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________________ (११०) षष्टिनागा योजनस्य एकस्य षष्टिनागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिजागा जायंते. ७५, ७-६० ॥ ६०-६१. अयं च शोध्यराशिः सर्वबाह्या चीनमंडलगतदृक्पथप्राप्तिपरिमाणा द्यदि शोध्यते, तदा यथोक्तं सर्वात्यममले दृक्पथप्राप्तिपरिमाणं भवतीति ध्येयं. पूर्वोक्तध्रुवकाद्युपपत्तिस्त्वत्रोपाध्यायश्रीशांतिचंद्रोपझजंबूद्दीपप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्तेरवसेया, ग्रंथगौरवभयानात्रोच्यत इति ज्ञेयं. यहा-पंचयोजनसहस्राः । पंचोत्तरं शतत्रयं ॥ षष्टिभागाः पंचदश-मुहूर्तगतिरत्र नवसारांश, तथा एकसागंशना साठ एकसठीया नागो. एटदा जोजन थाय ने, , ए-६० ॥ ६०-६१. या शोध्यराशिने सर्वथी बहारना मंगलथी अर्वाचीन मंडल नी दृष्टिमर्यादाना परिमाणथी जो शोधवामां आवे, तो कह्यामुजब सर्वथी बेल्लां मंडलनी दृष्टिमर्यादानुं परिमाण थाय एम जाणवू. पूर्व कहेला ध्रुवकम्पादिकनी नपप. त्ति तो अहीं नपाध्याय श्रीशांतिचंद्रजीए रचेली जंबृद्दी पपन्नत्तिसूत्रनी टीकाथी जाणवी, ग्रंयविस्तारना जययी यहीं कही नथी, एम जाणवू. अयवा-यहीं एक मु. हूर्तमां पांच हजार त्रणसो पांच पूर्णाक पंदर साठांस जो. जनजेटली सूर्यनी गति . ॥ ४४ ॥ तेने अर्धा दिवसः
SR No.022113
Book TitleLok Prakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Shravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1916
Total Pages536
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size34 MB
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