Book Title: Alpaparichit Siddhantik Shabdakosha Part 2
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष : द्वितीयो विभागः DOC CPGAIAISALMERamayDALAMRINCI सङ्कल यिता आगमोद्धारक आचाय श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी म. चित्र परिचयहिन्दुस्तानना नकशामां आवेला तीर्थोभनो ख्याल २ श्रीसिद्धाचलजी २ श्रीतारंगाजीनुं जिनालय ३ श्रीचीतोडगडनो कीर्तिस्तंभ प्रकाशकशेठ देवचंद लालभाइ जैन पुस्तकोद्धारक फण्ड कायवाहकचोकमो मोलीचंद मगनभाइ सुरत 2010_05 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ॥ श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ११५ ॥ आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः । (कतो झपर्यन्तो द्वितीयो विभागः ) सम्पादकौ-आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरान्तेवासिनौ कश्चनविजय-प्रमोदसागरौ । संग्राहकः-आगमोद्धारकान्तेवासी गुणसागरः । प्रकाशकः-सुरतवास्तव्य-श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारकोष । कार्यवाहकः-चोकसी मोतीचन्द मगनभाई । मा.श्री. केटाममागर परिक्षान दिन श्री महावीर जैन भाराधमा केन्द्र कोवा खिस्ताब्द: १६६४ वीराब्दः २४६०। विक्रमाऽन्दः २०२०। शाकाब्दः १८५६ । DHSS-00 , प्रथम संस्करणम् ] निष्क्रयः [प्रतयः ५०० 2010_05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इवं पुस्तकं ललितपुरे श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धारसंस्थाया कार्यवाहक मोतीचंद मगनमाई चोकसी इत्यनेन जैनेन्द्र मुद्रणालये पंडित परमेष्ठीदास जैन द्वारा मुद्रापितम् । अस्य पुनर्मुद्रणायाः सर्वेऽधिकारा एतद्भाण्डागारकायवाहकैरायत्तीकृताः । All Rights Reserved By The Trustees of the Fund. Printed by :Pt. Parmeshthidas Jain. at the Jainendra Press, LALITPUR, U. P. Published By Sheth :-Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund Surat. By the Hon : Managing Trustee, Motichand Maganbhai Choksi. 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sheth Devchand Lalbhai Pustkoddhar Fund Series No. 115 Shree Alpaparichit Saidhaotik Shabda-Kosh SECOND PART | A To Z ] - Author :Agmoddharak Acharya Shree Anandsagarsurishwarji -: Editor :Agmoddharak Shree Anandsagarsurishwarji 's Sishyo Muni Kanchanvijay and Muni Kshemankarsagar Collected; SHREE GUNSAGARJI SHREE ANANDSAGARSURISHVARJI'S ANTEVASI -: Publisher :Motichand Maganbhai Choksi Managing Trustee For :Sheth DEVCHAND LALBHAI JAIN PUSTAKODDHAR FUND SURAT First Edition Vikram Samvat 2020 Copies 500 Price RS500 R$$-00 ( Christation Era 1964 C. Camera 2010_05 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Board of Trustees : Shri Nemchand Gulabchand Devchand Zaveri " Talakchand Motichand Babubhai Premchand Amichand Zaverchand Keshrichand Hirachand Motichand Maganbhai Choksi Hon. Managing Trustee. संस्थान ट्रस्टी मंडल:श्री नेमचंद गुलाबचंद देवचन्द झवेरी " तलकचंद मोतीचंद " बाबुभाई प्रेमचंद " अमीचंद झवेरचंद " केशरीचंद हीराचंद " मोतीचंद मगनभाई चोकसी मेनेजिंग ट्रस्टी 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE LATE SHETH DEVCHAND LALBHAI JAVERI Born 1853 A. D. Surat Died 13th January 1906 A. D., Bombay श्रेष्ठि देवचन्द-लालभाई जहवेरी जन्म १९०९ वैक्रमाब्द कार्तिक शुक्लैकादश्यां (देवदीपावली दिने) सूर्यपूरे स्वर्गवास : १९६२ वैक्रमाब्दे पौषकृष्णतृतीयाम् ( मकरसंक्रान्ततिथी) मोहमयीनगरर्याम् 2010_05 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: प्रकाशकीय :आ अवसर्विणी कालना दुःषम आरामां चरमशासनपति श्रमण भगवान महावीर स्वामीना शासनमां शासनना पुण्यप्रतापे ते ते समये आचार्य भगवंतो 'आगम' वगेरे साहित्यनो उद्धार, पुनरुद्धार करीने आ कलिकालमां वीसमी सदीमां जे विद्यमान राख्युं छे ते आपणुं अहोभाग्य छे. तेथी तेवा साहित्यने प्रकाशन करवा माटे अमारी आ संस्था सं० १९६४ मां प. पू. आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीना उपदेशथी स्थपाई हती. आ संस्था मारफत अमे आज सुधी घणा ग्रन्थो प्रकाशित करी चूक्या छीओ. तेमज बीजा पण ग्रन्थोनुं प्रकाशन चालु छे तेमां अमे ११५मा ग्रन्थाङ्क तरीके श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोष भाग २ ने सहर्ष प्रगट करीओ छीओ. तारक ध्यानस्थस्वर्गत आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीए आ कलिकालना विषम वातावरणमां आगमोनो बोध दुर्बोध न थई जाय ते हेतुले आगमोदयसमितिनी स्थापना करावी अने आगमवाचना आपवानुं कयु. तेथी ते समितिले आगमो छपाववान कार्य शरू कयु. तेमज आ संस्थाए पण अनुयोगद्वार वगेरे आगमो छपाव्यां अने अत्यारे पण ते कार्य चालु ज राख्युं छे. ते वखते अने पछीथी आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीए आगमोना जुदा जुदा विषयो तारवतां 'आगमकोष'नो पण एक विषय तारव्यो हतो. तेने छपाववो हतो. आ विचारोत्पत्ति आजथी ४५ वर्ष पहेलां थई हती. ते हेतुए प. ता. गुरुदेवश्रीना सदुपदेशथी नीचेना सद्गृहस्थो तरफथी नीचेनी रकमो कोषना कार्य माटे ते काले अमारी संस्थाने मली हती. ते आ प्रमाणे १. अमदावाद निवासी शा. डाह्याभाई पीतांबरदास रु० १५०१) २. सुरतनिवासी झवेरी सोभागचन्द सूरचंद रु० १००१) ३. सुरतनिवासी झवेरी सांकलचंद सूरचंद रु० ५०१) आचार्य देवनो विहार मालवा, बंगाल तरफ लंबायो होवाथी ते कार्य घणी लांबी मुदत सुधी पडी रह्यं हतुं. ते छपाववाना कार्यनो निर्णय सं० २००४ मां थयो अने अमे आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीनी संमतिथी आ कार्य शरू कयुं. आथी प. ता. गुरुदेवश्रीनी आज्ञा अनुसार पू० मुनिमहामान श्रीगुणसागरजी पासेथी श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषनुं प्रेस मेटर अमे मेलव्यु. ते श्रीसरस्वती मुद्रणालय, सुरतमां छपाववा माटे आप्यु अने तेनुं संपादन करवा माटे मुनिमहाराज श्रीकंचनविजयजी तथा श्रीक्षेमकरसागरजी मल्ने विनंति करी. तेओश्रीओ आगमोद्धारक गुरुदेवश्रीना अनन्य पटधर, विद्याव्यासंगी, श्रुतस्थविर, आचार्य महाराज श्रीमाणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराजनो संयोग मल्यो, त्यांसुधी प्रूफ वंचाववा पूर्वक अने ते पछीथी स्वतन्त्रपणे ( ते मुनिवर्यो) आ कोषना प्रथम भागनुं संपादन कार्य कयु. तेथी अमो आ अद्वितीय आगमतलस्पर्शीज्ञाता, आगमतत्त्वपारदृश्वा, आगमज्योतिधर, शासनसंरक्षणबद्धकक्ष, तत्त्वशिरोमणि, आगमाव्युछित्तिकर, शिलाताम्रपत्रोत्कीर्णागमकारापक, गंभीरानेकग्रन्थप्रणेता, अन्त्यसमये पक्षावधिअर्धपद्मासनस्थायी, ध्यानस्थस्वर्गत आगमोद्धारक आचार्यवर्य श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजे 'संकलित' करेलो श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषनो 'संपूर्णस्वर' सुधीनो पहेलो भाग सहर्ष प्रकाशित करी शक्या हता. 2010_05 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ संस्थाना प्रथम पुस्तकना संपादक तरीके पण आचार्यदेव 'श्रीआनन्ददसागरसूरीश्वरजी म० हता अने बीजा सेंकडानी शरुआतना प्रथम पुस्तक तरीके पण तेओश्रीनो संकलित अमूल्य कोषनो भाग १ सं० २०१२ मां प्रसिद्ध थयो. कोषनी विशिष्टता अंगे संपादकश्रीओ पहेला भागनां निवेदनमा लख्युं छे. अमारी संस्थाए आना प्रकाशनमा वधारे रस लीधो तेनुं मुख्य कारण ए छे, के आज सुधी छपायेला प्राकृत कोषोमां अभिधानराजेन्द्रकोष, पाइयसहमहण्णवो आदि केटलाक कोषो छे पण तेमां न्यूनाधिकरूपे विचार करतां उपयोगितामा बाध आवे छे-जेमके अभिधानराजेन्द्रकोष प्रमाणमां एटलो बधो मोटो ले के तेमाथी कोई शब्द शोधवा माटे वधारे परिश्रम पडे अने छपाईमां के सम्पादनमा त्रुटी रहेवाने लीधे सूत्रो अने ते ते प्रकरणो घणा परिश्रम पछी पण जडतां नथी. पाइयसद्दमहण्णवोमां जैनसैद्धान्तिक शब्दो उपर वधारे भार मूक्यो होय तेम जणातुं नथी. पण प्रस्तुत ग्रन्थमां कोई पण जैन के जैनेतर विद्वान् प्रचलित जैन पारिभाषिक शब्दोनो यथार्थ परिचय ढूंकमां ते शब्दना स्थल सहित सहेलाईथी प्राप्त करी शके एवी तक छे, तथा मुनिराजो पण ग्रन्थ सम्पादनना कार्योमा सहायता लई शके तेम पण छे. __ अमे इच्छीए छीए के आ प्रकाशननो विद्वज्जनो योग्य आदर करशे ज. आ कोषने अंगे संज्ञाओनी समजणो तथा ते ते ग्रन्थोनां पानाओनी सूची पण संपादक पू. महाराजोए आपी छे. प्रस्तावना संजोगवशात् अत्यारे आपी शक्यो नथी पण त्रीजा के चोथा भागमां आपशं. महाराज श्रीअभयसागरजी महाराजने लखवा माटे आमन्त्रण आप्युं छे. अमारा प्रकाशन कार्यमा जे जे महाशयोए अमने मदद करी छे ते ते महाशयोना अमे ऋणी छीए. वि०सं०२०२० लि० भवदीय द्वि० कार्तिक (क्षयमागसर) सुद १४ मोतीचंद मगनभाई चोकसी ता. १७-११-१९६३ ) वगेरे ट्रस्टीओ १ तेओश्रीनो सुरत उपर तो अनहद उपकार छे. तेओश्रीने संवत १९७४ना वैशाख सुद १०ना सुरतमां ज 'आचार्य' पदवी अपाई हती. श्रीजनानन्दपुस्तकालय, श्रीवर्धमानजनताम्रपत्रागममंदिर वगेरे सूरतमा ज छे. अने सं० २००६ ना वैशाख वद ५ मे 'स्वर्गवास' पण सुरतमा ज थयो छे. तेओश्रीनो अग्निसंस्कार पण सुरत शहेरनी मध्यवर्ती गोपीपूरामां आगममंदिरना सामे जूनी अदालतथी ओळखाती जमीनमा थयो हतो. वळो ते ज जग्या उपर गुरुदेवश्रीना स्मरण तरीके संपूर्ण इतिहासने जणावनारु 'श्रीआगमोद्धारकगुरुमंदिर' बंधाववामां आव्यु छे. तेओश्रीनु मुख्य कार्यक्षेत्र सुरत ज राहतु. तेनी प्रतिक तरीके अनेक ज्ञान पिपासानी संस्थाओ स्थपाई हती. (१) शेठदेवचंद्र-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारफंड, (२) शेठनगीनभाई मंछुभाई जैन साहित्योद्धार फंड. (३) भी रत्नसागरजीजैनमिडलस्कूल ( विद्याशाला ) कायमी फंड, (४) श्रीजेनतत्त्वबोधपाठशाला वगेरे अनेक संस्थाओ तेओना उपदेशनुज परिणाम छे. 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ-देवचंद-लालभाई-जैनविद्यार्थीभुवन PASSAM/ गुम्न जेमा शेठ-देवचंद-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धार फंड तरफथी पुस्तकालय छे अने प्रसिद्ध थतां पुस्तकोनो संग्रह अने वेचाण थाय छे. गोपीपुरा, बडेखांनो चकलो, सुरत 2010_05 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आः संस्थाना निर्माता ध्यानस्थस्वर्गत अगमोद्धारक आचार्य श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराज गुरु-शिष्य बेलडी आ. श्रीमाणिक्यसागरसूश्वरजी महाराज 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वल्पम् ॥ जमो चोवीसाए तित्थयराणं उसमाइमहावीरपजवसाणाणं ॥ अमोने जणांवता हर्ष थाय छे के आगमोद्धारकरीए संकलित अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषना प्रथम भागर्नु संपादन कार्य अमोने (मने तथा स्व० मुनिश्रीक्षेमकरसागरजीने) मल्यु हतुं अने ते प्रथम भागनुं कार्य अमे पूर्ण कयु हतुं. तेना बाकी रहेला बीजा भागोनुं संपादन करवानुं कार्य मने स० २०१५ मां मल्यु. ते कार्य में यथाशक्य शरू कयु, एना परिणामे आजे तेनो बीजो भाग ‘क थी झ' सुधीनो पूर्ण कर्यो छे. अने तेनी आगलन सम्पादन कार्य पण चालु ज राख्युं छे. अमोए यत्किंचित् आ कोषना अंगेनुं मार्गदर्शन प्रथम भागमा सम्पादकना वक्तव्यमा आप्युं छे, तेथी अत्यारे ते अंगे काई विशेष कहेवू नथी, पण त्रीजा के चोथा भागमां ज्यारे प्रस्तावना आपीशं ते वखते लखवानी इच्छा छे. - प्रसंगवशात् एटलं जणावq जोइए के-अमारी सम्पादक बेलडीए ‘क थी झ' सुधीनुं मैटर लगभग तैयार कर्यु हतुं पण नवी प्रेस कोपी बनाववानी हती अने काईक सुधारो करवानो हतो. एटला पुरतुंज ते अधूरं हतुं. एटले आ बीजा भागनी अंदर तो रंधायेलु खावानुं हतुं. पण ट थी मांडीने मेलवेला, अधूरा मेलवेला, नहि मेलवेला, बधाय अक्षोरोनुं कार्य मारे करवानुं हतुं. कारणके मारा जोडीदार स्व. मुनिश्री क्षेमकरसागरजी सं० २०११ ना चैत्र वदी०)) नी रात्रे पोणा अगीआर वागे झेरी जानवरना करडवाथी कालधर्म पाम्या अटले वैशाख महीनाथी जवाबदारी मारा एकलाने शिरे आवी. परंतु गुरुदेवश्रीना पुण्य प्रतापे ते जवाबदारी हुँ उठावी शक्यो अने आ बीजा भागनुं सम्पादन करी शक्यो. अटले हवे ट थी पचास टका तैयार करेला मैटरने तैयार करवू अने सम्पादन करवू ए बधीए जवाबदारी मारे शिर रही. आ भागनी अंदर ‘क थी झ' सुधीना अक्षरो आपेला छे. पण त्रीजा अने चोथा भागमा 'ट थी ह' सुधीना अक्षरो अने ज्ञाताजी विगेरेना तेमज बीजा मेलवतां भिन्न भिन्न नीकलेला शब्दो तेम ज व्याकरणना 'उणादिशब्दो' अने देशी नाममालाना शब्दो परिशिष्टमा आपवानुं विचायु छे. संज्ञापत्र, पत्रांकसूची अने शुद्धिपत्र आमां आपवामां आव्यां छे. वली शेठ देवचंद लालभाई० (आ फंडना) नो देवानंदाङ्कमांनुं मैटर पाना १ थी ४४ आपवामां आव्या छे. तेमां पाना १ थी १० भेट प्रचार योजना. पाना १ थी ३९ प्रसिद्ध थएला ग्रंथोनी यादी अने ४० थी ४४ ग्रंथ प्रकाशन नवी योजना एटलुं आपवामां आव्युं छे. संकलनकार परमगुरुदेवना चरणे तो आ सरज मस्तक सदाए नमेलु ज छे. मने आ संपादननी अंदर मदद करनार मुनिश्रीप्रबोधसागरजी तथा मुनिश्रीप्रमोदसागरजी ने (गुरुशिष्य बेलडीने) याद करुं छु. तेम ज बीजाओए मने सहाय करी होय ते बधानो हुँ ऋणी छ. एक वात जरूर याद देवी घटे छे के मने उत्साह आपवामां भाई श्रीकेशरीचंद झवेरी तो छे ज. सं० २०२० पोष वद १ मंगलवार आगमोद्धारक उपसंपदाप्राप्त ठि. नवरंगपुरा, पोस्ट पासे, चरणरेणु जेन उपाश्रय कंचन. अमदावाद नं. ९ लि. 2010_05 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकः । प्रकाशकः आगमोद्धारकः दे. ला. जै. संज्ञा पत्रकम् । क्र० संज्ञा सूत्रनाम १) अनु. | मल्लधारगच्छीयश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितवृत्तियुक्तं श्रीअनुयोगद्वारसूत्रम् ।। अनुत्त.| श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीअनुत्तरोपपातिकदशाङ्गम् । श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीअन्तकृद्दशाङ्गम् । | श्रीआतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णम् (गाथा)। नियुक्तिकलितशीलाङ्काचार्यविहितवृत्तियुतं श्रीआचाराङ्ग सूत्रम् । | नियुक्तियुतभाष्यकलितश्रीभवविरहहरिभद्रसूरिविहित वृत्तियुतं श्रीआवश्यकसूत्रम् । नियुक्तियुतानि श्वादिवेतालश्रीशान्तिसूरिसूत्रितवृत्ति युतानि श्रोउत्तराध्ययनानि । उप.मा. श्रीधर्मदासगणिब्धा श्रीउपदेशमाला ( गाथा )। श्र आ. स. अगर दे. ला. जै. | गा. आ. स. व । गणि. चउ. ज.प्र. ___ | उपा. | श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीउपासकदशाङ्गम् । भाष्ययुता श्रीद्रोणाचार्यसूत्रितवृत्तिविभूषिता श्रीओघनियुक्तिः । श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीऔपपातिकोपाङ्गम् । श्रीगच्छाचारप्रकीर्णम् (गाथा)। श्रीगणिविद्याप्रकीर्णम् ( गाथा )। श्रीचतुःशरणप्रकीणम् ( गाथा)। उपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीजम्बूद्वीप प्रज्ञप्त्युपाङ्गम् । श्रीमलगिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुतं श्रीजीवाजीवा। भिगमोपाङ्गम् । श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं - श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् ।। | श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीस्थानाङ्गसूत्रम् । | श्रीतन्दुलवैचारिकप्रकीर्णम् (गाथा)। १ दे. ला. जै. शेठ देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धार फण्ड । २ आ. स.-श्रीश्रागमोदयसमिति । 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] तवा | भाष्योपेतं श्रीतस्वार्थसूत्रम् (अध्यायः सूत्रम् ) । निर्युक्तिभाष्योपेतं श्रीभवविरहहरिभद्रसूरिविरचितPaatri श्रीकालिकसूत्रम् । श्रीवैकालिक चूर्णिः * २० २१ दश २२ दशचू. २३ दशाश्रु. २४ | देव. श्रीदशाश्रुतस्कन्धः । श्रीदेवेन्द्रस्तवकीर्णम् । २५ नंदी. २६ निरय. श्रीमलगिर्याचा विहितवृत्तियुतं श्रीनन्दीसूत्रम् । श्रीचन्द्रसूरिविरचितवृत्तियुतं श्रोनिरयावलिकापंचकम् । २७ नि. चू. भाष्यचूर्ण्यपेतस्य श्री निशीथसूत्रस्य प्रथमो विभागः द्वितीयो तृतीयो श्रीविमलाचार्यविरचितं 'पउमचरियं' (उल्लासः ) भाष्यश्रीमलयगियांचा विहितवृत्तियुता पिण्डनिर्युक्तिः प्र. २८ नि. चू. द्वि. २९. नि. चू. तृ. ३० ३१ पिंड पउ. (पिण्ड. ) ३२ प्रज्ञा. ३३ प्रश्न. ३४ बृ. प्र. ३५ बृ.द्वि. ३६ बृ. तृ. ३७ | भक्त. ३८ भग. ३९ मर. मरण. ४० महा. महाप्र १ 27 37 "> "3 2010_05 श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतं श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् । श्रीचान्द्र कुलीनाचार्याभयदेवसूरि सूत्रित विवरणयुतं श्रीप्रश्नव्याकरणाङ्गम् । निर्युक्तिभाव्यटीकोपेतस्य श्रीबृहत्कल्पसूत्रस्य प्रथमोविभागः द्वितीयो तृतीयो 25 37 " श्रीभक्तपरिज्ञा प्रकीर्णम् ( गाथा ) । श्रीचन्द्र कुलीनाचार्याभयदेवसूरि सूत्रित विवरणयुतं श्रीभगवतीसूत्रम् (श्रीव्याख्याप्रज्ञप्तिः ) श्रीमरणसमाधिप्रकीर्णम् ( गाथा ) । श्रीमहाप्रत्याख्यानप्रकीर्णम् ( गाथा ) | ऋ. के. शेठऋषभदेवजी के शरीमलजी, रतलाम २ जै. पु. नं. - श्री जैन श्रानन्दपुस्तकालय, सूरत. हस्तपोथी नम्बर ३ वीर. = श्रीवीरसमाज, श्रमदावाद. * सूत्र, निर्यक्ति अने भाष्यगाथाना तो मात्र प्रतीक छे. ४ जै. ध. = श्री जैनधर्मप्रसारकसभा भावनगर "" " " 35 आगमोद्धारकः । ऋ' के. दे. ला. जै. हस्तपोथी जै. २ पु. नं. १६७३ " आगमोद्धारकः आ. स. आ. स. वीर. 3 ,, श्री दा. वि.गणी हस्तपोथी जै.पु.नं. ४८३ जै.पु.नं. ४८४ .