SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३१६) दत्रिंशं शतमष्टौ च । पुनरष्टौ चतुष्टयं ॥ चतुर्विधानामित्यासा-माद्यंतोहिछता क्रमात ॥ ०५ ॥ गव्यूतं योजने सार्धे । द्वौ क्रोशौ पंचयोजनी ॥ योजनं दश चैतानि । योजने हे च विंशतिः ॥ ६ ॥ अंतर्नदीनां सर्वासामपि प्रारज्य मूलतः ॥ पर्यंतं यावदुद्वेध-स्तुल्यः स्यात्पंचयोजनी ॥ ७ ॥ स्वकीयमूल विस्तृत्या । जिहिकाविस्तृतिः समा ॥ मूलोदे॒धसमश्वासां । सर्वासां जिबिकोत्यः || || जक्तशेष तु स्वरूपं । सकलं वेदिकादिकं कसो छत्रीस, थान, पाठ अने चार, एरीतनी चारे प्र. कारनी ते नदीननी मूलनी तथा बेडानी जंडा अनु. क्रमे ॥ ५॥ एक गान तथा अढी जोजन, बे गान तथा पांच जोजन, एक जोजन तथा दश जोजन, अ. ने बे जोजन तथा वीश जोजननी. ॥ ७६ ॥ अने सघली अंतर्नदीननी जंडा तो मूलथी मांडीने क - मासुधी पांत्र जोजननी सरखीज . ॥ ७॥ तेननी जिह्वानी पहोच पोतपोताना मूलना विस्तारसरखी बे, श्रने तेन सर्वनी जिह्वानी नंचा तेजेनां मूलनी नं. डाइ सरखी जे. ॥ ७ ॥ हवे वर्णव्याशिवायर्नु बाकीन ते नदीनन वेदिकासादिकनुं सघर्छ स्वरूप जंबूद्दीपमा
SR No.022113
Book TitleLok Prakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Shravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1916
Total Pages536
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy