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________________ (१५३.) नुमुक्तैः । कचन करप्रकरैखि प्रवासैः ॥ ७ ॥ वचन जलगजैनियुधसौ. रसदुदस्तकरोधुरैः करायः ॥ ज. गदुपकृतिकारिनीरपानोपनतघनेषु धृतप्रतीनशंकैः ।। ॥ नए ॥ स्थलचरसमसर्वजातिसत्त्वा-कृतिमदनेकषीघपूर्णमध्यः ॥ प्रलयतरलितं जगद्दधानो । हरिवि कुदि निकेतने कृपार्डः ॥ ५० ॥ कचिदिह कमलायाः कौतु. कादारमत्या । जलचरनरकन्यालीषु हल्लीसकेन ॥ अय न गतिथी थाकी गयेला सूर्ये छोमी दीधेलां किरणोनां समूहोथी होय नहि जेम तेम प्रवालांनथी शोने . ॥ ॥ ॥ वळी को जगोए जगतने उपकार करनारा अने जलपानमाटे नमेलां वादळांनपते धारण करेल ने दुश्मनहाथीननी शंका जेनेए. तथा युधमाटे सङा थ. येला, अने निरंतर नंची करेली सुंढोथी भयंकर लाग. ता एवा जलहस्तीनथी ते लवणसमुफ विकराल लागे बे. ॥ ॥ स्थलचरसरखी सर्व जातिना प्राणीननी, थाकृतिवाळा अनेक मत्स्योना समूहथी नरेल ने मध्यनाग जेनो एवो या लवणसमुद्र विष्णुनीपेठे कृपाबु थ. योथको प्रलयथी मरता जगतने पोतानी कुदिरूपी घर मां धारी रहेलो . ॥ ५० ॥ वळी यहीं कोक जगोए
SR No.022113
Book TitleLok Prakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Shravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1916
Total Pages536
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size34 MB
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