पु.नं. ४८५ प्रो. हर्मनजेकोबी ४जै. ध. आगमोद्धारकः दे. ला. जै. " "" " 33 आ. स. हस्तपोथी जै. पु. नं ३०३ जै.पु.नं. ३०४ जै.पु.नं. ३०५ 56 "" आगमोद्धारकः आ. स. "" आ. स. ܙ "" आ. स. आ. स. आ. स. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १० ] श्रीमलयगिर्याचार्यसूत्रितविवरणयुतं श्रीराजप्रश्नीयोपाङ्गम् आगमोद्धारकः | आ. स. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीविपाकश्रुताङ्गम् । " | आ. स. मल्लधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितबृहद्वृत्तियुतं श्रीविशेषावश्यकभाष्यम् । पहरगोवनदास य' जे. *नियुक्तिभाष्यटीकोपेतस्य श्रीव्यवहारसूत्रस्य प्रथमो विभागः | हस्तपोथी | जै.पु.नं. ४८७ व्य. द्वि. " " " द्वितीयो ” । जै.पु.नं. २६६ श्रीसंस्तारकप्रकीर्णकम् (गाथा)। आगमोद्धारकः आ. श्रीचान्द्रकुलीनाचार्याभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं ___श्रीसमवायाङ्गम् । नियुक्तिभाष्यशीलाङ्काचार्यविरचितविवरणयुतं ___ श्रीसूत्रकृताङ्गम् । | श्रीमलयगिरिसूरिविहितविवरणयुतंश्रीसूर्यप्रज्ञप्त्युपाङ्गम् । १ य. ज. श्रीयशोविजयजी जैनग्रन्थमाला. सूत्रादिना तो मात्र प्रतीक न के. 2010_05 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआचाराङ्गम् प्रथमः श्रुतस्कंध ः | अध्ययनानि आपत्रं २ ३ ४ ५ ८ ६ ५ ६ ७ चूला -२ 11 ३ " ४ ८१ १४८ १७४ १६५ २३१ २५८ २६६ ३१७ १ २ ३ ३५८ ३७४ ३८४ ३६१ ३६८ ४०१ ४०६ ४२७ ४२६ ४३२ श्रीसूत्रकृताङ्गम् प्रथमः श्रुतस्कंध ः अध्ययनानि आपत्रं अध्ययनानि ११ द्वितीय: श्रुतस्कंध : १२ १३ चूला - १ १४ १ १५ २ १६ ३ द्वितीयः श्रुतस्कंध ४ ४ ५ ६ ७ १० 2010_05 ५२ ७७ ५ १०१ ६ ૪ 5 & १ २ ३ ૪ १ २ ३ ५ ६ आपत्रं अध्ययनानि आप शतकानि १२१ १४१ ८ १५३ ६ १६५ १० १७५ १८६ १६५ २०७ २२६ २४० २५२ २६० २६६ ३०३ ३४२ ३६० ३७० ३८५ ४०५ ४२७ पत्राङ्कसूची श्रीस्थानङ्गम ७ श्रीसमवायाङ्गम् आविषयं आप सागरोवम कोटाकोटी १०५ गणिपिटक १३३ अवसरपिणि १५२ निगमनम् १६० ४१५ १६ ४४३ १७ ४६६ १८ ५२८ १६ २० २१ २२ २३ २४ श्रीभगवतीजी शतकानि १ २ ३ ૪ ५ ६ ७ ८ ह ३८ १०. ११ १०१ १७६ १२ २८६ १३ ३५२ १४ ३८० १५ २५ २६ २७ २८ २६ ३० आपत्रं १०८ १५२ २०२ २०६ २४६ २८६ ३२७ ४२४ ४६२ ३८ ५०८ ३६ ५५२ ४० ५६२ ४१ ६२६ ६५८ ६६६ ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ आपत्रं ७१६ ७३१ ७६० ७७३ ८०० ८०२ ८०४ ८०५ ८५१ ६२८ ६३७ ६३८ ६३६ ६४१ ४८ ६५० ६५३ ६४ ६७० ६७१ ६७१ ६७१ | श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् प्रथमः श्रुतस्कंध ः अध्ययनानि आपत्रं १ २ ३ ४ ५ દ ७ ८ ह १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ द्वितीयः श्रुतस्कंध : २५४ १ - १० १-१० ७७ ६० ६ && ११३ ११४ १२० १५५ १६६ १७० ६७१ | श्रीउपासकदशाङ्गम् ७१ ६७५ ६८१ १७३ १७७ १८२ १६२ १६५ २२६ २३४ २४२ २४५ वर्गाः १-८ श्रीअन्तकृदृशाङ्गम् ५४ आप ३२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ ] अनुत्तरोपपातिक | श्रीराजप्रश्नीयं दशाङ्गम् वर्गाः आपत्रं | आविषयः आपत्रं पदानि आपत्रं पदानि आपत्र श्रीजंबुद्वीपप्रज्ञप्तिः वक्षस्कारा: आपत्रं ८८ ५३५ १७८ २०३ ५४२ १७८ ३८० सूर्याभः यानविमानादि ४४ श्रीप्रश्रव्याकरणाङ्कम कुटाकारदृष्टान्तः ५६ । स्नानपूजादि ११३ अध्ययनानि आपत्रं मोक्षवर्णनं १५० २१८ ५५२ ३८२ २२० ५५८ २२३ ४२४ ४३२ २२७ ५४६ २४५ श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिः ६ २६८ w ३ प्राभृतकानि आपत्रं w Wी श्रीनिरयावलिका वर्गाः आपत्रं १२१ १२६ श्रीजीवाजीवाभिगमं ३१६ ३२६ ३७३ १४१ प्रतिपत्तयः आपत्र ३६४ r ३६५ m ४०७ श्रीविपाकश्रुताङ्गम् प्रथमः श्रुतस्कंधः १३३ तः ४०६ ४३४ ४२६ ४५२ ६ ४४ ४२८ ४६१ २०१ २-१० ८८ द्वितीय श्रुतस्कंधः ४३१ ४३२ २३३ ४९३ ४६४ २४३ २४४ ४६७ ४६६ २५५ ४६७ २५६ ५२४ श्रीऔपपातिकसूत्रम् | श्रीप्रज्ञापनोपाङ्गम् आविषयः आपत्रं राजधान्यादि २४ | पदानि आपत्रं साधुगुणा पर्षनिगम सिद्धवर्णनं ११९३ २५७ २६७ ५२७ ५३१ २५४ ५३४ २६७ 2010_05 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] सचूर्णिकं श्रीनिशीथसूत्रम् श्रीबृहत्कल्पसूत्रम् श्रीव्यवहारसूत्रम् हस्तपोथी लीथोप्रिन्टमुद्रितम् हस्तपोथी | हस्तपोथी मुद्रितः भागः उद्देशकः आपत्रं भागः आपत्रं भागः आपत्रं भागः उद्देशकः आपत्रं आगाथाः भागः उद्देशक: आपत्रं उद्देशकः आपत्रं १ . १ १२६१ २०२ १६६ / १ १ ७७ ५०० | १ ३३४ ३०५ २५८ २ १८२ । २ ३ १६४ २२२ ___२४७ ६ २५३ ७ २५७ ८ २७० ६ २७७ १(१७४ १ १-६१ १-६६ १-३७० २ २१६ २ १-८७ ३ १-७३ ४१-१०४ ५ १-२६ ६ १६६ । ६ १-७१ ७ २८३ ७ १-६५ ८ ३३६ . ६ ३५५ / ६ १-२३ १० ४५८ | १० १-११४ ४०४ ४४५ ४६३ ४७८ ५०५ ५३३ ३६४ ५ १३५ २ ११ ८२ ७७३ ८३२ ८७५ ६१६ १६७ २३५ १५०० २२६ ३१७ २१३० १११ ३००० ३७० १५५ ३२९२] २ २ २०३ ४६४ ४१३ ३ २६३ ७२८ ६४ ११९२ ४७० ४ १६८ ८०५ १७० ५ २१२ ३७५ ३१३ ६ २६७ ४३० ३७४ - मुद्रितं - ४७७ | १ १ २५४ ८०५ ५६४ | २ ६१० २१२४ ३ ९२१ ३२८६ | ४ २ १०२२ ३६७२ २१८ | ३ १३०६ ४८७६ २६६ | ५ ४ १५०२ ५६८१ ४११ ५ १५९६ ६०५६ | ६ ६ १७१२ ६४६० ४४३ ४२६ १००८ १६३ ११४१ ११६० ११६७ १२१२ १३३८ +२ +३५ २० १७२ 2010_05 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] श्रीआवश्यकसूत्रम् श्रीदशवैकालिकम् टीका चूणिः श्रीउत्तराध्ययनानि मुद्रितः हस्तपोथी मुद्रितः आपत्र | अध्ययनानि आपत्रं आपत्र आपृष्ठं अध्ययनानि आपत्र अध्ययनानि आपत्री आविषयः ७० १४० १३६ | २ १८८ पिठिका प्रथमवरवरिका द्वितीयवरवरिका गणधरवादः । निह्नववादः नमस्कार नियुक्तिः १ सामायिकनियुक्तिः २ अध्ययनम् wa w w २२८ २५६ ३२५ xm xxx ur ४८१ ४८७ ४६६ ५१२ ५१६ २५४ ४५२ mn on Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or or ३१६ • ३२१ २५५ or rrrrrrr -: शुद्धिपत्रकम् :पृष्ठ विभाग: पंक्तिः अशुद्ध शुद्ध पृष्ठं विभागः पंक्तिः अशुलं २४१ १ २७ कको कंको १२ ०णबंधि ०णुबंधि २ १९ अन्यान्य अन्योन्य। ३१० १ २७ परेष परेषां २४ काङ्क्षप्र० काङ्क्षाप्र० १० व्यविर्तका व्यावर्तक २४४ ५ कंडूसंडिओ कंडूसंठिओ ३१७ ३३ शिल्पेर० शिल्पेना० २४५ ३ घणो घइणो ३० गत्री० गन्त्री० २५१ १६ प्रभृवि० प्रभृति० १९ गलकाः लगकाः २४ चतुष्यर्य० चतुष्पर्य ३२० ३० निष्नन्न निष्पन्न २५२ १३ अडुअ कडुअ ३० सनस्ख० सनख० वालसमुद्रे वलिसमुद्रे ३२३ १, ३३ कसलग कोसलग २५६ २१ वर्णवाली कर्णवाली ३२६ २ २ क्षोमः क्षोभः २६४ ८ प्रज्ञायनायां प्रज्ञापनायां ६ स्नेह स्नेहा० १० अनुष्ठाम् अनुष्ठानम् ३० कर्मकारी कर्मकरी १८ सप्रमावा सप्रभावा ३५ खिसात खिसति २६६ ___ अहारा. आहारा० ३५ नन्दति निन्दति २७२ २ २२ ०भारण. भरण. १४ प्रष्ठितं प्रतिष्ठितं २७३ २ ६ शैत्य० रोत्य० २ १४ सोपक्रममम् सोपक्रमम् ६ नोरीगता. नीरोगता. ३४० ५ प्रकारो० प्राकारो० २७५ ३३ .दत्री दात्री ३४६ १६ युण्य० युग्य २७८ २१ ज्ञावे जवे ३५० ३५ त्तरोस्यां त्तरस्यां १६ ध्याय माय० ३५१ __ ज्योतिषका ज्योतिषिका २८६ ३४ ०रजन्योः .रजन्य ३५३ ४ पतिप्प० गतिप्प. २८६ ३ ०वष्टम ०वष्टमम० ३५४ २३ ०वाशाद् ०वासाद् २४ ०वृत्त्वम् वृत्त्यम् ३५६ ३२ कल्पाञ्चल.कल्पाञ्चला० १३ कित्तिः कीत्तिः ३५७ २ २७ महिषं माहिषं २१ कित्ति कीत्ति ३५६ ३४ प्रहरणनाय प्रहरणाय २९५ १२ ०पाद. ०वाद० ४ करणा० कराणा० २४ सम्यग. सम्यग् १७ स्वभवा स्वभावा २७ क्रीडतं क्रीडितं २६ ष्यन्ती० न्ती २७ १६६ १६ गहस्थः गृहस्थः १७ तीर्यक० तिर्यक २६ धनाभिपः धनाधिपः २६६ १ २ पूर्वाद्ध० पूर्वाद्धा० ३६८ २ १४ ०स्यामिनः स्वामिनः २ २४ द्रष्टा दृष्ट्वा २१ कालन्तर- कालान्तर३.१ १ ११ नमिव नामिव ३६६ २ २२ गदं गुंद ३४ द्विहस्ति० द्विहस्त० | ३७० १ १४ गुणति गुणन्ति २७४ २६१ २६४ २६७ २१८ 2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] पृष्ठं ४२० ४२३ ४२६ ४२८ m m विभागः पंक्ति: अशुद्ध शुद्धं १ १४ छदित्वा छादित्वा १ १८ भुधातयोः क्षुधातयोः २ ३३ विशेष० ०विशेषा० १ १५ विशेष: विशेषाः ३१ निरिसरा निस्सिरा ३० पर्य० ०पर्व० १ ३३ गत्रा० गात्रा १ २६ ऊर्द्धः ऊर्ध्व: २८ ऊर्द्धः ऊद्धवः २ ११ देवराजायाणां mm ४३१ ४३४ ४३५ ३८९ ४३७ देवराणां जाया ४३९ ४४४ पृष्ठं विभागः पंक्ति: अशुद्ध शुद्ध ३७० १ २ ०कलो० फलो० ३७६ १ १४ ०स्पा० । ०स्या० ३८२ .२ ५ कच्छायः कटच्छायः २८ निर्घण: निघृणः १६ वस्तु वस्तुं & उदासा० उदात्ता० ८ ०जामान: ०जायमानः ४ ज्योत्सना ज्योत्स्ना १४ देवाता० देवता ३६० १ २६ आपस्तु आपत्सु २ ४ हाररे० ०हारे० २ १० ०चनादि० ०वचनादि. ३६२ १ १८ ०हन्या० व्हान्या० १ ३० प्रहण० प्रहरण. ६ ०चारण. पारण २ २३ ययोस्तो येषां ते ४०१ २ १५ चाउज्जामा चाउल्लामा ४०२ १ ३२ चातुर्वर्णा० चातुर्वर्ण ४०४ १ ३५ गत्त्वा गत्या ४०७ १ ६ ०पद्र० पद० २ ५ पद० पदा० . २ २६ विद्युत० ०विद्युत् ४०१ २ ३ ०श्च० ०० ४११ १ २७ ०ध्यमनम् ०ध्ययनम् १ ३१ चुलसोश चुलसीइ ___३१ चतुरक्षी० चतुरशी १५ ध्ययम् ध्ययनम् ४११ १ १० अम्रः आम्रः २ ०रशिति० ०रशीति ४१३ २१ व्यूतं च्यूतं १ १६ खंदिअ छंदिअ १ ३५ ०रात्मकम् ०रायात्मकम् ४१७ १ २० वाताहि० वातादि० ४१८ २ १८ सम्मूच्छंति सम्मूर्च्छन्ति ४२० १ १० कमला• कलमा० rrrrrrrrrrrrrrr or orrrror our rrrr or or or 8 निविजा निर्बीजा २ २१ ०मात्रक० ०मातृक. १ २३ विशेः विशेषः २४ संग्राहा० संग्राह्य० १. ३२ जेतव्ययम् जेतव्यम् १ ८ ०पती पतिः १ २७ ०षेवा० सेवा० ३४ प्रावट० प्रावृट० २ २ सवानु० सर्वानु० २ ६ शुषमा० सुषमा० २. १० भूदेश० ०देश० २२ रङ्गलानि रङ्गलानि •णत्वा णतत्वा २ ३० सेवाना० सेवना० १ ७ युजयन्त युज्यन्त ध्यन० ०ध्ययन वद्धिः वृद्धिः १ १२ सम्यग० सम्यग० १० परि० ०पत्ति १ २८ ध्यानमितं ध्यामितं .२ २१ मासानुपरियानू मासानामुपरि यानु २ २२ अनोरोपणं अनारोपणं ४५१ ४५२ ४५३ ४५४ 2010_05 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 आ मकान शेठ देवचंद- लालभाइ- जैनपुस्तकोद्धार फंडनी कायमी रकमथी खरीदवामां आवेलु छे रु.१,१०,००० एक लाख दश हजार शेठ देवबंद लाल भाई जैन पुस्तकोदार फंड मिल्कत 0 सुरज' D आगमो प्रशारक TOR कालबादेवी नं. १९९ आ मकान छे. तेमां भोयतळीए शयाजीविजय बोशिंग कु., पहेले माळे काशीनाथ बैंकर, बीजे माळे जादवजी प्रेमजी गांधीना बोर्डी छे. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * દેવસૂરતપાગચ્છસામાચારીસંરક્ષક, આગમમંદિરોના સંસ્થાપક, બહુશ્રત, દયાનસ્થસ્વગત, શ્રીઆનંદસાગરસૂરીશ્વજી મહારાજ દિલ 2010_05 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગ્રુપ ફોટાની માહિતિ ૧ ૨૦૦૪ આગમમંદિર સુરતની પ્રતિષ્ઠા પછી આશીર્વાદ ૨ ૨૦૦૪ નવલચંદ ખીમચંદ ઝવેરીની ધર્મશાળામાં કઈક જોતાં ૩ ૪ સુરત નેમુભાઈની વાડીમાં તે વખતે બેઠેલે. આ ૨૦૦૬ સ્વર્ગવાસ પૂર્વેને ધ્યાનસ્થ મુદ્રાનો ૪ ૧૯૭૭ રતલામમાં ગૃહસ્થની દાક્ષિણ્યતાને ૫ ૨૦૦૬ ૨. વ. ૫ ના સ્વર્ગગમન પૂર્વે કાયાની માયા મૂકી અર્ધપદ્માસને ધ્યાનસ્થ મુદ્રા સ્વીકારી તેને આ. શ્રીવિજ્યપ્રીતિચંદ્રસૂરિ મના આગ્રહથી રદેર પધાર્યા ત્યારે સુરતના આગમમંદિરની શીલા સ્થાપના મુહુર્ત વાસક્ષેપ નાખવાની તૈયારી ૮ ૧૯૯૨ માં સિદ્ધક્ષેત્ર ચાર આચાર્ય પદવીની યાદગીરીને પાંચ આચાર્યને ૯ ૨૦૦૪ મહા. વ. ૪ ના પ્રભાતે આગમમંદિર સુરતના પ્રથમ દ્વારઘાટન બાદ દર્શન કરી પાછા ફરતી ગુરુશિષ્યની બેલડી ૧૦ ૨૦૦૪ સુરતમાં કોઈ પદાર્થ જોતાં ૧૧ ૨૦૦૩ રાંદેરમાં કાંઈક જોતાં ૧૨ ૧૯૯૯ની ચૈત્ર ઓળામાં કપડવંજ પધારતાં ગ્રુપમાંથી એક ૧૩ ૧૯૯૮ માં પાલીતાણામાં છીંકણીની ડબીવાળા 2010_05 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प. पू ध्यानस्थस्वर्गत आगमोद्धारक आचार्य श्रीआनंदसागर सूरीश्वरजी म. ना अनन्य पट्टधर शान्तमूर्ति गच्छाधिपति विद्याव्यासंगी स्थवीर मूलीनरेश प्रतिबोधक आचार्यश्रीमणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराज - 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અર્પણ પ્રથમ ભાગના સંશોધનમાં ગુરુદેવની હાજરીમાં આપે આપેલા માર્ગદર્શને સ્મરણ કરીને તેને દ્વિતીય ભાગ આગમોદ્ધારકના અનન્ય પદધર શતાંમૂર્તિના કરકમલમાં સાદર સમર્પણ આપના સેવકે પ્રકાશકે 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारकाष्टकम् ॥ पुरे कपडवजाख्ये, श्राद्धमगनलालसः । शासनरक्षणार्थ तु, यमुनाकुक्षिदीपकः ॥ १ ॥ हेमचन्द्रः समुत्पन्नः, शशीवाभासयद्भुवम् । पित्रोः पवित्र संस्काराद् बालोऽयं संस्कृतः सदा ॥ २ ॥ युग्मम् અ—કપડવંજ નામના નગરમાં શ્રેષ્ઠી મગનલાલ અને શ્રીયમુનાદેવીના પુત્ર તરીકે શ્રોહેમચભાઈ શાસનની રક્ષા માટે ઉત્પન્ન થયા. જેમણે ચંદ્રમાની જેમ પૃથ્વીને પ્રકાશિત કરી. જે पवित्र ससारथी संसारी ता. (१-२ ) માતાપિતાના प्रौढबुद्धिर्वशी ज्ञानी, विवेकी निर्भयः सदा । झवेरसागरस्यास-न्ने प्रपेदे संयमं श्रेष्ठ, हेमचन्द्रो जितेन्द्रियः । आनन्दसागरो नाम्ना विख्याता वीरशासने || ४ || युग्मम् अर्थ - ओढ युद्धिवाणा, इन्द्रियाने वश पुरनार, ज्ञानवाणा, विवेशीस, उमेशां निर्भय, જિતેન્દ્રિય એવા હેમચંદભાઈ એ, વિદ્વાન શ્રીઝવેરસાગરજી મહારાજની પાસે ઉત્તમ સયમને ગ્રહણ કર્યું" અને શ્રી વીરશાસનમાં ‘આનન્દસાગર'ના નામથી પ્રસિદ્ધ થયા. (૩-૪) गीतार्थ सार्वभौमव, शैलानाधिपबोधकः । स्रष्टाssगममन्दिरयेाः, श्रीतपागच्छभूषणः विपक्षपक्षकक्षस्य, नाशहेतुहुताशनः । 2010_05 मुदा ॥ ३ ॥ अजैषीत्पुरुषाथः स्वे-नैकशासनदूषकान् ॥ ६ ॥ युग्मम् अर्थ – गीतार्थ शिरोमणि, शैलानानरेशने प्रतिशोध २नार, ( ' सुर्यपुर' तथा पासीताणाभां ) આગમમદિરનું નિર્માણ કરાવનાર, તપાગચ્છમાં ભૂષસમાન, વિપક્ષરૂપી કાને નાશ કરવામાં અગ્નિસમાન એવા જેમણે પોતાના પુરુષાર્થથી અનેક શાસનના દૂષાને જીત્યા. (૫૬) माणिक्यचन्द्र हेमादि- शिष्यमण्डलमण्डितः । केशरियान्तरीक्षादौ श्रीजिनशासनस्य सम्मेतशिखरे तीर्थे योऽचम्पद्यशेोध्वजम् । आगमोद्धारको जीयात् सूरिरान्दसागरः अर्थ - मा. श्री भणिज्यसागरल, मा. श्री यन्द्रसागर, શિષ્યમંડળથી શાંભતા જેમણે શરિયાજી, અન્તરીક્ષજી તથા સમેતશિખરજી વ. તીર્થોમાં શ્રી જિનશાસનની પ્રીતિ પતાકાને ફરકાવી તે આગમાદ્ધારક આચાર્ય શ્રી આન્દસાગરસૂરિજી વિજય પામેા (૭-૮) अमरकीर्तिना क्लृप्त-मष्टकं पुण्यदायकम् । श्रोतॄणां पठतां चैव भूयात् मङ्गलकारकम् ॥ ९ ॥ અ—આ પ્રમાણે અમરકીર્તિ એ બનાવેલું, પુણ્યને આપનારું અષ્ટક, સાંભળનાર તેમજ ભણનારને મંગલ કરનારુ થાવ. (૯) ✩ || 9 || च ।। ७ ।। ॥ ८ ॥ युग्मम् આ. શ્રી હેમસાગરજી વગેરે Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આગમ વટવૃક્ષ (ટૂંક પરિચય) ન શાસનમાં આરાધક આત્માઓને વર્તમાનકાળે પરમ આધારભૂત બે વસ્તુ છે. ' ૧ જિન પ્રતિમા ૨ જિનાગમ. વિષય-કષાયના વિષમ સંસ્કાર અને પરસ્પર વિરૂદ્ધ નાનાવિધ સંપ્રદાયની વિસંવાદી માન્યતાઓના ગજગ્રાહમાંથી છુટી નિષ્કપટભાવે શુદ્ધ આરાધના માટે ગીતાર્થોની નિશ્રાએ આ બે સાધનનો યથાયોગ્ય શરણાગતભવે આશરે લે પરમ હિતાવહ છે. આથી પૂર્વાચાર્ય ભગવતેએ આ બે સાધનોને આબાલગોપાલ દરેક આરાધક સર્વસાધારણ રીતે પરમકૃષ્ટ સાધનરૂપે સમજી શકે તેવી સૂર્ય-ચંદ્ર-સરવર-સમુદ્ર-પુરૂષ-કલ્પવૃક્ષ આદિની ઉપમાઓ જણાવી છે. આવી એક અનુપમ ઉપમાના રહસ્યને સમજવા આગમ વટવૃક્ષ નામે પ્રસ્તુત ચિત્રને પરિચય ભવ્યાત્માઓના હિતાર્થે અપાય છે. આ ચિત્રમાં નિષ્કારણ ઉપકારી વિશ્વવત્સલ શ્રીતીર્થકર ભગવતેએ ભાવકરણથી પ્રરૂપેલ જગહિતકર માર્ગનું પ્રતિપાદન કરનારા આગમેની મહત્તા વટવૃક્ષની રૂપક ઉપમાદ્વારા સમજાવવા પ્રયાસ કર્યો છે. વટવૃક્ષ-બીજા બધા વૃક્ષો કરતાં વડની મહત્તા, તેને વિસ્તાર, વડવાઈઓથી ઉત્તરોત્તર થતે વિકાસ અને ત્રણે ઋતુમાં એક સરખી રીતે દરેક પ્રાણીઓને આશ્રય મેળવવાની અનુકૂળતા આદિ કારણેથી જગજાહેર છે. તે રીતે નિષ્કારણ ભાવકરૂણાના ભંડાર શ્રી તીર્થકર ભગવંતોએ પ્રરૂપેલ આગમ એકાંત-હિતકરતા અને અત્યંત ઉપયોગિતા વટવૃક્ષની ઉપમા દ્વારા સમજાય તેમ છે. ચબૂતરે–સામાન્ય રીતે વૃક્ષોને વ્યવસ્થિત વિકાસ અને તેની ઉત્તરોત્તર સુરક્ષા તેમજ લેકે તેને વધુ લાભ લે તે હેતુથી ઝાડના થડને ફરતે ગેળ કે ચેરસ ઓટલા જે ચબૂતરે જરૂરી છે. આ રીતે તત્વજ્ઞાનના અખૂટ વારસા સમા જેનાગના વ્યવસ્થિત અભ્યાસ દ્વારા જન્મતી વિવેકબુદ્ધિના પ્રતાપે મેહના અશુભ સંસ્કારને ઘટાડવા-કવાની પ્રબળ તમન્નાને પિષક સચ્ચારિત્રની ભાવનાનું મૂળ આબાલોપાલ સુલભ રીતે જેના પઠન-પાઠનથી બાલ 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૨] જીના હૈયામાં રેખાય છે તે ચાર મૂળ સ્વરૂપ રસ-એટલે ચબુતરારૂપે આગમ-વટવૃક્ષને ફરતે બતાવવામાં આવ્યું છે. તેમાં પણ આગળના ભાગે ઓટલા ઉપર ચઢવા માટે પગથીયાં તરીકે નંદીસૂત્ર અને અનુયેાગ દ્વાર બતાવેલ છે, તે એટલા માટે કે કઈ પણ આગમના વ્યવસ્થિત જ્ઞાન માટે મંગલાચરણ તરીકે શ્રી નંદીસૂત્રનું અધ્યયન અને વ્યાખ્યાની પદ્ધતિઓની વિશિષ્ટ શેલીને સમજવા શ્રી અનુગ-દ્વાર સૂત્રનું પ્રાથમિક અધ્યયન અત્યંત જરૂરી છે. વળી ચબુતરામાં છે. તરીકે ચાર મૂલસૂત્રો તેમ જ તેના પેટા ભેદરૂપ અવાન્તર સૂત્રો દર્શાવ્યાં છે. તથા ચબુતરાની વચલી પટ્ટીમાં મૂલસૂત્રોની લાક્ષણિક વ્યાખ્યા દર્શાવી છે, કે “શ્રીતીર્થંકર પરમાત્માઓએ સ્થાપેલ શાસનની આદિ અને અંત જે સૂત્રોની હયાતી સાથે સંકળાયેલ છે તે મૂલસૂત્ર” ચબૂતરા પર મધ્ય ભાગે વર્તમાન આગમને અર્થથી પ્રરૂપતા શ્રી ચરમતીર્થકર શાસનનાયક શ્રી મહાવીર પરમાત્મા અષ્ટપ્રાતિહાર્ય સમેત ભાવતીર્થંકરની મુદ્રાએ દર્શાવ્યા છે, તેઓશ્રીની જમણી બાજુ અગ્યાર ગણધરેમાં મુખ્ય અનંતલબ્લિનિધાન આદ્યગણધર શ્રીગૌતમસ્વામીજી અભયમુદ્રાએ તથા ડાબી બાજુ વર્તમાન શ્રમણ સમુદાયના નાયક પંચમ ગણધર શ્રીસુધર્માસ્વામીજી પ્રવચન મુદ્રાએ દર્શાવ્યા છે. આ સિવાય ચબૂતરાની બંને બાજુ સાધુ, સાધ્વી, શ્રાવક, શ્રાવિકારૂપ ચતુવિધ શ્રીસંઘ પ્રભુની જગહિતકારિણી ભાવાત્સલ્યપૂર્ણ દેશના અને વાણીને લાભની જિજ્ઞાસાવાળી મુદ્રાએ દર્શાવેલ છે. " તેમાં પણ ડાબી બાજુ સાધુઓની પ્રથમ હરોળમાં બાકીના નવ ગણધરે વિશિષ્ટ તેજેવલયથી જુદા