश नळंग्याबाद ते जग्यानी पहोनश जाणवानी जो श्छा होय तो तेने ॥ ६४ ॥ पांचसो अगणुए गुणवाथी पांच लाख चौद हजार पांचसो नगणोतेर अाव्या, ॥ ६५ ॥ तेने सतरसो एकवीसे
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( १६५ ) तास्ते च हृताः सप्त-दशशत्यैकविंशया ॥ शतदयों न वनव-त्यधिक ध्रुवमार्पयत ॥ ६६ ॥ ततश्च सा चतुर्वि शैः । शतैश्चतुर्निरन्विता ॥ त्रयोविंशा सप्तशती । जाते. यं तत्र विस्तृतिः ।। ६७ ॥ मध्यव्यासोऽयमेवैषां । सर्व त्रैवं विनाव्यतां ॥ स्यादुपायांतरमेत-न्मध्यविष्कंभनिश्चये ॥ ॥ ६७ ॥ मूले मध्ये च विष्कंभौ । यौ तद्योगेऽर्धिते स. ति ॥ सर्वत्र मध्यविष्कनो । लन्योऽत्र जाव्यतां स्वयं ।। ॥ ६ ॥ एषां वेलंधराद्रीणां । मूलांशे परिधिं जिनाः। जगुः शतानि द्वात्रिंश-त्सह द्वात्रिंशतोनया ॥ १० ॥ जांगवाथी बसो नवाणु याव्या. ॥ ६६ ॥ पनी तेमांचारसो चोवीस नेळववाथी तेनो सातसो सेवीसनो विस्तार श्राव्यो. ॥ ६७ ॥ एवीरीते तेननी मध्यभागनी तेज पहोळा , एवीरीते सर्व जगोए भावी लेवं, वळी मध्य नागना विस्तारनो निश्चय करवामां आ बीजो उपाय जे. ॥ ६॥ ॥ मूलमा थने मध्यनागमां जे बे विस्तारो जे. तेनो सरवाळो करी अ|अर्ध करवाथी सर्व जगोए म. ध्यनागनो विस्तार मळी यावे, थने ते पोतानीमेळे नावी लेवो. ॥ ६॥ या वेलंधरपर्वतोना मूलनागनो वे. रावो जिनेश्वरोए बत्रीससोमां बत्रीस जोजन नंगे कहे.
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( २६६ ) मध्ये स पळशीतीनि । हाविंशतिः शतानि च ॥ किंचि. त्समतिरेकाणि । परिक्षेपो निरूपितः ॥३१॥ नपरि स्या. परिक्षेपः । शतान्येषां त्रयोदश ॥ किंचिदूनैकचत्वारिंशता युक्तानि जुभृतां ।। ७२ ॥ हिसप्ततिः सहस्राणि । शतमेकं चतुर्दशं ॥ योजनानामष्टभक्त-योजनस्य ल. वास्त्रयः ॥ १३ ॥ अष्टानामेतदेतेषां । मूलनागे मिथों. तरं ॥ वेलंधरसुराद्रीणां । प्रत्ययश्चात्र दर्यते ॥ ४ ॥ मध्यजागे यदैतेषा-मंतरं ज्ञातुमिष्यते ॥ एकादशा पं. चशत्ये-तदर्धगा तदन्विता ॥ १५॥ द्विचत्वारिंशत्सह. खै-वाधिगैरेकतो यथा । क्रियते परतोऽप्येव-मित्येलोके ॥ १० ॥ मध्यनागमां तेननो घेरावो कक अधिक बावीसमो ज्यासी जोजननो कहेलो . ॥ ११ ॥ वळी ते पर्वतोनी नपरनो घेरावो कक नछा तेरसोए. कतालीस जोजननो . ॥ १२॥ वळी बहोतेर हजार एकसो चौद पूर्णाक त्रणप्रष्टमांश जोजनजेटद्धं ॥७३॥ ते या वेलंघरदेवना पर्वतोनुं मूलना नागमां अंतरने तेमाटे यही प्रतीति देखाडे . ॥ १४ ॥ जो तेजना मध्यनागनो अंतर जाणवो होय तो तेनी पांचसोअग्याररूप धरधी रकमने ॥ ११ ॥ समुद्रमाना बेतालीस ह.
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(१६७) तद् द्विगुणीकुरु ।। १६ ॥ पंचाशीति सहस्राणि । हाविं शान्यनवनिह ॥ मध्यस्थजंबूद्दीपस्य । लदमेकं तु मीव्यते ॥ ७ ॥ एतेषां परिधिः पंच । लदा योजनसंख्य. या ॥ पंचाशीतिः सहस्राणि । तथैकनवतिः पराः॥ १० ।। अष्टानामप्यथाद्रीणां । व्यासोऽस्मादपनीयते ।। षट्सप्तत्याब्यशतयु-सहस्राष्टक ७१७६ संमितः ॥ ७९ ॥ अप. नीतेऽस्मिंश्व पूर्व शिरीदग्विधः स्थितः ॥ पंच लदाः सहस्राणि । षट्सप्ततिस्तथोपरि ॥ ७० ॥ नव पंचदशाढ्यानि । शतान्येषामथाष्टभिः॥ भागें हृते लन्यते य
2nfRADuT2694 जारमा भेळववी, एवीरीते एक बाजुथी तथा बीजी बाजुथी पण तेटली रकम, एटले तेने बेवमी कर? ॥ १६ ॥ के जेथी ते यहीं पंच्यासी हजार घने बावीस थया,अ. ने तेमां मध्यमां रहेला जंबूद्दीपना एक लाख जोजन नेळववा, ॥ ७ ॥ हवे तेनेनो घेरावो पांच लाख पंचा सी हजार एकाणु जोजननो . ॥ 9 ॥ तेमांथी ते पाठे पर्वतोनो पाठ हजार एकसो बहोतेर जोजनजे. टलो व्यास बाद करवो, ॥ ७॥ ते बाद करवाथी पू. वनी रकम नीचेमुजब रही, पांच लाख छहोतेर हजार, ॥ ७० ॥ नवसो अने पंदर रह्या, तेने पाठे भांगवाथी
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(२६०) तदडीणां मिथोंतरं ॥ १ ॥ एषां समीपेंबुवृद्धि-जबू. हीपदिशि स्फुटं ॥ समतलतुल्यांनो-ऽपेदयोर्ध्व प. योनिधौ ॥ २ ॥ नवोत्तरं योजनानाशतत्रयं तथोप. रि॥ पंचचत्वारिंशदंशा । पंचोनशतजाजिताः ॥ ३ ॥ निश्चयः पुनरेतस्य । त्रैराशिकात्प्रतीयते॥व्युत्पित्सूनां प्रमोदाय । तदप्यातत्य दयते ॥मा यदिपंचमहस्रोन-लक्षेण वर्धते जलं॥ योजनानां सप्तशती।तदातदर्धते कियत् || दिचत्वारिंशत्सहस्रै-रिति राशित्रयं लिखेत्।।५५०००,७००,४२००० श्राद्यंतयोस्तत्र राश्योः। कार्य शून्यापवर्त्तनं जे रकम थावे तेटलो ते पर्वतोनो परस्पर अंतर . ॥ ॥ १ ॥ तेननी समीपे जंबूद्दीपनी दिशामां प्रगट रीते जलनी वृधि , अने ते समपृथ्वीतलसरखां जलनी अ. पेदाये समुऽमां नीचेमुजब जंची . ॥ ७२ ॥ त्रणसो नव पूर्णाक पस्तालीस पचाणुयांश जोजननी ते . ॥ ॥ ३ ॥ वळी तेनो निश्चय त्रैराशियी थाय ने, अने जाणवाना श्बकोना हर्षमाटे ते पण यहीं विस्तारीने देखाडे . ॥ ४ ॥ जो पचाणु हजार जोजने सातसो जोजन जलनी वृद्धि थाय, ॥ ५ ॥ तो बेतालीस ह. जार जोजने केटली वृद्धि थाय? एवीरीते ए५०००, १००,
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(१६) ॥ ६ ॥ एतयोहि यो राश्योः । साजात्यादपवर्त्तनं ॥ घटते लावार्थ च । क्रियते गणकैरिदं ॥ ७ ॥ मध्य राशिः सप्तशती । द्विचत्वारिंशदात्मना ॥ अंत्येन राशिना गुण्य-स्तथा चैवंविधो नवेत् ॥ 6 ॥ नूनं सहस्राएयेकोन-त्रिंशत्पूर्णा चतुःशती ॥ ततः पंचनवत्यायं । नाज्यः प्रथमराशिना ।। नए भागे हृते च यल्लब्धं । पानीयं तावदुन्नितं ॥ जंबूहीपदिश्यमीषां । समीपे तत्पु. रोदितं ॥ १ ॥ जंबूद्दीपस्य दिश्येषां । गिरीणामंतिके ४२०० नी त्रणे रकमो लखवी, पछी पहेली अने देखी रकमनां शून्योनो बेद नडामवो. ॥ ६ ॥ ए बन्ने रकमना शून्योनो सजातिपणाथी बेद नडे , अने गणितशास्त्रीन सहेलाश्थी हिसाब करवामाटे ते बेद नडाडे
. ॥ ७ ॥ हवे वचली सातसोनी रकमने ली बेतालीसनी रकमे गुणवाथी नीचेमुजब थावे . ॥ ७ ॥ जंगणवीस हजार घने चारसो थावे , पडी ते रकम ने पहेली पचाणुनी रकमे नांगवी, ॥ ७ ॥ एवीरीते नागाकार करवाथी जे थावे तेटद्धं पाणी ते पर्वतोनी. पासे जंबूद्दीपनी दिशातरफ jचुं नबळेळू जाणवू, के जे पागल कहे . ॥ ३१ ॥ वळी या पर्वतोनी पासे जं.
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पुनः ॥ गोतीर्थे , घरोवेधः । स्यात्समो:व्यपेक्ष्या ॥ ॥ ए ॥ द्विचत्वारिंशदधिका । योजनानां चतुःशती ॥ दश पंचनवत्यंशा-स्त्रैराशिकात्तु निश्चयः ॥ ७३ ॥ ननु पंचसहस्रोन-लदांते यदि लन्यते ॥ लवोऽवगाहः सहस्र-स्तदासौ लन्यते कियान ।। ए ॥ द्विचत्वारिंश. सहस्र-पर्यत इति लिख्यते ॥ राशिवयं कार्यमाद्यांत्ययोः शून्यापवर्त्तनं ॥ ५५ ॥ ५५०००, १०००, ४२००० मध्यराशिः सहस्रात्मा । हिचत्वारिंशदात्मना ॥ हतोत्येन द्विचत्वारिं-शत्सहस्राणि जझिरे ॥ १६ ॥ याद्येन पं. बूद्दीपनी दिशातरफ सरखी पृथ्वीनी अपेदाये गोतीर्थमां पृथ्वीनी नंमा नीचेमुजब . ॥ ५५ ॥ चारसो बेता. लीस पूर्णाक दश पचाणुयांश जोजनजेटली ने, अने तेनो त्रिराशिथी निश्चय थाय . ॥ २३ ॥ ज्यारे पचाणु हजार जोजने पृथ्वीनी लंडाइ एक हजार जोजननी होय. त्यारे ॥ ए ॥ बेतालीस हजार जोजने केटली होय? एवीरीते ५५०००. १०००, ४२०० नीत्रण रकमो लखवी, तथा पहेली अने ही रकमना शून्योनो बेद नडामवो. ।। ए५ ॥ पनी एकहजाररूप वचली रकमने बेल्ली बेतालीसनी रकमे गुणवी, त्यारे ते बेतालीस ह
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( १११) चनवति-लदाणेनाथ राशिना ॥ जागे हृते लन्यतेऽयमवगाहो यथोदितः ।। ए ॥ योऽयं मेवगाहो । यश्च प्रोक्तो जलोन्यः ॥ एतद् द्वयं पर्वताना–मुन्न्यादपनीयते ॥ ए॥ अपनीतेऽवशिष्टं य–त्तावन्मालोजलोपरि ॥ जंबूद्दीपदिश्यमीषां । गिरीणामय मुन्न्यः ॥ण्णा योजनानां नवशती । सैकोनसप्ततिस्तथा ॥ चत्वारिंशद्योजनस्य । पंचोनशतजा लवाः । २०० ॥ अत्र चासर्गसं. पूर्ति । यत्र काप्यविशेषतः ॥ वदयं तेंशा अमी सबै । पं. चोनशतजाजिताः ॥ १॥ शिखरामादयैताव-दुत्तीर्य जार थया. ।। ५६ ॥ पनी तेने पहेली पचाणुनी रकमे नांगवाथी नपर कह्यामुजबनी लंडाश् श्रावे . ॥७॥ हवे जे या पृथ्वीनी जंडा, तथा जलनी नंचा कही जे, ते बन्नेने पर्वतोनी चाश्मांयी बाद करवी. ॥ए॥ ते बाद कर्याथी जे बाकी रहे तेटली जल नपर जंबूहीपनी दिशातरफ ते पर्वतोनी चंचाई जाणवी. ॥ ७ ॥ भने ते नंचा नवसो गणोतेर पूर्णाक चाळीसपचा. यांश जोजनजेटली जाणवी. ॥१०० ॥ यही ज्यांसु. धी या सर्ग पूरो थाय त्यांसुधी ज्यां क्यांय पण अंशशब्दो आवे, तेन सर्वे एकपचाणुयांश जाणवा. ॥१॥
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(२७५) यदि चिंत्यते ॥ पत्र प्रदेशे विष्कंनो । ज्ञेयोऽमीषामयं तदा ॥ २॥ षष्ट्याब्यानि योजनानां । शतानि सप्त चोपरि ॥ अशीतियोजनस्यांशाः । पंचोनशतसंभवाः ॥३॥ तिर्यक्क्षेत्रेणेयता च । जलवृघिरवाप्यते ॥ किंचिदनाष्टः पंचाश-देशाब्या पंचयोजनी ॥४॥ जंबूद्दीपदिशि प्रो. क्ता-पर्वतानां समुन्नूयात् ॥ स्यादस्यामपनीतायां । शिखादिशि नगोबूयः ॥ ५ ।। स चाय-योजनानां नवश ती। विषष्ट्याभ्यधिका किल ।। सप्तसप्ततिरंशाश्च । तथा व स्याज्जलोव्यः ॥ ६ ॥ योजनानां पंचदशाः । शता. शिखरना अपनागथी एटवू नुतरीने जो चिंतवीए के
या जगानो विष्कन्न पापणे जाणवो , तो तेजनो ते विष्कंन नीचेमुजब जे. ॥॥ सातसो साठ पूर्णाक एं. सी पचाणुांश जोजन थाय . ॥ ३॥ एटला ती क्षेत्रमा पांच पूर्णाक तथा कक नछा अठावन पचाणु. यांशजेटली जलवृधि थाय . ॥ ४ ॥ जंबूद्दीपनी दि. शातरफ कहेली पर्वतनी चाश्मांथी तेने बाद करवाथी शिखातरफनी पर्वतनी जंचा यावे. ॥ ५॥ अने ते नीचेमुजब नवसो त्रेसठ पूर्णाक जोजन बने सतो. तेर अंशोजेटली थाय , धने यहीं जलनी नंचाइनी.
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(१३) स्त्रयोऽष्ट चांशकाः ॥ चतुःशती च पंचाशा । दशांशाश्च घरोंमता ॥ ७॥ एवं वेलंधरावास-पर्वतानां यथामति ॥ स्वरूपं दर्शितं किंचि-जीवानिगमवर्णितं ॥ ॥
सुमेरुतः पश्चिमायां । जंबूढीपांत्य मितः॥ सहस्रान द्वादशातीत्य । लवणांनोनिधाविद ॥ ए॥ योजनानां सहस्राणि । द्वादशायतविस्तृतः ॥ शोचते गौतमहीपः । स्थानं सुस्थितनाकिनः ॥१०॥ सप्तत्रिंशत्सहस्राणि । यो जनानां शतानि च ॥ नवाष्टचत्वारिंशानि । हीपेऽस्मिन् परिधिनवेत् ।। ११ ॥ दे गव्यूते जलादृर्ध्व-मुन्नितोऽचेमुजब जे. ॥ ६ ॥ त्रणसो पंदर पूर्णाक जोजन तथा बाठ घंशोनी ने, धने पृथ्वीनी नंडाश् चारसो पचास पर्णाक जोजन खने दश अंशोनी ने.॥9॥ एवीरीते वेलंधरदेवोना थावासरूप पर्वतो- मतिमुजब जीवान्निगममां वर्णवेधू किंचित स्वरूप देखाड्यु. ॥ ७ ॥ ___ हवे मेरुथी पश्चिमदिशामां जंबूद्दीपना मानी . मिथी बार हजार जोजन नळंग्याबाद अहीं लवणसमुद्रमां ॥ ७ ॥ बार हजार जोजन लांबो पहोळो सुस्थितदेवना स्थानरूप गौतमदीप शोने बे. ॥ १० ॥ या दी. पनो वेरावो सामनीस हजार नवसो धमतालीस जोज
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(१४) ब्धिशिखादिशि ॥ अंतेऽस्यास्मिन्नंबुवृधि-स्त्रैराशिकात्प्रती. यते ॥ १५॥ तथाहि-सहस्रेषु द्वादशसु । द्वीपोऽयं ता. वदाततः ॥ चतुर्विशतिरित्येवं । सहस्रा वारिधेर्गताः ॥ ॥ १३ ।। ततश्च-सहस्रपंचनवति-पर्यते यदि लन्यते ॥ जलवृधिोजनानां । शतानि सप्त निश्चिता ॥ १४ ॥ च. तुर्विंशत्या सहः । कियतीयं तदाप्यते ॥ ५५०००, 9. ००, २४०००, राशियेत्याद्ययोश्च । कार्य शून्यापवर्तनं ।। ॥ १५ ॥ मध्यराशिः सप्तशती । गुणितोत्येन राशिना ।। ननो ने. ॥ ११ ॥ वळी समुद्रनी शिखातरफ ते जलथी बे गान जंचो , अने यहीं रेडे तेनी जलधि त्रैराशिथी गणी शकाय ने, ॥ १२ ॥ ते कहे जे-या द्वीप बार हजार जोजनमां पहोळो , अने एवोरीते समुद्रना चोवीस हजार जोजन व्यतीत थया. ॥ १३ ॥ श्रने ते. थी-ज्यारे पचाणु हजार जोजनने वेडे जो सातसो जोजननी जलवृधि निश्चित थडे, ॥१४ ॥ तो चोवी. स हजार जोजने ते केटली थाय ? ए५०००, १००. १. ४००० नी त्रण रकमोमांथी पहेली अने डेली रकमोना शून्योनो बेद नमाडवो. ॥ १५ ॥ परी वचली सातसोनी स्कमने गेली चोवीसनी रकमे गुणवाथी शोळ हजार
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( २७५) चतुर्विंशतिरूपेण । सहस्राः षोमशाभवन् ॥ १५ ॥ तत. श्च पंचनवति-रूपेणांत्येन राशिना ॥ विभज्यते ततो लब्धं । षट्सप्तत्यधिकं शतं ॥ १६ ॥ अशीतिः पंचनव ति-भागाश्चैतावती किल ॥ गौतमद्दीपपर्यते । जलवृ. Eिः शिखादिशि ॥ ॥ १७ ।। जंबुद्दीपदिश्यमुष्य । राशे रई जलोत्यः ॥ युक्तश्चैष सहस्राणां । हादशानामतिः क्रमे ॥ १७ ॥ ततः पूर्वोक्तस्य राशे-धं यदिदमास्थितं ॥ अष्टाशीतिर्योजनानि । चत्वारिंशत्तथा लवाः ॥ १५॥ ध्यान जंबद्दीपदिशि । दीपस्यास्योन्यो जलात ॥ शि. (घाउसो ) थया. ॥ १५ ॥ पछी ते रकमने ली पचाएनी रकमे जांगवाथी एकसो होतेर याव्या. ॥ १६ ॥ तथा नपर एंसी पचाणुयांश वध्या, एटली जलशिखातरफ गौतमद्दीपने वेडे जलवृष्टि जाणवी. ॥ १७ ॥ श्रने जंबूद्दीपनी दिशातरफ था रकमथी अरधी जलनी चा.
जाणवी, अने बार हजार जोजन नळंग्याबाद तेटली चाश् युक्तज . ॥ १७ ॥ अने तेथी पूर्व कहेली र कमर्नु अर्ध नीचेमुजब थयु, यठ्यासी पूर्णाक चालीस पवाणुयांश जोजनजेटबु थयुः ॥ १७ ॥ एटली पा ही. पनी जंबूद्दीपतरफनी जलथी जंचा , अने शिखानी
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( १७६ ) खादिगुदितद्दीपो-यूयः क्रोशयाधिकः ॥२०॥.त्रिंशत्पं. चनवत्यंशाः । पार्विशा शतयोजनी ॥ निम्नतास्मिन पयेते । दिगुणा च शिखादिशि ॥ १ ॥ एवं च-मूला. दुच्चो हीपदिशि । चतुर्दशं शतक्ष्यं ॥ कोयाधिकं पं. च-नवत्यंशाश्च सप्ततिः ॥ ॥ चतुःशती योजनाना । -मेकोनत्रिंशताधिका ॥ पंचचत्वारिंशदशा । दो कोशी च शिखादिशि ॥ २३ ॥ वनाब्यया पद्मवेद्या । दीपोऽयं शोभते नितः ॥ नीलरत्नालियुग्मुक्ता-मंडलेनेव कुंमलं ॥ २४ ॥ दीपस्य मध्यनागेऽस्य । रत्नस्तंगशतांचितं ॥ दिशातरफनी कहेली दीपनी तुंचा बे कोश अधिक
॥ २० ॥ तेना बेमातरफ ते एकसो वीस पूर्णाक त्रीसपचाणुयांश जोजन पृथ्वीमां खुंचेल , अने शि. खातरफ तेथी बमणो खुचेल . ॥ २१ ॥ अने एवीरी. ते-द्दीपतरफ ते मूलमाथी बसो चौद जोजन बे कोश अने सीतेर पचाणुषांश ते जंचो , ॥२॥ श्रने शि. खातरफ ते चारसोनगणत्रीस जोजन बे कोश अने पस्तालीस अंशजेटलो जंचो . ॥ २३ ॥ वळी नीलरत्नोनी श्रेणिसहित मोतीना मंमलथी जेम कुंडल तेम ते दीप चारे बाजुथी बगीचासहित पद्मवेदीथी शोनितो थ
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(१७) नौमेयमस्ति नवनं । क्रीमावासानिधं शुनं ॥ २५॥ पष्टिं योजनान्येलद् । हौ कोशौ च समुन्त्रितं ॥ योजनान्येकत्रिंशतं । कोशाधिकानि विस्तृतं ॥ १६ ॥ एतस्यावसथस्यांत मिजागे मनोरमे ॥ मध्यदेशे महत्येका । शोलते मणिपीठिका ॥ २७ ॥ योजनायामविष्कना । योजनार्ध च मेदुरा ॥ नपर्यस्याः शयनीयं । नोग्यं सु. स्थितनाकिनः ॥ २० ॥ सुस्थितः सुस्थितानिख्यो। ल. वणोदधिनायकः ॥ चतुःसामानिकसुर-सहस्राराधितकयेलो . ॥ २४ ॥ या दीपना मध्यभागमां एकसो र. नोना स्तंनोधी शोनितुं क्रीडावास नामर्नु मनोहर जू. मिगृह . ॥ २५ ॥ ते नवन बासठ जोजन अने बे कोश चुं , घने एकत्रीस जोजन एक कोश पहोळु वे.॥ १६ ॥ या जुवननी अंदर मध्यप्रदेशमा मनोहर ऋमिनागपर एक मोटी मणिपीठिका शोमे . ॥ २७ ।। ते एक जोजन लांबी पहोळी तथा अर्को जोजन जाडी बे, असे ते पर सुस्थितदेवने सुवालायक बीगर्नु । ॥ ॥ उत्तम स्थितिवाळो ते सुस्थितदेव लक्णसमुद्रनो नायक ने, तथा ते चार हजार सामानिकदेवोथी से. वायेलां चरणोवाळो . ॥ श्ए ॥ परिवारवाळी तथा म
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मः॥शए । परिवारयुजां चार-रुवां चतसृणां सदा॥ पट्टानिषिक्तदेवीनां । तिसृणामपि पर्षदां ॥ ३० ॥ सप्ता.
नां सैन्यसेनान्या-मात्मरदाकनाकिनां ॥ षोमशानां स. • हस्राणा-मन्येषामपि जयसां ॥ ३१ ॥ सुस्थिताख्यराज. धानी वास्तव्यानां सुधाभुजां ॥ भुक्ते स्वाम्यं तत्र गरि -सराराधितशासनः ॥ ३२॥ चतर्निः कलापकं ॥ रत्न दीपादिपतयो । लवणांचोधिवासिनः ॥ देव्यो देवाश्च ते सर्वे-ऽप्यस्यैव क्शवर्तिनः ॥ ३३ ॥ राजधानी सस्थितस्य । लवणाधिपतेः किल ॥ प्रतीच्यां गौतमद्दीपा-द. नोहर रूपवाळी चार पटराणीननो. त्रण पर्षदाननो, ॥ ॥३०॥ सात सैन्य तथा सेनापतिननो, शोळ हजार यात्मरदांक देवोनो, तथा बीजा घणा ॥३१॥ सस्थिता नामनी राजधानीमा रहेनारा देवोनो स्वामी ते सस्थित. देव घणा देवोथी सेवायेला शासनवाळो थयोथको त्यां नायकपणुं नोगवे . ॥ ३५ ॥ चतुर्निः कलापकं ॥ रनहीपादिकना स्वामीन तथा लवणसमुऽमा रहेनारा सर्वे देवी देवो तेनेज वश रहेला . ॥ ३३ ॥ था लवणसमुद्रना खामी सुस्थितदेवनी राजधानी गौतमहीपथी प. श्चिमदिशाये असंख्याता द्वीपसमुद्रो ॥ ३४ ॥ जळग्या
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(१७ ) संख्यहोपवारिधीन ॥ ३४ ॥ अतीत्य तिर्यगन्यस्मिं-शव
भोनिधौ भवेत् ।। योजनानां सहा -दशनिर्विज. योपमा ॥ ३५ ॥ जंबूद्दीपवेदिकांता-प्रतीच्यामेव मेरुतः ॥ योजनानां सहस्राणि । द्वादशातीत्य वारिधौ ॥ ३६ ॥ स्युश्चत्वारो रविदीपा । द्वौ जंबूद्दीपचारिणोः ॥ भान्वो? | चार्वाक्शिखाया। लवणांबुधिचारिणोः ॥ ३७॥ मेरोः प्राच्यां दिशि जंबू-द्वीपस्य वेदिकांततः॥ स्युर्योजनसहस्राणां । दादशानामनंतरं ।। ३० ।। चत्वारोऽत्र शशि. दीपा । द्वौ जंबूद्दीपचारिणोः ।। इंदोर्दो चार्वाक्शिखाया बाद तीर्जा बीजा लवणसमुद्रमां बार हजार जोजने वि. जयदेवनी राजधानीसरखी . ।। ३५ ॥ जंबूद्दीपनी वेदिकाना डाथी मेरुयी पश्चिमे समुद्रमां बार हजार जो. जन नळंग्यावाद ।। ३६ ।। चार रविदीपो , तेमाना बे जंबूद्दीपमां विचरनारा बे सूर्योना , अने बाकीना बे जलशिखाथी पूर्व लवणसमुद्रमां विचरनारा बे सूर्योना . ॥ ३७॥ मेरुथी पूर्वदिशामां तथा जंबूद्दीपनी वेदि. काथी बार हजार जोजन नळंग्याबाद ॥ ३० ॥ ते समुद्रमां चार चंद्रहीयो ने, तेमाना बे जंबूद्दीपमां विचरनारा बे चंद्रोना , तथा बाकीना बे द्वीपो जलशिखाश्री पूर्वे
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(श ) । लवणोदधिचारिणोः ॥ ३५ ॥ तथैव धातकीखंड-वे. दिकांतादतिक्रमे ॥ स्युर्योजनसहस्राणां । द्वादशानामिहांबुधौ ॥ ४० ॥ जंबूद्दीपस्थायिमेरोः । प्रतीच्यां दिशि निश्चितं ॥ अष्टौ दिनकरहीपा । दीपा व महारुचः ॥ ॥४१॥ युग्मं ॥ बहिः शिखायाश्चरतो-दौ द्वीपावर्क योईयोः ॥ षट् षष्मां धातकीखंडा-चीनार्धप्रकाशिनां ॥ ४२ ॥ तथैव धातकी खंड-वेदिकांतादनंतरं ॥ योजनानां सहस्रेषु । गतेषु द्वादशस्विह ॥ ४३ ॥ प्राच्यां जं. बूहीपमेरोः। संत्यष्टौ लवणोदधौ ॥ शशिहीपास्तत्र च लवणसमुद्रमां चालनारा बे चंद्रोना . ॥ ३५॥ वळी एवीजरीते धातकीखमनी वेदिकाथी बार हजार जोजन जळग्याबाद था लवणसमुडमां ॥ ४० ॥ जंबूद्दीपमां र. हेला मेरुथी पश्चिमदिशामां दीपकोनीपेठे महाकांतिवा ला खरेखर पाठ दीपो. ॥ ४१॥ युग्मं । तेमाना बे जलशिखाथी बहार चालनारा बे सूर्योना , अने बाकी नाव द्वीपो धातकीखमना पूर्वार्धने प्रकाशनारा न सूर्यो. नां ॥ ४२ ॥ वळी एवीजरीते धातकीखमनी वेदिका. ना माथी बार हजार जोजन नळंग्याबाद ॥ ४३ ॥जं. बूद्दीपमाना मेरुथी पूर्व लवणसमुद्रमां बात चंद्रदीपो ने,
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( १ ) दौ । शिखायाश्चरतोहिः ॥ ४ ॥ पमन्ये धातकीखमावक्तिनार्धप्रचारिणां ॥ षणां हिमवतामेव–मेते सर्वेऽपि संख्यया ॥ ४५ ॥ स्युश्चतुर्विशतिश्चंद्र-सूर्यहीपाः समेs. प्यमी ॥ गौतमद्दीपसदृशा । मानतश्च स्वरूपतः ॥ ४६॥ जलोन्यावगाहादि । सर्व ततोऽविशेषितं । गौतमद्दीपवदाच्यं । सर्वेषामपि सर्वथा ॥ ४ ॥ किंतु तत्रास्ति नौ मेय-मेषु प्रासादशेखरः ॥ वाच्यः प्रत्येकमेकैको । नौमेयसममानकः ॥ ४ ॥ प्रतिप्रासादमेकैकं । सिंहापन तेमना बे द्वीपो शिखाथी बहार विचरनारा बे चंडोना ने, ॥ ४ ॥ अने बाकीना उ धातकीखमना पूर्वार्धमां विचरनारा छ चंद्रोना ने, एवीरीते तेन सर्व मलीने, ॥ ॥ ४५ ॥ चंद्रसूर्यना चोवीस द्वीपो . तथा तेन प्रमाण श्रने ग्वरूपथी गौतमहोपसरखा . ॥ १६ ॥ तेन सर्व नी जलथी उचाइ तथा विस्तारमादिक सघळु कई पण फेरफारविना सर्वथा प्रकारे गौतमद्दीपनीपेठे जाणवं. ॥ ॥ ४ ॥ परंतु ते गौतमदीपमां ज्यारे जूमिगृह चे, त्या रे था सर्व दीपोमां महेल ने, अने ते दरेक महेल . मिगृहसरखा प्रमाणवाओ . ॥ ॥ वळी ते दरेक प्रासादमां एकेकुं मनोहर सिंहासन ने, अने तेनमां ते चं.
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(शा) मनुत्तरं । तेषु चंडाश्च सूर्याश्च । प्रभुत्वमुपजते ॥णा सुस्थितामरवत्सेव्याः। सामानिकादिन्निः सुरैः ॥ वर्षल. दसहस्राब्य-पत्योपमायुषः क्रमात् ॥ २०॥ एतेषां रा जधान्योऽपि । स्वस्वदिक्षु मनोरमाः ॥ स्युः सुस्थितपुरी तुव्याः । परस्मिंलवणार्णवे ॥ २१ ॥ ये तु संत्यंतरद्दीपाः । षट्पंचाशदिहांबुधौ ॥ निरूपितास्ते हिमव-निरिप्रकरणे यथा ॥ ५५ ॥ एवमेकाशीतिरस्मिन् । दीपा लवणवारिधौ ॥ वेलंधराचलाश्चाष्टौ । दृष्टा दृष्टागमाधिनिः ।। ॥ ५३ ॥ महापातालकलशा-श्चत्वारो लघवश्व ते ॥ स. द्रो बने सूर्यो स्वामीपणु भोगवे . ॥ ४ ॥ तेन सु. स्थितदेवनीपेठे सामानिकादिक देवोवडे सेवायेला , तेमज तेन अनुक्रमे लाख अने हजार वर्षयुक्त पत्यो. घमना आयुवान . ॥ २०॥ तेनी मनोहर राजधानीन पण पोतपोतानी दिशानमां बीजा लवणसमुद्रमां सुस्थितदेवनी नगरीसरखी ३. ॥ ५१ ॥ वळी जे थाल. वणसमुद्रमा उपन अंतरदीपो , ते हिमवंतपर्वतना प्र. करणमां वर्णव्यामुजब कहेला . ॥ १२ ॥ एवीरीते श्रा लवणसमुद्रमा एक्यासी दीपो भने पाठ वेलंधरपर्वतो केवलझानीनए जोयेला . ॥ १३ ॥ वळी चार महा.
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( ३) इस्राः सप्त चतुर-शीतिश्वाष्टौ शतानि च ॥ २४ ॥ र. नदीपादयो येऽन्ये। श्रूयतेंनोनिधाविह ॥ हीपास्ते प्रतिपत्तव्याः । प्राप्तरूपैर्यथागमं ॥ १५॥ सुधांशवोऽस्मिंश्चत्वार–श्चत्वारोऽश्चि तोयधौ ॥ संचरंति समश्रेण्या । जंबूहीनानुन्निः ।। ५६ ॥ यदा जंबूहीपगत-श्वारं चरति जानुमान् ।। एको मेरोर्दक्षिणस्यां । तदास्मिनंबुधावधि ।। ॥ १७ ॥ तेन जंबूहीपगेन । समश्रेण्या व्यवस्थितौ ॥ दक्षिणस्यामेव मेरो हौ चार चरतो रखी ॥ २७ ॥ एकस्तत्राक्शिखायाः । समश्रेण्या सहामुना ॥ शिखायाः पातालकलशो तथा सात हजार घाठसो चोर्यासी जय पातालकलशो . ॥ ५४ ॥ वळी रत्नदीपादिक बीजा जे दीपो या समुद्रमा संभलाय , ते सघळा विहानोए भागममां कह्यामुजब जाणी लेवा. ॥ ५५ ॥ या समुद्र. मां चार चंद्रो तथा चार सूर्यो , अने तेन जंबूद्दीपना चंद्रसूर्योनी माथे समश्रेणिए संचरे . ॥ १६ ॥ जंबूही. पमा रहेलो एक सूर्य ज्यारे मेरुनी दक्षिणे संचरे ने, स्यारे या समुद्रमां पण ॥ ५७ ॥ ते जंबुद्दीपगामी सूर्यनी साथे समश्रेणिए रहेला बे सूर्यो मेरुथी दक्षिणेसं. चरे . ॥ २७ ॥ ते मानो एक समुद्रनी अंदर जल
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परतोऽन्योऽब्धा - वुक्षेव युगयंवितः ॥ ९०५ ॥ एवमुत्तरतो मेरो - र्यो जंबूद्दीपगो रविः ।। द्वौ पुनस्तत्सम श्रेण्या । चरतोऽर्कादिबुधौ ॥ ६० ॥ तदा च चरतोर्जेबू - दीपे पीयूषरोचिषोः || मेरोः प्राच्यां प्रतीच्यां च । समश्रेण्यां बुधावपि ॥ ६१ ॥ द्वौ द्रौ शशांकौ चरतः । पूर्वपश्चिम योर्दिशोः || पर्वाक् शिखाया एकैक । एकैकः परतोऽपि च ॥ ६२॥ एवं रवींदवो येऽग्रे | संति मत्त्र्योत्तरावधि ॥ जंबूडीपपुष्पदंत - समश्रेण्या चरंति ते ॥ ६३ ॥ यथोत्तरं शिखाथी यागळ तेनी साधे समश्रेणिए. ने बीजो शिखाथी पाबळ, एम घोंसरीमां जोडेला बळदोनी पेठे ते. न विचरे वे ॥ ९९ ॥ एवीरीते मेरुथी उत्तरे जंबूद्दीपमानो जे सूर्य विचरे वे, तेनी समश्रे लिए या समुद्रमां बे सूर्यो विचरे वे ॥ ६० ॥ वळी ते वखते जंबूदीपमां val पूर्वे ने पश्चिमे विचरता वे चंद्रोनी मरखी श्रे लिए समुद्रमां पण ।। ६९ ।। जल शिखाथी यागळ एकेको, छाने एकेको पाछळ एम बबे चंडो पूर्व पने पश्चिम दिशामा संचरे वे ॥ ६२ ॥ एवीरीते यागळ स त्योत्तरसुधीमां जे सूर्यचंद्रो बे, तेन संघला जंबूद्दीपमा ना सूर्यचंद्रनी समश्रेणिए विचरे वे ॥ ६३ ॥ उत्तरोत्तर
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( ५) यदधिका-धिकक्षेत्राक्रमेऽपि ते ॥ पर्याप्नुवंति सह त-- द्गत्याधिक्यं यथोत्तरं ।। ६४ ॥ दृश्यते भ्रमतां श्रेण्या । मेढीमनुगवामिह ॥ अर्वाचीनापेक्षयान्य-गत्याधिक्यं यथोत्तरं ।। ६५॥ एवं सर्वेऽनुवर्तते । जंबूद्दी पेंदुगास्करौ । मंगलांतरसंचारा–यनाधिहानिभिः ॥ ६६ ॥ ततो जंबूदीप श्व । मोत्तराचलावधि ॥ यदाहर्मेरुतोऽपाच्या. । तदैवोत्तरतोऽप्यहः ॥ ६७ ॥ सहैवैवं निशा मेरोः । पू.
अधिकाधिक क्षेत्र नळंगवान होवा छतां पण जे तेनु. साथेज चक्रावो पूरो करे , तेथी जाणवू के उत्तरो. त्तर तेनुनी अधिकाधिक गति ने. ॥ ६४ ॥ घाणीनी थासपास बळदनीपेठे श्रेणिबंध भमता एवा ते सूर्यचं. डोनी गति अर्वाचीन सूर्यचंनी अपेदाये नत्तरोत्तर यधिकश्यधिक देखाय . ॥ ६५ ॥ एवीरीते ते सघळा सूर्यचंडो ममल, अंतर, गति, अयन तथा दिवमनी वृ. बिहानिपूर्वक जंबूद्दीपमाना सूर्यचंद्रने अनुसरे ने. ॥६६।। अने तेथी जंबूद्दीपनीपेठे क मानुषोत्तरपर्वतसुधी ज्यारे मेरुयी दक्षिणे दिवस होय, त्यारेज तेथी उत्तरे पण दिवस होय . ॥६॥ अने एवीरीते तेनी साथेज मे. रुथी पूर्व अने पश्चिमदिशातरफ रात्रि होय , एवी रीते
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( ६) पश्चिमयोर्दिशोः॥ एवं जंबूढीपरीतिः । सर्वत्राप्यनुवर्तते।.६० ।। नक्तं च सूर्यप्राप्ती____जयाणं लवणसमुद्दे दाहिणट्टे दिवसे भवति, त. याणं उत्तरदेवि दिवसे नवति, तयाणं लवणममुद्दे पुरि मपञ्चलिमे राई भवति, एवं जहा जंबूद्दीवे. दीवे तहेव. एवं घातकीखंडकालोदपुष्करार्धसूत्राण्यपि ज्ञेयानि. नन्व. त्र षोडश सह-स्रोच्चया शिखयांबुधौ । ज्योतिष्काणां सं. अरंतां । व्याघातो न गतः कथं ॥ ६ ॥ ब्रूमोऽत्र ये सर्व जगोए जंबूद्दीपनी रीतिज अनुसरे . ॥ ६७ ॥ ते माटे सूर्यपन्नत्तिमां कां ने के.. ज्यारे लवणसमुद्रना दक्षिणभागमां दिवस होय, त्यारे नुत्तरनागमां पण दिवस होय , अने तेज वखते लवणसमुद्रना पूर्वपश्चिम नागमां रात्रि होय , अ. ने एवीरीते जेम जंबूद्दीपमां ने, तेमज त्यां पण . तथा एवीरीते धातकीखंड, कालोदधिसमुद्र तथा पुष्कराधक्षेत्रनां सूत्रो पण जाणी लेवां. यहीं शंका करे ने के लवणसमुनी शोळ हजार जोजन जंची जलशिखावडे त्यां विचरता ज्योतिष्कोनी गतिनो व्याघात केम थतो नथी? ॥६५॥ तेमाटे अमो कहीये जीये के, अहीं लवण
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(103) ज्योतिषिक–विमाना लवणांबुधौ ॥ ते निंदतः संचरति । जलस्फटिकजा जलं ॥ ७० ॥ तदेतेषां जलकृतो। व्याघातो न गतेनवेत् ।। जलस्फटिकरनं हि । स्वजावा. ऊलनेदकृत ॥ ११ ॥ जलेश्याकास्तथैते । विमाना लवणोदधौ ॥ ततः शिखायामप्येषां । प्रकाशः प्रथतेऽग्नितः ॥ १२ ॥ सामन्यस्फटिकोबानि । शेषेषु हीपवाधिषु ॥ ज्योतिष्काणां विमानानि। नीचैःसर्पन्महांसि च ।।३।। तथाह विशेषणवती–सोलससाहस्मियाए सिहाए. कई समुद्रमा ज्योतिष्कोनां जे विमानो , ते जलकांतस्फटिकरत्नोनां बनेलां ने, अने तेथी तेन शिखाना जलने भेदतायका संचरे . ॥ १० ॥ अने तेथी ते जले क. रेलो तेननी गतिनो व्याघात थतो नथी, केमके जलकांतस्फटिकरत्न स्वजावधीज जलने नेदनाएं . ॥ ३१॥ वळी लवणसमुद्रमा रहेला ते ज्योतिष्कविमानो उंची लेश्यावाळां , अने तेथी तेननो प्रकाश शिखामां पण फेला शके . ।। ७२ ॥ अने बीजा द्वीपसमुद्रोमा रहे. लां ज्योतिष्कविमानो सामान्य स्फटिकनां बनेलां तथा नीचे फेलातां तेजवाळां ने. ॥ ३३ ॥ ते माटे विशेषणवतीमां कहां ने के-शोळ हजार जोजन मुंची शिखा.
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( ) जोसियविघातो न नवति ? तब भन्नइ, जेणं सूरपाणत्तीए भणियं-जोसियविमाणाई । सवाई हवंति फा लियमया ॥ दगफालियमश पुण। लवणे जे जोइसविमाणा ॥ १ ॥ ज सवदीवसमुद्देसु फालियामयाई, ल. वणसमुद्दे चेव केवलं दगफालियामया तबेदमेव कार णं मा नदगेण विघान नवनत्ति. जं सूरपमत्तीए चेव जणियं लवणतो जोइसिया नछलेसा अवंति णायचा, तेण परं जोइसिया अहोलेसगा णेयवा, तंपि नदगमा वडे ज्योतिष्कोनो विघात केम थतो नथी? तेमाटे सू. र्यपन्नत्तिमां जे कां रे ते कहे जे-ज्योतिष्कोनां सर्व विमानो स्फटिकमय होय , तेमां पण लवणसमुडमां जे विमानो , ते तो जलकांतस्फटिकरत्नमय . ॥ १॥ सघळा दीपसमुद्रोमां सामान्यस्फटिकमय, अने लवणस. मुद्रमा जे जलकांतस्फटिकमय विमानो ने, तेनुं कारण ए के जलशिखाथी तेननो विघात न थाय. वळी सूर्य पन्नत्तिमां एम पण कडं ने के, लवणसमुद्रमाहेलां ज्यो. तिष्कविमानो ऊर्ध्व लेश्यावाळां जाणवां, अने बाकीनां ज्योतिष्कविमानो अधोलेश्यावाळां जाणवां, घने ते प. ण जलश्रेणिने प्रकाशित करवामाटे , केमके लोक.
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( ए) लावणासणबमेव लोगनिई एसत्ति. एवं चत्वारोंऽत्र सू. या-श्चत्वारश्च सुधांशवः ॥ नदाताणां शतमेकं । प्राप्त द्वादशोत्तरं ।। ४ ।। दिपचाशत्समधिकं । ग्रहाणां च श. तत्रयं ॥ प्रमाणमथ ताराणां । यथाम्नायं निरूप्यते ॥१५॥ दे लक्षे सप्तषष्टिश्च । सहस्राणि शतानि च ॥ नवैव को. टाकोटीनां 1 प्रोक्तानि तत्ववेदिन्निः ॥ १६ ॥ यत्रायमानायः-यत्र द्वीपे समुझे वा । प्रमाणं ज्ञातुमिष्यते ॥ ग्रहनदतताराणां । तत्रत्यचंद्रसंख्यया ।।39 ॥ एकस्य शशिनो गुण्यो । वदयमाणः परिबदः ॥ एवं ग्रहोमुतारास्थिति एवी , एवीरीते आ लवणसमुद्रमा चार सूर्यो, चार चंडो बने एकसो बार नदलो ने, ॥ १४ ॥ तेमज वणसो बावन ग्रहो , हवे त्यां रहेला ताराजनुं प्रमाण यानायमुजब निरूपण करे . ॥ १५॥ बे लाख समसठ हजार नवसो कोटाकोटी तारान तत्वज्ञानीनए क.. हेला ने. ॥ १६॥ यहीं नीचेमुजब थाम्नाय -जे ही. प अथवा समुद्रमां ग्रह, नक्षत्र बने ताराननुं प्रमाण जाणवू होय, तो त्यांना चंद्रनी संख्यावडे ॥ 9 ॥ एक चंद्रना वर्णन कराता परिवारने गुणवो. थने एवीरीते सर्व जगोए ग्रह, नदत्र अने तारानुनुं प्रमाण मळे ने.॥
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(श ) णां । मानं सर्वत्र लन्यते ॥ ७० ॥ एकशशिपरिवारश्वायं-अष्टाशीतिग्रहा ऋदा-एयष्टाविंशतिरेव च ॥ शराश्वांकरसर ना ६६०७१-स्ताराणां कोटिकोटयः ॥ १५ ॥ लवणाब्धौ च कालोदे । स्वयं रमणेऽपि च ।। जयस्यो मत्स्यमकर-कूर्माद्या मत्स्यजातयः ॥ ७० ॥ तत्रास्मिलवणांगोधा-वुत्सेधांगुलमानतः ॥ योजनानां पंचशतान्युत्कृष्टं मत्स्य धनं ।। ७१ ॥ शतानि सप्त कालोदे । सहस्रमंतिमबुधौ ।। गुर्वगमानं मत्स्याना-मल्पमत्स्याः परेऽब्धयः ॥ ७२ ॥ स्युर्योनिप्रगवा जाति-प्रधानाः कु. ॥ ७० ॥ वळी एक चंद्रनो परिवार नीचेमुजब -श्र. ठ्यासी ग्रहो, अगवीस नदात्रो अने गसठ हजार नवसो पंचोतेर कोटाकोटी ( ६६०१५) तारान . || लवणसमुङ, कालोदधिसमुद्र, अने स्वयं नरमणसमुद्रमां घणां मत्स्य, मगर तथा काचवायादिकनी मत्स्यनी जा. तिन ॥ ७० ॥ तेमां या लवणसमुद्रमां नत्सेधांगु. लना प्रमाणथी मत्स्यनुं नत्कृष्टुं शरीर पांचसो जोजन३. ॥ १ ॥ कालोदधिमां सातसो जोजननु, अने ख. यंत्रमणमा एक हजार जोजननुं मत्स्योर्नु नत्कृष्टुं शरीर बे, बाकीना समुद्रो स्वल्प मत्स्योवाळा . ॥ २॥ लव
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लकोटयः ।। लवणे सप्त मत्स्यांनां । नव कालोदवारिधौ ॥ ३ ॥ अर्धत्रयोदश तथा । मत्स्यानां कुलकोटयः ।। स्वयं जरमणांगोधौ । प्राप्ताः परमेष्टिन्निः ॥ ७ ॥ तथा च जीवानिगमे___ 'लवणेणं नंते समुद्दे का मबाजातिकुलकोमि जोणीपमुहसयसहस्सा पमत्ता ? गो० लवणे सत्त, का. लोए नव, सयं नरमणे बघतेरसत्ति जंबूहीपे प्रविशंति । मत्स्या लवणतोयधेः ॥ नवयोजनप्रमाणा | जगणसमुद्रमा योनिथी नत्पन्न थयेली जातिप्रधान मत्स्यो. नी सात कुलकोटीन , अने कालोदधिसमुद्रमा तेवी नव कुलकोटीने . ।। ७३॥ वळी स्वयंवरमणसमुद्रमां झानीनए तेवी सामावार मत्स्योनी कुलकोटीन कहेली . ॥ ४ ॥ तेमाटे जीवानिगममां कां ने के
हे भगवन् ! लवणसमुद्रमां जातिप्रधान योनिथी न. त्पन्न थयेली मत्स्योनी केटली कुलकोटीन कहेली ? ( भगवान कहे जे के ) हे गौतम! लवणसमुद्रमा सात, कालोदधिमां नव, अने स्वयं जरमणमा सामावार कुलको टिन ने. नव जोजनना प्रमाणवाला मत्स्यो जगतीना द. खाजाने मार्गे लवणसमुद्रमांथी जंबूढोपमां श्रावे . ॥
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(श ) ती विवराध्वना ॥ ४५ ॥ एवं च-वचिदयमुदधिः सुधां शुचंद्रा-तपघनसारसमुज्ज्वलश्चकास्ति । गतिशिखसिर सः शिखानिरामो । रहसि हसन्निव वारिधीनशेषान् ॥ ॥ ६ ॥ कचिदुदयदमंदभानुतेजो-घुसृणरसप्रसरारुणांतरालः ॥ प्रकटमिव वहनदीषु रागं । हृदि रसतः पतिता. सु वल्लनासु ॥ ७ ॥ युग्मं ॥ कचिदनाणुगुणैर्विभाति मु. ता-मणिभिरुमुप्रतिबिंबितैरिखांतः ॥ अविरतगतिखिनमा. ॥ ५ ॥ वळी एवीरीते-या लवणसमुफ कोश्क ज. गोए चंद्रनी चांदनीरूप बरासथी नज्ज्वल थयोथको, त. था शिखाथी मनोहर थयेलो मस्तकपर शिखाविनाना बीजा सघन समुद्रोनी जाणे हांसी करतो होय नहि ते. म शोने . ॥ ६ ॥ वळी कोश्क जगोए नदय पाम ता सूर्यना प्रचंम तेजरूपी केसरना रसना फेलावाथी लाल थयेल ने मध्य नाग जेनो एवो ते समुद्र रसथी ह. दयपर पडेली नदीनरूपी स्त्रीनप्रते प्रकटरीते जाणे रा. गने धारण करतो होय नहि तेम शोने जे. ॥ ७ ॥ युग्मं ॥ वळी कोश्क जगोए ते जाणे अंदर तारान प्र. तिबिंबित थया होय नहि तेम अतिमूल्यवान मोतीन भने मणिनथी शोने , अने कोश्क जगोए अविछि- .
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(१५३.) नुमुक्तैः । कचन करप्रकरैखि प्रवासैः ॥ ७ ॥ वचन जलगजैनियुधसौ. रसदुदस्तकरोधुरैः करायः ॥ ज. गदुपकृतिकारिनीरपानोपनतघनेषु धृतप्रतीनशंकैः ।। ॥ नए ॥ स्थलचरसमसर्वजातिसत्त्वा-कृतिमदनेकषीघपूर्णमध्यः ॥ प्रलयतरलितं जगद्दधानो । हरिवि कुदि निकेतने कृपार्डः ॥ ५० ॥ कचिदिह कमलायाः कौतु. कादारमत्या । जलचरनरकन्यालीषु हल्लीसकेन ॥ अय न गतिथी थाकी गयेला सूर्ये छोमी दीधेलां किरणोनां समूहोथी होय नहि जेम तेम प्रवालांनथी शोने . ॥ ॥ ॥ वळी को जगोए जगतने उपकार करनारा अने जलपानमाटे नमेलां वादळांनपते धारण करेल ने दुश्मनहाथीननी शंका जेनेए. तथा युधमाटे सङा थ. येला, अने निरंतर नंची करेली सुंढोथी भयंकर लाग. ता एवा जलहस्तीनथी ते लवणसमुफ विकराल लागे बे. ॥ ॥ स्थलचरसरखी सर्व जातिना प्राणीननी, थाकृतिवाळा अनेक मत्स्योना समूहथी नरेल ने मध्यनाग जेनो एवो या लवणसमुद्र विष्णुनीपेठे कृपाबु थ. योथको प्रलयथी मरता जगतने पोतानी कुदिरूपी घर मां धारी रहेलो . ॥ ५० ॥ वळी यहीं कोक जगोए
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(शप ) मुपनयतीवापत्यरागैकगृह्यः। पवनजवनवेलागर्जिवाद्यं वि. नोदात ॥१॥ तरलतरतरंगोतंगरंगत्तरंगः । प्रसरदत. लवेलामत्तमातंगसैन्यः ॥ अतिविपलमनोहीपदर्गस्द प्रः । कलयति नृपलदमीं वाहिनीनां विवोढा ॥ ५ ॥ वडोन्मूदतुबमत्स्यपटलीपुडोबलबीकर-बेदोत्से कितबुदबुदाबुदमिषोविनश्रमांभःकणः ।। हेलोप्लाविततुंगपवे. जलचर मनुष्योनी कन्यानरूपी सखीनसाथे कौतुकथी रास रमती लक्ष्मीमाटे अपत्यना रागथी वश थयेलो ते लवणममुद्र विनोदथी वायुना वेगथी नगळती जरतीना गर्जावरूपी वाजिन जाणे तेणीनी पासे लावी पापे ने. ॥ १ ॥ अतिचपल मोजांनरूपी नंचे नछळता घोडा. नवाळो, तथा विस्तार पामती यतुल्यभरतीरूपी मदोन्मत्त हाथीनना सैन्यवाळो, अतिविस्तीर्ण अने मनोहर ही. पोरूपी किल्ला वाळो ते लवणसमुद्र नदीनने परणतो. थको राज्यलक्ष्मी भोगवे . ॥ ९ ॥ प्रकटरीते नळ. ता मत्स्योनी श्रेणिन्ना पुबडांथी गंचे नडता जलकणोना नेदावाथी निकळता परपोटानना मिषथी नत्पन्न थयेल ने पसीनाना जलकणो जेने, तथा क्रीडाथी धोश नाखेला सेंकमोगमे नंचा पर्वतोपर यथमाता मोजांन.
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(२७५) तशतोत्सर्पत्तरंगोष्तो। वीरंमन्य श्वैष चिक्रमिषया दि. ग्नुभृतां धावति ॥ ए३ ।। क्रुघाखंडलवज्रमंडलगलज्ज्वालाकरालानल-त्रस्तानेकगिरीऽकोटिशरणं कल्पफुमाणां वनं ॥ तत्तद्दस्तुवदान्यतातरलितैरप्यर्थितो निर्जरैयो रत्नाकर इत्यनेककविनिर्नानाविकल्पैः स्तुतः ॥४॥ निर्वीडक्रीमदंगश्वरनरतरुणीकृप्तदीपोपचारै-नूनरत्नरयत्नोज्ज्वलघनघृणिनिः कापि दीप्रांतरालः ॥ कापि प्राप्तप्रकर्षः थी नछत थयेलो एवो ते लवणसमुफ जाणे सुभटपणानो डोळ करतो होय नहि तेम दिग्पर्वतोने याक्रम णा करवानी श्वाथी दोडे . ॥ ३ ॥ क्रोध पामेला इंद्रना वज्रमंडलमाथी निकळती ज्वालाना नयंकर अमिथी मरेला अनेक क्रोमोगमे पर्वतोना शरणरूप, तथा कल्पवृदोनां वनरूप, तथा ते ते वस्तुन्ना दानथी च. कित श्रयेला देवोथी पण प्रार्थना करायेलो, तथा जे र. नाकरना नामथी अनेक कविनवडे विविधप्रकारनां वि. कल्पोथी स्तुति करायेलो , एवो था लवणसमुद्र ने. ॥ ॥ खजारहित क्रीडा करता जलमनुष्यो भने ते. उनी स्त्रीनए करेली दीपकोनी तैयारीथी दूर करेला, अने यत्नविना उज्ज्वल प्रकाशवाळां रनोथी कोश्क ज.
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(Nण्६) पृथुमकरकराकृष्टपातीनपीठ-भ्रस्यन्नक्रप्रमोदोखलनचलजलोत्सितमिमीरपि मैः ॥ ५॥ दशभिरादिकुलकं ॥ विश्राश्चर्यदकीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाकेंडतिष-द्राजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः ॥ काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे । संपूर्ति सुखमेकविंशः तितमः सर्गो मनोझोगमत | 09॥ इति श्रीलोकप्रकाशे एकविंशतितमः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥ गायें तेजस्वी थयेल के अंदरनो जाग जेनो एवो, तथा मोटा मगरना हाथथी खेचायला पाठीनपीठजातिना म त्स्योपासेथी पडीजता नमत्स्योना हर्षपूर्वक नछाळाथी चपल थयेला जलथी सीचायेला फीणना पिंडोथी- कोक जगोये प्राप्त करेल ने मोटा जेणे एवो ते लवणसमुद्र ने. ॥ ५५ ॥ दशजिरादिकुलकं ॥ जगतने श्राश्चर्य थापनारी ने कीर्ति जेनी एवा श्रीकीर्तिविजयजीवा. चकेंद्रना शिष्य, तथा राजश्री थने तेजपालना पुत्र एवा श्रीविनयविजयजी महाराजे निश्चित थयेला जगतना तत्वने प्रकाशवामां दीपकसमान एवं जे या काव्य रच्यु
, तेमां मनोहर एवो था एकवीसमो सर्ग संपूर्ण थयो. एवीरीते श्रीलोकप्रकाशमां एकवीसमो सर्ग समाप्त थयो.
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(209) ॥ यथ हाविंशतितमः सर्गः प्रारम्यते ॥
अथास्मान्त्रवणांनोधे-रनंतरमुपस्थितः ॥ वर्यते धातकीखम-दीपो गुरुप्रसादतः ॥ १ ॥ वृक्षेण धातकी नाम्ना । यदसौ शोभितः सदा ॥ वदयमाणस्वरूपेण । त. तोऽयं प्रथितस्तथाः॥२॥ चतुर्योजनलदात्मा | चक्रवालतयास्य च ॥ विस्तारो धर्णितः पूर्ण झानालोकितविष्टपैः ॥ ३ ॥ परिक्षेपः पुनरस्य । कुदिस्थद्दीपवारिधः॥ त्रयोदशलदरूपः । क्षेत्रलब्धोऽयमीरितः ॥ ४ ॥ लदार किलैकचत्वारिंशत्सहस्राण्यथो दश ॥ योजनानां न
११. ॥ हवे बावीसमा सर्गनो प्रारंन थाय . ॥
हवे या लवणसमुद्रपछी थावेला धातकीखंग ना. मना द्दीपनुं गुरुना प्रसादथी वर्णन कराय . ॥१॥ जेनुं वर्णन करवामां श्रावशे एवा धातकी नामना वृताः थी या शोजितो थयेलो ने, थने तेथी ते धातकीखम नामथी प्रसिध .॥२॥ केवलझानश्री जोयेल ज. गत जेमणे एवा जिनेश्वरोए तेनों चक्रवाल विस्तार चार लाख जोजननो कहेलो . ॥३॥ पाखामा रहेल ने द्वीप तथा समुद्र जेने एवा या धातकीखमनो क्षेत्रसंबंधि घेरावो तेर लाख जोजननो . ॥ ४ ॥ एकतालीस ला.
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(श ) वशती । किंचिदुनैकषष्टियुक ।। ५ ॥ अयं कालोदपार्श्वऽस्य । परिधिश्वरमो भवेत् ॥ श्रावस्तु लवणांभोधे-रं. ते यः कथितः पुरा ॥ ६ ॥ मध्यमः परिधिलदा-एयशाविंशतिरेव च ॥. षट्चत्वारिंशत्सहस्राः । पंचाशद्योजनाधिकाः ॥ ७ ॥ जंबूद्दीपवदेषोऽपि । दारैश्चतुर्निरंचितः ॥ तेषां नामप्रमाणादि । सर्व तद्भवेदिह ॥ ७॥ किं. त्वेतद्वारपालानां । विजयादिसुधानुजां ।। परस्मिन् धात. कीखंडे । राजधान्यो निरूपिताः ॥ ७ ॥ दश लदा यो जनानां । सहस्राः सप्तविंशतिः ॥ पंचत्रिंशा सप्तशती । ख दश हजार नवसो अने कईक नंग एकसठ जोज ननो ॥ ५ ॥ तेनो डेल्लो घेरावो कालोदधिसमुद्रपासेनो बे, घने पहेलो तो लवणसमुद्रना मापासे , के जे पवे कहेलो . ॥ ६॥ वळी तेनो वचलो घेरावो अठा. वीस लाख बेतालीस हजार अने पचास जोजननो बे. ॥ ७ ॥ था दोप पण जंबूढीपनीपेठे चार दरवाजानथी. शोनितों , तेजनां नामो तथा प्रमाणयादिक सघर्छ। खरूप पण जंबृद्दीपना दरवाजानजेज ने. ॥ ॥ प. रंतु ते हारोना विजयादिक रदकदेवोनी राजधानीन बी. जा धातकीखममां कहेली . ॥ ५ ॥ अहीं ते हारोनं
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( शपए) मिथो हारामिहांतरं ॥१०॥ दक्षिणस्यामुदीच्यां च । ही पस्यैतस्य मध्यगौ ॥ षुकारौ नगवरौ । जगदाते जग. हितैः ॥ ११ ॥ योजनानां पंचशता-न्युच्चौ सहस्रविस्तृतौ ॥ चत्वारि योजनानां च । लदाण्यायामतः पुनः ॥ १२ ॥ श्रत एव स्पृष्टवतौ । कालोदलवणोदधी ॥श्राज्यां संगंतुमन्योऽन्यं । भुजाविव प्रसारितौ ॥ १३ ॥ कू. टैश्चतुर्तिः प्रत्येकं । शोनितौ रत्ननासुरैः । चैत्यमेकैकं च तत्र । कूटे कालोदपार्श्वगे ॥ १४ ॥ चतुर्जिः कुलकं ।। परस्पर अंतर दश लाख सतावीस हजार सातसो पांत्रीस जोजननुं .॥ १० ॥ या दीपना मध्यनागमां दक्षिणे अने उत्तरे जगतना हितकारी जिनेश्वरोए बे ईषुकार पर्वतो कहेला . ॥ ११ ॥ ते बन्ने पर्वतो पांचसो जोजन जंचा, एक हजार जोजन पहोळा अने चार लाख जोजन लांबा ने. ॥ १२ ॥ अने तेथीज कालोदधि त. था लवणसमुद्रने तेन बन्ने स्पर्श करे , तथा तेन ब. नेने नेळा करवामाटे जाणे बे हाथो पहोल कर्या होय नहि तेम ते लागे . ॥ १३ ॥ वळी ते दरेक पर्वत र. नोथी तेजस्वी थयेलां चार शिखरोथी शोनितो, ते. जमां कालोदधिसमुद्रपासे रहेला शिखरपर एकेकुं चैत्य
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(३००) थान्यां हान्यामिषुकार-पर्वतान्यामयं द्विधाः ॥ दीपो निर्दिश्यते पूर्व-पश्चिमाविनेदतः ॥ १५ ॥ यच्च जंबू. द्वीपमेरोः। प्राच्या पूर्वार्धमस्य तत् ॥ तस्य प्रतीच्यामध य-तत्पश्चिमार्धमुच्यते ॥ १६ ॥ तयोरप्यर्धयोर्मध्य । ए. कैको मंदराचलः । तयोरपेदया क्षेत्र व्यवस्थात्रापि पू. र्ववत् ।। १७ ॥ तथाहि-अपाच्यामिषुकारो य । श्हत्यमेपेक्षया ॥ पूर्वतस्तस्य नरत-क्षेत्रं प्रथमतो नवेत् ॥ ॥ १५ ॥ ततो हैमवतक्षेत्रं । हविर्षे ततः परं ॥ ततो म. हाविदेहाख्यं । रम्यकाख्यं ततः परं ॥ १७ ॥ ततश्च है. ने.॥ १४ ॥ चतुर्निः कुलकं ॥ था बन्ने इषुकारपर्वतवडे
था द्वीप पूर्व घने पश्चिमार्धना भेदथी बे विनागमां व. हेंचायेलो . ॥ १५ ॥ वळी जंबद्दीपना मेरुथी पूर्वमां जे ने ते तेनुं पूर्वार्ध ने, अने पश्चिममा जे अर्धनागडे, ते पश्चिमा कहेवाय ने ॥ १६ ॥ ते बन्ने अर्धनागोनी वचमां एकेको मंदराचल पर्वत ने. अने तेननी अपेझाए वहीं पण पूर्वनीपेठे क्षेत्रोनी व्यवस्था ने. ॥१७॥ ते कहे बे-थहीना मेरुनी थपेदाये दक्षिणे जे घुकार पर्वत , तेनी पूर्व पहेबु जरतक्षेत्र ने. ॥ १०॥पछी हैमवतक्षेत्र, पछी हविर्षक्षेत्र, पनी महाविदेहक्षेत्र अ
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(३०१ ) एयवत-मैराक्तं ततस्ततः ।। औत्तराह क्षुकार । एषा पू. वर्धिसंस्थितिः ॥ १७ ॥ पश्चिमायामपि तस्मा-दाक्षिणा त्येषुकारतः। प्रथमं भरतक्षेत्रं । ततो हैमवताभिधं ॥२०॥ एवं यावदौतराह । इषुकारधराधरः ।। पूर्वार्धवक्षेत्ररीतिरेवं पश्चिमतोऽपि हि ॥ २१॥ योरप्यर्धयोरेषां । क्षेत्रा. णां सीमकारिणः ॥ षट् षट् वर्षधराः प्राग्वत । सर्वेऽपि द्वादशोदिताः ॥ ॥ जंबूदीपवर्षवरा-दिन्यो दिगुणविस्तृताः ॥ तुंगत्वेन तु तैस्तुल्याः । सवै वर्षधराज्यः ॥ ने तेपनी रम्यक नामनुं क्षेत्र ने, ॥ १७ ॥ पनी हैरण्यवत अने पछी ऐरावत क्षेत्र ने. अने पनी नत्तरतरफना
शुकारमां नीचेमुजब पूर्वार्धनी स्थिति . ॥ १५ ॥ ते दक्षिणतरफना इषुकारथी पश्चिमदिशामां पहेलु जस्तक्षेत्र अने पनी हैमवतक्षेत्र . ॥ २०॥ एवी रीते ज्यांसुधी उत्तरतरफनो षुकार पर्वत ने त्यांसुधी पूर्वार्धनीपेठे प. श्चिमे पण क्षेत्रोनी व्यवस्था ने. ॥ २१ ॥ ते बन्ने अर्ध नागोमां रहेला क्षेत्रोनी सीमा करनारा पूर्वनीपेठेउन वर्षधर पर्वतो , घने तेन सर्व मळीने बार वर्षधर पर्व तो कहेला . ॥ २२ ॥ ते सघळा वर्षधर पर्वतो जंबूढीपना वर्षधरपर्वतोथी बेवडा विस्तारवाळा , तथा जंचा
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(३०१) ॥ ३ ॥ यायामतश्चतुर्लद-योजनप्रमिता अमी ।। प. र्यतस्पृष्टकालोद-लवणोदधिवारयः ॥ २४ ॥ तथाह्यत्र हिमवतो-गिर्योः शिखरिणोरपि ॥ विष्कंनोऽयं जिनैरुक्तः । पूर्वापरार्धनाविनोः ॥ २५ ॥ योजनानां शतान्येक-विंशतिः पंच चोपरि। कलाः पंचैवाथ महा-हि. मवतोश्च रुक्मिणोः ॥ १६॥ अष्टावेव सहस्राणि । यो. जनानां चतुःशती ॥ एकविंशत्यन्यधिका । तथै वैककला. धिका ॥ २७ ॥ त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि । योजनानां शतानि षट् ।। स्फुरचतुरशीतीनि । कलाश्वतस्र एव च ।।२०।।
मां तो तेनाजेवाज ने ॥ ३ ॥ लंबाश्मां तेने चार लाख जोजनना , तथा डाना भागथी तेन लवणस. मुद्र अने कालोदधिसमुद्रना जलने स्पर्श करी रहेला बे. ॥ २४ ॥ तेमाना पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धमा रहेला बे हि. मवंत तथा बे शिखरी पर्वतोनी पहोळाश्नीचेमुजब जि. नेश्वरोए कहेली . ॥ २५ ॥ एकवीससो पांच जोजन बने पांच कलानी ने. हवे बन्ने महाहिमवंत तथा बन्ने रुक्मिपर्वतोनी पहोळाश, ॥ २६ ॥ पाठ हजार चारसो एकवीश जोजन बने एक कलानी ने. ॥ २७ ॥ वळी तेत्रीस हजार छसो चोर्यासी जोजन थने चार कला,॥
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( ३०३ ) विष्कंनोऽयं निषधयो- गिर्योनलवतोरपि ॥ चादशानामध्यमषां । व्याससंकलना वियं ॥ २५ ॥ लक्षमेकं योजनानां । षट्सप्ततिसहस्रयुक् । शतान्यष्टौ द्विचत्वारिं शता समधिकानि च ॥ ३० ॥ द्वे योजनसदस्रे च । वि. ष्कंभ इषुकारयोः । तस्मिंश्च योजितेऽवादि - रुषं क्षेत्र मिदं जवेत ।। ३१ ।। एकं लक्षं योजनानां । सहस्राण्य: ष्टसप्ततिः ॥ द्विचत्वारिंशदधिका - न्यष्टौ शतानि चोपरि ॥ ३२ ॥ तलवणांनोधि - परिघेरपनीयते ॥ द्वाद :शान्यां शताभ्यां च । तेन न्यूनः स भज्यते ॥ ३३ ॥
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|| २ || एटली पहोळा वे निषेध गरिने बे नीख वंत पर्वतोनी बे, तथा ते बारे पर्वतोना व्यासनी संकलना नीचेमुजब . ॥ श्७ ॥ एक लाख छहोतेर हजार याउसो बेतालीस जोजन वे. ॥ ३० ॥ वळी बन्ने इषुकाः रपर्वतोनी पहोळा बे हजार जोजननी बे, ने तेने मां जोवाथी पर्वतो रोकेनुं क्षेत्रप्रमाण नीचेमुजब थाय बे ॥ ३१ ॥ एक लाख पोतेर हजार पाठमो बेतालीस जोजन वे. ॥ ३२ ॥ तेरखी रकम लवणसमु ना घेरावामाथी बाद करखी, छाने पनी तेने बसो बारे भांगवी. ॥ ३३ ॥ त्यारे व हजार बसो चौद जोजन प
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(३०४) लब्धानि योजनसह-स्राणि षदा षट् शतानि च ॥च. तुर्दशाब्यानि नागा-चैकोनत्रिंशकं शतं ॥ ३४ ॥ हादशाब्यशतद्वंद-कुष्मैकयोजनोद्भवाः ॥ तत्रेयत्पृथवस्तें
शा। दिशती दादशाजवन् ॥३५॥ अय चैतादृशैरंशयथास्थमुपकटिपतैः ॥ चतुर्दशानां क्षेत्राणां । लन्यते मु. खविस्तृतिः ॥ ३६॥ नागकल्पना चैवं
। एकैकोशो नरतयो श्-स्तथैरवतयोरपि २॥ च वारो हैमवतयो -हैरण्यवतयोरपि ॥ ३७ ॥ हरिवर्षाख्ययो. रेवं १६ । तथा रम्यकयोरपि १६ ॥ पूर्वापरार्ध गतयोरंशाः षोडश षोमश ॥ ३० ॥ चतुःषष्टिश्चतुःषष्टि-विदेने एकसो नगणत्रीस भागो श्राव्या, ॥ ३४ ॥ के जे जागो एक जोजनना बसोबारमा नागजेवा , केमके त्यां ते बसोबार अंशो एटला पहोळा . ॥ ३५ ॥ हवे यथास्थितपणे कटपेला तेवा अंशोवडे चौदे क्षेत्रोना मुखनो विस्तार मळी शके . ॥ ३६ ॥ हवे ते भागक ल्पना नीचेमुजब बे
एकेको अंश बन्ने नरत तथा बन्ने ऐवतोनो, चार चार बे हैमवत तथा बे हैरण्यवतोना, ॥ ३७॥ तथा एवीरीते पूर्वार्ध बने पश्चिमाधमां रहेला बे हविर्ष तथा
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.... (३०५ ) हक्षेत्रयोईयोः ॥ द्विशती हादशा चैवं । नागाः स्युः सर्वसंख्यया ॥ ३५ ॥ भरतैरवतेन्यो वाः । चतुर्दा मुखकि स्तृतिः ॥ विज्ञेया हैमवतयोः । हैरण्यवतयोरपि ॥ ४० ॥ षोमशना हविर्ष-रम्यकद्दयविस्तृतिः ॥ तथा चतुःषष्टिगुणा । विदेहक्षेत्रयोईयोः ॥ ४१ ॥ एवं च धातकीखंडे । मध्यमात्परिधेरपि । पूर्वोदितादुक्तशैल-रुक्षेत्रविनाकृतात् ॥ ४२ ॥ द्वादशाब्यशतद्वंद-विनक्तादुपकटिपतैः॥ मुखविस्तृतिवनाग-लन्यैषां मध्यविस्तृतिः ॥ ४३ ॥ त.. बे रम्यकना शोळ शोळ अंशो जाणवा. ॥ ३० ॥ तथा बे विदेहक्षेत्रोना चोसठ चोसठ अंशो , अने एवीरीते सर्व मलीने बसोबार भागो थाय ने. ॥३॥जरत अ. ने ऐवतधी हैमवत तथा हैरण्यवतदोत्रना मुखनो विस्तार चारगणो ने, ॥ ४० ॥ बन्ने हरिवर्ष तथा रम्यकक्षेत्रोनो मुखविस्तार शोळगणो ने, तथा बन्ने विदेहक्षेत्रोनो चोसठगणो ने. ॥ ४१ ॥ वळी एवीरीते धातकीखममां वचः . ला वेरावामांथी पूर्व कहेला पर्वतोए रोकेलां क्षेत्रने बाद करवायी ॥ ४२ ॥ तथा बसोबारे नांगवाथी कल्पेला एवा मुखविस्तारवाळा जागोवडे तेननो मध्यनागनो विस्तार मले . ॥ ४३ ॥ वळी एवीरीते कालोदधिसमु.
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(३०६) थात कालोदासन्ना-पर्यंतपरिधेरपि ॥ नगरुक्षेत्रहीनाद् । द्वादशदिशताहृतात् ॥ ४ ॥ मुखविस्तृतिवद्भाग -यथास्थमुपकल्पितैः ॥ चतुर्दशानां क्षेत्राणां । लन्या पर्यंतविस्तृतिः ॥ ४५ ॥ एवं च वक्ष्यमाणायां । क्षेत्रविधिधविस्तृतौ ॥ मानत्संमोह इत्येष । आम्नायः प्राक्प्रपंचितः ॥ ४६॥ किंच-कृत्वादिरुहं क्षेत्रं त-सहस्रद्वितयोनितं ॥ कर्तव्याश्चतुरशीति-स्तस्याप्यंशा दिशानया ॥७॥ एकैकोशो हिमवतो-स्तथा शिखरिणोरपि ॥ अंशाश्वत्वारश्च महा-हिमवतोश्च रुक्मिणोः ॥ ४ ॥ षोमशां. द्रपासेना रेल्ला घेरावामांयी पर्वतोए रोकेलां क्षेत्रने बाद करवाथी, घने बसोबारे जांगवाथी॥ ४ ॥ मुखविस्ता. खाळा यथास्थितरीते कल्पेला भागोवडे ते चौदे क्षेत्रोनो मानो विस्तार मळी श्रावे . ॥ ४५ ॥ एवीरी. ते वर्णवाता एवा ते क्षेत्रोना विविधप्रकारना विस्तारमा भ्रमणा न थवामाटे पहेलां था थाम्नाय वर्णवी बताव्यो बे.॥ ४६॥ वळी-पर्वतोए रुंधेला ते क्षेत्रमाथी बेहजार बाद करीने, तेना पण नीचे जणाव्या मुजब चो. र्यासी भागो करवा. ॥ 8 ॥ एकेको बे हिमवंतोनो, तथा बे शिखरीननो, अने चार चार बे महाहिमवंत त.
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( ३०७ )
शा निषधयो - नीलवन्नगयोरपि ॥ एवं चतुरशीत्यांशेवर्षधर विस्तृतिः ॥ ४ ॥ प्रत एव च वक्ष्यंते । नागाचतुरशीतिजाः || वर्षाद्विमानेऽस्मिन पुष्क - राधेऽपि योजनोपरि || २० || क्षेत्राण्येतानि दधति । चकारकांतराकृतिं || दाराव्धिदिशि संकीर्णा — न्यन्यतो विस्तृतानि यत् ॥ ९१ ॥ जंबूद्दीपाखार्द्ध - मध्यनानिमनोदरे ॥ वः र्षाचलेषुकाराद्रि- चतुर्दशारकांचिते ॥ ९२ ॥ यस्मिन मदादीपचक्रे । कालोदायः प्रधिस्थिरे || अरकांतखद्धाति.
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था वे रुक्मिना जावा. ॥ ४८ ॥ बे निषध तथा बे नीलवानपर्वतोना सोळ सोळ भागो वे, छाने एवीरीते चोर्यासी भागोवडे वर्षधरपर्वतोनो विस्तार थाय बे. ॥ ॥ ४० ॥ खने तेथी या पुष्करार्धमा पण वर्षधरपर्वतोना प्रमाणमां योजन उपर चोर्यासीया जागो कहेवाय बे. ॥ ९० ॥ घ्या दोत्रो चक्रना यानी वचेना भा गजेवा याकारने धारण करे वे, ने तेज लवण समुद्रनी दिशातरफ सांकमा छाने सामीबाजुए पदोळा बे. ॥ ॥ ५१ ॥ जंबूदीप तथा लवणसमुद्ररूपी वचली घरीथी मनोहर थयेला, तथा वर्षधर पने इषुकारपर्वतरूपी चौद याराथी शोभिता ॥ ५२ ॥ तथा कालोदधिसमुद्ररूपी
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( ३०७)
। क्षेत्राणीति चतुर्दश ॥ ५३ ॥ क्षेत्राणामिह पर्यत । ए. षां कालोदसन्निधौ ।। मुखं च लवणांनोधि-समीपे परिभाषितं ॥ १४ ॥ ज्ञेयाः देवप्रकरणे । सामान्येनोदिता लवाः ॥ हादश हिशतक्षुण-योजनोडा बुधैरिह ।। ॥ ५५ ॥ तत्रेह याम्येषुकार-हिमवत्पर्वतांतरे ॥ पूर्वाः प्रथमं नाति । दोत्रं भरतनामकं ॥ ५६ ॥ चतुर्दशानि षट्षष्टि-शतानि विस्तृतं मुखे ॥ एकस्य योजनस्यांशाश्चैकोनत्रिंशकं शतं ॥ २७ ॥ योजनानां सहस्राणि । म. लोखमना पाटाथी स्थिर थयेला एवा या महादीपरूपी चक्रमां ते चौद देतो पाराना अंतरभागोनीपेठे शो. ने . ॥ ५३॥ या क्षेत्रोनो बेडो कालोदधिसमुद्रपासे बे, अने मुख लवणसमुद्रनी पासे कहेवू . ॥ २४ ॥ क्षेत्रप्रकरणमा सामान्यपणे कहेला लवो एक जोजनना बसोबारांशजेवडा अहीं विद्वानोए जाणवा. ॥ ५५ ॥ ह. वे यहीं पूर्वाधमां दक्षिणतरफना क्षुकार बने हिमवंत पर्वतनी बच्चे पहेबु भरत नामनुं क्षेत्र शोने जे. ॥१६॥ ते क्षेत्र मुखतरफना नागमासे छासठसो चौद जोजन तथा एक जोज़नना एकसो जंगणवीस नागोजेटला वि. स्तारवाळु . ॥ २७ ॥ वळी मध्यनागमां तेनो विस्तार
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(३० ) ध्ये हादश विस्तृतं ।। सैकाशीति पंचशती । तथा षदत्रिं शतं लवान् ॥ २७ ॥ अष्टादश सहस्राणि । योजनानां शतानि च ॥ पंचैव सप्तचत्वारिंशद्योजनाधिकान्यथ।। ॥॥ पंचपंचाशदधिक-मंशानां नियतं शतं ॥ एता. वद्धरतक्षेत्रं । पर्यते विस्तृतं मतं ॥ ५० ॥ त्रैराशिकादि. ना नाव्यो । विस्तारोऽन्यत्र तु स्वयं ॥ तादृक्क्षेत्राकृत्य भावा-नात्र ज्यावनुरादिकं ॥ १५ ॥ मध्यन्नागेऽस्य वैताब्य । नचत्वपृथुतादिभिः ॥ जंबूदीपस्थन्नरत-वैताब्य श्व सर्वथा ॥ ६० ॥ आयामतः किंतु चतुर्खदयोज. बारहजार पांचसो एकासी जोजन बत्रीस लवोजेटलो ने. ॥ १७ ॥ वळी प्रहारहजार पांचसो समतालीस जोजन ॥ ५५ ॥ श्रने एकसो पचावन नागोजेटलो ते भरत. क्षेत्रनो डाना जागमां विस्तार कहेलो . ॥ २७ ॥ ह. वे ते क्षेत्रनो बीजी जगानो विस्तार तो त्रैराशिकादिकथी पोतानी मेळेज भावी लेवो, वळी तेवी रीतना क्षेत्र ना याकारना बजावयी वहीं जीवा तथा धनुषयादिक नथी. ॥ ॥ या क्षेत्रना मध्यत्नागमां वैताव्यपर्वत ने, थने ते सर्वथाप्रकारे जंबूद्दीपमाना जरतक्षेत्रना वैताब्य. जेवो . ॥ ६० ॥ परंतु लंबाश्मां ते चार लाख जोज
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( ३१०) नसंमितः ॥ युक्तश्चोजयतः पंच-पंचाशता महापुरैः ॥ ॥ ६१ ॥ नत्तरार्धमध्यखंडे । हिमवद्गिरिसन्निधौ ॥ जंबू. : द्वीपर्षभकूट-तुल्योऽत्र वृषभाचलः ॥ ६ ॥ शेषा सर्वा: पि व्यवस्था । षट्खंडभवनादिका ॥ जंबूद्दीपत्नरतवद् । ज्ञेयात्राप्यविशेषिता ।। ६३ ॥ तथात्र चरतादीनां । तैबृद्दीपगैः सह ॥ द्रव्यक्षेत्रकालनाव-पर्यायाः स्युः समाः क्रमात ॥ ६४॥ परोऽसमाद हिमवानद्रिः। पंचाट्यानेक.. विंशतिं ॥ शतांस्ततो लवान् दाविं-शतिं चतुरशीतिजान ॥ ६५ ।। ननु जंबूढीपहैमवतो माने हिगुणिते सति यननो , अने बन्ने तरफ ते पचावन महानगरोथी युक्त थयेलो . ॥ ६१ ॥ उत्तरार्धना मध्यखंडमां हिमवानपर्वतपासे जंबूद्दीपमाना ऋषनकूटजेवो अहीं वृषनाचल प. वत ने. ॥ ६१ ॥ ा क्षेत्रना छखमभवनादिकनी बाकी नी मघाती व्यवस्था कई पण फेरफार विना जंबद्दीपना जस्तदेवनीपेठे जाणवी. ॥ ६३ ॥ वळी यहीं ते भरता दिकदेतोना द्रव्य, देत्र, काळ तथा भावना पर्यायो अ. नुक्रमे जंबूद्दीपमाना ते दोस्रोसरखा . ॥ ६४ ॥ तेथी भागळ हिमवान पर्वत , के जेनुं प्रमाण एकवीससो पांच पूर्णक बावीस चोर्यासीयांश जोजनन . ॥६५॥
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( ३११) थोक्ता योजनोपरि एकोनविंशतिजाः पंच नागा नवंति, यत्र च चतुरशीतिजा दाविंशतिरुक्तास्ततः कथमस्य ततो द्वैगुण्यं न व्याहन्यते ? अत्रोच्यते-एषां नागानां वैविध्येऽपि विशेषः कोऽपि नास्ति, यतो यावदेकोनविंश. तिजैः पंचगि गैर्भवति तावदेव चतुरशीतिजैविंश स्यापि भवति, नन्नयत्रापि किंचिदधिक्योजनचतुर्थभागस्यैव जायमानत्वादिति. एवमग्रेऽपि नान्यं. __पद्महदानिधानोऽस्य । मस्तकेऽस्ति महाहदः ॥ यो यही शंका करे ने के, जंबूद्दीपमाना हैमवतपर्वतर्नु प्र. माण बेवढं करते ते जोजननपर कह्यामुजब पांच ए. कवीशांश थाय , अने यहीं बावीस चोर्यासीयांश कह्या, तेथी तेना बेवमापणामां विरोध केम न आवे ? ते माटे यहीं कहे ने के-ते जागोना बे प्रकार कहेते छते पण तेमां कई तफावत नथी, केमके पांच एकवी. शांशे जेटधं दोत्र थाय तेटबुज बावीस चोर्यासीयांशे थाय ने, केमके ते बने रीते कइंक अधिक जोजननो चोथो भागज थाय . एवीरीते बागळ पण नावी लेवु..
ते पर्वतना शिखरपर पद्मद नामे एक महाहृद बे, ते बेहजार जोजन लांबो अने एक हजार जोजन पहो.
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जनानां हे सहस्रे । दीर्घः सहस्रविस्तृतः ॥ ६६ ॥ दशयोजनरूपोऽस्यो-इंधोऽब्जवलयादि च ॥ जंबूद्दीपपद्मह द । श्वेहापि विजाव्यतां ॥ ६७ ॥ एवं येऽन्ये वर्षधराचलेषु कुरुषु हृदाः ॥ तथा नदीनां कुंमानि । दीपाः कुं. डगताश्च ये ॥ ६७ ॥ अविशेषेण ते सर्वे-ऽप्युदेवोनू. यमानतः ।। जंबूद्वीपस्थायितत्तद् । दीपकुंमहदैः समाः ॥ ॥ ६ए। ततस्तदुहितादि । तथाब्जवलयादि च ॥थ. नुच्यमानमण्यत्र । स्वयं ज्ञेयं यथास्पदं ॥ ७० ॥ विष्कं. नायोमतस्त्वेते । सर्वेऽपि हिगुणास्ततः ॥ व्यासोद्देधान्यां को जे. ॥६६॥ तेनी जंडा दश जोजननी , तथा तेमाना कमलवलयबादिकनी सर्व व्यवस्था जंबूद्वीपमाना पद्महृदजेवीज भावी लेवी. ॥ ६७ ॥ एवीरीते बीजा वर्षधरपर्वतोपर तथा कुरुमा जे हृदो, नदीनना कुंडो त. था कुंडमां रहेला दीपो , ।। ६७ ।। तेन सघळानी नंमाश् तथा नंबाचं जे प्रमाण , ते सघळू जंबूदीपमाना हीप, कुंड तथा हृदोसरखं कई पण फेरफारविनानु . ॥ ६७ ॥ माटे तेनुनी लंडाश्यादिक तेमज कम लवलयादिकनुं स्वरूप अहीं नहि कहेतां छतां पण पो. तानी मेळेज स्थानमुजब जाणी लेवु. ॥ ७० ॥ वळी ते.
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( ३१३ ) च नद्यो । व्यासैर्वनमुखान्यपि ॥ ११ ॥ तथाहुः - वास हरकुरुसु दहा | नई कुंडाई तेसु जे दीवा ॥ नवेहुसेयतुल्ला । विकंगायाम दुगुणा ॥ ७२ ॥ सवाजवि नईन । विकंभोवेहदुगुणमाणानं ॥ सीयासीन्याएं | वाणि दुगुणाणि विस्कने || १३ || एवं च गंगासिं रक्तवती - रक्तेत्याख्यास्पृशामि ॥ षत्रिंशशत संख्यानां | नदीनां हृदनिर्गमे ॥ १४ ॥ अर्धार्धानि योजनानि । विष्कंभो द्वादश स्मृतः ॥ पर्यंते च पंचविंशं । योजनान लंबा पहोळाश्मां तेजथी घमणा वे, नदीजं पड़ोइ पने डंडाश्मां तथा वनमुखो पहोळाइमां बमणा: वे ॥ ११ ॥ ते कहे बे-वर्षधर थाने कुरुमां जे हो. नदी तथा कुंमोने, तथा तेनुमां जे दीपो बे, तेन सघळा जंमाइ व्यने उंचाइमां सरखा वे, तथा पोळाश ने लंबा इमां म े ॥ ७२ ॥ पने सघली नदीन पहोळा पने माइमां बमणी बे, छाने शीता तथा शीतोदानां वनमुखो पहोळा इमां बमणा वे. ॥ ७३ ॥ ख ने एवीरी - गंगा, सिंधु, रक्तवती तथा रक्ता इत्यादिक नामोवाळी सो नदीन ज्यारे हृदोमांथी निकळे वे त्यारे || १४ || अर्ध अर्ध जोजन थइने बार जोजननी
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(३१४ ) नां शतं भवेत् ॥ ७५ ॥ श्रासां तावंति कुंमानि । विस्तृतान्यायतानि च ॥ विशं हि योजनशतं । दीपाः षोमशयोजनाः ॥ ७६ ॥ स्वर्णकूला रूप्यकला। रोहिता रोहि. तांशिका ॥ इत्यष्टादौ विस्तृताः स्युः । पंचविंशतियोजनी ॥ ७ ॥ अंते च सार्धा दिशती । सर्वत्रैतावदेव च। चतुर्विंशतिरप्यंत-नद्यः स्युरिद विस्तृताः ॥ ७ ॥ चत्वारिंशा दिशत्यासां । कुंडेष्वायतिविस्तृती॥ द्वात्रिंशद्योजनान्यासां । दीपा श्रायतविस्तृताः ॥ १० ॥ नारीकांता पहोलाइ कही , अने डेक रेडे तेनी पहोलाइ एकसो पचीस जोजननी . ॥ १५ ॥ ते नदीनना तेटला कुं. डो एकसो वीश जोजन, तथा दीपो शोळ जोजन लां बा पहोळा ॥ १६ ॥ स्वर्णकूला, रूप्यकूला, रोहिता बने रोहितांशा ए बाठ नदीन आदिमां पचीस जोजन पहोच, ॥ 9 ॥ अने अंते बढीसो जोजन पहोळी , एवीरीते सर्व जगोए तेटर्बुज प्रमाण जाणवं, वळी यहीं अंतर्नदीने पण चोवीस जोजन पहोळी . ॥ 90 || तेन्ना कुंडोनी लंबा पहोळा बसो चालीस जोजननी, अने तेन्ना द्वीपो बत्रीस जोजन लांबा पहोळा . ॥ ए॥ नारीकांता, नरकांता, हरिकांता त.
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" (३१५ ) नरकांता । हरिकांतानिधा नदी॥ हरिसलिलेत्यष्टानां । सरितां मूल विस्तृतिः ॥ ७० ॥ पंचाशद्योजनान्यासां । पर्यतविस्तृतिः पुनः ॥ योजनानां पंचशता-न्युक्तानि तत्ववेदिभिः ।। ७१ ॥ श्रासां कुंमायतिव्यापा-वशीतियु. क् चतुःशती ॥ चतुःषष्टियोजनानि । दीपाश्चायतविस्तृ. ताः।। ७२ ॥ शीताशीतोदानिधाना । निम्नगानां चतसृ. णां ॥ आद्यांतयोः क्रमाव्यासः । शतं सहस्रमेव च ॥ ॥ ३ ॥ सषष्टिनवशत्यासां । कुंडेष्वायतिविस्तृती॥ ब. टाविंशं गतं चासां । दीपा श्रायतविस्तृताः ।। ४ ॥ प. था हरिसलिला, ए आठ नदीनना मूळनो विस्तार, ॥ ॥ ७० ॥ पचास जोजननोने, अने मानो विस्तार त. त्वज्ञानीनए पांचसो जोजननो कहेलो . ॥ १ ॥ ते. नना कुंकोनी लंबा पदोळाश् चारसो एंशी जोजननी बे, थने तेजना द्वीपो चोसठ जोजन लांबा पहोळा . ॥७२॥ शीता पने शीतोदा नामनी चार नदीननी मूळमां बने डे अनुक्रमे एकसो तथा एकहजार जो. जननी पहोळा . ॥ ३ ॥ तेना कुंमोनी लंबाप. होलाइ नवसो साठ जोजननी , थने तेजना हीपो एकसो अगवीस जोजन लांबा पदोळा . ॥ ४ ॥ए.
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( ३१६) दत्रिंशं शतमष्टौ च । पुनरष्टौ चतुष्टयं ॥ चतुर्विधानामित्यासा-माद्यंतोहिछता क्रमात ॥ ०५ ॥ गव्यूतं योजने सार्धे । द्वौ क्रोशौ पंचयोजनी ॥ योजनं दश चैतानि । योजने हे च विंशतिः ॥ ६ ॥ अंतर्नदीनां सर्वासामपि प्रारज्य मूलतः ॥ पर्यंतं यावदुद्वेध-स्तुल्यः स्यात्पंचयोजनी ॥ ७ ॥ स्वकीयमूल विस्तृत्या । जिहिकाविस्तृतिः समा ॥ मूलोदे॒धसमश्वासां । सर्वासां जिबिकोत्यः || || जक्तशेष तु स्वरूपं । सकलं वेदिकादिकं कसो छत्रीस, थान, पाठ अने चार, एरीतनी चारे प्र. कारनी ते नदीननी मूलनी तथा बेडानी जंडा अनु. क्रमे ॥ ५॥ एक गान तथा अढी जोजन, बे गान तथा पांच जोजन, एक जोजन तथा दश जोजन, अ. ने बे जोजन तथा वीश जोजननी. ॥ ७६ ॥ अने सघली अंतर्नदीननी जंडा तो मूलथी मांडीने क - मासुधी पांत्र जोजननी सरखीज . ॥ ७॥ तेननी जिह्वानी पहोच पोतपोताना मूलना विस्तारसरखी बे, श्रने तेन सर्वनी जिह्वानी नंचा तेजेनां मूलनी नं. डाइ सरखी जे. ॥ ७ ॥ हवे वर्णव्याशिवायर्नु बाकीन ते नदीनन वेदिकासादिकनुं सघर्छ स्वरूप जंबूद्दीपमा
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(३१७) ॥ एतास्वप्यनुसंधेयं । जंबूद्दीपनदीगतं ॥ ७ ॥ पूर्वाभिमुख्याः पूर्वार्धे । कालोदे यांति निम्नगाः ॥ दारोदे चापरोन्मुख्यो-ऽपरार्धे तु विपर्ययः ॥५०॥ श्रासामित्युः तो विशेषः । प्रसंगालाघवाय च ॥ तत्र तत्र नाममात्र। स्थानाशौन्याय वक्ष्यते ॥५१॥ श्रथ प्रकृतं-अयैतस्मा त्पद्मदा नद्यस्तिस्रो विनिर्गताः ।। गंगासिंधुरोहितांशाः पूर्वापरोत्तराध्वन्निः ॥ ए२ ॥ तत्र गंगा च सिंधुश्च । पू. र्वपश्चिमयोर्दिशोः ॥ निर्गत्य स्वदिशोर्गत्वा । यथाई पर्व नी नदीनना जेवूज जाणवं. ॥ नए । तेनमा पूर्वाध मां पूर्व सन्मुख वहेनारी नदीन कालोदधिसमुद्रमा मळे बे, अने पश्चिमतरफ वहेनारी नदीनं लवणसमुद्रमां मळे मे, तथा पश्चिमाधमां तेथी विपरीत जाणवु. ॥ १० ॥ एवीरीते प्रसंगथी टुंकामां ते नदीनी विशेष हकीकत कही, हवे त्यां त्यां स्थान पूरवामाटे नाममात्र कहीये बीये. ॥ ११ ॥ हवे ते चालती बाबत कहे जे हवे ते पद्महृदमांथी गंगा, सिंधु अने रोहितांशा नामनी त्रण नदीन पूर्व, पश्चिम अने नुत्तरमार्गे निकळेली . ॥ ॥ ए ॥ तेमांथी गंगा अने सिंधु पोतपोतानी पूर्व अ. ने पश्चिमदिशामां वहीने योग्यतामुजब पर्वतपर जश्ने,
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( ३१७) तोपरि ।। ५३ ॥ स्वग्वावर्तनकूटान्यां । निवर्त्य दक्षिणा मुखे ॥ कुंडे निपत्य विशतः । कालदारोदधी क्रमात् ॥ ॥ ए४ ॥ रोहितांशा तूत्तरस्यां । योजनानि नगोपरि ॥ दिपंचाशां पंचशती । त्रिपंचाशनवाधिकां ॥ एप ॥ अ. तिक्रम्य निजे कुंडे । निपत्य योजनांतरा ॥ शब्दापातिगिरेः प्रत्य-प्रवृत्ता लवणेऽविशत ॥ ६ ॥ अयास्माछिमबैला-दत्तरस्यां व्यवस्थितं ॥ क्षेत्र हैमवताजिय
-माकृत्या जस्तोपमं ॥ 3 ॥ षविंशतिं महस्राणि । योजनानां चतुःशतीं ॥ अष्टपंचाशां लवान द्वा-नवति ॥ ३ ॥ पोतपोताना बावर्तनशिखरपर थश्ने दक्षिणतरफ बहेतीयकी कुंडमां पमीने अनुक्रमे कालोदधि तथा लवणंसमुद्रमां जश् मले . ॥ ए४ ॥ अने रोहितांशा तो उत्तरदिशातरफ पर्वतपर पांचसो बावन जोजन अने त्रेपन लवोसुधी पर्वतपर ॥ ५५ ॥ जश्ने तथा पो. ताना कुंझमां पीने शब्दापातिपर्वतथी एक जोजन वेटे पूर्वतरफ वळीने लवणसमुद्रमा मले . ॥ १६ ॥ हवे ते हिमवंतपर्वतथी उत्तरे हैमवंत नामर्नु नरतक्षेत्रजेवा प्रा. कारवाळु क्षेत्र आवेधुं . ॥ ७ ॥ ते क्षेत्र मुखभागमां छवीस हजार चारसो अगवन जोजन अने बाणु लवना
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(३१५) विस्तृतं मुखे ॥ ए ॥ पंचाशतं सहस्राणि । चतुर्विशं शतत्रयं ॥ चतुश्चत्वारिंशमंश-शतं मध्ये च विस्तृतं ।। ॥ ॥ ॥ योजनानां सहस्राणि । चतुःसप्ततिमंततः ।। नवत्याढ्यं शतं षाम-वत्याढ्यं च शतं लवान् ॥ १० ॥ मध्येऽस्य शब्दापातीति । वृत्तवैताब्यपर्वतः ।। सहस्रयोज नोत्तुंगः । सहस्रं विस्तृतायतः ॥ १ ॥ अयं जंबूद्दीपशब्दा-पातिना सर्वया समः ॥ तहत्सप्तान्येऽपि वृत्त-वैताब्या इह तत्समाः ॥२॥ अदिरस्यांते च महा-हिम. विस्तारवाद्यं . ।। ए ॥ वळी ते मध्यभागमां पचासह जार वणसो चोवीस जोजन अने एकसो चमालीस श्रशना विस्तारवाळू . ॥ एए | तेमज ते रेडाना नाग मां चमोतेर हजार एकसो नेवु जोजन बने एकसो छ न्नु लवना विस्तारवाळु . ॥ १०० ॥ तेना मध्य नागमा शब्दापाती नामनो वृत्तवैताब्यपर्वत , ते पर्वत एक ह. जार जोजन जंचो तथा एक हजार जोजन लांबो पहो. को. ॥ १॥ या पर्वत सर्वथाप्रकारे जंबूद्वीपमाना श. ब्दापातिपर्वतसरखो , अने तेनीपेठे बीजा पण जे सा. त वृत्तवैताब्य पर्वतो , ते सघला तेनाजेवाज ने. ॥शा थाने वेडे जे महाहिमवान पर्वत , ते चोर्यासीसो ए.
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( ३२० )
वान् योजनानि सः ॥ एकविंशानि चतुर - शीतिशतान्यथांशकान् ॥ ३ ॥ पूर्वोक्तमानांश्चतुरो । विस्तीर्णस्तस्य चोपरि || पद्मः परिष्कृतो भाति । महापद्माभिधो हृदः ॥ ॥ ४ ॥ योजनानां सहस्राणि । चत्वार्येवायमायतः ॥ वि. कंजतो योजनानां । सहस्रद्दितयं जवेत् ॥ ५ ॥ दक्षि स्यामुदीच्यां च । नद्यौ द्वे निर्गते ततः ॥ रोहिता दरिकांता च । पर्वतोपर्युने व्यपि ॥ ६ ॥ योजनानां शतान द्वात्रिं - शतं गत्वा दशोत्तरान् ॥ चतुश्चत्वारिंशतं च | नागान् जिह्विक्या गिरेः ॥ ७ ॥ पततः स्वस्वकुंडेऽथ कालोदं याति रोहिता ॥ द्विधा कृत्वा हैमवतं । वैताकवीस जोजन ॥ ३ ॥ तथा पूर्वे कहेला मानवाळा चार शोना विस्तारवालो ने, तथा तेपर पद्मोथी घेरायेखो महापद्म नामनो हृद शोभे बे. ॥ ४ ॥ ते हृद चार द जार जोजन लांबो तथा बे हजार जोजन पहोळो वे. ॥ ॥ ५ ॥ तेमांथी दक्षिण पने उत्तरतरफ रोदिता ने हरिकांता नामनी ने नदी निकलेली बे, तथा ते बन्ने नदीन पर्वतपर || ६ || बत्रीससों दश जोजन अने च मालीस भागोसुधी जश्ने, पर्वतपस्थी जिह्नाने व्याकारे ॥ ७ ॥ पोतपोताना कुंडमां पडे बे, तेमांथी रोहिता है
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(३२१) ढ्याद्योजनांतरा ।। ॥ हरिकांता च वैताब्या-द्योजनाहितयांतरा ॥ हस्विर्ष विराजती । प्रयाति लवणोदधौ ।।। . __ अथोदीच्यां क्षेत्रमस्मा-विर्ष विराजते । सश्री. कमध्यं यधा-पातिवैताब्य नभृता ॥ १० ॥ त्रयस्त्रिंशाष्टपंचाश-बताब्यां लदायोजनी ॥ षट्पंचाशमंशशतं । विस्तीर्णमिदमानने ॥ ११ ॥ दे लक्षे दादशशती । मध्ये ऽष्टानवति तथा ॥ योजनानामंशशतं । दिपंचारों च विस्तृतं ॥ १५ ॥ योजनानां षामवत्या । सहस्रकैः समन्वितं मवेतक्षेत्रना बे भाग करीने वैताब्यथी एक जोजन दूर रहीथकी कालोदधिसमुद्रमा मले ने. ॥ ॥ अने हरिकांता नदी वैताब्यथी बे जोजन दूर रहीथकी हविर्ष क्षेत्रना बे विनाग करतीयकी लवणममुद्रमा जश् मले . __ हवे तेथी उत्तरे हरिवर्ष नामनुं क्षेत्र शोने , के जे क्षेत्रनो मध्यभाग गंधापाति नामना वैताब्यपर्वतथी शोगावाळो थयेलो ने. ॥ १०॥ ते क्षेत्रनो मुखभाग एक लाख अगवनसो तेत्रीस जोजन तथा एकसो छपन बंशना विस्तारवाळो . ॥ ११ ॥ वळी ते क्षेत्रना मध्यभागनो विस्तार बे लाख बारसो अगणु जोजन अने एकसो बावन अंशोनो . ॥ १२ ॥ वळी तेना मानो
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( ३२५ ) ॥ लदाध्यं सप्तशती । त्रिषष्ट्यान्यधिकां तथा ॥ १३ ॥ अष्टचत्वारिंशमंश-शतं पर्यंत विस्तृतं ॥ शेषास्य जंबूही पस्थ हरिवर्षमा स्थितिः ॥ १४ ॥ क्षेत्रस्यास्य च पर्यते । निषधो नाम जुधरः ॥ त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि । योजनानां शतानि षट् ॥ १५ ॥ स्यादिस्तीर्णः स चतुरशीतीन्यंशाश्च षोमा । तिगिबिनामा र्वर्ति । महाहृदोऽस्य चोपरि ॥ १६ ॥ सहस्राणि योजनाना-मष्टावायामतः स च ॥ विष्कंभतस्तु चत्वारि । सहस्राणि जवेद सौ ॥ १७ ॥ दक्षिणस्यामुदीच्यां च । हृदादस्मानिरीय तु विस्तार बे लाख छन्नु हजार सातसो त्रेसठ जोजन । ॥ १३ ॥ बने एकसो बडतालीस अंशोनो बे, बाकीनी तेनी सघली स्थिति जंबूद्दीपमाना हविर्षक्षेत्रजेवी जा. णवी. ॥ १४ ॥ था क्षेत्रने बडे निषवनामे पर्वत , अ. ने ते तेत्रीस हजार सो ॥ ११ ॥ चोर्यासी जोजन तथा शोळ अंशना विस्तारवाळो , अने तेना पछी ति. गिनि नामनो एक महाहृद . ॥ १६ ॥ ते हृदनी लं. बार पाठ हजार जोजननी ने, बने तेनी पहोळाश्चार हजार जोजननी . ॥ १७ ॥ ते हृदमांथी दक्षिणे घने उत्तरे हरिसलिला अने शीतोदा नदी निकळीने पर्वत
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( ३५३) ॥ वाहिन्यौ हरिसलिला-शीतोदे ते नगोपरि ॥१७॥ योजनानां सहस्राणि । चतुर्दश शतानि च ॥ अष्टौं दि. चत्वारिंशानि । परिक्रम्याष्ट चांशकान् ॥ १५ ॥ स्वस्व जि. किया स्वस्व-कुंडे निपततस्ततः ॥ हरिः स्ववृत्तवैता. ढ्या-द्योजनहितयांतरा ॥ २० ॥ हविर्षानिधं वर्ष । दि. धा विदधती सती ॥ कालोदाब्धौ निपतति । रमेवाच्युः तवदसि ॥ २१ ॥ शीतोदा च देवकुरु-जद्रसालविन्ने दिनी ॥ चतुर्निर्योजनैमेरो-र्दूरस्था पश्चिमोन्मुखी ॥ ॥ २५ ॥ प्रत्यग्विदेहविजय-सीमाकरणकोविदा ॥ गो. पर ॥ १० ॥ चौद हजार पाउसो बेतालीस जोजन त. था पाठ अंशोसुधी वहीने ॥ १५॥ पोतपोतानी जिहावडे पोतपोताना कुंभमां पडे , अने पनी त्यांथी ह रिसलिला पोताना वृत्तवैताब्यथी बे जोजन दुर रहीय की, ॥ २० ॥ तथा हविर्ष नामना क्षेत्रना बे विभाग करतीथकी लक्ष्मी जेम विष्णुना वदास्थलपर तेम ते कालोदधिसमुद्रमां पडे . ॥ २१ ॥ वळी शीतोदा नदी देवकुरु बने जद्रशालने भेदतीथकी तथा मेरुथी चार जो. जन दूर रहीने पश्चिमतरफ वहेतीथकी ॥ २॥ पूर्ववि. देह अने. विजयोनी सीमा करतीथकी गोत्रनी वृधस्त्री
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(३२४) त्रवृव मध्यस्था । यात्यंते लवणोदधि ॥ २३ ॥ शीताप्येवं नीलवतो । निर्गता केसरिहृदात ॥ कुंमोजिनोत्तरकुरु-नद्रसालप्रनेदिनी ॥ २४ ॥ चतुर्निर्योजनैमरो-र्दू. रस्था पूर्वतोमुखी ॥ प्राग्विदेहान विभजती। याति का. लोदवारिधौ ॥ २५ ॥ वाच्योदीच्यां रम्यकांता । तथैवैरवतादिका ॥ क्षेत्रत्रयी शिखाद्या ॥नीलांता च नगत्रयी ॥ २६ ॥ यथेयं हविर्षांता । त्रिवर्षी नरतादिका ॥ न. क्ता हिमवदाद्या च । निषधांता नगत्रयी ॥ २७ ॥ तहत नीपेठे मध्यस्थ रहीने अंते लवणसमुद्रमा मळे जे. ॥ ॥ २३ ॥ एवीरीते शीता पण नीलवानपर्वतना केसरिह दमांथी निकळीने, तथा कुंडमांथी निकल्यावाद उत्तरकुरु अने जद्रशालने नेदतीथकी ॥ २४ ॥ मेरुयी चार जो. जन दूर रहीने पूर्वतरफ वहेतीयकी, तथा पूर्वविदेहना विभाग करतीथकी कालोदधिसमुद्रमा जाय . ॥ २५॥ वळी एवीजरीते ऐवतथी मांडीने रम्यकसुवी त्रण क्षेत्रो, अने शिखरीथी मामीने नीलवंतसुधी त्रण पर्वतो पण जाणी लेवा, ॥ २६ ॥ जेम था नस्तथी मामीने हरिव. पसुधीनां त्रण क्षेत्रो, अने हिमवंतश्री मांझीने निषधसु. धीनां त्रण पर्वतो . ॥ २७ ॥ वळी श्रादि, मध्य अने
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( ३२५) विधा क्षेत्रमान-मादिमध्यांतगोचरं । तापदायामविस्तास । हृदा वर्षधरोपरि ॥ २७ ॥ तावदेवातिक्रमणं । नदीनां पर्वतोपरि ।। सेवाकृति ममात्रे । विशेषः सोऽनिधीयते ॥ श्ए ॥ ऐरावतमुदीच्येषु-कारात्स्वस्वगिरेर्दिशि ॥ शिखरी पर्वतोंतेऽस्य | पुंडरीकहृदांचितः ॥ ३० ।। अस्माद्रक्ता रक्तवती । स्वर्णकूला विनिर्ययुः ॥ रक्तैरवतमध्येन । याति कालोदवारिधिं ॥ ३१ ॥ लवणाब्धी प्रविशति । तथैव रक्तवत्यथ ॥ स्वर्णकूला तु कालोदं । हैरण्यवतमः अंते क्षेत्रनुं प्रमाण पण त्रणप्रकारे एवीजरीते , धने तेटलाज लांबा पहोळा हृदो ते वर्षधर पर्वतोपर ने. ॥ ॥ ॥ वळी ते पर्वतोपर पण तेटबुज नदीननु वहेवू बे, तेज याकृति ने, फक्त नाममां जे तफावत , ते का हे . ॥ श्ए । नत्तरतरफना षुकारपर्वतथी पोतपोता. ना पर्वतनी दिशामां ऐरावतक्षेत्र ने, यने तेने वेडे पुं. मरीकहृदथी शोनतो शिखरी पर्वत . ॥ ३० ॥ मांथी रक्ता, रक्तवती तथा स्वर्णकूला नामनी नदीन निकळे बे, तेमानी रक्ता ऐवतक्षेत्रना मध्यभागमां थश्ने का. लोदधिसमुद्रने जश् मळे . ॥ ३१ ॥ वळी तेवीजरीते रक्तवती नदी लवणसमुऽमां मले में, अने स्वर्णकूलान
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.३१६)
ध्यगा ॥ ३१ ॥ परं शिखरिणः क्षेत्रं । हैरण्यवतनामकं ॥ विकटापातिना वृत्त-वैताढयेन सुशोजितं ॥ ३३ ॥ ततो रुक्मी नाम महा-पुंमरीकहृदांचितः॥ गिरिस्ततो रूप्यकूला-नरकांते विनिर्गते ॥ ३४ ॥ हैरण्यवतमध्येन । दारोदं रूप्यकूलिका ॥ कालोदं नरकांता च । याति र. म्यकमध्यतः ॥ ३५ ॥ ततः परं रुक्मिगिरेः । क्षेत्रं राजति रम्यकं ।। मध्ये माल्यवता वृत्त-वैताढयेन विजूषितं ।। दी हैरण्यवंतक्षेत्रना मध्यभागमां थश्ने कालोदधिसमुद्रने मले ने. ॥ ३५ ॥ शिखरीपर्वतथी श्रागळ हैराग्यवत नामनुं क्षेत्र , तथा ते विकटापाति नामना वृत्तवैतान्यथी शोभितुं . ॥ ३३ ॥ पछी महापुमरीकहदथ शोभतो रुक्मी नामे पर्वत , घने तेमांयी रूप्यकूला अने नरकांता नामनी नदी निकले . ॥ ३४ ॥ तेमानी रूप्यकूलानदी हैरण्यवतक्षेत्रना मध्य नागमां यश्ने लव
समुडने मले , धने नरकांता नदी रम्यकना मध्यमां यश्ने कालोदधिसमुद्रने मले . ॥ ३५ ॥ पछी रु. क्मिपर्वतश्री आगळ रम्यकक्षेत्र शोने , घने ते मध्य नागमा रहेला माल्यवान नामना वृत्तवैताब्यपर्वतथी शो नितं . ॥ ३६ ॥ तेथी पागल नीलवान नामे पर्वत
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( ३२७) ॥ ३६ ॥ ततोऽपि परतो नाति । नीलवानाम पर्वतः ।। महाहृदः केसरीति । तस्योपरि विराजते ॥ ३५ ॥ शीता नदी तु पूर्वोक्त-रीत्या कालोदवारिधौ ॥ व्रजति प्रा. विदेहस्थ-विजयव्रजसीमकृत् ॥ ३० ॥ शीता च नारी कांता च । ततो नद्यौ निरीयतुः ॥ नारीकांता रम्यकांत
[ दैति लवणोदधिं ॥ ३५ ॥ योजनं द्वे च विकटापातिमाल्यवतोनवेत् ।। चत्वारि मेरोः स्वक्षेत्र-नदीन्यामंतरं क्रमात ॥ ४०॥ . अयास्ति मध्ये नगयो-नीलवन्निषधाख्ययोः ॥ क्षे. शोने में, अने तेपर केसरी नामे महाहृद शोने जे. ॥ ॥ ३१ ॥ शीता नदी तो पूर्वे कहेली रीतिमुजब पूर्ववि देहमा रहेला विजयोना समूहनी सीमा करतीयकी का लोदधिसमुद्रमां जश् मले . ॥ ३० ॥ शीता अने ना.' रीकांता ए बे नदीन ते हृदमांथी निकळे , तेमानी नारीकांता रम्यकक्षेत्रनी बच्चे थश्ने लवणसमुज्ने मले
. ॥ ३५ ॥ पोताना क्षेत्रनी ते बन्ने नदीनथी अनुक्रमे विकटापाति अने माल्यवान पर्वतर्नु बे जोजन- अं. तर , अने मेरुनु चार जोजनन अंतर . ॥ ४० ॥
हवे ते नीलवान बने निषध पर्वतनी बच्चे मंदरा.
