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________________ (१००) टादशभिर्गुणने चतुर्नवत्यधिकानि हात्रिंशबतानि नवंति. एतेषां च सैकोननवतिपंचदशसहस्राधिकलदानयरूपप्रथः ममंगलपरिक्षेपेण सह योगे सर्वबाह्यमंमलपरिरयस्तिस्रो लदा अष्टादश सहस्रास्त्रिशतीत्र्यशीत्युत्तरा नवंति. परंतु प्रागुक्तानि सप्तदशयोजनानि साधिकयोजनसत्काष्टात्रिंशदेवनागाधिकानि प्रतिपरिरयवृधिरिति विजाव्यैव, न्यून पंचदशाधिकशतत्रययुक्ताष्टादशसहस्राधिकलदात्रयरूपःस बाह्यमंडलपरिधिरुक्त इति संभाव्यते. यद्यप्यत्रापि उपस्तिनं शतत्रयं चतुर्दशोत्तरमेव भवति, तथापि उपस्तिएकसो व्यासीने अढारे गुणवायी बत्रीससो चोराणु थाय. अने तेमां प्रथममंडलना घेरावाना त्रण लाख पं. दर हजार अने नेवासी जोजन नेळववाथी सर्वयी बहा. रना ममलनो घेरावो त्रण लाख अढार हजार वणसो अने व्यासी जोजननो थाय ने. परंतु पूर्वे कहेला सतर पूर्णाक एक धाडत्रीसांश जोजनजेटली दरेक घेरावे वृ. हि थाय ने, एम भावीनेज त्रण लाख अठार हजार त्र. णसोमां पंदर जोजन नंगे सर्वथी बहारना मंडलनो वे. रावो कहेलो . एम संभवे ने. जो के अहीं पण नुपरना त्रणसो चौदसहितज होय , तोपण नपरना बाड
SR No.022113
Book TitleLok Prakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayvijay, Shravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1916
Total Pages536
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size34 MB
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