તરી આવતા દર્શાવ્યા છે, તેમની પાછળ સાધુઓ અને શ્રાવકને વિપુલ સમૂહ દર્શાવ્યું છે આ રીતે જમણી બાજુ વિશિષ્ટ તેવલયથી જુદા તરી આવતા શ્રીચંદનબાલાજી આદિ સાધ્વીઓ અને તેમની પાછળ વિપુલ શ્રાવિકાઓ બતાવી છે. વળી ચબૂતરાની પાછળના ભાગે ઉગતા સૂર્યના પ્રકાશરૂપે શ્રીકેવલજ્ઞાનની પ્રભા બતાવેલ છે, તે એમ સૂચવે છે કે-કેવલજ્ઞાનની નિર્મળતાના પાયા ઉપર જ વીતરાગની વાણીની જગહિતકરતા નિર્ભર છે. આટલી વાત આગમવટવૃક્ષની સર્વહિતકરતાને સાબીત કરનારી પ્રાથમિક રૂપે જાણવી. હવે વટવૃક્ષના થડ તરીકે શ્રી તીર્થકર દેવ પાસેથી ત્રણ નિષદ્યાપૂર્વક પૂ ગણધર ભગવંતેએ મેળવેલ ત્રિપદી દર્શાવી છે. તેની ઉપરના ભાગે ડાબે મટી શાખામાં શ્રીઆચારાંગ, શ્રીસૂત્રકૃતાંગ શ્રીસ્થાનાંગ, શ્રી સમવાયાંગ અને શ્રીજ્ઞાતાધર્મકથા એમ પાંચ સૂત્રે ઉપર-નીચે વારાફરતી મોટા પાંદડાં 2010_05 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [૩] રૂપે બતાવ્યાં છે, અને પાંદડાંના મૂળમાં વડના લાલ ટેટારૂપે તે તે ઉપાંગો બતાવ્યાં છે. અને આ શાખાના છેડાના ભાગે વર્તમાન આગમાં અત્યંત મહિમાશાળી શ્રી વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિશ્રીભગવતીસૂત્ર દર્શાવ્યું છે અને તેમાંથી ૯ પાંદડાં નીકળેલાં દર્શાવ્યાં છે, જેમાં શ્રીભગવતીસૂત્રમાંથી ઉદ્ભત નીચેનાં પ્રકરણે દર્શાવ્યાં છે. ૧ પરમાણુ છત્રીશી | ૫ કાયસ્થિતિ પ્રકરણ ૨ નિગોદ | લેકિનાલિકા , ૩ પુદગલ ,, | ૭ સમવસરણ ,,, ૪ બંધ , | ૮ પંચનિર્ચથી , ૯ પ્રજ્ઞાપના તૃતીયપદ સંગ્રહણી આ જ પ્રમાણે જમણે મેટી શાખામાં શ્રીઉપાસકદશા, શ્રીઅંતગડદશા, શ્રીઅનુત્તરીપપાતિકદશા, શ્રી પ્રશ્નવ્યાકરણ અને શ્રીવિપાકસૂત્ર મોટા પાંદડારૂપ બતાવ્યાં છે, તેઓના તે તે ઉપાંગ સૂત્રે તેના મૂળમાં વડના લાલ ટેટારૂપે બતાવ્યાં છે. આ બંને શાખાઓ વચ્ચે શ્રીનંદીસૂત્ર ચૂર્ણિમાં પુરૂષાકારે દ્વાદશાંગીના મહિમાને વ્યક્ત કરનાર આગમપુરૂષનું ચિત્ર જણાવી વટવૃક્ષદ્વારા જણાવાતી આગની હિતકારિતાને વધુ પરિચય આપવાનો પ્રયતન સેવ્યું છે. આ આગમપુરૂષના મથાળે આખી દ્વાદશાંગીમાં સૌથી મહત્વનું સંખ્યાની દષ્ટિએ બારમું પણ જેના ચોથા પેટા વિભાગની રચના ચૌદ પૂર્વો તરીકે શ્રી ગણધર ભગવંતે સર્વ પ્રથમ કરીને મુમુક્ષુ ભવ્યાત્માઓ માટે અત્યંત જરૂરનું શ્રીદષ્ટિવાદ નામનું અંગ થડના ઉપરના ભાગે દર્શાવેલ છે. તેની નીચે નાની-નાની શાખાઓ રૂપે બે બાજુ પાંચ-પાંચની સંખ્યામાં દશ પ્રકીર્ણકસૂત્ર (પન્નાઓ) દર્શાવ્યા છે. દષ્ટિવાદના મુખ્ય થડમાંથી મહત્ત્વની પાંચ બેટી શાખાએ નીકળતી બતાવી છે, તે છે દષ્ટિવાદના પાંચ ભેદ. પરિકર્મ, સૂત્ર, અનુગ, પૂર્વગત, ચૂલિકા જેમાંના પહેલા બે ભેદ અને છેલ્લા ભેદ સંબંધી આજે ઉપલબ્ધ આગમાં કંઈ પરિચય મળતા નથી. બાકી અનુગામાંથી તીર્થકરે, ગણધર, ચક્રવતીએ આદિ મહાપુરૂષના જીવન ચરિત્રને જણાવનાર કથાનુગ જેનું બીજું નામ પઢમાણુગ છે જે શાખામાંથી વસુદેવહીંડી-બ્રાદત્તચરિત્ર નામના બે ગ્રંથે પાંદડાંરૂપે દર્શાવ્યા છે, અને ચંડિકાણુગની શાખામાંથી ગણધરચંડિકા, યુગપ્રધાન ચંડિકા બે ગ્રંથ પાંદડાંરૂપે દર્શાવ્યા છે. આ રીતે પૂર્વગતની શાખામાંથી ડાબે છે છેદસૂત્રની મેટી શાખા તેમ જ ૧૬ પ્રાભૂતની લઘુશાખા અને જમણે ચૌદ પૂર્વેની બે મોટી શાખાએ નીકળી છે. ચૌદ પૂર્વેમાં તે તે પૂરૂપી લઘુશાખામાંથી છ કર્મ, દશવૈકાલિક સૂના તે તે અધ્યયને, ઉવસગ્રહ-સ્તત્ર, પંચસંગ્રહ, જીવસમાસ, સંસકૃત નિર્યુકિત, પૂજા ચતુવંશતિકા, 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નયચક્ર, કર્મપ્રકૃતિ, ઓઘનિર્યુક્તિ, કલ્પસૂત્ર, પ્રતિષ્ઠાકલ્પ, મહાકલ્પ, સ્થાપનાકપ વગેરે તે તે મહત્વના ગ્રંથો જે જે પૂર્વમાંથી ઉઠ્ઠન થયા છે તે પાંદડાંમાં નિર્દિષ્ટ કર્યા છે. વૃક્ષના મથાળે અરિહંત પરમાત્માનું તેજસ્વી બિંબ દર્શાવી વીતરાગપ્રણીત હોવાના કારણે આ આગ એકાંત કલ્યાણકર છે એ ભાવ સૂચવ્યું છે. આ સિવાય આ વૃક્ષમાં ગોલાકારે લખેલ નામ ૮૪ આગની સંકલના સૂચવે છે. મૂળ પટમાં તે ઉઘડતા રંગમાં ૪૫ આગમ અને હયાતી ધરાવતા આગમને નિર્દેશ કર્યો છે, અને ઘેરા રંગમાં ૮૪ આગમે અને વિચ્છેદ પામેલ નામશેષ આગમે દર્શાવ્યા છે. વળી વડના ઝાડને હોય છે તેવી વડવાઈઓરૂપે આગમરૂપી વૃક્ષના સ્વરૂપને ટકાવનારવિકસાવનાર પંચાંગીમાંથી નિર્યુક્તિ, ચૂર્ણિ, ભાષ્ય અને વૃત્તિઓને દર્શાવી મુમુક્ષુઓના હિતાર્થે આગમેને વારસો ગીતાર્થોએ કેટલે સરસ વિવિધ રીતે આવે છે તે સમજાય છે. તથા આ વડવાઈઓના પાછળના ભાગે નીચે જમીન પર જુનાં ખરી પડેલ પાંદડાંઓને ઢગલે આજ સુધીમાં ઘણા ઘણા વિચ્છેદ પામેલા આગ સૂચવે છે. આ પ્રમાણે આત્માને કલ્યાણના પથે આગળ ધપવા માટે જરૂરી માર્ગદર્શન આપનાર વિતરાગ પરમાત્માની વાણીના વારસારૂપે હાલમાં ઉપલબ્ધ ૪૫ આગમોના માર્મિક સ્વરૂપને ધ્યાનમાં રાખી જીવનને આધ્યાત્મિક પથે વધારવા પ્રયત્ન કરે જરૂરી છે. લિ. વીર નિ. સં. ૨૪૮૦ વિ. સં. ૨૦૧૭ માહ સુદ ૯ જે ન ઉ પ શ્રય મુ, ઉંઝા પૂજ્ય ગુરૂદેવ શ્રી ધર્મસાગરજી મ. ગણિવર ચરણેપાસક મુનિ અભયસાગર સાધના મુદ્રણાલય : દાણાપીઠ-ભાવનગર. 2010_05 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ अहम् ॥ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स । श्रेष्ठि देवचन्द्रलालमाई-जैन-पुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्क:आगमोद्धारक-आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितःअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः द्वितीय-विभागः ककारः | २६४ । जं० प्र० ११७ । प्रश्न० ८२ । कंखंति-काङ्क्षन्ते प्राप्तं सद् विमोवतु नेच्छन्ति । औप० कंकटुकदेश्य:-काङ्कटुकतुल्यः । आचा० २२२ । २२ । भग०। कंकडइयो-कण्टकितः । कृतकवचः । प्रश्न ४७ । कंखणं-काङ्क्षणं-अपेक्षा । भग०६३ । कंकडुओ-यस्य व्यवहारः काङ्कटकमाष इव न सिद्धिमुप कंखपओसे-काङ्क्षाप्रदोषः । भगवत्याः प्रथमशतके तृतीयाति स काङ्कटकव्यवहारयोगात् काङ्कटक: । व्य० प्र० योद्देशकः । काङ्क्षा-मिथ्यात्वमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यान्य२५५ आ। कंकडुगो-काङ्कटुकः । आव० ८५५ । . दर्शनग्रहरूपो जीवपरिणामः । स एव प्रकृष्टो दोषो-जीवकंकडो-कङ्कटः । कवचः । भग० ३२२, ४८१ । जीवा० । दूषणं काङ्क्षाप्रदोषः । भग० ६ । इदमित्थं इत्थं १६३ । जं० प्र० ३७ । राज० ७७ । च ममाध्येतुमूचितमित्यादिका वाञ्छा । उत्त०५४। कंकणो-संज्ञाविशेषः। नि० चू० द्वि० ५५ आ। कंखा-काक्षणं-अपेक्षा । भग० ६४ । कंखणं कंखा अभिलासो अन्नोन्नदंसणगहो। नि० चू० प्र० ११ आ० । कंकतकी-फणिहः । 'कांसकी ति लोके । अनु० २४ ।। फणिहम् । सूत्र० ११७ । काङ्क्षा-परद्रव्येच्छा, तृतीयाऽधर्मद्वारस्य चतुर्विंशतितमं कंकतिका-'कांसकी' इति लोके । नंदी० १५२ । नाम । प्रश्न० ४३ । अन्यान्यदर्शनग्रहः । भाग० ५२ । कंकदीवियो-वनजीवः । मर० । गृद्धि:-आसक्तिः । भग० ८९। दर्शनान्तरग्रहो गृद्धिा । कंकलोहकत्तिया-कङ्कलोहकर्तरिका । शस्त्रविशेषः । आव० | भग० १७ । अप्राप्तार्थाशंसा । भग० ५७३ । सुगतादि६६० । प्रणीतदर्शनेष्वभिलाषः । आव० ८११ । कंका-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । कङ्का:-दीर्घपादाः। कंखापदोस-दर्शनान्तरग्रहरूपो गृद्धिरूपो वा प्रकृष्टो दोषः जं० प्र० १७२। कङ्क्षाप्रदोषः, काङ्क्षप्रद्वेष वा रागद्वेषौ । भग० ६७ । कंकाय:-शस्त्रविशेषः । ठाणा ४५६ । कंखामोहणिज-काङ्क्षामोहनीयम् । काङ्क्षाया मोहनीयं कंकावंसे-पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः । भग० ५२ । काङ्क्षा-इदकको-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । कङ्कः-पक्षिविशे- मित्थमित्यं च ममाध्येतुमुचितमित्यादिका वाञ्छा, सैव षः । जीवा० २७७ । प्रश्न० २१ । एतदभिधानाऽसिः। मोहयतीति काङ्क्षामोहनीयं कर्म अनभिग्रहिकमिथ्यात्वआव० ३७४ । पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८२ । ठाणा० रूपम् । उत्त० ५८४ । ( अल्प० ३१ ) 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंखिए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कंठविशुद्धं कंखिए-काङ्क्षितः, उत्तरलाभाकाङ्क्षावान् । भग० ११२। कंचुइओ-कञ्चुकिनामान्तःपुरप्रयोजननिवेदकः प्रतिहारो कखिते-काङिक्षतः । मतान्तरमपि साध्वितिबद्धिः । । वा । ज्ञाता० ४१ ।। ठाणा० २४७ । तत्फलाकारावान् । ज्ञाता०६५ । कचुइजो-कञ्चुकी। आव० २२५ । मतान्तरस्यापि साधूत्वेन मन्ता । ठाणा० १७६ । कंचुओ-कञ्चुकः । विषधरनिर्मोकः । विशे० १००७ । कंगु-धान्यविशेषः । भग० ८०२ । कङ्गवा:-पीत- कञ्चुकः-संघात्यम् । दश० ८७ । कञ्चुक:-छिन्नसन्धानो तण्डुलाः । जं० प्र० १२४ । । वस्त्रविशेषः । आचा० ८६ । कंगुपलालं-रालओ । नि० चू० द्वि० ६१ अ। कंचुग-कञ्चुकं-अध:परिधान, पुरुषस्याऽधस्तनं स्यूतं कंगू-औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । धान्यविशेषः । सूत्र० वस्त्रम् । आव० ४३४ । ओघ २०६ । ३०६ । कगु:-उदकगुः । दश० १६३ । कङ्गः- कंचुय-कञ्चुकी--वारबाणः । अन्त०७ । कञ्चुको वारबाणः । कोद्रवौदनः । पिण्ड० १६८ । ब्रहच्छिरा कंग। नि०० । भग० ४६० ।। प्र० १४४ आ। कंजिक-काञ्जिक-सौवीरम् । पिण्ड ० १६८ । कंगूया-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कंजिगं-अवश्रावणम् । नि० चू० प्र० २०३ आ। कंचरणं-काञ्चनकूटं-सौमनसवक्षस्कारकूटनाम । जं० प्र० कंजिया-अवश्रावणम् । बृ० द्वि० १२६ आ। नि० चू० ३५३ । प्र० ३२६ अ । (देशी०) आरनालं । नि० चू० प्र० ४७ । कंचणकूडं-सम० १३ । अबृ० प्र० २५३ अ। कंचणकोसी-काञ्चनकोशी-सुवर्णखोला । जं० प्र० कंट-कण्टकः । नि० चू० प्र० ३२ अ । २६५। कंटइल्ल-कण्टकितो बदरीबब्बूलप्रभृतयः । व्य० प्र० कंचणपव्वए-उत्तरकुरुषु शीतानदीसम्बिन्धिनां पञ्चानां ६१ आ । कण्टकवान् । प्रश्न० २० । नीलवदादिहदानां क्रमव्यवस्थितानां प्रत्येक पूर्वापरतट कंटए-कण्टकः, गोत्रजवैरी । जं० प्र० २७७ । योर्दश दश काञ्चनाभिधाना गिरयः । भग० ६५५ । कंटकादिप्रभवः-आगन्तुको व्रणः । आव० ७६५ । कंचणपुर-काञ्चनपुरं कलिङ्गदेशे नगरम् । व्य० द्वि० | कंटगापह-कण्टकपथः कण्टकाश्च द्रव्यतो बब्बूलकण्टका४१३ आ। काञ्चनपुरं कलिङ्गजनपदे नगरम् । ओघ०२१ । । दयः, भावतस्तु चरकादिकुश्रुतयः तैराकुलः पन्थाः । उत्त० कलिङ्गेषु आर्यक्षेत्रम् प्रज्ञा० ५५ । द्रव्योत्सर्गे नगरम् ।। ३४० । आव० ७१८ । करकण्दुराजधानी । उत्त० ३०२।। कंटय-कण्टक:--बाधक:-शत्रुः । भग० १०१। कण्टकाः कंचणपुरी-नगरविशेषः । नि० चू० द्वि० ५५ अ । दायादाः । ठाणा० ४६३ । देशोपद्रवकारिणश्वरटा: कंचणमाला-कञ्चनमाला शिक्षायोग्यदृष्टान्ते प्रद्योतराज कण्टकाः । राज० ११ । कण्टक:-प्रतिस्पद्धिगोत्रजः । पुत्र्या वासवदत्ताया दासी अम्बधात्री च । आव० ६७४ । औप०१२। कण्टक: । जीवा० २८२ । कंचणा-काञ्चनाः काञ्चनमयपर्वताः । प्रश्न०६६। कंटिया-कण्टिका-कण्टकशाखा । ७० द्वि० २५ अ । कंचणियं-रुद्राक्षकृता काञ्चनिका । भग० ११३ । कण्टकः । आव० १६५, ३५२। कंचणिया-काश्चनिकाः, रुद्राक्षमयमालिकाः । औप० | कंठ-कण्ठः-गलः । उत्त० ३५६ ।। कंठतो-सूत्रपदैः साक्षात् । बृ० तृ० २२६ अ । कचिक्को-कञ्चित्कः, नपुंसकम् । बृ० तृ० १०२ आ। कंठमुरवि-कण्ठमुरवी, कण्ठासन्नं मृदङ्गाकारमाभरणम् । कंचिपुरी-नगरविशेषः । नि० चू० प्र० १३६ आ। जं० प्र० २७५ । कंची-काञ्ची कट्याभरणविशेषः । प्रश्न० १५६ । भूषण- कंठलं-प्रैवेयकम् । औप० ५५ । विधिविशेषः । जीवा० २६६ । | कंठविशुद्धं-कण्ठे यदि स्वरो वर्तितोऽस्फुटितश्च, ततः कण्ठ ( २४२ ) 2010_05 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंठसद्द ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः [ कंडुसोल्लियं विशुद्धम् । ठाणा० ३६६ । जं० प्र० ४० । अनु० १३२। लूम्पका वा । व्य० द्वि० २२३ आ । कंठसह-कण्ठकपार्श्वः कण्ठशब्द इति, कण्ठे परिवृत्त्येति। कंडपुंख-बाणपृष्ठः । आव० ६६७ । उत्त० ३५६ । कंडपोंखो-शरपतः । आव० ४२५ । कंठसमुद्दिठा-कण्ठसिद्धाः निगदसिद्धाः । आव० ७२७ । कंडफल-शस्त्रविशेषः । व्य० प्र० १७ आ। कंठसुत्तं-कण्ठसूत्रं--गलावलम्बि सङ्कलकविशेषः । औप०। कंडयं-अगुलाऽसंख्येयभागप्रदेशमानानि स्थानानि । बृ० ५५ । भग० ४५६ । तृ० १५ आ। कंठसुत्तग-कण्ठसूत्रम् । जं० प्र० १०५ । कंडरिए-कण्डरीक:-अलोभोदाहरणे साकेतनगरे युवकंठा-कण्ठात् । विशे० १६८ । राजः । आव० ७०१ । । कंठाकंठियं कण्ठे च कण्ठे च गृहीत्वा कृतं युद्धं कण्ठा-कंडरिओ-कण्डरीक:-औत्पात्तिकीबुद्धयां दृष्टान्तः ।आव० कण्ठि । ज्ञाता० ८६ । ४२० । अहोरात्रेणाऽधोगामी । मर० । कंठाणुवादिणीछाया-छायाविशेषः । सूर्य० ६५। कंडरिय-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । कंठिया-कण्ठिकाः, कण्ठः । ग० । कंडरीए-कण्करीक:-महापद्मराजस्य लघुसुतः । ज्ञाता० कंठुग्गए-कण्ठश्चासावुग्रकश्च-उत्कट: कण्ठोग्रकः, कण्ठस्य २४३ । उत्त० ३२६ । पुण्डरिकिण्या युवराजः । आव० बोगत्वं कण्ठोग्रत्वम्, कण्ठाद्वा यद् उद्गतम्-उद्गतिः । २८८ । स्वरोद्गमलक्षणा क्रिया कण्ठोद्गतः । ठाणा० ३६५। । कंडरीक-असदनुष्ठानपरायणतयाऽशोभनत्वे उपमा । कंठोटविष्पमुक्कं-बालमूकभाषितवद् यद् अव्यक्तं भवती- सदसदनुष्ठानपरायणतया शोभनाऽशोभनत्वमवगम्य तदुपत्यर्थः । अनु०१६ । मयाऽन्यदपि यच्छोभनं तत् । महाराजपुत्रः । सूत्र० २६८ । कंड-काण्डम्-धनुष्काण्डम् । आव० ६१३ । मण्डलाद् नाम विशेषः । आचा० २४१ । सूत्र० १६४ । देशीयः । बृहत्तरं देशखण्डम् । आव० ६३६ । काण्डम्-शरम् । आचा० ११२। आव० ६३ । रत्नकाण्डादि । अनु० १७१ । मण्डलाद् कंडा-पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । काण्डं नाम विशिष्टबृहत्तरं देशखण्डम् । बृ० तृ० १४६ आ । काण्ड:-बाणः परिणामानुगतो विच्छेदः पर्वतक्षेत्रविभागः । जं० प्र० शरः । भग० १६४ । काण्ड-धनुः । दश० १०४ । भग० ३७४। २६० । काण्डं-विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८६ । काण्डं- डितिया-अनुकम्पिता कण्डयन्तीति--तन्दुलादीन् उद्विभागः द्वितीयं काण्डं-विभागोऽष्टात्रिंशद योजनसह- खलादौ क्षोदयन्तीति कण्डयन्तिका । ज्ञाता० ११७ । स्राण्युच्चत्वेन भवतीति । सम० ६५ । कंडिया-इह ये तण्डुलाः प्रथमतः साध्वर्थमुप्ताः, ततः क्रमेण कंडए-कण्डक-कालखण्डम् । भग० १७८ । अवयवः ।। करटयो जाताः, तत: कण्डिता:, । पिण्ड०६५। भग० ६१६ । कण्डकः । आव० ४२७ । राक्षसानां | कंडिल्ला-गोत्रविशेषः । ठाणा० ३६० । चैत्यवृक्षाः । ठाणा० ४४२ । कंडुइया-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कंडक-तन्तुंः । नंदी० १६५ । आचा० १७२ । प्रज्ञा० | कंडुइस्सामि-कण्डूयिष्ये । ज्ञाता० ६५ । ५६१ । ओघ० १३१ । कंडुयं-कन्दुकं-नारकपचनार्थं भाजनविशेषः । सूत्र० १२५। कंडग-क्षतम् । नि० चू० द्वि० ११८ आ । कण्डक- कण्डू:-कण्डूतिः । ज्ञाता० ११३ । कन्दु:-मण्डकादिपचनसमयपरिभाषयाऽङ्गुलमात्रक्षेत्राऽसङ्ख्येयभागगतप्रदेशरा- भाजनम् । विपा० ४६ । शिप्रमाणा सङ्ख्या। पिण्ड० ३६ । सङ्ख्यातीतसंयम- | कंडुलोहकुंभी-कन्दूलोहकुम्भी-नारकाणां हननस्थानम् । स्थानसमुदायरूपः । पिण्ड० ३८ । - आव०६५१ । कंडच्छारिउ-ग्रामो ग्रामाधिपतिर्देशो देशाधिपतिर्वा | कंडुसोल्लियं-कन्दूपक्वम् । औप० ६१ । ( २४३ ) 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंडू ] कंडू - कण्डूः - कण्डूतिः । उत्त० ७८ । खर्जुः । ज्ञाता० १८१ । कन्दुः- नारकाणां पचनस्थानम् । आव० ६५१ । कण्डुः - पाकस्थानम् । जीवा० १०५ । कंडूइअ - कण्डूयितं - खर्जुकरणम् । जं० प्र० १७० । कंडूसंडिओ - कण्डूसंस्थितः - पाकस्थानसंस्थितः । आवलिकाबाह्यस्य तृतीयं संस्थानम् । जीवा० १०४ । कंसगपट्टओ-कंडूसगबंधो णाम जाहे रयहरणं तिभा - गपए से खोभिएण उणिएण वा चीरेणं वेढियं भवति ताहे उष्णिदोरेण तिपासियं करेति तं चीरं कंड्सगपट्टओ भण्णति । नि० चू० प्र० २४६ अ । कंडूसगबंधी - जाहे रयहरणं तिभागपएसे खोमिएण उणिएण वा चीरेणं वेढियं भवतिण ताहे उण्णिदोरेण तिपासियं करेति तं चीरं कंड्सगबंधो । नि० चू० प्र० २४६ अ । कंडे - कण्डयन्ती । ओघ० १६५ । कंत - कान्तं कमनीयम् । ज्ञाता० १६७ । कंता - कान्ताः कमनीयशब्दाः । जं० प्र० १४३ । कंतार - अध्वानं जत्थ भत्त-पाणं ण लब्भति । नि० चू० प्र० १०२ अ । कंतारभत्त - कान्तारभक्तं कान्तारं अरण्यं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहणार्थं यत् संस्क्रियते तत् कान्तारभक्तम् । औप० १०१ । कान्तारं अरण्यं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं यद् विहितं भक्तं तत् कान्तारभक्तम् । भग० २३१ । कान्तारं - अरण्यं तत्र यद् भिक्षुकार्थं संस्क्रियते तत् कान्तारभक्तम् । भग० ४६७ । कान्तारं - अटवी, तत्र भक्तं - भोजनं यत् साध्वाद्यर्थम् । ठाणा० ४६० । कतारवित्ति - कान्तारवृत्तिः शणपल्लयादिवृत्तिः । आव ० ८४४ । कंतारो - निर्जलः सभयस्त्राणरहितोऽरण्य प्रदेशः कान्तारः । सूत्र० ३४१ । कंति - कान्तिः - प्रभा । ज्ञाता० २२० । कंतिमइ - कान्तिमतिः, मायोदाहरणे कोशलपुरे नन्दने भ्यस्य द्वितीया पुत्री । आव ० ३६४ । कंते - कान्तियोगात् कान्तः । ठाणा० ४२० । कान्तिमान् । सूर्य० २९२ । घृतोदसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । 2010_05 आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित : [ कदप्प जीवा० ३५५ | कमनीयः - सामान्यतोऽभिलषणीयः । प्रज्ञा० ४६३ । कंथ - कन्थकः प्रधानोऽश्वः । उत्त० ३४८ । कथका-कन्यकाः अश्वविशेषाः । ठाणा० २४८ । कंथग - कन्थकः - जात्याश्वः । उत्त० ५०७ । कंथरं - सकण्टकम् । आव० ६७० । कंद - कन्दं - मूलस्कन्धान्तरालवति स्वावयवम् । उत्त० २४ । कन्द:- मूलनालमध्यवर्ती ग्रन्थिः । जं० प्र० २८४ । साधारणबादरवनस्पतिकाय विशेषः 1 प्रज्ञा० ३४ । कन्दविशेषः । उत्त० ६६१ । वज्रकन्दादिः । दश० १६८ । मूलानामुपरि वृक्षावयवविशेषः । औप० ७ । मूलोपरिवर्ती । जीवा० १८७ । स्कन्धाधोभागरूपः । प्रश्न० १५२ । गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कन्दःसूरणादिलक्षणः । दश० १७६ । मूलानामुपरिवर्तिनः कन्दाः । जं० प्र० २६ । सूरणकन्दादिः । आचा० ३० । कंदणता - क्रन्दनता - महता शब्देन विरवणम् । ठाणा० १८६ । कंदणया - महता शब्देन विरवणम् । भग० ६२६ - १ । कंदणा-नष्टमृतादिषु कंदणा - मोहनोद्भवकारिका । नि० चू० द्वि० ७१ आ । कंदप्प - कन्दर्पः परिहासः । भग० ५० | अतिकेलिः । भग० १६८ । ये कन्दर्पभावनाभावितत्वेन कान्दपि - कदेवेषूत्पन्नाः कन्दर्पंशीला देवाः । भग० १६८ । कन्दर्पःपरिहासः । बृ० प्र० २१३ अ । कन्दर्पः - कामः, तद्धेतुर्विशिष्टो वाक्प्रयोगश्च; रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रो मोहोद्दीपको नर्मेत्यर्थः । आव० ८३० । कामोद्दीपनं वचनं चेष्टा च । प्रज्ञा० ६६ । जीवा० १७३ । कान्दपिका देवविशेषाः, हास्यकारिणो भाण्डप्रायाः । प्रश्न १२१ । कन्दर्पकथावान् । ठाणा० २७५ । अट्टट्टहास हसनम् अनिभृतालापाच, गुर्वादिनाऽपि सह निष्ठुरवक्रोक्त्यादिरूपाः कामकथोपदेशप्रशंसाश्च । उत्त० ७० । कामः, तद्धेतुविशिष्ट वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्पः । उपा० १० । कन्दर्पः-कामः, तत्प्रधानाः षिड्गप्राया देवविशेषाः कन्दर्पा उच्यन्ते तेषामियं कान्दप । बृ० प्र० २१२ आ । ( २४४ ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंदष्पभावरणा ] कंदरपभावणा - कन्दर्पभावना । उत्त० ७०७ । कंदपरई - कन्दर्प रतिः - केलिप्रियः । ज्ञाता० ६७ । कंदप्पा - अनेक क्रीडासु अंदोलकादिप्पललिया घइणो इव अगसरीरकिरियाओ करेंता कंदप्पा । नि० चू० तृ० ६ अ । कंदपिकांन्दपिकाः - कामप्रधानकेलिकारिणः । जं० प्र० २६४ | कान्दर्पिकः । आव० २०५ । कंदप्पिया - कन्दर्पः परिहासः, स येषामस्ति तेन वा ये चरन्ति ते कन्दपिकाः कान्दपिका वा; व्यवहारतश्चरणवन्त एवं कन्दर्प- कौकुच्यादिकारकाः । भग० ५० । कंदभोषणं - कन्दः सूरणादिः, तस्य भोजनं कन्दभोजनम् । ठाणा० ४६० । भग० ४६७ । अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्द कोषः ३४६ । कंदा - कन्दाः । प्रज्ञा० ३१ । कंदाहारा - कन्दभोजिनस्तापसाः । निरय० २५ । 2010_05 [ कंबलं कंदिय - क्रन्दितम् - आक्रन्दः । विशेषः । प्रज्ञा० ६५ । कंदियसद्दं - क्रन्दितशब्दं प्रोषितभर्तृकादिकृताऽऽनन्दरूपम् । उत्त० ४२५ । कंदिया- क्रन्दिताः-व्यन्तरनिकायानामुपरिवर्तिनो व्यन्तरजातिविशेषाः । प्रश्न० ६६ । कंदु - कन्दु: - लोही - ( लोहमयी ) प्रश्न० १४ | कंदुकुम्भी - पाक - पाकभाजन विशेषरूपा लोहादिमयी । उत्त० ६ । 1 आव ० कंदमाण - शोकाद् महाध्वनि मुञ्चन् । ज्ञाता० १५६ । कंदमूले - कन्दमूलम् । प्रज्ञा० ३४ | कंदरं-गिरिगुहा । आचा० ३६६ । गिरिगुहा । नि० चू० कंपिलपुरे - अम्बडपरिव्राजकस्थानम् । भग० ६५३ । कंपिल्ल - काम्पिल्यम् - विमलनाथजन्मभूमिः १६० । जितशत्रुराज्ञो राजधानी । ज्ञाता० १४४ ॥ चित्रसम्भूतिभ्रमणस्थानम् । उत्त० ३७९ । पाञ्चालेषु आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० ५५ । नगरविशेषः । उत्त० ३२३ ॥ कंपिल्लः - अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य सप्तममध्ययनम् । अन्त० १ । काम्पिल्य: - ब्रह्मदत्त राज्ञ्या मलयवत्याः पिता । उत्त० ३७६ । काम्पिल्यम् - ब्रह्मदत्तराजधानी । आव० १६१ । हरिषेणराजधानी । आव० १६१ । पश्चालदेशे नगरम् । ब्रह्मराजधानी । उत्त० ३७७ । द्वि० ७० अ । कुहरम् । विपा० ५५ । कंदरगिह- कन्दरगृहम् । गुहा । भग० २०० । गिरिगुहा गिरिकन्दरं वा । ठाणा० २६४ । कंदरा - कन्दरा । दरी । प्रश्न० १२७ । गुहा । ज्ञाता० ३३ । कंदराणि - भूमिविवराणि । भग० ४८३ । कंदर्प :- रागसंयुक्तोऽसभ्यो वाक्प्रयोगो हास्यं च । त०७ । कंदल - कन्दलानि - प्ररोहाः । ज्ञाता० २६ । प्रत्यग्रलताः । ज्ञाता० १६१ । उत्त • कंदली - कन्दली - कन्दविशेषः । उत्त० ६६१ । तक्कली । आचा० ३४६ | कंदलगा-एकखुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । कन्दलकः - एक कंपिल्लपुरं काम्पिल्यपुरम् । पञ्चालेषु दुर्मुखराजधानी । खुरश्चतुष्पदः । जीवा० ३८ । ३०३ । खण्डरक्षाणां श्रमणोपासकानां स्थानम् । आव० ३१७ । ब्रह्मदत्तराजधानी । नि० चू० प्र० ११३ आ । काम्पिल्यपुरं - अम्बडपरिव्राजकस्थानम् । भग० ६५३ । द्रुपदराज्ञो राजधानी । ज्ञाता० २०७ । नगरविशेषः । ज्ञाता० २५३ । कंदलीऊसुयं - कन्दलीमध्यम् । आचा० ३४६ | कंदलीकंदए- कन्दलीकन्दकः - वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । कंदलीसीस - कन्दलीशीर्षम् - कन्दलीस्तबकः । आचा० कंप्पडिया - नि० चू० प्र० १२ अ । कंबलं - कम्बलः - उपकरणविशेषः । आव ० ७६३ 1 वास विशेष: । प्रश्न० १३५ । कम्बलमित्यनेन आविक: पात्रनिर्योगः कल्पश्च गृह्यते । आचा० १३४ । आणिकं कल्पं पात्रनिर्योगं वा । आचा० २४० । वर्षाकल्पादि । ( २४५ ) प्रश्न० १६० । वाणमन्तर ४५६ । कंदुक्क - कन्दुकः-साधारणवनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ४० । कन्दुक्कः - वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । कंदुसोल्लियं - कन्दुपक्वम् । भग० ५१६ । कं परणवाइओ - कम्पनवातिकः - कम्पनवायुरोगवान् । अनुत्त० Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंबलं] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः-. [ कउओ दश० १६६ । कांस्य:-द्रव्यमानविशेषः । उपा० ४८ । कांस्यभाजनकंबल-कम्बल:-मथुरायां जिनदासस्य वृषभजीवः । बृ० जातिः । जीवा० २८० । ज्ञाता० ४६ । त्रपुक-ताम्र तृ० १६० आ । नौरक्षकः । आव० १६७, १६६ ।। संयोगजम् । प्रश्न० १५२ । देवकीसुतघातको मथुराधिकंबलक डे-कम्बलमेव । ठाणा० २७३ । कम्बलकट: ।। पतिः । सूत्र० ३०८ ।। आव० २८६ । कंसकारे-अष्टादशश्रेणिषु चतुर्दशः । जं० प्र० १६४ । कंबलकिर्दु-ऊर्णमयं कम्बलं जीनादि । भग० ६२८ ।। कंसणाभे-कंसनाभः । अष्टाशीतौ महाग्रहेषु त्रयोविंशतिकंबलगाणि-वरूविशेषाः । आचा० ३६३ । तमः । जं० प्र० ५३५ । कबलरयणं-कम्बलरत्नम् । उत्त० १०५ । कम्बलरत्नं । कंसताला-कंस्यताला:-कंसालियाः । जीवा० २६६ । वस्त्रविशेषः । व्य० प्र० १६४ अ। पञ्चेन्द्रियनिष्पन्नं कंसपाए-कंसपात्रम्-तिलकादि । दश० २०३ । चक्रवर्ति रत्नम् । आचा० ३६२ ।। कंसवण्णाभे-कंसवर्णाभः । अष्टाशीतौ महान कंबलसाडए-कम्बलरूपः शाटक: कम्बलशाटकः । प्रज्ञा० । शतितमः । जं० प्र० ५३५ । | कंसवण्णे-अष्टाशीतिमहाग्रहेषु त्रयोविंशतितमः ठाणा ७६। कंबला-वस्त्र विशेषः । अनु० २५३ । सास्ना। विपा० ४६ । कंसवन्नामे-अष्टाशीतिमहाग्रहेषु चतुर्विंशतितमः । ठाणा० कंबिया-कम्बिका । आव० । ४१७ । कंबिका-पृष्टका ।। ७६ । जीवा० २३७ । कंसालिया-कांस्यतालाः । जीवा० २६६ । । कंबिसंस्तारकः-शय्यासंस्तारके द्वितीयो भेदः । व्य० द्वि० | कंसिका:-लत्तिया-वाद्यविशेषः । ठाणा०६३ । २८४ अ । क-क:-आत्मा । भग० २६६ । कंबुं-विमानविशेषः । सम० २२ । कह-कति–कतिविधम् । भग० १४२ । कियन्तः । अनु० कंबुग्गीयं-विमानविशेषः । सम० २२ । २५६ । क्वचित्-संयमस्थानावसरे धर्मोपधिप्रत्यूपेक्षणादौ। कंबुवरसरिसा-कम्बुवरसदृशी - उन्नततया वलियोगेन च दश० २८३ । प्रधानशङ्खसन्निभा । जीवा० २७२ । कइए-क्रयिक:-ग्राहकः । भग० २२६ । धारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा०३४। -कतिकृत्व:-कियतो वारान् । उत्त० २३० । य-काम्बोज:-कम्बोजदेशोद्भवोऽश्वः । उत्त० ३४८ ।। कइतवियं-कृत्रिमम् । आचा० १७८ । कम-आहाकम्मं । नि० चू० प्र० ९३ अ । कइत्थो-कतिथः । आव० ५५६ । कमंतसाला-छहादिया जत्थ कम्म विज्जति सा कम्मंत-कइभाग-कतिभाग:-कतिथो भागः । प्रज्ञा० ५०३ । साला गिहं वा। नि० चू० प्र० २६५ अ । कइया-क्रयिकाः । दश० ६१ । कंमादि-कर्मादिना । ठाणा० ३३१ । कइयवं-कैतवम् । आव० ६३२ । कमिया-कर्मणो जाता कर्मजा-बद्धेः तृतीयभेदः । आव० कइरसारए-करीरसारः । प्रज्ञा० ३६० । कइल्लए-कृते। बृ० तृ० ६२ अ। कंमोवधी-पहाणा तीव्रकर्मोदये वर्तमाना इत्यर्थः । नि० | कइलिया-कृता । उत्त० ८६ । चू० प्र० २८६ आ । कइवयं-कतिपयम् । आव० २६२ । कंस कांस्यम्-कांस्यभाजनम् । उत्त० ३१६ । अष्टा- कइंसिरं-कतिशिरः-कति शिरांसि तत्र भवन्ति । आव० शीतिमहाग्रहेषु द्वाविंशतितमः । जं० प्र० ५३५। ठाणा० | ५११ । ७६ । कंसम्-करोटकादि। दश० २०३ । कंस:-कृष्ण- | कउ-ऋतुशब्देनेह प्रतिमा-अभिग्रहविशेषाः । उपा० २६ । वैरी । प्रश्न० ७५ । मथुरायां राजा । दश० ३६ । कउओ-कायाको वेषपरावर्तकारी नटः । बृ० तृ० १२७ ( २४६ ) 2010_05 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कउह ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः [ कक्खड आ। ककुदम्-स्कन्धदेशविशेषः । ज्ञाता० १६१ । कक्कराइयं-कर्करायितम्-'विषमा धर्मवती' इत्यादिकउह-ककूदम्-स्कन्धासन्नोन्नतदेहावयवलक्षणम् । अन० शय्यादोषोच्चारणम् । आव० ५७४ । १४३ प्रधानः । ज्ञाता० २३३ । कक्करि-कर्करी-कलशो महाघटः, करकः प्रतीतः, कर्करीकउही- ककुदम्-स्कन्धासन्नोन्नतदेहावयवलक्षणमस्यास्तीति स एव विशेषः । जं० प्र० १०१ । ककुदी-वृषभः । अनु० १४३ । कक्करी-कर्करी-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । कए-कृतानि-भावितानि । बृ०प्र० १३३अ । कृते-अर्थाय । कक्करे-कर्कर:-कर्करायितकारी । उत्त० ४८६ । दश० ६५। कक्कस-कर्कशाम्-चविताक्षराम् । आचा० ३८८ । जो कएण-कृते हेतोः । प्रश्न० १२० । सीउण्हकोसादिफासो सो सरीरं किसं कुम्वई ति कएणुय-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । कक्कसो । दश० चू० १२३ । कर्कशाम्-कर्कशद्रव्योपमाम्कएल्लओ-कृतः । आव० ३५६, ६६६ । अनिष्टामित्यर्थः । भग० २३१ । रौद्रदुःखम् । भग० ३०५ । कओ-कृत: । विहितः । ज्ञाता० ७०, १६२ । कर्कशा-अतिशयोक्त्या मत्सरपूर्वा भाषा। दश० २१३ । कओगो-छत्तो । नि० चू० प्र० २८४ अ । कर्कशद्रव्यमिव कर्कशोऽनिष्ट इत्यर्थः । भग० ४८४ । ककाणओ-मर्माणि । सूत्र० १३६ । कर्कश:-अतिदुस्सहः । जीवा० १०३ । ककार-खकार-गकार-घकार-ङकार -प्रविभक्ति- कक्कायरिय-ककुदाचार्याः । नवपद० अनुत्त । नामा-पञ्चःशो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ 1 कक्कावंस-वंशवृक्षविशेषः । भग० ८०२ । ककुयं-ककुदम्-अंसकूटम् । जं० प्र० ५२६ । कवकेय-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । ककुष्ठा-तृतीयं क्षुद्रकुष्ठम् । प्रश्न० १६१ । आचा० २३५। कक्को-सो दव्वसंजोगेण वा असंजोगेण वा भवति। नि० कुदम्-स्कंन्धशिखरम् । विपा० ४६ । चू० द्वि० ११८आ। उव्वलयं अट्टगमादी । दश० चू० १०१ । कहा-ककुदानि-चिह्नानि । ठाणा० ३०४। कक्कोडई-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कर्क-कलकम्-पापं माया वा । प्रश्न० २७ । लोध्रा- कक्कोडए-चतुर्थोऽनुवेलन्धरनागराजः तस्यैवाऽऽवासपर्वतः । दिद्रव्यसमुदायेन शरीरोद्वर्तनकम् । सूत्र० १८१ । उव्व- ठाणा० २२६ । कर्कोटकः-अनुवेलन्धरनागराजाऽवासलणयं द्रव्यसंयोगेन वा कक्कं । नि० चू० प्र० ११६ भूतः पर्वतः लवणसमुद्रे ऐशान्यां दिश्यस्ति, तन्निवासी आ । कल्क:-प्रसूत्यादिषु रोगेषु क्षारपातनम्, अथवा नागराजः, वरुणस्य पुत्रस्थानीयदेवः । भग० १६६ । आत्मनः शरीरस्य देशतः सर्वतो वा लोध्रादिभिरुद्वर्तनम्। प्रथमोऽनुवेलन्धरनागराजः, तस्यैवाऽऽवासपर्वतश्च । जीवा० व्य० प्र० १६३ अ । कल्क:-चन्दनकल्कादि: । दश० | ३१३ । २०६ । कल्कम्-माया-कपटम् । सम० ७१ । हिंसा कक्कोलं-औषधिविशेषः । आव० ८११ । दिरूपं पापम् । भग० ५७३ । कर्कः-ब्रह्मदत्तस्य तृतीयः कक्कोलयं-स्वादिमे दृष्टान्तः । नि० चू० द्वि० ६० अ । प्रासादः । उत्त० ३८५ । कक्ख-कक्षा । जीवा० २७५ । भूजमूलम् । प्रश्न० ८४ । कक्खग-कक्षाक: । तं० । कक्कगुरुगं-कल्कगुरुकम्-माया । प्रश्न० ३० । . कक्खड-कर्कशम्-कर्कशद्रव्यमिवाऽनिष्टम् । प्रश्न. १५६ । कक्कणा-कल्कं-पापं माया वा तत्करणं कल्कना प्रश्न० २६ । रुक्षादिगुणसमन्वितम् । ओघ० ५० । कर्कशद्रव्यमिवाऽकक्करणता-कर्करणता-शय्योपध्यादिदोषोद्भावनगर्भ प्रल निष्टेत्यर्थः । ज्ञाता०६८ । निष्ठुरो बलवत्वात् । ज्ञाता० पनम् । ठाणा० १४६ । १६२ । अवमौदर्यम् । बृ० तृ० १२४ अ । पासट्टितेहि कक्करणया-जो घडीजंतगं व वाहिज्जमाणं करगरेइ सा | विओसविज्जतिमाणा वि णोवसमंति । नि० चू० प्र० कक्करणया । दश० चू० १५ । २१६ आ । ( २४७ ) 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कक्खडिया ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कच्छ कक्खडिया-करकडिया-करकटिका -निन्द्यचीवरिका । महाविदेहे कच्छगावती नाम विजयः । जं० प्र० ३४६ । विपा० ४७ । ठाणा ८० । कक्खडो-तिव्वकम्मोदए वट्टमाणो । नि० चू० प्र० कच्छट-अन्ध्रदेशीयस्त्रीनेपथ्यविशेषः । आव० ५८१ । २७६ अ। कच्छपुड-कच्छपुट: । व्य० द्वि० २०७ आ । कट-कवचः । भग० ३१८ । कच्छपुडओ-कक्खपदेसे पुडा जस्स स कच्छपुडओ । कटुकरूपम्-कङ्कटुकतुल्यम् । उत्त० ३४७ । नि० चू० प्र० १५८ अ । कच्चगे-चडुगे । व्य० द्वि० ३०२ आ । कच्छपुडियवाणिओ-नि० चू० प्र० १०७ अ । कच्चातणा-कात्यायन:-कौशिकगोत्रविशेषभूते पुरुषे, | कच्छरिंगियं-कच्छपरिङ्गितम् । येन कच्छपवद् रिङ्गन् तदपत्यसंतानेषु च । ठाणा० ३६० । वन्दते तत् । कृतिकर्मणि सप्तमदोषः । आव० ५४३ । कच्चायण-कात्यायनम्-मूलगोत्रम् । जं० प्र० ५०० । कच्छमा-कच्छपाः - कूर्माः । उत्त० ६६६ । आव० कच्चायणसगोत्ते-कात्यायनसगोत्रम्-मूलनक्षत्रस्य गोत्रम् । ५४३ । कच्छपाः । प्रज्ञा० ४३ । राहो अष्टमं सूर्य १५० । नाम | भग० ५७५ । कच्छपः । सूर्य० २८७ । मांसकच्छ-कच्छः । नदीजलपरिवेष्टितो वृक्षादिमान् प्रदेशः । कच्छपाऽस्थिकच्छपभेदभिन्नो जलजन्तुविशेषः । प्रश्न ७। भग० ६२ । सूत्र० ३०७ । कच्छदेशः । जं० प्र० २२० । कच्छभाणी-कच्छभानी - साधारणवनस्पतिविशेषः । कक्षा-उरोबन्धनम् । भग० ३१८ । हृदयरज्जुः । भग० प्रज्ञा० ४० । जलरहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । ३१७ । शरीराऽवयवविशेषो वनगहनं वा । भग० कच्छभी-कच्छपी । भारती वीणा । जं० प्र० १०१ । १९८ । समूहः । ठाणा० ४०७ । विजयविशेषः । कच्छभी। वाद्यविशेषः । प्रश्न १५६ । पुस्तकपञ्चके प्रज्ञा० ७३ । श्रीऋषभस्वामिनो महासामन्तनाम । द्वितीयम् । नि० चू० प्र० १८१ अ । वादिन्त्रविशेषः । जं० प्र० २५२ । हृदयरज्जुः । औप० ६२ । जं० प्र० जीवा० २६६ । चतुरंगुलो दीहो वा वृत्ताकृती। नि० ५२८ । कच्छो नाम चक्रवर्तिविजेतव्यभुविभागरूपो | चू० द्वि० ६१ अ। विजयः । जं० प्र० ३४० । दक्षिणकच्छार्धकूटम् । कच्छभीए-कच्छपिका। उपकरणविशेषः । ज्ञाता० २२० । उत्तरकच्छार्धकूटम् । जं० प्र० ३४१ । कच्छ:-इहलोक- कच्छवि-कच्छपी । पुस्तकपञ्चके द्वितीयम्, यद् अन्ते तनुकं गुरणे देशविशेषः । आव० ८२४ । ऋषभदेवस्य पौत्रः। मध्ये पृथु । ठाणा० २३३ । आव० ६५२ । आव० १४३ । क्षेमायां राजधान्यां कच्छो नाम राजा | | कच्छवी-अन्ते तनुकं मध्ये पृथुलं पुस्तकम् । वृ० द्वि० चक्रवर्ती । जं० प्र० ३४४ । २१६ आ। कच्छउडियो-गृहीतोभयमोट्टाक: । बृ० द्वि० १६० आ। कच्छा-बन्धविशेषः । सम. १२७ । ठाणा० ८० । कच्छकरा-अष्टादशश्रेणिषु अष्टमी श्रेणिः । जं० प्र० __ कक्षा-उरोबन्धनम् । विपा० ४७ । इक्खु .।दी । १६३ । नि० चू० द्वि० ७० आ। कच्छकूडे-कच्छकूटम् । जं० प्र० ३४४ । कच्छविज- कच्छाणि-कच्छाः । नद्यासन्ननिम्नप्रदेशा मूलकवायाधिपकूटम् । जं० प्र० ३३७ ।। लुङ्कादिवाटिका वा । आचा० ३८२ । कच्छकोह-कक्षाकोथः कक्षकोथो वा-कक्षाणां-शरीरा- कच्छावईए-कच्छा एव कच्छका-मालुकाकच्छादयः सन्त्यवयवविशेषाणां वनगहनानां वा कोथः - कुथितत्वं | स्यामतिशायिन इति । जं० प्र० ३४६ । शटितं वा कक्षाकोथः कक्षकोथो वा। भग० १६८ । कच्छावईकूडे-कच्छावतीकूटम् । महाविदेहस्य पद्मकूटस्य कच्छगावती-कच्छा एव कच्छकाः, मालुकाकच्छकादयः, चतुर्थं कूटम् । जं० प्र० ३४६ ।। सन्त्यस्यामतिशायिन इति कच्छकावती, विजयनाम । कन्छु-पामा । व्य० द्वि० १६२ अ । नि० चू० प्र० (२४८ ) 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्छुभरि ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ . [ कट्टकम्माणि १२७ आ । जं० प्र० ३२ । कच्छु भरि-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा २३ । । कज्जसेणे-तृतीयायामवप्पिण्यां भारतवर्षे पञ्चमः कुलकच्छल-कण्डूमान् । विपा० ७४ । पामावान् । बृ० द्वि० करः । सम० १५० । २२२ आ । कण्डूतिमान् । प्रश्न० १६१ । । कज्जोयए-अष्टाशीत्यां पञ्चदशो महाग्रहः । ठाणा० ७८ । कच्छल्लरणारए-एतन्नाम्ना तापसः । ज्ञाता० २२० । कज्जोवए-कार्योपगः । अष्टाशीत्यां षोडशो महाग्रहः । कच्छू-कच्छू:-पामणा(मा) । जीवा० २८४, ३०८ । ___ जं० प्र० ५३४ । आ० ३७८ । पामा । बृ० द्वि० २२२ अ । जं० कटक-गिरिपादः । दुर्ग: । व्य० द्वि० ४२ आ। सैन्यम् । प्र० १७० । निः चू० द्वि०६२ अ । व्य० द्वि०१६२ नंदी० १६१ । सैन्यं किलिज वा। प्रश्न०६। उपअ । करणभेदः । आचा० ६० । कच्छोटकः-चरकः । भग० ५० । . कटकमद-कटकमन मारणमादिश्य । ठाणा० ४१२ । कच्छोटग-कच्छोटकः । आव० ४१३ । कटकमन मारणार्थं चाऽनुज्ञाताः । विशे० ६५३ । कज्ज-असिवादियं कज्ज भण्णति । नि० चू० प्र० ४२ कटकित:-काष्ठादिभिः कूड्यादौ संस्कृतः । आचा० आ । अपवादकारणम् । अहवा कज्जंति णाण-दसण- ३६१ ।। चरणा । नि० चू० तृ० १२ आ । कार्य:-कर्तव्य: कटादिकारा:-छविकाः । प्रज्ञा० ५८ । समुपस्थितः । आचा० ११६ । अशिवादिनिस्तरणलक्षण: कटासनम-कटासनमित्येतस्माच्छय्येति । आचा० ३२० । प्रयोजनः । व्य० प्र०६अ। गृहकरण-स्वजनसन्मा- कटाहक-पात्रविशेषः । आचा० ३४६ । । . नादिकृत्यः । भग० ७३६ । कटुः-रसस्य द्वितीयभेदः । प्रज्ञा० ४७३ ।। कजइ-फलं भवतीत्यर्थः । भग० ३७३ । क्रियते-व्यथते। कटुका:-सुण्ठ्यादिवत् । उत्त० ६७७ । । यथा शूलं क्रियते-व्ययते ( पीडयति )। आव० ४३३ ।। कटुका-औषधिविशेषः । उत्त० ६५३ । .. कज कोडुवं-कुटुम्बे भवं कौटुम्ब-स्वराष्ट्रविषये कार्यम् । कट्ट-खण्डम् । अनुत्त० ५ । जीवा० १६६ । कट्टर-तीमनोन्मिश्रवृतवटिकारूपो भोज्यविशेषः । पिण्ड ० कजति-क्रियते । ( कर्मकर्तरि ) भवति । ठाणा० २४७ । १७२ । कज्जत्थोकुरटिकास्थानम्-स्थानविशेषः । ओव० १६२ । कट्टरादिकम्-क्वथितम् । वृ० प्र० २३४ आ । कज्जमाणं-क्रियमाणम् - वर्तमानक्रियाक्षणभाविकार्यम् । कट्टारिगा-शस्त्रविशेषः । क्षुरिका । नि० चू० प्र० विशे० ९४१ । ३०४ आ । बजमाणा-क्रियमाणा-ईर्यापथिकी क्रियायाः प्रथमो भेदः। कटु-कृत्वा । उत्त० ७०६, २४६, २५३ । । आव० ६१५ । कट्ठ-काष्ठम् । फलकादि । प्रश्न १६० । कष्ट-दुःखम् । कज्जलंगी-कज्जलाङ्गी । कज्जलगृहम् । ज्ञाता० ६ । ज्ञाता० १६७ । काष्ठम् । आचा० ३३ । श्रीपादिकजल-कज्जलं । मषी। भग०१०। कृष्णवर्णपरिणतः ।। फलकादि । दश० १६३ । स्थूलमायतमेव । ठाणा० प्रज्ञा०१० । ४६६ । कुट्टिमम् । आव० ७६७ ।। कज्जलप्पभा-कज्जलप्रभा । अपरदक्षिणस्यां पुष्करिणी- कटकम्मंताणि-काष्ठकर्मगृहाणि । आचा० ३६६ । नाम । जं० प्र० ३३५ । कट्टकम्म-कोट्टिमादि । नि० चू० द्वि० ७१ अ । काष्ठकज्जलमाणं-भरिज्जमाणं । नि० चू० तृ० ६४ अ। कर्म-काष्ठनिकुट्टितं रूपकम् । अनु० १२ । काष्ठकर्मकज्जलायमाणं-प्लाव्यमानम् । आचा० ३७६ । । प्रतिमास्तम्भद्वारशाखादि । आचा० ६१ । कज्जलेइ-कज्जलमिति । कज्जलं- दीपशिखापतितम् । कटकम्मारिण-काष्ठकर्माणि-रथादीनि । आचा० ४१४ । (अल्प० ३२ ) ( २४६ ) 2010_05 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कट्टकरणं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कडगमहो - दारुमयपुत्रिकादिनिर्मापणानि । ज्ञाता० १८० ।। ग्यत्वेन व्यवस्थापितम् । प्रज्ञ० ४०३ । कृतम्। आव० क्ढकरणं-काष्ठकरणम् । क्षेत्रम् । आव० २२७ । आचा० | ५१३ । कर्तुं प्रारब्धम् । पिण्ड० ६३ । कटम् । ओघ० ४२४ । १५३ । अनु० १५४ । यत् पुनरुद्धरितं सत् शाल्योदकटुकारे-काष्ठकारः । शिल्पविशेषः । अनु० १४६ ।। नादिकं भिक्षाचरदानाय करम्बादिरूपतया कृतं तत् । कट्टणिप्फण्णं-काष्ठनिष्पन्नम् । मद्यविशेषः । आव० ८५४। । पिण्ड० ७७ । निष्ठितम्-पक्वम् । नि० चू० प्र० ६२ कट्टपाउयारा-काष्ठपादुकाकाराः । प्रज्ञा० ५८ । अ. कट:-भोजनविधिः । आव०८५६ । धन्नभायणा । कट्टपेज्जा-मुगादियूषो घृततलिततण्डुलपेया वा । उपा० ३। नि० चू० द्वि० १४७ आ । कट्ठमुद्दा-काष्ठं-काष्ठमयः पुत्तलको न भाषते एवं सोऽपि | कडइत्तओ-कटकस्वामी । आव० ५६० । । मौनावलम्बी जातः । यद्वा मूखरन्ध्राच्छादकं काष्ठ- | कडओ-कटकः । काशीजनपदाधिपः । उत्त० ३७७ । खण्डम, उभयपार्श्वच्छिद्रद्वयप्रेषितदवरकान्वितं मुखबन्धनं कडकरणं-कटकरणम । कटनिर्वत्तक-चित्राकरमयोमर्य काष्ठमुद्रा । निरय० २७ । पाइल्लगादि । उत्त० १६५ । कृतकरणम्-मुद्रा । वृ० कट्ठविरूढगो-काष्ठविरूढः । आव० ४१३ । प्र. ३२ आ। कट्ठसगडिया-काष्ठानां शकटिका । गन्त्री । ज्ञाता० ७६। कडक्ख-कटाक्ष:-आविर्भावकः । जं० प्र०. ५२ । कट्ठसेज्जा-काष्ठशय्या । फलकादिशयनम् । प्रश्न कडवखचिट्टिएहि-कटाक्षचेष्टितः । शृङ्गाराविर्भावक१३७-२८ । क्रियाविशेष:-कटाक्षचेष्टितम् । जं० प्र० ५२ । कटुसेट्टी-अर्थजातगृहणेऽयशः । बृ० तृ० १६१ अ ।। कडग-कटकः । नितम्बभागः । जं० प्र० १६६ । गिरिकट्टहारा-त्रीन्द्रियजीवविशेषः । उत्त० ६६५ । प्रज्ञा० नितम्बः । जं० प्र० २३७ । आव० ५६० । कटकं४२ । जीवा० ३२। वंशदलमयम् । अनुत्त०६। कलाचिकाऽऽभरणम् । प्रज्ञा० कट्ठाओ-काष्ठात्-मध्यसारात् । प्रज्ञा० ३६ । ८८ । जीवा० १६२, २५३ । अनीकम् । उत्त० ४३८ । कट्ठायसेसो-काष्ठावशेषः । शुष्कवृक्षः । उत्त० ३०४ । भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६८ । आव० ७५६ । कट्टिया-काष्ठिकाः । औप० ६६ । कलाचिकाऽभरणविशेषः । भग० ४७७ । कटकानिकट्ठो-काठ:-श्रेष्ठिविशेषः । पारिणामिकीबुद्धौ दृष्टान्तः । | कङ्कणविशेषाः । उपा० २६ । पर्वतैकदेशाः । ज्ञाता० आव० ४२८ । २६ । गण्डौलाः । ज्ञाता० १०० । कटक:-भित्तिकट्ठोले-कृष्टः। हलविदारितः । पिण्ड० ८ । प्रदेशः । जं० प्र० २३० । वलयाकारं हस्ताभूषणम् । कट्ठोलो-हलकृष्टो यः पृथिवीकायस्तत्क्षणादेव आर्द्रश्च शुष्क आव० ७०२। कृतक:-अपेक्षितव्यापार: स्वभावनिष्पत्ती श्च क्वचिन्मिश्रः पृथिवीकायः । ओघ० १२६ ।। भावः । सूत्र० २८३ । खंधावारो। नि० चू० तृ० ५ कठिणगं-कठिनकम् । प्रश्न० १२८ ।। अ । कडंगर-फलशून्यधान्यम् । ठाणा० ४१६ । कडगतड-कटतटानि-वैभारगिरेरेकदेशतटानि । ज्ञाता० कड-छावणथूणादियाण एवमादि कडं भण्णति । नि० चू० प्र० २३० आ । कृतम्-सिद्धम्-पूर्णम् । भग० ७४५ । कडगम-कटकमदम् । आव० ६३२ । कटकमदः-परभावितम्-संस्कृतम् । भग० ६६१ । कट:-विदलवंशा राष्ट्र स्कन्धावारकृतो जनविमर्दः । बृ० द्वि० ४६ अ । दिमयः । सम० १२६ । कृतः-निष्पादित:-राद्धः । नि० चू० द्वि० ४५ आ । पिण्ड० ६५ । निष्ठितभक्तः । ओघ० १८८। निका- कडगमद्दो-पाककुम्भी । नि० चू० प्र० ३०३ अ । परचितम्-सर्वकरणाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापितम् । भग०६०। विसयमाइण्णो, एगस्स रण्णो अभिणिवेसेण अकारिणो चतुष्कम् । सूत्र० ६७ । निकाचितम्-सकलकरणाऽयो- वि गामणगरादिसव्वे विणासेइ ता एगेण कयमकज्जं ( २५० ) 2010_05 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडगाई ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०२ [ कडवाई - - सव्वे बालवुड़ादी जो जत्थ दीसइ सो तत्थ मारिजति । मिति । इह च तृतीयादारभ्योदाहरणानि कृतयुग्मद्वाएस कडगमद्दो । सह तेणकारिणा मोत्तं वा तं कारिं- | परे राशौ अष्टादशादयः । भग० ९६४ । जो तस्सम आयरिओ गच्छो वा कुलं वा गणो वा तं | | कडजोगि-कृतो योगो-घटना ज्ञानदर्शनचारित्रः सह येन वा वादेति । नि० चू० तृ० ५ अ । स कृतयोगी-गीतार्थः । ओघ० ६८ । कडगाई-कैतवानि । बृ० द्वि० ८८ अ । कडजोगी-कृतयोगी। सूत्रतोऽर्थतश्च छेदग्रन्थधरः । व्य. कडग्गिदाहणं-कटानां विदलवंशादिमयानामग्निः कटा- द्वि० १२३ अ । प्रत्युञ्चारणे समर्थः कृतयोगी । नि. ग्निः, तेन दाहनं कटाग्निदाहनम्; कटेन परिवेष्टितस्य | चू० प्र० ३२२ आ । चउत्थादितवे कतजोगा। नि० बाधनमित्यर्थः । सम० १२६ । चू० प्र० २६ आ । गीतार्थत्यर्थः । वेयावच्चे वा जेणकडच्छुत्ता-दर्वी । नि० चू० प्र० २०२ आ । ऽण्णतावि कडो जोगो सो वा कडजोगी। नि० चू० कडच्छेअ-कटकच्छेदः । ओघ० १८७ । प्र० २०१ आ । गार्हस्थ्ये येन कर्तनं कृतम् । बृ० द्वि० कडच्छेज्ज-कटच्छेद्यम् । कटवत् क्रमच्छेद्यं वस्तु यत्र | ११६ आ । कृतयोगी-गीतार्थः । बृ० द्वि० १६५ आ । विज्ञाने तत्तथा । इदं च व्यूतपटोद्वेष्टनादौ भोजनक्रि- कडड-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । यादौ चोपयोगि । जं० प्र० १३६ । कडणं-कटकमदः । बृ० तृ० १६ अ । कडच्छज्ज-द्वासप्ततौ कलासु नवषष्टितमा कला । ज्ञाता० कडणा-त्रट्टिका । भग० ३७६ । कडतड-कटतटम् । गण्डतटम् । ज्ञाता० ६६ । कडजुम्म-कृतयुग्मः । यो हि राशिश्चतुष्काऽपहारेण अप- कडपल्ला-उद्धदरा, धन्नभायणा । नि० चू० द्वि० १७ ह्रियमाणश्चतुःपर्यवसितो भवति स कृतयुग्मः । ठाणा० | आ । २३७, २३८ । कृतं-सिद्धं-पूर्णम्, ततः परस्य राशिसंज्ञा-कडपतना-व्यन्तरीविशेषः । विशे० १०१६ । न्तरस्याऽभावेन न योजःप्रभविवदपुणं यद् युग्मम-कडपयणसिवो कडपूतनाशिवः । दश० १०४ । समराशिविशेषस्तत् कृतयुग्मम् । भग० ७४४ । बतौ- कडपूयणा-कटपूतना । महावीर स्वामिन उपसर्गकृद् व्यजसि एकत्रिंशत् कृतयुग्मे नास्ति प्रक्षेपः । सूर्य० १६७ । न्तरी । आव० २१० । कटपूतना-तपस्विनामवन्दनकडजुम्मकडजुम्मे-यो राशिः सामयिकेन चतुष्काऽपहा- | कारिका व्यन्तरी । दश० ३८ । रेणाऽपह्रियमाणश्चतुष्पर्यवसितो भवति, अपहारसमया कडपोत्ती-यदि कटोऽस्ति ततस्तमन्तराले ददति, अथ स अपि चतुष्कापहारेण चतुष्यर्यवसिता एव; असौ राशिः | नास्ति ततः पोत्ति-चिलिमिनीं ददति । ओघ० ६२ । कृतयुग्मकृतयुग्म इत्यभिधीयते । भग० ६६४ । कडभू-रुक्खो । नि० चू० प्र० १२२ अ । कडजुम्मकलियोगे-कृतयुग्मकल्योजे सप्तदशादयः । भग० | कडय-कटकम् । ओघ० १८० । पर्वततटम् । ज्ञाता० ६३ । ६६४ । कडयपल्ललं-कटकपल्वलम् । पर्वततटव्यवस्थितजलाकडजम्मतेओगे-यो राशिः प्रतिसमयं चतुष्कापहारेणा- | शयविशेषः । ज्ञाता० ६७ । माणस्त्रिपर्यवसान्ते भवति, तत्समयाश्चतुष्पर्यवसिता कडलां-आभरणविशेषः । कनकनिगड:-निगडाकार एवाऽसौ अपह्रियमाणापेक्षया योजः; अपहारसमयापेक्षया पादाभरणविशेषः सौवर्णः सम्भाव्यते, लोके च 'कडलां' तू कृतयुग्म एव; इति कतयुग्मत्र्योज इत्युच्यते । भग० । इति प्रसिद्धः। जं० प्र० १०६ । | कडवल्लो-सट्टती । नि० चू० तृ० ५६ अ । कडजुम्मदावरजुम्मे-पूर्वोक्तराशिभेदसूत्राणि तद्विवरण- | कडवा-करटिका । राज० ५० । सूत्रेभ्योऽवसे यानि । इह च सर्वत्रापि अपहारकसमया- | कडवाई-कृतवादी । ईश्वरेण कृतोऽयं लोक: प्रधानादिपेक्षमाद्यं पदम्, अपह्रियमाणद्रव्यापेक्षं तु द्वितीय- कृतो वा, यथा च ते प्रवादिन आत्मीयमात्मीयं कृतवादं ( २५१ ) 2010_05 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडवाणि ] गृहीत्वोत्थितास्तथाकृतवादिनो भण्यन्ते । सूत्र० १२ । कडवाणि - इक्षुयोनलकादिदण्डकाः । आचा० ४११ । कडवालए-अजङ्गमत्वेन गृहपालकाः । बृ० द्वि० १०५ अ० । कडसलागा- कटशलाका । आव ० २२६ । कडसीस - कटशीर्षं । पलाशपत्रमयम् । बृ० द्वि० २५३ अ । कडहू - वृक्षविशेषः । बृ० द्वि० २८ आ । कडा - पर्यायार्थतया प्रतिसमयमन्यथात्वाऽवाप्तेः कृताः । सम० १०६ । कडाई - पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि । भग० ५६६ । कडाईहिं - इह पदैकदेशात् पदसमुदायो दृश्यस्ततः कृतयोग्यादिभिः । कृता योगाः - प्रत्युपेक्षणादिव्यापारा येषां सन्ति ते कृतयोगिनः । भग० १२७ । कृतयोग्यादिभिः ज्ञाता० ७७ । कडाली - कटालिका । अश्वानां मुखसंयमनोपकरण विशेषो लोहमयः । अनुत्त० ६ । कडासणं- कटः - संस्तारः आसनं- आसन्दकादिविष्टरम् । आचा० १३४ । आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः कडाह - बहुपांशुलिकः । तं । कटाहं - कच्छपपृष्ठं भाजनविशेषो वा । अनुत्त० ६ । कडाहसंठितो - कटाहसंस्थितः । आवलिकाबाह्यस्य पञ्चमं संस्थानम् । जीवा० १०४ । कडि-कटी । आचा० ३८ | कटिः- मध्यभागः कटीरिव । जीवा० १८७ । विरिति । जं० प्र० २८ । कटः संजातोऽस्येति कटितः-कटान्तरेणोपरि आवृतः । जीवा० १८७ । कडियs - कटितटम् । मध्यभागः । जीवा० १८७ । 2010_05 [ कडुभंड कडिल्ल - कटाहः । ओघ० ५० । गहनम् । बृ० तृ० १५६ आ । व्य० द्वि० १७५ आ । उपकरणभेदः । दश० १६४ । कटिकः । विशे० १०३७ । मण्डकादिपचनभाजनम् । उपा० २१ । महागहनम् । व्य० प्रo १७८ अ । कडिल्लकं - मृन्मयं चनकादिभर्जनपात्रम् । पिण्ड० १६४ । कडिल्लगं - गहनम् । व्य० प्र० २५७ । कडिल्लदेसं - कडिल्लदेशः । गहन प्रदेशः । व्य० प्र० २०५ आ । कडु - कटुः । तीक्ष्णः । उत्त० ६५३ । कडुअं फलं - कटुकफलम् । अशुभफलं - विपाकदारुणमित्यर्थः । दश० १५६ । अडुअ-कटुकं । आर्द्रकतीमनादि । दश० १८० । कडुए - कटुकः । रोगविशेषः । कटुकं नागरादि, तदिव यः स कटुकोऽनिष्ट एवेति । भग० ४८४ । वैषद्यच्छेदनकृत् कटुकः । ठाणा० २६ । कटुकम् - अनिष्टम् । औप० ४२ । भग० २३१ । कडुओ - अपराधापन्नस्य गोष्ठिकस्य यो दण्डपरिच्छेदकारी स कटुको भण्यते । बृ० द्वि० १६१ । कटुकःशीतातप रोगादिदोषबहुलतया परिणामदारुणः । सूर्य० १७२ । कडिई - कृतयोगी । नि० चू० प्र० १०२ अ । कडिणा-वनस्पतिविशेषः । सूत्र० ३०७ । कडपट्टइल - कटिपट्टकवान् । उत्त० ६८ । कडिपट्टए - करिपट्टकः । आव० ६२६ । कडिपट्टओ-कटिपट्टकः । उत्त० १८ । अणच्छादनम् । बृ० कडुच्छुअं - कडुच्छुकम् - धूपाधानकम् । जं० प्र० ११३ | तृ० १०२ अ । कडुच्छुक - दर्वी । ओघ० १६१ । कडिबंधणं-कटिबन्धनम् । चोलपट्टकः । आचा० २८७ | कडुच्छुग - कडुच्छुकः । तापसभिक्षाभाजनविशेषः । आव ० कडिय - शरीर मध्यभागो कटिः, ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कडुगतुंबिफलं - कटुक तुम्बीफलम् । प्रज्ञा० ३६४ । कडुगतुंबी - कटुतुम्बी । प्रज्ञा० ३६४ | कडुगफल विवागो - कटुकफलविपाकः । कडुच्छिका - दव | ओघ० १६६ । ३५६ । कडुग - कटाहः । आव ० १६८ । दोसावण्णस्स गोट्ठियस्स दंडपरिच्छेयकारी कडुगो भण्णति । नि० चू० प्र० १५८ आ । उत्त० ३०३ । कडुच्छ्रय-परिवेषणाद्यर्थो भाजनविशेषः । भग० २३८ । कडुभंड- वेसणं हिंगु मरिचादि, कटुकं शुण्ठ्चादिभाण्डं घटादि इति कटुभाण्डम् । बृ० द्वि० २७१ अ । ( २५२ ) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडुयं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [कणगजालं कडुयं-कटुकम् । दारुणम् । प्रभ० १६ । अनिष्टार्थम् ।। ७८ । ' प्रश्न० ११६ । लवणसमुद्रस्य उदके पञ्चमभेदः । जीवा० कणओ-कनकः । श्लक्ष्णरेखः प्रकाशरहितश्च । आव० ३७० । कटुकाम्-चित्तोद्वेगकारिणीम् । आचा० ३८८ ।। ७५२ । कडुयदोद्धियं-कटुक दौग्धिकम् । भाषायां 'दूधी-कद्दः | कणक-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । बाणविशेषः । नामकशाकविशेषः । आव० ७२३ । , । प्रश्न० २१ । कणका:-बाणा: । सम० १५७ । कडुया-कटुका । तीक्ष्णा । जीवा० ३५१ । कणकणए-अष्टाशीत्यां नवमो महाग्रहः । सूर्य० २६५। कहडं- नि० चू० प्र० २०२ आ । जं० प्र० ५३४ । ठाणा० ७८ । कडेवरसेणि-कलेवरश्रेणिः । कलेवराणि-एकेन्द्रियशरीराणि कणकनिज्जुत्त-कनकनियुक्तानि । हेमखचितानि । तन्मयत्वेन तेषां श्रेणि: कलेवरश्रेणि:-वंशादिविरचिता ज्ञाता० ५८ । प्रासादादिष्वारोहण हेतुः । उत्त० ३४१ । कणकीटक:-निष्ठुरः कृमिः । उत्त० ४५७ । कडन्ति-निन्दयन्ति । आव० ३४३ । कणकुंडगं-कणिककुण्डम् । कणिकाभिमिश्राः कुक्कुसाः । -कर्षयन्ति । उत्त० १४८ । आचा० ३४६ । आव० ८१४ । -कर्षयित्वा । आव० २०५ । कणग-कनकतिलकम् । भूषणविधिविशेषः । जीवा क्षिप्तः । आव० ४२५ । २६६ । कनक देवकाञ्चनम् । आव० १८४ । कनके कड्डिज्जमाणो-आकृष्यमाणः । प्रश्न० ६२ । । भवः कानकः । आव० २३१ । कनक: बाणकड्डिय-कृष्टः । उत्त० २१५ । उक्तम् । बृ० तृ० १४२ | विशेषः । बृ० द्वि० २३३ आ । कणक: बिन्दुः अ । कृष्टः-आकर्षितः । प्रश्न० २१ । शलाका वा । कनकं सुवर्णमेव । औप० ५२ । तारकड्डेमि-क्वथयिष्यामि । आव० ३६६ । कपातः । औष० २०१ । घृतवरद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । कडोकडाहि-कर्षणापकर्षणैः परमाधार्मिककृतः । उत्त० जीवा० ३५४ । कनकं-पीतरूपः सुवर्णविशेषः । जं० ४५६ । प्र. २३ । धान्यम् । भग० ४७० । कनक:-रेखाकढिअ-क्वथितः । निष्पक्वः । जं० प्र० १०५ । रहितः । व्य० द्वि० २५४ आ । कढिण-कठिनम् । वंशकटादि । आचा० ३७२ । तृण-कणगकंताणि-कनककान्तीनि । कनकस्येव कान्तिर्येषां विशेषः । बृ० तृ० ५२ आ । वसो। नि० चू० प्र० १३४ आ । कणगकूडे-कनककूटम् । विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वते पञ्चमकढिणियं-अतिशयेन धनम् । ७० प्र० ५५ अ । कूटस्य नाम । जं० प्र० ३५५ । कढियं-क्वथितम् । जीवा० २७८ ।। कणगकेउ-कनककेतुः । अहिच्छत्रानगयाँ नृपतिः । ज्ञाता. कढियाई-क्वथितादयः । क्वथितं तीमनादि तदादयः ।। १६३ । हस्तिशीर्षनगरे नरपतिः । ज्ञाता० २२७ । पिण्ड० १६८ । कणगखइयाणि-कनकखचितानि । कनकरसस्तबकाञ्चिकणं-शाल्यादेः । आचा० ३४६ । कणः-तन्दुलः । उत्त० तानि । आचा० ३६४ । कणगखचितं-कणगसुत्तेण फुल्लिया जस्स पाडिया तं कणइरगुम्मा-कणवीरगुल्माः जं० प्र०६८ । कणगखचितं । नि० चू० प्र० २५५ अ । कणइरा-कणयरा । अतिस्निग्धतया श्लक्ष्णश्लक्ष्णस्वेद- कणगखचियं-कनकखचितम् । विच्छुरितम्। जीवा०२५३। कणाकीर्णा । जीवा० २७६ । कणगखलं-कनकखलम् । आश्रयपदम् । आव० १६५ । कणए-पर्वगविशेषः । प्रज्ञा ३३ । अप्राशीत्यामछमो | कणगजालं-कनकजालम् । भूषणविधिविशेषः । जीवा महाग्रहः । सूर्य ० २६४ । जं० प्र० ५३४ । ठाणा० | २६८ । (२५३ ) 2010_05 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कणगल्भय ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कणगावलिवरा० - कणगज्झय-कनकध्वजः । कनकरथराजपुत्रः । आव० ७५ । तेतलिपुरनगरे राजा । ज्ञाता० १८४ । आव० ३७३ । कनकध्वजः-कनकरथराजपुत्रः । ज्ञाता० १८६ ।। ३७३ । कणगणिगरमालिया-कनकनिगरमालिका । भूषणविधि- कणगलता-चमरेन्द्रस्य सोमलोकपालस्य द्वितीया अमहिषी। विशेषः । जीवा० २६६ । ठाणा० २०४ । कणगणिगल-कनकनिगडः । निगडाकारः पादाभरणविशेषः / कणगलया-चमरेन्द्रस्य सोमलोकपालस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी। सौवर्णः संभाव्यते । लोके च 'कडला' इति प्रसिद्धः । भग० ५०३ । जं० प्र० १०६ । कणगवत्थु-कनकवस्तु । द्विपृष्ठवासुदेवनिदानभूमिः । कणगणिज्जुत्त-कनकनियुक्तम् । कनकविच्छुरितं, कनक- आव० १६३ । पट्टिकासंवलितमित्यर्थः । जं० प्र० ३७ । कणगसंताणे-कनकसन्तानकः । अष्टाशीत्यामेकादशो महाकणगतिदूसेणं-कनकतिन्दूषेण । स्वर्णकन्दुकेन । विपा० ग्रहः । सूर्य० २६४ । कणगसनामा-कनकेन सह एकदेशेन समानं नाम येषां कणगतिलक-कनकतिलकम् । ललाटाभरणम् । जं० प्र०. ते कनकसमाननामानः । सूर्य ० २६५ । १०६ । कणगा-धर्म कथायाः पञ्चमवर्गस्य पञ्चदश मध्ययनम् । कणगनिगरणं-कनकस्य निगरणं कनकनिगरण म, गालित ज्ञाता० २५२ । चमरेन्द्रस्य सोमलोकपालस्य प्रथमाऽग्रमकनकमिति भावः । जीवा० २६७ । हिषी । ठाणा० २०४ । भग० ५०३ । भीमस्य राक्षकणगनिगल-कनकनिगलानि । निगडाकाराः सौवर्णपादा- सेन्द्रस्य तृतीयाऽग्रमहिषी । ठाणा० २०४ । भग० ५०४। भरणविशेषाः । औप० ५५ । चतुरिन्द्रियजीवविशेषाः । प्रज्ञा० ४२ । जीवा० ३२ । कणगनिज्जुत्तं-कनकनियुक्तम् । कनकविच्छुरितम् । जीवा० | कणगा-सण्हरेहा पगासविरहिता य । नि० चू० तृ० आ। १६२। कणगाणि-कनकानि । कनकरसच्छुरितानि । आचा० कणगपट्ट-कणगेण जस्स पट्टा कता तं कणगपढें । ३६४ । मिगा । नि० चू० प्र० २५५ अ । कणगावलि-कनकावली । सौवर्णमणिकमयी । भग कणगपट्टाणि-कनकपट्टानि । कृतकनकरसपट्टानि । आचा० ४७७ । ३६४ । कणगावलिभद्दो-कनकावलिभद्रः । कनकवलिद्वीपे पूर्वाकणगपट्टा-कनकपृष्ठान् । कांश्चिदिति