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(३ ) त्रं महाविदेहाख्यं । मंदरालंकृतांतरं ॥ १ ॥ त्रयोविंशत्या सह–ोजनानां विलिः शतैः । चतुस्त्रिंशः समधिका । लदाश्चतस्र एव च ॥४॥ द्वादशदिशतक्षुणयोजनस्य लवाः पुनः॥ हे शते विस्तीर्णमेत-लवणांभोधिसन्निधौ ॥ ४३ ॥ ततं लदाणि मध्येऽष्टा-वेकपं. चाशतं शतान । चतुर्नवाव्यानंश शतं चतुरशीतियुक ॥ ४४ ॥ अंते चैकादश लदाः । सप्ताशीतिं सहस्रकान् ॥ चतुःपंचाशान लवानों । माष्टषष्टिशतं ततं ॥ ॥ ४५ ॥ जातं चतुर्धेतदपि । जंबूढीपविदेहवत् ॥ देवचलथी शोभितो ने मध्यन्नाग जेनो एवं महाविदेह ना. मर्नु क्षेत्र ने. ॥४१॥ चार लाख वीस हजार त्रणसो चोत्रीस जोजन, ॥ ४५ ॥ तथा एक जोजनना बसोबारमा भागजेवडा बसो जागजेटलो ते क्षेत्रनो लवणसमु. उपासेनो विस्तार . ॥ ४३ ॥ वळी ते देोत्र मध्यभाग मां पाठ लाख एकावनसो चोराणु जोजन बने एकसो चोरासी अंशोना विस्तारवाळु . ॥ ४ ॥ अने बेडाना भागपर ते देत्र अग्यार लाख सतासी हजार चोपन जो. जन अने एकसो अडसठ अंशोना विस्तारखाळु . ॥ ॥ ४५ ॥ ते महाविदेहक्षेत्र पण जंबूद्दीपना महाविदेह
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(३ ) कुरुत्तरकुरु-पूर्वापरविदेहकैः ॥ ४६ ।। स्युर्देवकुरवोऽपा. च्या-मुदीच्यां कुरवः पराः ॥ मेरोः प्राच्यां प्राग्विदेहाः । प्रतीच्यामपरे पुनः ॥ ४ ॥ शीताशीतोदानदीन्यां । विदेहास्ते विधाकृताः ॥ प्राग्वदेव चतुर्चशे-ध्वष्टाष्ट वि. जया श्ह ॥ ४ ॥ तथैवोदक्कुरुपाच्य-सीमकृन्माल्यवगिरेः । यागंधमादनं सृष्ट्याः । क्रमस्तैरेव नामग्निः ।। ॥ ४५ ॥ चतुर्वशेष्वंतरेषु । वदास्कारास्तथैव च ॥ च स्वारश्चत्वार एव । तिम्रस्तिस्रोतरापगाः ॥ २०॥ विजये. नीपेठे देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व विदेह धने पश्चिमविदेहना नेदयी चार नागोवाळ . ॥ ४६॥ मेरुश्री ददिणमां देवकुरु, उत्तरमां नत्तरकुरु, पूर्वमां पूर्व विदेह तथा पश्चिममा पश्चिम विदेह ने. ॥ ४ ॥ शीता अने शीतोदानदीथी ते विदेहना बे भागो थयेला , अने पूर्वनीपेठेज ते चारे जागोमां यहीं पण पाठ पाठ वि. जयो ने. ॥ ४ ॥ एवीजरीते उत्तरकुरुनी पूर्वसीमा करनारा माल्यवान पर्वतथी मामीने क गंधमादनपर्वतसु. धी तेज नामोवडे सृष्टिनो क्रम . ॥ ४ ॥ बच्चे रहे ला चारे नागोमां तेवीजरीते चार चार क्दास्कारो ने, तथा त्रण त्रण अंतरनदीन ने. ॥ २०॥ ए विजयोमां वै
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(३३०) ब्वेषु वैताब्या । नदीकुंमर्षभाद्रयः । षदखंडा राजधान्यश्च । तन्नामानस्तथा स्थिताः ॥ ५१ ।। तथैव चत्वारोऽयंशाः । पर्यते वनराजिताः॥ केवलं परिमाणानां । विशेषः सोनिधीयते ।। ५२॥ वदस्कारवनमुखां-तर्नदीमेरुकाननैः ॥ विष्कंमतः संकलितैः । स्यादाशिर्विजयान विना ॥ ॥ ५३॥ वदाव्यं षट्चत्वारिंशत्सहस्राः शतत्रयं ॥ षट्चत्वारिंशतोपेतं । योजनानामनेन च ॥ ५५ ॥ चतु. लदात्मके दीप-विष्कंभे राशिनोनिते ॥ हृते षोमशनिर्मानं । लन्यं विजयविस्तृतेः ॥ ५५ ॥ योजनानां सताढ्यो, नदीन. कुंडो. ऋषजाचलो.. लखमो बने राज धानी तेज नामनी तेज रीते रहेली .॥५१॥ वळी ते चारे भागो मापर वनथी शोभिता , केवल तेना प्रमाणमां फेरफार , ते कहे . ॥ ५॥ वि. जयोशिवायना वदस्कार, वनमुख, अंतर्नदी तथा मेरुवन, ए सर्वनो विस्तार एकठो कस्वाथी नीचेमुजब रकम थाय ने. ॥ २३ ॥ बे लाख तालीस हजार त्रणसो - तालीस जोजन थाय , ते रकम ॥ ५५ ॥ चार लाख जोजनजेटता हीपना विस्तारमाथी बाद करते उते. अ- : ने बाकी रहेली रकमने शोळे भांगते ते नीचेप्रमाणे
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(३३१) हस्राणि । नव' व्याख्या च षदशती ।। षट् षोडशांशाः प्र. त्येकं । ज्ञेया विजयविस्तृतिः ॥ ५६॥ एवमिष्टान्यविष्क भ-वर्जितद्दीपविस्तृतेः ॥ स्वस्वसंख्याविनक्ताया । लन्य तेऽनीष्टविस्तृतिः ।। ५७ ॥ तत्र च-विनाद्रीन विजया दीनां । व्याससंकलना स्वियं ॥ तिस्रो लदा हिनवतिः। सहस्रा योजनात्मकाः ॥ २७ ॥ अनेन वर्जिते दीपविष्कंने विहतेऽष्टन्निः ॥ वदस्कारादिविष्कंनो । लभ्यः सहस्रयोजनः ॥ ए॥ अंतर्नदीविना शेष-व्याससं. विजयनो विस्तार यावे . ॥ ५५ ॥ नव हजार सो त्रण पूर्णाक शोळांश जोजन थाय , अने तेटलो दरेक विजयनो विस्तार जाणवो. ॥५६॥ एवीरीते बीजा बित विस्तारविनाना हीपना विस्तारने पोतपोतानी सं. ख्याथी नांगते ते इडितस्थाननो विस्तार मळी यावे .॥२७॥ वळी त्यां--पर्वतोविना विजयादिकोना वि. स्तारनी संकलना नीचेमुजब ने, त्रण लाख बाणु हजार जोजनरूप ने. ॥ ७ ॥ ते रकमने हीपना विस्तारमाथी' बाद करते ते तथा याठे भांगते छते वदस्कारपर्वत. नो एक हजार जोजनरूप विस्तार थावे . ॥ २७ ॥ अंदरनी नदीनविना बाकीना व्यासनो सरवाळो त्रण
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(३३५) कलना नवेत् ॥ लदास्तिस्रोऽष्टनवतिः । सहस्राः पंचश. त्यपि ॥ ६०॥ अनेन वर्जिते हीप-विष्कंने षनिराह. ते ॥ सार्धे हे योजनशते । व्यासोंतःसरितामयं ॥ ६१ ।। विदेहानां यत्र यावान् । स्याध्यासोंतमुखादिषु ॥ तस्मिन् सहस्रोरुशीता-शीतोदान्यतरोप्रिते ॥ ६ ॥ शेषेऽड़िते तत्र तत्र । तावान जाव्यो विवेकिन्निः ॥ विजयांगनदीवदा-स्कारायामः स्वयं धिया ।। ६३ ॥ योरप्यधयोरस्मिन । हीपे वनमुखानि च ॥ वदास्कारदितिभृतो। विज लाख अठाणु हजार पांचसोनो थाय . ॥ ६० ॥ ते र. कमने दीपना विस्तारमाथी बाद करीने, बाकी रहेली र. कमने गए नांगवाथी अंदरनी नदीननो श्रढीसो जोजननो विस्तार आवे . ॥ ६१ ॥ जे जगोए विदेहोना
मा तथा मुखादिकमां जेटलो विस्तार होय तेमांथी शीता अथवा शीतोदामांथी एकनो विस्तार बाद करते उते, ॥ ६॥ अने बाकी रहेली रकमने अर्धा करतेछते त्या त्यां विजयोनी अंदर रहेली नदीन तथा वद. स्कारोनी तेटली लंबाश विवेकी माणसोए पोतानीमेळेज बुधिपूर्वक जाणी लेवी. ॥ ६३ ॥ था दीपमा बन्ने अर्धा भागोमां रहेलां वनमुखो वदस्कारपर्वतो विजयो भने
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(३३३ ) याश्चांतरापमाः ॥ ६४ ॥ लवणोददिशि हवाः । क्षेत्रसांकीर्यतः स्मृताः ॥ दीर्घाः कालोदककुन्ति । क्षेत्रबाहुव्यतः क्रमात् ।। ६५॥ अष्टानां वनमुखानां । कले दे किस्तृतिर्लघुः ॥ गुरुश्चतुश्चत्वारिंशा-टपंचाशबती भवेत् ।। ॥६६॥ तत्र द्वयोईयोः पूर्वा-परार्धे वर्तिनोस्तयोः ॥ दाराध्यासन्नयोः शीता-शीतोदासीन सा लघुः ॥ ६७ ।। गुरुस्तु नीलनिषधां-तयोरेतच्च युक्तिमत | अमीषां व. लयाकारं । दाराब्धिं स्पृशतां बहिः ॥ ६ ॥ अपरेषां तु अंदर रहेली नदीन, ॥ ६४ ॥ लवणसमुद्रतरफ क्षेत्रनी संकमाशने लीधे अनुक्रमे नानी, तथा कालोदधिसमुद्रतरफ क्षेत्रनी पहोळाश्ने लीधे मोटी . ॥ ६५ ॥ श्राठे वनमुखोनो जघन्य विस्तार बे कलानो, तथा उत्कृष्टो वि. स्तार अठावनसो चमालीस जोजननो . ।। ६६॥ ते मां पूर्वार्ध तथा पश्चिमाधमां लवणसमुद्रनी पासे रहेला बेबे वनमुखोनो शीता तथा शीतोदानी हदमां जघन्य विस्तार में, ॥ ६७ ।। अने नील तथा निषधपर्वतने बेडे उत्कृष्टो विस्तार ने, केमके बहारथी वलयाकार लवणसमुद्रने स्पर्श करनारां ते वनमुखोनो तेवो विस्तार युक्ति युक्त ने ॥ ६७ ॥ तथा कालोदधिना क्लयना अंदरना
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( ३३४ ) कालोद - वलयान्यं तरस्पृशां ॥ लध्वी निषधनीलांते । गुर्वी सा सरिदंतिके || ६ || तथोक्तं वीरंजयक्षेत्रसमासवृ त्तौ तथा वनमुखानां विस्तारो द्विगुण उक्तः, परं लबपोधिदिशि वनमुखपृथुक्त्वं विपरीतं संभाव्यते, यथा नद्यते कलाइयं, गिर्येते चतुश्चत्वारिंशदधिकान्यष्टपंचाशइतानि पृथुत्वमिति संप्रदाय इति बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तौ तु एषां जघन्यं मानं नीलवन्निषधांते, शीताशीतोदोपांते चोत्कृष्टमुक्तं, न च कश्चिद्दिशेषोऽनिहितः अथ देवोत्तरकु नागने स्पर्श करनारां बीजां वनमुखोनो ते विस्तार नि: पधाने नीलपर्वतोपासे जघन्य ने नदीनपासे न कृष्ट वे. ॥ ६७ ॥ तेमाटे वीरंजयक्षेत्रसमासनी टीकामां कां वे केवळी वनमुखोनो विस्तार बमणो को बे, परंतु लवणसमुनी दिशामां ते वनमुखोनो विस्तार वि परीत संभवे वे, जेमके नदीनने वेडे बे कला वे, ने पर्वतोने वेडे वावसो चमालीस जोजननो विस्तार बे, एवो संप्रदाय के. ने बृहत्क्षेत्रसमासनी टीकामां तो नील ने निषपर्व तपासे तेनुं जघन्य प्रमाण े, त था शीता छाने शीतोदाप्रते उत्कृष्टुं प्रमाण कांबे, प रंतु तेमां कहूं विशेष कां नथी. दवे देवकुरु ने -
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(३३५) रु क्षेत्रसीमाविधायिनः ॥ गजदंताकृतीन शैलान् । च. तुरश्चतुरो बुंवे ॥ ७० ॥ तत्र देवकुरूणां यः । प्रत्यग्वि. द्युत्पनो गिरिः । तथोत्तरकुरूणां च । प्रत्यग यो गंधमा. दनः ।। ११ ॥ दावण्यायामत मौ. । षट्पंचाशत्सहस्रकाः ॥ लदास्तिस्रो योजनानां । सप्तविंशं शतयं ॥१२॥ अथ देवकुरूणां प्रा-गिरिः सौमनसोऽस्ति यः ।। तथो. त्तरकुरूणां प्रा-पर्वतो माव्यवांश्च यः ॥ १३ ॥ एतावायामतः पंच-लदा एकोनसप्ततिः ॥ सहस्राणि योजनानां । द्विशत्येकोनषष्टियुक् ॥ १४ ॥ इदं प्रमाणं पूर्वा त्तरकुरुक्षेत्रनी सीमा करनारा गजदंतसरखी आकृतिवाळा चार चार पर्वतोनुं वर्णन करुं . ॥ ३० ॥ तेमांथी दे. वकुरुनी पश्चिमे विद्युत्प्रभ नामनो जे पर्वत , तेमज उत्तरकुरुनी पश्चिमे गंधमादन नामनो जे पर्वत बे, ॥ ॥ ११ ॥ ते बन्ने पर्वतोनी लंबाश्त्रणलाख उपन हजार बसो सतावीश जोजननी . ॥ १५ ॥ वळी देवकुरुनी पूर्व जे सौमनस नामे पर्वत , तथा उत्तरकुरुनी पूर्वे जे माव्यवान नामे पर्वत , ॥ १३ ॥ तेन बत्रेनी लंबार पांच लाख नगणोतेर हजार बसो जंगणसाठ जो. जननी . ॥ १४ ॥ या प्रमाण विद्वानोए पूर्वार्धमां जा..
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(३३६ ) . धै । भावनीयं विचदाणैः ॥ परार्धे क्षेत्र विस्तार-व्यत्या. सेन विपर्ययः ॥ ३५ ॥ पूर्वार्धे हि नवेत्क्षेत्रं । प्राच्या विस्तीर्णमन्यतः॥ संकीर्णमपरार्धे तु । प्रत्यक्पृथ्व्यन्यतोऽ. न्यथा ॥ १६ ॥ ततः पूर्वार्धे यदुक्तं । मानं प्राचीनशैलयोः ॥ सौमनसमात्यवतो-स्तत्प्रतीचीनयोरिह ॥ १७ ॥ ज्ञेयं विद्युप्रत्भगंध-मादनाद्योः परार्धके ॥ यत्प्रतीचीन योस्तव । मानं तत्पाच्ययोरिह ॥ ७० ॥ एते चत्वारोऽपि शैलाः । स्वस्ववर्षधरांतिके ॥ सहस्रयोजनव्यासा-स्तनको एवं, परंतु पश्चिमार्धमां क्षेत्रना विस्तारना विपरीतपणाथी तेथी नलर्ट जाणवू. ॥ १५ ॥ पूर्वार्धमा रहेबु क्षेत्र पू. वतरफ विस्तारखाळु. अने पश्चिमतरफ सांकडं होय . अने पश्चिमार्धमा पश्चिमतरफ विस्तारवाळु अने पूर्वतरफ सांकडं होय . ॥ ६ ॥ भने तेथी पूर्वाधमां पूर्वना सौमनस अने माल्यवान पर्वतोनू जे प्रमाण कां ने, ते प्रमाण अहीं पश्चिममा रहेला ॥ १७ ॥ विद्युत्पन तथा गंधमादन पर्वतर्नु पश्चिमाधमां जाणवू, माटे पश्चिमना पर्वतोनुं जे प्रमाण दे, ते अहीं पूर्वना पर्वतोनुं जाणवू. ॥ 9 ॥ ए चारे पर्वतो पोतपोताना वर्षवरोनी पासे एक हजार जोजन पहोळा , तथा मेरुपासे सांकमा .
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( ३३७)
मेरुसन्निधौ ।। ७ ॥ शेषवर्णविनागादि । कूटवक्तव्यतादि च ॥ जंबूद्दीपगजदंत-गिस्विचिंत्यतामिह ।। ७० ॥ अथ स्वस्खप्रतीचीन–प्राचीनगजदंतयोः ॥ पायाममानयोर्योगे । धनुर्मानं कुरुदये ॥ १ ॥ नवलदा योजनानां । सहस्राः पंचविंशतिः ॥ तथा शतानि चत्वारि । षमशीयधिकानि च ॥ ७ ॥ नासालायतिर्दिना । मे. रुविष्कंभसंयुता ॥ गजदंतद्वयव्यास-हीना ज्या कुरुषु स्फुटा ॥ ३ ॥ त्रयोविंशत्या सहस्र-रधिकं लदयोईयं ॥ योजनानामष्टपंचा-शताधिकं तथा शतं ॥ ४ ॥ ॥ ॥ बाकीनां वर्ण, विजागादिक तथा तेजेनां शि: खरोनां वर्णनबादिक सघg जंबूद्वीपमा रहेला गजदंतो. नीपेठे अहीं पण जाणवं. ॥ ७० ॥ हवे पोतपोताना पश्चिम तथा पूर्वना गजदंतोनी लंबाचं प्रमाण एक कखाथी बन्ने कुरुननुं धनुर्मान नीचेमुजब थाय ने. ॥१॥ नव लाख पचीस हजार चारसो ज्यासी जोजननु थाय ने. ॥ २॥ भद्रगाल वननी लंबाश्ने बेवडी करीने, त. था तेमां मेरुनी पहोळा नेळवीने, तेमांथी गजदंतोनी पहोलाइ बाद करवाथी प्रगटरीते कुरुनी नीचेमुजब जीवा थाय . ॥ ३ ॥ बेलाख वीस हजार एकसोय.
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(३३०) विदेहमध्यविष्कने । मेरुविष्कंगवर्जिते ॥ वर्षीकृते च प्रत्येकं । लन्यते कुरुविस्तृतिः ॥ ५॥ सा चेयं-त्रिलदी सप्तनवतिः । सहस्राएयष्टशत्यपि ॥ ससप्तनवतियोज -नानां दिनवतिलवाः ॥ ६ ॥
थापाच्यामुदीच्यां च । नीलवनिषधाजितः ॥ प्र. त्येकं यमकादी स्तो। जंबूदीपकुरुष्विव ॥ 6 ॥ जंबूहीपयमकव-स्वरूपमेतयोरपि ॥ सहस्रयोजनोचत्व-वि. स्तारायामशालिनोः ।। 1 ॥ क्रमात्ततो हृदाः पंच । त. ठावन जोजननी ते जीवा थाय ने ॥ ४ ॥ विदेहनी वचली पहोळाश्मांथी मेरुनी पहोळा बाद करी, बाकी रहेली रकमने अर्ध करवाथी दरेक कुरुनो विस्तार मली यावे . ॥ ५ ॥ यने ते नीचेमुजब-त्रण लाख सताणु हजार पाउसो सताणु जोजन बने बाणु लवोनो ते विस्तार . ॥ ६ ॥ ___ हवे नीलवान अने निषवपर्वतथी दक्षिणे अने नतरे जंबूद्दीपमाना कुरुनीपेठे दरेकमां बे यमकपर्वतो . ।। ७७ ॥ एक हजार जोजन नंचा पहोला तथा लांबा ए ते बन्ने यमकालिन स्वरूप जंबुद्दीपमाना यमकादिसरखं जाणवं. ॥ 6 ॥ त्यांथी अनुक्रमे बन्ने किनाराजेपर
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नामानस्तथा स्थिताः ॥ तटहये दश दश । कांचनाचलचारवः ॥ ॥ हृदाः पंचाप्यमी ताह-ग्नामन्निः सेविताः सुरैः ॥ तहत्पद्मांचितास्तेन्यो । हिगुणायतविस्तृताः ॥ ७० ॥ तटदये दश दश । ये चाल कांचनाद्रयः। स. श्रीकास्तेऽपि मानेन । तैर्जबूहीपनैः समाः ॥ १ ॥ किं. तु संबधमूलास्ते-मी तु व्यवहिता मिथः ॥ योजना. नां शते नैका-दशेन नवमांशिना ॥ २ ॥ तच्चैवंएषां दशानां पृथुत्वे । सहस्रं मिलिते नवेत् ॥ तत्सहस्रदश दश कांचनाचलोथी मनोहर थयेला तेज नामना घने तेवीरीतना पांच हृदो यावेला . || नए ॥ ते पांचे हृदो तेवाज नामोवान देवोथी सेवायेला , तथा तेनीपेठेज कमलोथी शोभिता अने बमणा लांबा पहो. ला. ॥ ७॥ वळी अही बन्ने किनारापर जे दश दश कांचनाचलो, तेन शोभिता तथा प्रमाणमां जंबूहीपमाना कांचनाचलजेवा . ॥५१॥ परंतु जंबूहीपना कांचनाचलो संयोगी मूलवान , अने या कांचनाच. लो एकबीजाथी जुदा , अने ते वच्चनुं अंतर एकसो अग्यार पूर्णाक एकनवमांश जोजन- . ॥ ए॥ य.. ने ते नीचेमुजब ते दशे कांचनाचलोनी पहोळा
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(३४०) हयादेक-हृदायामादियोज्यते ॥ ३॥ शेषं स्थितं सहस्रं य-नवभिस्तदिनज्यते ॥ अंतरैः कांचनाद्रीणामेवं यथोक्तमंतरं ॥ ॥ जंबूहीपे तु हृदानां । सहस्रायामनावतः ॥ न किंचित्कांचनाद्रीणां । व्यवधानं परस्पर ॥ ए५ ॥ यमकाऽिहृदायाम-वर्जितात्सप्तनिहतात ।। ल. ज्यंते कुरुविष्कंभा-त्सप्तांतराणि तानि च ।। ए६ ॥ यम कायोर्नीलवत-स्तान्यामाग्रहृदस्य च ॥ क्रमाचतुर्णा ह. दानां । क्षेत्रांतस्थांतिमहृदात ।। ए ॥ सहस्राः पंचपंचा श्नो सरवाळो करवाथी एक हजार जोजन थाय, ते र. कमने एक हृदनी बे हजार जोजननी लंबाश्मांथी बाद करवी. ॥ ५३ ॥ बाकी रहेली एक हजारनी रकमने न. व यांतरानथी नांगवी, एटले ते कांचनाचलोर्नु पूर्व कहे अंतर यावे . ॥ ४ ॥ अने जंबूहीपना हृदोनी लंबा तो एक हजार जोजननी होवायी त्यांना कांच नादिळवच्चे परस्पर कई पण अंतर नथी. ॥ ५५ ॥ कु. रुनी पहोळाश्मांथी यमकाचल तथा हृदोनी लंबाइ बाद करवाथी, तथा बाकी रहेली रकमने साते जांगवाश्री ते सात अंतरोन माप आवे . ६ ॥ नीलवानथी बे यमकालोन ते थी पहेला हर्नु, तिथा क्षेत्रने डेडे
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( ३४१) श-द्योजनानां शतद्वयं ॥ एकसप्तत्याधिकं त-भवेदेकैकमंतरं ॥ ए ॥ पासूत्तरासु कुरुषु । नीलवनिरिसन्निधौ ॥ राजते धातकीवृदो । जंबूवृद श्वापरः ॥ ७॥ ॥ मा. ने स्वरूपे त्वनयो-विशेषोऽस्ति न कश्चन ।। किंतु त. स्यानादृतव-दस्य देवः सुदर्शनः ॥ २०० ॥ नदीचीनासु कुरुषु । पश्चाऽप्येवमीदृशः ॥ स्यान्महाघातकी वृतः । प्रियदर्शनदैवतः ॥ १॥ नुत्तरासां कुरूणां य-स्वरूप मिह वर्णितं ॥ तदेव देवकुरुषु । विज्ञेयमर्धयोईयोः ॥ ॥२॥ किंवासु नीलवत्स्थाने । वक्तव्यो निषधाचलः ।। रहेला बेल्ला हृदयी अनुक्रमे चारे हृदोनुं ॥ ए ॥ ए. केकुं अंतर पचावन हजार बसो एकोतेर जोजनन . ॥ ॥ या उत्तरकुरुमां नीलवानपर्वतपासे बीजा जं. बूदाजेवो धातकीवृत शोने . ॥ एए॥ ते बनेना प्रमाण अने स्वरूपमां कई पण तफावत नथी, परंतु य. नादृतनीपेठे तेनो स्वामी सुदर्शनदेव ने. ॥ २०० ॥ - ळी एवीरीते पश्चिमार्धमाना उत्तरकुरुमां पण एवोज म हाधातकीवृद ने, अने तेनो स्वामी प्रियदर्शन देव .॥ ॥ १॥ एवीरीते जे श्रही नत्तरकुरुनु स्वरूप वर्णव्यु, ते. ज खरूप देवकुरुना बन्ने अर्ध भागोमां जाणवं. ॥१॥
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(३४२) गिरी चित्रविचित्राख्यौ । वाच्यौ च यमकास्पदे ॥ ३ ॥ पूर्वापरार्धयोर्दैव-कुरुषु स्तो यथास्पदं । प्राग्वबाल्मलिनौ वेणु-देवाभिधसुराश्रयौ ॥ ४ ॥ तथोक्तं स्थानांगद्वितीयस्थानकवृत्तौ- दो देवकुरुमहादुमत्ति ' द्वौ कूट शाल्मलिदा वित्यर्थः, दौतहासिदेवौ वेणुदेवावित्यर्थः. शेषं तु हृदनामादि । यदत्र नोपदर्शितं ।। तथंबूदीपवद् ज्ञेयं । विशेषो ह्यत्र दृश्यते ॥ ५ ॥ मध्येऽत्र मेरुश्चतुरशीति तुंगः सहस्रकान् ।। योजनानां सहस्रं चा-वगाढो परंतु तेमां नीलवानपर्वतने ठेकाणे निषधाचल जाणवो, अने यमकादिने बदले चित्र अने विचित्र नामना पर्व तो जाणवा. ॥ ३ ॥ देवकुरुमां पूर्वार्ध तथा पश्चिमाधमां पूर्वनीपेठे वेणुदेव नामना देवधी पाश्रित थयेला बे शाल्मलीवृदो जाणवां. ॥ ४ ॥ तेमाटे स्थानांगना बीजा स्थानकनी टीकामां कडं ने के–' देवकुरुमां बे महादो' एटले बे कूटशाल्मलीवृदो बे, एवो अर्थ जाणवो, अने तेमां रहेनारा बे वेणुदेवो , एवो अर्थ जाणवो. बाकी हृदनां नामश्रादिक जे अहीं देखाडेल नथी, ते सघळु जंबूद्वीपनीपेठे जाणवं. अने जे तफावत ने ते दे. खाडे . ॥ ५॥ वहीं मध्यमा रहेलो मेरुपर्वत चोर्या
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(३४३) वसुधांतरे ॥ ६॥ शतानि पंचनवति । मूले चुमिगते पृ. थुः ॥ चतुर्नवतिमेव दमा-तले शतानि विस्तृतः ॥७॥ यत्रोत्तीर्य योजनादौ । व्यासोऽस्य झातुमिष्यते ॥ तस्मिन दशहते लब्धे । सहस्राढये च तत्र सः ॥ ७ ॥ तथा. हि-शिरोऽग्राचातुरशीतेः । सहस्राणामतिकमे ॥ व्यासे जिशासित एतान् । सहस्रान् दशभिनजेत ॥ ए॥ ल. धान्येवं च चतुर-शीतिः शतानि नान्यथ ॥ सहस्रा. व्यानि पूर्वोक्तो । विष्कंभोऽस्य सुवस्तले ॥ १० ॥ मूला. सी हजार जोजन नंचो , तथा ते एक हजार जोजन पृथ्वीनी अंदर चेलो ने. ॥ ६ ॥ ऋमिमा रहेला मूल. नागमा ते पचाणुसो जोजन पहोळो , अने पृथ्वीतलपर ते चोराणुसो जोजन पहोळो . ॥ ७॥ ज्यां न. तरीने जोजनादिकमां तेनो व्यास जाणवो होय, तेने दशे भांगवाथी जे यावे तेमां हजार मेळववाथी ते थावे . ॥ ७ ॥ ते कहे जे-टोचेथी चोर्यासी हजार जो जन नळंग्याबाद जो तेनो व्यास जाणवो होय तो ते. टलादजारने दशे नांगवा. ॥ ७ ॥ त्यारे ते चोर्यासीसो याव्या, अने तेमां एक हजार खेळववायी पूर्वे कहेली पृथ्वीतलपरनी तेनी पहोळाश्यावी. ॥ १० ॥ मूलथी
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(३४) द्यदोर्ध्वगमने । विष्कमो झातुमिष्यते ॥ तदा यावद्या. तमृर्व । तत्संख्यां दशभिनजेत् ॥ ११ ॥ लब्धे च मू. लविष्कंगा-बोधिते यत्तु तिष्ठति ॥ तत्र तावत्प्रमाणोऽस्य । विष्कंभो लन्यते गिरेः ॥ १२॥ यथोर्ध्व चतुरशीतो । सहस्रेषु भुवस्तलात ॥ गतेषु चतुरशीति । सहस्रान् दशनिनजेत् ॥ १३॥ लब्धानि चतुरशीतिः । शतानि ता. नि शोधयेत् ।। नृतलव्यासतः शेषा । साहस्री मूर्ध्नि विस्तृतिः ॥ १४ ॥ आम्नायोऽयं कर्णगत्या । मेरुनिम्नोन्नत त्वयोः ॥ ज्ञेयोऽविवदाणात्प्राग्व-न्मेखलायुग्मजातयोः । नंचे चमीने जो तेनी पहोळा जाणवी होय तो, जेट
नंचे गया होश्ये, ते संख्याने दशथी जांगवी, ॥११॥ जे थावे तेने मूलना विस्तारमाथी बाद करखी, अने जे संख्या रहे तेटला प्रमाणवाळी ते पर्वतनी त्यां पहोळाश जाणवी. ॥ १॥ जेमके पृथ्वीतलथी चोर्यासी हजार जोजन उपर गये छते, ते चोर्यासी हजारनी रकमने दशे नांगवी. ॥ १३ ॥ त्यारे चोर्यासीसो थाव्या, तेने पृथ्वीतलना व्यासमांथी बाद करवाथी टोचपरनो एक ह. जारनो विस्तार यावे. ॥ १४ ॥ एवीरीतनो बन्ने मेखलाथी थयेलो मेरुनी नीचाश् चाश्नो या यानाय
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(३४५) ॥ १५ ॥ श्रियं श्रयत्ययमपि । चतुर्निश्वारुकाननैः ॥ दं. तैरैरावत श्व । दैत्यारिखि बाहुनिः ॥ १६ ॥ तत्र जौ भऽसाल-वनं तरुलताघनं । तरणित्रासितं वांत-मिवैतत्पादमाश्रितं ॥ १७ ॥ प्राच्या प्रतीच्या प्रत्येकं । तही. घे लदयोजनीं ।। सहस्रान सप्त सैकोना-शीतीन्यष्टशतानि च ॥ १७ ॥ प्राच्येऽथवा प्रतीचीने । दैर्येऽष्टाशीतिजाजिते । यसब्धं सोऽस्य विष्कभो । दक्षिणोत्तरयोः स च ॥ १५ ॥ योजनानां पंचविंशाः । शता द्वादश कीर्तिनहि कहेवायो कर्णगतिथी जाणवो. ॥ १५ ॥ जेम चारदांतोवडे ऐरावतहाथी, तथा चार हाथोवडे जेम इंड, तेम था पर्वत पण चार वनोवडे शोजाने धारण करे. ॥ १६ ॥ त्यां पृथ्वीपर वृदो तथा लतानवडे घाटुं थय. बु, तथा सूर्यथी मरेला अंधकारे जाणे तेनां चरणो याश्रित कर्या होय नहि तेवू नद्रशाल नामे वन .॥ ॥ १७ ॥ पूर्व अने पश्चिम, एम दरेक दिशामां तेनी लं. बाइ एक लाख सात हजार पाउसो नंगणाएशी जोज. नना . ॥ १७ ॥ ते पूर्व अथवा पश्चिमतरफनी लंबारने अठ्यासीए भांगवायी जे रकम आवे, तेटली तेनी दक्षिण तथा उत्तरमा पहोळा जाणवी. ॥ १५ ॥ श्रने
बा
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(३४६) ताः ॥ एकोनसप्ततिश्चांशा । अष्टाशीतिसमुन्नवाः ॥२०॥ अष्टाशीत्या गुणिताया-मेतस्यां पुनराप्यते ॥ प्राच्यां प्रतीच्यां चायामो । यः प्रागस्य निरूपितः ॥ २१ ॥ एवं प्रमाणविस्तारा-याममेतहनं पुनः ।। गजदंतमंदराद्रिनदीनिरष्टधा कृतं ॥ २२॥ तच्च जंबूद्दीपञ्चद्र-सालवद्धा व्यतां बुधैः ॥ तथैवैतदृदयमाण-वनकूटादिकस्थितिः ॥ ॥ ३ ॥ अथोत्रम्य योजनानां । शतानि पंच नृतलात् ॥ कव्यां नंदनवन्मेरो । राजते नंदनं वनं ॥ २४ ॥ तच्च ते बारसो पचीस पूर्णाक जंगणोतेर अठ्यासीयांश जोजन थाय . ॥ २० ॥ वळी ते रकमने अठ्यासीए गु. एवाथी जे पूर्व कहेली , ते पूर्व अने पश्चिमतरफनी लंबाश् श्रावे . ॥ २१ ॥ एवीरीतना लांबां पहोळां प्रमाणवाळू ते वन , तथा गजदंत, मंदराचल घने नदी.
थी तेना पाठ विजागो थयेला . ॥ २॥ वळी ते वनने विद्वानोए जंबूद्दीपमाना भद्रशाल वननी पेठे जा णी लेवं, तेमज ते वर्णवातां वन, तथा शिखरयादिक नी स्थितिवाडं . ॥ २३ ॥ हवे पृथ्वीतलथी पांचसो जोजन उपर चड्याबाद मेरुना कंटीनागपर राखेला पु. त्रनीपेठे नंदनवन शोने . ॥ २४ ॥ ते नंदनवन च.
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( ३४१ ) चक्रवालतया । शतानि पंच विस्तृतं ॥ अनल्पकल्प फलद - लतामंडपमं मतं ॥ २९ ॥ बहिर्विष्कंनोऽत्र मेरो - रु. काम्नायेन लन्यते | योजनानां सहस्राणि । नवाव्य शतत्रयं ॥ २६ ॥ तथाहि
उत्क्रांतायाः पंचशत्या | दशभिर्नजने सति ॥ बव्धपंचाशतोऽधस्थ - व्यासात्त्यागे नवेदयं ॥ २७ ॥ बहिसात्पंचशत्या - त्यागे वोभयतः पृथक् ॥ अंतर्व्यासोsट सहस्रा - स्त्रिया सार्धयाधिकाः ॥ २८ ॥ सहखाणि पंचपंचा- शतं पंचशतीं तथा ॥ व्यतिक्रम्य योज
कवालपणे पांचसो जोजन पहोळु, तथा विस्तीर्ण कल्पवृदो खने लताना मंमपोथी शोभितुं बे. ॥ २५ ॥ यहीं मेरुनी बहारनी पहोळाइ कहेल घ्याम्नायथी नव द जार सामान्रणसो जोजननी श्राय बे. ||२६|| ते कहे बे
उपर चडेला पांचसोने दशे भांगवाथी घ्यावेला पचासने नीचेना व्यासमांथी वाद करवाथी ते थाय बे. ॥ २७ ॥ प्रथवा बन्ने बाजुथी जुदा जुदा बहारना व्यासमांथी पांचसो बाद करवाथी छंदरनो च्याउहजार साडा :
सोनो व्यास घ्यावे रे || २ || दवे ते नंदनवनथी उपर पंचावन हजार ने पांचसो जोजन नळग्याबाद
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(३४) नाना-मूर्ध्व नंदनकाननात् ॥ २७ ॥ श्रतांतरे सौमनसं । स्यात्पंचशतविस्तृतं ॥ चक्रवालतया मेरो-वेयकमिवामलं ॥ ३० ॥ बहिर्विष्कंनोऽत्र गिरे-गुरुभिर्गदितो मम ।। योजनानां सहस्राणि । त्रीण्येवाष्टौ शतानि च ॥ ३१ ॥ तथाहि षट्पंचाशत्सहस्राणि । यान्यतीता नि नृतलात् ॥ एषां दशमनागः स्या-षट्पंचाशबतात्मकः ॥ ३५ ॥ असौ जुतलविष्कंभा-पूर्वोक्तादपनीय ते ॥ तस्थुर्यथोदितान्येव-मष्टात्रिंशबतानि वै ॥ ३३ ॥ सहस्रापगमे चास्मा-त्स्यादतर्गिरिविस्तृतिः ॥ हे सहस्रे ॥ २७ ॥ चक्रवालपणे पांचसो जोजनना विस्तारवाद्यं, मेरुना कंठमा रहेला निर्मल कंठाजेवू सौमनसवन शोने . ॥ ३० ॥ वहीं पर्वतनी बहारनी पहोलाइ गुरुमहाजे मने त्रण हजार घने बाठसो जोजननी कहेली . ॥ ३१ ॥ ते कहे -पृथ्वीतलथी जे छपन हजार जो. जन जळगायेलां , तेनो दशमो नाग उपनसोजेटलो थाय . ॥ ३२ ॥ ते रकमने पूर्व कहेला पृथ्वीतलना विस्तारमाथी बाद करवाथी कह्यामुजब त्रण हजार पाठसो थावे . ॥ ३३ ॥ तेमांथी एक हजार बाद करवाथी पर्वतनो अंदरनो वेरावो श्रावे, अने ते बे हजार पाठ.
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(३४ए) योजनानां । शतैरष्टनिरन्विते ॥ ३४ ॥ अथैतस्माइनाद
_-मुलां तैमेरुमूर्धनि ॥ अष्टाविंशत्या सहस्र-योजनैः पांमकं वनं ॥ ३५ ॥ चक्रवालतया तच्च । विस्तीर्ण वर्णितं जिनैः । चतुर्नवत्यान्यधिकां । योजनानां चतुःशतीं ॥ ३६ ॥ तच्चैवं-मेरुमस्तकविष्कंभा-सहस्रयो जनोन्मितात ॥ मध्यस्थचूलिकाव्यामो। द्वादशयोजना. स्मकः ।। ३७ ॥ शोध्यते तबेषमर्धी-कृतं पंमकविस्तृतिः ॥ शेषा शिलादिस्थितिर्या । सा जंबूद्दीपमेरुवत् ॥ ३०॥ तथैवास्य मरकत-मयी शिरसि चूलिका ॥ नानारत्ननि सो जोजननो . ॥ ३४ ॥ हवे ते वनथी नंचे मेरुना शिखरपर अठावीश हजार जोजन चम्बाबाद पांडकवन श्रावे . ॥ ३५ ॥ ते वननो चक्रवालपणे चारसो चो: राणु जोजननो विस्तार जिनेश्वरोए कहेलो . ॥ ३६॥ अने ते नीचेमुजब -एक हजार जोजनना मेरुना शिखरपरना विस्तारमाथी बच्चे रहेली चूलिकानो बार जोजननो व्यास ।। ३७ ॥ बाद करवो, अने बाकी रहेली र. कमने अर्धी करवाथी पंडकवननो विस्तार आवे , अ. ने बाकी शिलाबादिकनी त्यां जे स्थिति में, ते जंबूढीपना मेरुनीपेठे जाणवी. ॥ ३० ॥ वळी तेना शिवस्पर
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(३५०) मितेन । शोनिता जिनसद्मना ॥ ३५ ॥ एवं यदन्यद प्यत्र । कूटचैत्यादि नोदितं ॥ जंबूद्दीपमेरुवत्त-वक्तव्यं सुधिया धिया ॥ ४०॥ एवं यथास्य हीपस्य । पूर्वार्धमिह वर्णितं ॥ पश्चिमार्धमपि तथा । विज्ञेयमविशेषितं ॥ ॥ १ ॥ गजदंतप्रमाणादौ । विशेषो यस्तु कश्चन ।। स तु यत्तत्प्रकरणे । नामग्राहं निरूपितः ॥ ४२ ॥ किंचविजये पुष्कलावत्यां । वप्राख्ये विजये तथा ॥ वसे च नलिनावत्यां । विहरंत्यधुना जिनाः ॥ ४३ ॥ प्राचीनेऽर्धे मरकतरत्ननी चूलिका ने, अने ते चूलिका विविधप्रकारनां रत्नोथी बनेलां जिनमंदिरखडे शोभिती थयेली . ॥ ३५ ॥ एवीरीते बीजं पण जे कई वहीं शिखर तथा चैत्यादिक नथी कडं, ते विद्वाने जंबूद्दीपमाना मेरुनी पेठे बुधिपूर्वक जाणी लेवु. ॥ ४०॥ एवीरीते जेम अही था दीपना पूर्वार्धनुं वर्णन कयु. तेम पश्चिमार्धनुं वर्णन पण फेरफारविना जाणी लेवं. ॥४१॥ श्रने गजदंतना प्रमाणादिकमां जे कई विशेष , ते तो ते प्रकरणमां नामपूर्वक निरूपण करेलो . ॥४२॥ वळीपुष्कलावती तथा वप्र नामना विजयमां, तेमज वत्स अने नलिनावती विजयमा हालमां जिनेश्वरो विचरे . ॥
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( ३५१ ) सुजातोऽर्दन् । स्वयंप्रभर्षनाननौ || श्रीमाननंतवीर्यश्व । पश्चिमार्धे तु तेष्वमी ॥ ४४ ॥ सूरप्रनो जिनः श्रीमान् । विशालो जगदीश्वरः || जगत्पूज्यो वज्रधर - चंद्राननः प्रभुः क्रमात् ॥ ४५ ॥ एवं चात्र -
श्रियं दधाते द्वौ मेरू | Sीपस्यास्य कराविव ॥ - दस्तौ पृथुतादर्पा नभसो निजिघृक्षया ॥ ४६ ॥ यहो करौ वह कौ च नंदनबलात् || स्पर्धया संमुखिनौ
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॥ ४३ ॥ तेमां पूर्वार्धमां सुजात, स्वयंप्रन, ऋषजानन तथा श्रीमान अनंतवीर्य जिनेश्वर विचरे बे, छाने पश्चिमाना ते विजयोमां ॥ ४४ ॥ श्रीमान् सूरप्रन, विशाल नामे जगदीश्वर, तथा जगतथी पूजायेला वज्रधरजिन, मनुक्रमे विचरे बे. ॥ ४५ ॥ व
चंद्रानन ळी एवीरी अहीं
जाणे पोताना विशालपणाना पहंकारथी घ्याकाशने ग्रहण करवानी हाथी या द्वीपे बे हाथ उंचा क र्या होय नहि ते त्यां ते बे मेरुपर्वतो शोजाने धारण करे d. ॥ ४६ ॥ यथवा नंदनवनना मिषयी बांधेल ने कोटा जेणे एवा, तथा प्रचंम दायोवान, धने स्पर्धाथी एकबीजानी सामे उनेला, छाने उठेला एवा जाणे बे
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(३५२) दौ । महामनाविवोबितौ ॥ ४ ॥ स्थापयत्येकधात्मानं । मेर्वकांगुलिसंझया ॥ जंबूद्दीपेऽयमेतान्यां । द्विधा तं स्थापयन्निव ॥ ॥ ४ ॥ अनलंजूषानोबातुं । दीपेनाने. न वार्धकात् ॥ धृतौ दंडाविवोहंमौ । मेरू दाविद राजतः ॥ ४ ॥ वर्षाद्रयो द्वादशाष्टषष्टिवैताब्य धराः ॥ दी. | अष्टौ च वृत्तास्ते । कांचनाचितुःशती ॥ ५० ॥ वक्षस्काराद्रयो हात्रि-शदष्टौ गजदंतकाः ॥ दौचित्रौ हौ विचित्रौ च । चत्वारो यमकाचलाः ॥ ५१ ॥ षुकारवयं महामलो होय नहि तेम ते बन्ने मेरु लागे . ॥४॥ अथवा मेरुरूपी एक प्रांगळीनी संहाथी एक प्रकारना यात्माने जंबूढीप स्थापते बते, या हीप बे मेरुरूपी बे यांगलीनथी ते अात्माना जाणे बे नेदोने स्थापतो हो. य नहि तेम लागे . ॥ ४ ॥ अथवा घमपणने लीधे नरवाने अशक्त थयेला एवा या द्वीपे जाणे बे प्रचंड दंडो धारण कर्या होय नहि तेम ते बे मेरुपर्वतोशोने. ॥ ४ ॥ बार वर्षधर पर्वतो, यमसठ लांबा वैताब्य पर्व तो, पाठ वृत्तवैताब्यो, चारसो कांचनादिन, ॥ २०॥ बत्रीस वदस्कार पर्वतो, पाठ गजदंत पर्वतो, बे चित्र पर्वतो, बे विचित्र पर्वतो, चार यमकाचलो, ॥ ५१ ॥ अने
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( ३५३) चैवं । सर्वा ग्रेणात्र नभृतां ॥ चत्वारिंशा पंचशती । चत्वारश्च महामाः ॥ ५५ ॥ चतुर्दशात्र वर्षाणि । चतस्रः कुरखोऽपि च ॥ षट् कर्ममयोऽकर्म-मयो द्वादश स्मृ ताः ॥ ५३ ॥ दीर्घ वैताढयेषु कूटाः । प्राग्वन्नवनवोदिताः ॥ सक्रोशषम्योजनोचा। हादशा षट्शतीति ते ॥१४॥ रुक्मिमहाहिमवंतः । कूटैरष्टभिरष्टनिः । सप्तनिश्च सौमनसौ । तथा च गंधमादनौ ॥ ५५ ॥ मेर्वोर्चे नंदनवने । निषधौ नोलवद्गिरी ॥ विद्युत्पन्नौ माव्यवंतौ । नवकूटाः बे षुकार पर्वतो, एम सर्व मत्रीने था दीपमां पांचसो चालीस पर्वतो , धने चार महावृदो . ॥ ५ ॥ वकी यहीं चौद क्षेत्रो, चार कुरु, छ कर्म मिन. अने बार अकर्म ऋमिन कहेली . ॥ २३ ॥ ते लांबा वैताब्योपर पूर्वनी पेठे नव नव शिखरो कहेलां , ते शिखरो जोजन अने एक कोश चां , अने सर्व मलीने ते छसोने बार जे. ॥ १४ ॥ रुक्मी अने महाहिमवंतपर्वत पाठ पाठ शिखरोवडे, अने बन्ने सौमनसो तथा बन्ने गंधमादनो सात सात शिखरोवडे शोनिता . ॥१५॥ मेरुनी मेखलापर रहेलां बे नंदनवनो, बे निषधपर्वतो, बे नीलवानपर्वतो, बे विद्युत्प्रभपर्वतो, अने बे माव्यवा
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(३५४) समेऽप्यमी ॥ २६ ॥ हिमवंतौ शिखरिणौ । तैरेकादश भिर्युतौ ॥ वदस्कारगिरीणां च । प्रत्येकं तचतुष्टयं ।।१७॥ त्रयः शताः स्युर्दाविंशाः । कूटान्येतानि तत्र च ।। षोम शा त्रिशती प्रोक्त-हिमवद्गिस्कूिटवत् ।। २७ ॥ हस्कूिटौ द्वयोर्विा-प्रभयो? हरिस्सहो ॥ माल्यवतोबलकूटौ । मेरुनंदनयोश्च यौ ॥ ५० ॥ एते पमपि साहस्रा-स्त्रैधानामिति मानतः ॥ चतुस्त्रिंशाद्रिकूटाना-मेवं नवंशती नवेत् ॥ ६० ॥ सहेषुकारकूटैा-चत्वारिंशा शता नव नपर्वतो, ए सघला पर्वतो नव नव शिखरोवाला . ॥ ॥ १६ ॥ बे हिमवान अने बे शिखरीपर्वतो अग्यार ग्यार शिखरोवाळा , घने दरेक वदास्कारपर्वतना चार चार शिखरो ने. ॥ ५७ ॥ ए शिखरोनी संख्या वणसो बावीसनी थाय ने, वळी त्यां कहेला हिमवान पर्वतना शिखरनोपेठेत्रणसोने शोळ . ॥ १७ ॥ बन्ने विद्युत्प्रभोना जे बे हरिकूटो , तथा बन्ने माल्यवानना जे बे हरिस्सहकूटो . तेमज मेरुना बे नंदनवनोना जे बेब. लकूटो , ॥ ए॥ ए छए एक हजार जोजनना प्र. माणवाळा , तथा ते त्रणे प्रकारना चोवीस पर्वतोना सर्व मली नवसो शिखरो थाय . ।। ६० ॥ तेमां षु.
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॥ तत्रेषुकारकूटानां । मानं तु नोपलन्यते ॥ ६१ ॥ च. तुःषष्टौ विजयेषु । भरतैरखतेषु च ॥ स्युरष्टषष्टिलषनटा एकैकनावतः ॥ ६ ॥ धातक्यादिषु चतुष्के । दयो. श्व नऽसालयोः ॥ अष्टाष्टेति च सर्वाग्रे । कूटाः षोडश शतं ।। ६३ ॥ एतेषां वक्तुमुचिते । पर्वतत्वेऽपि वस्तुतः ॥ कूटत्वव्यवहारस्तु । पूर्वाचार्यानुरोधतः ॥ ६४ ॥ महाहृदा दादशैव । विंशतिश्च कुरुहृदाः ॥ श्रीहीधृतिकीर्तिबु. हि-लक्ष्मीनां च यं यं ॥ ६५ ॥ सहस्रा बादशैको कारपर्वतना शिखरो नेळववाथी नवसो चमालीस श्राय, तेमांथी चुकारपर्वतना शिखरोनुं प्रमाण मलतुं नथी. ॥ ६१ ॥ चोसठ विजयोमां अने जरत तथा ऐवतमांएकेक लेखे यमसठ वृषन्नकूटो ने. ॥ ६ ॥ धातकीया. दिक चारमां, तथा बे भद्रशालोमां आठ पाठ होवाथी सर्व मलीने एकसो शोळ कूटो . ॥ ६३ ॥ मुख्यत्वे करीने तो तेजने पर्वतो कहेवा नचित , तोपण पूर्वाचार्योना अनुरोधथी तेजनो शिखररूपे व्यवहार चाले ने. ॥ ६४ ॥ बार महाहृदो, वीश कुरुहृदो, तथा श्री, ही, धृ. ति, कीर्ति बुधि अने लक्ष्मीना बे बे हृदो . ॥ ६१ ।। या द्वीपमां सर्व मलीने जंगणवीस लाख बार हजार
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(३५६) न-त्रिंशदाश्च कीर्तिताः ॥ तरंगिणीनामेतस्मिन् । द्वीपे मतांतरे पुनः ॥ ६६ ॥ पंचत्रिंशलदाणि । चतुर. शीतिः सहस्रकाश्चैव ॥ इह संभवंति सरितां । तत्वं विदं. ति तत्वज्ञाः ।। ६७ ॥ विदेहयुग्मे प्रत्येकं । स्युः कुंमान्यष्टसप्ततिः ॥ हे द्वे च शेषवर्षेषु । शतमेवमशीतियुक् ॥ ॥ ६० ॥ एतेऽद्रयो हृदाः कूटाः । कुंमान्येतान्ययापगाः॥ स्युर्वेदिकावनोपेता-स्तत्स्वरूपं तु पूर्ववत् ॥ ६॥ ॥ एषां याम्योदीच्यवर्ष-सरिबैलादिवर्तिनां ॥ विजयस्वर्गिवत्प्रौढ-समृद्धीनां सुधाभुजां ॥ ७० ॥ दक्षिणस्यामुदीच्यां च नदीन कहेली, वळी मतांतरे, ॥६६॥ पांत्रीस लाख चोर्यासी हजार नदीन यहीं संनवे , बाकी तत्व तो केवली जाणे . ॥ ६७ ॥ बन्ने विदेहमां दरेकमां अठो. तेर कुंमोबे, अने बाकीनां क्षेत्रोमां बे बे , एवी रीते सर्व मलीने एकसोएंसी कुंडो . ॥ ६७ ॥ ए सघला प. वतो, हृदो, शिखरो, कुंडो तथा नदीन वेदिका अने व. नोवाळी , तथा तेननुं स्वरूप पूर्वनीपेठे . ॥ ६ ॥ दक्षिण अने उत्तरतरफनां क्षेत्रो. नदीन तथा पर्वतया दिकमां रहेला, तथा विजयदेवनीपेठे यतिसमृध्विाळा देवोनी ॥ ७० ॥ जंबूढीपमा रहेला मेरुथी ददिणे अने
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(३१७) । जंबछीपस्थमेरुतः ॥ अन्यस्मिन् धातकीखंडे । राजधान्यो जिनैः स्मृताः ॥ ११ ॥ श्रेण्यश्चतस्रः प्रत्येकं । वैता. ढयेष्विति मीलिताः ॥ श्रेण्यो जति दीपेऽस्मिन । दिशती सदिसप्ततिः ॥ ७१ ।। दशोत्तरं पुरशतं । प्रतिवैताब्य. मित्यतः ॥ तेषां सहस्राः सप्त स्युः । साशीतिश्च चतुःशती॥ ॥ जघन्यतोऽष्टेह जिना भवेयु-रुत्कर्षतस्ते पुनरष्टषष्टिः ॥ जघन्यतः केशवचक्रिरामा । अष्टावथोत्कृष्ट पदे तु षष्टिः ॥ १३ ॥ सहादशा स्युर्निधयोऽत्र षदाती। प्रकर्षतस्तान्युपजोगजांजि तु ॥ दिविंशतिः पंचशतानि व नत्तरे वीजा धातकीखंडमां राजधानीन जिनेश्वरोए क. हेली . ॥ ११ ॥ दरेक वैताब्यपर चार चार श्रेणिनेने, तेथी सर्व मलीने या हीपमां बसो बहोतेर श्रेणिन . ॥ ७१ ॥ दरेक वैताब्यपर एकसो दश नगरोने, तेथी सर्व मलीने त्यां सात हजार चारसो एंसी नगरो. ॥ ॥ ॥ यहीं जघन्यथी पाठ अने नत्कृष्टा श्रमसठ जिनेश्वरो होय , तेमज वासुदेव, चकी अने बलदेवो जघन्यथी पाठ थने उत्कृष्टा साठ होय . ॥ ३ ॥ यही नत्कृष्टां उसो बार निधानो , तेमाना पांचसो चालीस नपजोगमां थावे , तथा जघन्यथी बहोतेर
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( ३५८ ) ध्रुवं । द्वासप्ततिस्तानि जघन्यतस्तथा ॥ १४ ॥ विंशानि चत्वारि शतानि पंच - कादाणि रत्नानि पृथग्भवेयुः ॥ नत्कर्षतस्तानि 'जघन्यतश्च | पंचाशदाव्या, ननु षद्भिरेव || ॥ ४ ॥ द्वादशोषणमहंसः सुधांशवो दादश ग्रहमह मन्वितं ॥ युतीर्धशतके १०५६ मानि षट् - त्रिंशता समधिकं शतत्रयं ३३६ ।। १५ ।। त्रिः सहसैरधिकानि लक्षा - एयष्टौ तथा सप्त शतानि चात्र ॥ स्युः कोटिकोकिल तारकाणां । तमोकुरोन्मूलन कारकाणां ||१६|| पोऽयमेवं गदितस्वरूपः । कालोदनाम्नोदधिना परीतः निधानो उपजोगमां यावे वे ॥ १४ ॥ वळी त्यां उत्कृ ष्टां पंचेंडि तथा एकेंद्रिरत्नो चारसो वीस जूदां जूदां ने.
ने जघन्यथी उप्पन वे ॥ ७४ ॥ वळी त्यां बार सूर्यो ाने बार चंद्रो वे, तथा एक हजार छपन ( १०५६ ) ग्रहो वे, छाने वसो उत्रीस नक्षत्रो वे ॥ १५ ॥ याउ लाख ऋण हजार पने सातसो कोटाकोटी ताराज के. के जे अंधकारना कुराने जडमूळमांथी खेमी ना खे. ॥ ७६ ॥ एवीरीते वर्णवेनुं वे स्वरूप जेनुं एवो या द्वीप, देदीप्यमान पार्थी जेम चक्र, तथा हाथी - नी सेनाना वलयथी जेम राजा तेम कालोदधि नामना
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( ३५७) ॥ विनाति दीप्रधिनेव चक्र-मिवेनसेनावलयेन नृपः ॥ 9 ॥ कालो महाकाल इतीह देवौ । प्राच्यप्रतीच्या र्धधृताधिकारौ ॥ तदैवतः श्यामतमोदकश्च । तदेष का लोद इति प्रसिधः ॥ 9 ॥ लदाण्यष्टौ विस्तृतो योजनाना-मुविठोऽयं योजनानां सहस्रं ॥ पादावते मध्य देशे समानो-देधः सर्वत्रापि पूर्णहृदानः ॥ ७ ॥ चूला न वेला न च दोनितास्मिन् । न पातालकुंगादिका वा व्यवस्था ॥ सदंभोदमुक्तोदकस्वादुनीरः । प्रसन्नश्च सासमुद्रयी वीटायेलो . ॥ 9 ॥ पूर्वार्ध तथा पश्चिमा नो धारण करेल ने अधिकार जेनए एवा काल घने महाकाल नामना त्यां देवो , ते बने तेना देवो हो. वाथी, तथा अत्यंत श्याम जलवाळो होवाथी ते कालो. दधिना नामथी प्रसिक. ॥ 9 ॥ ते समुद्र पाठलाख जोजनना विस्तारवाळो अने एक हजार जोजन नं. डो, ते अादिमां अंतमां बने मध्यमां सर्व जगोए तु. व्य माश्वाळो भरेलां हृदसरखो . ॥ १७ ॥ था समुडमां शिखा, वेला तथा दोभ, तेमज पातालकुंजया. दिकनी व्यवस्था नथी, वळी ते उत्तम वादळांनए वरसावेला जलसरखा स्वादिष्ट पाणीवाळो प्रशांत अने सा
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(३६०) धोर्मनोवद्गजीरः ॥ ७० ॥ लदाण्यथैकनवतिः परिधिः स. हस्राः । स्यात सप्ततिः षडिह पंचयुताः शताश्च ॥ दोरैश्चतुर्निरयमप्यजितो विजाति । पूर्वादिदिक्षु विजयादिनिरुक्तरूपैः ॥ ७१ ॥ लदा द्वाविंशतिश्च दिनवतिरुपरि स्युः सहस्राणि नूनं । षट्चत्वारिंशदाब्या जिनपतिगदिता पदशती योजनानां ॥ पादोनं योजनं चांतरमिह निखिलहार्यु तुव्यप्रमाणं रश५२६४६ क्रो० ३ । कालोदे हारपानां विजयवदुहिता राजधान्योऽपरस्मिन् ।।७२।। प्राक्प्रतीच्योदिशोर्दादश द्वादश । हादशेन्यः सहस्रेज्य एवांतरे । धुना मननीपेठे गंभीर जे. ॥ ७० ॥ तेनो घेरावो एका [ लाख सीतेर हजार उसो पांच जोजननोने, वळी ते पूर्वादिकदिशामां चोतरफ वर्णवेला स्वरूपवाळा विजयादिक चार दारोवडे शोने . ॥ १ ॥ वळी ते का. लोदधिना सर्व दरवाजाजनुं तुव्य प्रमाणवाळु अंतर वा वीस लाख बाणु हजार सोने पोणासडतालीस जोजनोनुं जिनेश्वरोए कहेबु . तथा तेजना द्वारपालोनी राजधा. नीन बीजा कालोदधिमां विजयदेवनी पेठे कहेली .॥ ॥ ॥ वळी या कालोदधिसमुद्रमां धातकीखमथी बार हजार जोजनने अंतरे पूर्व अने पश्चिमदिशामां, तेना
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(३६१) संति कालोदधौ धातकीखंमतो-त्रांतरीपा अमुष्यामृ. तोष्णत्विषां ॥ ७३ ॥ पुष्करहीपतोऽप्येवमत्रांबुधौ । ताव. ता प्राप्रतीच्योः सुधोष्णविषां । नेत्रवे दैर्मिता ४२ ने. बवे दैर्मिता ४२ । एतदब्धिस्पृशामंतरीपाः स्थिताः ।। अंतरीपा श्रमी गौतमदीपव-जावनीयाः स्वरूपप्रमाणादिभिः ॥ वेदिकाकालनालंकृताः सर्वतः । क्रोशयुग्मोन्त्रिता वारिधर्वारितः ॥ ५ ॥ अयांगोधावस्मिनमृतरुचयस्तिग्मकिरणा । द्विचत्वारिंशत्स्युग्रहगृहसहस्रत्रयमथ ॥ शतैः षनियुक्तं षधिकनवत्या समधिकैः । सहस्रं षट्स. सत्यधिकशतयुक् चात्र भगणः ।। ७६ ॥ पंचाशदूना नि: चंद्रसूर्योना बार बार अंतरीपो . ॥७३॥ वळी एवीरीते था समुद्रमा पुष्करद्दीपथी तेटलेज थारे पूर्व अने प. श्चिमदिशामां था समुष्माना चंद्रसूर्योना बेतालीस बे. तालीस अंतरीपो . ॥ ४ ॥ ते अंतरीपोने स्वरूप त. था प्रमाणादिकथी गौतमद्दीपनीपेठे जाणवा, वळी ते. में सर्वबाजुएथी वेदिका तथा वनोथी शोनिता , तया समुद्रना जलथी बे कोश वा. ॥ ५ ॥ वळी या समुद्रमां बेतालीस चंडो तथा सूर्यो ने, घने एक हजार सो छन्नु ग्रहो , तथा एक हजार एकसो छहोतेर न
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( ३६२ ) यतं सहस्रा - त्रयोदशेनादि २८ मिताच लक्षाः ॥ स्युस्तारकाणामिद कोटिकोट्यः २०१२ ५५० शू० १४ | कालोदधौ तीर्थकरोपदिष्टाः || १ || विश्वाश्वर्यदकीर्तिकी - र्तिविजय श्रीवाचकेंद्रांतिष - डाजश्रीतनयोऽनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः ॥ काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे । द्वाविंशो मधुरः समाप्तिमगमत्सर्गे निसगोज्ज्वलः ॥ ८८ ॥ इति श्रीलोकप्रकाशे द्वाविंशतितमः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
दत्रो वे ॥ ८६ ॥ घ्ठावीस लाख बार हजार नवसो पचास कोटाकोटी ताराने कालोदधिसमुद्रमां तीर्थकरोए कहेला वे. ॥ ८१ ॥ जगतने यावर्य व्यापनारी ने की र्ति जेनी एवा श्रीकीर्ति विजयवाच केंद्रना शिष्य, तथा रा जश्री ने तेजपालना पुत्र एवा श्रीविनयविजयजी म. हाराजे निश्चित थयेला जगतना तत्वोने प्रकाशवामां दीपकसमान एवं जे या काव्य रच्युं बे, तेमां खनावथी उज्ज्वल एवो या मधुरो बावीसमो सर्ग समाप्त थ यो. ॥ ८८ ॥ एवीरीते लोकप्रकाशमां बावीसमो सर्ग समाप्त थयो । श्रीरस्तु ॥
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(३६३ ) ॥ अथ त्रयोविंशतितमः सर्गः पारन्यते ॥
वदयेऽथ पुष्करवर-दीपं केकयदेशवत ॥ विशेषितार्धमावेष्ट्य । स्थितं कालोदवारिधिं ॥ १ ॥ वदयमाण खरूपैर्य-बोनितश्वारुपुष्करैः ।। ततोऽयं पुष्करखर । ३ ति प्रसिधिमीयिवान् ॥ ५॥ चक्रवालतर्यतस्य । विस्तारो वर्णितः श्रुते ॥ योजनानां षोमशैव । लदा न्यदार्थवे. दिनिः ॥ ३ ॥ दीपस्यास्य मध्यदेशे । शैलोऽस्ति मानुः षोत्तरः ॥ अन्विताख्यो नरक्षेत्र-सीमाकारितयोत्तरः ॥धा नभयोः पाश्वयोश्वारु-वेदिकावनमंमितः ॥ योजनाना
॥ हवे त्रेवीसमा सर्गनो प्रारंन थाय ने ॥
हवे केकयदेशनीपेठे अर्ध एवा विशेषणवाळा, तथा कालोदधिस युद्ने वीटीने रहेला एवा पुष्करवरद्दीपन हूं वर्णन करुं बु. ॥१॥ जेनन स्वरूप हवे वर्णववामां
आवशे एवां मनोहर कमलोथी ते शोजितो, धने तेथी ते पुष्करवर एवां नामथी प्रसिद्धि पामेलो . ॥ ॥॥ चक्रवालरूपे तेनो विस्तार शास्त्रमां केवलीनए शोळ लाख जोजननो कहेलो . ॥ ३ ॥ था दीपना मध्यभागमां मनुष्यक्षेत्रनी सीमा करनारो होवाथी सार्थकनामवाळो मनोहर मानुषोत्तरपर्वत बे. ॥ ४ ॥ ते पर्वत
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" ( ३६४ ) मेकविंशान् । शतान् सप्तदशोथितः ॥ ५॥ चतुःशती योजनानां । त्रिंशां क्रोशाधिका भुवि ॥ मनो मूले सहस्रं च । दाविंशं किल विस्तृतः ॥ ६ ॥ त्रयोविंशानि म. ध्येऽयं । शतानि सप्त विस्तृतः ॥ चतुर्विशानि चत्वारि । शतान्युपरि विस्तृतः ॥ ७ ॥ यथेष्टस्थानविष्कभ-झानो. पायस्तु साम्यतः ।। भाव्यो वेलंधरावास-गोस्तुपादिगिविव ॥ ॥ अग्रेतनं पादयुग्मं । यथोत्तंन्य निषीदति ॥ यतान्यां केसरी पाद-वयं संकोच्य पश्चिमं ॥४॥ बन्ने बाजुए वेदिका तथा वनथी शोभितो . तया ते सतरसो एकवीश जोजन नंचो . ॥ ५॥ वळी ते प. वैत चारसो त्रीस जोजन बने एक कोश पृथ्वीमां खुं. चेलो ने, धने मूलभागमां ते एक हजार बावीस जो. जनना विस्तारवाळो वे ॥६॥ वळी मध्यनागमां ते सा. तसो त्रेवीस जोजनना विस्तारवाळो , घने मयाळे चा. रसो चोवीस जोजनना विस्तारवाळो . ॥ ७॥ तेना इजित स्थाननी पहोला जाणवानो सघलो उपाय वे. लंघरोना स्थान गोस्तुपादिक पर्वतोनीपेठे जावी लेवो. ॥ ॥ जेम केसरीसिंह पोताना पागला बन्ने पगो न. ना राखीने, तथा पाछळना बन्ने पगो संकोचीने बेसे बे,
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(३६५) ततः शिरःप्रदेशे स । विजाति भृशमुन्नतः ॥ तथा पाश्चात्यनागे च । निम्नो निम्नतरः क्रमात् ॥ १०॥ तहदेष गिरिः सिंहो-पवेशनाकृतिस्ततः ॥ यहा यवार्घसंस्थान. -संस्थितोऽयं तथैव हि ॥ ११ ॥ समन्नित्तिः सर्वतुंगो। जंबूद्दीपस्य दिश्ययं ॥ प्रदेशबान्या पश्चात्तु । निम्नो नि म्नतरः क्रमात् ॥ १५ ॥ अत्रायं संप्रदायः द्धे सहस्रे चतुश्चत्वारिंशे मूले सुविस्तृतं ॥ शतान्यष्टिचत्वारिंशानि मूर्तिं च विस्तृतं ॥ १३॥ एकविंशान शतान सप्त ॥ ५॥ अने तेथी मस्तकना भागमां ते घणो नंचो लागे , धने पाउला नागमां ते अनुक्रमे नीचो नीचो .॥ १०॥ तेनीपेठे बेठेला सिंहसरखा आकारवाळो ते पर्वत बे, अथवा ते अर्धाजवजेवा तेवाज थाकारथी रहेलो . ॥ ११ ॥ ते पर्वत जंबूद्दीपनी दिशातरफ सरखी दीवालवाळो अने सर्वथा जंचो , तथा पालना भागमा प्रदेशहानिथी अनुक्रमे नीचो नीचो यतो जाय
॥ १२ ॥ अहीं नीचेमुजब संप्रदाय -मूलभागमां बेहजार चमालीस जोजनना विस्तारवान, अने मस्तकपर धाउसो घडतालीस जोजनना विस्तारवाळा, ॥१३॥ तथा सतरसो एकवीस जोजन जंचा तथा वलयसरखा
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(३६६) –दशोचं वलयाकृति ॥ प्रकल्प्या िततोऽस्यान्यं-तसधै पहते सति ॥ १४ ॥ विस्तारमधिकृत्याय । शेषस्ति टति यादृशः ॥ तादृशोऽयं संप्रदायात । प्रज्ञतो मानुषोत्तरः ॥ १५ ॥ वसंत्यस्योवं सुपर्ण-कुमारा, निर्जरा बहिः, ॥ मध्ये मनुष्याश्चेत्येष । त्रिधा गिरिरलंकृतः ॥ १६ ॥ तथोक्तं जीवानिगमसूत्रे-माणुसुत्तरस्स णं पवयस्स अं. तोमायाप्पिं सुवमा बाहिं देवा इति' जांबूनदमय श्चित-मणिरत्नविनिर्मितैः ।। लतागृहैर्दीर्घिकानि-मेंश्राकारवाळा पर्वतने कल्पीने, तेमांथी तेना वचला अ. र्धभागने बाद करते बते, ॥ १४ ॥ विस्तारनी अपेदाये जे बाकी रहे, तेवो आ मानुषोत्तरपर्वत संप्रदायधी कहेलो . ॥ १५ ॥ आ पर्वतना जपरना नागमां सुपर्णकु. मारो रहे , घने बहार देवो रहे , अने मध्यभागमा मनुष्यो रहे ने, एवी रीते ते पर्वत त्रण विजागोथी शोभितो थयेलो . ॥ १६ ॥ ते माटे जीवानिगमसूत्रमां कडं ने के-मानुषोत्तरपर्वतना मध्यभागमां मनुष्यो, न. परना नागमां सुपर्णकुमारो तथा बहारना नागमां देवो रहे . सुवर्णमय एवो ते पर्वत विविधप्रकारनां मणिरनोनां बनेलां लतागृहोथी, वावोथी अने मंझपोथी शो
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(३६७) डपैश्चैष मंडितः ॥ १७ ॥ कूटैः षोमशनिश्चैष । समंतागा. त्यलंकृतः ॥ नानारत्नमयै रम्यैः । प्राकारोऽट्टालकैखि ।। ॥ १७ ॥ त्रयं त्रयं स्यात्कूयानां । पंक्त्या दिशां चतुष्टये॥ हादशाप्येकैकदेवा–घिष्टितानि नवंत्यथ ॥ १० ॥ नक्तं च स्थानांगवृत्तौ
पुवेण तिन्नि कूडा । दाहिणन तिन्नि तिन्नि अवरेए॥ उत्तरले तिन्नि भवे । चनदिसि माणुसनगरसत्ति ॥ ५० ॥ विदिक्षु चत्वारि तत्रा-नेय्यां रत्नानिधं भवेत ॥ निवास नृतं तदेणु-देवस्य गरुडेशितुः ।। २१ ॥ रत्नो. नितो थयेलो . ॥ १७ ॥ फरुखानवडे जेम किल्लो, तेम ते पर्वत फरता नानाप्रकारना रनोना मनोहर शोळ शिखरोवडे शोनितो थयेलो . ॥ १७ ॥ चारे दिशा
मां श्रेणिबंध त्रण त्रण शिखरो, अने ते बारे शि. खरो एकेका देवथा अधिष्टित थयेला . ॥ १७ ॥ ते माटे स्थानांगनी टीकामां कडं ने के
मानुषोत्तरपर्वतनी चारे दिशाजमानी पूर्वदिशामां त्रण, दक्षिणमांत्रण, पश्चिममांत्रण बने उत्तरमांत्रण शिखरो ने. ॥ २० ॥ विदिशा मां बाकीनां चार शिखरो बे, तेनमाथी अमिखुणामां रत्न नामनुं शिखर , के जे
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( ३६०), च्चयाख्यं नैऋत्यां । वेलंबस्यानिलेशितुः ॥ नाना वेलंब सुखद-मित्यप्येतन्निरूपितं ॥ १५ ॥ पूर्वोत्तरस्यां च कूटं । सर्वस्त्राभि, नवेत् । तत्सुपर्णकुमारेंद्र-वेणुदालेः किलास्पदं ॥ २३ ॥ तथापरोत्तरस्यां स्या-त्तद्रनसंचयानिधं ॥ प्रनंजनपराख्यं च । प्रनंजनसुरेशितुः ॥ २४ ॥ श्रत यद्यपि रत्नादीनि चत्वारि कूटानि स्थानांगसूत्रे चतुर्दिश मुक्तानि, तथाढि-माणुसुत्तरस्स णं पवयस्स चनहिसि चत्तारि कूमा प० तं० रयणे रयणुच्चये सत्वरयणे स्यणसं गरुम्ना स्वामी वेणुदेवने रहेवाना स्थानकरूप ने. ॥१॥ नैऋत्यखुणामां वायुकुमारना स्वामी वेलंवर्नु रनोचय नामर्नु शिखर ने, वळ) तेनुं वेलंबसुखद एवं बीजं नाम प. ण कहेछु बे. ॥ ॥ ईशानखूणामां सर्वरत्न नामर्नु शिखर , के जे सुपर्णकुमारोना इंद्र वेणुदालीना स्था. नरूप . ॥ २३ ॥ तथा वायव्यखुणामां प्रनंजन ने बीजु नाम जेर्नु, एवं रत्नसंचय नामर्नु प्रभंजनदेवेंना स्थान रूप जे. ॥ २४ ॥ जो के अहीं रत्नादिक चारे शिखरो स्थानांगसूत्रमा चारे दिशा-मां कहेला ने, जेमके'मानुषोत्तरपर्वतनी चारे दिशानमां चार शिखरो कहेलां बे, जेवांके रत्न, रत्नोच्चय, सर्वरत्न अने रत्नसंचय ' तोपण
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( ३६७ ) चए इति ' तथाप्येतत्सूत्रं श्रीयनयदेवसूरिनरेवं व्या ख्यातं, तथाहि-श्ह च दिग्ग्रहणेऽपि विदिदिवति दृष्टव्यं, तथा एवं चैतव्याख्यायते, द्वीपसागरप्रज्ञप्तिसंग्रहण्यनुसारेणेत्यादि. चतुर्दिशमिहैकैकः । कूटे नाति जिनालयः ॥ दिशां चतसृणां रत्न-किरीट व जासुरः ॥१॥ तथोक्तं वीरंजयक्षेत्रसमाससूत्र–चनसुवि नसुयारेसु । शकिकं नरनगंमि चत्तारि ॥ कूडोवरि जिणनवणा । कु. लगिरिजिणभवणपरिमाणा ॥ १ ॥ इति. सादान यद्यपि प्रोक्तः । सिद्धांतेऽत्र जिनालयः । तथाप्यागमवाग्लिं.. श्रीअभयदेवमूरिजीए ते सूत्रनी नीचेमुजब टीका करेली ने, ते कहे -अहीं दिशानुं ग्रहण कर्यु , तो पण तेन विदिशामां ने, एम जाणवू. माटे द्वीपसा. गरप्राप्ति तथा संग्रहणीने अनुसारे तेनी तेमुजब टीका बे. अहीं ते शिखरपर चारे दिशा-मां ते चारे दिशानना रत्नना मुकुटजेवो तेजस्वी एकेको जिनप्रासाद शोने . ॥ १ ॥ तेमाटे वीरंजयक्षेत्रसमाससूत्रमां का ने के-ते मानुषोत्तरपर्वतपर चारे दिशा-मां शिखरोपर कुलगिरिपर रहेला जिनभवनजेवमां जिनमंदिरो .॥ ॥१॥ इति. अहीं सिद्धांतमां जो के सादात जिनाल
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(३७०) गा-दनुमानात्प्रतीयते ॥ २५ ॥ यतो विद्याचारणर्षितिर्यग्गतिनिदर्शने ॥ विश्रामोऽत्र गिरौ प्रोक्त-श्चैत्यवं दनपूर्वकः ॥ २६ ॥ तथाह पंचमांगे-विज्जाचारणस्स णं नंते तिरियं केवश्ए गविसए पन्नत्ते ? गो० से णं इन एगेणं नपाएणं माणुसुत्तरे पवए समोसरणं करे। माणु ५ त्ता तहिं चेश्या वंदति. एतच्चास्मिन विना चैत्यं । कथमौचित्यमंचति ॥ ततोऽत्र जिनचैत्यानि । युक्त मूचुर्महर्षयः ॥ २७ ॥ एवं शाश्वतचैत्यानां । मान्यत्वं यो य नथी कह्यो, तोपण अागमवाणीना चिह्नरूप अनुमा. नथी तेनी तेवी प्रतीति थाय . ॥ २५ ॥ केमके वि. द्याचारणमुनिननी तीब्र गतिना दाखलामां या पर्वतपर चैत्यवंदनपूर्वक विश्राम कहेलो . ॥ २६ ॥ तेमाटे पां. चमा अंगमां कां ने के–हे जगवन् ! विद्याचारणमुनिनो तीर्गे गतिविषय केटलो कहेलो ? (नगवान कहे ने के ) हे गौतम! ते विद्याचारणमुनि एक नत्पातवडे मानुषोत्तरपर्वतपर समवसरण करे , अने तेम करीने त्यां चैत्योने वंदन करे . माटे तेवु चैत्यवंदन आ प. वतपर चैत्यविना शीरीते नचित लागे? माटे त्यां महर्षिनए जे जिनमंदिरो कह्यां , ते नचित . ॥ १७ ॥
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( ३७१) न मन्यते ॥ सोऽप्यनेनैव वाक्येनो-बातुं नेष्टे पराहतः ॥ ॥ यश्चात्र चैत्यशब्दार्थ । विपर्यस्यति वातकी । तस्याप्येतच्चारणर्षि-नमस्यावाक्यमौषधं ॥ २५ ॥ न ही. दृशास्तपःशक्ति-लब्धैतादृशलब्धयः ॥ विना जिनादीन वंदंते । सम्यक्त्ववंशभीबुकाः ॥ ३० ॥ अथ प्रकृतं श्र नेन पुष्करखर-दीपो देधा व्यधीयत ॥ नित्त्येव गृहम स्यार्ध-व्यं निर्दिश्यते ततः ॥ ३१ ॥ अत्यंतरे पुष्कराध एवीरीते शाश्वतां चैत्यनुं मान्यपणं जे स्वीकारतो नथी, ते पण या वाक्यथी पराहत थयोथको नठी शकतो न. थी. ॥ २ ॥ वळी जे बेजान मागस यही चैत्यशब्द. ना अर्थने उलटावी नाखे , तेने पण या चारणमु. निना नमस्काररूपी वाक्य यौषधसमान . ॥शए । तपनी शक्तिथी मेळवेल ने तेवी लब्धि जेनए एवा ते विद्याचारणमुनिज सम्यक्त्वना नंगथी मरताथका जिनादिकविना अन्योने वांदे नहि. ॥ ३० ॥ हवे पाछी चा.. लती बाबत कहे जे–जीतवडे जेम घर, तेम था मानुषोत्तर पर्वतवडे ते पुष्करवरद्दीप बे विनागोमां वहेंचायेलो ने, अने तेथी तेना बे अर्धा भागो कहेवाय . ॥ ॥ ३१ ॥ एक थत्यंतर पुष्कराध अने बीजो बाह्यपुष्क
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( ३७२ ) | बाह्यं तदर्धमेव च ॥ पर्वाचीनमांतरा । बाह्यमर्ध ततः परं ॥ ३२ ॥ मानुषोत्तरशैलस्तु । बाह्यार्धक्षेत्ररोधकः ।। 5त्यांतरार्ध पूर्णाष्ट - लक्ष्योजन संमितं ॥ ३३ ॥ तथाहु नचंदनमलय गिरयो मलय गिरयः -- ध्यं च मानुषोत्तरपतो बाह्यपुष्करवरार्धमा प्रतिपत्तव्य इति बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तौ कोटिरेका द्विचत्वारिं शल्लक्षाणि सहस्रकाः || चतुस्त्रिंशचतान्यष्टौ । । त्रयोविंशानि चोपरि ।। ३४ ।। एतावद्योजनमितो । मानुषोत्तर तृभृतः ॥ स्यान्मध्ये परिधिमौलौ । त्वस्यायं परिधिर्भवेत ॥ ३५ ॥ कोटिरेकाथ ल. रार्ध बे, तेमानो अन्यंतर जाग पूर्वपुष्करार्ध, तथा बाह्य भाग पश्चिमपुष्करार्ध कहेवाय बे. ॥ ३२ ॥ ते बदारना
क्षेत्रने मानुषोत्तरपर्वत रोकी रहेखो बे, घने तेथी अन्यंतरार्ध संपूर्ण पाठ लाख जोजनना प्रमाणवाळु बे. ॥ ३३ ॥ तेमाटे ज्ञानरूपी चंदनना मलयाचलसमान मलयगिरिजी महाराज कहे वे के मानुषोत्तरपर्व तने बहाना पुष्करवरार्धनी उमिमां जाणवो, एवी रीते : बृहत्क्षेत्रसमासनी टीकामां बे. एकक्रोम, बेतालीस लाख चोत्रीस हजार पाठसो वीस ॥ ३४ ॥ जोजनजेटलो ते मानुषोत्तर पर्वत तो मध्यागमां वेरावो बे, छाने मथा
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(३७३) दाणि । द्विचत्वारिंशदेव च ॥ द्वात्रिंशच सहस्राणि । छात्रिंशच शता नव ॥ ३६ ॥ पृथगुक्तौ परिक्षेपौ । यौ मध्येऽस्य तथोपरि ॥ बहिर्गागापेदया तौ। पार्श्वेऽस्याज्यंतरे पुनः ॥ ३७॥ समाननित्तिकतया । मूले मध्ये तथोपरि ॥ तुल्य एव परिक्षेपः । सर्वत्राप्यवसीयतां ॥३॥ एका कोटिईिचत्वारिं-शलदाणि सहस्रकाः ॥ पत्रिं शच शताः सप्त । त्रयोदशसमन्विताः ॥ ३० ॥ इति बृ. हत्क्षेत्र मासवृत्त्यभिप्रायेण, जीवानिगमसूत्रे ‘सत्त चो द्दसुत्तरे जोधणसए' इत्युक्तं. एतावंति योजनानि । १. लापर तेनो घेरावो नीचेमुजब . ॥ ३५ ॥ एक क्रोम बेतालीस लाख बत्रीस हजार नवसोने बत्रीस जोजननो . ॥ ३६ ॥ तेना मध्य तथा नपरना भागमां जे बे जुदा जुदा घेरावा कह्या, ते बहारना नागनी अपेदाए , परंतु तेनी अंदरनी बाजुमां ।। ३७ ॥ तुल्य नीतपणाथी मूळमां, मध्यमां तथा नपर सर्व जगोए सरखोज घेरावो जाणवो. ॥ ३० ॥ अने ते एक क्रोम बेतालीस लाख उनीस हजार सातसो तेर जोजननो . ॥ ३५ ॥ एवी रीते बृहत्क्षेत्रसमासनी टोकाना अभिप्रायथी ने, अने जी. वाभिगमसूत्रमा ‘सातसो चौद जोजन ' एम को जे.
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(३७४) धानि जिननायकैः ॥ मानुषोत्तरशैलस्य । बाह्यस्य परिधे. मितौ ॥ ४० ॥ हिचुत्वारिंशता लदौ-रेककोटिसमन्विता॥ त्रिंशत्सहस्राश्चैकोन-पंचाशा दिशती तथा॥४१॥ मानुषोत्तरशैलस्यै–तावान् परिधिरांतरः ॥ एष एवान्यं. तरस्य । पुष्करार्धस्य चांतिमः ॥ ४ ॥ नृक्षेत्रस्यापि परिधि-रेष एवावसानिकः ॥ अथास्य पुष्कराधस्य । मध्यमः परिधिस्त्वयं ॥ ४३॥ एका कोटी योजनानां । लदाः सप्तदशोपरि ॥ सप्तविंशत्येन्वितानि । चत्वार्येव श. तानि च ॥ ॥ कालोदस्यांत्यपरिधियः पूर्वमिह द. मानुषोत्तरपर्वतना बहारना घेरावानुं प्रमाण जिनेश्वरोए ते जणाव्यामुजब जोजनजेटबु कां. ॥ ४०॥ एक क्रोम बेतालीस लाख वीस हजार बसो जंगणपचास जोजन ॥ १ ॥ जेटलो ते मानुषोत्तरपर्वतनो अंदरनो घेरावो , थने तेटलोज घेरावो यन्यंतरपुष्कराधना . मानो . ॥ ४२ ॥ वळी मनुष्यक्षेत्रनो पण तेज बेल्लो घेरावो ने. हवे ते पुष्कराधनो मध्यभागनो घेरावो नी. चेमुजब . ॥ ४३ ॥ एक क्रोड सतर लाख चारसो स. तावीस जोजननो ते बे. ॥ ४४ ॥ कालोदधिसमुद्रनो पूर्व जे डानो घेरावो देखाड्यो , तेज पुष्कराधनो
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शितः ॥ स एव पुष्करार्धस्य । जवेत्परिधिरांतरः ॥ ४५ ॥ द्विधेदमिषुकाराज्यां । धातकीखंडवत्कृतं ॥ अभ्यंतरं पुष्क रार्धे । तस्थिवद्भ्यामपादुदक || ४५ ॥ धातकीखंडेषुकार - सधर्माणा विमावपि ॥ चतुः कूटावं त्यकूट — स्थितोत्तुंगजिनालय || ४६ ॥ एकेनांतेन कालोदं । परेण मानुषोत्तरं ॥ स्पृष्टवंतौ योजनानां । लक्षाण्यष्टायताविति ॥ ॥ ४७ ॥ एवमन्यंतरं पुष्क— राधे निर्दिश्यते द्विधा । पूवर्धि पश्चिमार्धं च । प्रत्येकं मेरुचितं ॥ ४८ ॥ पूर्वाप अंदर घेराव . ॥ ४५ ॥ दवे ते पुष्करार्धना मध्यभागमा रहेला बे इषुकारपर्वतोए घातकीखंडनीपेठे तेना दक्षिण ने उत्तर नामना वे विभागो करेला के. ॥ ॥ ४५ ॥ ते बन्ने इषुकारपर्वतो धातकीखममाना इषुका पर्व जेवा, ने चार शिखरोवाळा रे, तथा बेल्ला शि खरपर जंचां जिनालयवाळा वे. ॥ ४६ ॥ ते पर्वतो एक डेथ कालोदधिने, तथा बीजे वेडेथ मानुषोत्तरपर्वतने स्पर्श करतायका व लाख जोजन लांबा जे. ॥४७॥ एवीरी अन्यंतर पुष्करार्धना पूर्वार्ध पने पश्चिमार्ध ना. मना बे विभागो कहेला बे, तथा ते दरेक विभाग मे रूपर्वतथी शोनितो थयेलो वे ॥ ४८ ॥ हवे यहीं ते
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( ३७६) रार्धयोस्त्र । कालोदवेदिकांततः ॥ पुरतः पुनर्खाक च । मानुषोत्तरपवेतात् ॥ ४५ ॥ सहस्रान्नवनवति । प्रत्येकं ल. दकत्रयं ॥ योजनानामतीत्यास्ति । कुंममेकैकमद्भुतं ।। ॥ २०॥ अधस्ते विस्तृते स्तोक-मुपर्युपर्यनुक्रमात ॥ वि. स्तीर्णे विस्तीर्णतरे । जायमाने शराबवत ॥ ५१ ॥ ब्रुवस्तले हे सहस्र । विस्तीर्ण योजनान्यथ ॥ नदिके दश शुधांजो-वीची निचयचारुणी ॥ ५५ ॥ योरप्यर्धयोर. त्रै-कैकमंदरनिया ॥ षट् षट् वर्षधराः सप्त-सप्त क्षेत्रा पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्धमां कालोदधिसमुऽनी वेदिकाना बेमाथी पागल, अने मानुषोत्तरपर्वतथी पारळ ॥४॥ दरेकमांत्रण लाख नवाणु हजार जोजन जळग्याबाद एकेको अद्भुत कुंड . ॥ १०॥ ते बन्ने कुंडो नीचे. ना नागमां थोमा विस्तारवाळा, तथा शरावलांनीपेठे न. पर नपर अनुक्रमे विस्तारवाळा अने वधारे विस्तारवाळा .॥ ११ ॥ पृथ्वीतलपर ते कुंमो बे हजार जोजन प. होला , तथा दश जोजन गंडा . अने निर्मल जलना मोजांना समूहथी मनोहर थयेला . ॥ ५॥ अहीं ते बन्ने अर्धभागोमां एकेका मंदराचलनी अपेक्षाये पूर्वनीपेठे व वर्षवरपर्वतो अने सात सात क्षेत्रो..
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णि पूर्ववत् || १३ || धातकीखंड स्थवर्ष - धर द्विगुणविस्तृ ताः ।। नवंत्यत्र वर्षधरा । उच्चत्वेन तु तैः समाः ॥ २४॥ एवमत्रेषुकाराज्यां । सढ वर्षमहीभृतां ॥ विष्कंनसंकलनया । नगरुहं भवेदियत ॥ १९ ॥ तिम्रो लक्षा योजनानां । पंचपंचाशदेव च ॥ सहस्राणि चतुरशी - यधिका नि शतानि षट् ॥ ९६ ॥ याद्यमध्यांत्यपरिधौ । प्राग्वदेतेन वर्जिते ॥ द्वादश द्विशतक्षुमाः । कल्प्यते प्राग्वदं शकाः || १ || वर्षवर्षधरभागकल्पना त्वत्र धातकीखम वद् ज्ञेया. द्वादशदिशतास्ते । येऽवांशा योजनोपरि ॥ || १३ || धातकीखना वर्षधरपर्वतो बेवा विस्तारवाळा, पाने उंचाइमां तेजसरखाज यहींना वर्षधरपर्वतो बे ॥ ९४ ॥ एवीरी बन्ने इषुकारपर्वतोसहित वर्षधरप-. तोनी पहोळाइनो सवाळो करवाथ। तेनथी रोकायेनुं क्षेत्र नीचेमुजब प्रमाणवाळु थाय बे ॥ १५ ॥ त्रण ला ख पचावन हजार छसो चोर्यासी जोजनजेनुं थाय े. ॥ ५६ ॥ पूर्वनीपेठे ते शिवायना खाद्य, मध्य छाने - यना वेरावामां गलनी पेठे बसो बार नागो कल्पवा. || ७ || क्षेत्र तथा वर्षधरपर्वतोना जागोनी कल्पना तो यहीं धातकीखमनीपेठे जावी. जोजनपर यहीं जे -
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(३७०) क्षेत्राणामब्धिदिश्यादि-रंतश्च नृगिरेर्दिशि ॥ २७ ॥ तत्र याम्येषुकारस्यो-जयतोऽप्यर्धयोईयोः । एकैकमस्ति - तं । स्वस्वस्वर्णगिरेर्दिशि ॥ ५५ ॥ सहस्राण्येकचत्वारिं -शबतान्यच विस्तृतं ॥ सैकोनाशीतीन्मुखेंश-शतं च सत्रिसप्ततिः ।। ६० ॥ त्रिपंचाशत्सहस्राणि । द्वादशा पं. चशत्यपि ॥ शतं नवनवत्याब्य--मंशाश्च मध्यविस्तृतिः ॥ ६१ ॥ पंचषष्टिं सहस्राणि । योजनानां चतु शती॥ पट्चत्वारिंशां लवांश्च । त्रयोदशांतविस्तृतिः ॥ ६ ॥ म. शो , ते बसोबारांशजेवडा , तथा क्षेत्रोनी आदि समुडतरफ बने अंत मानुषोत्तरपर्वततरफ ॥ १७ ॥ तेमां दक्षिणतरफना इषुकारपर्वतनी बन्ने बाजुए बन्ने अ. धविजागोमां पोतपोताना मेरुपर्वतनी दिशातरफ एकेकुं भरतक्षेत्र ने.॥ एए॥ ते क्षेत्र मुखगागमां एकतालीस हजार पांचसो नंगणाएसी जोजन थने एकसो तहोतेर अंशोना विस्तारखाळू . ॥६० ॥ तेना मध्य नागनो वि. स्तार त्रेपन हजार पांचसो बार जोजन अने एकसो न वाणु अंशोनो ने. ।। ६१ ।। पांसठ हजार चारसो उताली. स जोजन थने तेर अंशोजेटलो तेना मानो विस्तार
॥ ६ ॥ तेना मध्यभागमां वैताब्यपर्वत , अने ते
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(३७) ध्यभागेऽस्य वैताब्यो । लदाण्यष्टौ स चायतः॥ धानकीखंडवैताब्य-क्षं त्विह जाव्यतां ॥ ६३ ॥ श्रन्येऽपि दीर्घ वैताब्याः । स्युः सप्तषष्टिीदृशाः ॥ जरतैरवतक्षेत्रविदेहविजयोनवाः ॥ ६४ । उत्तरार्धमध्यखंडे । गांगसैं धवकुंम्योः ।। मध्ये वृषाकूटोऽस्ति । जंबूढीपर्ष नाद्रिवत ।। ॥ ६५ ॥ पर्यतेऽस्य ततः शैलो। हिमवान्नाम वर्तते ।। यायामतोऽष्टौ लदाणि । विष्कंनतो जवेदियान ॥६६॥ योजनानां हिचत्वारिं-शबता दशसंयुताः॥ चतुश्चत्वा. रिंशदंशा-श्चतुरशीतिनिर्मिताः ॥ ६ ॥ तस्योपरि पद्म पाठ लाख जोजन लांबो जे. अने बाकीने तेनुं वर्णन घातकीखममाना वैताब्यनीपेठे अहीं नावी लेवं. ॥३॥ वळी बीजा भरत, ऐवतक्षेत्र, विदेह तथा विजयोमा आ. वेला सडसठ दीर्घवैताब्यो पण एवाज जाणवा. ॥६॥ उत्तरार्धना मध्यभागमां गंगा अने सिंधुना कुंडोनी बच्चे जंबूद्दीपमाना ऋषनाचलनीपेरे वृषनकूट ने. ॥ ६१ ॥ पजी तेने वेडे हिमवान नामे पर्वत , ते पर्वत श्राप लाख जोजन लांबो ने, तथा तेनी पहोनइ नीचेमुजब .॥ ६६ ।। अने ते बेतालीससो दश जोजन तथा च. मालीस चोर्यासीया जागोजेटली ने. ॥ ६७ ॥ तेनापर
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हृदः । प्राग्वत्पद्माखिमंडितः । सहस्रांश्चतुरो दीर्घः । स दस्रय विस्तृतः || ६ || गंगासिंधुरोहितांशा-स्ततो न द्यो विनिर्ययुः ॥ प्राच्यां प्रतीच्यामुदीच्यां । क्रमात्तत्वादिः मेने ॥ ६५ ॥ हृदो मे योजनानि । विस्तीर्णे पंच: विंशतिं ॥ उद्दिद्वे च योजना | समुद्रसंगमे पुनः ॥ ॥ ७० ॥ विस्तीर्णे दे शते सार्धे । नहि पंचयोजनीं ॥ तत्र सिंधु: प्राच्यपुष्करात् कालोद मंगति ॥ ११ ॥ गंगा तु प्राप्य पूर्वस्यां । मानुषोत्तरन्धरं । सुमतिईष्टसं पूर्वनीपेठे कमलोनी श्रेणिनी शोजितो थयेलो पद्म हृदबे, नेते पद्मद चार हजार जोजन लांब अने बेहजार जोजन पहोलो बे ॥ ६८ ॥ तेमांथी गंगा, सिं धु ने रोहितांशा नदी निकले बे, पने तेज धनुक्रमे पूर्व, पश्चिम तथा उत्तरतरफ वहे बे, तेमज तेमा नी प्रथमनी बे नदी || ६ || हृदमांथी निकळती वेळाये पचीस जोजन पहोळी तथा अर्धो जोजन नंमी ठे पने समुद्रमां मळतीवखते ॥ १० ॥ तेन यदी सो जो-" जन पहोळी ने पांच जोजन नंकी वे, तेमानी सिंधुनदी पूर्वना पुष्करार्धमाथी कालोदधिसमुद्रमां मळे वे. ॥ ॥ ७१ ॥ ने गंगा तो पूर्वतरफ मानुषोत्तर पर्वतमा ज
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(३०१) सर्गा-दिव तत्र विलीयते ॥ ११ ॥ पश्चिमार्धात्पुनर्गगा। याति कालोदवारिधौ ॥ सिंधुनरोत्तरनग–पादमूले वि: लीयते ॥ ७३ ।। एवं नरोत्तरनगा-शिमुखाः सरितोऽखिलाः ॥ विलीयंत इह ततः । परं तासामनावतः ॥ १४ ॥ गंगासिंधुप्रपाताख्ये । कुंडे विष्कंभतो मते ॥ चत्वारिंशसमधिकं । योजनानां शतध्यं ॥ ७९ ॥ तदंतर्वर्तिनौ दीपौ । प्राप्तौ विस्तृतायतौ ॥ हात्रिंशद्योजनी मूलप्रवाह व जिहिके ॥ १६ ॥ गंगासिंधुरक्तवती-रक्तास्वे ने दुर्जनना संगथी जेम सज्जन तेम त्यांज अदृश्य था. य. ॥ १२॥ अने पश्चिमाधमां रहेली गंगा तो त्यांथी कालोदधिसमुद्रमां जाय जे. अने सिंधुनदी मानुषोत्तरपर्वतनी तळेटीमां अदृश्य थाय . ।। १३ ।। एवीरीते मानुषोत्तरपर्वत सरफ वहेती सघळी नदीन त्यांज अदृश्य थाय ने, केमके त्यांथी पागळ तेननो अभाव जे. ॥॥ गंगाप्रपात बने सिंधुप्रपात नामना कुंमोनी पहोळाबसो चालीस जोजननी . ॥ १५ ॥ तेनी अंदर रहेला बन्ने द्वीपोनी लंबाई पहोळा बत्रीस जोजननी कहेली , अने तेनेनी जिह्वा मूलना प्रवाहजेवी ३. ॥ ७६ ॥ गंगा, सिंधु, रक्तवती अने रक्ता नदीननु या सघळु व.
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(३२) तन्निरूपणं । षत्रिंशशतसंख्यासु । सर्वमप्यविशेषितं । ॥ ७ ॥ रोहितांशा योजनानि । पंचाशद् हृदनिर्गमे ॥ विस्तीणैकयोजनं चो–दिछोदीच्यां नगोपरि ॥ 90 || एकादश योजनानां । शतान् पंचसमन्वितान् ॥ अंशान हाविंशतिं गत्वा । कुंमं प्राप्याथ पूर्ववत ॥ ॥ क्षेत्रं हैमवतं वेधा । स्वप्रवाहेण कुर्वती । कालोदं याति पूर्वाधै । परार्धे मानुषोत्तरं ॥ ७० ॥ अस्याः कुंमं योजनानामशीत्याच्या चतुःशती ॥ विष्कंजायामतो मूल-प्रवाह वच्च जिबिका ।। ७१ ॥ अस्याः कुंमांतर्गतश्च । द्वीपोज. र्णन नत्रीससो नदीनमां कई पण फेरफारविना जाणी लेवं. ॥ 9 ॥ हवे रोहितांशा नदी हृदमांथी निकलती वखते पचास जोजन पहोळी, तथा एक जोजन मी, घने ते उत्तरतरफ पवेतपर ॥ ७० ॥ अग्यारसो पांच जोजन अने बावीस अंशोसुधी वहीने, तथा पूर्वनी पेठे कुंडमां पडीने ॥ १७ ॥ पोताना प्रवाहथी हैमवतक्षेत्रना बे विजाग करतीथकी पूर्वार्धमानी कालोदधिमां तथा प. श्चिमार्धमानी मानुषोत्तरप्रते जाय . ॥ ७० ॥ ते नदी नो कुंड लंबाश पहोळाश्मां चारसो एंशी जोजननो , यने तेनी जिहा मूलना प्रवाहजेवी ने ॥ १॥ तेणी.
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(३०३) वति यः स तु ॥ चतुःषष्टिोजनानि । विष्कंन्नायामतो मतः ।। ७२ ॥ रूप्यकूले स्वर्णकूले । रोहिते रोहितांशिके ॥ अष्टाप्येतास्तुव्यरूपाः । स्वरूपपरिवारतः ॥ ७३ ।।
अथोत्तरं हिमवतः । क्षेत्रं हैमवतं स्थितं ॥ वृत्तवै. ताढयेन शब्दा-पातिनालंकृतांतरं ॥ ४ ॥ मुखे लदं योजनानां । षट्षष्टिं च सहस्रकान् ।। एकोनविंशां त्रिशती । षट्पंचाशल्लवांस्ततं ।। १ ॥ लदादयं योजनानां । सहस्राणि चतुर्दश । एकपंचाशानि ततं । मध्येशान् प. ष्टियुक्शतं ।। ७६ ॥ अंते शतान् सचतुर-शीतीन् सप्त ना कुंडनी अंदर जे दीप रहेलो , ते चोसठ जोजन लांबो पहोळो कहेलो . ॥ ७॥ बे रूप्यकूला, बे स्वर्णकूटा, बे रोहिता तथा बे रोहितांशा, ए बाठे नदीन स्वरूप तथा परिवारथी तुव्य स्वरूपवाळी . ॥ ३ ॥
हवे हिमवंतपर्वतथी उत्तरे हैमवत नामनुं क्षेत्र में, के जे वृत्तवैताब्य तथा शब्दापातिपर्वतवडे मध्यभागमां शोभितुं . ॥ ॥ ते क्षेत्र मुखभागमा एक लाख ग. सठ हजार त्रणसो गणत्रीस जोजन पने उपन लव पहोळु . ॥ ५ ॥ मध्य नागमां ते क्षेत्र बे लाख चौद हजार एकावन जोजन अने एकसो साठ अंशोना वि.
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( ३०४) सहस्रकान् । एकषष्टिं दिलदीं च । हापंचाशलवांस्ततं ।। ॥ ॥ जंबूद्दीपस्थायिवृत्त-पैताढ्यैः सदृशा यथा ॥ धातकीखमस्थवृत्त-वैताब्याः सर्वथा तथा ॥ ७ ॥ यः त्रापि वृत्ता वैताब्याः । पूर्वोक्तैः सदृशाः समे ॥ शब्दापातिप्रभृतयः । प्रत्येतच्या मनन्विभिः ॥ जए ॥ हान्यां चतुर्निरष्टानि-योजनैरंतरं क्रमात ॥ स्वापगान्यां शब्द. गंधा-पातिमेरुमहीभृतां । ए० ॥ विकटापातिनोर्माव्यवतोस्तथांतरं क्रमात् ॥ स्वस्वक्षेत्रोपगाच्यां दे | योजने स्तारवाळ . ॥ ७६ ॥ वळी ते डाना भागमां बे लाख एकसठ हजार सातसो चोर्यामी जोजन बने बावन ल. वोना विस्तारवाद्यं . ॥ 9 ॥ जेम धातकीखमना वृत्त वैताब्यो सर्वथा प्रकारे जंबूद्दीपमाना वृत्तवैताब्योजेवा , तेम ॥ ७ ॥ वहीं पण सघळा शब्दापातिपादिक वृ. तवैताब्यो पूर्व वर्णवेला वृत्तवैताढयोजेवा विद्वानोए जा. णी लेवा. ॥ ७॥ ॥ वळी पोलानी नदीनथी शब्दापाति, गंधापाति, तथा मेरुपर्वतनुं अंतर अनुक्रमे बे, चार थने पाठ जोजने जाणवू. ॥ ५० ॥ वळी पोतपोताना क्षेत्रोनी नदीनश्री बन्ने विकटापाति तथा बने माल्यवान पर्वतोनुं अंतर अनुक्रमे बे घने चार जोजन- जे. ॥
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(३५) तचतुष्टयं ॥ १ ॥ अस्योत्तरस्यां च महा-हिमवान व तते गिरिः ॥ लदाण्यष्टायतो मौलौ । महापद्महृदांकितः ॥ ए॥ योजनानां सहस्राणि । षोमशाष्टौ शतानि च ॥ द्विचत्वारिंशदाब्यानि । कैलाश्चाष्टैष विस्तृतः ।। ए३ ॥ महापद्महृदस्त्वष्टौ । सहस्राण्यायतो नवेत् ॥ योजनानां सहस्राणि । चत्वारि चैष विस्तृतः ॥ ए४ ॥ दक्षिणस्यामुदीच्यां च । नद्यौ रे निर्गते तः ॥ रोहिता हरिकांता च । ते नन्ने पर्वतोपरि ॥ ए५ ॥ चतुःषष्टिं शतान्ये क-विंशान्यंशवतुष्टयं ॥ अतीत्य स्वस्वकुंडांत-निपत्य निर्गते ततः ॥ १६ ॥ पूर्वार्धामिवता । नराळि याति ॥ १ ॥ तेनी नत्तरे महाहिमवान पर्वत , के जे थाठ लाख जोजन लांबो अने मथाळे महापद्महृदयी शोभिः तो . ॥ ७ ॥ वळी ते शोळ हजार थाउसो बेतालीस जोजन अने पाठ कलाना विस्तारवाळो . ॥ ३॥ अने ते महापद्महद तो पाठ हजार जोजन लांबो, अ. ने चार हजार जोजन पहोलो . ॥ ४ ॥ तेमांथी दक्षिण अने नत्तरतरफ रोहिता तथा हरिकांता नदी नि: कळीने, तथा पर्वतपर । ए५ ॥ चोसठसो एकवीस जोजन अने चार अंश वहीने, पोतपोताना कुंममा पमीने,
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(३०६) रोहिता ॥ अपरार्धात्तु सा याति । कालोदनामवारिधि । ॥ ७ ॥ हारिकांता पुनर्याति । कालोदं हरिवर्षगा ॥ पूर्वार्धादपरार्धात्तु | याति सा मानुषोत्तरं ॥ ॥ नद्योहरिसलिलयो-हरिकांताख्ययोरपि ॥ तयो रीकांतयो श्च । तथैव नरकांतयोः ॥ एए ॥ इत्यष्टानामापगानां । विष्कंनो हृदनिर्गमे ॥ भवेबतं योजनाना-मुंमत्वं यो. जनयं ॥ १०० ॥ विष्कंभायामतः कुंडा-न्येतासां जगदुर्जिनाः ॥ षष्ट्याव्यानि योजनानां । शतानीह नव श्रु त्यांथी निकब्तीथकी ॥ ६ ॥ हैमवंतक्षेत्रना पूर्वार्धमा नी ते रोहिता त्यांथी मानुषोत्तरपर्वततरफ जाय , अने पश्चिमार्धमानी ते त्यांथी कालोदधि नामना समुडमां जाय . । एy ॥ वळी हरिवर्षना पूर्वार्धमा रहेली हरिकांता नदी त्यांथी कालोदधिसमुऽमां जाय , अने पश्चिमार्धमानी ते त्यांथी मानुषोत्तरपर्वततरफ जाय . ॥ ॥ एक् ॥ बे हरिसलिला, बे हरिकांता, बे नारीकांता तथा बे नरकांता ।। ए ॥ एम सर्व मळी ते थारे नदीननी हृदमांथी निकळतीवखतनी पहोलाइ एकसो जो. जननी तथा जंडा बे जोजननी . ॥ १०० ॥ तेनना कुंमोनी लंबाई पहोळा जिनेश्वरोए शास्त्रमा नवसो
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(३०) ते ॥ १ ॥ अष्टाविंशं शतं दीपा-श्चैतासां विस्तृतायताः॥ जिबिका विस्तृतो देवा-श्वासां मूलप्रवाहवत ॥ २॥ शैलात्ततः परं क्षेत्रं । हविर्ष विराजते ॥ तकंधापातिवैता. ढये-नांचितं विस्तृतं मुखे ॥ ३ ॥ लदाणि षट् योजनानां । पंचषष्टिं सहस्रकान् ।। द्वे शते सप्तसप्तत्या-धिके द्वादश चांशकान् ॥ ४ ॥ युग्मं ॥ अष्टौ लदाः सह स्राणि । षट्पंचाशबतइयं ॥ सप्तोत्तरं योजनानां । मध्येशाश्चतुरस्ततं ॥ ५॥ सहस्रैः सप्तचत्वारिं-शतान्या दश लदकाः ॥ षदत्रिंशं च योजनानां । शतमंशशतदयं । साठ जोजननी कहेली . ॥१॥ तेना दीपो एकसो अगवीस जोजन लांबा पहोला , तथा तेननी जिह्वानी पहोळा तथा माश् मूलप्रवाहनीपेठे जे. ॥॥ हवे ते पर्वतथी पागल हविर्ष नामर्नु क्षेत्र शोने , ते गंधापातिवैताब्यवडे शोनितुं , अने मध्य नागमां ते. नो विस्तार ॥ ३ ॥ उलाख पांसठ हजार बसो सीतोतेर जोजन श्रने बार अंशोनो . ॥ ४ ॥ युग्मं ॥ वळी म. ध्यनागमां तेनो विस्तार थाठ लाख, पन हजार बसो सात जोजन बने चार अंशोनो ने. ॥ ५ ॥ वळी दश लाख सडतालीस हजार एकसो उनीस जोजन, घने ब
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(३७) ॥ ६॥ अष्टाढ्यं विस्तीर्णमंते । स्वरूपमपरं पुनः॥ जंबू. दीपहरिवर्ष-वदिहावि विनाव्यतां ॥७॥ इतः परश्च निषधः । पर्वतः सर्वतः स्फुरन् । हदेनालंकृतो मूर्ध्नि । स. दब्जेन तिगिंछिना ॥ ७॥ सप्तषष्टिं सहस्राणि । साष्टष. ष्टिशतत्रयं ।। योजनानां लवान द्वात्रिं-शतं स्यादेष वि स्तृतः ॥ ५॥ तिगिंछिस्तु योजनानां । सहस्राण्यष्ट वि. स्तृतः ॥ सहस्राणि षोडशैष । नवेदायामतः पुनः ॥१०॥ एतस्माघरिसलिला । शीतोदेति निरीयतुः । दक्षिणस्यामुदीच्यां च । पर्वतोपर्यम् नने ॥ ११ ॥ एकोनत्रिंशतं सो ॥ ६॥ आठ अंशोजेटलो तेना मानो विस्तार ने, बाकीनुं तेनुं स्वरूप जंबूद्दीपमाना हविर्षनीपेठे अहीं प. ण जावी लेवु. ॥ ७॥ त्यांथी आगळ सर्वबाजुथी स्फु. रायमान थतो, तथा शिखरपर नत्तम कमलवाळा तिगि: जिनामना हृदथी शोभतो निषधनाने पर्वत . ॥ ७ ॥ ते पर्वत समसठ हजार त्रणसो यमसठ जोजन बने ब. त्रीम अंशोना विस्तारवाळो ने. ॥ ए॥ अने तेपर रहे. लो तिर्गिनिहृद आठ हजार जोजन पहोळो, अने शोळ हजार जोजन लांबो . ॥ १०॥ ते हृदमांश्री हरिसलि. ला अने शीतोदा नदीन निकळे , तथा ते बन्ने नदी
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(३न्ए). गत्वा । सहस्रान षट् शतानि च ॥ योजनानां सचतुरशीतीन षोमश चांशकान् ॥ १२॥ पततः स्वस्वकुंडांतहविर्षातराध्वना ।। पूर्वार्धारिसलिला । प्राप्नोति मानुषो. त्तरं ।। १३ । पश्चिमाधगता सा तु । कालोदमुपसर्पति॥ सर्वासां दिग्विनिमय । एवं पूर्वापरार्धयोः ॥ १४ ॥ पूर्वाघशीतोदा प्रत्य-विदेहाविनेदिनी ॥ कालोदमन्या स्था तु । प्राप्नोति मानुषोत्तरं ॥ १५ ॥ एताश्चतस्रो वि. ने अनुक्रमे दक्षिणे अने नत्तरे पर्वतपर ॥ ११ ॥ न. गणत्रीस हजार छसो चोर्यासी जोजन बने शोळ शं. शोसुधी जश्ने ॥ १॥ पोतपोताना कुंडनी अंदर पडे बे, तथा हविर्षक्षेत्रनी अंदर थश्ने पूर्वार्धमानी हरिस लिला त्यांथी मानुषोत्तरपर्वततरफ जाय , ॥ १३ ॥ यः ने पश्चिमार्धमानी ते त्यांथी कालोदधिसमुद्रमां जाय , एवीरीते पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्धमानी सघळी नदीननी दिशाननी अदलाबदली जाणवी. ॥ १४ ॥ पूर्वार्धमां रहेली शीतोदा नदी पूर्वविदेहार्धने नेदतीयकी कालोद धिसमुद्रमां जाय , धने पश्चिमार्धमा रहेली ते मानु. षोत्तरपर्वततरफ जाय . ॥ १५ ॥ ते चारे नदीन हृद. मांथी निकळ्तीवखते बसो जोजन पहोळी तथा चार जो.
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( ३(५०) स्तीर्णा । दे शते हृदनिर्गमे ॥ चत्वार्थमा योजनानि । प्रांते दशगुणास्ततः ॥ १६ ॥ विस्तीर्थान्यायतान्यासां । कुंमानि च चतसृणां ॥ सविंशानि योजनानां । शतान्येकोनविंशतिं ॥ ११ ॥ एतत्कुंडांतर्गताश्च । दीपाः प्रोक्ता महर्षिभिः ।। षट्पंचाशे योजनानां । दे शते विस्तृतायताः || १८ || सर्वे कुंमगता दीपाः । क्रोशद्वयोन्त्रिता ছ ति ॥ तैर्जवृद्दीपस्तुल्या | जन्नूयेण नगा इव ॥ ११५ ॥ यथेदमधे व्याख्यातं । याम्यं पूर्वापरार्धयोः ॥ तथा ज्ञेयमुदीच्या - मपि मानस्वरूपतः || २० || किंतूदीच्येषु. जन डंडी बे, छाने बेडाना जागमां तेथी दशगणी वे. ॥ १६ ॥ ते चारे नदीनना कुंको जंगणीससो वीस जोजन लांबा पदोन वे. ॥ १७ ॥ ए कुंडोनी अंदर रहेला दीपो बसो उपन जोजन खांबा पोळा महर्पित ए कहेला बे ॥ १८ ॥ कुंडोमा रहेला सघळा द्वीपो वे कोश उंचावे, केमके पर्वतोनीपेठे जंबूदीपमाना ते दीपोजेटली तेजनी ऊंचाई वे. ॥ १०७ ॥ एवीरीते जेम दक्षिण तरफना पूर्वार्ध तथा पश्चिमार्धनुं स्वरूप कहां, तेवीज रीतनुं उत्तरार्धनुं प्रमाण तथा स्वरूप पण जाणी लेवुं ॥ ॥ २० ॥ परंतु उत्तरतरफना इषुकारपर्वतथी व्यागळ बन्ने
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(३१) काराः । परतः पार्श्वयोईयोः ॥ स्यादेकैकमैरवत-क्षेत्रं नरतसन्निनं ॥ २१ ॥ पुंडरीकहृदोपेत-स्ततश्च शिखरी गिरिः ॥ तस्मादत्ता रक्तवती । स्वर्णकूला विनिर्ययुः ॥ ॥ २५ ॥ तत्रादिमे दे सरितौ । क्षेत्रमैरवतं गते ॥ जगाम हैराण्यवतं । स्वर्णकूला तु वाहिनी ॥ ३॥ ततश्च है. रण्यवतं । विकटापातिनांकितं ॥ ततो महापुमरीक-ह. दवान रुक्मिपर्वतः ॥ २४ ॥ एतनवा रूप्यकूला । हैरण्यवतगामिनी ॥ रम्यकांतर्नरकांता । प्रयात्येतत्समुद्भवा ॥ ॥२५॥ ततोऽर्वाग् रम्यकक्षेत्रं । माव्यववृत्तधरं ॥ के. बाजुए भरतजेवू एकेकुं ऐवतक्षेत्र . ॥ २१ ॥ त्यांथी पागळ पुंडरीकहृदवाळो शिखरी पर्वत , थने तेमांथी रक्ता, रक्तवती बने स्वर्णकूला नदीन निकळे . ॥२॥ तेनमानी पहेली बे नदीन ऐवतक्षेत्रमा भने स्वर्णक
वा नदी दैरण्यवतमां जाय ॥ ३ ॥ त्यांथीयागळ विकटापातिपर्वतथी शोनितुं हैरण्यवंत क्षेत्र ने, अने ते. थी थागळ महापुंडरीकहृदवाळो रुक्मीपर्वत . ॥ १४ ॥ तेमांथी निकळेली रूप्यकूला नदी हैरण्यवंतक्षेत्रमा अने नरकांता रम्यकक्षेत्रमा जाय . ॥ २५ ॥ तेथी पागल माव्यवानपर्वतवाडं रम्यकक्षेत्र ने, थने तेथी पागल के.
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(३५२) सरिहदवन्नील-वन्नामा पर्वतस्ततः ॥ २६ ॥ प्रवर्तते विदेहांतः । शीतैतनगसंनवा ॥ नारीकांता रम्यकांतः। प्रसर्पत्येतदुद्गता ॥२७॥ एषु क्षेत्रेषु पूर्वार्धा-नद्यो याः पूर्वसंमुखाः ॥ ता मानुषोत्तरं यांति । कालोदं पश्चिमामु. खाः ॥॥ पश्चिमार्धात्तु कालोदं । प्रयांति पूर्वसंमुखाः ॥ पश्चिमानिमुखास्तास्तु । प्रयांति मानुषोत्तरं ॥ २५ ॥ मध्ये क्षेत्रं विदेहाख्यं । नीलवनिषधागयोः ॥ एकैकं मे. रुणोपेतं । नाति पूर्वापरार्धयोः ॥ ३० ॥ अष्टाचत्वारिंशसरिहदवाळो नीलवान नामे पर्वत बे. ॥ २६ ॥ ते पर्व. तमांथी निकळेली शीतानदी विदेहमां जायचे, अने नारीकांता नदी रम्यकक्षेत्रमा जाय ॥२७॥ या क्षे. त्रोमा पूर्वार्धमानी जे नदीन पूर्वसन्मुख वहे , तेन मानुषोत्तरतरफ जाय , धने जे पश्चिमतरफ वहे , ते कालोदधिसमुडमां जाय . ॥ २० ॥ धने पश्चिमाधमानी पूर्वसन्मुख वहेती नदीन कालोदधिसमुऽमां जाय बे, धने पश्चिमतरफ बहेनारी नदीन मानुषोत्तरपर्वततरफ जाय . ॥ २५ ॥ नीलवान अने निषधाचल पर्वतनी बच्चे विदेहक्षेत्र ने, तथा ते पूर्वार्ध बने पश्चिमार्धमां मेरुसहित एकेकुं शोभे . ॥ ३० ॥ ते क्षेत्रना मुखभाग
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३(५३ ) दंशान | लक्ष्ाः षविंशतिं मुखे । योजनान्येकषष्टिं स - हस्रान् साष्टशतं ततं ।। ३१ ।। २६६१९०८ ९ ४८ तथा लाश्चतुस्त्रिंश-द्योजनानां समन्विताः ॥ चतुर्विंशत्या सदखै-रष्टाविंशं शताष्टकं ॥ ३२ ॥ षोमशांशाच विस्ती
| मध्ये तस्यांत विस्तृतिः ॥ लदा एयथैकचत्वारिंशदष्टाशीतिरेव च ॥ ३३ ॥ सहस्राणि सप्तचत्वारिंशा पंचशती तथा ॥ योजनानामंशशतं । षमवत्या समन्वितं ॥ ॥ ३४ ॥ सहस्राणि योजनानां । एकोनविंशतिस्तथा ॥ सचतुर्नवतिः सप्त -शती कोशस्तथोपरि ॥ ३५ ॥ विष्कं नः प्रतिविजयं । प्रत्येक मर्धयोर्द्वयोः | योजनानां हे रु. नो विस्तार वीस लाख एकसठ हजार एकसो ध्याठ जो जन छाने अमतालीस अंशोनो बे ॥ ३१ ॥ वळी चोत्रीस लाख चोवीस हजार घाउसो खावीश जोजन ॥ ॥ ३२ ॥ धने शोळ अंशोजेटलो तेना मध्यभागनो कि स्तार बे, छाने तेना बेमानो विस्तार एकतालीस लाख व्यासी ॥ ३३ ॥ हजार पांचसो समतालीम जोजन
एसो छन्नु शोनो बे. ॥ ३४ ॥ वळी एकवीस हजार सातसो चोराणु जोजन पने एक कोशजेटलो ॥ || ३ || बन्ने अर्धनागमां दरेक विजयनो विस्तार बे,
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(३ण्ण) हो । वक्षस्कारादिविस्तृतिः ॥ ३६ ॥ प्रत्येकमंतनद्यश्च । शतानि पंच विस्तृताः॥ स्वरूपं सर्वमतान्य-छातकीखं. भवद्भवेत् ॥ ३७ ॥ अष्टानां वनमुखानां । विस्तृतिः स्या वघीयसी ॥ एकोनविंशतिनवा-श्चत्वारो योजनांशकाः ॥ ३० ॥ एकादश सहस्राणि । योजनानां शतानि षद ॥ साष्टाशीतीनि चैतेषां । विस्तृतिः स्याद्रीयसी ॥ ३५॥ उपवर्षधरं गुर्वी । लध्वी व सरिदंतिके ॥ तेषां चतुर्ण कालोद-बहिर्भागस्पृशां नवेत् ॥ ४० ॥ चतुर्णा तु नरनगा–सन्नानां विस्तृनिर्गुरुः ॥ शीताशीतोदांतिकेऽन्या अने वक्षस्कारपर्वतनो विस्तार बे हजार जोजननो बे. ॥ ३६ ॥ अहींनी दरेक अंतर्नदीन पांचसो जोजनना विस्तारवाळी ने, घने बाकीनु सघर्धा स्वरूप धातकीखंड नीपेठे . ॥ ३७ ॥ पाठे वनमुखोनो जघन्य विस्तार चार जंगणीश जोजननो . ॥ ३० ॥ अने तेननो नत्कृष्टो विस्तार अग्यार हजार उसो अठासी जोजननो .॥ ३५॥ कालोदधिसमुद्रना बहारना भागने स्पर्श करनारा एवा तेमाना चार वनमुखोनो जघन्य विस्तार नदीनपासे, तथा नत्कृष्टो विस्तार वर्षधरपर्वतोपासे .॥ ॥४०॥ अने मानुषोत्तरपासे रहेला तेमाना बाकीना
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(३५) । नीलवनिषधांतिके ॥ १ ॥ पूर्वापरं नद्रसाल–वना यामः समन्वितः ॥ मेरुविष्कंनेण सह । गर्नभागात्मको नवेत ॥ ४२ ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि । लदाश्चतस्र एव च ॥ योजनानां नवशती 1 निर्दिष्टा षोमशोत्तरा ॥३॥ षोमशानां विजयानां । व्याससंकलना त्वियं ॥ तिस्रो लदा योजनानां । सहस्राणि च षोडश ॥ ४ ॥ सप्तशत्यष्टोत्तराय । वदास्कारमहीभृतां ॥ अष्टानां तत्संकलना । स्युः सहस्राणि षोमश ॥ ४५ ॥ षमामंत दीनां तु । व्याससंकलना नवेत् ।। सहस्राणि त्रीणि वन-मुखयोचारनो नत्कृष्टो विस्तार शीता तथा शीतोदापासे , अ. ने जघन्य विस्तार नीलवान थने निषधपर्वतपासे ॥ ॥४१॥ पूर्वपश्चिम भऽसालवननी लंबाई मेरुनी पहो. लाइसहित गर्न गागरूप नीचेमुजब थाय . ॥ ४ ॥ चार लाख चालीस हजार नवसो शोळ जोजननी कहे. ली . ॥ ४३ ॥ शोळे विजयोना व्यासनो सरवाळो त्रण लाख शोळ हजार ॥ ४ ॥ सातसो पाठ जोजननो ने. तथा पाठ वदस्कारपर्वतोनो ते सखाळो शोळ इ. जार जोजननो थाय . ॥ ४५ ॥ अंतर्नदीनना व्यासनो सरवाळो त्रण हजार जोजननो, अने बन्ने वन.