रूपकम् । ज्ञाता० र्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । कणगावलिमहाभद्दो-कनकावलिमहाभद्रः । कनकावलिकणगपिट्री-कनकपुष्ठिः । एतादृशो मुगः । ओघ० १५८ । द्वीपेपरार्दाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । कणगपुरं-कनकपुरम् । प्रियचन्द्रराजधानी । विपा० ६५। कणगावलिवरमहावरो-कनकावलिवरमहावरः । कनकाकणगप्पभा-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य षोडशममध्ययनम् । वलिवरे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । ज्ञाता० २५२ । कणगावलिवरावभासभद्दो-कनकावलिवरावभासमहाभकणगप्पभो-कनकप्रभः । धृतवरद्दीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । । द्रः । कनकावलिवरावभासे द्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५४ । जीवा० ३६६ । कणगफुल्लियं-कणगेण जस्स फुल्लिताओ दिण्णाओ तं कणगावलिवरावभासमहाभद्दो- कनकावलिवरावभासकणगफुल्लियं । नि० चू० प्र० २५५ अ ।। महाभद्रः । कनकावलिवरावभासे द्वीषे अपरार्दाधिपतिकणगफुसियाणि-कनकस्पृष्टानि । आचा० ३६४। वः । जीवा० ३६६ । कणगरहे-कनकरथः । विजयपुरनगराधिपतिः । विपा० | कणगावलिवरावभासमहावरो-कनकावलिवरावभासम ( २५४ ) 2010_05 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ कणगावलि० ] ४४ । हावरः । कनकावलिवरावभासे समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । कणगावलिवरावभासवरो - कनकावलिवरावभासवरः । कनकावलिवरावभासे समुद्रे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६६ । कणगावलिवरावभासो - कनकावलिवरावभासः । द्वीपविशेष: समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६८ । कणगावलिवरो-कनकावलिवरः । द्वीपविशेषः समुद्रविशे- कणियारय-कर्णिकारकः । कुत्सितवृक्षविशेषः । आव ० कणिता र रुक्ले - दिक्कुमाराणां चैत्यवृक्षः । ठाणा० ४८७ । कणिया-क्वणिता, काचिद् वीणा । जं० प्र० १०१ । कणिक्का | आव० ८५५ । तुसमुही । नि० चू० प्र० १६६ अ । षश्च । जीवा० ३९८ । कनकावालसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिदेव: । जीवा० ३६६ । कणगावली - कनकावलिः । कनकमयमणिकमयो भूषणविशेषः । कल्पनया तदाकारं यत्तपस्तत् । तपोविशेषः । औप० २६ । तपोविशेषः । नि० चू० प्र० ३०६ आ । कनकावली—कनकमयमणिकरूप आभरणविशेषः तपोविशेषश्च । अन्त० २७ । कनकमणिमयी । जीवा० २५३ । कनकावलिः–द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३६८ । सुवण्णमणिएहिं कणगावली। नि० ० प्र० २५४ आ । कण तो - कनकः । रेखारहितो ज्योतिष्पिण्डः । ओघ ० २०५ । कणपूपलिय - कणपूपलिकाः, कणिकाभिमिश्राः पूपलिकाः कणपूपलिकाः । आचा०, ३४६ । कणय - कणकाः, बाणविशेषाः । जं० प्र० २०६ । प्रहरणविशेषः । नि० चू० द्वि० ५७ आ । कणयमूलं - कनकमूलम् । बिल्वमूलम् । उत्त० १४२ ॥ कणयर - गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कविता - कवितानकः । अष्टाशीत्यां दशमो महाग्रहः । सूर्य० २६५ । जं० प्र० ५३४ । अष्टाशीत्यां दशमो महाग्रहः । ठाणा० ७८ । 'कणवीर - म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । कणसं ताणए - अष्टाशीत्यामेकादशो महाग्रहः । ठाणा० ७८ । जं० प्र० ५३४ । 2010_05 कणादो - कणादमतप्ररूपकः । विशे० ८६६ । कणिआरवणं - कणिकारवनम् । आव० १८६ । कणिक्क - धान्यविशेषः । आव ० १०२ । कणिक्कः । आव० ८५५ । [ कण्णकलं कणिक्कमंडलिआ - ओघ० १३७ । कणिक्कमच्छा - मत्स्यविशेषाः । जीवा० ३६ । प्रज्ञा० ५५७ । कणिया रे - दिशाचरविशेषः । भग० ६५६ कणीस - कनीयान्, कनिष्ठः, लघुरिति । अन्त० ८ । कणुओ - रजः, धूलिरजः । दश० ४७ । कणुय-करतुकम् त्वगाद्यवयवः । आचा० ३४७ । कणे - कणः । अष्टाशीत्यां सप्तमो महाग्रहः । जं० प्र० ५३४ । ठाणा० ७८ । कणेरदत्त - कणेरुदत्तः, कुरुषु गजपुराधिपतिः । उत्त०३७७॥ कणेरुदत्ता - करेणुदत्ता, ब्रह्मदत्तस्याऽष्टाग्रमहिषीणां मध्ये तृतीया । उत्त० ३७९ । कणेरुपगा-करेणुपदिका, ब्रह्मदत्तस्याऽष्टाग्रमहिषीणां मध्ये तुरीया । उत्त० ३७६ । कणेरुसेणा - करेणुसेना, ब्रह्मदत्तस्याष्टाय महिषीणां मध्ये षष्ठी । उत्त० ३७६ । कण-कणः, अष्टाशीत्यां सप्तमो महाग्रहः । सूर्य ० २६४ । कण्णंतेपुरं - अप्पत्तजोव्वणाण रायदुहियाण संगहो क तेपुरं । नि० चू० प्र० २७१ अ । कण्ण-कर्णः । आव० १६२ | वित्थारकण्ण । नि० चू० तृ० ४८ आ । कन्याः, कन्या इव कन्याः, अफला अथवा दूरफलाः । जं० प्र० २०६ । कोणं । नि० चू० प्र० १२ आ । कर्णः - प्रथमकोटिभागरूपः । सूर्य ० ४६ । आव० ६२१ । श्रवणः । प्रश्न० ८ । कोटिभागः । सूर्य ० ८ । कण्णकलं - कर्णकलम्, कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यम्, तच्चैवं भावनीयम् - कर्णम् - अपरमण्डलगत प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याऽधिकृतमण्डलं प्रथमक्षणादूर्ध्व क्षणे क्षणे कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा । सूर्य ० ४६ । ( २५५ ) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कण्णकला ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कण्हराती कण्णकला-कर्णकला, कर्णः-कोटिभागः, तमधिकृत्याऽपरेषां | कण्णिए-कणिकाः, कोणाः । अनु० १७२ ।। मतेन कला-मात्रा । सूर्य० ८ । कष्णिगा-कणिका, बीजकोशः । जं० प्र० २८४ । । कण्णग-कन्यका, कन्या । आव० ८६३ । | कण्णिते-कणिकाः, कोण विभागः । ठाणा० ४३५ । कण्णगूधा-कण्णमलो । नि० चू० प्र० १६० आ। | कणियार-कणिकारः, वृक्षविशेषः । जीवा० ३५५ । कण्णचवेडयं-दण्डविशेषः । नि० चू० प्र० २६६अ। | कणियारकुसुम-कर्णिकारकुसुमम्, काञ्चनारककुसुमम् । कण्णत्तिया-चर्मपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । जीवा० | ४१ । कण्णिल्लं-पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् कण्णिलायनम्, कण्णधार-कर्णधारः । आव० ३८७ । कर्णधारः, निर्या- शतभिषग्गोत्रम् । जं० प्र० ५०० । मकविशेषः । आव० ६०२। कण्ह-कृष्णः, परिव्राजकविशेषः । औप० ६१ । नवमो कण्णपाउरणा-कर्णप्रावरणनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० वासुदेवः । आव० १५६ । साधारणबादरवनस्पतिकाय विशेषः । प्रज्ञा०३४ । बलदेववासूदेवयोर्धर्माचार्यनाम । कण्णपाली-कर्णपाली । भूषणविधिविशेषः । जीवा० सम० १५३ । वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । कृष्ण:२६६ । पुरुषसिंहधर्माचार्यः । आव० १६३ । वसुदेवपुत्रः । दश० कण्णपावरणो-कर्णप्रावरणः, अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० ३६ । हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कन्दविशेषः । १४४ । उत्त० ६६१ । द्वारकायां वासुदेवः । अन्त० २ । ज्ञाता. कण्णपीढं-कर्णपीठम्, कर्णाभरणविशेषरूपम् । जीवा० | १०० । वासुदेवनाम । निरय० ३६ । - १६२ । भग० १३२ । प्रज्ञा० ८८ । औप० ५० । कण्हकंद-कृष्णकन्दः । अनन्तकायवनस्पतिविशेषः । भग० कण्णपूर-कर्णपूरम्, कर्णाभरणविशेषः । भग० ३१७ । । ३०० । प्रज्ञा० ३६४ । । कण्णरोडयं-कर्णरोटकम्, राटि: । आव० ८६ । कण्हकणवीरए-कृष्णकणवीरः । वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० कण्णलोयण-शतभिषग्नक्षत्रस्य गोत्रम् । सूर्य० १५० ।। ३६० । कण्णवालि-वर्णवाली, कर्णोपरितनविभागभूषणविशेषः । | कण्हगोमी-कृष्णगोमी, कर्णशृगाली । व्य० द्वि० १८७ जं० प्र० १०६ । अ। कण्णसप्पे-राहोः नवमं नाम । सूर्य० २८७ । कण्हदल-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । कण्णा-तरुणित्थी । नि० चू० द्वि० १६७ आ। कण्हपक्खिय-कृष्णपाक्षिकः। अधिकतरसंसारभाम् जीवः । कण्णाकण्णि-नि० चू० त० ५५ अ । ण संघरिस्संति प्रज्ञा० ११७ । ताहे कण्णाकणि भरेति । नि० चू० तृ० ५० आ। | कण्हपरिव्वायगा-कृष्णपरिव्राजकाः, परिव्राजकविशेषाः । कण्णाघातो-कांधातः, कर्णयोराघातः । उत्त० ३०३ ।। नारायणभक्तिका इति केचित् । औप० ६१ । कण्णायतं-कर्णायतम्, कर्णं यावद् आयतम्-आकृष्टम् । | कण्हसिताओ-कर्णपृषतः । नि० चू० तृ० ६० आ। भग० ६३ । कण्हबंधुजीवए-कृष्णबन्धुजीवः । वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० कण्णायय-कर्ण यावदाकृष्टः कर्णायतः । भग० २३० ।। आकर्णमाकृष्टः । भग० ३२३ । कण्हभूमी-कृष्णभूमिः । आव० १०१ । कग्णाहिडिस्सति- । ओघ० ६२ । कण्हराई-ईशानेन्द्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । भग० ५०५ । कण्णाहुइं-पूर्णकर्णाम् । महाप्र० । __ कृष्णपुद्गलरेखा । भग० २७१ । काण्णअ-कणिकाः, कोणाः । जं० प्र० २२६ । बीज- कण्हराती-कृष्णराजी, कृष्णपुद्गलपङ्क्तिरूपत्वात्। ठाणा० कोशः । जं० प्र० २४२ । ४३२ । धर्मकथाया दशमवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । ( २५६ ) 2010_05 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ [ कत्तियाणक्खत्ते ज्ञाता० २५३ । कतणासी - कृतनाशिनः, अकृतज्ञाः । ओघ० ७२ । कण्हरातीते-उत्तरपूर्वरतिकरपर्वते ईशानेन्द्रस्याग्रमहिष्या कतपुण्णो - कृतपुण्यः, राजगृहे धनावहपुत्रः । आव० ३५३॥ कतमाला - एकोरुकद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । कता-कदा | आव० ३४२ । कण्हरातीते ] कति । अनुत्त० ७ । ज्ञाता० २५३ । राजधानी । ठाणा० २३१ । कण्हलेस्सा - कृष्णद्रव्यात्मिका लेश्या, कृष्णद्रव्यजनिता वा लेश्या कृष्णलेश्या । प्रज्ञा० ३४४ । कण्हवडेंस - कृष्णावतंसकम् । ईशानकल्पे विमानविशेषः । कतिकट्ठा - कतिकाष्टा, किप्रमाणा । सूर्य ० ७ । कतिविया - कविका - कलाचिका । ज्ञाता ० ४४ । केण्हवेला-आभीरविसए नदी । नि० ० द्वि० १०२ कतिसंचिता - कति कतिसङ्ख्याताः सङ्ख्याता एकैकसमये ये उत्पन्नाः सन्तः सञ्चिताः - कत्युत्पत्तिसाधर्म्याद् बुद्धया राशीकृतास्ते कतिसञ्चिताः । ठाणा० १०५ । कति संचिया - कतीति सङ्ख्यावाची, ततच कतित्वेन सञ्चिताः - एकसमये सङ्ख्यातोत्पादेन पिण्डिताः कतिसचिताः । भग० ७६६ । कती - 'कति' इत्यनेन सङ्ख्यावाचिना द्वयादयः सङ्ख्यावन्तोऽभिधीयन्ते | ठाणा० १०५ । कृतमस्यास्तीति कृतीपुण्यवान् परमार्थपण्डितो वा । सूत्र० २६८ । सङ्ख्यावाची । भग० ७६६ । आ । कण्हसप्प - कृष्णसर्पः । दवकर - अहिभेदविशेष: । दर्वीव दर्वी - फणा, तत्करणशीलः । जीवा० ३६ । प्रज्ञा० ४६ । राहोः नवमं नाम । भग० ५७५ । कण्हसिरी - कृष्णश्रीः । दत्तगाथापतिभार्या । विपा० ८२ । कण्हसूर वल्ली-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कण्हा - कृष्णा । अन्तकृद्दशानामष्टमवर्गस्य चतुर्थ मध्ययनम् । अन्त० २५ । कण्हा ( कण्णा ) - कृष्णा कन्या ) | आभीरविषये नदी विशेषः । आव० ४१२ । वासवदत्तराज्ञी । विपा० ६५ । धर्मकथाया दशमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । ज्ञाता० २५३ । कृष्णा - आर्याविशेषः । अन्त० २८ । ईशानेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी । भग० ५०५ । कृष्णा-योगद्वारविवरणेऽचलपुरासन्ननदीविशेषः । पिण्ड० कत्त - चर्मकम् । नि० चू० प्र० ५६ आ । कत्तरी - कर्त्तरी । आव० ६२७ । कलिकारूवा - पश्ञ्चलतिकाः । जं० प्र० २२३ । कत्तविरिए - कार्त्तवीर्यः । सुभूमचक्रवत्ति पिता । आव ० १४४ । १६२ । ठाणा० ४३० । कण्हाते-उत्तरपूर्व रतिकरपर्वते ईशानेन्द्रस्याऽग्रमहिष्या राज- कत्तवोरिओ-सुभूमचक्रवर्तिनः पिता । सम० १५२ । धानी । ठाणा० २३१ । कण्हासोए - कृष्णाशोकः । वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३६० । rogs - कुत्रचिद् देशे काले वा । उत्त० १४० । कण्हुई - कस्मिश्चित् सूत्रादौ वस्तुनि वा । उत्त० १२६ । कण्हुहरे - कण्डु - कस्यार्थं हरिष्यामि इत्येवमध्यवसायी । उत्त० २७४ । कार्तवीर्यः-अनन्तवीर्यपुत्रः । आव० ३६२ । कार्त्तवीर्यःसंजातकामः - जाते च्छः । भग० १४ । कत्ताविय - कर्त्तापितम् । | कर्तनं कारितम् । आव ० ४१८ । कत्ति - कत्तिक - क इति कृतम् । आव० ७८२ । छडिया ( सादडी ) । नि० चू० प्र० ४२ अ । कत्तिए - कार्तिक: । हस्तिनापुरे श्रेष्ठी । भग० ७३७ । कत्तिओ - कार्त्तिकः । राजाभियोगविषये हस्तिनापुरे श्रेष्ठी । आव० ८११ । श्रेष्ठिविशेषः । निर० २२ । कण्हो - बंभवत्त । कण्हो- क्रोधजयी | मर० । कत्तिय - कृत्तिका । प्रथमं नक्षत्रम् । ठाणा० ७७ । भरतकतं - कृतं ममानेन तत्प्रयोजनमिति प्रत्युपकारार्थं यद्दानं तत् क्षेत्र आगमिष्यन्त्या मुसर्पिण्यां चतुर्विंशतिकायां षष्ठतीर्थकृतम् । ठाणा० ४६६ ॥ करस्य पूर्वभवनाम | सम० १५४ । कतकज्जो -कृतकार्यः । निष्ठिताखिलप्रयोजनः । सूर्य ० २६२॥ कत्तियाणक्खत्ते - कृत्तिकानक्षत्रम् । सूर्य० १३० । ( अल्प ० ३३ ) ( २५७ ) कण्हे - निरयावलिकानां प्रथमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । निरय० ३ । 2010_05 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत्ती ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कन्निया कत्ती-कतरिका ( कृत्तिका ) । ठाणा० २३४ । चम्म । | पाषाणस्ते कनङ्गराः कानङ्गरा वा, ईषन्नङ्गर इत्यर्थः । नि० चू० द्वि० १८ अ । कर्तरी, चर्मपञ्चके पञ्चमो भेदः । विपा० ७१ । आव० ६५२ । कनकरसस्तवकाश्चितानि-कनकखचितानि । आचा० कत्थं-यत्र कथिकादि गीयते तत् कथ्यम्। जं० प्र० ३६।। ३६४ । कत्थः-अनन्तजीववनस्पतिभेदः । आचा० ५६ । कनकालुक:-भृङ्गारकः । जं० प्र० ५६ । भृङ्गारः । जं० -गान्धिकः । नि० चू० प्र० ३५६ अ । प्र० २६२ । कत्थुरी-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कनकावलि-तपोविशेषः । व्य० प्र० ११३ आ । कनकाकत्थुल-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । वलि:-आभरणविशेषः। प्रज्ञा० ३०७ । कत्थुलगुम्मा-कस्तुलगुल्माः । जं० प्र० ६८ । कन्दलीकन्दक-सचित्तं तरुशरीरम् । आव० ८२८ । कत्थे-कथायां साधुकथ्यं ज्ञाताध्ययनवत् । ठाणा० २८८। कन्दुकगतिः-सर्वेण सर्वत्रोत्पद्यते विमुच्यैव पूर्वस्थानम् । कथगो-कथकः । जीवा० २८१ । भग० ८४ । गतिविशेषः । ठाणा० ८६ । कथनम्-उपदेशः । आव० ६०४ । कन्न-कर्णः । पिण्ड० १५३ । कदंबचीरिका-शस्त्रविशेषः । ठाणा० २७३ । | कन्नकुञ्जं-कन्यकुब्जम् । यत्र मृगकोष्ठकनगरे जितशत्रुराज्ञः कदंबपुप्फसंठिय-कदम्बपुष्पसंस्थितम् । कदम्बपुष्पवद् कन्या यामदग्न्येन पूर्वं कुब्जीकृताः पश्चाद् अकुब्जीकृताः, अधः सङ्कुचितम् उपरि विस्तीर्णमुत्तानीकृताऽर्द्धकपित्थ- अतः संवृत्तं तन्नगरनाम । नगरविशेषः । आव० ३६२ । संस्थानसंस्थितम् । सूर्य० २७४ ।। कन्नधार-कर्णधारः । निर्यामकः । ज्ञाता० १३६ । कथितः-हीलितः । आचा० ४३० । कनपाउरणदीवे-कर्णप्रावरणद्वीपः । अन्तर्दीपविशेषः । कदल-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । ठाणा० २२६ । कदली-वल्लिविशेषः । प्रज्ञा० ३१, ३३ । आचा० ३० । कनपालो-कर्णपालः । अलोभोदाहरणे मेण्ड: । आव० लतावलयभेदः । उत्त० ६६२ । नंदी० २१५ । ७०१ । कदलीथंभो-कदलीस्तम्भः । प्रज्ञा० २६६ । | कन्नपीढ-कर्णावेव पीठे आसने-कण्डलाधारत्वात् कर्णकदलीहरं-कदलीगृहम् । आव० १२३ । पीठम् । ठाणा० ४२१ । कदशनम्-निष्ठानं-सर्वगुणोपेतं संभृतमन्नम् , रसनियूंढम्- | कन्नवेयणा-कर्णवेदना । श्रोत्रपीडा । भग० १६७ । एतद्विपरीतं कदशनम् । दश० २३१ ।। कन्नस-कनिष्ठम् । लघु, जघन्यम् । उत्त०.२३५। कद्दम-कर्दमः । यत्र प्रविष्टः पादादिर्नाक्रष्टुं शक्यते कष्टेन | कन्नसर-कर्णसरः । कर्णगामी । दश० २५३ । वा शक्यते । ठाणा० २३५ । द्वितीयोऽनुवेलन्धरनागराजः।। जीवा० ३१३ । कर्दमो गोवाटादीनाम् । ठाणा० २१६ । कन्नामोडओ-कर्णामोटकः । आव० ४८५ । कर्दमः-नदीविदरकलक्षणः । ज्ञाता० ६७ । कन्नारोडयं-कर्णस्फोटम् । बृ० प्र०२८ आ। कद्दमए-कर्दमकः । ठाणा० २२६ । आग्नेय्यां दिशि वर्त- कन्नालीयं-कन्यालीकम् । कन्याविषयमनृतम्, अभिन्नमाने विद्युत्प्रभपर्वते नागराजः । वरुणस्य पुत्रस्थानीयो कन्यकामेव भिन्नकन्यकां वक्ति विपर्ययो वा । आव० . देवः । भग० १९६ । ८२०। कद्दमजलं-कर्दमजलम् । यद् घनकर्दमस्योपरि वहति । कन्नाहाडिया-कर्णाहृता । आव० ४११ । । ओघ० ३२ । कन्नाहेडयं-कर्णाटकम् । आव० २६२ ।। कदिवसं-कस्मिन् दिवसे । मर० । कन्निया-कणिका । बीजकोश: । भग० ५१३ । मध्यकनंगरा-काय-पानीयाय नङ्गराः-बोधिस्थनिश्चलीकरण- | गण्डिका । कणिका नाम उन्नतसमचित्रबिन्दुकिनी । प्रज्ञा० ( २५८ ) 2010_05 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कप्प 1 दसाकप्पववहारा । नि० चू० तृ० १०० आ । कल्पःआचारः । प्रज्ञा० ७० । अपरिहार्यः । नि० चू० तृ० १३२ आ । कल्पः - दशाश्रुतस्कन्ध कल्पव्यवहाराः । व्य० प्र० ६३ आ । आचारः । आचा० १६८, २४४ । ठाणा० २४४ । आचारो मर्यादेत्यर्थः । ठाणा० ५११ । करणमाचारः । ठाणा १६७ । साध्वाचारः । ठाणा० ३७१ । छेदः । ठाणा० ४६७ । जिनकल्पिकादिसमाचारः । भग० ६१ I यतिक्रियाकलापः उत्त० ५०२ । यतिव्यवहारः । उत्त० ६१६ । कल्पतेसाध्वादिक्रियासु समर्थो भवतीति कल्पो-योग्यः । उत्त ६३६ । विधिः । नंदी० ६१ । व्यवस्था स्थविरकल्पादिरूपा यत्र वर्ण्यते ग्रन्थे सः । नंदी० २०६ । देवलोकः । नंदी० २०७ । कल्पसूत्रम् । आव० ७२४ । दिवसः । बृ० प्र० २२४ आ । क्वचित्करणे । बृ० प्र० ३ अ । कल्पोक्तसाध्वाचारः । ठाणा० ३७३ । कल्पाद्युक्तसाध्वाचार: सामायिकच्छेदोपस्थापनीयादिः । ठाणro ३७४ । कल्प्यन्ते – इन्द्रसामानि कत्रास्त्रिशादिदशप्रकारत्वेन देवा एतेष्विति कल्पाः - देवलोकाः । उत्त० ७०२ । कम्बल्यादिरूपम् | ओघ० ३४ । सम० ३८ ॥ कृत्यम् । आव० ७६१ । कारणपुव्वगो । नि० चू० प्र० ७६ अ ! समाचारः । प्रश्न० १०६ । अध्वकल्पः । बृ० द्वि० १२२ आ | समाचारो विकल्पो वा । प्रश्न० १५७ । कल्पशास्त्रोक्तसाधुसमाचारः । बृ० तृ० २४६ आ । औपम्यं, सामर्थ्य, वर्णना, छेदनं करणं, अधिवासश्च । आव० ५०० । अध्वकल्पः । नि० चू० तृ० ४० अ । आव ० ३२४ । योग्यः । दश० ६ । तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रम् । भग० ११४ | कल्पः- यज्जिनकल्पिका. अनवस्तृता रात्रावुत्कुटुकास्तिष्ठन्ति एष कल्पः । यत्कारणे समापतिते अषिराणि ( अशुषिराणि ) तृणानि गृह्णन्ति एष कल्पः । व्य० द्वि० २८७ अ । कल्पः - सदृशः । उत्त० ४६५ | समाचारी । व्य० प्र० १३६ आ । कल्पाध्ययनम् । व्य० द्वि० ४२० अ । सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने करणे तथा । औपम्ये चाऽधिवासे च कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥ १ ॥ बृ० प्र० ३ अ । जिणकप्पियाण अत्थुरणवज्जो कप्पो । जि कप्प-थेरकप्पिएसु कज्जेसु अज्भुसिरगहणे कप्पो ( २५६ ) कन्नीय ] ८५ । कर्णिका - पत्राधारभूता । प्रज्ञा० ३७ । कन्नीय - कणिका | भग० ५११ । कन्नीरहो - कर्णीरथः । प्रवहणम् । विपा० ४५ | प्रवहगविशेषः । ज्ञाता० ६३ । कन्नुक्कड - साधारणवादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० .३४ । कन्नू - कानु । कामपि । उत्त० १९४ । कन्यकुब्ज - नगरविशेषः । विशे० ४३९ । कन्याचोलकः - यवनालकः । आव० ४२ । नंदी० ८८ । जवनालकः । प्रज्ञा० ५४२ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ कन्हो - द्वारवत्यां वासुदेव: । बृ० पृ० ५६ आ । कपर्दक- वराटकः । ओघ० १२६ । वराटः । प्रज्ञा० ४६ । कपाल - रोगविशेषः । आचा० २३५ । कपिंजल - कपिञ्जलः । लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । कपिलक- कपिञ्जलकः । पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । कपिञ्चुः - चित्रपिच्छपक्षिविशेषः । आचा० ६९ | कपित्थं - कपेरिव लम्बते, 'त्थे 'ति च करोतीति कपित्थम् । अनु० १५० | फलविशेषः । प्रज्ञा० १० । दश० १०० । 2010_05 कपिल - स्वयं बुद्धविशेषः । वृ० प्र० १८७ आ । प्रत्येकबुद्धविशेषः । उत्त० ५ । मतविशेषप्ररूपकः । उत्त० २६६ । कपिलदरिसण-मतविशेषः । आचा० १६३ । कपिहसितं विरलवानरमुखहसितम् | ओघ० २०१ | कपोत - पक्षिविशेषः । आचा० ३१४ । कपोय - कपोतः । लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । कपोलपाली - गण्डरेखा । जीवा० २७६ । कम्प - वत्थपुप्फचम्मादि वा कप्पं, रुक्खादि वा कप्पं । नि० चू० द्वि० ७१ अ । कल्पत इति कल्पः स्वकार्यकरणसामर्थ्योपेतः । भग० १५५ । कल्पः - बृहत्कल्पः । समनियुक्तिस्थानम् । आव ० ६१ । आव० ७९३ । कल्पं - कम्बल्यादिरूपम् । ओघ० ३४ । कल्पः । अनु० १७१ । तथाविधसमाचारप्रतिपादकः । ज्ञाता० ११० । कल्पः - तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रम् । औप० ६३ । कत्तव्वं । नि० चू० प्र० २५ आ । कल्पः - विकल्पः समाचारो वा । औप० ३६ । छेदः । ठाणा० ४६६ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पइ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित. [ कप्पविमाणो० कम्पडिया भवति । नि० चू० प्र० १६१ आ। ८६४००००००० कप्पडिगो-कार्पटिकः । आव० ३८४ । वर्षात्मकः कालः । आचा० १७ । समाचारविशेषः । कप्पडितो-ब्रह्मदत्तसेवकः । उत्त० १४५ । विशे०८। वैमानिकदेवाऽऽवासाभिधायक: । भग० ६१ कप्पडिय-कार्पटिक: । आव० १६१ । दश० ५५ । देवलोकः । भग० २२१ । स्वकार्यकरणसमर्थो वस्तुरूपः। दुर्बलः । आव० ८१४ । भिक्षाचराणां सार्थः । बृ० द्वि. भग० २६६ । छेदः । उत्त० ६३८ । उपधिः । दश० १२५ अ। २५० । पिण्ड० ७२। कम्पडिया-भिक्खायरा । नि० चू० तृ० ३७ अ। नि० कप्पइ-कल्पते । युज्यते । आचा० ४७ । कल्प्यते-वर्त्तते। चू० प्र० १८६ अ । कर्पटैश्चरन्तीति कार्पटिकाः आचा० १४१ । कल्पते-युज्यते । उपा० १३ । वा-कपटचारिणः । ज्ञाता० १५२ । कल्पते-प्रभवति, पौनःपुन्येनोत्पद्यते । आचा० १४१ । कप्पणं-कल्पना-रचना । जं० प्र० २१२ । कप्पओ-कल्पकः। कपिलब्राह्मणपुत्रः । आव० ६६१ । कप्पणसत्थयं-शस्त्रविशेषः । नि० चू० द्वि० १८ आ। कप्पकरण-कल्पकरणम् । भाजनस्य धावनविधिलक्षणम्। | कप्पणा-कल्पना क्लृप्तिभेदः । औप० ६२ । बृ० प्र० २५८ आ। नि० चू० द्वि० २८ आ। कप्पणारहियं-कल्पनारहितम् । विशे० १५५ । कप्पकार-कल्पकराः । विधिकारिणः, परिकर्मकारिणः । कप्पणाविगप्पा-कल्पनाविकल्पाः कृतिभेदाः । भग० ३१७ । जं० प्र० २४२ । कप्पणि-कल्पनी-कत्तिकाविशेषः । प्रश्न० २१ । कल्पन्यः कप्पट-कल्पस्थः । समयपरिभाषया बालक उच्यते । बृ० कृपाण्यः । जं० प्र० २०६ । कल्प्यते छिद्यते यया सा प्र० १४५ आ । कल्पनी शस्त्रविशेषः । आचा०६१ । कप्पट्ठओ-बालकः । पिण्ड० ६२ । कप्पणिज्ज-कल्पनीयं-उद्गमादिदोषपरिवर्जितम् । आव० कप्पट्टग-बालः । नि० चू० द्वि० ११६ आ। बालकः । ८३७ । व्य० द्वि० ८ अ । कल्पस्थका:-बालाः । व्य० प्र०कप्पणी-कल्पनी, प्रहरणविशेषः । आव० ४८७ । शस्त्र११६ अ । विशेषः । आव० ६५० । कप्पटुगरूय-कल्पस्थकरूपः । शिशुः । आव० ६३६। कप्पति-कल्पते-युज्यते । प्रभ० १२४ । कप्पट्टिता-जिणकप्पिया । नि० चू० प्र० २६ आ। कप्पतिप्पे-पात्रक्षालनादौ । ग० । कप्पट्टिती-कल्पशास्त्रोक्तसाधुसमाचारे स्थितिः-अवस्थानं कप्पपालो-कल्पपालः । जं० प्र० १०० । कल्पस्य मर्यादा । बृ० तृ० २५१ अ । कप्पय-कल्प एव कल्पक:-छंदः खण्डं कर्परमिति । उपा० कप्पद्वितो-आयरियाण पदाणुपालगो । नि० चू० प्र० २० । ३०७ अ । कप्पयति-कल्पयति-छिनत्ति । नि० चू० प्र० १६० अ । कप्पट्टिया-श्रेष्ठिवधूः । ठाणा० २६६ । पञ्चयामधर्म- कप्पर-कर्परम् । आव० ६२०, ६२२, ३५२ । कवालं प्रतिपन्नाः । बृ० तृ० १२५ अ । नि० चू० प्र० १०६ अ । कपालम् । बृ० तृ० ६८ ओ । कप्पट्ठी-सेज्जायरधूया। नि० चू० प्र० ७७ आ । तरुणी। कर्परः । आव० १०३, ४१२ । बृ० तृ० ७६ आ । कप्परुक्ख-उक्तव्यतिरिक्तसामान्यकल्पितफलदायित्वेन ककप्पडप्पहारो-कर्पटप्रहारः । लकुटाकारवलितचीवरेस्ता- ल्पना कल्पस्तत्प्रधाना वृक्षाः कल्पवृक्षाः । ठाणा० ३६६ । डनम् । प्रश्न० ५६ । कप्परुक्खग-चैत्यवृक्षः । ठाणा० १४५ । कप्पडिओ-कार्पटिकाः । ओघ० ८६ । सम० ३८ । कप्पडिसियाओ-उपाङ्गानां पञ्चमवर्गे द्वितीयम् । कार्पटिक:-ब्रह्मदत्तसेवकः। आव० ३४१ । स्वप्ने द्रष्टान्तः।। निरय० ३ । आव० ३४३ । कप्पविमाणोववत्तिा -कल्पेषु-देवलोकेषु, न तु ज्योति( २६० ) 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कप्पा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकाषः, भा० २ [ कब्बड्ड श्वारे, विमानानि, देवावासविशेषाः, अथवा कल्पाश्च ठाणा० २६८ । सौधर्मादयो विमानानि च तदुपरिवर्तित्रैवेयकादीनि कल्प-कप्पियं-कल्पितं-इष्ट, रचितं वा । औप० ५६ । विमानानि तेषु उपपत्ति:-उपपातो-जन्म यस्याः सकाशात् | कप्पिया-कल्पिता:-व्यथस्थिताः । आचा० ३०५ । सा कल्पविमानोपपत्तिका । ठाणा०.६८ । कप्पियारं-कल्पिक । बृ० प्र० २०७ आ। कल्पितार-मार्गकप्पा-कल्पा । कल्पनीया । प्रश्न० ५१ । दर्शकः । बृ० द्वि० १२१ आ। कप्पागं-दण्डम् । आव० ७०० । कल्पाक-सूत्रतोऽर्थतश्च कप्पूर-तंबोलपत्तसहिया खायइ । नि० चू० द्वि० ६० प्राप्तं भिक्षुम् । व्य० द्वि० ५६ आ । अ। कर्पूर:-घनसारः । प्रश्न० १६२ । करपातीत-जिनकल्पस्थविरकल्पाभ्यामन्यत्र । तीर्थकरः ।। कप्पूरपुड-गन्धद्रव्यः । ज्ञाता० २३२ । भग० ८६४ । कप्पेऊणं-कल्पयित्वा प्रक्षाल्य । ओघ० २२२ । कप्पायं-कल्पः-उचितो य आयः-प्रजातो द्रव्यलाभः स कप्पेति-कल्पयति-छिन्दति । आव० १२३ । कल्पायः। विपा० ५७ । कल्पाक:-शिरोजबन्धकल्पज्ञः।। कप्पमाणे-कल्पयन्-कुर्वाणः । ज्ञाता० २३८ । औप० ७७ । कप्पोवगा-कल्प्यन्ते-इन्द्रसामानिकत्रास्त्रिशादिदशप्रकारकप्पासट्टिमिजिया-कासास्थिमिञ्जिका - त्रीन्द्रियजन्तुवि- त्वेन देवा एतेष्विति कल्पा:- देवलोकास्तानूपगच्छन्ति शेषः । जीवा० ३२ । उत्पत्तिविषयतया प्राप्नुवन्तीति कल्पोपगाः । उत्त० ७०२। कप्पासिअ-त्रीन्द्रियजीवविशेषः। उत्त० ६६५ । कप्पोववण्णे-कल्पेषु-सौधर्मादिषु,उपपन्नः । जीवा० ३४६ । कप्पासिए-कासिकः । अनु० १४६ । कप्पोववन्नगा-सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नाः । ठाणा० ५७ । कप्पासिया-कर्मार्य भेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । कप्पोववन्ने-कल्पेषु-सौधर्मादिषु उपपन्नः कल्पोपपन्नः । कप्पासो-पोंडा वमणी तस्स फलं पम्हा कच्चणिज्जा सणो सूर्य० २८१ । वणस्सति जाती, तस्स वग्गो कप्पणिज्जो कप्पासो भण्णति। कबंध-कबन्धं-शिरोरहितकडेवरम् । प्रश्न० ५० । एला लाडाणं गड्डरा भण्णंति तस्स रोमा कञ्चणिज्जा | कब्बड-क्षुल्लप्राकारवेष्टितं-कर्बटम्। प्रज्ञा० ४८ । आचा० कप्पासो भण्णति । नि० चू० प्र० १६१ आ। २८५ । राज० ११४ । जीवा० ४०, २७६ । कुनगरम् । कप्पिअ-कल्प्यम् । आव० ११५ । कल्पितं स्वबुद्धि- | भग० ३६ । प्रश्न० ६६, ३६, ५२ । सूत्र० ३०६ । कल्पनाशिल्पनिर्मितम् । दश० ३४ । कल्पितः-यथा- ठाणा० २६४ । अनु० १४२ । औप० ७४ । नि० चू० स्थानं विन्यस्तः । जं० प्र० १८९ । कल्पिक, एषणीयम् । प्र० २२६ अ । कुनगरं, जत्थ जलथलसमुन्भवविचित्तदश० १६८ । कल्पिक:-सूत्रादिद्वादशविधः । बृ० प्र० भंडविणियोगो णत्थि । दश० चू० १५७ । कर्बट-पांशु६२ आ । प्राकारनिबद्धं क्षुल्लकप्राकारवेष्टितम् । व्य० प्र० १६८ अ । कपिआ-कल्पिका याः सौधर्मादिकल्पगतवक्तव्यतागो दश० १६३ । कर्बटानि-क्षुल्लकप्राकारवेष्टितानि अभितः चरा ग्रन्थपद्धतयस्ताः कल्पिकाः । नंदी० २०७ । पर्वतावृतानि वा । जं० प्र० १२१ । कर्बट:-महाशूद्रकप्पिआकप्पिअं-कल्पाकल्पप्रतिपदिकमध्ययनं कल्पाक सन्निवेशः । दश० २७५ ।। ल्पम् । नंदी० २०४ । कब्बडए-अष्टाशीत्यां षोडशमहाग्रहः । ठाणा० ७८ । कप्पिओ-कल्पितः। विपा० ३८ । कल्पितो-भेदवान् । कब्बडमारी-मारीविशेषः । भग० १६७ । कल्पिक:-उचितः । विपा० ४७ । कल्पितः-वस्त्रवत् | कब्बरूवं-नगरविशेषः । भग० १६३ । खण्डितः । उत्त० ४६० । कल्पितः-कल्पनीभिर्वस्त्र- कब्बडाति-कूनगराणि । ठाणा० ८६ । वत्खण्डितः । उत्त० ४६० । कब्बडिया-अत्ताणा । नि० चू० द्वि० ११ अ । कप्पिते-कल्पिकं-कल्पनीयमुचितमभिग्रहविशेषाद्भक्तादि । | कब्बड्ड-बालकः । ग० । ( २६१ ) 2010_05 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कब्बालभयते ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कम्मंसि कब्बालभयते-कब्बाडमृतक:-क्षितिश्वानक ओडादिः, यस्य कमभिन्न-क्रमभिन्नं-यत्र क्रमो नाराध्यते। सूत्रस्य द्वात्रि स्वं कर्ण्यिते द्विहस्ता त्रिहस्ता वा त्वया भूमिः खनि- शद्दोषे त्रयोदशः । अनु० २६२ । क्रमेण हि तिविहमितव्यैतावत्ते धनं दास्यामीत्येवं नियम्येति । ठाणा० त्येतन्न करोम्यादिना विवृत्य ततस्त्रिविधेनेति विवरणीयं २०३ । भवतीति, अस्य च क्रमभिन्नस्यानुयोगोऽयं यथाक्रमविवरणे कब्बुरए-कर्बुरक:- अष्टाशीत्यां महाग्रहे षोडशः । जं० हि यथासङ्ख्यदोषः स्यादिति तत्परिहारार्थ क्रमभेदः । प्र० ५३४ । ठाणा० ४६५ । कभल्लं-कपालं, घटादिकर्परम् । अनुत्त० ५ । कपालम् । कमल-नागपुरनगरे गृहपतिविशेषः । ज्ञाता० २५२ । उपा० २१ । हरिणविशेषः । भग० १२७ । राज० १४४ । औप० कम-अवतारं । नि० चू० द्वि० १०३ अ । २६ । रविबोध्यम् । जं० प्र० ११५ । सूर्यबोध्यम् । कमंडलु-भाजनविशेषः । नि० चू० प्र० ३४७ आ ।। ज्ञाता० १६८ । कमलाराजधान्यां कमलावतंसकभवने कम-भगवत्यां त्रयोदशशतेऽष्टमोद्देशक: कर्मप्रकृतिप्ररूपणा- सिंहासनविशेषः । ज्ञाता० २५२ । प्रश्न० ८४ । र्थकः । भग० ५६६ । क्रम लय । प्रश्न० २० । क्रम:- कमलदलो-शुलिहतश्चौरो नमस्काराद्यक्षः । भक्त० । यतिविहित आचारः । उत्त० ५०५ । क्रमपरं तु द्रव्या- कमलप्पभा-कालस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । ठाणा० २०४ । दिचतुर्दा । आचा० ४१५ । पाकस्य पेयादिपरिपाट्या भग० ५०४ । धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । प्रदान क्रमः । आव० ८३७ । क्रमः । आचा० ४१५ । ज्ञाता० २५२ । कमइ-कामति-घटते । पिण्ड ० ७६ । कमलसिरी-महाबलस्य राज्ञी । ज्ञाता० १२१ । कमलकमजोग-क्रमयोगः परिपाटीव्यापारः । दश० १६३ ।। गृहपतेर्भार्या । ज्ञाता० २५२ । कमढं-खरंटो उ जो मलोतं कम भण्णति । नि० चू० कमलब.सए-कमलाराजधान्यां भवनम् । ज्ञाता० २५२ । प्र० १६० आ । कमढं-पात्रविशेषः । व्य० प्र० २१८ आ। कमला-कालस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। भग० ५०४ । कमढगं-कमढकं-पात्रविशेषः। व्य० द्वि० ३२४ आ। साधु ठाणा० २०४ । धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य प्रथमजनप्रसिद्ध भाजनम् । नि० चू० प्र० ६१ अ । करोड- मध्ययनम् । ज्ञाता० २५२ । कमलकमलश्रियोः दारिका । गागारं । नि० चू० प्र० ७१ आ। उड्डाहपच्छायणं । ज्ञाता० २५२ । नि० चू० द्वि०१११ आ । सबाह्याभ्यन्तरं शुक्ललेपं कांस्य कमलामेलं-कमलामेल, कमलापीडं वा। जं० प्र० २३४ । करोटकाकारं भाजनम् । बृ० द्वि० २६० अ । कमढकं- कमलामेला-द्वारिकायामन्यस्य राज्ञः दुहिता । आव० आर्यिकापात्रम् । ओघ० २०६ । पात्रम् । ओघ० ४४,८२ । ६४ । द्वारिकायां दारिका । वृ० प्र० ३० अ । द्वारवत्यां कमढयं-अट्रगमयं कसभायणसंठाणसंठियं । नि० चू० प्र० नगर्यामन्यस्य राज्ञो दुहिता । विशे० ६१० । १७६ आ । कमलावई-कमलावती, इषुकारनृपतिमहादेवी । उत्त० कमणिया-क्रमणिका-उपानहः । तलिका । बृ० द्वि० ___३६५ । १०१ अ । कमसो-क्रमतः । उत्त० ७ । कमणी-पादप्रमाणं चर्म । बृ० द्वि० २२२ आ । कमा-धरणस्य प्रथमाग्रमहिषी । ज्ञाता० २५१ । कमणीउ-उपानहौ । नि० चू० प्र० १३७ अ । कमिजणा-मुंडनादि । नि० चू० तृ० १३७ आ। .. कमणीओ-उपानहौ । नि० चू० द्वि० १८ अ । कमेति-क्रमते-उत्सहते । बृ० प्र० १६४ आ । कमती-क्रमते-घटते । सम० १३६ । | कम्बा -लता । प्रश्न० १६४ । कमभिष्णं-क्रमभिन्नं, यत्र यथासङ्ख्यमनुदेशो न क्रियते । कम्मंता-कार्याणि । कर्मकराः । उत्त० २६३ । सुत्रस्य द्वात्रिंशदोषे त्रयोदशः । आव० ३७५ । कम्मंसि-सत्कर्माणि । उत्त० ५६७, १८८। । ( २६२ ) 2010_05 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कम्मचिट्ठे कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा । जीवा० ४६ । अनुष्ठानं सम्यगुपयोगरूपं, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगरूपं वा । सूत्र०. ७१ । क्रिया, दशविधचक्रवाल सामाचारीप्रभृतिरितिकर्त्तव्यता । उत्त० ६६ । यदानाचार्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारणं गृह्यते भारवहनकृषिवाणिज्यादि । आव ० ४०८ । कार्मणकरणं | बृ० तृ० १२३ अ । कृष्यादि । पिण्ड० १२६ । अनावर्जकम्, अप्रीत्युत्पादकम् । पिण्ड० १२६ । कृषिवाणिज्यादि, मोक्षानुष्ठानं वा । प्रज्ञा० ५० । उत्क्षेपणावक्षेपणादि गमनादि वा । जं० प्र० १३० । अनाचार्योपदेशजं कर्म । जं० प्र० १३६ । कम्मआसीविसा - कर्मणा क्रियया शापादिनोपघातकरणे नाशीविषा:- कर्माशीविषाः । भग० ३४१ । कम्मए - कर्मणो जातं कर्मजम् । प्रज्ञा० २६८ । जीवा० १४ । अष्टविधकर्मसमुदायनिष्पन्नमौदारिकादिशरीरनिबन्धनं च भवान्तरानुयायिकर्मणो विकारः कर्मैव वा कार्मणम् । अनु० १६६ । कम्मओ - कर्मतः - क्रियां जीवनवृत्तिम् - बाह्याभ्यन्तरभोज - tयवस्तुप्राप्तिनिमित्तभूतामाश्रित्येत्यर्थः । उपा० । भग० ५७३ । ठाणा० २५३ । कृष्याद्यानाचार्य-कम्मकडा - नामकर्मनिर्वर्तिता, अथवा कर्म - मदनोद्दीपको अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ कम्मसे | कम्मंसे - कर्माशान्मूलप्रकृती: । औप० ११३ । कम्म- अनुदयावस्थकर्मपुद्गलसमुदायरूपं कर्म । भग० ८२ । मदनोद्दीपको व्यापारः । भग० १३४ । गमनादि । भग० ३११ । ज्ञानावरणादि, क्रिया वा । दश० ७० । वानलक्षणं । भग० ४७७ । क्रियत इति कर्म - क्रिया । उत्त० २४६ । रक्षार्थं वसत्यादेः परिवेष्टनम् । उत्त० ७१० । क्रियते इति कर्म । आव० ३५ । अनाचार्यकं सर्वकालिकं वा । आव ० ३५ । नंदी० १४४ | मनोवाक्कायक्रियालक्षणः । उत्त० १८ । कर्म्मणाम- सुखदुःखप्राप्तिपरिहारक्रियाणां कायिकाधिकरणिकाप्रादोषिकापारितापनिकाप्राणातिपातरूपाणां कृषिवाणिज्यादिरूपाणां वा । आचा० १२६ । अनुष्ठानम् ज्ञानावरणादि । उत्त० ३८४ । ज्ञानावरणादि । ज्ञाता० २०५ । जीवनोपायः । जं० प्र० १३६ । कृषिवाणिज्यादि । जं० प्र० २५८ । यत्पु विवाह प्रकरणादावुद्धरितं मोदकचूर्ण्यादि तद् भूयोऽपि . भिक्षाचराणां दानाय गुडपाकदानादिना मोदकादि कृतं तत्कर्म्म । पिण्ड० ७७ । कृषिवाणिज्यादि । आव० • १२६ । उत्क्षेपणापक्षेपणादि । भग० ५७ । भ्रमणादिक्रिया | ठाणा० २३ । अनाचार्यकं कादाचित्कं वा । कम् । ठाणा० ३०४ | उद्देशकस्य - विभागस्य द्वितीयप्रकारः । बृ० प्र० ८३ । कार्मणकरणं । बृ० तृ० १२३ अ । अष्टमपूर्वः । ठाणा० १६६ । अक्षरलेखनादिक्रिया । प्रभ० ११८ । अन्तर्यत्र सुधादिपरिकर्म्यते । प्रश्न० १२७ । लौकिको व्यवहारः । सूर्य ० १६६ । उत्क्षेपणावक्षेपणादि । सूर्य० २८६ | वन्दनादिलक्षणम् । सूर्य० २६६ । प्रज्ञापनायास्त्रयोविंशतितमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । कारकवाचकः कर्तुरीप्सिततमं ज्ञानावरणीयादि वा क्रिया वा । आव० ५११ । ज्ञानावरणीयादि । आव० ७८२ । आरेचनभ्रमणादि । प्रज्ञा० ४६३ । हस्तकर्म, सावद्यानुष्ठानं वा । सूत्र० १८० । पृथिव्याद्यारम्भक्रिया । प्रश्न० १२७ । कृष्यादिव्यापारः । प्रश्न० ११७ । कृष्यादिकर्म । उत्त० २०६ । अनुष्ठानम् । आव० ४७८ । अनुष्ठानं - ज्ञानप्रशंसादि । उत्त० १२७ । कुत्सितानुष्ठानम् । उत्त ० २०८ | अनाचार्य कादाचित्कं वा । आव० ४६५ । 