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( ३५६) रुभयोस्त्वियं ॥ ४६॥ षट्सप्ततिस्पृत्रिशती । सहस्रा. स्त्र्यदि २३ संमिताः ॥ दीपव्यासोऽष्ट लदाणि । सर्वसं. कलने भवेत् ॥ ४ ॥ अनापीष्टान्यविष्कंभ--वर्जितही. पविस्तृतेः॥ स्वस्वसंख्याविजक्ताया । लन्यतेऽजीष्टविस्तृत तिः॥ ४० ॥ नावना धातकीखंडवत्. ___ महाविदेहविष्कने । यथेष्टस्थानगोचरे ॥ शीताशीतोदान्यतर-व्यासहीनेऽर्धिते सति ।। ४ए ॥ विज. यांतर्नदीवदा-स्कारांतिमवनायतिः॥ ज्ञायते सा तत्र त. त्र । स्थाने जाव्या वयं बुधैः ॥ १०॥ अथ देवकुरूणां मुखोना व्यासनो सरवाळो ॥ ४६॥ त्रेवीस हजार त्रण: सो महोतेर जोजननो , अने दीपोनो व्यास सर्व म. लीने घाउ लाखनो थाय ने. ॥ ४ ॥ अहीं पण बी. जी अनीष्ट पहोलाइविनानी दीपनी पहोळाश्ने संख्याये भांगवाथी इबित विस्तार यावे . ॥ ४ ॥ भावना धातकीखंडनीपेठे . ___ शीता थने शीतोदामानी एकनी पहोलाविना इ. बित स्थानसंबंधि महाविदेहनी पहोळाश्ने अर्ध करवाथी॥ ४ ॥ विजयोनी अंदरनी नदीन, वदस्कारपर्व तो, अने माना वनोनी लंबा ते ते स्थाने विद्वानोए
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(३५७) यः। प्राच्यां सौमनसो गिरिः ॥ तथोत्तरकुरूणां यः । पूर्वस्यां माव्यवानिमौ ॥ ५१ ॥ त्रिचत्वारिंशत्सहस्रान् । लदा विंशतिमायती ॥ एकोनविंशां दिशतीं । योजना: नामुन्नावपि ॥ ५३॥ देवोत्तरकुरुत्यश्च । प्रतीच्यां यौ व्यवस्थितौ ॥ विद्युत्प्रजागिरिर्गध-मादनश्वायतावुनौ ।। ॥ ५३ ॥ योजनानां षोमशैव । लदाः षाविंशतिं तथा ॥ सहस्राणि शतमेकं । संपूर्ण षोडशोत्तरं ॥ २४ ॥ दं मानं पुष्करार्ध–प्राचीनार्धव्यपेदया ॥ पश्चिमा विप:
र्यासो । धातकीखंडवत्स तु ॥ ५५ ॥ अष्टाप्येते गजदंता पोतानीमेळे नावी लेवी. ॥ ५० ॥ हवे देवकुरुनी पूर्वे जे सौमनस पर्वत , तथा उत्तरकुरुनी पूर्वे जे माव्यवा: नपर्वत , तेन बने । ५१ ॥ वीस लाख तेतालीस ह. जार बसो नंगणीस जोजन लांबा ने. ॥५॥ तथा दे. वकुरु बने उत्तरकुरुथी पूर्व जे विद्युत्पन्न तथा गंधमा. दन नामना बे पर्वतो , तेन बन्नेनी लंबाई ॥ ५३ ॥ शोळ लाख वीस हजार एकसो शोळ जोजननी जे.॥ ॥ १४ ॥ या प्रमाण पुष्कराधना पूर्वार्धनी अपेदाये जे. बने पश्चिमाधमां तेथी नली ने अने ते धातकीखमनीपेठे . ॥ ५५ ॥ ए था गजदंतो नीलवान अने
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(३ ) । नीलवनिषधांतिके ॥ सहस्रदयविस्तीर्णाः । सूक्ष्माश्च मं. दरांतिके ॥ १६ ॥ विदेहमध्यविष्कंना-न्मेरुज्यासे विशोषिते ॥ शेषेऽर्धिते च विष्कंगः । प्रत्येतव्यः कुरुदये ॥ ५७ ॥ लदाः सप्तदश सप्त-सहस्राणि शतानि च ॥ चतुर्दशानि सप्तैव । योजनानां लवाष्टकं ॥ २७ ॥ मेरु. युक्तनसाला-यामात्प्रागुपदर्शितात् ॥ गजदंतव्यहीना -जेषं जीवा कुरुतये ॥ १७ ॥ लदाश्चतस्रः पत्रिंशत । सहस्राणि शतानि च ॥ नवैव षोडशाब्यानि । योजनानीति तन्मितिः ।। ६० ॥ श्रआयाममानयोः प्राच्य-प्र. निषधपर्वतनी पासे बे हजार जोजन पहोच , तथा मंदराचलपासे सूक्ष्म . ॥ १६ ॥ विदेहक्षेत्रना मध्यभा गनी पहोळाश्मांथी मेरुनो व्यास बाद करवाथी, बाकी रहेलाने अर्ध करवाथी नीचेमुजब बन्ने कुरुनी पहोळाश थावे . ॥ २७ ॥ सतर लाख सात हजार सातसो चौद जोजन अने पाठ लवोनी ते पहोळाथाय ने. ॥५॥ पूर्व देखाडेली मेरुसहित नऽशाल वननी लंबाश्मांधी बे गजदंतोने बाद करवायी जे बाकी रहे तेटली बन्ने कुरुननी जीवा जाणवी. ॥ ५५ ॥ अने ते जीवा चार लाख बीस हजार नवसो बने शोळ जोजननी . ॥
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(३एए) तीच्यगजदंतयोः ॥ योगे भवेख्नुःपृष्टं । कुरुदय इदं तु तत् ॥ ६१ ॥ सदाः पत्रिंशदेकोन-सप्ततिश्च सहस्रकाः ॥ शतत्रयं योजनानां। पंचत्रिंशत्समन्वितं ॥६॥ धातकोखमवदिहा-प्यग्रतो नीलवगिरेः ॥ यमकावुदक्कुरुषु । सहस्रं विस्तृतायतौ ॥ ६३॥ ततः परं हृदाः पंच । स्युदक्षिणोत्तरायताः ॥ सहस्रांश्चतुरो दीर्घा । हे सहस्र च विस्तृताः ॥ ६४ ॥ नीलवतो यमकयो-स्तान्यामाद्यहृदस्य च ॥ मिथो हृदानां क्षेत्रांत-सीम्नश्च पंचमहृदात् ।। ॥ ६० ॥ पूर्व बने पश्चिम तरफना बन्ने गजदंतोनी लं. बाश्ना प्रमाणने एक करवाथी बन्ने कुरुननुं धनुःपृष्ट थाय , अने ते नीचेमुजब जे. ॥ ६१ ॥ छत्रीस लाख
गणोतेर हजार त्रणसो अने पांतीस जोजन .॥६शा यही पण नीलवान पर्वतनी बागळ धातकीखमनीपेठे उत्तरकुरुमां बे यमकाचलो ने, अने तेन एक हजार जोजन लांबा पहोन . ॥ ६३ ।। त्यांथीयागळ ददि. णोत्तर लांबा पांच हृदो , केजे चार हजार जोजन ला. बा अने बे हजार जोजन पहोळा . ॥ ६४ ॥ नीलवानपर्वतथी बन्ने यमकोर्नु, थने तेनथी पहेला हृदनु, तथा परस्पर ते हृदोनु, धने पांचमा हृदयी क्षेत्रना डा.
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(४००) ॥ ६५ ॥ सप्ताप्येतान्यंतराणि । तुल्यान्यैकैकं पुनः ॥ ल. दादयं योजनानां । चत्वारिंशत्सहस्रकाः ॥ ६६ ॥ शता. नि नव चैकोन-षष्टीनि योजनस्य च ॥ सप्तक्षमस्यैकनाग-स्तत्रोपपत्तिरुच्यते ॥ ६७ ॥ दैर्घ्य हृदानां पंचानां । यत्सहस्राणि विंशतिः ॥ साहस्रयमकव्यास–युक्तं तत्कुरु विस्तृतेः ॥ ६ ॥ विशोध्यतेऽथ यजेषं । तत्सप्तनिर्विन ज्यते ॥ सप्तानां व्यवधानाना-मेवं मानं यथोदितं ॥ ॥ ६॥ ॥ नदक्कुरुषु पूर्वार्धे । पद्मनामा महातरुः ॥ प. श्चिमार्धे महापद्म-स्तो जंबूवृदसोदरौ ॥ ७० ॥ पद्मनाम्नो नी हद, ॥ ६५ ॥ एरीते ते साते अंतरो सरखां ने, थने ते एकेकुं अंतर बे लाख चालीस हजार ॥ ६६ ।। नवसो जंगणसाठ पूर्णाक एकसप्तमांश जोजन- चे, ते माटेनी हवे युक्ति कहे जे. ॥ ६७ ॥ ते पांचे हृदोन) लंबा वीस हजार जोजननी , थने ते यमकना व्या. सना एक हजार जोजन नेळववा. तथा तेने कुरुना कि स्तारमाथी ॥ ६० ॥ बाद करवाथी जे बाकी रहे, तेने साते नांगवाथी ते साते अंतरोनु नपर कह्यामुजब प्र. माण आवे . ॥ ६ए ॥ नत्तरकुरुना पूर्वार्धमां पद्मनामे महावृद बे, अने पश्चिमाधमां महापद्म नामे वृदने,
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(४०१) ऋमिरुहः । पद्मनामा सुरः पतिः ।। महापद्मस्य तु स्वामी | पुंडरीकः सुरोत्तमः ॥ ११ ॥ स्युर्देवकुखोऽप्येवं । किंत्वव निषधात्परौ ॥ विचित्रचित्रावचलौ । ततः पंच हृदाः क्रमात् ॥ १२ ॥ पूर्वार्धे चापरार्धे च । स्यातां शाल्मलि. नाविह ॥ जंबूदासधर्माणा-वेतावपि स्वरूपतः ॥३॥ पुष्करार्धेऽथ यौ मेरू । स्यातां पूर्वापरार्धयोः॥ धातकीखमस्थमेरु-समानौ तौ तु सर्वथा ॥ 5 ॥ किंत्वेतयोनद्रसाल-वनयोरायतिर्भवेत् ॥ लदादयं पंचदश । स अने तेन बन्ने जंबूवृद्धासरखा . ॥ ७० ॥ पद्मनामना वृदानो ग्वामी पद्म नामे देव , अने महापद्मवदानो स्वामी पुंमरीक नामे नत्तम देव . ॥ १ ॥ एवीरीते देवकुरु पण जाणवा, परंतु अहीं निषधपर्वतथी आगळ विचित्र अने चित्र नामना पर्वत , घने तेथी घागळ
अनुक्रमे पांच हृदो . ॥ १२॥ वळी तेना पूर्वार्ध अने पश्चिमार्धमां बे शाल्मलीवृदो ने, के जेन स्वरूपथी जैबूदाजेवाज . ॥ १३ ॥ वळी पुष्कराधना पूर्वार्ध थने पश्चिमाधमां जे बे मेरु , तेन सर्वयाप्रकारे धातकीखममा रहेला मेरुजेवाज . ॥ १४ ॥ परंतु तेन बन्नेना दरेक जऽसाल वननी लंबा बे लाख पंदर हजार ।।
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( ४०२ )
हस्राणि शतानि तु ॥ ७५ ॥ ष्टपंचाशानि सप्त । पूर्वपश्चिमयोर्दिशोः । प्रत्येकं दाक्षिणौदीच्यः । स्याद्व्यासस्वयमेतयोः ॥ ७६ ॥ बिसहरयेक पंचांशा । योजनानां चतुःशती ॥ प्रष्टाशीत्या योजनस्य । नक्तस्यांशाश्च सप्ततिः ॥ 99 ॥ उपपत्तिस्त्वव प्राग्वत. शेषा त्वत्र नंदनादि - वनवक्तव्यताखिला ॥ धातकीखं मेरुन्यां । पुनरुक्ते ति नोच्यते ॥ ७८ ॥
जंबूदीपो महामेरु - श्रतुर्भिर्मेरुभिः श्रियं ॥ धत्ते तीर्थकर श्व । चतुर्भिः परमेष्टिनिः ॥ ७ ॥ प्रागुक्ता॥ ७५ ॥ सातसो ठावन जोजननी वे, पने ते लंबा५ पूर्वपश्चिमतरफ बे, घने तेजनी उत्तरदक्षिण पदोळा5 तो नीचेमुजब बे. ॥ ७६ ॥ बे हजार चारसो एकावन जोजन ने एक जोजनना सीतेर पठ्यासीया भा गोजेटली बे. ॥ 99 ॥ वहीं युक्ति पूर्वनीपेठे जावी. बाकी यहीं नंदनादिक वननो सघळो वृत्तांत धातकीखं माना बने मेरुसरखो बे, माटे पुनरुक्तिदोषना संगवथी कह्यो नथी. ॥ 9८ ॥
चार परमेष्टिनवडे जेम तीर्थकर तेम जंबूद्दीपरूपी महामेरु चार मेरुवडे करीने शोजाने धारण करे बे.
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(४०३) ख्येषु पूर्वार्धे । विजयेष्वधुना जिनाः ॥ चंद्रबाहुर्भुजंगश्चे
-श्वरो नेमिप्रनोऽपि च ॥ ७० ॥ पश्चिमार्धे तु तेष्वेव । वीरसेनो जिनेश्वरः ॥ महानद्रदेवयशो-जितवीर्या - तिक्रमात ॥ ७१ ॥ दीपार्धेऽस्मिन्नगादीनां । संग्रहः सर्व संख्या ॥ धातकीखमवद् ज्ञेयो-विशेषानोदितः पृथक् ॥ २ ॥ दिसप्ततिः शशभृत-स्तावंत एव भास्कराः ॥ षट्सहस्राणि पत्रिंशा । त्रिशत्यत्र महाग्रहाः ॥ ७३ ।। नदाताणां सहस्रे हे । प्रझते षोडशोत्तरे ॥ प्रमाणमथ ॥७॥ पूर्वार्धमा पूर्वे कहेला नामोवाळा विजयोमा हा. लमां चंद्रबाहु, भुजंग, ईश्वर अने नेमिप्रन नामना जिः नेश्वरो विचरे . ॥ ७० ॥ श्रने पश्चिमार्धमाना ते वि. जयोमां वीरसेन, महाभद्र, देवयशा बने जितवीर्य ना. मना जिनेश्वरो अनुक्रमे विचरे . ॥ ७१ ॥ आ दीपाधमां सर्व मलीने पर्वतयादिकोनी संख्या कई पण फेरफारविना धातकीखंडनीपेठे जाणवी, थने तेथी जूदी कही नथी. ॥ ७२ ।। वळी यहीं बहोतेर चंद्रो, अने ते. टलाज सूर्यो , धने उ हजार वणसो छत्रीस महाग्रहो ने. ॥ ३ ॥ वळी यहीं बे हजार घने शोळ नदात्रो कहेलां ने, हवे ते पुष्कराधमां रहेला तारा प्रमाण
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(४०४ ) ताराणां । पुष्करार्धे निरूप्यते ॥ ७ ॥ अष्टचत्वारिंशदिह । लदा दाविंशतिस्तथा ॥ सहस्राणि हे शते च । स्यु स्ताराः कोटिकोटयः ॥ ५ ॥ एवं च-लदाण्यक्ष पुष्क राध । तावान् कालोदवारिधिः ॥ चत्वारि धातकीखमो। हे लक्षे लवणोदधिः ॥ ६ ॥ एवं दाविंशतिर्खदाएयेकतः परतोऽपि च ॥ मध्ये जंबूहीप एक-लदमाय. तविस्तृतः ॥ ७ ॥ पंचचत्वारिंशदेवं । लदाण्यायतविस्तृ तं ॥ नरक्षेत्र परिक्षेपो । ज्ञेयोऽस्य पुष्करार्धवत् ॥ ७ ॥ एतावतो नरक्षेत्रात | परतो न भवेन्नृणां ॥ गर्नाधानं निरूपण करे . ॥ ४ ॥ अमतालीस लाख बावीस हजार बने बसो कोटाकोटी ताराने यहीं . ॥ ५ ॥ बने एवीरीते-श्र| लाख जोजननो पुष्कराध, तेष्ट लोज कालोदधिसमुद्र, चार लाखनो धातकीखंग, तथा बे लाखनो लवणसमुद्र ने. ॥ ६ ॥ एवीरीते एकबाजुथी बावीस लाख तथा बीजी बाजुयी पण तेटला .प. ने मध्यभागमा एक लाख जोजन लांबो पहोळो जंबूढी. प. ॥७॥ एवीरीते मनुष्यक्षेत्र पस्तालीस लाख जो. जन लांबुं पहोळं बे, घने तेनो वेरावो पुष्करार्धनीपेठे जाणवो. ॥ ७ ॥ एटलां मनुष्यक्षेत्रथी आगळ माण.
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(४०५) जन्ममृत्यू । संमूर्जिमनरोद्भवः ॥ ७ ॥ श्रासनसवां क. श्वि-स्त्रियं नयति चेत्सुरः ॥ नरक्षेत्रात्परं नासौ । प्र. सूते तत्र कर्हि चित् ॥ ५० ॥ यदि कंठगतप्राणो। मनुः व्यक्षेत्रतः परं ॥ मनुष्यो नीयते नासौ । म्रियते तत्र के हिंचित ॥ १ ॥ अथावश्यनाविजन्म-दीणायुष्कौ च तौ यदि ॥ तदा सुरस्य तन्नेत-नवेदान्यस्य कस्यचित ॥५२॥ मनस्तथैव ये नैना-मासन्नप्रसवां स्त्रियं ॥ तं सोनुं गर्भाधान, जन्म के मृत्यु होतां नथी, तेम संमूर्तिम मनुष्यनी नत्पत्ति पण होती नथी. ॥ जय ॥ नजदीक प्रसववाळी कोश्क स्त्रीने जो कोश्क देव मनुष्यक्षेत्र मांथी त्यां ले जाय, तोपण तेणीनो कदापि पण त्यां प्रसव थतो नथी. ॥ ५० ॥ वळी कंठगतप्राण एटले मृ. त्युनी अणीपर रहेला मनुष्यने ते मनुष्यक्षेत्रथी यागळ कोश्क देव जो ले जाय तो ते त्यां कदापि मरतो नथी. ॥ १ ॥ वळी जो कदाच तेन बन्ने अवश्य थनारा जन्मवान, बनें दाणवायुवाळा होय , तो तेने ले जनारा देवना अथवा को बीजा देवना मनमां एमज विचार आवे ने के, ।। ए॥ नजीकप्रसववाळी या स्त्री. ने, तथा ते कंगतप्राणवाळा पुरुषने हुं फरीने मनुष्य
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(४०६) चाकंठगतप्राणं । नरक्षेत्रे पुनर्नयेत् ॥ ३ ॥ एवं नातःपरमह-निशादिसमयस्थितिः ॥ न बादरामिन नदी। न विद्युद्गर्जिनीरदाः ॥ ए ॥ नाईदाद्या न निधयो । नायने नैव चाकराः । नेंदुर्वृघिदयौ नोप–रागोऽहो. न वा गतिः ॥ ५५ ॥ तथाहुः-अरिहंतसमयबायरअग्गीविज्जूबलाहगाथणिया ॥ श्रागरननिहिनवराग । निग्गमेवुध्यियणं च ॥ १६ ॥ एतत्सर्वमर्थतो जीवा भिगमसूत्रचतुर्थप्रतिपत्ती. क्षेत्रेषु पंचचत्वारिं-शतीह नर. क्षेत्रमा ले जान, थने तेम ते ले जाय जे. ॥३॥ एवीरीते ते मनुष्यक्षेत्रथी पागल दिवस अथवा रात्रि श्रादिक समयनी स्थिति होती नथी, तेमज बादर अमि. नदी, विजळी, गर्जाख के वादळां पण होतां नथी. ॥ ॥ए। ॥ वळी त्यां तीर्थकरयादिको, निधानो, अयनो, खाणो, चंडोनी वृद्धि के दाय, सूर्यचंडनां ग्रहण के ते. जनी गति पण होतां नथी. ॥ ५॥ तेमाटे कां ने के-त्यां अरिहंत, समय, बादरथमि, विजळी, मेघ, ग. जना, खाणो, नदी, निधान, ग्रहण, गति, वृष्टि के अ. यन होतां नथी. ॥ ए६॥ या संघलो नावार्थ जीवा. निगमसूत्रनी चोथी प्रतिपत्तिमां. वळी यहीं मनुष्य.
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(४०७) तादिषु ॥ अंतीपेषु षट्पंचा-शत्येव संनवेन्नृणां ॥ ॥ ए७ ॥ बाहुल्याऊन्म मृत्युश्च । वार्षिधरादिषु ॥ शेषेषु तु नृणां जन्म । प्रायेण नोपपद्यते ॥ एव । मृत्यस्तु संहरणतो । विद्यालब्धिवलेन वा ॥ गतानां तत्र तत्रायुः-दयात्संनवति कचित ॥ ॥ ॥ अथैतस्मिन्नरक्षेत्रे । वर्षक्षेत्रादिसंग्रहः ।। क्रियते सुखबोधाय । तदर्थो ऽयं झुपक्रमः ॥ २०० ॥ अध्यौ हाविह दीपौ । वेव च पयोनिधी । भरतान्यैरवतानि । विदेहाः पंच पंच च ॥१॥ एवं पंचदश कर्म-मयोऽत्र प्रकीर्तिताः ॥ देक्षेत्रमा नरतयादिक पस्तालीस क्षेत्रोमां तथा उपन अं. तीपोमांज ॥ ए७ ॥ प्रायें करीने माणसोनां जन्ममरण थाय बे, बने बाकीनां समुऽ तथा वर्षधरादिकोमा प्रायें करीने मनुष्योनो जन्म थतो नथी. ॥ ७ ॥ अने मृ. 'त्यु तो कोक वखते त्यां संहरणथी अथवा विद्यानी ल. ब्धिना बलवडे त्यां गयेलाउनुं आयुना दयथी संनवे ने. ॥ एवं ॥ हवे या मनुष्यक्षेत्रनी अंदर वर्षक्षेत्रादिकनो संग्रह सुखे बोध थवामाटे करे , केमके तेमाटेज या सघळो प्रयास . ॥ २०० ॥ यहीं अढी दीप, घने बेज समुद्रो , नरत, ऐवत अने विदेह पांच पां
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(४००) वोत्तराख्याः कुरखो । हैरण्यवतरम्यके ॥ ५॥ हैमवतं ह. विर्ष । पंच पंच पृथक्पृथक ॥ सर्वाण्यपि त्रिंशदेवं । नवंत्यकर्ममयः ॥ ३ ॥ अंत:पाश्च षट्पंचा-शदेवं यु. मित्रमयः ॥ षमशीतिर्नरस्थाना-न्येवमेकोत्तरं शतं ।। ॥४॥ तथान मेवः पंच। विंशतिर्गजदंतकाः ॥ वद. स्कारादयोऽशीतिः । सहस्रं कांचनाचलाः ॥ ५॥ विचि. त्राः पंच चित्राश्च । पंचाय यमकाचलाः ॥ दश त्रिंशद. पंधरा । षुकारचतुष्टयं ॥ ६ ॥ विंशतिवृत्तवैताब्याः । श. च . ॥१॥ एवीरीते वहीं पंदर कर्म मिन कहेली बे, तथा देवकुरु, उत्तरकुरु, हैरण्यवत, रम्यक, ॥२॥ हैमवत अने हरिवर्ष, ए सघला पांच पांच मलीने त्रीस
कर्मवमिन थाय .॥३॥ वळी उपन अंतर्दीपो , एवी रीते सर्व-मली ब्यासी युगलीयांनी मिन ने, तथा ते सर्व मली एकसो एक मनुष्यनी उत्पत्तिः नां स्थानो . ॥४॥ वळी यही मेरु पांच , वीश गजदंतो बे, एसी वदास्कारपर्वतो , अने एक हजार कांचनाचलो . ॥ ५॥ पांच विचित्रपर्वतो, पांच चित्रपर्वतो, दश यमकाचलो, त्रीस वर्षधरो, धने चार शु. कारपर्वतो. ॥ ६ ॥ वीस वृत्तवैताब्यो भने एकसोसी.
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(४०
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तं दीर्घाः ससप्ततिः ॥ एकोनपंचाशान्यद्रि-शतान्येवं ब. योदश ॥ ७॥ अष्टौ दाढाः पर्वताः स्युः । कूटास्त्विह च. तुर्विधाः ॥ वैताब्यशेषाद्रिसह-स्रांकनकूटनेदतः ॥ ७ ॥ तत्र च–साध सहस्त्रं वैताब्य-कूटानां त्रिंशताधिकं ।। शेषाडिकूटानामष्ट्र-शती षधिका नवेत ॥ ७ ॥ सहस्रांकाः पंचदशे-त्येवं कूटानि भृतां ॥ सर्वा ग्रेणैकपंचा शे । वे सहा शतत्रयं ॥ १० ॥ नद्रसालवने मेरो नि दिक्ष विदिख च ।। तानि दिग्गजकूटानि । चत्वारिं.
तेर दीर्घवैताब्यो बे, एवीरीते सर्व मळीने तेरसो नंग.
पचास पर्वतो . ॥ ७॥ वळी अहीं पाठ दाढापर्वतो बे, तथा शिखरो वैताब्य, शेषाद्रि, सहस्रांक बने कूटना नेदयी चारप्रकारनां ॥७॥ तेमां-पंदरसोत्रीस वैताब्यनां शिखरो ने, अने पाठसो छ शेषाद्रिनां शिखरो. ॥ ए॥ पंदर सहस्रांकशिखरो डे, एवीरीते सर्व मळीने बे हजार वणसो एकावन पर्वतोनां शिखरो ने. ॥ १० ॥ मेरुना नद्रशालवनमां दिशान तथा विदिशानमा जे शिखरो ने, ते अहीं चालीस दिग्गजनां शिखरो ॥ ११ ॥ दशे वृदोनी दिशा तथा विदिशामा जे
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(४१०) शनवेदिह ॥ ११ ॥ पूणां दशानामष्टाष्ट । यानि दिव विदिक्षु च ॥ कूठानि तान्यशीतिः स्यु-नुक्षेत्रे सर्वसंख्य या ॥ ११॥ शतं वृषभकूटानां । सप्तत्याधिकमाहितं ।। भवंत्येवं जूमिकूटा । नवत्याढ्यं शतयं ॥ १३ ॥ महावृ दा दश तत्र । पंच शाल्मलिसंकोः ॥ शेषा जंबूर्धात की च । पद्मश्वांत्यौ महापरौ ॥ १४ ॥ महाहदास्त्रिंशदिह । पंचाशच कुरुहृदाः ॥ भवंत्यशीतिरित्येव । हृदानां सर्व संख्यया ॥ १५ ॥ नरतादिक्षेत्रमहा-नदीकुंडानि सप्ततिः ॥ विदेहविजयस्थानि । तानि विशं शतत्रयं ॥ १६ ॥ पाठ पाठ शिखरो , तेन सर्व मळीने या मनुष्यक्षे. त्रमा एंशी थाय . ॥ १५ ॥ वळी एकसो सीतेर वृषन्न कूटो में, एवीरीते सर्व मळीने बसो नेवु ऋमिकूटो वे. ॥ ॥१३॥ महावृदो दश , ते मांथी पांच शाल्मली ना. मना अने बाकीना जंबू. धातकी, पद्म, महाधातकी अ ने महापद्म नामनां . ॥ १४ ॥ वळी अहीं बीस महा हृदो थने पचास कुरुहृदो ने, एवीरीते सर्व मळीने एंसी हृदो बे. ॥ १५ ॥ नरतादिकक्षेत्रोमानी महानदीनना सीतेर कुंडो ने, अने विदेह तथा विजयोमा रहेला त्र
सो वीस कुंमो बे, ॥ १६ ॥ धने साठ अंतर्नदीनना
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(४११) षष्टिरंतर्नदीनां स्यु-स्त्येिवं सर्वसंख्यया ॥ चतुःशतीह कुं: मानां । पंचाशदधिका नवेत् ॥ १७ ॥ भरतादिक्षेत्रगता । महानद्योऽत्र सप्ततिः॥ विदेहविजयस्थानां । तासां विंशं शतत्रयं ॥ १७ ॥ अंतर्नद्यः षष्टिरिति । परिबदजुषामिह॥ पंचाशा मुख्यसरितां । सर्वाग्रेण चतुःशती ॥१॥ सा चैव-गंगासिंधुरक्तवती-रक्ताः प्रत्येकमीरिताः ॥ पंचाशीतिस्तथा शीता-शीतोदारूप्यकूलिकाः ॥ १० ॥ वर्णकूला नरकांता । नारीकांता च रोहिता ॥ रोहितां शा हरिकांता । हर्यादिसलिलापि च ॥ २१ ॥ द्वादशां. कुंमो ने, एवी रीते सर्व मलीने ही चारसो पचास कुं. मो. ॥ १७ ॥ वळी यहीं सीतेर जरतादिकक्षेत्रोमां रहेली महानदीन ने, धने विदेह तथा विजयोमा त्रण सोने वीस नदीन ने ॥ १७ ॥ साठ अंतर्नदीन, ए. वीरीते सर्व मलीने परिवारसहित चारसो पचास मुख्यनदीन . ॥ १५॥ गंगा, सिंधु, रक्तवती बने रक्ता ए दरेक पंच्यासी नदीन , तथा शीता, शीतोदा, रूप्यकूला, ॥ २०॥ स्वर्णकूला, नरकांता, नारीकांता, रोहिता, रोहितांशा, हरिकांता बने हरिसलिला, ॥ २१॥ अने बार अंतरनदीन, ए मघळी पांच पांच , अने तेजना
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(४१३) तरनद्यश्च । पंचपंचाखिला श्माः ॥ परिवदागास्वासां । ज्ञेयाः पूर्वोक्तया दिशा ॥१॥ एवं दिसप्ततिर्लदा । अ. शीतिश्व सहस्रकाः ॥ नवंति मनुजक्षेत्रे । नद्योऽन्यस्मिन्मते पुनः ॥ २३ ॥ एकोननवतिर्लदाः । सहस्राः षष्टिः रेव च ॥ एतच्चांतरापंगानां । पृथक्तंत्रविवदया ॥ २४ ॥ दं च नदीसर्वाग्रं जंबूद्दीपगतमहानदीतुल्यपरिखाराणां धातकीखमपुष्कराधगतमहानदीनां संभावनयोक्तं. धातकी. खंडपुष्करार्धयोर्महानदीनां परिवारे जंबूद्दीपवर्तिमहानदी. परिवारापेदया द्वैगुण्यादिविशेषस्तु बृहत्क्षेत्रविचारादिषु परिवाररूप नदीन नपर कह्यामुजब जाणवी. ॥ २ ॥ एवीरीते आ मनुष्यक्षेत्रमा बहोतेर लाख एंशी हजार नदीन , अने बीजा मतमुजब तो ॥ २३ । नेवासीलाख साठ हजार नदीन ने, अने ते अंतरनदीनने जुदी गणवाथी थाय . ॥ २४ ॥ नदीननो या सरखाको जं. बूद्दीपमा रहेली महानदी सरखा परिवारवाळी धातकीखं. मथने पुष्कराधमां रहेली महानदीननी संभावनाथी कहेलो . धातकीखम बने पुष्कराधमां रहेली महान दीनना परिवारमा जंबूद्दीपमानी महानदीनना परिवारनी अपेदाये बेवमापाचादिकनो विशेष बृहक्षेत्रवि
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(४१३) कापि न दृष्टं, इति नोक्तमिति ज्ञेयं. नत्कर्षतो जिना यत्र । स्युः सप्तत्यधिकं शतं ॥ ते द्वितीयाईतः काले । विहरतोऽनवनिह ॥ २५ ॥ केवलज्ञानिनामेव-मुक न्निव कोटयः ॥ नवकोटिसहस्राणि । तथोत्कर्षण साध कः ॥ २६ ॥ जघन्यतो विंशतिः स्यु-जगवंतोऽधुनापि ते ॥ विदेहेष्वेव चत्वार-श्वत्वारो विहरंति हि ॥२७॥ ते चामी__सीमंधरं १ स्तौमि युगंधरं १ च । बाहुं ३ सुबाहुं । च सुजातदेवं ५॥ स्वयंप्रनं ६ श्रीवृषभाननाख्य 9-म. चारादिकमां क्यांय पण देखायो नथी, माटे कह्यो नथी एम जाणवू. वहीं नत्कृष्टा एकसो सीतेर जिनेश्वरो होय , अने तेन बीजा तीर्थकरना वखतमां विचरता ह. ता. ॥ २५ ॥ एवीरीते नत्कृष्टा नव क्रोम केवलज्ञानीन अने नवक्रोडहजार नत्कृष्टा साधुन त्यां ने. ॥ १६ ।। जघन्यथी हाल पण त्यां वीस जिनेश्वरो विचरे , श्रने ते महाविदेहोमां चार चार विचरे . ॥ २७ ॥ श्रने तेन नीचेमुजब .
समंधर, युगंधर, बाहु, सुबाहु, सुजातदेव, स्वयंप्र. भ, श्रीवृषनानन, अनंतवीर्य, विशालनाथ, ॥ ॥ सू.
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(४१४) नूतवीर्य च विशालनाथं ए ॥ २० ॥ सूरपनं १० व. ज्रधरं ११ च चंद्रा-ननं ११ नमामि प्रजुनद्रबाहुं १३ ॥ भुजंग १४ नेमिप्रन १५ तीर्थनाथा-वथेश्वरं १६ श्रीजि. नवीरसेनं १७ ॥ श्ए॥ स्तवीमि च महाभई १७ । श्री. देवयशसं १ए तथा ॥ बहतमजितवीर्य २० । वंदे वि. शतिमहतां ॥ ३० ॥ पंचस्वपि विदेहेषु । पूर्वापरार्धयोः किल ॥ एकैकस्य विहरतः । संजवाऊगदीशितुः ॥३१॥ दशैव विहरंतः स्यु-र्जघन्येन जिनेश्वराः ॥ इत्यूचुः सू. रयः केचित् । तत्वं वेत्ति निकालवित ॥ ३ ॥ तथोक्तं प्रवचनसारोधारसूत्रे- सत्तरिसयमुक्कोसं । जहन्नविसा रप्रन्न, वज्रधर तथा चंडाननप्रटनी हुं स्तुति करुं बु, ते. मज भऽबाहु, भुजंग, नेमिप्रन, ईश्वर तथा वीरसेनजिनेश्वरने हुं नमुं बु. ॥ २५ ॥ वळी महानऽ तथा श्री देवयशा अने अजितवीर्यप्रभुने हुं स्तवं चं, थने एवीरीते वीस जिनेश्वरोने हुं वंदन करुं बु. ॥ ३० ॥ वळी पांचे विदेहोमां पूर्वार्ध तथा पश्चिमाधमां विचरता एके का जिनेश्वरना संचवथी ॥ ३१ ॥ जघन्यपणे दशज वि.. चरता जिनेश्वरो होय , एम केटसाक श्राचार्यो कहे , बाकी तत्व केवलीमहाराज जाणे. ॥ ३१॥ तेमाटे प्रव.
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(४१५ य दस य विहरति ' इति. नक्ताऊपन्यादूनास्तु । विहरंतो नवंति न ॥ ततोऽन्येऽपि यथास्थानं । स्युर्हिस्थ्या द्यवस्थया ॥ ३३ ॥ कोटिद्वयं केवलिनो । द्वे च कोटिस हस्रके ॥ साधवः स्युर्जघन्येन । न्यूना तो भवंति न । ॥ ३४ ॥ यद्येकः केवली तेन्यः । सिध्यत्साधुर्दिवं व्रजेत् ॥ तदावश्यं नवेदन्यः । केवली प्रव्रजेत्परः ॥ ३५ ॥ च क्रिशार्षिशीरिणां च । शतं पंचशताधिकं । नत्कर्षतो जचनसारोछारसूत्रमां कडं ने के–'नत्कृष्टा एकसो सी. तेर, अने जघन्यथी वीस तथा दश जिनेश्वरो विचरे' एवीरीते जघन्यथी जे संख्या कही, तेथी जंग तो वि. चरताज नथी, अने तेथी बीजा जिनेश्वरो गृहस्थपणाआदिकनी अवस्थारूंपे पोतपोताना स्थानमां होय .॥ ॥ ३३ ॥ वळी जघन्यथी बे क्रोड केवलीन बने बेको म हजार साधुन त्यां जघन्यथी ने, तेथी जंग होतानथी. ॥ ३४ ॥ तेनमांथी जो कदाच एकाद केवली मो. क्षे जाय, अथवा एकाद साधु देवलोके जाय, तो अव. श्य बीजो केवली थाय, अने बीजो कोश् माणस दीदा ले . ॥ ३५ ॥ वळी त्यां नत्कृष्टा चक्री, वासुदेव तथा बलदेवो एकसो पचास थाय , अने जघन्यथी वीश
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(,४१६) घन्येन । ते भवंतीह विंशतिः ॥ ३६ ॥ तथोक्तं प्रवचनसारोघारे-नकोसेणं चक्कीसयं । दिवढं च कम्मऋमिसु ॥ वीसं जहनभावे । केसवसंखावि एमेव ॥ ३३ ॥ जंबू हीपप्रज्ञप्त्या थप्ययमेवानिप्रायः, श्रीसमवायांगे तु-धा. यईसंडेणं दीवे घडसहिं चक्किविजयाय अमसहिं रायः हाणीन, तब णं नकोसपए अडसहिं घरहंता समुष्पजिंसु वा, एवं चकवट्टी समुप्पकिंसु वा, एवं बलदेवा वासुदेवा समु० पुस्करदीवद्वेणं घडसहि विजया. एवं श्ररिहंता समु० जाव वासुदेवा, इत्युक्तमिति ज्ञेयं. स्यानि थाय . ॥ ३६ ॥ तेमाटे प्रवचनसारोबारमा कां ने के -कर्मऋमिनमां नत्कृष्टा दोढसो चक्रीन थाय ने, अने जघन्यथी वीश थाय , तथा वासुदेवोनी पण तेज सं. ख्या जाणवी. ॥ ३७ ॥ जंबूद्दीपपन्नत्तिनो पण तेज अ. निप्राय डे, परंतु श्रीसमवायांगमां तो-धातकीखंडदीपमां अमसठ चक्रिना विजयो अने यमसठ राजधानी. न, वळी त्यां नत्कृष्टा यमसठ अरिहंतो नपजे , एवीरीते चक्रवर्तिन बलदेवो भने वासुदेवो पण नपजे . पुष्करार्धद्दीपमां अमसठ विजयो ने, तथा एवी रीते अरिहंतोथी मांझीने नेक वासुदेवोसुधी उत्पन्न थाय ने,
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(४१७) धीनां पंचदश-शंती त्रिंशात्र सत्तया ॥ जघन्यतश्चक्रि. नोग्यं । तेषां शतमशीतियुक् ॥ ३५॥ नत्कर्षतश्वक्रि भोग्य-निधीनां पुनरेकदा ॥ पंचाशताधिकानोह । स्युः शतानि त्रयोदश ॥ ४० ॥ नत्कर्षतोऽत्र रत्नानां । स्युः शतान्येकविंशतिः॥ जघन्यतः पुनस्तेषां । द्विशत्यशीतिसंयुता ॥ ४१ ॥ पंचादैकादारनानां । चत्वारिंशं शतं न. वेत ॥ जघन्येनोत्कर्षतश्च । सपंचाशं सहस्रकं ॥ ४ ॥ शतं सप्तत्या समेतं । चक्रिजेतव्यमयः ॥ जरताद्या द. शक्षेत्री । विजयाः षष्टियुक्शतं ॥ ४३ ॥ श्रानियोगिकएम कहेलु ने ते जाणवू. सत्तारूपे त्यां पंदरसो त्रीस निधानो ने, परंतु जघन्यथी चक्रिने नपयोग थावे एवां तेमांथी एकसो एंशी . ।। ३५ ।। वळी कोश्क वख. ते त्यां चक्रिने नत्कर्षयी तेरसो पचास निधानो नपयो. गमांसावे . ॥ ४०॥ वळी यहीं नत्कृष्टां एकवीससो रत्नो होय , परंतु जघन्यथी तेन बसो एंशी होय . ॥४१॥ तेनमाथी पंचेंद्रिय तथा एकेंद्रिय रत्नो एकसो चालीस जघन्यथी होय बे, अने उत्कृष्टां एक हजारने पचास होय . ॥ ४२ ॥ वळी जरतबादिक दश क्षेत्रो, तथा एकसो साठ विजयो, मळीने एकसो सीतेर चक्रि
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( ४१८ )
विद्याभृ-नेणीनां सर्वसंख्यया || साशीतीनि षट् शतानि | विद्याभृतां पुराणि च ॥ ४४ ॥ अष्टादश सहस्राणि । शतानि सप्त चोपरि ॥ पयोध्यादिराजधान्यः । शतं सप्ततिसंयुतं ॥ ४५ ॥ द्वे पंक्ती श्द चंद्राणां । द्वे च पंक्ती विवस्वतां ॥ एकैकांतरिता एवं । चतस्र इह पंक्तयः ॥ || ४६ ॥ प्रतिपंक्ति च षट्षष्टि - संख्याकाः शशिभास्क राः ॥ सूचीश्रेण्या स्थिता जंबू — दीपेंडुरविनिः समं ॥ ॥ ४१ ॥ एवं पंत्यश्वतस्रोऽपि । पर्यटंति दिवानिशं ॥ मृगयंत्य प्रवाशेष - वंचकं कालतस्करं ॥ ४८ ॥ द्वात्रिंश
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जुने जीतवानी जमिन होय . ॥ ४३ ॥ याभियोगिक विद्याधरोनी श्रेणि सर्व मलीने छसो एंसी दोय बे, तथा विद्याधरोनां नगरो || ४४ ॥ प्रढार हजारने सातसो. बे, तथा पयोध्याच्या दिक एकसो सीतेर राजधानी
बे. ॥ ४५ ॥ वळी हीं चंडोनी बे छपने सूर्योनी पण बे पंक्ति बे, ने वीरीते एकांतरे यहीं चार पंक्ति बे. ॥ ४६ ॥ ते दरेक पंक्तिमा बास बासठ सूर्यचंद्रो बे, तथा तेन जंबूद्दीपमाना सूर्यचंद्रोनी साधे सूचिलिए रहेला . ॥ ४७ ॥ एवीरी सर्वने उगनारा कालरूपी चोरनी जाणे शोध करती होय नहि, तेम ते
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( ४१ ) शतमित्येवं । नरक्षेत्रे हिमांशवः ॥ द्वात्रिंशं शतमर्काश्चि शोनंतेऽदनतेजसः || ४ || नक्षत्राणां पंक्तयश्च । षदपंचाशद्भवेदिह || प्रतिपंक्ति च षट्षष्टिः । षट्षष्टिः स्युरुशून्यपि ॥ २० ॥ जंबूद्वीपस्थतत्तद्वैः । पंक्तत्या चरंत्यमून्यपि ॥ जंबूदीप ग्रहैः पंक्त्या | चरत्येवं ग्रहा व्यपि ॥ ५१ ॥ ग्रहापणं पंतयश्चाव 1 पट्सप्तत्यधिकं शतं । प्रतिपंक्ति च षट्षष्टिः । षट्षष्टिः स्युर्ब्रहा अपि ॥ ९२ ॥ एवं च - भा नां शतानि षत्रिंशत । षमवत्यधिकान्यथ ॥ एकादशग्रदसद - खाः शताः षोमशाश्च षट् || ३ || स्युस्ताराः कोचारे श्रेणि रात्रिदिवस जम्या करे बे. ॥ ४८ ॥ एवीरीते या मनुष्यक्षेत्रमां प्रतिकांतिवाळा एक्सो वत्रीस चंद्रो, ने एकसो बीस सूर्यो शोने वे. ॥ ४५ ॥ वळी वहीं नक्षत्रोनी उपन पंक्तिन े, छाने दरेक पंक्तिमां बास बसत नात्रो ने ॥ ५० ॥ जंबूदीपमां रहेला ते ते नवोनी साधे ते श्रेणिबंध चाले बे, ने एवीरी - ते ग्रहो पण जंबूद्दीपमाना ग्रहोनीसाथे श्रेणिबंध चाले d. ॥ ५१ ॥ वळी यहीं ग्रहोनी एकसो बहोतेर पंक्तिन बे, घने ते दरेक पंक्तिमां बासठ छासठ ग्रहो बे. ॥एशा एवीतेवीससो बन्नु नदवो घने ग्यारह
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(४२०)
टिकोट्योऽत्रा-टाशीत्या सदाकैर्मिताः ॥ सहस्रैरपि च. त्वारिं-शता शतैश्च सप्तन्निः ॥ २४ ॥ अथात्र यानि चैत्यानि । शाश्वतान्यथ तेषु याः॥ अर्हतां प्रतिमा वंदे । ताः संख्याय श्रुतोदिताः ॥ ५५ ॥ शतास्त्रयोदशैकोनपंचाशा ये पुरोदिताः ॥ गिरीणां तेषु ये पंच। मेखः प्रामिरूपिताः ।। ५६ ॥ मेरौ मेरौ काननेषु । चतुर्पु दि. क्चतुष्टये ॥ चैत्यमेकैकमेकं च । मूर्ध्नि सप्तदशेति च ॥ ॥ २७ ॥ प्रतिमाः प्रतिचैत्यं च । विशं शतमिहोदिताः॥ विदारेषु हि चैत्येषु । नवंतीयत्य एव ताः ॥ ५० ॥ प्रजार छसो शोळ ग्रहो . ॥ ५३ ॥ वळी यही अठ्या. सी लाख चालीस हजार अने सातसो कोटाकोटी तारान. ॥ ५५ ॥ हवे यहीं जे शाश्वतां चैत्यो बे, घने ते मां जे प्रतिमान , तेननी शास्त्रमा कहेली संख्या करीने हुं वंदन करूं . ॥ ५५ ॥ पूर्वे जे तेरसो नंगणपचास पर्वतो कहेला बे, तथा तेनमा पूर्वे जे पांच मे. रु निरूपण कर्या ने, ॥ ५६ ॥ ते मेरुमेरुपते चार व नोमां चारे दिशामां एकेकुं चैत्य बे, अने एक शिखरपर , एवीरीते सतर . ॥ २७ ॥ अने ते दरेक चै. त्यमा यहीं एकसो वीश प्रतिमा कहेली ने, अने ते.
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(४१) तिहारं शाश्वतेषु । यच्चैत्येष्वखिलेष्वपि॥ स्युः षट् षट् स्था. नानि तथा । ह्येकः स्यान्मुखमंम्पः ॥ एए॥ ततो रंगमंझपः स्या-त्पीठं मणिमयं ततः ॥ स्तूपस्तदुपरि चतुः
-प्रतिमालंकृतोऽनितः ॥ ६० ॥ ततोऽशोकतरोः पी । पी केतोस्ततः परं ।। ततोऽप्यग्रे नवेछापी। स्वर्वापीवामलोदका ॥ ६१ ॥ एवं त्रयाणां हाराणां । प्रतिमा दाद. शानवन् ॥ अष्टोत्तरं शतं गर्न–गृहे विंशं शतं ततः ।। ॥ ६ ॥ चतुर्दाराणां च तेषा-मर्चा हारेषु षोडश ॥ थी ते त्रणदारखाळां चैत्योमां होय . ॥ १७ ॥ ते सघनं शाश्वतां चैत्योमां दरेक द्वारमा उन स्थानो होय , बने एक मुखममप होय . ॥ २७ ॥ तेथी भागळ रंगमंडप होय , अने पी मणिमय पीठ होय , तथा तेपर चार प्रतिमा यी शोभितो स्तूप होय . ॥ ६०॥ तेथी यागळ अशोकवृदनुं पीठ होय , अने तेथी आगळ पताकार्नु पीठ होय , घने तेथी वागळ देव. लोकनी वाव जेवी निर्मल जलवाळी वाव होय ॥ ॥ ६१ ॥ एवीरीते त्रण दरवाजानी बार प्रतिमान थ. इ, अने एकसो पाठ गर्भगृहमां होय , तेथी सर्व मळी एकसो वीस प्रतिमा थर. ॥ ६॥ अने चार द्वा
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(४२)
गर्नालये साष्टशतं । चतुर्विंशं शतं ततः ।। ६३ ।। नंदी. श्वरे दिपंचाश-कुंमले रुचकेऽपि च ॥ चत्वारि चत्वारि षष्टि-स्त्येिवं सर्वसंख्यया ॥ ६४ ॥ चतुर्दाराणि चैत्यानि
शेषाणि तु जगत्त्रये ॥ विहाराण्येव चैत्यानि । विज्ञेयान्यखिलान्यपि ॥ ६५ ॥ ज्योतिष्कभवनाधीश-व्यंत. रावस्थेषु च ॥ सन्ना भिस्सहैषु स्या-त्साशीतिप्रतिमाशतं ॥ ६६ ॥ तचैवं... नपपातानिषेकाख्ये । अलंकारसनापि च ॥ व्यवखाळां ते चैत्योनां दारोमा सोळ प्रतिमान होय , अ. ने गर्नागारमा एकसो पाठ होय , तेथी सर्व मळी एकसो चोवीस होय . ६३। नंदीश्वरमां बावन, तथा कुंड ल अने रुचकमां चार चार, एम सर्व मली साठ ६४. भने ते चार झारखाळां चैत्यो बे, बाकीनां त्रणे जगतमां सघलां चैत्यो त्रण दरवाळांज जाणवां. ॥ ६५ ॥ ज्योतिष्क, नवनपति अने व्यंतरोनां यावासोमां सनामां रहे. ली प्रतिमा सहित एकसो एंसी प्रतिमान होय . ॥ ॥६६॥ ते यावी रीते___ नपपातसभा, अनिषेकसना, अलंकारसना, व्यव. सायसन्ना, अने सुधर्मासना, एरीते पांच सभा शोभे
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(४२३) सायसुधर्माख्ये । नांति पंचाप्यमूः सभाः ॥ ६७ ॥ दौरैस्त्रिनिनिनिरे । हारेऽनिश्चतसृन्निः ॥ भाति स्तूपः प्रतिसन्नं । द्वादश द्वादशेति ताः ॥ १० ॥ षष्टिः पंचानां सभाना-मिति प्रतिसुरालयं ।। प्राग्वदिशं शतं चैत्ये । त्यशीतियुतं शतं ॥ ६ए । एवमादादशवर्ग । साशीतिः प्रतिमाशतं ॥ ग्रैवेयकादिषु शतं । विशं चानुत्तरावधि ॥ ॥ ७० ॥ यय प्रकृतं-पंचानामिति मेरूणां । पंचाशी. तिर्जिनालयाः ॥ जिनार्चानां सहस्राणि । दशोपरि शत.
. ॥ ६७ ॥ तेनमानी दरेक सन्नामां त्रण त्रण हारो. वाळो, अने ते द्वारे द्वारे चार चार प्रतिमानवाळो स्तु. न शोने ने, थने तेथी ते दरेक सन्नामां बार बार प्रतिमान थ३. ॥ ६० ॥ एवीरीते दरेक देवलोकमां पांचे सन्नाननी मळी साठ प्रतिमान थर, अने पूर्व कह्यामुः जब चैत्यमां एकसो वीस होवाथी सर्व मली एकसो एं. सी प्रतिमा थ३. ॥ ६ए। एवीरीते क बारमा देवलोकसुधी एकसो एंसी एकसो एंसी प्रतिमान में, अने अवेयकादिकमां नेक अनुत्तरविमानसुधी एकसो वीस प्र. तिमान ने. ॥ ७० ॥ हवे चालती बाबत कहे -पांच मेरुनना एवीरीते पंच्यासी जिनालयो थाय ने, अने द
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(४२४) यं ॥ १ ॥ शेषेषु सर्वगिरिषु । स्यादेकैको जिनाल. यः॥ सहस्रं ते चतुश्चत्वारिंशैत्रिभिः शतैर्युतं ॥२॥ सहरेकषष्ट्याढ्यं । लदामेकं शतद्वयं ॥ अशीत्यान्यधिकं चाल । जिनार्चाः प्रणिदध्महे ॥ १३ ॥ यानि दिग्ग जकूटानि । चत्वारिंशदिहोचिरे ॥ तेष्वेकैकं चैत्यमष्टचत्वारिंशबतानि च ॥ १४ ॥ अर्चास्तत्र नमस्कुर्मो । भवेश्चैत्यमथैककं ॥ दशस्वपि कुरुष्वर्चा-शतानि द्वादशात्रच ॥ १५ ॥ जंबूप्रभृतयो येऽत्र । महावृदा दशोदिश हजारने बसो प्रतिमान थाय . ॥ ११ ॥ बाकीना सर्व पर्वतोपर एकेको जिनालय होय , घने ते एक हजार त्रणसो चमालीस थाय . ॥ ७२ ॥ एवीरीते ए. क लाख एकसठ हजार बसो एंशी प्रतिमानने हुं यहीं वंदन करुं बु. ॥ १३ ॥ वळी जे अहीं चाळीस दिग्गज पर्वतनां शिखरो कहेलां , ते पर एकेकुं चैत्य , अ. ने तेथी ते शिखरोपर सर्व मळीने अडतालीससो प्रति. मानने ॥ १४ ॥ ते प्रतिमानने अमो नमस्कार करीये छीए, वळी दशे कुरुनमा एकेकुं चैत्य , अने ते. नमां बारसो प्रतिमान . ॥ १५ ॥ वळी जे अहीं जं. बूधादिक दश वृदो कहेला , तेज दरेकमां एकसोस- .
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(४२५) ताः ॥ शतं सप्तदशं तेषु । प्रत्येकं स्युर्जिनालयाः ॥१६॥ एकस्तत्र मुख्यवृक्षे । शतमष्टाधिकं पुनः ॥ अष्टाधिके वृ. दाशते । तत्परिक्षेपवर्तिनि ॥ ७ ॥ तदिग्विदिग्वर्तिकूटेध्वेकैक ति मीलिताः ॥ एकादशशती सप्त-त्याव्या वृदजिनालयाः ॥ ७० ॥ लदमेकं सहस्राणि । चत्वारिं: शदथोपरि ॥ चतुःशती जिनार्चानां । वृक्षेषु दशसु स्तुवे ॥ ५॥ चतुःशतीह कुंडानां । या पंचाशा निरूपिता।। तत्र प्रासाद एकैकः । प्रतिमास्तत्र चाईतां ।। ७० ॥ च. तुःपंचाशत्सहस्र-मिता नमस्करोम्यहं ॥ प्राक्तनैस्त्वत्र कुं. तर जिनालयो . ॥ १६ ॥ तेमान एक मुख्यवृदामां ने, तथा तेनी आसपास रहेला एकसो पाठ वृदोमां एक सो घाउ जिनालयो . ॥ ७ ॥ वळी तेनी दिशा त. था विदिशानमा रहेलां शिखरोपर एकेकुं जिनालय , एटले सर्व मळीने ते वृदोमां रहेला अग्यारसो सीतेर जिनालयो . ॥ ७० ॥ एवीरीते ते दशे वृदोमां सर्व मळी एक लाख चालीस हजार चारसो जिनप्रतिमान, अने तेननी हुं स्तुति करुं . ॥ ए॥ वळी अहीं जे चारसो पचास कुमो कहेला , तेनमा एकेको जिनप्रा. साद ने, अने ते मां जिनप्रतिमान ॥ ७० ॥ चोपन
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(४२६) मानां । साशीतिस्त्रिशतीरिता ॥ १ ॥ पृथग्महानदीचैः त्य-सप्ततिश्च मया पुनः ॥ महानदीष्वपि कुंडे-वेवं प्रासादसंभवः ॥ ७२ ॥ संभाव्य पंचाशा । चतुःशती यदीरिता ॥ कुंमचैत्यानां तदत्र । नदीचैत्यविवदया। ॥ ३ ॥ यदि चान्यत्र कुंडेन्यो। नदीषु चैत्यसंनवः ।। तदा वृद्योक्तिरेवास्त । प्रमाणं नाग्रहो मम ॥४॥श. शीतिहदचैत्यानि । प्रत्येकमेकयोगतः ॥ धर्चा नव सह. स्राणि । तेषु वंदे शतानि षट् ॥ १५ ॥ एवं मनुष्यक्षेहजार , तेजने हुं नमस्कार करुं बुं, परंतु पूर्वाचार्योए तो त्यां त्रणसो एंशी कुंमो कहेला ने. ॥१॥ श्रने म. हानदीनना सीतेर चैत्यो जूदां कह्यां ने, अने में ते म. हानदी बने कुंडोना प्रासादो साथे कह्या बे, तेथी न. परनी संख्या मळी यावे . ॥ ७२ ॥ एम विचारीने ते कुंडचैत्योनी जे चारसो पचासनी संख्या कही , ते थ. ही नदीननां चैत्योने साथे लेने कहेली . ॥ ३ ॥ वळी जो कुंमोशिवाय नदीमां चैत्यो होय, तो ते वृ घोनुं वचन सुखेथी प्रमाणत थानं, तेमां मने अाग्रह नथी. ॥ ॥ दरेक हृदमां एकेकुं लेखवाथी एंशी हृ. दोनां चैत्यो बे, तथा तेनमा रहेली नव हजार अने उ.
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(४२७) त्रेऽस्मिंश्चैत्यानां सर्वसंख्यया ॥ शतानि सैकोनाशीती -न्येकत्रिंशद्भवंति हि ॥ ६ ॥ लदास्तिस्रो जिनार्चानां । तथैकाशीतिमेषु च ॥ सहस्राणि नमस्यामि । सॉशी. तिं च चतुःशती ॥ ७ ॥ नरक्षेत्रात्तु परत-श्चत्वारि मा. नुषोत्तरे ॥ नंदीश्वरेऽष्टषष्टिश्च । रुचके कुंमलेऽपि च ॥ ॥ ॥ चत्वारि चत्वारि चैत्या-न्यशीतिरेवमत्र च ॥ सहस्राणि नवार्चानां । चत्वारिंशाष्टशत्यपि ॥ ए॥ एवं च तिर्यग्लोकेऽस्मिं–श्चैत्यानां सर्वसंख्यया ॥ सहस्राणि वीणि शत-द्वयी चैकोनषष्टियुक् ॥ ५० ॥ सहस्राण्येसो प्रतिमानने हं वंदन करुं बु. ॥ ५॥ एवीरीते या मनुष्यक्षेत्रमा सर्व मळीने नंगणाएंसीसो एकत्रीस चैत्यो . ॥ ७६ ॥ अने तेनमांत्रण लाख एकाशी हजार चारसो एंसी प्रतिमानने हुं वंदन करुं बु. ॥ ७ ॥ म. नुष्यक्षेत्रथी आगळ चार मानषोत्तरपर्वतपर, घडसत्र नं दीश्वरदीपमां, तथा रुचक बने कुंडलमां ॥ 1 ॥ चार चार चैत्यो बे, एवीरीते सर्व मली एंसी चैत्यो बे, अने तेमां नव हजार पाठसो चालीस प्रतिमान . || एवीरीते या तीर्ग लोकमां सर्व मळीने त्रण हजार बसो नंगणसाठ चैत्यो . ॥ ५० ॥ तथा ते ती लोकमां
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(४०) कनवतिं । लदास्तिस्रः शतत्रयं ॥ विंशमत्र जिनार्चानां । तिर्यग्लोके नमाम्यहं ॥ १ ॥ ज्योतिष्काणां व्यंतराणा -मसंख्येयेष्वसंख्यशः ॥ विमानेषु नगरेषु । चैत्यान्यचर्चाश्च संस्तुवे ॥ ए॥ अधोलोकेऽपि नवना-धीशा. नां सप्त कोटयः ॥ सदा दिसप्ततिश्चोक्ता । नवनानां पु. रात्र याः ॥ ए३ ॥ प्रत्येकं चैत्यमेकैकं । तत्रेति सप्त को. ट्यः ॥ सदा दिसप्ततिश्चाधो-लोके चैत्यानि संख्यया ॥ए। ॥ त्रयोदश कोटिशतान्येकोननवति तथा ॥ कोटीः षष्टिं च लदाणि । तत्रार्चानां स्मराम्यहं ॥ ५ ॥ रहेली त्रण लाख एकाणु हजार त्रणसो वीस जिनप्रतिमाउने हं वंदन करूं बु.॥ १ ॥ ज्योतिष्क घने व्यं. तरोनां असंख्याता विमानोमां तथा नगरोमां रहेली असंख्याती जिनप्रतिमाननी हुं स्तुति करुं बु. ॥ ७ ॥ वळी अधोलोकमां पण पूर्व जे यहीं सात क्रोड अने बहोतेर लाख जुवनपतिननां भुवनो कहेला ने, ॥३॥ तेन दरेकमां एकेकुं चैत्य , थने तेथी ते मां सर्व मली अधोलोकमां सात क्रोम धने बहोतेर लाख चैत्यो . ॥ ए ॥ थने ते चैत्योमा रहेली तेरसो नेव्यासी क्रोड साठ लाख जिनप्रतिमानुं हुं स्मरण करुं बु. ॥
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( ए) ऊर्ध्वलोकेऽपि सौधर्मा-प्रभृत्यनुत्तरावधि ॥ विमानसं. ख्या चतर-शीतिलदाणि वक्ष्यते ॥ ६ ॥ सहस्राः स. सनवति-स्त्रयोविंशतिरेव च ॥ तावत्येवात्र चैत्यानि । प्र. त्येकमेकयोगतः ॥ ७ ॥ एक कोटिशतं पूर्ण । पिं. चाशच कोटयः ॥ लदैश्चतुर्नवत्याढ्याः । सहस्रैरपि सं. युताः ।। १७ ॥ चतुश्चत्वारिंशतैः । षष्ट्याढ्यैः सप्तन्निः शतैः ॥ अर्चयामो जिनार्चाना-मूर्ध्वलोके सुरार्चिताः॥ ॥ लक्षाणि सप्तपंचाश-दित्येवमष्टकोटय ॥ त्रैलोक्ये नित्यचैत्यानां । सत्यशीति शतद्दयं॥ ३००।। ॥ ए॥ ऊर्ध्व लोकमां पण सौधर्मदेवलोकथी मांडीने क अनुत्तरविमानसुधी चोर्यासी लाख विमानोनी संख्या . ॥ ६ ॥ तथा तेनपर सताणु हजार अने त्रे वीस विमानो , अने तेन दरेकमां एकेक चैत्य हो. वाथी तेटलां जिनालयो . ॥ ए॥ अने ते मां ए. कसो बावन क्रोम, चोराणु लाख ॥ ॥ चमालीस ह. जार, सातसो अने साठ प्रतिमा , के जे ऊर्ध्वलोकमां देवोवडे पूजायेली , तेजनी अमो पूजा करीये जीये. ॥ एए ॥ एवीरीते त्रणे लोकमां पाठ क्रोम स. तावन लाख बसो ब्यासी शाश्वतां जिनचैत्यो . ॥३०॥
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९.५३०) कोटीशतानीह पंच-दशोपरि च कोटयः॥ दिचत्वारिंशदेवाष्ट-पंचाशबदसंयुताः ॥ १॥ सहस्राणि च षत्रिंश-साशीतिनि जगतत्रये ॥ नौमि नित्यजिनार्चानां । । करवै सफलं जनुः ॥२॥ नत्सेधांगुलनिष्पन्न-सप्तहस्तमिताः खलु ॥ शाश्वत्यः प्रतिमा जैन्य । ऊर्ध्वाधोलोकयोर्मताः ॥३॥ तिर्यग्लोके तु निखिला-स्ताः पंचभिर्धनुः शतैः ।। मिता निरूपितास्तत्व-परिवेदपयोधिभिः॥मातथाहुः-नस्सेहमंगुलेणं । यह नढमसेससत्तरयणी ॥ भने ते मां पंदरसो बेतालीस क्रोड, अठावन लाख, ।। ॥१॥ छत्रीस हजार अने एंसी त्रणे जगतमां मळीने शाश्वती जिनप्रतिमान , तेनने हुं नमन करुं बु, तथा मारो जन्म सफल करुं बु.॥२॥ ते ऊर्ध्व तथा
धोलोकमां नत्सेधांगलना मापवाळा सात हाथाना प्रमाणवाळी शाश्वती जिनप्रतिमान मानेली . ॥३॥ अने तीर्गलोकमां तो ते सर्व प्रतिमानने नत्सेधांगुल. ना मापवाळा पांचसो धनुषना प्रमाणवाळी तत्वज्ञानना समुऽरूप केवलज्ञानीनए कहेली बे. ॥४॥ कहुं ने के–नत्सेधांगुलना प्रमाणवडे ऊर्ध्व बने अधोलोकमां रहेली प्रतिमा सात हाथनी ने, अने तीर्गलोक
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(४३१) तिरिलोए पणधाणुसय । सासयपडिमा पणिवयामि ॥५॥ राजप्रश्नीयोपांगवृत्तौ सूर्याप्नविमाने तु-जिगुस्सेहपमाणमेत्ता संपलियंकनिसन्नान' अस्य व्याख्याने जि नोत्सेधप्रमाणमात्राः, जिनोत्सेध नत्कर्षतः पंचधनुःशता नि, जघन्यतः सप्त हस्ताः, श्द तु पंचधनुःशतानि संना. व्यते इत्युक्तमिति ज्ञेयं. वैमानिकविमानेषु । दीपे नंदीश्वरेऽपि च ॥ कुंडले रुचकहीपे । प्रासादा ये स्युरईतां॥ ॥६॥ योजनानां शतं दीर्घाः । पंचाशतं च विस्तृताः ।। मानी ते शाश्वती प्रतिमान पांचसो धनुषना प्रमाणवाळी बे, तेनने हुं प्रणाम करुं बु.॥५॥ रायपसेणी नपां. गनी टीकामां सूर्याभना विमानमां तो 'जिननी तुंचा जेटला प्रमाणवाळी पव्यंकासने बेठेली' (एवो पाठ) अने तेनी टीकामां जिननी चाश्ना प्रमाणजेवमी, तथा जिननी जंचाइ नत्कर्षथी पांचसो धनुषनी ने, अने जघन्यथी सात हायनी जे. अने यहीं तो पांचसो धनुष संनवे ने, एम कहां बे, एम जाणवु. वैमानिकदेवोना विमानोमां, नंदीश्वरद्दीपमां, कुंमल तथा रुचकद्वीपमां अ. रिहंतप्रजना जे प्रासादो बे, ॥ ६ ॥ तेन एकसो जोज न लांबा, पचास जोजन पहोला तथा बहोतेर जोजन
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(४३) उत्तुंगाः कथिताः प्राझै-योजनानां हिसप्तति ॥ ७ ॥ देवकुरूत्तरकुरु-सुमेरुकाननेषु च ॥ वदास्कारधरेषु । गजदंताचलेष्वपि ॥ ॥ इषुकारादिषु वर्ष-धरेषु मा. नुषोत्तरे ॥ असुराणां निवासेषु । ये प्रागुक्ता जिनालयाः ॥५॥ पंचाशतं योजनानि । दीर्घास्तदर्धविस्तृताः ॥ पदत्रिंशतं योजनानि । ते चोत्तुंगाः प्रकीर्तिताः॥१०॥ नागादीनां निकायानां । नवानां नवनेषु ये ।। जिनालया योजनानां । दीर्घास्ते पंचविंशतिं ॥ ११ ॥ तानि हादश सार्धानि । पृथवोऽष्टादशोबिताः॥ त्रिधाप्येतदर्धमा नंचा विद्वानोए कहेला ने. ॥ ७॥ वळी देवकुरु तथा उत्तरकुरुमां, मेरुपर्वतना वनोमां, वदस्कारपर्वतोमां, गजदंतपर्वतोमां, ॥ ७ ॥ षुकारपर्वतोमां, वर्षधरपर्वतोमां, मानुषोत्तरपर्वतपर, तथा असुरोना निवासस्थानोमां पूर्व जे जिनप्रासादो कहेला . ॥ ए॥ तेन पचास जोजन लांबा, तेथी अर्धा पहोळा, अने उनीस जोजन नं. चा कहेला . ॥ १० ॥ वळी नागयादिक नव निकाः योना नवनोमां जे जिनालयो , ते पचीस जोजन लांबा ने, ॥ ११ ॥ तथा सामावार जोजन पहोल ,श्र ने अढार जोजन नंचा ने, अने व्यंतरोना अावासमा:
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( ४३३ )
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ना | व्यंतराणां जिनालयाः || १२ || ज्योतिष्कगतचैत्यानां । न मानमुपलभ्यते ॥ प्रायः काप्यागमे तस्मा — दस्मानिरपि नोदितं || १३ || येऽथ मेरुचूलिकासु । तथैव यमकाडिषु ॥ कांचनादिदीर्घवृत्त - वैताढ्येषु हृदेषु च ॥ १४ ॥ तथा दिग्गजकूटेषु । जंब्वादिषु डुमेषु च ॥ प्रागुक्तेषु च कुंडेषु । निरूपिता जिनालयाः ॥ १५ ॥ क्रोशार्धपृथुलाः कोश - दीर्घाश्वापशतानि च ॥ चत्वा - रिंशानि ते सर्वे । चतुर्दश समुन्त्रिताः ॥ १६ ॥ चैत्यानि यानि रचितानि जिनेश्वराणा - मन्यान्यपीह भरतप्रमुखैहेलां ते जिनमंदिरो त्रणे प्रकारे तेथी स्पर्ध प्रमाणवाळां बे ॥ १२ ॥ ज्योतिष्कना विमानोमा रहेलां जिनमंदि रोनुं प्रमाण प्रायें करीने क्यांय पण यागममां मलतुं न थी, यने तेथी मोए पण ते कहेल नथी. ॥ १३ ॥ वळी मेरुनी चूलिकानंपर, यमकाचलोमां, कांचनानि पर, दीर्घ तथा वृत्तवैताव्योमां ने हृदोमां ॥ १४ ॥ तथा दिग्गजांना शिखरोपर, जंबूयादिक वृक्षोमां, धने पूर्वे कहेला कुंमोमां जे जिनालयो कहेलां बे, ॥ १५ ॥ तेन पर्थो कोश पहोळा, एक कोश लांबा तथा चौदसो चालीस धनुष लंचा बे ॥ १६ ॥ वळी भरतव्यादिकोए
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' (४३४) जगत्यां ॥ तेष्वाईतीः प्रतिकृतीः प्रणमामि नत्या । त्रै कालिकीस्त्रिकरणामलतां विधाय ॥ १७ ॥ विश्वाश्चर्यद. कीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेंद्रांतिष-डाजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः ॥ काव्यं यकिल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे । सर्गोऽग्न्यदिमितः समाप्तिमगमत्पीयूषसारोपमः ॥ १० ॥ इति श्रीलोकप्रकाशे त्रयोविंशतितमः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥ था जगतमां जिनेश्वरोनां जे बीजां चैत्यो बनावेलां बे, तेनमा रहेली त्रिकालसंबंधी श्रीजिनेश्वरनी प्रतिमानने हं मन वचन अने कायानुं निर्मलपणुं करीने भक्तिपूर्व क नमस्कार करुं बु. ॥ १७ ॥ जगतने अाश्चर्य खापना. रीने कीर्ति जेमनी एवा श्रीकीर्तिविजयजी.वाचकेंद्रना शिष्य, तथा राजश्री अने श्रीतेजपालना पुत्र एवा श्री. विनयविजयजी महाराजे निश्चित थयेला जगतना तत्व. ने प्रकाशवामां दीपकसमान एवं जे या काव्य रच्युं ने, बे, तेमां अमृतना सारसरखो या त्रेवीसमो सर्ग समाप्त थयो. ॥ १० ॥ एवीरीते श्रीलोकप्रकाशमां त्रेवीसमो सर्ग समाप्त थयो. ॥ श्रीरस्तु.॥
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( ४३५) ॥ अथ चतुर्विंशतितमः सर्गः प्रारन्यते ॥ .
परस्मिन् पुष्कराधेऽथ । मानुषोत्तरशैलतः ।। परतः स्थिरचंद्रार्क-व्यवस्था प्रतिपद्यते ॥ १॥ दीपार्णवेषु स. वैषु । मानुषोत्तरतः परं ॥ ज्योतिष्काः पंचधापि स्युः । 'स्थिराश्चंद्रार्यमादयः ॥२॥ स्थिरत्वादेव नदन-योगो ऽप्येषामवस्थितः ॥ चंद्राः सदानिजियुक्ताः । सूर्याः पुष्प समन्विताः ॥ ३॥ तथोक्तं जीवाभिगमसूत्रे-बहिया माणुसनगस्स । चंदासूराणवाया जोगा ॥ चंदा बनी.
॥ हवे चोवीसमा सर्गनो प्रारंन थाय ने.॥
हवे बीजा पुष्कराधमां मानुषोत्तरपर्वतथी पागल स्थिर रहेला सूर्यचंद्रनी व्यवस्था कहे . ॥ १॥ मानु. षोत्तरपर्वतथी श्रागळ सघळा द्वीपसमुप्रोमां चंद्रसूर्ययादिक पांचे प्रकारना ज्योतिष्को स्थिर होय . ॥२॥ वळी तेन स्थिर होवाथी तेनुनो नदात्रसाथेनो योग प. ण निश्चल थयेलो ने, जेमके चंद्रो हमेशां अग्निजितनदात्रयुक्त होय . अने सूर्यो पुष्पनदात्रयुक्त होय . ॥३॥ तेमाटे जीवानिगमसूत्रमा कडं जे के–मानुषो. त्तरपर्वतथी बहार चंद्रसूर्योना योगो निश्चल थयेला ने, एट्लेके चंद्रो अभिजितनदात्रसहित ने, अने सूर्यो पुष्प
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(४३६ ) जुत्ता । सूरा पुण होंति पुस्सेहि ॥ ४ ॥ गिरिकूटावस्थिताना–मेतेषामंतरं द्विधा ॥ तद्रवींदोरेकमन्य-दिहोस्तथार्कयोर्मिथः ॥ ५ ॥ योजनानां सहस्राणि । पंचाशत्तत्र चादिम ॥ द्वितीयं तु योजनानां । लदं साधिकमंतरं ॥ ६ ॥ इदमर्थतो जीवानिगमसूत्रचंद्रप्राप्तिसूत्रादिषु. साधिकत्वं तु पूर्वोक्तं । चंद्रार्कातरमीलने ॥ तन्म ध्यवर्तिसूर्यदु-बिंबविष्कंनयोगतः ॥ ७॥ तथोक्तं'ससिससिरविरविसाहियं । जोधणलखण अंतरं हो।' नदात्रसहित होय . ॥ ४ ॥ पर्वतोना शिखरोपर रहेला एवा ते नुं अंतर बे प्रकारनुं बे, तेमानुं एक सूर्यचंद्रनु, घने बीजु बे चंद्रोनु तथा बे सूर्योर्नु परस्पर बे. ॥ ५॥ तेमानुं पहेबु पचास हजार जोजनन , अने बीजु कइंक अधिक एक लाख जोजन- जे. ॥ ६॥ या ना. वार्थ जीवाभिगमसूत्र अने चंद्रपन्नत्तिसूत्रादिकमां ने. चं. द्रसूर्यना अंतरना सरवाळामां पूर्व जे कइंक अधिकपाणु कां बे, ते वच्चे रहेला सूर्यचंद्रना बिंबनी पहोळाश्ना योगथी जे.॥७॥ तेमाटे कयुंजे के-चंद्र चंद्र बने सर्यसूर्यवच्चनुं अंतर कक अधिक एक लाख जोजननु होय . सूर्य चंद्रयी अंतरित थयेलो, बने चंद्र सू.
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(४३७) इति. शशिनांतरितो जानु-ानुनांतरितः शशी ॥ राकानिशांतवच्चित्रां-तरास्ते चंद्रिकातपैः ॥ ७ ॥ तत एव चित्रलेश्याः । शैत्योष्ण्यादंतरांतरा ॥ वाग्मिनो वाक्यसं. दर्जा-दिवानुनयकांक्षिणः ॥ ५ ॥ चंद्रास्तत्र सुखलेश्या । नात्यंतं शीतलत्विषः ॥ मनुष्यलोके शीतर्जु-नावि. पीयूषनानुवत् ।। १० ॥ भानवोऽपि मंदलेश्या । नत्वती. वोष्णकांतयः ॥ नरक्षेत्रे निदाघर्तु-नावितिग्मांशुबिंबवत् ॥ ११ ॥ एषां प्रकाश्यक्षेत्राणि । विष्कंजाबदमेककं।। यथा अंतरित थयेलो , एवीरीते तेन पूर्णिमा तथा प्रनातनीपेठे चांदनी थने तडकाथी विचित्र अंतरवाळा . ॥ ७ ॥ अने तेथीज वाक्यना संदर्भयी समजावटनी श्वावाळा वाचाळपुरुषोनीपेठे बच्चे बच्चे शीतलता तथा नष्णताथी तेन विविध लेश्यावाळा . ॥ ए॥ त्यांना चंद्रो मनुष्यलोकमाना शियानना चंद्रनीपेठे अत्यंत शीतलकांतिवाळा होता नथी, परंतु सुखलेश्यावाळा .॥ ॥ १० ॥ वळी त्यांना सूर्यो पण मनुष्यक्षेत्रना ननाळाना सूर्यना किंवनीपेठे यतिनष्णकांतिवाळा होता नथी, परंतु मंदलेश्यावाळा होय . ॥ ११ ॥ तेनथी प्रकाशित थतां क्षेत्रनी पहोळा एक लाख जोजननी , तथा लं.
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(३०) योजनानामनेकानि । लदाण्यायामतः पुनः ॥ १२॥ प. क्वेष्टकाकृतीन्येवं । चतुरस्राणि यद्भवेत् ॥ पक्वेष्टका चतुःकोणां । बह्वायामाल्पविस्तृतिः ॥ १३ ॥ तथार्जबूढीपप्राप्तिसूत्रे-बहियाणं ते माणसुत्तरस्स पचयस्स जे चंदिम जाव ताराख्वा तं चेव णेयत्वं णाणत्तं णो विमा "णविवष्णगा णो चारठिया णो गईरश्या पक्किठगसंगणसंठियेहिं जोषणसयसाहस्सिएहिं ताव खित्तेहिं जावन नासंति. इनमेतड़ीवाभिगमसूत्रवृत्त्योरपि. जंबूद्दीपप्रज्ञ बाइबनेकलाख जोजननी . ॥ १५ ॥ अने तेथी ते क्षेत्रो पकावेली इंटना आकारजेवां चोखमां थाय बे, अने ते पकावेली इंट लंबाश्मां वधारे, तथा पहोळाश्मां नजी चारखुणावाळी होय . ॥ १३ ॥ तेमाटे जंबूद्दीप. पन्नत्तिसूत्रमा कहुं ने के–मानुषोत्तरपर्वतनी बहार चंद्रथी मामीने तारानेसुधीना ज्योतिष्कोसंबंधि विचित्रता जाणवी, केमके तेन विमानोना नपवर्णवाळा होता न थी, चारस्थितिवाळा नथी, तथा तेनने गति नथी, परंतु पकावेली इंटजेवा याकारवाळां क्षेत्रने लाखो जोजनसु. धी प्रकाशे . वळी एवीजरीते जीवानिगमसूत्र तथा तेनी टीकामां पण जे. जंबूद्दीपपन्नत्तिनी वृत्तिमां तो तेमाटे
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(४३७ ) प्तिवृत्तौ त्वेतदेवं जावितं, तथाहि-श्यमत्र नावनामानुषोत्तरपर्वताद्योजनलदार्धातिकमे करणविभावनोक्तः करणानुसारेण प्रथमा चंद्रसूर्यपंक्तिस्ततो योजनलदाति. क्रमे द्वितीया पंक्तिस्तेन प्रथमपंक्तिगतचंद्रसूर्याणामेतावां स्तापक्षेत्रस्यायामः, विस्तारश्च एकसूर्यादपरसूर्यो लक्ष्योजनातिक्रमे, तेन लदायोजनप्रमाणः, श्यं च नावना प्र. थमपंत्यपेक्षया बोधव्या. एवमग्रेऽपि नाव्यमित्यादि. एवं चात्र पूर्वोक्तं विविधमंतरं कथं संगते ? तथातपक्षेत्रं नीचेमुजब कह्यं -ते कहे जे-अहीं भावीरीते ना. वना-मानषोत्तरपवेती पधौ लाख जोजन नळं ग्यावाद करणविनावनामां कहेला करणने अनुसारे चं. असूर्यनी पहेली पंक्ति में, पनी एक लाख जोजन नळं. ग्याबाद बीजी पंक्ति ने, अने तेथी पहेली पंक्तिमा रहे. ला चंडसूर्योना तापक्षेत्रनी तेटली लंबाने, धने पहोबइ तो, एक सूर्यथी बीजो सूर्य लाख जोजन दुर हो. वाथी, एक लाख जोजनना प्रमाणनी ने. अने या भा. वना पहेली पंक्तिनी अपेक्षाये जाणवी, अने एवीरीते वागळ पण नावी लेवू, इत्यादि. अने एवीरीते पूर्व कहे बे प्रकारचें अंतर शीरीते मली शके? तथा तापक्षे.
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(४०) निनमतेन अंतरं च भिन्नमतेन, तदपि कथं युक्तमित्या दि बहुश्रुतेभ्यो भावनीयं. .
अस्मिन्नर्धे संख्ययार्का-चंद्राश्च स्युईिसप्ततिः॥ ही. पे संपूर्णेऽत्र चतु-श्चत्वारिंशं शतं हि ते ॥ १४ ॥ तथाहि-कालोदवार्धराज्य । संख्यां शीतोष्णरोचिषां ॥ निश्चेतुमेतत्करणं । पूर्वाचार्यैः प्ररूपितं ॥ १५ ॥ विवदि. तदीपवाधौं । ये स्युः शीतोष्णरोचिषः ॥ त्रिघ्रास्ते प्राक्तनैर्जबू-दीपादिद्दीपवार्षिगैः ॥ १६ ॥ सूर्येऽनिर्मीलिताः व पण जूदे मते , अने अंतर पण जूदे मते , ते पण केम युक्तिवाछं थाय ? इत्यादि बहुश्रुतोपासेथी भा. वी लेवं.
द्वीपना था अर्धनागमा सूर्यो तथा चंद्रो बहोतेर ने, भने संपूर्णदीपमां ते एकसो चमालीस . ॥ १४ ॥ ते कहें जे–कालोदधिसमुऽथी मांडीने चंद्रसूर्योनी संख्यानो निश्चय करवामाटे पूर्वाचार्योए नीचेमुजब करण कहेबु जे. ॥ १५ ॥ या विवादित दीपसमुद्रमा जे चंद्रसू. यो , तेनने त्रणगणा करीने तेमां जंबूहीपादिकद्वीपसमुद्रमा रहेला ॥ १६ ॥ सूर्यवंडोने साथे मेळ्ववाथी जेटला चंडसूर्यो थाय, तेटला चंजसूर्यो यागळ बाग
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(४४१) स्यु-यावंतः शशिभास्कराः ॥ अनंतरानंतरे स्यु- पे तावंत एव ते ॥ १७ ॥ चतुश्चत्वारिंशमेवं । शतं स्युः पु. करेऽखिले ॥ योस्तदर्धयोस्तस्माद्-दिसप्ततिर्दिसप्ततिः।। ॥ १० ॥ एवं शेषेष्वपि हीप-वार्षिविंदुविवस्वतां ॥ श्रनेनैव कारणेन । कार्यः संख्याविनिश्चयः ॥ १५ ॥ यतो मूलसंग्रहण्यां । तथा क्षेत्रसमासके ॥ सर्वदीपोदधिगताकेंदुसंख्यानिधायकं ॥ २० ॥ करणं ह्येतदेवोक्तं । जिन भद्रगणीश्वरैः ॥ न चोक्तमपरं किंचि-करुणावरुणाल यैः ॥ २१ ॥ तथा च मूलसंग्रहणीटीकायां हरिनऽसूरिः ना दीपमां जाणवा. ॥ १७ ॥ एवीरीते संपूर्ण पुष्करद्दीपमा एकसो चमालीस सूर्यचंद्रो थाय, थने तेथी तेना बन्ने अर्धभागमां बहोतेर बहोतेर चंडसूर्यो होय . ॥ ॥ १७ ॥ एवीरीते बाकीना द्वीपसमुप्रोमां पण आज रीतिथी तेजनी संख्यानो निश्चय करवो, ॥ १५ ॥ केमके मूलसंग्रहणीमां तथा क्षेत्रसमासमां सघला दीपसमुडोमां रहेला सूर्यचंद्रोनी संख्या जणावनातं ॥ २०॥ याजक रण करुणाना स्थानरूप श्रीजिननष्गणीदमाश्रमणे क. हे बे, परंतु बीजी को रीति कहेली नथी. ॥ २१ ॥ वळी तेमाटे मूलसंग्रणीनी टीकामां श्रीहरिभद्रसूरिजी क.
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(४४२) -एवं णंतराणंतरे खित्ते पुस्करदीवे चोयालं चंदसयं ह. वश्, एवं शेषेष्वप्यमुनोपायेन चंद्रादिसंख्या विज्ञेयेति. युक्ता चेयं व्याख्या चंद्रप्रझसौ सूर्यप्रझतौ जीवानिगमे च सकलपुष्करवरदीपमाश्रित्येवमेव चंद्रादिसंख्यानिधानात, तथाहि तद्ग्रंथाः-पुकरवरदीवेणं नंते दीवे केवश्या चंदा पनासिसु वा पभासंति वा पत्नासिस्संति वा ? गो० चोयाल चंदसयं पभासिंसु वा पजासंति वा पभासिस्संति वा. चोयालं सूरियाण संयं तविंसु वा तवंति वा तविस्स्हे ने के–एवीरीते अनंतरानंतर क्षेत्रमा पुष्करद्दीपमां एकसो चमालीस चंद्रो होय , अने एवीरीते बाकीना दीपोमां पण आज नपायथी चंद्रादिकनी संख्या जाणवी. वळी चंद्रपन्नत्ति, सूर्यपन्नत्ति तथा जीवानिगममां संपू. र्ण पुष्करवरद्दीपने धाश्रीने यावीजरीते चंद्रादिकनी संख्या कहेली होवाथी या व्याख्या युक्त ने. तेमाटे ते ग्रंथोना पाठो कहे -हे नगवन् ! पुष्करवरद्दीपमां केट: ला चंडो प्रकाशता हता? केटला प्रकाशे ? अने के टला प्रकाशशे ? (नगवान कहे जे के) हे गौतम! ए. कसो चमालीस चंद्रो प्रकाशता हता, प्रकाशे , अने प्रकाशशे, तेमज एकसो चमालीस सूर्यो तपता हता,
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(४४३) तिवा. इत्यादि. तथा तस्मिन्नेवार्थ सूर्यप्रझसौ संग्रहणी. गाथाः-चोयालं चंदसयं । चोयालं चेव सूरियाण सयं ॥ पुस्करवरंमि दीवे । चरंति एए पगासंता ॥ १॥ चत्तारि सहस्साशं । बत्तीसं चेव होति नकत्ता ॥ छच्च सया बावत्तर । महागहा बारससहस्सा ॥२॥ बन्नन सयस हस्सा । चोयालीसं नवे सहस्साई॥ चत्तारिं च सया । तारागणकोडिकोमीणं ॥ ३ ॥ ज्योतिष्करंमकेऽप्याहुःधायसंडप्पभिई । नदिछा तिगुणिया भवे चंदा ॥था. श्लचंदसहिया । ते हंति अणंतरं परनं ॥ ४ ॥ पार तपे ने, अने तपशे, इत्यादि. वळी तेज भावार्थमाटे सूर्यपन्नत्तिमां नीचेमुजब संग्रहणीनी गाथा -एक सो चमालीस चंद्रो, तया एकसो चमालीस सूर्यो प्रका. श करताथका पुष्करदीपमां विचरे . ॥१॥ चार ह. जार घने बत्रीस नदात्रो , तथा बार हजार सोने बहोतेर महाग्रहो . ॥२॥ बन्नु लाख चमालीस हजार अने चारसो कोटाकोटी ताराने .॥३॥ ज्योतिष्कर। मकमां पण कडं ने के-धातकीखंडादिकनी अपेदाये तेथी त्रणगणा अने तेमां प्रथमना चंद्रो मेलवीये तेटली संख्याना चंद्रो तेथी गाडी होय . ॥ ४ ॥ ते
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(४४४) चाणंपि भवे । एमेव विही अणेण कायवा ॥ दीवेसु समुद्देसु थ । एमेव परंपरा जाण ॥ ५॥ धनंतरं नरक्षेत्रा-सूर्यचंद्राः कथं स्थिताः ॥ तदागमेषु गदितं । सांप्रतं नोपलन्यते ॥२॥ केवलं चंडसूर्याणां । यत्प्रा. कथितमंतरं ।। तदेव सांप्रतं चंड-प्रज्ञप्त्यादिषु दृश्यते ॥३॥ तथोक्तं चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रे जीवानिगमसूत्रे चचंदाजे सूरस्स य । सूराचंदस्स अंतरं हो ॥ पन्नाससह. स्सा। जोषणाणं बाणाई॥ १॥ सूरस्स य सूरस्स य । ससिणो मसिणो य अंतरं दिऊँ । बहिया माणुस. मज सूर्योनी संख्यानी गणतरी पण तेज विधिपूर्वक करी लेवी, हीपो तथा समुडोमां पण तेज परंपरा जाणवी. ॥ ५ ॥ मनुष्यक्षेत्रथी श्रागळ सूर्यचंडो केम रह्या होशे? तेमाटे यागमोमां खुलासो कहेलो होशे, परंतु हालमां ते मळी शकतो नथी. ॥ २२॥ केवल चंडसूर्योर्नु पूर्वे जे अंतर कहेबु , तेज हालमां चंद्रपन्नत्तियादिकमां देखाय . ॥ २३ ॥ तेमाटे चंद्रपन्नत्तिसूत्र तथा जीवानिगमसूत्रमा कां ने के-चंऽथी सूर्यन अने सूर्यथी चंद्रनुं अंतर संपूर्ण पचास हजार जोजन- होय . ॥ ॥१॥ तेमज मानुषोत्तरपर्वतथी बहार सूर्यथी सूर्य- अ
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(४४५) नगस्स । जोयणाणं सयसहस्सं ॥२॥ सूरंतरिया चंदा । चंदंतरिया य दिणयरा दिठ्ठा ॥ चित्तंतरलेसागा । सु. हलेसा मंदलेसा य ॥ ३ ॥ ततश्व-एषां संन्नाव्यते चं द्र-प्रझप्त्याद्यनुसारतः ॥ सूचीश्रेण्या स्थिति:व । श्रेण्या परियाख्यया ॥२४॥ तथोक्तं जीवाभिगमवृत्तौ सूर्यसूर्या तरसूत्रव्याख्याने-एतच्चैवमंतरपरिमाणं सूचीश्रेण्या प्रति. पत्तव्यं, न वलयाकारश्रेण्यति, संग्रहणीलघुवृत्तेरप्ययमेवा भिप्रायः. यथागमं नावनीय-मन्यथा वा बहुश्रुतैः ।। ने चंद्रथी चंद्रनुं अंतर एक लाख जोजननुं . ॥२॥ सूर्योनी बच्चे चंडो, अने चंद्रोनी बच्चे सूर्यो कहेला ने, तेमज तेन विचित्रांतरलेश्यावाळा एटले सुखलेश्यावान तथा मंदलेश्यावाळा ॥३॥ अने तेथी-चंद्रपन्नत्ति यादिकने अनुसारे तेनुनी स्थिति सूचीश्रेणिथी संभवे बे, परंतु वलयाकारश्रेणियी संभवती नथी. ॥ २४ ॥ ते माटे सर्यसर्यवञ्चेना अंतरसंबंधि व्याख्यानमां जीवान्निग मनी वृत्तिमां कह्यु के अंतरतुं या प्रमाण सूचित्रे णिथी जाणवू, परंतु वलयाकारश्रेणियी जाणवु नहि, संग्रहणीनी लघुवृत्तिनो पण एज अभिप्राय जाणवो. अ. थवा आगममां कह्यामुजब को बीजी रीते बहुश्रुतोए
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( ४४६ ) श्रेयसेऽभिनिवेशोऽर्थे । न ह्यागमाविनिश्विते ॥ २५ ॥ चंद्रार्कपंक्तिविषये । नरक्षेवाद्वदिः किल ॥ मतांतराणि दृश्यंते । यांसि तत्र कानिचित् ॥ २६ ॥ अनुग्रहार्थ शिष्याणां । दश्यते प्रथमं त्विदं || दिगंबराणां तत्कर्मप्रकृत्यादिषु दर्शनात् ॥ २७ ॥ युग्मं || लार्धातिक्रमे म त्यो - नरशैलादनंतरं ॥ वृत्तक्षेत्रस्य विष्कंनः । संपद्यते श्यानिह ॥ २८ ॥ षट्चत्वारिंशता लदे – मितोऽस्य परिधिः पुनः ॥ कोटयेका पंचचत्वारिंशता लादैः समन्वि ता ॥ ७ ॥ षट्चत्वारिंशसहखाः शतैश्चतुर्भिरन्विताः भावी लेवं, केमके यागमयी निश्चित कर्याविनाना प र्थमां याग्रह करवो कल्याणकारी नथी. ॥ २५ ॥ मनुष्यः क्षेत्रथी बहार चंद्रसूर्यनी पंक्तिना विषयमां घणा मतांतरो देखाय बे, तेमाना केटलाक || १६ || शिष्योना अनुग्रहमाटे देखाडीये बीये, तेमानो पहेलो नीचेमुजब दिगंबरोनो मत बे, के जे तेजनी कर्म प्रकृतिध्यादिकमां दे खाय बे. ॥ २७ ॥ युग्मं ॥ मानुषोत्तरपर्वतथी स्पर्ध लाख जोजन जंळग्याबाद नीचेमुजब गोळाकार क्षेत्रनी पढ़ो - ळा थाय बे. ॥ २० ॥ छाने ते बेतालीस लाख जोजननी बे, वळी तेनो वेरावो एक क्रोम पस्तालीस लाख,
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॥ सप्तसप्तत्यभ्यधिका । योजनानामुदीरिताः ॥ ३० ॥ प्र. यिोजनलदं चै-कैकसूर्यदुनावतः ॥ प्रत्येकमाद्याव्यां पंच-चत्वारिंशं शतं तयोः ॥ ३१ ॥ पूर्वोक्तपरिधी कोटे -लक्षेन्यश्वाधिकस्य तु ॥ विजक्तस्य नवत्याव्य-दि. शत्या शशिनास्करैः ॥ ३२ ॥ लब्धे दिप्ते चंडसूर्या-त. रेषु स्यात्तदंतरं ॥ लदार्धे किंचिदधिक षष्टियुक्तशताधिकं ॥ ३३ ॥ लदांतरे द्वितीयैवं । पंक्तिर्लोकांतसीमया ॥ योजनलदांतरालाः । स्युः सर्वा अपि पंक्तयः ॥३॥ तथा॥ २७ ॥ तालीस हजार चारसो सीतोतेर जोजननो कहेलो . ॥ ३० ॥ दर एक लाख जोजने एकेको सू. चचंद्र होवाथी दरेक पहेली पंक्तिमा एकसो पस्तालीस सूर्यचंद्रो . ॥ ३१ ॥ पूर्व कहेला वेरावामां लाखयधिक क्रोडने बसोनेवु चंद्रसूर्योए भांगवाथी ॥ ३ ॥ जे आवे तेने चंद्रसूर्योना यांतरानमां भेळवते ते अर्ध लाख अने कक अधिक एकसो साठ जेटयु ते अंतर आवे. ॥ ३३ ॥ एवीरीते तेपनी लाख जोजनने अंतरे बीजी पंक्ति थावे, एम डेक लोकांतसुधी एकेक लाख जोजनने अंतरे सर्व पंक्ति रहेली . ॥ ३४ ॥ वळी
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(४०) यावलदप्रमाणो यो । दीपो वापि तथांबुधिः ॥ स्यु. स्तावत्यः परिरय-श्रेण्यस्तन्नास्वतां ॥ ३५ ॥ वृधिः पंक्तौ हितीयस्या-माद्यपंक्तरनंतरं ॥ षष्मां प्रत्येकमा णा-मिंदनां च निरूपिता ॥ ३६ ॥ तृतीयस्यां तु सप्तानां। वृधिः षणां ततो द्वयोः ॥ पुनः पंक्तौ तृतीयस्यां । . सप्तानां वृधिरेव हि ॥ ३७ ॥ तथाहि-पंत्योदयोर्योज. नानां । लदमंतरमेकतः ॥ परतोऽप्यंतरं ताव-त्ततोल. हृदयाधिके ॥ ३० ॥ विष्कंने पूर्व विष्कंजा-अतिपंक्ति विवर्धते ॥ लदादयं योजनानां । तस्यायं परिधिनवेत ॥
जेटला लाख जोजनना प्रमाणवाळो जे दीप अथवा समुद्र होय, तेटली त्यां सूर्यचंद्रोनी घेरावानी श्रेणिन होय . ॥ ३५ ॥ पहेली पंक्तिपली बीजी पंक्तिमां सूर्यचंद्रोनी दरेकनी छनी वृधि कहेली . ॥ ३६ ॥ बने त्रीजीमां सातनी वृद्धि थाय ने, पीनी बेमां बनी, अने पानी नीजी पंक्तिमा सातनी वृद्धि थाय ने. ॥ ३७ ॥ ते कहे जे-बने पंक्तिनुं एक बाजुथी एक लाख जोज. ननुं अंतर , अने बीजी बाजुथी पण तेटझुंज अंतरठे, अने तेथी बे लाखथी अधिक ॥ ३० ॥ पहोनश होते बते दरपंक्तिए बे लाख जोजन वधे , अने तेनो के.
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(89) ॥३॥ लदाणि षट् योजनानां । हात्रिंशच सहस्रकाः ॥ पंचपंचाशदाब्यानि । चत्वार्येव शतानि च ॥ ४० ॥ पूर्वपूर्वपंक्तिगत–परिधिष्वस्य योजनात् ॥ अय्याश्यपंक्ति परिधिः । सर्वत्र क्षेप एष वै ॥४१॥ अथैतस्यादिमपंक्ति
-परिधौ क्षेपतः किल ॥ द्वितीयपंक्तिसंबंधी। परिधिः स नवेदियान ॥ ४२ ॥ एकपंचाशता लदै-रेका कोटी समन्विता ॥ अष्टसप्तत्या सहस्र-त्रिशैवभिः शतैः ॥ ४३ ।। षडेव लदाः पूर्वस्मात्परिधेरधिकास्ततः॥ षणां वृधिः प्रतिलदा-मे कैकादुवृद्धितः ॥ ४ ॥ एवं रावो नीचेमुजब थाय . ॥ ३५ ॥ बलाख बत्रीस हजार चारसो पचावन जोजन थाय .॥ ४० ॥ तेने पूर्वपू. वनी पंक्तिना घेरावामां नेळववाथी पागलीयागली पं. क्तिनो घेरावो आवे , एवीरीते सर्वमां तेज नेळववानुं वे.॥४१॥ हवे पहेली पंक्तिना घेरावामां ते नेळववाथी बीजी पंक्तिसंबंधी नीचेमुजब वेरावो आवे. ॥ ४ ॥ एक क्रोम एकावन लाख अठोतेर हजार नवसोने बत्रीस जोजन थाय . ॥ ४३ ॥ श्रने एवीरीते पूर्वना घे. रावाथी साख जोजनज अधिक थया, अने दर लाख जोजने एकेक सूर्यचंनी वृधियी उनी वृधि श्रश्. ॥
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(४५०) पंक्तौ हितीयस्यां । संमिता लदसंख्यया ॥ प्रत्येकमेकचाशं । शतमिदुदिवाकराः ॥ ४५ ॥ द्वितीयपंक्तिपरिधौ । ततः क्षेपांकयोगतः ॥ तृतीयपंक्तिपरिधि-रेतावानिह जायते ॥ ४६॥ एका कोट्यष्टपंचाश-लदाण्येकादशापि च ॥ सहस्राणि तिशती च । सप्ताशीतिसमन्विताः॥ ॥ ४ ॥ पूर्वस्मात्परिधः सप्त । लदा जाता हाधिकाः॥ वृधिस्ततस्तृतीयस्यां । सप्तानामिदुनाग्वतां ॥ ४ ॥ तु. यपिंचम्योस्तु पंक्त्योः । षाणां षणां ततः परं ॥ वृधिः प. ॥४४॥ एवीरीते बीजी पंक्तिमां तेटला लाखोनी संख्या जेटला एटले एकसो पचास एकसो पचास सूर्यचंडोथया. ॥ ४५ ॥ पनी बीजी पंक्तिना घेरावामां नेळववानी संख्याना योगथी त्रीजी पंक्तिनो घेरावो नीचेमुजर थाय . ॥ ४६॥ एक क्रोम यावन लाख अग्यार ह. जार त्रणसोने सतासी जोजन थाय . ॥ ४ ॥ एवी. रीते वहीं पूर्वना घेरावाथी सात लाख जोजन अधिक थया, तेथी त्रीजी पंक्तिमां सात सात चंद्रसूर्योनी वृद्धि थइ. ॥ ४ ॥ पनीनी चोथी थने पांचमी पंक्तिमां न छनी वृद्धि थाय , थने ते पनीनी बठी पंक्तिमां सातनी वृद्धि थाय ने, अने तेपनीनी बे पंक्ति मां पानी ब
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(४५१) ष्ट्यां तु सप्तानां । षाणां षमां ततो द्वयोः ॥ ४५ ॥ लो. कांत यावदाधिक्य-मेवमिंदुविवस्वतां ॥ वाच्यमेवं पुकरोत्त-रार्धेऽष्टास्वपि पंक्तिषु ॥२०॥ सप्तत्रिंशदधिकानि । शतान्येव त्रयोदश । प्रत्येकमिंदुसूर्याणां । नवंति सर्वसंख्यया ॥ ५१ ॥ एतदर्थसंग्राहिकाश्च पूर्वाचार्यकृता एव श्मा गाथाः-माणुसनगाने पर । लकछे होश खेत्तविकंनो ॥ गयालीसं लका । परिही तस्सेगकोडी. न ॥ १ ॥ पणयालीसलका । छायालीसं च जोषणसहस्सा ॥ चनरो सयो तह सत्त-हत्तरी जोषणाणं तु उनी वृछि थाय . ।। ए॥ एवीरीते क लोकांतसु. धी चंडसूर्योनी अधिकता जाणी लेवी, अने एवी रीते पुष्करना उत्तरार्धमां साठे पंक्तिनमां ॥ २०॥ चंद्रो तथा सूर्यो दरेक सर्व मलीने तेरसो सामत्रीस होय . ॥ ११ ॥ आ भावार्थने सूचवनार पूर्वाचार्येज करेली नीचेमुजब गाथा -मानुषोत्तरपर्वतथी बागळ घरधो लाख जोजन नळंग्याबाद क्षेत्रनी पडोळाइतालीसलाखनी थाय. अने तेनो घेरावो एक क्रोम. ॥१॥ पस्तालीस लाख, तालीस हजार चारसोने सीतेर जोजननो . ॥२॥ कक अधिक अ? लाख जोजने
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(४५१) ॥२॥ साहियजोषणलक-छेगंतरठियससीणसूराणं ॥ पंतीए.पढ़माए । पणयालसयं तु पत्तेयं ॥ ३ ॥ तप्परन पंतीन। जोषणलखतरान सबान ॥ जो जश् लको दिव्वुदहि । तब तावश्य पंतीन ॥ ४ ॥ वुढी दु श्यगपंतीन । एह तश्याए हो सत्तएहं ।। तप्पर पं. ती। छगबुढी तश्यसगवुढी॥ ५॥ मतांतरं करणविभावनायामिदं स्मृतं । लदार्धातिक्रमे पंक्ति-राद्या म. त्योत्तराचलात ॥५२॥ दिसप्ततिः शशभतां । विसप्ततिएकांतरे रहेला चंडसूर्योनी पहेली पंक्तिमां तेन दरेक एकसो पस्तालीस एकसो पस्तालीस होय . ॥३॥ तेथी बागलानी सर्व पंक्तिन एक लाख जोजनना अंतरखाळी , तथा जे दीपसमुद्र जेटला लाखनो होय , त्यां तेटली पंक्तिन होय . ॥४॥ बीजी पंक्तिमां बनी वृछि थाय , पीत्रीजीमां सातनी, अने तेथी घागळ बे पंक्तिमां बनी वृद्धि थाय , अने तेथी यागळ सातनी वृधि थाय . ॥ ५ ॥ वळी करणविनावनामां नीचे मुजब मतांतर कहे , मानुषोत्तरपर्वतथी अर्थ लाख जोजन नळग्याबाद पहेली पंक्ति थावे . ॥ १२॥ ते. मां बहोतेर चंद्रो, थने बहोतेर सूर्यो होवाथी पहेली पं.
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(४५३) श्व भास्वतां ॥ चतुश्चत्वारिंशमाद्य-पंक्तावेवं शतं नवेत् ॥ २३ ॥ यावद्योजनलदाणि । दीपः पाथोनिधिश्च यः॥ पंक्तयस्तत्र तावत्यो । मतेऽत्रापि समं ह्यदः ॥ १४ ॥ ना. विंडोः समुदितयो-स्ततः शेषासु पंक्तिषु ॥ चतुष्कस्य चतुष्कस्य । वृष्र्लोिकांतसीमया ॥ ५५ ॥ एवं च पंक्ता. वष्टम्यां । दीपाधैनैनास्वतां ॥ संजातं समुदितानां । विसप्तत्यधिकं शतं ॥ २६॥ एवं च पुष्कराधेऽस्मिन् । स. मुदितेंदुनास्वतां ॥ शतानि दादश चतुःषष्टिश्च सर्व संख्यया ॥ २७ ॥ तत्तत्पंक्तिस्थपरिधौ । स्वस्वभान्विंदुन्ना क्तिमां तेन सर्व मलीने एकसो चमालीस . ॥ ५३ ॥ जेटला लाख जोजननो जे दीप तथा समुद्र होय, त्यां तेटली पंक्तिन होय. एखा मतमां पण सरखंज.॥ ॥५४॥ तेथी बाकीनी पंक्ति मां क लोकांतसुधी चा. र चार सूर्यचंनी एकीहारे वृद्धि थाय . ॥ ५५ ॥ ए. वीरीते अाठमी पंक्तिमां था हीपार्धमा सूर्यचंद्रो साथे म ळीने एकसो बहोतेर . ॥ ५६ ॥ एवीरीते या पुष्कराधमां सर्व मळीने बारसो चोसन सूर्यवंडो जे. ॥ २७ ॥ ते ते पंक्तिना घेरावाने पोतपोताना सूर्यचंदोए भांगवाथी सूर्यचंद्रनुं अंतर यावे , अने तेने बमाणु करवायी
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( ४५४ ) जिते ॥ लब्धमंतर मकैडो - द्विघ्नोिस्तथा र्कयोः ||१८|| यथाद्यपंक्तिसंबंधि - पूर्वोक्तपरिधौ किल ॥ चतुश्चत्वारिं शशता - कैदुभक्ते नवेदिदं || १० || लक्षमेकं सहस्रं च । स्फुटं सप्तदशोत्तरं ॥ चतुश्चत्वारिंशशत - भक्तस्य योजनस्य च ॥ ६० ॥ एकोनत्रिंशदंशाचा १० १० १५२०x१४४ - कैडो रेतन्मिथोंतरं ॥ यस्मिंश्च द्विगुणोऽन्योऽन्यं । जान्वोरिंधोश्च तवेत् २०२०३४ २७ १२ || ६ || द्वैगुण्या याव नागानां धान्यां खल्वपवर्त्यते ॥ वेदकले - बे चंद्रवचनं तथा वे सूर्योवचेनुं अंतर यावे . ||१८|| जेम पहेली पंक्तिसंबंधि पूर्वे कहेला घेरावाने एकसो च मालीस सूर्यचंडे नांगवाथी नीचेमुजब घ्यावे ठे || || एक लाख एक हजार सतर पूर्णांक जोजन, तथा एक जोजनना एकसो चमालीसमा नागजेवडा ॥ ६० ॥ जंगलीस जागो. एटं सूर्य ने चंडवचेनुं अंतर थाय,
ने ते रकमने बम करवाथी बन्ने सूर्योवचेनुं तथा वन्ने चंद्रोवचेनुं बे लाख बे हजार चोवीस पूर्णांक जंग पत्रीस बढ़ोतेरांश जोजनजेतुं अंतर थाय. ॥ ६१ ॥ वहीं नागोने जे बमणा करवा, एटले तेनो बेए बेद डावो, केमके बेदनी रकमनो बेद नडाडवाथी -
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(.४५५) दके विष्टे । ह्यशराशिनवेन्महान १२ ॥६॥ मतेऽस्मि श्व प्रतिद्वीप-वार्थीदुतिग्मरोचिषां ॥ संख्यानिधायिकरणं । न प्रोक्तं विस्तृतेर्निया ॥ ६३ ॥ तदर्थिनिस्तु करण
-विनावना विभाव्यतां । पूर्व संग्रहणीटीका । कृता या मलयर्षिनिः ॥ ६४ ॥ एतन्मतसंग्राहिके च गाथे श्मेचोयाल सयं पढमिट्लुयाए । पंती चंदसूराणं ॥ तेण परं पंतीन । चनचनुत्तरियाए बुढ्ढीए ॥ १॥ बावत्तरिचं. दाणं । बावत्तरिसूरियाणं पंतीन ॥ पढमाए अंतरं पुण । चंदा चंदस्स लकदुगं ॥२॥ यत्र लकदुगंति' ल. शोनी रकम मोटी (१२) थाय . ॥ ६ ॥ वळी या मतमुजब दरेक द्वीपसमुद्रमा रहेला चंडसूर्योनी संख्या कहेनारं करण विस्तारना भयथी नहीं कहेल नथी. ॥ ॥ ६३ ॥ परंतु तेना यर्थीनए पूर्व श्रीमलयगिरिजी म. हाराजे संग्रहणीनी जे टीका रचेली ने, तेमांयी करणनी भावना जाणी लेवी. ॥ ६४ ॥ आ मतने संग्रह करनारी नीचेमुजब बे गाथा -पहेली पंक्तिमा एकसो च. मालीस चंद्रसूर्यो , अने तेथी आगल दरपंक्तिए चार चारनी वृधि जाणवी. ॥ १ ॥ बने तेथी पहेली पंक्ति मां बहोतेर चंद्रो अने बहोतेर सूर्यो बे, घने एक चंद्र
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(४५६) दादिकं विंशत्या शतैश्चतुस्त्रिंशैर्योजनस्य दिसप्ततितमैरे. कोनत्रिंशद्भागैरधिकं बोधव्यं. ।।
श्रेणिः परिरयाख्यैव-मेतयोरेतयोर्दयोः ॥ न तु सूचीश्रेणिरत्र । वेत्ति तत्वं तु केवली ॥ ६५ ॥ योगशा. स्त्रचतुर्थप्रकाशवृत्तावप्युक्तं मानुषोत्तरात्परतः पंचाशता योजनसहौः परस्परमंतरिताश्चंद्रांतरिताः सूर्याः, सूर्यातरि ताश्चंद्रा मनुष्यक्षेत्रीयचंद्रसूर्यप्रमाणा यथोत्तरं क्षेत्रपरिधर्व च्या संख्येया वर्धमानाः शुगलेश्या ग्रहनदात्रतारापरिवारा थी बीजा चंद्रनुं अंतर बे लाख जोजन- . ॥२॥ ही 'बे लाख ' एटले बे हजार चोत्रीस पूर्णाक नंग. पत्रीस बहोतेरांश जोजन तेपर अधिक जाणवा.
एवीरीते तेज बन्नेनी परिरयनामनी श्रेणि बे, पण सूचीश्रेणि नथी, बाकी यहीं खरी हकिकत केवली म. हाराज जाणे. ॥ ६५ ॥ योगशास्त्रना चोथा प्रकाशनी टीकामां पण कर्जा ने के–मानुषोत्तरपर्वतथी पागळ प. चास हजार जोजने परस्पर अंतरखाळा एटले चंडोथी अंतरित थयेला सूर्यो, तथा सूर्योथी अंतरित थयेला चं. जो मनुष्यक्षेत्रमाना चंद्रसूर्योजेवमा अनुक्रमे क्षेत्रना घे. रावानी वृद्धिथी संख्यावड़े वधताथका शुभलेश्यावाळा त
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(४७) घंटाकारा असंख्येया आस्वयं चरमणानदयोजनांतरिता निः पंक्तिजिस्तिष्टंतीति. तथा परिशिष्टपर्वण्यपि श्रीहेमचंद्रसूरिनिः परिरयश्रेणिरेवोपमिता, तथाहि राजगृहवप्रवर्णने-तत्र राजतसौवर्णैः । प्राकारः कपिशीर्षकैः ॥ भाति चंद्रांशुमदिर-मोत्तर श्वाचलः ॥ ॥ इति श्रीपरिरयश्रेणिः ॥ परतः पुष्करद्दीपा-त्पुष्करोदः पयोनिधिः।। समंततो दीपमेन-मवगृह्य प्रतिष्टितः ।। ६६ ।। अतिप. थ्यमतिखळ । जात्यं लघु मनोरमं ।। स्फुटस्फटिकरत्नान था ग्रह, नदात अने ताराना परिवारवाळा, घंटाजेवा याकारवाळा यने असंख्याता क स्वयंरमणसमुसुधी साख जोजनना यांतरावाळी पंक्तिनवडे रहेला ने. वळी परिशिष्टपर्वमां पण श्रीहेमचंद्राचार्यजीए वेरावारूप श्रेणिनीज उपमा श्रापेली . ते कहे -राजगृहनगरना किल्लाना वर्णनमां-चंद्रो तथा सूर्योना बिंबोथी जेम मानुषोत्तरपर्वत, तेम रजत तथा सुवर्णना कांगरानवडे ते किलो शोने जे. ॥१॥ एवीरीते ते श्रेणिवे. रावारूप जाणवी. ॥ पुष्करहीपथी पागळ पुष्करोद नामे महासागर ने, के जे फरतो या होपने घेरीने रहेलो . ॥ ६६ ॥ ते महासागरनुं जल अत्यंत पथ्य, अतिम्वन,
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(४५०) -मस्य वारि सुधोपमं ॥ ६७ ॥ सदा सपरिवारान्यां । नासुराभ्यां महौजसा ॥ श्रीधरश्रीप्रभाभिख्य-देवता. न्यामहर्निशं ।। ६० ।। इंडोन्यां पुष्करख-दिभात्यस्यो. दकं यतः॥ पुष्करोदस्तत एष । भुवि ख्यातः पयोनिधिः ॥ ६॥ ॥ यस्य योजनलदाणि । द्वात्रिंशचक्रवालतः ॥ विस्तारः परिधिस्त्वस्य । नाव्यो व्यासानुसारतः ॥ ७० ॥ परतः पुष्करांभोधे-दीपोऽस्ति वारुणीवरः ॥ सद्दारुणीव , वाप्यादौ । जलमस्येत्यसौ तया ॥ ३१ ॥ देवौ हावत्र वनमई, हलकुं, मनोहर, प्रकटरीते स्फटिकरत्ननी कांतिजेबुं बने अमृतसमान . ॥ ६७ ॥ हमेशां परिवारवाल तथा महातेजस्वी दीपता एवा श्रीधर घने श्रीप्रन नामना बे देवोथी, ॥ ६ ॥ चंड तथा सूर्यथी जेम पुष्कर तेम था महासागरनुं जल शोची रहेधुं बे, घने तेथी ते महासागर पुष्करोदनामथी पृथ्वीपर प्रसिद्ध थयेलो. ॥ ए॥ तेनो चक्रवालरूपे विस्तार बत्रीस लाख जो. जननो , अने तेनो घेरावो ते विस्तारने अनुसारे नावी लेवो. ॥ ७० ॥ ते पुष्करमहासागरथी बागळ वारुणीवर नामे दीप बे, तेनी वावमीआदिकमां नत्तम मदिराजेवू जल होवाथी तेनुं ते नाम . ॥ ११ ॥ वळी
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(४ ) रुण-वरुणप्रसंझितौ ॥ तल्वामिकत्वादरुण-वरोऽप्येष निगद्यते ॥ ७ ॥ चतुःषष्टिोजनानां । लदाणि चैष विस्तृतः ॥ चक्रवालतया ज्ञेयः। परिधिस्त्वस्य पूर्ववत ॥ ७३ ॥ वारुणीवरोदनामा । दीपादस्मात्पुरोंबुधिः ॥ म. दकाविरास्वादो-दकप्राग्नारनासुरः ।। १४ ॥ सुजातपर मद्रव्य-सम्मिश्रमदिरारसात ॥ अतिस्वादुदकयोगात् । ख्यातोऽयं तादृशानिधः ॥ ७९ ॥ वारुणिवारुणकांतस्वामिकयोगतोऽथवा ॥ स्याहारुणवरोदाख्यो । वरुणोदोत्यां वरुण धने वरुणप्रन नामना बे देवो चे, अने ते. जना स्वामीपणाथी ते वरुणवरदीप पण कहेवाय ने.॥ ॥ ७ ॥ चक्रवालरूपे ते दीपनो विस्तार चोसठ लाख जोजननो , तथा तेनो घेरावो पूर्वनीपेठे जाणवो. ॥ ॥ १३ ॥ ते हीपथी पागळ वारुणीवरोद नामनो महासागर ने, तथा ते मद करनारा नत्तम स्वादवान जलना समूहथी शोभितो थयेलो . ॥ १४ ॥ नमदी जातना नत्तम द्रव्योथी मिश्रित थयेला मदिराना रसथी पण अत्यंत स्वादिष्ट जलवाळो होवाथी ते तेवां नामथी प्रसिक . ॥ १५ ॥ अथवा वारुणी अने वारुणकांत नामना देवोना स्वामिपणाना योगथी तेनुं वारुणवरोद
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(४६०) ऽप्ययं भवेत् ॥ ७६ ॥ एका योजनकोट्यष्टा-विंशत्या लदाकैः सह ॥ चक्रवालतयैतस्य । विस्तारो निश्चितो बु. धैः ॥ ७ ॥
अथ दीरखरो दीपः । परतोऽस्मात्पयोनिधेः॥ दी. रोपमं जलं वाप्या-दिषु यस्येत्यसौ तथा ॥ ७ ॥ पुंडरीकपुष्पदंतौ । यहा दीरोज्ज्वलौ सुरौ ॥ अत्रेति तत्स्वामिकत्वा-ख्यातः दीरवरान्निधः ॥ ॥ विष्कंनोऽस्य योजनानां । द्वे कोट्यौ चक्रवालतः ॥ षट्पंचाशनदयुक्ते नाम , अथवा वरुणोद पण तेज महासागरनुं नाम . ॥७६ ॥ ते महासागरनो विस्तार चक्रवालरूपे एक कोड अठावीस लाख जोजननो विद्वानोए निश्चित करेलो वे.॥9॥
हवे ते महासागरथी भागळ दीखर नामनो हीप बे, केमके तेनी वावमीआदिकोमा दीरजेवं जल ढोवाथी तेनुं ते नाम बे. ॥ 9 ॥ अथवा 'मरीक अने पुप्पदंत नामना दीरसरखा उज्ज्वल बे देवो अहीं वसे , श्रने ते बन्ने देवोना स्वामिपणाथी ते दीप दीरवरद्दीपना नामथी प्रसिध . ॥ अए ॥ ते दीपनो विस्तार च. वालपणे बे कोड उपन लाख जोजननो, अने ते..
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(४६१) । परिधिश्चित्यतां स्वयं ॥ ७० ॥ ततः दीरवरहीपा-परं दीरोदवारिधिः॥ कर्पूरपूरमिमीर-पिममंबरपांसुरः ।।७१|| त्रिभागावर्तिचतु-र्नागसबर्करान्वितं ॥ स्वादनीयं दीप. नीयं । मदनीयं वपुष्मतां ॥ २॥ बृंहणीयं च सर्वी गेंद्रियाह्लादकरं परं ॥ वर्णगंधरसस्पर्श-संपन्नमतिपेशलं ॥ ॥ ३ ॥ ईदृग् यच्चक्रिगोदीरं । तस्मादपि मनोहरं ॥ यस्य स्वाददकमिति । दीरोदः प्रथितोबुधिः ॥ ४ ॥ तथा च जीवाभिगमसूत्रे-खममबंडिनववेए रणो चा नो घेरावो पोतानीमेलेज चितवी लेवो. ॥ ७० ॥ हवे ते दीवरद्दीपथी यागळ दीरोदसमुऽ , तथा ते समुड कपुरना समूहसरखा फीणना पिंकना धावस्थी सफेद लागे . ॥ ७१ ॥ त्रण नागोमां फेलायेली चोथा नागनी साकरवाळु, स्वादीष्ट, तथा प्राणीनने तेजस्वी करनारं, काम नपजावनालं, ॥ २ ॥ पुष्टि करनालं, सर्व अंगो तथा इंदिनने खुश करनार, नत्तम वर्ण, गंध, र. स तथा स्पर्शवाळु, अने अति कोमल ॥ ३ ॥ एवं जे चक्रीनी गाय- दूध होय , तेथी पण मनोहर अने स्वादीष्ट एवं था समुद्रनुं जल , अने तेथी ते दीरोदसमुद्रना नामथी प्रसिध थयेल. ॥४॥ तेमाटे जी.
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(४६२) नरंतचकवट्टिस्सेत्यादि ' दीरोज्ज्वलांगविमल-विमल प्रभदेवयोः ॥ संबंधि सलिलं ह्यस्ये त्यपि दीरोदवारि. धिः ॥ ५ ॥ जिनजन्मादिषु कृता-ोदकत्वादिवोल्ल. सन् ॥ समीरलहरीसंग-रंगत्कलोलकैतवात् ॥ ६ ॥ गुरुश्रीकीर्तिविजय-यशोनिस्तुलितो बुधैः ॥ इत्युद्ताद्धृतानंदाद् । विगुणश्चैत्यवानिव ॥ ७ ॥ जिनना. त्रार्थकलश-रखंकृततटद्दयः ॥ गुरुः शुश्रूषुभिः शिष्यैवानिगमसूत्रमा कह्यं के–'खांड तथा साकरवाळु चा. तुरंत चक्रवर्ति राजानु, इत्यादि'. दीरसरखा नज्ज्वल शरीरवाळा विमल अने विमलप्रभ नामना बन्ने देवोसं. बंधि ते समुद्रनुं जल होवाथी पण ते दीरोदसमुद्र कहे. वाय . ॥ ५ ॥ पवननी लहेरोना संगथी नछळता मोजांना मिषथी, जाणे जिनेश्वरप्रजुना जन्मादिकने. विषे कृतार्थ जलवाळो होवाथी नलसायमान थतो, ॥ ॥ ६ ॥ तथा विहानोए गुरुमहाराज श्रीकीर्तिविजयजीना यशसाथे तेनी तुलना करवायी नत्पन्न थयेला अ. द्भुत आनंदथी जाणे बेवडी सफेदाश्वाळो होय नहि, एवो, ॥ ७ ॥ तथा सेवा करवानी बावाळा, अने स्व.
अमृतना (मोदना) अर्थी एवा शिष्योवडे जेम गु
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(४६३) विस्वनामृतार्थिभिः ।। ७ ॥ दिव्यकुंभेष्वाहरत्सु । प्रण म्य शिरसोदकं । लोलकल्लोलनिनदै-रनुझांवितरनिव ॥ नए॥ समंततस्तटोद्भिन्न-चलबुबुददंतुरः ॥ ता. टंक व मेदिन्याः । स्फुरन्मौक्तिकपंक्तिकः ॥५०॥लो. लकबोलसंघट्टो-बलबीकरकैतवात ॥ सिघाननोगता। न्मुक्ता-कणैरव किरन्निव ।। ए१ ॥ धृतो निर्णिज्य विधिना–तपाय स्थिरनास्वतां ॥ शोनतेऽसौ मध्यलोकरु, तेम जिनेश्वरप्रचना स्नात्रमाटे राखेला कुंनोवडे शोनेला ने बन्ने किनारा जेना एवो, || 07 || मस्तकथी प्रणाम करीने दिव्यकुंनो जल लेते ते, जबळता मो. जांना शब्दोयी जाणे घाझा बापतो होय नहि ए. वो, । जए॥ चोतरफ किनारापर अथडाता अने चला. यमान परपोटानथी दांतावाळो थयेलो एवो ते दीरसमुद्र, स्फुरायमान थतां मोतीननी हारवाळु पृथ्वीरूपी स्त्रीन जाणे गेरीयु ( कर्णनुं बाजूषण ) होय नहि एवो, ॥ ॥ ५० ॥ वळी नगळता मोजानना परस्पर अथडावाधी जबळता जलबिंदुनना मिषयी आकाशमा रहेला सि: होने मोतीनना कणोथी जाणे वधावतो होय नहि, ए. वो, ॥ १ ॥ स्थिरसूर्योना तापथी (बचाववामाटे ) जा
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(४६४) निचोलक श्वोज्ज्वलः ॥ ५५ ॥ सप्तभिः कुलकं ॥ ब. स्य दादशलदान्या । विष्कंनः पंचकोटयः ॥ योजनानां परिधिस्तु । स्वयं भाव्यो मनीषिन्निः ॥ १३ ॥ परतोऽ. स्मात्पयोराशे-पो घृतवरान्निधः ॥ घृततुल्यं जलं वा. प्या-दिषु यस्येत्यसौ तथा ॥ १४ ॥ घृतवर्णी च कनक-कनकप्रननामको । स्वामिनाविह तद्योगा-ख्या. तो घृतवरानिधः ॥ ५५ ॥ चतुर्विंशतिलदान्या । दशः योजनकोटयः ।। व्यासोऽस्य परिधियिः । स्वयं व्यासाणे विधिए निर्णय करीने मध्यलोकपर था नज्ज्वल चं.
वो धारण को होय नहिं एवो था दीरसमुद्र शोने ३. ॥ एसप्तभिः कुलकं ॥ था समुद्रनो विस्तार पांच क्रोम बार लाख जोजननो, अने तेनो घेरावो तो विद्वानोए पोतानीमेळे भावी लेवो. ॥ ५३॥ या समुउथी पागळ घृतवर नामनो द्वीप बे, ते दीपमा रहेली वावमीयादिकमां घृतसमान जल होवाथी ते तेवा नामथी प्रसिक. ॥ ४ ॥ अथवा घृतसरखा वर्णवान क : नक अने कनकपन नामना बे देवो यहीं स्वामीतरीके बे, तेना योगथी ते घृतवर नामथी प्रख्यात . ॥५॥ या द्दीपनो विस्तार दश क्रोड चोवीस लाख जोजननो
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( ४६५) नुसारतः ॥ ६ ॥ एवमग्रेऽपि.॥ दीपादस्मात्परो वार्धिघृतोदाख्यो विराजते ॥ हैयंगवीनसुरनि-स्वादुनीरमनोरमः ॥ ७ ॥ अयं कांतसुकांतान्यां । स्वामिन्यां परिपालितः ॥ वाणिजान्यां घृतकुंतू-खि साधारणी योः । ॥ एज् ॥ विष्कंभोऽस्य योजनानां । विंशतिः किल कोटयः ॥ श्रष्टचत्वारिंशताब्या । लदैर्ददौर्निरूपितः॥॥ द्वीपः दोदवराभिख्यः । परोऽस्मात्तोयराशितः । निर्जरौ स्वामिनावस्य । स्तः सुप्रनमहापनौ ॥ १०० ॥ दोदो ना. बे, तथा तेनो घेरावो तेना विस्तारने अनुसारे पोतानी. मेळेज जाणी लेवो. ॥ ६ ॥ अने आगळ पण एवी. जरीते जाणवू. ॥ या दीपथी आगळ घृतोद नामनो समुद्र शोने , के जे घृतसरखा सुगंधी अने स्वादिष्ट जलथी मनोहर थयेलो . ॥ ७ ॥ बे वेपारीनवच्चे मजमु एवो घृतनो घाडवो जेम तेनथी सचवाय , ते. म या समुद्र पण कांत बने सुकांत नामना तेना स्वामीरूप बे देवोवडे सुरक्षित थयेलो . ॥ ए॥ श्रा समुद्रनो विस्तार वीस क्रोड अने अमतालीस लाख जो जननो विद्वानोए कहेलो . ॥ ॥ श्रा समुऽथी वागळ दोदवर नामनो दीप ने, अने ते दीपना सुप्रन
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(४६६) म दोदरसः । स श्रस उच्यते ॥ तपमुदकं वाप्यादिषु यस्येत्यसौ तथा ॥ १॥ चत्वारिंशत्कोटयोऽस्य । वि. कंनः कथितो जिनैः ॥ षमवत्यान्विता लदौः । सुरलदनिषेवितैः ॥२॥ ततःपरं तु दोदोदा-निधानः खलु वारिधिः ॥ वर्ततेऽत्यंतमधुर-धुरंधरपयोधरः ॥ ३ ॥ तिर्यग्लोके सुरैस्तुल्यं । त्रिसुगंधि निजातकं ॥ मरिचैश्च समायुक्तं । चतुर्जातकमुच्यते ॥ ४ ॥ ततश्च-चतुर्जातकसम्मिश्रात् । विनागावर्तितादपि । अतिस्वादुवारिरिअने महाप्रभ नामना बे देवो स्वामी ने. ॥१०॥दो. द एटले साकरनो रस, घने ते शेलडीनो रस कहेवाय बे, घने तेना समान जल तेमा रहेली वावमीयादिक मां होवाथी ते दोदवर नामनो दीप कहेवाय . ॥१॥ तेनो विस्तार लाखोगमे देवोथी सेवायेला जिनेश्वरोए चालीस क्रोड छन्नु लाख जोजननो कहेलो . ॥२॥ तेथी थागळ अत्यंत मधुरमां अग्रेसर जलने धरनारो दोदोद नामनो महासागर . ॥ ३ ॥ या तीर्गलोकमां त्रण सुगंधिनवाद्यं त्रिजातक देवोसमान कहेवाय , त. था तेमां मरीने साथे लेवाथी ते चातुर्जातक कहेवाय ॥ ४ ॥ अने तेथी-चतुर्जातकथी मिश्रित थयेला
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(४६७) हु-रसादप्येष तोयधिः ॥ ५ ॥ एवं च लवणांनोधिः । कालोदः पुष्करोदधिः ॥ म्वयं उर्वारुणीवाधि-धृतदीप योनिधी ॥ ६॥ एतान विज्ञाय सप्ताब्धीन । सर्वेऽप्यन्ये पयोधयः ॥ ताहगीचरसोत्कृष्ट-स्वादकमनोरमाः॥७॥ एकाशीतिः कोटयोऽथ । लदा दिनवतिस्तथा ॥ पयोधेरस्य वलय-विष्कंनः परिकीर्तितः ॥ ७॥ । अथ नंदीश्वरो दीपः । दोदोदांनोनिधेः परः ॥ प्ररूपितो विष्टपेष्टै-रष्टमः कष्टमर्दिनिः ॥ ए॥ मधुरेक्षुरत्रण नागवाळा शेलमीना रसथी पण अत्यंत स्वादिष्ट जलवाळो या समुद्र ने. ॥ ५॥ बने एवीरीते लवणसमुद्र, कालोदधिसमुङ, पुष्करोदधि, खयं समुद्र, वारुणीसमुद्र, घृतोदसमुद्र, अने दीरसमुद्र, ॥ ६ ॥ ए सात समुद्रोने गेडीने बीजा सघळा समुद्रो तेवी जानना शे. लडीना रससरखा अतिवादीष्ट जलथी मनोहर थयेला .॥॥ आ समुद्रनो चक्रवाल विस्तार एक्यासी कोड अने गा लाख जोजननो कहेलो . ॥७॥
हवे ते दोदोदसमुद्रथी पागळ नंदीश्वर नामे हीप चे, तथा ते दीपने कष्टोनो नाश करनारा जगत्प्रभुनए पाठमो दीप कहेलो . ॥ ॥ वहीं मधुर शेलडीर
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(४०) सस्वादू-दकेषु दीर्घिकादिषु ॥ जलाश्रयेषु फुलाजमकरंदसुगंधिषु ॥ १०॥ स्फुरत्पुष्पफलोदामा-निरामकुमशालिषु ॥ श्रवोत्पातपर्वतेषु । सर्वरत्नमयेषु च ॥११॥ थासते शेरते खैरं । क्रीमति व्यंतरामराः ॥ व्यंतरीनिः सह प्राच्य-पण्यानां भजते फलं ॥ १२॥ इहत्यमाधिपत्यं दौ । कैलासहरिवाहनौ ॥ धत्तः समृद्यौ देवौ द्योः । सूर्यचंद्रमसाविव ॥ १३ ॥ एवं नंद्या समृध्यासा-वी. श्वरः स्फातिमानिति ॥ नंदीश्वर इति ख्यातो। दीपोऽयं ससरखा स्वादीष्ट जलवाळी वावमीनमां, तथा विकस्वर थयेलां कमलोना मकरंदश्री सुगंधी थयेलां जलाशयो. मां. ॥ १०॥ तेमज स्फुरायमान थता पुष्पफलोथी अ. त्यंत मनोहर वृदोथी शोनिता थने सर्व जातिना रत्नो वाळा नत्पातपर्वतोपर ॥ ११ ।। व्यंतरदेवो व्यंतरीनसाथे स्वेबामुजब बेसे बे, सुए बे, क्रीडा करे , तथा पोता. ना पूर्वपुण्योनुं फल भोगवे ..॥ १॥ श्राकाशन जे. म सूर्यचंद्रो, तेम अहींन अधिपतिपणुं कैलास अने ह. विाहननामना बे समृध्विान देवो धारण करे . ॥ ॥ १३ ॥ एवीरीते नंदी एटले समूधिवडे स्फातिवाळो होवाथी या दीप नंदीश्वर एवां सार्थक नामथी प्रसिधय
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( ४६७ ) सार्थिकाधिः ॥ १४ ॥ त्रिषष्ट्या कोटिजिर्युक्त - मेकं कोटिशतं किल || लदश्चतुरशीत्याज्य - मेतद्दनयविस्तृतिः || १५ || दीपस्यास्य बहुमध्ये | शोनंते दिक्चतुष्टये ॥ जात्यांजनरत्नमया श्रुत्वारोंजन पर्वताः ।। १६ ।। पूर्व-, स्यां देवमणो । नित्योद्योत स्वयंप्रजौ ॥ क्रमादपाकप्रतीच्यां चो—दीच्यां च रमणीयकः ॥ ११ ॥ वर्णशोनां वयामः । किमेतेषां स्फुरडुचां ॥ नाम्नैव ये स्वमौज्ज्वव्यं । प्रथयंति यथास्थितं || १८ || स्फुरद्रवल सब्रह्म
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येलो बे ॥ १४ ॥ ते हीपनो चक्रवाल विस्तार एकसो त्रेसठ क्रोम चोर्यासी लाख जोजननो बे ॥ १५ ॥ या
पना प्रत्यंत मध्यागमां चारे दिशामां उमदां - जनरत्नोना बनेलां चार व्यंजनपर्वतो शोने बे ॥ १६ ॥ पूर्वदिशामां देवरमणनामनो, तथा दक्षिण ने पचिममां नुक्रमे नित्योद्योत ने स्वयंप्रभनामना, छा
उत्तरमा रमणीयकनामनो पर्वत ते ॥ १७ ॥ स्फुरायमान कांतिवाळा एवा ते पर्वतोना वर्णनी शोजानुं छा मो टंक वर्णन करीये? केमके तेन नामथीज पोतानी यथास्थित उज्ज्वलताने विस्तारे बे ॥ १८ ॥ स्फुरायमान थता सना शींगडांसरखा विस्तीर्ण तेज थी ते
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(४०) चारितेजोनिरास्तृतैः । तेऽमुं दीपं सृजंतीव । कस्तुरीछवमंमितं ॥ १५ ॥ स्वबगोपुलसंस्थान-स्थिता रजोमलोनिताः ॥ अनंकषोत्तुंगभुंगा । मृष्टा प्रदणाः प्रजास्वराः ॥ २०॥ सहस्रांश्चतुरशीतिं । नृतलाते समुन्त्रिताः ॥ स. हस्रं च योजनाना-मवगाढा भुवोतरे ॥ १ ॥ योज. नानां सहस्राणि । पृथवो जूतले दश ॥ योजनानां सह सं च । विस्तीर्णास्ते शिरस्तले ॥ २५ ॥ मतांतरे शतान्येते । चतुर्णवतिमानताः ॥ स्युर्घतले योजनानां । स. पर्वतो आ दीपने जाणे कस्तूरीना रसथी शोभितो कर ता होय नहि तेम लागे . ॥ १ए । गायना स्वब पुं. उडांना आकारे रहेला, रज तथा मेलविनाना, पाका. शने यमकता नंचा शिखरोवाळा, नपेला, कोमळ अने अत्यंत कांतिवाळा तेन . ॥ २० ॥ ते पर्वतो पृथ्वीत. लथी चोर्यासी हजार जोजन नंचा , अने एक हजार जोजन पृथ्वीनी अंदर खुचेला . ॥ २१ ॥ वळी तेन पृथ्वीपर दशहजार जोजन पहोळा , तथा मयानपर ए क हजार जोजन पहोला . ॥ २२ ॥ बने बीजे मते तेन पृथ्वीतलपर चोराणुसो जोजन पहोळा अने मथा. के एक हजार जोजन पहोल . ॥ २३ ॥ चतुर्निः क.
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(४१) हस्रं मूर्ध्नि विस्तृताः ॥ २३ ॥ चतुर्निः कलापकं ॥ तथोतं स्थानांगवृत्तौ-श्हांजनका मूले दशयोजनसहस्राणि विष्कंनेणेत्युक्तं, दीपसागरप्रज्ञप्तिसंग्रहण्यां तूक्तं-नव चे व सहस्साई । चत्तारि य होति जोधणसया ॥ अंज. एगपबयाणं । धरणियले हो विकंनो ॥ ६ ॥ इति । तदेवं मतांतरमित्यवसेयं, एवमन्यत्रापि मतांतस्बीजानि तु केवलिगम्यानीति. 11 ___ यस्मिन्मते सहस्राणि । नृतले दश विस्तृताः ॥ वृ. दियौ मते तस्मिन् । योजनं योजनेप्रति ॥ ३ ॥ अ. लापकं ।। तेमाटे स्थानांगनी टीकामां कडं ने के-बही ते अंजनाचलो मूलभाममा दश हजार जोजन प. होळा , इति. अने द्वीपसागरपन्नत्तिसंग्रहणीमां तो एम कमु के-अंजनाचल पर्वतोनो पृथ्वीतलपरनो विस्तार नव हजार चारसो जोजननो . ॥ ६॥ एम मतांतर ने, तेम बीजी जगोए पण मतांतरोने केवलिगम्य जाणवां.
हवे जे मते पृथ्वीतलपर तेन दश हजार जोजन पहोळा ठे, ते मते ते नो दरेक जोजने नीचेमुजब वधारो घटाडो थाय ने ॥ २३ ॥ नपर चमतां त्रणा वीशांश जोजननो दय थाय , अने नपरथी नीचे
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(४१) शाविंशांशत्रितय–मुपारोहणे दयः । तावत्येवोपरितलाद् । वृधिः स्यादवरोहणे ॥ २४ ॥ नावना त्वेवं-महीतलगतव्यासा-सहस्रदशकात्मकात् ॥ सहस्राण्यपचीयते । नवोपरितलावधि ॥ २५ ॥ ततो नव सहस्राणि । नाज्यानि नाप्यते परं ॥ सहस्रैश्चतुरशीत्या । भागो भाज्यस्य लाघवात ॥ २६ ॥ ततश्च-भाज्यभाजकयो राश्योः ए०००x४००6 | कृते शून्यापवर्त्तने ॥ भाज्यो नवात्मा चतुर-शीत्यात्मा स्याच भाजकः OxGU ॥२७॥ उन्नावप्यपवय॑ते । ततोंशबेदको त्रिभिः ॥ योजनांशत्र यं लब्ध-मष्टाविंशतिजं ततः ॥ २ ॥ यहा-अष्टाविंश उतरतां तेटलीज वृधि थाय . ॥ २४ ॥ तेनी गावना नीचेमुजब-पृथ्वीतलपर रहेली दश हजार जोजननी पहोळाश्मांथीक मथाळासुधीमां नव हजार जोजन घ. टे.॥२५॥ अने तेथी नव हजारनी रकमने चोर्या सी हजारे नांगवी, पण भाज्यनी रकम नानी होवाथी जाग चालतो नथी. ॥ २६ ॥ अने तेथी ते नव हजार चोर्यासीहजारांशरूप जाज्यभाजकनी रकमना शून्योनो
द नमाम्वाथी केवटे नवचोर्यामीयांश रहे . ॥१७॥ पजी ते रकमनो त्रणे भेद नडाडवाथी ते त्रणयावी.
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(४३), तिगुणितो। भाज्यो राशि वात्मको नवति ॥ हे लक्षे हापंचा-शता सहयुते तेंशाः ॥ २ ॥ तेषां सहस्रै. श्चतुर-शीत्या नागे हृते सति ॥ लब्धं विनागवितेयमष्टाविंशतिसंभवं ॥ ३०॥ चतुःशताधिकनव-सहस्रयो जनात्मकात् ॥ मतांतरे च ध्यासा-सहस्रोरुशिरोऽव. घि ॥ ३१ ॥ मध्ये शतानि चतुर-शीतिः दीयंत इत्यतः॥ नज्यंते तानि चतुर-शीत्या किल सहस्रकैः ॥ ॥ ३२ ॥ नागाप्राप्त्या च चतुर-शीत्या शतैस्तयोर्दयोः ॥ कृतेऽपवर्तने लन्यो । योजनांशो दशोऽनवः ॥ ३३ ।। शांशजेटली रकम थाय . ॥ ॥ अथवा ते नव हजारनी नाज्य रकमने यावीशे गुणवाथी बे लाख बावन हजार अंशोरूप रकम थाय . ॥ ५॥ ते रकमने चोर्यासी हजारे भांगवाथी त्रण यावीशांशनी र. कम थावे . ॥ ३० ॥ वळी बीजे मते नव हजारने चा. रसो जोजनरूप तेना पृथ्वीपरना विस्तारथी मथाळाना एक हजार जोजनना विस्तारसुधीमां ॥३१॥ वच्चेना चो.
सीमो जोजन घटवा जोश्ये, माटे ते रकमने चोर्या. सी हजारनी रकमथी नांगवी जोश्ये. ॥३॥ परंतु भा. ग न चालवाथी ते बन्ने रकमनो चोर्यासीसोए बेद न.
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(४४) यद्दा प्राग्वद्भाज्यराशि-र्दशनः स्याल्लवात्मकः ।। सहस्रा. श्चतुरशीति-स्तेषां नागे च लन्यते ॥ ३४ ॥ दशमो योजनस्यांशो | नाज्यनाजकसाम्यतः ॥ दयवृद्यौ मान मेतत । स्यादारोदावरोहयोः ॥ ३५ ॥ एकत्रिंशत्सहस्रा णि । योजनानां शतानि षट् ॥ त्रयोविंशानि परिधिनवत्येषां महीतले ॥३६॥ योजनानां सहस्राणि । त्री णि हाषष्टियुक्शतं ॥ साधिकं मूर्ध्नि परिधिः । प्राप्तः परमर्षिभिः ॥ ३७ ॥ अथैषामंजनाद्रीणां । प्रत्येकं च चतडाडवाथी एकदशांश जोजन आवे . ॥ ३३ ॥ अथवा पूर्वनीपेठे नाज्यनी रकमने दशगणी करवायी चोर्यासी हजारनी अंशरूप रकम थाय ने, घने तेननो नाग क
खाथी ॥ ३४ ॥ नाज्यभाजकना तुव्यपणाथी जोजननो दशमो भाग थाय , अने ते प्रमाण चडवा नतरवामां अनुक्रमे हानिवृधिनुं थाय . ॥ ३५ ॥ वळी ते पर्वतो. नो पृथ्वीतलपरनो घेरावो एकवीस हजार उसो त्रेवीसहजार जोजननो थाय . ॥ ३६॥ वळी तेन्ना मथाळांपरनो वेरावो त्रण हजार एकसो बासठ जोजननो केवलज्ञानीनए कहेलो . ॥ ३७ ॥ हवे ते दरेक अंजनाचलोनी चारे दिशामा एक लाख जोजन नलंग्या
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(४५) दिशे ॥ गते लक्षे योजनानां । सदमायतविस्तृताः ॥ ॥ ३० ॥ पुष्करिण्यश्चतस्रः स्यु-रुबिछा दशयोजनी ॥ निर्मत्स्यस्वबसलिलो-लसत्कलोलवेल्लिताः ॥ ४० ॥ जीवानिगमसूत्रवृत्तौ प्रवचनसारोघारवृत्तौ च-एता दशयोजनोबिछा नुक्ताः, नंदीश्वरस्तोत्रे नंदीश्वरकल्पे च सहस्रयोजनोदिघा नक्ताः, स्थानांगसूत्रेऽपि- तानणं णंदान पुकरणीने एगं जोधणसयसहस्सं थायामेणं पनासं जोषणसहस्साइं विस्कमेणं दसजोषणसयाई न. वेहेणं' इत्युक्तमिति ज्ञेयं. चतुर्दिशं त्रिसोपान-प्रतिबाद लाख जोजन लांबी पहोळी ॥ ३० ॥ चार चार वा. वडीन, के जे दश जोजन मी तथा मत्स्यरहित म्वच जलना नछळता मोजांनथी नरेली. ॥४०॥ जीवाभिगमसूत्रनी टीकामां तथा प्रवचनसारोघारनी टीका. मां ते वावडीन दश जोजन नंमी कहेली , परंतु नं. दीश्वरस्तोत्र तथा नंदीश्वरकल्पमा एक हजार जोजन नं. मी कहेली . वळी स्थानांगसूत्रमा पण ते नंदावावमी. ने एक लाख जोजन लांबी, पचास हजार जोजन पहो. ळी अने एक हजार जोजन नंडी कहेली ने, एम जा. एवं. वळी चारे दिशा-मां ते त्रण त्रण पगथीयांथी म.
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(४१६) रूपकबंधुराः ॥ चतुर्दिशं च प्रत्येकं । रम्यास्ते रत्नतोरणैः ॥४१॥ दलीबितदलश्रेणि-गलन्मरंदलेपतः ॥ श्रन्योऽन्यमितरीति-भ्रमभ्रंगतदंगनाः ॥ ४२ ॥ अन रालैर्मरालात्तै-मणालैललितांतराः ॥ श्रामुक्तव्यक्त, गार-हौरवि मनोहराः ॥ ३ ॥ सोपानावतस्वःस्त्रीनूपुरध्वनिबोधितैः ॥ मरालैर्मधुरध्वान-मुंदोपवीणिता श्व ॥ ४ ॥ क्रीमदिव्यांगनोत्तुंग-वदोजास्फालनोर्जितैः ॥ यत्तरंगैः सत्तरंग-रिवांगीकृततांडवाः ।। ४५ ॥ अनोहर थयेली , तथा ते पगथीयांन रत्नोनां तोरणोथी शोभितां थयेला . ॥४१॥ पत्रोपर नगेलां पत्रोनी श्रे णिमांथी निकळता मकरंदना लेपथी परस्पर बीजानी ब्रांतिथी जमता ने नमरा तथा जमरीन जेमां, ॥४२॥क्रीडा करता हंसोए ग्रहण करेला कमलतंतुनथी मनोहर थयेल ने अंदरनो भाग जेनो एवी, तेथी जाणे प्रगटरीते शोभता मोतीनना हारोथी मनोहर लागती, ॥३॥ पगथीयापरथी उतरती देवांगनाना कांफरोना शब्दो. थी जागेला यने मनोहर शब्दोवाळा हंसोवडे जाणे ह. पथी वीणा वगामती, ॥ ४ ॥ तथा क्रीडा करती देवां गनानां जंचां स्तनोमां प्रथमावाथी मनोहररीते उन
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(199) ईदर्चार्चनोयुक्त-स्नातस्वःस्त्रीस्तनच्युतैः ॥ कस्तूरीचंद्रधुसू.'
णैः । शोभते चित्रिता व ॥ ४६॥ षन्निः कुलकं ।। नंदिषणा तथामोघा । गोस्तूपा च सुदर्शना ॥ स्युर्याप्यो देवरमणा-त्पूर्वादिदिक्चतुष्टये ॥ ४ ॥ नंदोत्तरा तथा नंदा । सुनंदा नंदिवर्धना ॥ पुष्करिण्यश्चतस्रः स्यु-नियोद्योताच्चतुर्दिशं ॥ ४ ॥ नद्रा विशाला कुमुदा। चतुर्थी पुंडरीकिणी॥ स्वयंप्रनगिरेः पूर्वा-दिषु दिदिव. लता मोजानथी जाणे नाचती होय नहि एवी, ॥४५॥ तथा अरिहंतप्रभुनी प्रतिमाननी पूजामाटे नद्यमवाळी अ. ने तेमाटे नाहेली एवी देवांगनाना स्तनोपरथी धो. वाइ गयेला कस्तूरी, चंदन तथा केसरथी जाणे चित्रा. मणवाळी थर होय नदि तेम ते वावमीन शोने जे. ॥ ॥ ४६ ।। षनिः कुलकं ॥ देवरमणपर्वतथी पूर्वादिक चारे दिशा-मां नंदिषेणा, अमोघा, गोस्तूपा तथा सुदर्शना नामनी वावमीन . ॥ 9 ॥ नित्योद्योत नामना पर्वतथी चारे दिशानमां नंदोत्तरा, नंदा, सुनंदा तथा नंदिवर्धना नामनी वावमीन . ॥ ४ ॥ स्वयंप्रगपर्वत थी पूर्वादिक चारे दिशानमां भा, विशाला, कुमुदा धने चोथी पुंडरी किणी नामनी वावमीन . ॥ ४ ॥
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(90) ति वापिकाः ॥ ४ ॥ विजया वैजयंती च । जयंती चापराजिता ॥ वाप्यः प्राच्यादिषु दिछु । रमणीयांजनागिरेः ॥ ५० ॥ अयं नंदीश्वरस्तवनंदीश्वरकल्पाभिप्रायेण षोमशानामपि पुष्करिणीनां नामक्रमः, स्थानांगजीवाभिगमानिप्रायेण त्वेवं-नंदोत्तरा तथा नंदा । चानंदा नंदिव र्धना ॥ चतुर्दिशं पुष्करिण्यः । पौरस्त्यस्यांजनागिरेः ॥ ॥ ११ ॥ नद्रा विशाला कुमुदा । चतुर्थी पुंडरी किणी॥ चतुर्दिशं पुष्करिण्यो । दाक्षिणात्यांजनागिरेः ॥ ५५ ॥ नंदिषेणा तथा मेघा | गोस्तूपा च सुदर्शना ॥ चतुर्दिशं रमणीयांजनपर्वतथी पूर्वादिक चारे दिशानमा विजया, वैजयंती, जयंती अने अपराजिता नामनी चार वावडीने .॥ २०॥ ते शोळे वावडीननां नामोनो आ अनु. क्रम नंदीश्वरस्तवन तथा नंदीश्वरकल्पने अभिप्राये , स्थानांग तथा जीवाभिगमने अनिपाये तो नीचेमुजब
-पूर्वतरफना अंजनाचलनी चारे दिशानमां नंदोत्तरा, नंदा, आनंदा अने नंदीवर्धना नामनी वावमीन बे. ॥ ५१ । दक्षिणतरफना अंजनाचलनी चारे दिशामां भद्रा, विशाला, कुमुदा थने चोथी पुंडरीकिणी नामनी वावमीन . ॥ ५५ ॥ पश्चिम तरफना अंजनाचलनी
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Moamy
( ४१ ) पुष्करिण्यः । प्रतीचीनांजना गिरेः || १३ || नदीच्ये तू जयोरपि मतयोस्तुल्यमेव एकैकस्याः पुष्करिण्या । व्यतीत्यदिचतुष्टये | योजनानां पंचशतान्येकैकमस्ति काननं || ४ || / स्त्यशोकवनं प्राच्यां ।। सप्तपर्णवनं ततः ॥ याम्यां / प्रत्यक्चपकाना - मम्राणामुद वनं ॥ ॥ ९५ ॥ योजनानां लक्ष्मेक – मायतान्यखिलान्यपि ॥ शतानि पंच पृथुला - न्यद्भुतान्यद्भुतश्रिया ॥ २६ ॥ सहायैः सुमनोरम्यै— महास्कंधैः समुन्नतैः ॥ विजांति तचारे दिशानमां नंदिषेणा, मेघा, गोस्तुपा पने सुदर्श ना नामनी वावडील वे. || ३ || उत्तरमां तो बन्ने म तमुजब तुल्यनामोवाळी वावडीन बे. हवे ते एकेकी वावडीनी चारे दिशान मां पांचसो जोजन नळग्याबाद एकेकुं वन वे ॥ २४ ॥ पूर्वदिशामां अशोकवन, दक्षिणमां सप्तपर्णवन, पश्चिममां चंपकवन, तथा उत्तरमां प्राम्रवन बे ॥ १५ ॥ ते सघळां वनोनी लंबाई एक लाख जोजननी वे, तथा तेनी पदोळा पांचसो जोजननी बे, तेम ते पद्भुत शोभाथी मनोहर लागे बे. ॥ २६ ॥ उत्तम बायावाळां, पुष्पोयी ( पक्षे - उत्तम मनथी ) मनोदर लागता, महास्कंधोवाळा, तथा जंचां वृक्षोथी, उ
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AALTH
(४०) रुभिस्तानि | कुलानीव नरोत्तमैः ॥ २७ ॥ सौरन्याकृष्टमधुपा । लीलानर्तितपल्लवाः ॥ नबुधकुसुमास्तेषु। ल. ताः पायांगना श्व ।। ए ॥ तेषां कुंजेषु निश्विद्र-परिबदादिभित्तिषु ॥ न विशंतीशगेहेषु । चौरा श्व करा रवेः ॥ ५५ ॥ षोमशानामप्यमूषां । वापिकानां किलोदरे ॥ स्यादेकैको दधिमुखः । स्फारस्फटिकरत्नजः॥ ॥ ६० ॥ मुख शिखरमेतेषां । यतो दधिवदुज्ज्वलं ॥ त. तो ह्येते दधिमुखा । रौप्यशृंगमनोरमाः ॥ ६१ ॥ धान्य त्तम मनुष्योथी जेम कुलो, तेम ते वनो शोने . ॥ ॥ ५७ ॥ वळी पोतानी सुगंधीथी खेचेला ने जमरोने जेनए, तथा लीलापूर्वक नाचतां ने पल्लवो जेमनां, य ने खोलेलां ने पुष्पो जेमनां, एवी त्यां रहेली वेलडीन वारांगनानीपेठे शोने ३. ॥ २७ ॥ निदरहित पास पास ने पर्वतोरूपी जीतो जेमां एवा ते वनना निकुंजो. मां, धनवानोना घरोमां जेम चोरो तेम सूर्यनां किरणो दाखल यश् शकतां नथी. ॥ १७ ॥ ए शोळे वावोना मध्यन्नागमा मनोहर स्फटिकरत्ननो बनेलो एकेको दधिमुखपर्वत . ॥ ६० ॥ ते पर्वतोनु मुख एटले शिखर दहिनीपेठे उज्ज्वल , अने तेथी रुपाना शिखरथी म.
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(४१) पव्यसमाकाराः । सर्वतः सदृशा इमे ॥ नपर्यधो योज नानां । सहस्राणि दशातताः ॥ ६ ॥ चतुःषष्टिं सहस्रा. णि । कीर्तितास्ते समुचिताः ॥ सहस्रं च योजनानामुविधा वसुधांतरे ॥ ६३ ।। तथोक्तं जीवानिगमे-दसजोधणसहस्साई विखंभेणं. श्रीसमवायांगे तु-सवेवि णं दधिमुहपवया पल्लगसंगणसंठिया सबब समा विवं. नुस्सेहेणं चनसहिं जोषणसहस्सा पासत्ता, श्युक्तमि ति ज्ञेयं. पुष्करिण्यः समस्तास्ता-स्तेनैकैकेन जुभृता।। नोहर थयेला तेन दधिमुखपर्वतो कहेवाय . ॥ ६१ ॥ धान्यना पालासरखा थाकारवाळा ते पर्वतो सर्वबाजुयी सरखा , तेमज उपर अने नीचे तेन दश हजार जोजनना विस्तारवाळा . ॥ ६ ॥ वळी तेन चोसठ ह. जार जोजन नंचा, थने एकहजार जोजन पृथ्वीनी अंदर खुचेला . ॥ ६३ ॥ ते माटे जीवाभिगममां कां ने के-तेन दश हजार जोजनना विस्तारखाळा . अ. ने श्रीसमवायांगमां तो-ते सर्वे दधिमुखपर्वतो पालाने श्राकारे रहेला, सर्ववाजुथी सरखा, तथा विस्तार अने चंचाश्मां, चोसठ हजार जोजन कहेला ने, एम कडं ने ते जाणवू. ते एकेका पर्वतवडे करीने ते सघळी वा
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( २) विभांति प्रौढमहिला । श्व क्रोडीकृतार्नकाः ॥ ६४ ॥ च. तुर्णामंजनाद्रीणां । घनाघनघनत्विषां ॥ षोडशानां दधिमुख–गिरीणामुपरि स्फुरत ॥ ६५ ॥ जिनायतनमेकैक
-मेवं स्युः सर्वसंख्यया ॥ तृतीयांगादिसिघांते-पृक्तान्येतानि विंशतिः ॥ ६६ ॥ जीवाभिगमवृत्त्यादि-ग्रंथेषु च निरूपितौ ॥ वापीचतुष्कांतरेषु । द्वौ दो रतिकराचलौ ॥ ६७ ॥ षोडशानां वापिकानां । षोमशवंतरेष्वमी ॥ द्वात्रिंशद् दिदिभावेन । पद्मरागनिनाः समे ॥ ६ ॥३. वडीने, खोळामां लीधेल ने एकेक बाळक जेनए एवी प्रौढ स्त्रीननीपेठे शोने . ॥ ६४ ॥ वरसादना वादळांसरखो ने रंग जेननो एवा ते चारे अंजनाचलपर्वतोपर, तथा सोल दधिमुखपर्वतोपर स्फुरायमान थतुं ॥ ६५ ॥ एकेकुं जिनमंदिर , धने एवीरीते सर्व मळीने त्रीजा अंगादिक सिघांतमां ते वीस जिनमंदिरो कहेला . ॥ ॥ ६६ ॥ परंतु जीवानिगमनी टीकाबादिक ग्रंथोमां तो ते चार वावोनीवच्चे बे बे रतिकरपर्वतो कहेला . ६७) एवीरीते ते सोल वावडीननी वच्चे बबे होवाथी कत्रीस रतिकरपर्वतो , तथा तेन सघला पद्मरागरत्नसरखा रंगवाळा . ॥ ६० ॥ एवीरीते प्रवचनसारोबारसूत्रनी टी.
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(४०३) ति प्रवचनसारोधारसूत्रवृत्त्यभिप्रायेण एते पद्मरागमयाः, स्थानांगवृत्त्यन्निप्रायेण तु सौवर्णा इति.
नपर्येकैकमेतेषां । सर्वेषामपि जुभृतां ॥ चैत्यं नि. त्याईतां चारु । चलाचलध्वजांचलं ॥ ६ ॥ चत्वारो द. धिमुखस्था । एकैकोंजननुभृतः ॥ अष्टानां च रतिकराद्रीणामष्टौ जिनालयाः ॥ ७० ॥ इत्येवमे कैकदिशि । त्र. योदश त्रयोदश ॥ एवं संकलिताश्चैते । दिपंचाशऊिनालयाः ॥ ११ ॥ स्थानांगवृत्तावप्युक्तं-सोलसदहिमुहसे, काना अभिप्राये ते सघळा पर्वतो पद्मरागनामना रत्नमय, अने स्थानांगसूत्रनी टीकाना अनिपाये तो तेने सघन सुवर्णनावे.
ए सघळा पर्वतपर शाश्वता जिनेश्वरनुं चलायमान थता ध्वजानना डावाळु एकेकुं मनोहर जिनमंदिर . ॥ ६५ ॥ चार दधिमुखपर्वतपर रहेला, एकेको अंजनाचलपर्वतपर, तथा बाउ रतिकरपर्वतोपर रहेलां पाठ जि. नालयो, ॥ ७० ॥ एवीरीते सर्व मलीने एकेकी दिशामां तेर तेर जिनमंदिरो बे, अने एम सर्व मली बावन जिनमंदिरो मे ॥ १ ॥ स्थानांगसूत्रनी टीकामां पण कहेल ने के-शोळ दधिमुखपर्वतो डोलर, निर्मल शंख
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(YY) ला। कुदामलसंखचंदसंकासा ॥ कणयनिजा बत्तीसं । एश्करगिरि बाहिरा तेसिं ।। ७२ ॥ अजणचन गिरीणं । नाणामणिपङावंतसिहरेसु ॥ बावन्नं जिणणिलया । म णिरयणसहस्सकूमवरा ।। ७३ ॥ प्रासादास्ते योजनानां । नवंति शतमायनाः॥ पंचाशतं ततास्तुंगा । योजनानि दिसप्ततिं ॥ ४ ॥ हावनावाद्यभिनय-विलासोल्लासिपु. त्रिकाः ॥ दिदृदानिश्चलैर्दिव्यांगना दैविांचिताः ॥ ॥ ५५ ॥ चित्रोत्कीर्णैर्हयंगज-सुरंदानवमानवैः ॥ यः तथा चंद्रसरखा नज्ज्वल , अने तेथी बहार सुवर्णसरखा रंगवाळा बत्रीस रतिकरपर्वतो , ॥ १५ ॥ तथा चार अंजनाचलपर्वतो बे, एवीरीते ते बावन पर्वतोना विवि. धप्रकार ना देदीप्यमान शिखरोपर हजारोगमे मणि धने रत्नोना कोंगरावाला बावन जिनमंदिरो बे. ॥ ७३ ॥ ते जिनमंदिरो एकसो जोजन लांबां, पचास जोजन पहो. कां तथा बहुतेर जोजन उंचां . ॥ १४ ॥ हावनावादिकनाट्यनेदना विलासथी नलसायमान थयेली पुत. लीनवाळा ते जिनप्रासादो जाणे जोवामाटे निश्चल ए. वी देवांगनाना समूहोथी शोनिता थयेला होय न. हि तेम शोने जे. ॥ १५ ॥ वळी त्यां चित्रमा कोतरेला
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( ४८५ ) जुता लोकनरस - स्थितविभुवनाश्व ।। १६ ।। व्यष्टनि मंगलैः स्पष्टं । विशिष्ट व्यपि देहिनां । सेवाजुषां वितन्वानाः । कोटिशो मंगलावलीः ॥ 99 ॥ प्रीत्योन्नतपुद प्राप्ते - नृत्यद्भिख केतुभिः ॥ त्वस्तिं प्रोल्लसद्भक्ती - ना. हृयंत श्वांगिनः ॥ ७८ ॥ स्थिताः सिंहनिषदना - काराः स्फारमल त्विषः || नव्याघघोरमातंग - घटामिव जिघासवः ॥ १९ ॥ षङ्गिः कुलकं ॥ तथाहुः - अंजणगपचयाणं । घोमा, हाथी, देव, दानव तथा मनुष्योवडे करीने जाणे यदभुत रसने जोवामाटे त्यां त्रणे वनो घ्यावीने वसेलां होय नहि तेम लागे बे. ॥ १६ ॥ प्रगटरीते या मंगलोवाळा पण ते जिनप्रासादो पोतानी सेवा करना
प्राणीजने कोडोगमे मंगलनी श्रेणि व्यापे बे. ॥ ॥ 99 ॥ वळी जंचां स्थाननी प्राप्तिथी घ्यानंदधी नाचती पताकावडे ते प्रासादो उल्लसायमान भक्तिवाळा प्रापीने जाणे तुरत बोलावता होय नहि तेम शोभे बे. ॥ १८ ॥ तिनिर्मल कांतिवाळा तथा बेठेला सिंहना याकारवाळा ते जिनप्रासादो जव्यजनोनां पापोरूपी प्र चंड दायीजना टोळांने जाणे माखानी इहावाळा होय नहि तेम शो d. ॥ ७९ ॥ षः कुलकं ॥ कं वे
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(०६) सिंहरतलेसु हवंति पत्तेयं ॥ अरिहंताययणाहिं । सीहणिसाया तुंगाई ॥०॥ द्वारैश्चतुर्निः प्रत्येकं । ते विभांति सुकांतिभिः । चतुर्गतिवस्तलोक-त्राणदुर्गा श्वो. जटाः ॥ ३१ ॥ प्राच्यां देवानिधे दार । तद्भवेद्देवदैवतं ।। असुराख्यं दक्षिणस्यां । हार चासुरदैवतं ॥ ७ ॥ पश्चि मायां च नागाख्यं । तन्नागामररदितं ॥ उत्तरस्यां सुप
ख्यं । सुपर्णसुररदितं ॥ ३ ॥ योजनानि षोडशैतदेकै हारमुन्वितं ॥ योजनान्यष्टविस्तीर्ण । प्रवेशे ताव के अंजनाचलपर्वतोना दरेक शिखरोपर बेला सिं. हना आकारवाना तथा मुंचा अरिहंतप्रचना प्रासादो . ॥०॥ चारे गतिथी डरेला लोकोनां रदणमाटे जाणे मजबूत किल्ला होय नहि तेम ते दरेक प्रासादो नत्तम कांतिवाळा चार दरवाजानवडे शोने . ॥७१ ।। पूर्वदिशामां देवोवडे रदित थयेधुं देव नामनुं हार बे, दक्षिणदिशामां असुरोथी सेवायेद्धं असुर नामनुं हार . ॥ ७ ॥ पश्चिमदिशामां नागदेवोवडे रक्षित थयेवु नाग नामनुं द्वार ने, तथा उत्तरमा सुपर्णकुमारोवडे रदित थयेवू सुपर्ण नामनुं हार . ॥ ३ ॥ ते एकेका हारनी जंचा शोळ जोजननी ने, पहोब्बर थाठ जोजन
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(४७) देव च ॥ ४ ॥ प्रतिहारमथैकैकः । पुरतो मुखमंगपः॥ चैत्यस्य यो मुखे हारे । पट्टशालासमो मतः ॥ ५ ॥ तस्यापि पुरतः प्रेदा-मंडपः श्रीभिरगुतः ॥ प्रेदादाणकं तस्मै । गृहरूपः स मंम्पः ॥ ७६ ॥ योजनानां श. तं दी? । पंचाशत्तानि विस्तृतौ ॥ योजनानि षोडशो. चौ । त्रिभिर्दा रैमनोरमौ ।। ७७ ॥ तथोक्तं जीवानिगमवृत्तौ-मुखमंडपानां प्रत्येकं प्रत्येकं विदिशं तिसृषु दिनु एकैकस्यां दिशि एकैकनावेन त्रीणि दाराणि. जीवाभिनी, अने प्रवेशमां पण तेटबुंज . ।। ४ ।। वळी ते दरेक दरवाजानी बागल एकेको मुखमंगप ने, के जेने ते जिनप्रासादना मुखयागळ दरवाजामां पट्टशालासरखो कहेलो . ॥ ५ ॥ तेनी वागळ पण शोनायी अ. त एवो प्रेदामंडप बे, घने तेमांथी नाटक जोवानुं हो. वाथी ते मंम्प घररूप ने. ॥ ६ ॥ ते बन्ने मंम्पो एकसो जोजन लांबा, पचास जोजन पहोळा, शोळ जोजन जंचा तथा त्रण दारोधी शोनिता . ॥ 6 ॥ तेमाटे जीवानिगमनी टीकामां कडं ने के-दरेक मुखमंडपोनी त्रण दिशान , केमके त्रणे दिशा-मानी एकेकी दि. शामां एकेक होवाथी त्रण दरवाजा . जीवाभिगम
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(10) गमसूत्रादर्शे तु तेसिं णं मुहममवाणं चनदिसि चत्तारिदारा पामत्ता' इति दृश्यते. प्रेदामंडपमध्ये च । वजरत्नविनिर्मितः ॥ एकैकोऽदाटकस्तस्य । मध्येऽस्ति म. णिपीविका || G ॥ योजनान्यष्ट विस्तीर्णा-यता चवारि चोबिता ॥ नपर्यस्याश्चेद्रयोग्यं । सिंहासनमनुत्तरं ॥ ॥ सिंहासनस्य तस्योर्ध्व । दूष्यं विजयनामकं ॥ वितानरूपं तदन-वस्त्रमत्यंतनिर्मलं ॥ ए० ॥ मुक्तादा. मालबनाय । मध्येऽस्य वानिकोंकुशः ॥ तस्मिन्मुक्तादाम सूत्रनी प्रतिमां तो- ते मुखमंडपोनी चारे दिशा मां चार दारो कहेला ने' एम देखाय . प्रेदाममपना म. ध्यभागमां वज्ररत्नोनो वनेलो एकेको अखाडो ने, अने ते अखाडाना मध्यभागमां मणिपीठिका . ॥७॥ते मणिपीठिका पाठ जोजनना विस्तारवाळी तथा चार जोजन वंची ने, अने तेपर इंद्रने बेसवालायक एक अनु. पम सिंहासन होय . ॥ जए ॥ ते सिंहासनपर विजय नामे देवदृष्यवस्त्र , के जे वस्त्र रत्नजमित तथा अत्यंत निर्मल चंद्रवारूप .॥५०॥ ते चंद्रवानी बच्चे मोतीननी माला लटकाववामाटे वज्रनो बनेलो एक हुंक डे, ते हुंकमां घडाजेवडा मोती थी शोनिती मोतीनी माला
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(Hry ) कुंभ-प्रमाणमौक्तिकांचितं ॥ १ ॥ तच स्वा|चत्वमा नै-मुक्तादामनिरंचितं ॥ चतुर्दिशमर्धकुंन-प्रमाणमौ. क्तिकान्वितैः ।। ७२ ॥ तथाह स्थानांगे–तेसुणं वश मएसु अंकुसेसु चत्तारि कुंनिकामुत्तादामा प० तेणं कुंभिक्कामुत्तादामा पत्तेयं पत्तेयं तदधुञ्चत्तप्पमाणमित्तेहिं च. नहिं बकुंनिक्केहिं मुत्तादामेहिं सवतो समंता संपरिकित्ता, एतट्टीकापि-कुंभो मुक्ताफलानां परिमाणतया विद्यते येषु तानि कुंनकानि मुक्तादामानि मुक्तामालाः कुंभप्रमाणं च-दो असती पसई, दो पसश्न सेतिया,
॥ १ ॥ वळी ते माळा पोताथी अर्ध नंचाश्वाळी, अने अर्धा घडाजेवडां मोतीनवाळी माळाथी चारे दिशानमां शोनिती थयेली ॥ ए॥ तेमाटे स्थानां. गमां कडं ने के-ते वज्रमय हुंकोमां चार घडाजेवमां मोतीननी मानन कहेली , वळी ते दरेक माळा ते. थी अर्ध चाश्वाळी, अने अर्धा कुंजेवमा मोतीवाळी चार माळानथी चोतरफ घेरायेली . वळी ते सूत्रनी टीका नीचेमुजब ये-कुंन ने मोतीनना प्रमाणतरीके जेनमां ते कुंभकमाळा एटले कुंनजेवडां मोतीननी माळा. कुंजनुं प्रमाण नीचेमुजब जे–बे असलीनी एक पसली,
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(Yए) चत्तारि सेतियान कुलन, चत्तारि कुलवा पल्लो, चत्तारि पड़ा थाढयं, चत्तारि बाढया दोणो, सही बाढयाई ज. हन्नो कुंनो, असीई मनिमो, सयमुक्कोसोत्ति. तदछत्ति तेषामेव मुक्तादानामर्धमुच्चत्वस्य प्रमाण येषां तानि तद. धोच्चत्वप्रमाणानि तान्येव तन्मात्राणि तैः, अकुंनिक्के. हिंति मुक्ताफलार्धकुंभवद्भिरिति.. ___ततः प्रेदामंडपाये । प्रत्येकं मणिपीठिका ॥ नन्नूिता योजनान्यष्टौ । षोडशायतविस्तृता ॥ ३३ ॥ चैत्यस्तूबे पसलीनी एक सेतिका, चार सेतिकानो एक कुलप, चार कुलपोनो एक प्रस्थ, चार प्रस्थोनो एक पाठक, चार बाढकनो एक द्रोण, साठ पाढकोनो एक जघन्य कुंन, ऐसी थाढकोनो एक मध्यमकुंभ, घने एकसो थाढकोनो एक नत्कृष्टो कुंन थाय ने. तदर्ध एटले तेज मोतीननी माळाननी चाश्चं अर्ध प्रमाण ने जेनुन, ते अर्धा नंचां प्रमाणवाळी माळान कहेवाय, तेनवडे. 'अर्धकुंजिक' एटले अर्धा कुंभजेवडां मोतीनवाळी.
पछी ते दरेक प्रेदामंझपनी बागल एकेकी मणिपीठिका होय बे, ते आठ जोजन जंची तथा शोल जो जन लांबी पहोळी . ॥ ५३॥ ते पीठिकापर चैत्यस्तूप
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(४१) पस्तपरि । स योजनानि षोडश ॥ अायतो विस्तृतस्तुं. गः । सातिरेकाणि षोमश | ए४ ॥ मणिपीठिकाश्चतस्रः । स्तूपस्यास्य चतुर्दिशं ॥ योजनान्यष्ट विस्तीर्णा-यता. श्चत्वारि चोनिताः ॥ ५ ॥ इति जीवानिगमवृत्तौ. ता. सामुपरि च स्तूपा-निमुख्याः श्रीमदर्हतां ॥ जयंति प्रतिमाश्चंच-न्मरीचिनिचयांचिताः ॥ ६ ॥ चैत्यस्तूपात् परातस्मा-द्विभाति मणिपीठिका ॥ विष्कनायामतः स्तूप
-पीठिकासन्निनैव सा ।। ए ॥ नपर्यस्याः पीठिकायाश्चैत्यवृदो विराजते ॥ विजयाराजधान्युक्त-चैत्यवृदास. होय , के जे शोळ जोजन लांबो पहोलो तथा कईक अधिक शोळ जोजन नंचो . ॥ ए ॥ ते स्तूपनी चारे दिशानमां चार मणिपीठिका होय , के जे पाठ जोजन लांबी पहोळी अने चार जोजन चीजे. ॥ ॥ ए५ ॥ एम जीवानिगमनी टीकामां कडं . ते पाठि. कानपर स्तूपसन्मुख श्रीमान अरिहंतप्रनुनी चमकतां कि रणोना समूहथी शोभिती थयेली प्रतिमान जयवंती व. ते . ॥ ५६ ॥ वळी ते चैत्यस्तूपथी पागल एक बी. जी मणिपीठिका शोने , के जे लंबा पहोळाश्मां स्तूपपीलिकाजेवडीज . ॥ ९ ॥ ते पीठिकापर एक चैः
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(४२) होदरः ॥ ए ॥ वीदय चैत्यश्रियं रम्यां । विश्वलक्ष्मीविजित्वरीं ॥ मरुचलशिरोव्याजा-दाश्चर्य व्यंजयन्निव ॥ ॥ एए ॥ योजनान्यष्ट विस्तीर्णा—यता चत्वारि मेदुरा ॥ तदने पीठिका तस्यां । महेंद्रध्वज उज्ज्वलः ।। २०० ॥ तुंगः षष्टिं योजनानि । विस्तीर्णश्चैकयोजनं ॥ एतावदेव चोदिछः । शुधस्त्रविनिर्मितः ॥ १॥ ततो नंदापुष्करिणी। योजनान्यायता शतं ॥ पंचाशं विस्तृता सा च । दशोबिछा प्रकीर्तिता ॥२॥ दिसप्ततिं योजनाना-मु. त्यवृत शोने , के जे विजयाराजधानीमां कहेला चैत्यवृदाजेवो . ॥ एवं ॥ समस्त शोनाने जीतनारी एवी चैत्यनी मनोहर शोनाने जोश्ने, वायुथी चालता मथाळाना भागना मिषयी जाणे ते आश्चर्य प्रगट करतो होय नहि तेम ते चैत्यद शोभे . ॥ एy ॥ तेनी बागळ पाठ जोजन लांबी पहोळी, तथा चार जोजन जाडी एक पीठिका ने, अने तेपर एक नज्ज्वल महेंद्रध्वज . ॥ २०० ॥ ते ध्वज साठ जोजन नंचो, एक जोजन पहोळो, तेटलोज लंडो अने शुद्ध स्त्रोथी बना वेलो . ॥१॥ तेथी भागळ नंदावावडी , के जे एकसो जोजन लांबी, पचास जोजन पहोळी, अने दश
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(४७३) हिर्बुब्धषट्पदैः ॥ धब्जैरत्यंतसुरन्नि-मरंदैर्वासितोद. का ॥ ३ ॥ युग्मं ॥ अशोकसप्तपर्णाख्य-चंपकाम्रवनैः क्रमात ॥ पूर्वादिषु मनोज्ञेयं । कुकुप्सु चतसृष्वपि ॥४॥ तथोक्तं स्थानांगे-पुत्वेण असोगवणं । दाहिणन हो। सत्त वाणवणं ॥ अवरेण चंपगवणं । चूचवणं नत्तरे पासे ॥ ५॥ द्वौ मंमपौ स्तूप एक–श्चैत्यवृदो महाध्वजः ॥ वापी वनाढ्या वस्तू नि । प्रतिहारममूनि षट् ॥ ६ ॥ प्रतिप्रासादमेवं च । चत्वारो मुखमंडपाः ॥ अबंकषोत्तुंगजोजन मी कहेली . ॥२॥ वळी ते बहोतेर जो. जन नंडां, तथा लोभायेला ने जमरो जेमां, अने अ. त्यंत सुगंधि परागवालां कमलोथी सुगंधि जलवाळी . ॥३॥ युग्मं ॥ ते वावडी पूर्वादिक चारे दिशानमां यावेलां अनुक्रमे अशोकवन, सप्तपर्णवन, चंपकवन त. था यामवनथी शोभिती थयेली . ॥४॥ तेमाटे स्थानांगमां कह्यं । के-तेनी पूर्वदिशामां अशोकवन, ददिणे सप्तपर्णवन, पश्चिममां चंपकवन तथा उत्तरवाजुमां
आम्रवन ने. ॥ ५ ॥ एवारीते दरेक दरवाजापासे बे मंमपो, एक स्तूप, एक चैत्यवृदा, एक महाध्वज, अने व. नसहित वावमी, एम वस्तुन होय . ॥ ६॥ वळी
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(४ ) शृंगा-श्वत्वारो रंगमंडपाः ॥ ७ ॥ स्तूपाश्चत्वारस्तथैव । चैत्यवृद्रिकेतवः ॥ चतस्रः पुष्करिण्यश्च । तद्दनानि च षोडश ॥ ७ ॥ प्रासादानामयो मध्ये-ऽस्त्यैकैका मणि पीलिका ॥ विष्कंन्नायामतः सा च । योजनानीह षोडश ॥ ॥ ॥ अष्टोन्त्रिता तदुपरि । स्याद्देवबंदकः स च ॥ ततायतः पीठिकाव-तुंगोऽधिकानि षोमश ॥ १० ॥ च. तुर्दिशं तत्र जांति । रत्नसिंहासनस्थिताः ॥ अर्हतां प्रतिमा नित्याः । प्रत्येकं सप्तविंशतिः ।। ११ । प्रतिप्रासादमिएवीरीते दरेक प्रासादमां बाकाशने अडे एवा नंचा शिखरोवान चार मुखमंडपो अने चार रंगमंडपो . ॥ ॥७॥ वळी एवीरीते चार स्तूपो चैत्यवृद, इंद्रध्वज, चार वावडीन अने तेनां शोळ वनो . ॥७॥ हवे ते प्रा. सादोना मध्यभागमां एकेकी मणिपीठिका ने, अने ते पीलिकानी लंबाई पहोळा शोळ जोजननी , ॥ ७॥ तथा ते आठ जोजन नंची ने, अने तेपर देवचंदक ने, तेनी लंबाई पहोनश पीठिकाजेटलीज . पण नंचा शोळ जोजन अधिक . ॥ १० ॥ तेपर चारे दिशान मां रनोना सिंहासनपर बेठेली अरिहंतप्रभुनी शाश्वती प्रतिमान ने अने ते दरेक दिशामां सतावीस सतावीस
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(४५) त्येवं । तासामष्टोत्तरं शतं ॥ द्वारस्थाः षोमशेत्येवं । चतुः विशं शतं स्तुवे ॥ १५ ॥ ऋषभो वर्धमानश्च । चंद्रानन· जिनेश्वरः ॥ वारिषेणश्चेति नाना । पर्यकासनसंस्थिताः ॥ १३ ॥ दे दे च नागप्रतिमे। जिना पुरतः स्थिते ॥ हे द्वे च यदातार्चे । अाझामृत्प्रतिमे अपि ॥ १४ ॥ विनयेन संमुखीन-घटितांजलिसंपुटे । नत्या पर्युपासमाने । स्थिते किंचिन्नते श्व ॥ १५ ॥ युग्मं ॥ एकैका चामरधर-प्रतिमा पार्श्वयोर्दयोः ॥ पृष्टतश्च धर-प्र. . ॥ ११ ॥ एवीरीते दरेक प्रामादमां एकसो आठ प्र. तिमान ने, तथा दरवाजापर शोळ बे, एम सर्व मली ए. कसो चोवीस प्रतिमाननी हुं स्तुति करुं बु. ॥ १ ॥ ऋषन, वर्धमान, चंद्रानन अने वारिषेण, ए नामनी ते प्रतिमान पर्यकासनधी बेठेली . ॥ १३ ॥ ते जिनप्र. तिमानी बागल बे बे नागप्रतिमा रहेली ने, अने बे बे यद तथा नृतनी प्रतिमा, तथा हुकम नठावनारनी बे प्रतिमान पण ॥ १४ ॥ विनयवडे सन्मुख हाथ जोमीने भक्तिथी सेवा करतीयकी कक जाणे नमेली होय ते. म रहेली . ॥ १५ ।। युग्मं ॥ वळी बन्ने पमखे एकेकी चामर धरनारी प्रतिमा , अने पाउल एक प्रतिमा ब.
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(४७६) तिमैकात्र निश्चिता ॥ १६ ॥ तथोक्तमावश्यकचूर्णी'जिणपडिमाणं पुरन दो दो नागपडिमान, दो दो जकपमिमान, दो दो ऋषपमिमान, दो दो कंडघरपमि: मान ' इत्यादि.
दामानि धूपघट्योऽष्टौ । मंगलानि ध्वजास्तथा ॥ भांति षोमश कुंभादी-न्येष्वलंकरणानि च ॥ १७ ॥ घंटावंदनमालाश्च । भंगाराश्वात्मदर्शकाः ॥ सुप्रतिष्टकचंगेर्य-खत्रैः पटलकैयुताः ॥ १७ ॥ युग्मं ॥ स्वर्णचारुरजोयुक्त-वालुकानिमनोरमाः ॥ मयस्तेषु राजते । बने धारण करीने रहेली . ॥ १६ ॥ तेमाटे श्रावश्यकनी चूर्णिमां कडं ने के– जिनप्रतिमानी बागल वे बे नागप्रतिमा, बे बे यदप्रतिमा, बे बे जूतप्रतिमा अ ने बे बे चामरधरोनी प्रतिमान ने ' इत्यादि.
पाठ पुष्पमाला, धूपघटी, मंगल तथा महाध्वजो शोमे , तेम ते मां कुंनादिक शोळ यानुषणो .॥ ॥ १७॥ वळी घंटा, वंदनमाला, जारी, अरिसा तथा उत्र अने पटलोसहित उत्तम चंगेरीनं . ॥ १७ ॥ युग्मं ॥ नमदी सोनेरी रजवाळी वेळुथी मनोहर थयेली तेनी, मिज जाणे मूर्तिमान शोभाना लवोवाळी होय नहि
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( ए) मृतैः शोनालवैखि ॥ १७ ॥ अथ कैश्चित्कृतस्नानैः । स. ध्यानैधृतधौतिकैः ॥ अंतर्बहिश्वावदातैः । शस्त्कालहृदैरिव ॥ २० ॥ कैश्चित्कृतोत्तरासंगै-मुखकोशावृताननैः । तकालनष्टांतःपाप-परावृत्तिभयादिव ॥ २१ ॥ मर्दयनिश्चंदनेन । कैश्चित्कर्पूरकुंकुमे ।। मोहप्रतापयशसी। चू. र्णयनिखिोर्जिते ॥ २५ ॥ कैश्चिघुसृणनिर्यासो-खासिकचोलकबलात ॥ हृद्यमांतं नक्तिरागं । दधद्भिः प्रकटं बहिः ॥ २३ ॥ कैश्चिन्नानावर्णपुष्पो-दामदामौघदंभतः तेम शोने . ॥ १७ ॥ हवे त्यां केटलाक स्नान करेला, नत्तम ध्यानवाळा, तथा शरदऋतुना कुंडोनीपेठे अंदर तथा बहारथी निर्मल, ॥ २०॥ तथा केटलाक करेल उत्तरासंग जेनए एवा, तथा तत्काल नाश पामेला अं. तरना पापोने पाछा पाववाना जयथी जाणे मुखकोश. थी ढांकेला मुखवाळा, ॥ ११ ॥ तथा केटलाक चंदनथी बरास तथा केसर धुंटता, ते जाणे मोहना प्रबल प्रताप अने जशने चूर्णित करता होय नहि तेवा, ॥२॥ तथा केटलाक केसरना रसथी नरेला मनोहर कचोळांना मिषयी हृदयमां नहि माता भक्तिरागने जाणे प्रगटरीते बहार कहामता होय नहि एवा, ॥ २३ ॥ तथा के
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(४ ) ॥ श्रयद्भिरतश्रेयः-श्रेणीमिव करे कृतां ॥ २४ ॥ वंदमानैः पर्युपास-मानैः पूजापरायणैः ॥ प्रासादास्तेऽभितो नाति । सुरासुरननश्चरैः ॥ १५ ॥ षनिः कुलकं ॥ पहकल्याणकमह–चिकीर्षयागताः सुराः ॥ इह विश्रा म्य संदिप्त-याना यांति यथेप्सितं ॥ २६ ॥ ततः प्रत्यावर्तमानाः । कृतकृत्या इहागताः ॥ रचयंत्यष्ट दिवसान । यावत्सवमुच्चकैः ॥ २७ ॥ प्रतिवर्ष पर्युषणा-चतुर्मासटलाक विविधप्रकारना रंगबेरंगी पुष्पोनी माळानना स. मूहना मिषधी हाथमां धारण करेली अद्भुत पुण्यनी श्रेणिने जाणे लेता होय नहि एवा, ॥ २४ ॥ तथा वं. दना करता, सेवा करता, अने पूजामां तत्पर एवा सुर, थसुर अने विद्याधरोथी ते प्रासादो चोतरफथी शोभी रहेला . ॥ २५ ॥ षनिः कुलकं ॥ अरिहंतप्रभुना क. व्याणकनो महोत्सव करवानी बाथी नहीं पावेला दे. वो वहीं विश्राम लेश्ने, तथा पछी पोतानां वाहनोने संकोचीने पोताना इबित स्थानके जाय . ॥ २६ ॥ पनी कृतार्थ थयाथका त्यांथी पाछा वळीने यहीं श्रावी तेन थाठ दिवसोसुधी तुंचे प्रकारे अगश्महोत्सव करे ॥ २७ ॥ वळी दरवर्षे पर्युषण तथा चोमासीपर्वमां
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दमास
(४) कपर्वसु ॥ इाष्टौ दिवसान् याव - दुत्सवं कुर्वते सुराः ॥ ॥ २८ ॥ तथोक्तं जीवा निगमसूत्रे - तहां बहवे नवएव वाणमंतरजोइसवेमालिया देवा चनुमासियां पाडिरुवसु सवहरिएस वा मेसु बहुसु जि जम्मण पिरकमण णाणुपत्ति परिणिवाणमा दिएसु देवकज्जेसु य या वत् पादितान महामहिमान कारेमाणा पालेमा पा सुहं सुहेणं विहरति ' तत्रापि नियतस्वस्व -स्थानेषु सुस्नायकाः || उत्सवान् सपरीवाराः । कुर्वेति नक्तिनासुराः ॥ २८ ॥ तथाद नंदीश्वरकल्पः -
देवो यहीं घ्यावीने या दिवसासुधी प्राइमहोत्सव करे वे. ॥ २८ ॥ तेमाटे जीवा निगमसूत्रमां कहां वे के
त्यां घणा जवनपति, वाणमंतर, ज्योतिषी तथा वै. मानिकदेवो चोमासी तथा संवत्सरीपर्वमां, तेमज जिनजन्म, जिनदीदा तथा जिननी ज्ञानोत्पत्ति ने जिनदीक्षायादिक बीजां घणां देवकार्योमां हीं नंदीश्वरी. पमा महोत्सव करताथका तथा पालताथका सुखे सुखे विचरे बे' वळी त्यां पण देवेंद्रो पोतपोताना निश्चित स्थानोमा परिवारसहित भक्तिथी भासुर थयायका महोत्सव करे. ||२८|| तेमाटे नंदीश् वरकल्पमां कहांने के
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प्राच्येजनगिरौ शक्रः । कुरुतेऽष्टाहिकोत्सवं ।। प्रतिमानां शाश्वतीनां । चतुर्दारे जिनालये ॥ २७ ॥ तस्य चाईश्चतुर्दिक्स्थ-महावापी विवर्तिषु ॥ स्फाटिकेषु दधिमुख-पर्वतेषु चतुलपि ॥ ३० ॥ चैत्येष्वर्हप्रतिमानां । शा. श्वतीनां यथाविधि ॥ चत्वारः शक्रदिक्पालाः । कुर्वतेऽ. शाहिकोत्सवं ॥ ३१ ॥ ईशानेंद्रस्त्वौत्तराहें-जनायौ वि. दधाति तं ॥ तल्लोकपालास्तदापी-दध्याद्यदिषु कुर्वते ॥ ॥ ३५ ॥ चमरेंद्रो दाक्षिणात्यां-जनाजावुत्सवं सृजेत् ॥
पूर्वदिशातरफना अंजनाचलपर्वतपर शाश्वती प्रति. मानना चार दारोवाळां जिनालयमां सौधर्मेंद्र ठाम होत्सव करे . ॥ २५ ॥ वळी ते पर्वतनी चारे दिशानमा रहेली मोटी वावडीनमा रहेला चार स्फटिकमय दधिमुखपर्वतोपर ॥ ३० ॥ अरिहंतप्रनुनी शाश्वती प्रतिमानना चैत्योमा सौधर्मेऽना चार दिक्पालो विधिपूर्वक अाश्महोत्सव करे . ॥ ३१ ॥ वळी उत्तरतरफना अं. जनाचलपर्वतपर झशानेंद्र अठाश्महोत्सव करे , तथा तेना लोकपालो तेनी वावडीनमा रहेला दधिमुखपर्वतोपर करे . ॥ ३२ ॥ तेमज दक्षिणबाजुना अंजनाचलपर चमरेंड, तथा तेनी वावडी-माना दधिमुखपर्वतोपर
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(५०१) तहाप्यंतर्दधिमुखे-ध्वस्य दिक्पतयः पुनः ॥ ३३ ॥ प. श्चिमेजनशैले तु । बलीद्रः कुरुते महं । तद्दिक्पालास्तु तछाप्यंत ग्दधिमुखाधिषु ॥ ३४ ॥ एतत्सर्वमर्थतो जंबूढीपप्रज्ञप्तिसूत्रेऽपि. तत्र गायति गंधर्वा । मधुरैर्नाद वित्रमैः ॥ समानतालविविधा-तोद्यनिर्घोषबंधुरैः ॥ ३५ ॥ मृदंगवेणुवीणादि-तूर्याणि संगतैः स्वरैः ।। कौशलं द
यंतीव । तस्यां विबुधर्षदि ।। ३६ ॥ नृत्यद्देवनर्तकीनां । रणंतो मणिनू पुराः । वदंतीव निर्दयांहि-पातैर्मबंहितेना दिक्पालो अठाश्महोत्सव करे . ॥ ३३ ॥ वळी पश्चिमतरफना अंजनाचलपर्वतपर बलींद, तथा तेना दि. पालो तेनी वावमीनमा रहेला दधिमुखपर्वतोपर अगा. महोत्सव करे . ॥ ३४ ॥ श्रा सघळो जावार्थ जंबू. होपपन्नत्तिसूत्रमा ने. त्यां गांधर्वो एकसरखा ताल तथा नानाप्रकारना वाजिंत्रोना शब्दोथी मनोहर थयेला म. धुर नाद तथा विलासपूर्वक गायन करे ने.॥३५॥ वकी त्यां देवपर्षदामां मृदंग, वांसली तथा वीणायादिक वाजिंत्रो साथे मळेला पोताना शब्दोथी जाणे पोतार्नु कुशलपणुं देखाडतां होय नहि तेम लागे . ।। ३६ ।। वळी नाचती देवांगनानना रणफणता मणिना कांकरो
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(५०५) पीडनं ॥ ३७ ॥ तासां तिर्यग्ज्रमंतीना-मुबलंतः स्तनोपरि ।। मुक्ताहारा रसावेशा-न्नृत्यंतीवाप्तचेतनाः ॥३॥ विविधिविधिमिधिमि । थेई थेति निःस्वना ॥ तासां मुखोद्गताश्चेतः । सुखयंति सुधाभुजां ॥ ३० ॥ पूर्व हा. साप्रहासान्यां । स्वर्णकृत स्वपतीकृतः ॥ कृत्रिमैर्विज्रमैर्वि: प्र-लोभ्यः यः स्त्रीषु लैंपटः ॥ ४०॥ सोऽत्र कंगन्निरा. कुर्व-निपतंतं बलाद्गले ॥ मृदंग नंगुरग्रीवो । विलदो. निर्दय चरणपातोथी जाणे कोमल पगोनी पीडा सूचवता होय नहि तेम लागे . ॥ ३७ ॥ तीर्ग भमती एवी ते देवांगनानना स्तनोपर रहेला- मोतीना हारो रसना आवेशथी चेतनयुक्त यश्ने जाणे नाचता होय न हितेम शोभे . ॥ ३० ॥ वळी ते देवांगनानना मु खमांथी नीकळता विधिषिधि घिमिधिमि तथा थेश्थे ना शब्दो देवोना हृदयने सुख नपजावे . ॥ ३० ॥ स्त्रीनमां लंपट बनेला जे सोनारने पूर्व हासापहासानामनी देवीनए पोताना कृत्रिम विलासोथी लोनावीने पोतानो पति करेलो हतो, ॥ ४० ॥ ते सोनारनो जीव ग्रहीं पोताना कंठमांथी मृदंगने दूर करतो, परंतु ते मृ. दंग बलात्कारे पोताना कंठमां भावी पडवायी वोलखो
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( ५०३ ) ऽदासयत्सुरान् ॥ ४१ ॥ अच्युत त्रिदशीत - प्राग्जन्मसुहृदा कृतः || नागिलेनाप्तसम्यक्त्वः । प्राप्तेनामरपर्षदि ॥ ॥ ४२ ॥ त्रिभिर्विशेषकं ॥ जंघा विद्याचारणानां । समुदायो महात्मनां ॥ इह चैत्यनमस्यार्थ । श्रोत्कर्षादुपेयुषां || ४३ || ददात्युपदिशन् धर्मं । युगपद्भावशालिनां ॥ सज्जंगमस्थावरयो— स्तीर्थयोः सेवनाफलं ॥ ४४ ॥ द्दीपस्य मध्यागेऽस्य । चतुष्के विदिशां स्थिताः ॥ चत्वा - थ गुरकं ववाळो थयो को यहीं देवाने हास्य करा - वतो हतो. ॥ ४१ ॥ पीतेवामां तेनो पूर्वजवनो मित्र नागिल, के जे अच्युत देवलोकमां देवतरीके उत्पन्न थ यो हतो, तथा त्यां देवपर्षदामां यावेलो हतो. तेणे तेने सम्यक्त्व प्राप्त कराव्यं ॥ ४२ ॥ त्रिनिर्विशेषकं ॥ वकी यहीं श्रघाना उत्कर्षथी चैत्योने नमस्कार करवामा टे धावेला, तथा महान डे खात्मा जेनो एवा जंघा - चारमुनिनो तथा विद्याचारणमुनिजनो समुदाय ॥ ॥ ४३ ॥ धर्मनो उपदेश देतोयको एकीहारे उत्तम भा ववाळा ते देवाने जंगम तथा स्थावरतीर्थनी सेवानुं फल यापे वे ॥ ४४ ॥ या दीपना मध्यभागमां चार विदिशान मां सर्व रत्नोना बनेला बीजा चार रतिकरपर्वतो बे.
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(५०४) रोऽन्ये रतिकरा । गिरयः सर्वरत्नजाः ॥ ४५ ॥ योजनानां सहस्राणि । ते दशायतविस्तृताः ॥ सहस्रमेकमुत्तुंगा । थाकृत्या मल्लरीनिजाः ॥ ४६॥ सार्धे द्वे योजनशते ।
ममाः परिवेषतः ॥ एकत्रिंशत्सहस्राणि । तयोविंशाच षट्शती ॥ ४ ॥ तेन्यो लदं योजनाना-मतिक्रम्य चतुर्दिशं ॥ जंबूद्वीपसमा राज-धान्यः प्रत्येकमीरिताः।। ॥ ॥ तत्र दक्षिणपूर्वस्यां । स्थितादतिकराचलात् ॥ प्राच्यां पद्मानामदेव्याः । प्रज्ञप्ता सुमनाःपुरी ॥ भए । शिवादेव्या दक्षिणस्यां । पुरी सौमनमानिधा ॥ अर्चि ॥ ४५ ॥ ते पर्वतो दश हजार जोजन लांबा पहोळा, ए. क हजार जोजन जंचा तथा कालरजेवा श्राकारवाय बे, ॥ ४६॥ वळी तेन अढीसो जोजनसुधी पृथ्वीमांखुचेला , तथा तेननो वेरावो एकत्रीस हजार उसो ते. वीस जोजननो बे. ॥ ४ ॥ ते पर्वतोथी एक लाख जो. जन नळंग्याबाद चारे दिशानमां दरेकमां जंबूद्दीपसरखी राजधानीन कहेली . ॥ ४ ॥ तेमां अमिखूणामां रहेला रतिकरपर्वतथी पूर्वदिशामां पद्मानामनी देवीनी सु. मनाःपुरीनामनी राजधानी कही . ॥ ४ए । दक्षिण दिशामां शिवादेवीनी सौमनसानामनी राजधानी , अ.
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(५०५) माली प्रतीच्यां स्या-बचीदेव्या महापुरी ॥ १०॥ न. त्तरस्यां मंजुनाम्न्या । राजधानी मनोरमा ॥ दक्षिणपश्चिमायां च । स्थितादतिकरादथ ॥५१॥ पूर्वस्याममलादेव्या । नृता नाम महापुरी ॥ तावतंसका याम्या-मप्सरोऽ. भिधभर्तृका ॥ ५॥ प्रतीच्यां नवमिकाया । गोस्तूपा. ख्या महापुरी ॥ स्यादुत्तरस्यां रोहिण्या । राजधानी सुदर्शना ॥ २३ ॥ अष्टाप्येवं राजधान्यो-ऽनयोर्दिशां चतु ष्टये ॥ अष्टानां मुख्यदेवीनां । वज्रपाणेः सुरेशितुः ॥ ॥ ५५ ॥ थथ चोत्तरपूर्वस्यां । योऽसौ रतिकराचलः ॥ ने पश्चिममां शचीदेवीनी अर्चिाली नामनी राजधानी
॥ ५० ॥ अने उत्तरमा मंजु नामनी देवीनी मनोरमा नामनी राजधानी . वळी नैऋत्यदिशामां रहेला र. तिकरपर्वतथी ॥ ५१ ॥ पूर्वदिशामां अमलादेवीनी नृता नामनी नगरी , तथा दक्षिणमा अप्सरा नामनी देवीनी तावतंसका नामनी नगरी जे. ॥ ५ ॥ पूर्वमां नवभिका नामनी देवीनी गोस्तूपा नामनी राजधानी, तथा उत्तरमा रोहिणीदेवीनी सुदर्शना नामनी राजधा. नी. ॥ २३ ॥ एवीरीते ते बन्ने पर्वतोनी चारे दिशाजमां सौधर्मेंद्रनी थाउ मुख्यदेवीननी पाठ राजधानी
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( ५०६ ) कृष्णा देव्यास्ततः प्राच्यां । पुरी नंदोत्तराभिधा ॥ ९५ ॥ दक्षिणस्यां कृष्णराज्या | देव्या नंदानिधा पुरी || पश्चिमायां तु रामायाः । पुर्युत्तरकुरानिधा || ६ || उदग्रामरक्षितायाः । पुरी देवकुरानिधा || योऽप्युत्तरपश्चिमायां । शैलो रतिकरस्ततः ॥ ९७ ॥ वसुदेव्या राजधानी | प्रा.
रत्नाभिधा भवेत ॥ याम्यां तु वसुगुप्ताया । रत्नोचयाभिधा पुरी || १८ || प्रतीच्यां वसुमित्रायाः । सर्वरत्नाभिधा पुरी || वसुंधरायाचोदीच्यां । नगरी रत्नसंचया ॥ न े. ॥ ९४ ॥ दवे ईशान दिशामां जे रतिकरपर्वत वे. तेथी पूर्वदिशामां कृष्णा देवीनी नंदोत्तरा नामनी राजधानी बे. ॥ ९५ ॥ दक्षिण दिशामां कृष्णराजी नामनी दे वीनी नंदा नामनी नगरी बे, तथा पश्चिमदिशामां रामा नामनी देवीनी उत्तरकुरा नामनी नगरी बे. ॥ ५६ ॥ तथा उत्तर दिशामां रामरक्षिता नामनी देवीनी देवकुरा नामनी नगरी बे. वळी वायव्य दिशामां जे रतिकरपर्वत बे, तेथ ॥ ९७ ॥ पूर्वदिशामां वसुदेवीनी रत्ना नामनी राजधानी वे, तथा दक्षिण दिशामां वसुगुप्तादेवीनी स्त्नोचया नामनी नगरी बे. ॥ ९० || पश्चिममां वसुमित्रादे वीनी सर्वरत्ना नामनी नगरी बे, छपने उत्तरमां वसुंधरा
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(५०) ॥ ५० ॥ एता ईशाने देवी-राजधान्योऽष्ट पूर्ववत् ॥ एकैकार्हचैत्यलब्ध-सुषमाः षोमशाप्यमूः ॥ ६०॥ इत्यर्थतः स्थानांगादिषु. मतांतरे तूत्तराशा-संवद्यौ यावुनौ गिरी ॥ तयोः प्रत्येकमष्टासु । दिदवीशानसुरेशितुः ॥६१।। महिषाणां राजधान्यो-ऽष्टानामष्टाष्ट निश्चिताः ॥ एवं च याम्यदिक्संब-यो रतिकरागयोः ॥ ६ ॥ प्रत्येकमष्टासु दिनु । वज्रपाणेविमौजसः ॥ इंद्राणीनां राजधान्योऽष्टानामष्टाष्ट निश्चिताः ।। ६३ ।। तथोक्तं जिनप्रनसूरिकृ. देवीनी रत्नसंचया नामनी नगरी जे. ॥ एए । ए पाठे राजधानीन पूर्वनीपेठे ईशानेंद्रनी देवीननी , अने ते शोळे राजधानीन अरिहंतप्रभुना एकेक चैत्यथी प्राप्त थयेल सुखवाळी . ॥ ६० ॥ यावीरीतनो नावार्थ स्थानांगादिक सूत्रमा ने. हवे बीजे मते नत्तरदिशामां जे बे पर्वतो , तेन दरेकनी बाते दिशा-मां ईशानेंद्रनी।। ॥ ६१ ॥ पाठ पटराणीननी पाठ पाठ राजधानी निश्चित थयेली, तथा एवीरीते दक्षिण दिशामां रहेला बन्ने रतिकरपर्वतोनी ॥ ६ ॥ दरेकनी पाठे दिशामां सौधर्मेऽनी था इंद्राणीननी पाठ आठ राजधानीन निश्चित थयेली . ॥ ६३ ।। तेमाटे जिनप्रभसूरिए क
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(५०७) ते नंदीश्वरकटपे-तत्र यो रतिकरा-चलयोर्दक्षिणस्थयोः ।। शक्रस्येशानस्य पुनरुत्तरस्थितयोः पृथक ।। ॥ ६४ ॥ अष्टानां महादेवीनां । राजधान्योऽष्ट दिक्षु ताः ॥ लदाबाधा लदमाना । जिनायतनषिताः ॥ ६५ ॥ सुजाता च सौमनसा । चार्चिाली प्रत्नाकरा ॥ पद्मा शिवा शव्यंजने । जूता जूतावतंसिका ॥ ६६ ॥ गोस्तू. पासुदर्शने थ–प्यमलाप्सरसौ तथा ॥ रोहिणी नवमी चाथ । रत्ना रत्नोचयापि च ॥ ६ ॥ सर्वरत्ना रत्नसंचया वसुर्वसुमित्रिका | वसुनागापि च वसुं–धरानंदोत्तरे रेला नंदीश्वरकल्पमां कडं ने के-त्यां दक्षिणतरफ र हेला बन्ने रतिकरपर्वतोनी दिशा-मां सौवर्मेंद्रनी, अने उत्तरतरफना बन्ने रतिकरपर्वतोनी दिशानमां ईशानेंद्रनी ॥ ६४ ॥ जूदी जूदी पाठ पाठ पटराणीनेनी लाख जो. जनने अंतरे लाख जोजनना प्रमाणवाळी तथा जिनमंदिरथी शोजिती थयेली पाठ याठ राजधानी ॥६॥ सुजाता, सौमनसा, अर्निर्माली, प्रभाकरा, पद्मा, शिवा, शची, अंजना, जूता, जूतावतंसिका, ॥ ६६ ॥ गोस्तूपा, सुदर्शना, अमला, अप्सरा, रोहिणी, नवमी रत्ना, रत्नो चया, ॥ ६ ॥ सर्वरना, रत्नसंचया, वसु, वसुमित्रिका,
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(५०) थपि ॥ ६७ ॥ नंदोत्तरकुरुर्देव-कुरुः कृष्णाततोऽपि च ॥ कृष्णराजी रामाराम-रदिताः प्राक्क्रमादमः ॥१०॥ इत्यादि. षोडशवं राजधानी-चैत्यानि प्राक्तने मते ।। मतांतरे पुन त्रिं-शदेतानीति निर्णयः ।। ११ ॥ तथाह नंदीश्वरस्तोत्रकारः
श्य वीसं बावन्नं च । जिणहरे गिरिसिरेसु संथुः णिमो ॥ इंदाणिरायहाणिसु । बत्तीसं सोलसव वंदे ॥ ॥ १२ ॥ एतत्सर्वमप्यर्थतो नंदीश्वरस्तोत्रे सर्व सूत्रतोऽपि, वसुजागा, वसुंधरा, नंदोत्तरा ॥ ६॥ नंदा, उत्तरकुरु, देवकुरु, कृष्णा, कृष्णराजी, रामा तथा रामरदिता, एम अनुक्रमे तेन . ॥ १०॥ इत्यादि. एवीरीते पूर्वना मतमुजब राजधानी मां शोळ चैत्यो , तथा मतांतरे ब. त्रीस चैत्यो बे, एवो निर्णय थयो. ॥ ११ ॥ तेमाटे नं. दीश्वरस्तोत्रकार कहे जे के
यहीं पर्वतोना शिखरोपर रहेलां वीस अने बावन जिनमंदिरोनी अमो स्तुति करीये छीये, तथा इंद्राणीन. नी राजधानीनमा रहेलां बनीस अथवा शोळ जिनमंदि. रोने हुं वंदन करुं बु. ।। ७२ ॥ ए सघळो नावार्थ नंदी. श्वरस्तोत्रमा सूत्रथी पण बे, तेम योगशास्त्रनी टीकामां
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योगशास्त्रवृत्तावप्यस्ति. दीपोत्सवामावास्याया। पारस्य प्रत्यमादिमं ॥ अपोषणं वितन्वाना। वर्ष यावनिरंतरं ।। ॥ १३ ॥ नत्या श्रीजिनचैत्यानां । कुर्वतो वंदनार्चनं ॥ नंदीश्वरस्तुतिस्तोत्र—पाठपावितमानसाः ॥ १४ ॥ भव्या नंदीश्वरद्दीप-मेवमाराधयंति ये ॥ तेऽर्जयंत्याजवोपेताः । श्रेयसी श्रायसीं श्रियं ॥ १५ ॥ च व्यावर्णितरूपं । दीपं नंदीश्वराभिधं ॥ तिष्टत्यावेष्ट्य परितो । नंदीश्वरोदवारिधिः ॥ ७६ ।। सुमनःसुमनोनौ । सुरौ समृधिमत्तपण ने. दीवाळीनी श्रमासथी मांडीने दरेक अमावास्याए नपवास करीने एक वर्षसुधी निरंतर ॥ १३ ॥ नक्तिथी जिनमंदिरोनी वंदना तथा पूजा करनारा, घने नं. दीश्वरनी स्तुति तथा स्तोत्रना पाउथी पवित्र मनवाना ॥ ४ ॥ जे जव्यमनुष्यो एवीरीते नंदीश्वरद्दीपने बारा धे, तेन आर्जवतायुक्त थयायका कल्याणकारी मो. दालदमी मेळवे . ॥ १५ ॥ एवीरीते वर्णवेला स्वरूप वाळा नंदीश्वर नामना दीपने फरतो वीटीने नंदीश्वरोद नामनो समुफ रहेलो . ॥ १६ ॥ सुमन अने सुमनो. नक नामना बे देवो समृध्विाळा होवाथी नंदीश्वर कहेवाय बे, अने तेसंबंधि ते समुद्रनुं जल होवाथी ते नं.
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या ॥ नंदीश्वरी तत्संबंधि । जलमस्येत्यसौ तथा ॥ ७ ॥ लाम नंदीश्वरे द्वीपे । जलं वास्येत्यसौ तथा ॥ असौ नं. दीश्वरदीपा-दार्दिगुणविस्तृतः ॥ ७० ॥ एनमावेष्ट्य परितः । स्थितो दीपोऽरुणानिधः ।। नंदीश्वराब्धेर्दिगुणविष्कंनोऽसौ निरूपितः ॥ ७ ॥ असौ निजाधीश्वरयोरशोकवीतशोकयोः ॥ सुरयोः प्रजया रक्त-कांतिवादरुणानिधः ॥ ७० ॥ यद्वैतत्पर्वतादीनां । सबज्ररत्नजन्मनां ॥ प्रसरभिः प्रजाजालै-ररुणत्वात्तथाभिधः ।। ३१ ॥श्रदीश्वरोद समुद्र कहेवाय . ॥ 9 ॥ अथवा नंदीश्वरद्दीपने ते समुद्रनुं जल अडकेबु , अने तेथी पण ते नं. दीश्वरोद कहेवाय ने, अने ते समुद्र नंदीश्वरद्दीपथी बमणा विस्तारखानो. ॥ ७० ॥ वळी ते समुज्ने चोतरफथी वीटीने अरुण नामनो हीप रहेलो , अने तेने नंदीश्वरोदसमुऽथी बेवडा विस्तारवाळो कहेलो . । ते दीप पोताना स्वामी अशोक अने वीतशोक नामना बन्ने देवोनी लाल कांति होवाथी अरुणनामवाळो . । ॥ ७० ॥ अथवा तेमां रहेला वज्ररत्नोना बनेला पर्वता दिकना फेलाता प्रजाना समूहोथी ते अरुणनामनो कहेवाय . ॥ ७९ ॥ ते दीपने वरुणोद नामनो समुद्र
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(५१) रुणोदानिधो वार्षि-रेनमावृत्त्य तिष्ठति ॥ विस्तारतोऽरुणहीप-हिगुणः परतोऽप्यसौ ॥ ७२ ॥ सुभद्रसुमनोभद्रा-निधयोरेतदीशयोः ॥ ऋषणाभानिररुणं । जलं यस्येत्यसौ तथा ॥ ३ ॥ यहारुणदीपपरि-क्षेप्यमुष्योदकं स्फुरत ॥ ततोऽरुणोदाभिधानः । प्रसिद्योऽयं पयो. निधिः ॥ ४ ॥ एवमन्येष्वपि ज्ञेया। निःशेषदीपवाधि षु ॥ व्यासद्वैगुण्यनामार्थो । स्वामिनश्च स्वयं श्रुतात ॥ ॥ ५ ॥ ततोऽरुणवरो द्वीप-स्तमप्याश्रित्य तिष्ठति ॥ पारावारोऽरुणवरो । महाभोगीव सेवधि ॥ ६ ॥ एनं दीवीटीने रहेलो , तथा विस्तारमा ते अरुणदीपयी बमपो. ॥ २॥ सुन्नद्र तथा सुमनोज नामना तेना बन्ने स्वामीनना थाषणोनी कांतिथी तेनुं जल लाल. रंगर्नु होवाथी ते अरुणोदसमुद्र कहेवाय जे. ॥ ३ ॥ अथवा तेनुं जल अरुणदीपने स्पर्श करनारं होवाथी ते अरुणोदना नामथी प्रसिध. ॥ ४ ॥ एवीरीते बीजा पण सघन दीपोमां विस्तारनुं बमणापगुं, नाम, अर्थ बने तेजना स्वामीन, ए सघg पोतानी मेळे शास्त्रमाथी जाणी लेवु. ॥ ५ ॥ तेथी बागळ अरुणवर नामनो द्वीप, तथा निधानने जेम महासर्प, तेम तेने पण वीं
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पोऽरुणवरा-वभासः परिषेवते ॥ थालिंगत्यरुणवरावभासस्तं च वारिधिः ॥ ७ ॥ ततश्च कुंडलदीपो । मे. दिन्या श्व कुंमलं ॥ ययं विप्रत्यवतारा-पेदया दादशो भवेत् ॥ 1 ॥ स्थानांगतृतीयस्थानवृत्तौ च-अरु णादीनां त्रिप्रत्यवतारमनाश्रित्यायमेकादशोऽभिदितस्तथा हि-जंबूदीवो १ धायश् । पुस्करदीवो ३ अ वारुणि. वरो । य ॥ खीरवरोधि य दीवो ५ । घयवरदीवो य ६ खोदवरो ७ ॥ ७ ॥ नंदीसरो या अरुणो ५ । अरुटीने अरुणवर नामे समुऽ रहेलो . ॥ ६ ॥ ते समुद्रने घेरीने अरुणवरावभास नामनो दीप रहेलो , अने तेने फरतो अरुणवरावनास नामे समुऽ श्रावेलो .॥ ॥ ७ ॥ परी पृथ्वीरूपी स्त्रीना कुंडलजेवो कुंडलदीप ने, बने त्रण प्रत्यवतारनी अपेदाये ते बारमोहीप . ॥ ॥ ॥ वळी स्थानांगसूत्रना वीजा स्थाननी वृत्तिमां का { ने के-अरुणादिकना त्रण प्रत्यवतारने नही पाश्रः य करवाथी थाने अग्यारमो द्वीप कहेलो . ते कहे ने -जंबूदीप १, धातकीखमहीप २, पुष्करद्दीप ३, वारुणी. वर ४. दीरवरहीप ५, घृतवरहीप ६, दोदवर 9, ॥णा नंदीश्वर , अरुण ए, बरुणापात १०, कुंडलवर ११,
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( ५१४ )
सावा य १० कुंमलवरो य ११ ॥ तद संख १२ रुपग १३ भुपवर १४ । कुस १९ कुंचवरो य तो १६ दीवो || ॥ ५० ॥ इति क्रमापेक्षयैकादशः कुंडलदीप इत्युक्तं. एवं भगवतीशतकचतुर्थोद्देशकवृत्तावप्ययमेकादशोऽनिहित इति, तत्वं बहुश्रुता विदंति यस्मिंश्च कुंमल गिरि-र्मानु षोत्तरवत्स्थितः । योजनानां द्विचत्वारिंशतं तुंगः सदखकान् || १ || सहस्रमेकं नमभो । मूले मध्ये तथोपरि ॥ विस्तीर्णोऽयं भवे त्रैलो । मानुषोत्तरशैलवत् ||५|| चतुर्दिशं चतुर्द्वारा - श्रुत्वारोऽत्र जिनालयाः ॥ चतुर्गतिशंख १२, रुचक १३, जूतवर १४, कुश १५, ने कुंचवर १६ द्वीप. ॥ ९० ॥ एवीरीतना अनुक्रमनी अपेक्षाये
ग्यारमो कुंमलदीप बे, एम कां. वळी एवीरीते जगवतीशतकना चोथा उद्देशानी वृत्तिमां पण तेने यग्यारमो कहेलो बे, माटे तत्व बहुश्रुतो जाणे. या दीपमां मानुषोत्तरपर्वतनीपेठे कुंमलगिरि खावेलो बे ने ते बेतालीस हजार जोजन उंचो वे ॥ ५१ ॥ वळी ते एकहजार जोजन पृथ्वीनी अंदर खुचेलो बे, तथा मूल मध्य ने मथाळे ते पर्वतनो विस्तार मानुषोत्तरपर्वतन) पेठे बे ॥ २ ॥ ते पर्वतनी चारे दिशामा चार द
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( ५१५) नवारण्य-ज्रांतांगिविश्रमा श्व ॥ ५३॥ सर्वमेषां स्वरूपं तु । नंदीश्वराडिचैत्यवत् ॥ पार्श्वे याज्यंतरेऽस्या-द. क्षिणोत्तरयोर्दिशोः ॥ ए ॥ चत्वारश्चत्वार एव । प्रत्येक संति धराः ॥ सोमयमवैश्रमण-वरुणप्रनसंझकाः ॥ ॥ ५५ ॥ अष्टाप्येते रतिकर-पर्वताकृतयो मताः ।। न.
धोच्चत्वविष्कंनै-रुद्दामरामणीयकाः || ए६ ॥ एकैक. स्याथ तस्या-राजधान्यश्चतुर्दिशं ॥ जंबूढीप व हात्रिंशदेता विस्तृतायताः ॥ ७ ॥ सोमासोमप्रनाशि रवाजाजावाळां चार जिनमंदिरो ने, अने ते चारे गति जेना भवोरूपी वनमां नमता प्राणीनना विश्रामसरखा .॥ ७३ ॥ तेजनुं सघळं स्वरूप नंदीश्वरपर्वतना चैत्यनीपेठे जाणवू. वळी था पर्वतनी पासे तथा अंदर द. क्षिण अने नत्तरदिशामां । ए | दरेकमां सोम, य. म, वैश्रमण अने वरुणप्रन नामना चार चार पर्वतो . ॥ ५ ॥ ते थारे पर्वतोने लंडा नंचाइ तथा पहो.. ळाश्मां रतिकरपर्वतजेवी याकृतिवाळा कहेला , तथा ते पर्वतो अतिमनोहर जे. ॥ ६ ॥ वळी ते एकेका पवतनी चारे दिशा-मां राजधानीन, तया ते बत्रीसे राजधानीन जंबूद्दीपसरखी लांबी पहोळी . ॥ ५ ॥
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(५१६) व-प्राकारा नलिनापि च ॥ राजधान्यो गिरेः सोमप्रजात्याच्यादिषु स्थिताः ॥ ए ॥ विशालातिविशाला च । शय्यंप्रभा तथामृता ॥ यमप्रनगिरेरेता । राजधान्यश्चतुर्दिशं ॥ एए ॥ भवत्यचलमहाख्या,। समत्कसा कु. बेरिका ॥ धनप्रभा वैश्रमण-प्रनशैलाचतुर्दिशं ॥३००|| वरुणप्रनशैलाच्च । वरुणा वरुणप्रना ॥ पुर्यः प्राच्यादिषु दिछ । कुमुदा पुंडरीकिणी ॥१॥ दक्षिणस्यां च या एता। नगर्यः षोमशोदिताः ॥ चतुर्णा लोकपालानां । ताः तेमाना सोमप्रभ नामना पर्वतथी पूर्वादिक चारे दिशाजमां सोमा, सोमप्रजा, शिवप्राकारा अने नलिना ना. मनी राजधानीन यावेली . ॥ ए ॥ वळी यमप्रन नामना पर्वतनी चारे दिशा-मां विशाला, अतिविशाला, शयंप्रना तथा अमृता नामनी चार राजधानीन यावेली . ॥ ७ ॥ वैश्रमणप्रभ नामना पर्वतथीचा. रे दिशा-मां अचलमडा, समत्कसा, कुबेरिका अने ध नप्रभा नामनी राजधानीन. ॥ ३०० ॥ वळी वरुणप्र. भ नामना पर्वतथी पूर्वादिक चारे दिशा-मां वरुणा, वरुणप्रना, कुमुदा अने पुंडरीकिणी नामनी नगरीन बे. ॥ १॥ दक्षिण दिशामां जे या शोळ नगरीन कही, ते
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(११७) तः सौधर्मेंद्रसेविनां ॥ १ ॥ उत्तरस्यां पुनरिमा । याः षो. डश निरूपिताः ॥ चतुर्णा लोकपालानां । ता ईशानेंद्रसेविनां ॥५॥ तथोक्तं दीपसागरप्रज्ञप्तिसंग्रहण्यां-कुं. मलनगस्स थानं–तरपासे हुंति रायहाणीनं । सोलम दकिणपासे । सोलस पुण उत्तरपासे ॥ १॥ इत्यादि जगवतीतृतीयशताष्टमोद्देशकवृत्तौ. एवं च परितो भाति । कुंडलोदः पयोनिधिः ॥ तं कुंमलवरो द्वीपः । परिक्षिप्या. नितः स्थितः ॥ ३॥ स्यात्कुंमलवरोदाब्धि-स्ततो दीपः सौधर्मेऽना सेवक एवा चार लोकपालोनी जे. ॥ १ ॥ वळी उत्तरदिशामां जे या शोळ राजधानी कहेली. ते ईशानेंना सेवक एवा चार लोकपालोनी जे. ॥शा तेमाटे द्वीपसागरपन्नत्तिसंग्रहणीमां कहां के कंडलपवतनी अंदर बने पमखे राजधानीन, तेमानी शोळ दक्षिण अने शोळ उत्तरतरफ . ॥ १॥ इत्यादि भगवतीसूत्रना त्रीजा शतकना पाठमा नद्देशानी टीकामां . एवीरीते तेनी आसपास कुंडलोदसमुद्र शोभे , अने तेने फरतो कुंडलवरदीप रहेलो . ॥ ३॥ तेने फ. रतो कुंडलवरोद नामनो समुद्र ने, तेने फरतो कुंडलवरावनास नामनो दीप श्रावेलो ने, तथा तेनी आगळ
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(५१०) स्थितोऽनितः ॥ कुंडलवरावन्नास-स्तन्नामाग्रे पयोनिधिः ॥ ४ ॥ अग्रे शंखाभिधो दीपः । शंखवार्धिपरिष्कृतः॥ ततः शंखवरो द्वीप-स्ततः शंखवरोंबुधिः ॥ ५॥ द्वीपस्ततः शंखवरा-वजाप इति विश्रुतः ॥ स विष्वगंचितः शंख-वरावनासवार्धिना ॥ ६॥ ततोऽग्रे रुचकहीप । एप चाष्टादशो भवेत ॥ त्रिप्रत्यवतारमते-ऽन्यथा दीपस्त्र योदशः ॥ ७ ॥ अरुणादीनां दीपसमुडाणां त्रिप्रत्यवता रश्च जीवाभिगमसूत्रवृत्त्यादौ सविस्तरं स्पष्ट एव. जीवाभि गमचूर्णावपि अरुणादीया दीवसमुद्दा तिपमोयारा याव. तेज नामनो समुद्र आवेलो. ॥ ४ ॥ तेनो पागल शंख नामनो दीप शंख नामना समुद्रधी घेरायेलो ने, भने पछी शंखवरद्दीप, थने तेयी बागळ शंखवरसमुफ वे.॥५॥ ते पती शंखवरावनास नामे प्रख्यात हीप ने, अने ते चोतरफथी शंखवरावनास नामना समुथी घे. रायेलो . ॥ ६ ॥ तेथी भागळ रुचकहीप बे, अने ते त्रण प्रत्यवतारना मतमुजब पढारमो , अने नहितर ते तेरमो .॥७॥ अरुणादिकद्दीपसमुद्रोनो त्रिप्रत्यवतार जीवाभिगमसूत्रनी वृत्तियादिकमां स्पष्टज . जीवाभिगमनी चूर्णिमां पण अरुणादिकद्दीपसमुद्रो क सूर्यवराव जास
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( ए) सूर्यवरावनास इत्युक्तमिति ज्ञेयं. संग्रहणीलघुवृत्त्यनिषा येण त्वयं रुचकद्वीपोऽनिश्चितसंख्याकोऽपि, जंबूधायपु. करेत्यादि संग्रहणीगाथायां 'रुणवायत्ति' पदेनारुणादीनां त्रिप्रत्यवतारस्य सूचितत्वात् . कुंडलवरावनासात्परं संख्याकमेणाननिधानाच. तथा च तद्ग्रंथः
एतानि च जंबदीपादारज्य क्रमेण हीपानां नामा. नि, अत ऊर्ध्वं तु शंखादिनामानि यथा कथंचित्परं ता. न्यपि त्रिप्रत्यवताराणीत्यादि. जंबूदीपप्रज्ञप्तिवृत्तौ तु एकेद्वीपसमुद्रसुधविप्रत्यवतारवाळा , एम कडं ने ते जा णवं. संग्रहणीनी लघुवृत्तिना अभिप्राये तो या रुचक द्वीप अनिश्चित संख्यावाळो पण कहेलो . जंबू, धातकी, पुष्कर श्त्यादि संग्रहणीनी गाथामां रुणवाय' एवा पदवडे अरुणादिकना त्रिप्रत्यवतारनुं सूचन करेवु ने, बने कुंमलवरावनासथी यागळ संख्याक्रम कहेल नथी. ते ग्रंथमां कहे जे के
जंबूद्दीपथी मामीने अनुक्रमे ते दीपोनां नामो ने, अने तेथी भागळ तो शंखादिक नामो जे , तेन प. ण कोरीते त्रिप्रत्यवतारवाळां , इत्यादि. जंबूद्दीपपन्नतिनी टीकामां तो एक आदेशवडे अग्यारमा, बीजा प्रा.
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( ५२०) नादेशेन एकादशे, द्वितीयादेशेन त्रयोदशे, तृतीयादे. शेन एकविंशे रुचकहीपे इत्युक्तमिति ज्ञेयं. जीवसमासवृत्तौ तु ईक्षुरससमुद्रादनंतरं नंदीश्वरो द्वीपः ७ अरुणवरः ए अरुणवासः १० कुंडलवरः ११ शंखवरः १२ रुचकवरः १३ श्त्यनुयोगदारचूर्यनिप्रायेण त्रयोदशो रुचकवरः, थ. नुयोगद्दारसूत्रे त्वरुणावासशंखवरद्दीपो लिखितौ न दृश्येते, यतस्तदनिप्रायेणैकादशो रुचकवरः, परमार्थ तु योगिनो विदंतीति. तथा जीवसमासवृत्त्यभिप्रायेण जंबूढी. पादयो रुचकवरपर्यंता द्वीपसमुडा नैरंतर्येणावस्थिता ना. देशवडे तेरमा अने त्रीजा आदेशवडे एकवीसमा रुच. कद्दीपमां एम कहे , ते जाणवं. जीवसमासनी टी. कामां तो ईचरससमुद्र पनी नंदीश्वरदीप, ७, अरुणवर ए, अरुणवास १०, कुंडलवर ११, शंखवर १५, बने रुचकवर १३, एम अनुयोगदारनी चूर्णीना अनिपाये तेर. मो रुचकवरदीप ने. अनुयोगदारसूत्रमा तो अरुणावास भने शंखवरद्दीप लखेला देखाता नथ), माटे तेना अ निपाये तेरमो रुचकवरदीप ने, माटे यही परमार्थ तो योगीन जाणे. वळी जीवसमासनी टीकाना अभिप्राये जंबूदीपथी मांडीने रुचकवरसुधीना द्वीपसमुद्रो निरंतरप
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(५१) मतः प्रतिपादिताः, अत ऊर्ध्व तु जंगवस्कुशवरक्रौंचवरा असंख्येयतमा असंख्येयतमा इति ध्येयं. हीपस्यास्य बहुमध्ये । वर्तते वलयाकृतिः ॥ पर्वतो रुचकानिख्यः । स्फारो हार वोल्लसन् ॥ ७ ॥ योजनानां सहस्राणि । चतुरशीतिमुन्तिः ॥ मूले दश सहस्राणि । द्वाविंशानि स विस्तृतः ॥ ए॥ मध्ये सप्त सहस्राणि । त्रयोविंशानि विस्तृतः ।। चतुर्विशांश्च चतुरः । सहस्रान मूर्ध्नि विस्तृतः ॥ १० ॥ एवं महापर्वताः स्युः । कुंलाकृतयस्त्रयः ॥ म.
ोत्तरः कुंमलश्च । तथायं रुचकाचलः ॥ ११ ॥ तथोक्तं णे रहेला नामथी प्रतिपादन करेला . अने तेथीथा. गळ तो जुजंगवर, कुशवर अने क्रौंचवर असंख्यातमा असंख्यातमा ने, एम जाणवू. या दीपना मध्यन्नागमा वलयाकारवाळो तथा मनोहर हारसरखो नलसायमान थतो रुचक नामनो पर्वत . ॥ ७ ॥ ते पर्वत चोर्यासी हजार जोजन नंचो , तथा ते मूलनागमा दश हजार बावीस जोजन पहोळो ने. ॥ ए॥ वळी ते मध्यभाग. मां सात हजार तेवीस जोजन पहोळो , तथा मथान. पर चार हजार चोवीस जोजन पहोळो . ॥ १० ॥ एवीरीते मानुषोत्तर, कुंडलगिरि तथा या रुचकाचल, ए
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(५५) स्थानांगे-ततो मंडलियपवता प० त० माणुसुत्तरे कुंड लवरे रुषगवरे. तुर्ये सहस्रे मूर्यस्य | मध्ये चतसृणां दिशां ॥ यस्ति प्रत्येकमेकैकं । सुंदरं सिघमंदिरं ॥१३॥ तानि चत्वारि चैत्यानि । नंदीश्वराद्रिचैत्यवत ॥ स्वरूपतश्चतसृणां । तिलकानीव दिक् श्रियां ॥ १४ ॥ चैत्यस्य तस्यैकैकस्य । प्रत्येकं पार्श्वयोद्धयोः ॥ संति चत्वारि चत्वारि। कूटान्यनंकषानि वै ॥ १५ ॥ विदिनु तस्यैव मूर्ध्नि । स्याच्चतुर्थे सहस्रके ॥ एकैकं कूटमुत्तुंग-मभंगुरश्रियांचि. त्रणे महापर्वतो कुंमलसरखी थाकृतिवाला . ॥ ११ ॥ तेमाटे स्थानांगमां कडं ने के-त्रण मंमलिकपर्वतो कहेला, जेवाके मानुषोत्तर, कुंडलवर बने रुचकवर. तेना मथानपर चोथा हजारमां चारे दिशानेमां एकेकुं सुं. दर सिमंदिर जे. ॥ १३ ॥ ते चारे सिघमंदिरो चारे दिशानरूपी लक्ष्मीना जाणे तिलको होय नहि, तेम
खरूपथी नंदीश्वरना पर्वतोनां चैत्योसरखां ने. ॥ १४ ॥ ते एकेकां चैत्यनी बन्ने बाजुए दरेकमां आकाशने अडके एवां चार चार शिखरो . ॥ १५ ॥ वळी तेज पर्वतने मथाळे चोथा हजारमा विदिशातरफ नंचुं तथा अविजिन्न शोभावाळु एकेकुं शिखर . ॥ १६ ॥ एवी.
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(५१३) तं ॥ १६ ॥ षटत्रिंशत्येषु कूटेषु । तावत्यो दिक्कुमारिकाः ॥ वसंति ताश्चतस्रस्तु । दीपस्यान्यांतरार्धके ॥ १७ ॥ तथोक्तं षष्टांगे मनध्ययनवृत्ती-मनिमरुअगवनवा इत्यत्र रुचकहीपस्यात्यंतरार्धवासिन्य इति. एवमावश्यकवृत्त्यादिध्वपि. जंबूद्दीपप्रज्ञप्तिवृत्तौ तु चतुर्विंशत्यधिकचतुःसहस्रप्रमाणे रुचकगिरिविस्तारे द्वितीयसहस्रे चतुर्दिवर्तिषु कू. टेषु पूर्वादिदिक्कमेण चतस्रो वसंतीत्युक्तमिति ज्ञेयं. य. यं च रुचकद्दीपो । रुचकाब्धिपरिष्कृतः ॥ द्वीपोऽग्रे रुचक रीतनां ते बत्रीस शिखरोपर तेटली दिक्कुमारिका वसे ने तथा चार दिक्कुमारिकान ते दीपना अंदरना अर्ध भागमा वसे . ॥ १७ ॥ तेमाटे छठा अंगमां मलध्यय. ननी टीकामां कहां के मध्यरुचकनी वसनारी, एटले रुचकहीपना अंदरना अर्धानागमा रहेनारी. एवीरीते या. वश्यकनी टीकायादिकमां पण जे. जंबूढीपपन्नत्तिनी टी. कामां तो चार हजार चोवीस जोजनना प्रमाणवाळा रु. चकगिरिना विस्तारमां बीजा हजारमा चारे दिशामां रहेला शिखरोपर पूर्वादिकदिशाना अनुक्रमे चार वसे ने, एम कडं ने ते जाणq. हवे या रुचकद्दीप रुचकसमुद्रथी घेरायेलो ने, तथा तेनी भागळ रुचकवर नामनोदी
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( ५२४) वर-स्तादृक्पाथोधिसंयुतः ॥ १० ॥ ततोऽग्रे रुचकवरावभासदीप इष्यते ॥ परिष्कृतोऽसौ रुचक-वरावनासवा- . धिना ॥ १५ ॥ एवमब्धिः सूर्यवरा-वनासोते ततः परं ॥ देवहीपः स्थितो देव-वाधिश्वावेष्ट्य तं स्थितः ॥२०॥ नागडीपस्तमनितो । नागाब्धिश्च ततः परं ॥ यदाद्दीपस्तदने च । यदोदवारिधिस्ततः ॥ २१ ॥ नृताभिधस्ततो द्वीप-स्ततो जुतोदवारिधिः ॥ स्वयंवरमणदीपः । स्वयंजुरमणांबुधिः ॥ १५ ॥ अंते स्थितः सर्वगुरुः । कोमीकयाखिलान्यपि ॥ पितामह श्वोत्संग-क्रीमत्पुत्रपरंपरः प, के जे ते नामना समुज्वाळो . ॥ १७ ॥ तेथी
आगळ रुचकवरावजास नामे दीप ने, के जे रुचकवरावनास नामना समुद्रथी वेरायेलो . ॥ १७ ॥ एवीरीते
डे सूर्यवरावभास समुद्र, अने तेथी भागळ देवदीप श्रावेलो , तेने वीटीने देवसमुद्र रहेलो . ॥ २० ॥ तेने फरतो नागहीप, अने तेथी घागळ नागसमुद्र, तेथी भागळ यदादीप, अने तेपनी यदोदसमुद्र ने. ॥२१॥ पछी त नामनो दीप, अने तेपनी त नामे समुद्र, प. जी स्वयं चरमणदीप अने स्वयं नरमणसमुद्र ने, ॥ ॥ के जे सर्वथी डे धावेलो भने सर्वथी मोटो, खोळामां
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(५५) ॥ ३ ॥ श्रासेवितोऽसौ जलधिर्जगत्या । वृधः पतिः सकुलनार्ययेव ॥ वलीपिनकः पलितावदात-स्तरंगले. खाब्धिकफबलेन ॥ २४ ॥ लोकं परीत्यायमलोकमास्तुमिवोत्सुको लोलतरोमिचकैः ॥ तस्थौ च रुकः प्रियया जगत्या । लोकस्थितिबेदकलंकनीतेः ॥ २५ ॥ तस्याः पुरस्त्वविलया वलया घनाब्धि-मुखा मिथः समुदिता नदितोदितापैः ॥ ये रदयंति परितोऽलमलोकसंगाद्रनानां कुलवधू स्थविरा श्वोच्चैः ॥ २६ ॥ विश्वाश्चर्यद रमती पुत्रोनी श्रेणिवाळा पितामहनीपेठे सघळा दीपस. मुद्रोने नेटीने रहेला . ॥ ३ ॥ नत्तम कुलस्त्रीवडे जेम वृष्पति, तेम था समुड जगतीथी वेरायेलो ने, व. ळी मोजांननी पंक्ति तथा समुद्रफीणना मिषधी ते वलीयोवाळो बने सफेद केशोवाळो थयेलो . ॥२४॥ लोकने घेरीने जाणे अलोकने पण पोताना अतिचपल मोजांनवडे करीने भेदवाने जाणे नत्सुक थयो होय नहि, परंतु लोकस्थितिना नंगरूपी कलंकना मरथी जगतीरूपी स्त्रीए रोकवाथी ते स्थिर रह्यो . ॥ २५॥ ते जगतीथी पागळ अविनश्वर घनोदधियादिकनां वलयो बे, के जेन एकग थश्ने स्थविरो जेम कुलस्त्रीने तेम
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( ५५६ ) कीर्तिकीर्तिविजयश्रीवाचकेंद्रांतिप-डाजश्रीतनयोऽतनिष्ट विनयः श्रीतेजपालात्मजः ॥ काव्यं यत्किल तत्र निश्चितजगत्तत्वप्रदीपोपमे । सर्गः पूर्तिमियाय संप्रति चतुर्विशो निसर्गोज्ज्वलः ॥ २७ ॥ इति श्रीलोकप्रकाशे चतुर्विंशतितमः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ।। ॥ समाप्तोऽयं क्षेत्रलोकप्रकाशस्य द्वितीयः परिवेदो
गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात्. ॥ रत्नप्रनाने अलोकना संगथी थतां पापोथी रक्षण करे ने. ॥ २६ ॥ जगतने याश्चर्य करनारी ने कीर्ति जेमनी ए. वा श्रीकीर्तिविजयवाचकेंद्रना शिष्य, तथा राजश्री अने तेजपालना पुत्र एवा श्रीविनयविजयजी महाराजे नि. श्चित थयेला जगतना तत्वने प्रकाशवामां दीपकममान . एवो जे या काव्यग्रंथ रच्यो , तेमां स्वनावथीज न ज्ज्वल एवो था चोवीसमो सर्ग संपूर्ण थयो. ॥ ७ ॥ एवीरीते या लोकप्रकाशमां चोवीसमो सर्ग संपूर्ण थ. यो. श्रीरस्तु ॥
या श्रीक्षेत्रलोकप्रकाशनो बीजो परिबेद गुरु श्रीचारित्रविजयजी महाराजना सुप्रसादथी संपूर्ण थयो. ॥ श्रीरस्तु ।
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( 129 )
लब्ध्वा यदीयचरणांबुजतारसारं । स्वादचटाधरितदिव्यसुधा समूहम् || संसारकाननतटे बटतालिनेव | पी1 तो मया प्रवरबोधरसप्रवादः || १ || वंदे मम गुरुं तं च | चारित्रविजयाह्वयम् || परोपकारिणां धुर्ये । चित्रं चारिमाश्रितं ॥ २ ॥ युग्मं ॥ चारित्रपूर्वा विजयानिधाना | मुनीश्वराः सूविरस्य शिष्याः ॥ यानंदपूर्व विजयाभिधस्य | जातास्तपाग सुनेतुरेते ॥ ३ ॥ इति ॥
॥ नाषांतरकारस्य प्रशस्तिः ||
यत्रास्ति जामनगरं नगरं गरिष्टं । यस्मिन् जिनेश निलयोपरिंगा पताका || ऋद्धिं पुरस्य किख दर्शयितुं लोकं । लोलानिलेन बुखिताह्वयतीव रेजे ॥ १ ॥
तत्रौ जातिवणिजां मुकुटोपमस्तु । वंशो बज्रव किल लाल नामधेयः ॥ तद्वंशमौक्तिक निनोऽत्र बढव चेन्यः । श्रीवर्धमान इतिनाम विमंमितो वै ॥ २ ॥
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________________ (52) तस्य वंशमणिसामजिदाहो / राजमान्य व वारिधिदेशः॥ रत्नमौक्तिकमणिप्रकराव्यो ऽत्राभवत्सुकमलापरिवृत्तः // 3 // हंसराज इति नामतोऽनवत् / तस्य सूनुरमितैर्गुणैर्युतः // जैनशास्त्रवखारिधी मनो। मीनतामनजदस्य सर्वदा // 4 // रचितस्तस्य पुत्रेण / हीरालालानिधेन च // ग्रंथस्यास्य मया द्यर्थः / स्वल्पो गुर्जरभाषया // 5 // या ग्रंथ श्रीजामनगरनिवासी पंडित श्रावक हीरा. लाल हंसराजे स्वपरना श्रेयमाटे पोताना श्रीजननास्क रोदय गपखानामां गपी प्रसिक कर्यो ने.