2010_05 व्यापारस्तत्कृतं यस्यां सा कर्मकृता । भग० १३४ । कम्मकर - किंकरादन्यथाविधाः कर्मकराः । जं० प्र० २६३ | कर्म्मकरः । उत्त० २२५ । कर्मकरः । आव ० १६४ । नियतकालमादेशकारी । प्रश्न० ३८ । नायकाश्रितः कश्चिद्भोगपरः । सूत्र० ३३१ । कम्मकारो - कर्मकारः लोहारादिः । जीवा० २८ । लोह - कारो । नि० चू० प्र० २१४ आ । कम्मगंथि - कर्मग्रन्थिः- अतिदुर्भेदघातिकर्मरूपः । उत्त० ५६४ । कम्मगंठिय-कार्मग्रन्थिक: । प्रज्ञा० ३१६, ४२४ । कम्मगुरू - कर्मगुरु : - कर्मणा गुरुरिव गुरुः अधोनरकगामि तया । उत्त० २७५ । कम्मग्गहणं- कर्मग्रहणं, आघाकर्मिकग्रहणम् । पिण्ड० ८६ । कम्मचिट्ठे-कर्मचेष्टा- क्रियन्त इति कर्माणि - अग्नौ समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विषया चेष्टा । उत्त० ३६७ । ( २६३ ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मणकारिया ] [ कम्मवेदए मयो - भरतपञ्चकैरावतपश्ञ्चकमहाविदेहपश्ञ्चकलक्षणाः । नंदी० १०२ । प्रश्न० ६६ । कम्मणकारिया - कार्मणकारिणी । आव० ५६१ । कम्मण जोए - कुष्ठादि रोगहेतुः । ज्ञाता० १८८ । कम्मणा-कार्मणं । तथाविधद्रव्यसंयोगः । ठाणा ३१४ । कम्मभूमी - कर्मभूमिः कृष्यादिकर्म्मस्थानभूता भरतादिका । कम्मदव्व - कर्मद्रव्यं - कर्मद्रव्यपरिच्छेदकोऽवधिः । आव ० ३६ । कर्मशरीरद्रव्यं । प्रज्ञा० ३०४ । कम्मधम्मसंजोगो - कर्मधर्मसंयोगः । आव० ३८८ । कम्मनरवइ - कर्मन रपतिः । ज्ञाता० २३४ । कम्मपगडी - कर्म प्रकृतिः - प्रज्ञायनायां त्रयोविंशतितमं पदम् । कम्मभूमो – कर्मभूमः - कर्मप्रधाना भूमिर्यस्य सः । जीवा० ४६. । कम्ममासओ-त्रयो निष्पावा निष्पन्न: - कर्ममाषकः । अनु० १५५ । भग० ६३ । कम्ममाहूय - कर्म्माहूय - कर्मोपादाय । आचा० १५८ । कम्मपदृवणसयं - कर्मप्रस्थापनाद्यर्थप्रतिपादनपरं शतं कर्म कम्मयं - कर्मकम् - अनुष्ठाम् । उत्त० २६० । कार्मणं यदुप्रस्थापनशतम् । भग० ६४२ । कम्मपयडी - उत्तराध्ययने त्रयत्रिंशत्तममध्ययनम् । सम० ६४ । दयात्कार्मणशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय कार्मणशरीररूपतया परिणमयति परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सह परम्परानुगमरूपतया सम्बन्धयति तत्कार्मणशरीरनाम । प्रज्ञा० ४६६ । कम्मपुरिसा - कर्माणि - महारम्भादिसम्पाद्यानि नरकायुकादीनीति पुरुषाः कर्मपुरुषाः । ठाणा० ११३ । कम्मप्पवादो - कर्मप्रवादः - पूर्वविशेषः । उत्त० १७४ । कम्मरपवाय - कर्मप्रवादः - ज्ञानावरणीयादिकर्मणो निदानादिप्रवदनमिति । दश० १३ । ज्ञानावरणादि कर्म प्रोच्यते तत्कर्मप्रवादमिति । सम० २६ । कर्म्म - ज्ञानावरणीयादिकष्टप्रकारं तत्प्रकर्षेण - प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशादिभिर्भेद: सप्रपञ्चं वदतीति कर्म्मप्रवादम् । नंदी० २४१ । कम्मरपवायव्वं - कर्मप्रवादपूर्व - अष्टमपूर्वनाम । आव ० ३२१ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः 2010_05 कम्मयणो - कम्मबहुलो । नि० ० प्र० २७६-अ । कम्मयर - कर्मकरः छगणाद्यने । जं० प्र० १२२ । कम्मया - कृषिवाणिज्यादिकर्मभ्यः सप्रमावा । राज० ११६ । कम्मरय - अष्टप्रकारं कर्मरजः - तंत्र जीवगुण्डनपरत्वात्कमैं रजः कर्मरजः । दश० १७ । कम्मलेसा - कर्मलेश्या - कर्मस्थितिविधातृ तत्तद्विशिष्टपुद्गलरूपा । उत्त० ६५२ । कम्मलेस्सं - कर्म्मणो योग्या लेश्या - कृष्णादिका कर्म्मणो वा लेश्या - लिश श्लेषणे' इतिवचनात् सम्बन्धः कर्मलेश्या । भग० ६५५ । कम्मभूमगपलिभागी - कर्मभूमगा :- कर्मभूमिजातास्तेषां प्रतिभागः - सादृश्यं तदस्यास्तीति - कर्मभूमग प्रतिभागी, कर्मभूमगसदृश इत्यर्थः । प्रज्ञा० ४६१ । कम्मभूमगा - कर्म - कृषिवाणिज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते कर्मभूमाः, कर्मभूमा एव कर्मभूमकाः । प्रज्ञा० ५० । जीवा ० ४६ । कम्मभूमा - कर्मभूमाः । उत्त० ७०० । कर्म - कृषिवाणि - ज्यादि मोक्षानुष्ठानं वा कर्मप्रधाना भूमिर्येषां ते कर्म - भूमाः । प्रज्ञा० ५० । कम्मभूमि- कर्मभूमिः - कृष्यादिकर्म्मप्रधाना भूमिः कर्मभूमिः - भरतादिका पञ्चदशधा । ठाणा० ११५ । कृषि - कम्मलेस्सा - कर्म्मणः सकाशाद्या लेश्या - जीवपरिणतिः सा कर्मलेश्या - भावलेश्येत्यर्थः । भग० ६३१ । कम्मविउसग्गो - ज्ञानावरणादिकर्म्मबन्धहेतूनां ज्ञानप्रत्यनीकत्वादीनां त्यागः । भग० ६२७ । कम्मविगईए- कर्मणामशुभानां विगत्या - विगमेन स्थितिमाश्रित्य । भग० ४५६ । कम्मविवेगो - कर्मविवेकः - कर्मनिर्जरा । आव० ८५२ । कम्मविसुद्धीए - प्रदेशापेक्षया । भग० ४५६ । कम्मविसोहीए - रसमाश्रित्य । भग० ४५६ | वाणिज्य तपः संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभू- | कम्मवेदए - कर्मवेदक:क:- प्रज्ञापनायाः पञ्चविंशतितमं पदम् । ( २६४ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कयकरण कर्मादानानि, अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च कर्मादानानि कर्महेतवः । भग० ३७२ । कम्मारगाम - कर्मारग्रामः । आव० १८८ । कम्मारदारए - कर्मारदारकः - लोहकारदारकः । जीवा० १२१ । कम्मारभिक्खू - कर्म्मकारभिक्षुकः - देवद्रोणी वाहकभिक्षुविशेषः । बृ० द्वि० २० अ, २८१ आ । कम्मारिया - कर्मायाः । प्रज्ञा० ५६ । समर्जनशतम् । भग० ६४० । कम्मसमारंभा - कर्म समारंभाः क्रियाविशेषाः । आचा० २३ | क्रियाविशेषाः, कर्मणो वा ज्ञानावरणीयाद्यष्टप्रकारस्य समारम्भा - उपादानहेतवः क्रियाविशेषाः । आचा० २७ । कर्मसमारम्भाः पाकादयः क्रियन्ते । आचा० १३० । जीवानुद्दिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमारम्भः । आचा० २६६ । कम्मसरीरगं - कर्म्मशरीरकम् - औदारिकादिशरीरम् । आचा० १४३ | कम्मसाला - घटादिनिष्पादनस्थानम् - कुम्भकारकुटी । बृ० द्वि० १७५ अ । जत्थ कम्म कारेति । नि० चू० तृ० कम्मसमज्जणसयं-कर्मसमर्जनलक्षणार्थ प्रतिपादकं शतं कर्म्म- कम्मारो- कम्मर :- लोहकारः । वृ० द्वि० १०७ अ । कम्मावादी - कर्मवादी -कर्म ज्ञानावरणीयादि तद् वदितुं शीलमस्येति कर्मवादी । आचा० २२ । कम्मिणो-कम्मिण:- पंक्लिष्टलेश्यास्थानवर्तिन आर्त्तध्यायिनो रौद्रध्यायिनश्चेत्यर्थः । व्य० द्वि० १८७ अ । कम्सिया- कार्मिका - कर्म्मणां विकारः कार्मिका तया - अभीणेन कर्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः । भग० १३८ । कमिता-कर्म विद्यते यस्यासौ कर्मी तद्भावः कमिता । भग० १३८ । कम्मुणा - कर्मणा मनोवाक्कायक्रिया | दश० १६० । सम्पूर्णमेव कर्मणा । दश० १६२ | कायेन । दश० २२६ । क्रियया । दश० २३३ । २१ आ । कम्मस्सबंध - कर्मणो बन्धकः - यथाजीव: कर्मणो बन्धको भवति तथा प्रतिपादकं प्रज्ञापनायाश्चतुर्विंशतितमं पदम् । प्रज्ञा ९ ६ । कथं - कृतम् - निर्वत्तितम्, अभ्यस्तम् । आव० ५६३ । कार्य प्रयोजनम् । प्रश्न० ३५ । कम्मसंपया ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ प्रज्ञा० ६ । कम्मसंपया - कर्मसम्पत्, कर्म क्रिया तस्याः सम्पत्-सम्पन्नता, कर्मणां वा ज्ञानावरणादीनां सम्पत्-उदयोदीरणादिरूपा विभूतिः । उत्त० ६६ । कम्मसंवच्छ रे-कर्मसंवत्सरः, कर्म - लौकिको व्यवहारस्तत्प्रधानः संवत्सरः | सूर्य० १६६ । जं० प्र० ४८७ । कम्मसच्चा-कर्मणा - मनोवाक्कायक्रियालक्षणेन सत्या- अविसंवादिनः कर्मसत्याः । उत्त० २८१ । कम्महेजयं - सिक्खापुव्वगं । दश० चू० ११३ । कम्मा-क्रिया | आचा० २५ । 2010_05 कयंगलं - कृताङ्गला, नगरीविशेषः । आव० २०४ । कयंगला - स्कन्दकचरित्रे नगरी । भग० ११२, १२३ । कयंत - कृतान्तं - दैवम् । प्रश्न० ६४ । कृतघ्नः यमो वा । बृ० प्र० ३०१ आ । कयंबे - कदम्बः - वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कय - कृतः - दत्तः । ओघ० २१२ । अनुज्ञातः । बृ० प्र० ५। कृतशब्दोऽत्रानुभूतवचनः । दश० १३६ । कयउस्सग्गो - कृतोत्सर्गः - कृतावश्यकः । ओघ० २१ । कृतोपयोगः | ओघ० १४० । कयकण्णचूलतो - कृतकर्णचूलकः । उत्त० २७२ । कयकरण - धरणुवेदादिसु सत्थेसु जेण सिक्खाकरणंकयं गिहिभावट्ठितेण सो साहू कयकरणो भण्णति । नि० चू० द्वि० १३ आ । ये षष्ठाष्टमादितपोभावितास्ते कृतकरणाः । ( २६५ ) कम्माजोए - काम्ययोगः - कमनीयता हेतुः । ज्ञाता० १८८ । कम्माणुप्पेही-कर्म - क्रिया तदनुप्रेक्षत इत्येवंशीलः कर्मानुप्रेक्षी । उत्त० २४६ । कम्माणुभाव - बाह्यतीर्थ करजन्मदीक्षाज्ञानापवर्ग कल्याणसम्भूतिलक्षणबाह्यनिमित्तमधिकृत्य तथाविधस्य च सातवेदनीयस्य कर्म्मणोऽनुभावः - विपाकोदयः कर्मानुभावः । जीवा० १३० । कम्मादाणं - कर्म्म-ज्ञानावरणादि आदीयते - स्वीक्रियतेऽनेन जन्तुभिरिति कर्मादानं - कर्मोपादानहेतुः । उत्त० ३४३ । कम्मादाणाई - कर्माणि - ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि ( अल्प ० ३४ ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयकिन्चो०] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित. [ कयविक्रय व्य० प्र० १२५ अ । जेण चउत्थछट्ठमादीया कया। नि० तदुभयं वा दास्यन्ति न नाम निर्जरेति अहारादिना यतिचू० तृ० १४३ अ । धनुर्वेदे कृताभ्यासः । बृ० द्वि० तव्यम् । दश० ३१ । ३८ आ । कृतकरणं-कृतकपुत्रककरणम् । आचा० ३२ । कयपुन्न-जन्मान्तरोपात्तसुकृतः । ज्ञाता० २५ । कृतपुण्यः । इषु शास्त्रे कृताभ्यासः । बृ० प्र० ३११ आ। कृतकरण:- भग०६६२। बहशो विहितचौरानुष्ठान: । प्रश्न० ४६ । धनुर्वेदादौ कयबलिकम्मा-स्वगृहे देवतानां कृतवलिकर्मा । निरय. कृतपरिश्रमः । बृ० द्वि० ८५ अ । ७ । कृतबलिकर्मा । दश० ६८ । कयाकच्चाववखर-नगरे समानीय अस्थाने भाण्डक्षेपी कयमालए-कृतमालकस्तमिथाधिपतिः । जं० प्र०७४ । भाटिकः । बृ० तृ० ११ आ । कयमालक-तमिश्रागुहाधिपसुरः। जं० प्र० २५५ । क्यकुरुकय-कृतकुरुकुचः-कृतकुलः । व्य० द्वि० १६१ आ। कयमालगो-कृतमालक:-कोणिकघातको देवः । आव० व यगं-कृतकम् । आव० १७३ । ६८७ । क्यग्गह-कचग्रहः-मैथुनसंरम्भे मुखचुम्बनाद्यर्थं युवत्याः पञ्चा- कयमालयं-कृतमाल्यं तमिश्रागुहाया देवः । आव० १५० । गुलिभिः केशेषु ग्रहणम् । जं० प्र० १६३ । कयमाला-कृतमाला-द्रुमजातिविशेषः । जं० प्र०६८। कयग्गाह-मैथुनसंरम्भे यत् युवतेः केशेषु ग्रहणं स कच- कयरूवो-रूवगाभरणादि, कयरूपो । नि० चू० द्वि० ८७ ग्रहः । राज० २३ । कयग्गाहगहियं-कचग्राहगृहीतं-मैथुनप्रथमसंरम्भे मुखचुम्ब- कयरे-कतराणि । अनु० ६७ । नाद्यर्थ युवत्याः पञ्चाङ्गुलिभिः केशेषु ग्रहणं तेन कचग्राहेण कयरेहितो-कान्याश्रित्य । अनु० ६७ । गृहीतम् । जीवा० २५५ । कयलक्खण-कृतफलवल्लक्षणः । भग० ६६२ । कृतलक्षणा:कयजोगो-कृतयोग:-कर्कशतपोभिरनेकधाभावितात्मा । कृतफलवच्छरीरलक्षणाः । ज्ञाता० २५ । कृतलक्षणः । व्य० प्र० ११३ अ । उत्त० ३२६ । कयणं-कतमा । पउ० ७१ । कयलगं-चिब्भिडं, जरठ, तपुसादि वा। नि० चू० द्वि० कयत्तंतिया-कतनी । बृ० प्र० २८ अ। १५७ अ। कयत्था-कृतार्था:-कृतप्रयोजना: । ज्ञाता० २४ । कलिसमागमो-कदलीसमागमः । आव० २०७ । कयत्थिउ-कथितुम् । दश० ४१ । कयली-कदली-वनस्पति विशेषः । ज्ञाता० ६५ । कयत्थे-कृतार्थः । उत्त० ३१६ । कृतस्वप्रयोजनः । कयलयं-कृतम् । ओघ० ४६ । भग० ६६२ । कयवणमालपिया-कृतवनमालपिता-हस्तिशीर्षनगरस्य पुष्पकयपंजली-कृतप्राञ्जलिः-पृच्छादिषु कृताः प्राञ्जलयो यस्ते। करण्डकोद्याने यक्षः । विपा० ८६ । आव० १०० । कयवम्मा-कृतवर्मा-विमलजिनपिता। आव०१६१। सम० कयपंसु-कजप्रसवः-पद्मकुसुमः । ज्ञाता० ६६ । १५१ । कयपज्जत्तिय-कृतपर्याप्तिक:-कृतकार्यः । उत्त० २१० । । कयवर-कचवरः । उत्त० ५६२ । पत्रतृणधूलिसमुदायः । कयपडिकिई-उपकृतस्य प्रतीकारः । बृ० प्र० २६६ आ। आचा० ५५ । कृतप्रतिकृतिर्नाम-प्रसन्ना आचार्याः सूत्रादि दास्यन्ति न कयवरुज्झिय-कचवरोज्झिका- अवकरशोधिका। ज्ञाता० नाम निजरेति मन्यमानस्याहारादिदानम् । सम० ६५ । | ११६ । कयपडिकिरिया-कृतप्रतिक्रिया-अध्यापितोऽहमनेनेतिबुद्धया कयवरो-बह झसिरदव्वसंकरो कयवरो । नि० चू० प्र० भक्तादिदानमिति । ओप० ४३ । २५६ अ । कयपडिकिई-कृतप्रतिकृति:-प्रसन्ना आचार्याः सूत्रमर्थ | कयविक्कय-क्रयविक्रयो । भग० १६६ । ( २६६ ) 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कयविहव ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ करटो कयविडव-कृतविभवा:-कृतसफलसंपदः । ज्ञाता० २५ ।। ७१७सम० १२४ । काञ्चनरनृपतिः । उत्त० ३०१ । कयवेयहिए-कृतविदिक-रचितवेदिकम् । औप० ५। पउमावईए रायपत्तो। नि० चू० प्र० १६४ आ । कृतवितदिकम्-रचितवेदिकम् । निरय ०१-१६ । करकण्डु:-कलिङ्गेषु दधिवाहन राजसुतो यो जीर्णं वृषभं कयव्वय-कृतव्रता-उपस्थापिता इत्यर्थः । व्य० द्वि० दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः । उत्त० २६६ । आगन्तुके द्रष्टान्तः । १०० अ । नि० चू० प्र० २६६ आ । कयव्वयकंमे-कृत-अनुष्ठितं व्रतानां-अनुव्रतादीनां कर्म करकंडे-करकण्डः माहणपरिव्राजके द्वितीयनाम । औप.६१। तच्छवणज्ञानवाञ्छाप्रतिपत्तिलक्षणं येन प्रतिपन्नदर्शनेन स नि० द्वि० ४६ अ। कृतव्रतकर्मा प्रतिपन्नाणुव्रतादिरितिभावः । सम० १६ । करक-हिमम् । आचा० ४० । भाजनविधिविशेषः । कयव्ववसाओ-कृतव्यवसाय: । आव० २६० । जीवा० २६६ । प्रलियशकलः । पिण्ड० १०७ । करकः, कया-कृता-परिनिष्ठिता । ओघ० १६४ । पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । अनु० १५२ । कयाइ-कदाचिदित्ति-वितर्कार्थः । भग० ६८३ । | करकचियं-क्रकचितम्, करपत्रविदारितं काष्ठादि । अनु० कयाणुराग-कृतानुरागः-विहिताभिष्वङ्गः । उत्त० ३८६ ।। १५४ । कयारं-कचवरम् । विशे० ५२४ । करकपाल-चतुर्थं महाकुष्ठम् । प्रश्न० १६१ । कर-कर:-गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यम् । जं० करकय-क्रफचम् । आव० ४२० । करपत्रम् । उत्त० प्र० १६४ । भग० ५४४ । ४५६ । प्रश्न० २१ । जीवा० १२० । क्रकचः । प्रज्ञा० करंकयं-नालिकेरवर्तुलम् । पउ० १ । ३६७ । क्रकच-येन दारु छिद्यते तत्। ठाणा० २७३ । करंज-करञ्जः, वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । नक्तमालः । करकरसद्द-व्यक्तव्यक्तशब्दम् । आव० २६२ । प्रज्ञा० ३१ । करकरिए-अष्टाशीत्यां पञ्चाशीतितमो महाग्रहः । ठाणा० करंड-भाजनविशेषः । प्रश्न० ६३ । ७६ । करंडक-वंशग्रथितः । ओघ० २११ । वेणुकार्यविशेषः। करग-करकः । जं० प्र० १०१। घंटी। नि० चू० द्वि० सूत्र ११७ । बहुपृथुलमल्पोच्छ्रयं मुखम् । बृ०द्वि० २४६ अ। ६४ आ। करकः कठिनोदकरूपः । दश० १५३ । करंडगा-करंडक:-वस्त्राभरणादिस्थानम् । ठाणा० २७२ । करगओ-करपत्रम् । आव० ८०१ । करंडय-करण्डक-पृष्ठवंशास्थिकम् । जीवा० २७१ । करगगोवा-वार्घटिका ग्रीवा । अनुत्त० ५ । करंडादी-उलंबग-समचउरंसं । नि० चू० त० ५४ आ।। करगतं-क्रकचम् । आव० ६५१ । करण्डक पृष्ठवंशास्थिकम् । जं० प्र० १११।। करगय-क्रकचम्, करपत्रम् । उत्त० ६५४ । कर-करणं नाम नागरकादिप्रारम्भयन्त्रम् । संप्राप्तकामस्य- | करगा-उदगपासाणा वासे पडंति ते करगा । नि० चू० एकादशो भेदः । दश० १६४ । अष्टाशीत्यां त्र्यशीतित- प्र० ४५ अ। मो महाग्रहः । जं० प्र० ५३५ । कर:-क्षेत्राद्याश्रितराज- करगे-करकः धनोपलः । जीवा० २५ । देयद्रव्यम् । विपा० ३१ । करगो-पाणियभंडयं । नि० चू० प्र० ११७ आ । करक:करइल्ल-करकवान् । उत्त० ६७ । __ जलाधारो मदिराभाजनं वा । सूत्र० ११८ । करए-करको-बादराप्कायविशेषः । प्रज्ञा०२८ । करका:- | करघातो-करस्य पीडा । बृ० प्र०७४ आ। वार्घटिका: । उपा० ४० । करचोल्लए-करभोजनम् । आव० ३४१ । करओ-जलगालनं-धर्मकरकः । बृ० द्वि० १०० आ। | करजर-तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ ।। करकंडु-प्रत्येकबुद्धनाम । प्रज्ञा० १६ । द्रव्यव्युत्सर्गोदा- करट-शरीरेण विमध्यमः । नि० चू० द्वि० ७१ अ। हरणे कलिङ्गेषु करकण्डुः-दधिवाहन राजपुत्रः। आव० ७१६, | करटी-वाद्यविशेषः । जीवा० २६६ । ( २६७ ) 2010_05 : Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करडि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ करणवीरिए करडि-करटी । जं० प्र० १०१ । औप० ४६ । अपवादः, विशेषवचनं च । जं० प्र० करडुय-करडुकं-मृतकभक्तम् । व्य० द्वि० ३४२ अ। ५४१ । अभिधानम् । जं० प्र० १३४ । विवक्षितक्रिकरडुयभत्त-घृतपूर्णः । नि० चू० द्वि० १०० आ ।। यासाधकतपं करणम् । अनु० १३४ । पिण्डविशुद्धयादि । करडुकभक्तम्-मृतक भोजनं मासिकादि । पिण्ड० १३४ । अनु० । मृत्पिण्डादि । आव० २७८ । परिभोगो करो-कुरुट:-कुणालानगर्यां दोषार्ते उपाध्यायविशेषः । । जो विवरीयभोगं करेति । नि० चू० द्वि० १२६ आ। आव० ४६५ । पिण्डविशुद्धिसमित्याद्यनेकविधम् । सम० १०६ । करणं-करणं अनादिकालात् संहत्यावस्थानम् । विशे० क्रियते येन तत्करणं मननादिक्रियासु प्रवर्तमानस्यात्मन १२६१ । अपूर्वप्रादुर्भावः । अन्योन्यसमाधानम् । आव.० उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पुद्गलसङ्घात इति ४५७ । पिण्डविशुद्धयादिः । ज्ञाता० ७ । उत्त० ५८० । भावः । ठाणा० १०७ । उल्लगकरणं । नि० चू० प्र० गुरुविषयं शिप्यविषयं च । आव० ४७१ । गुरुशिष्ययोः ४२ आ । करणम् । आव० ४२६ । अङ्गभङ्गविशेषो सामायिकक्रियाच्यापारणम् । आव० ४७१ । यत् प्रयो मल्ल शास्त्रप्रसिद्धः । औप० ६५ । करणं-विविष्टिदिवजन आपन्ने क्रियत इति करणम् । ओघ०७। कालविशेष सो दुर्दिनग्रहणोत्पातदिनादिभ्यो भिन्नदिवसः । जं० प्र० रूपं चतुर्यामप्रमाणम् । उत्त० २०२। जीवपरिणामः । २७३ । उपधिः । औघ० २०७ । प्रयोगकरणं विश्रविशे० ५३४ । करणं न्यायालयम् । नि० चू० प्र० ११२ साकरणं वा । भग० ६३६ । इषु शास्त्रे संयमे वा अ । प्रतिलेखनादि । भग०७२७ । करणम् । दश०६१।। कृतकरणः । बृ० द्वि० ३५ आ । आधाकर्म । वृ० तृ० प्रयोगः । ज्ञाता० ४१ । इन्द्रियम् । कृतकारितानुमति- १२५ आ। शक्तिः । आचा० ३० । पिण्डविशुद्धयादि । रूपम् । भग० ८६ । चारित्रम् । ब्र० प्र० ११८ अ । उत्त० ५८० । भग० १२२, १३६ । कुर्वत इत्यर्थः । अपूर्वकरणम् । उत्त० ५७६ । अवनामादिरावश्यकः । भग० १०४ । जीववीर्यम् । भग ० २५२ । कृतिः । बृ० तृ० १३ अ । गात्रम् । आचा० ८६ । मनः । आव० ४५७ । विशे० ११६५ । कृतिः स्वभावतः एव निर्वृतिर्गृह्यते, करणगुण-कलाकौशल्यम् । आचा० १२ । न पुनः क्रियत इति । विशे० १२६१ । करण:-न्याया अपूर्वकरणादिमाहात्म्येन श्रेणि: लयः । आव० ५२०, ७१७, ८२१, ८२२ । उत्त० करणगुणश्रेणि: प्रक्रमात्क्षपकश्रेणिरेव गृह्यते । उत्त ०५८०। ३०१ । नंदी० १६३ । परिणामविशेषः । बृ० प्र० करणेन-अपूर्वक रणेन गुणहेतुका श्रेणि: करणगुणश्रेणि:१७ अ । आरंभः । बृ० प्र० १५८ अ । क्रिया । सर्वोपरितनस्थितेर्मोहनीयादिकर्मदलिकान्युपादायोदयसमया नंदी० १६०। आव० ८२१ । उत्त० १४६ । खण्डनम् । त्प्रभृतिद्वितीयादिसमयेष्वसह्यातगुणपुद्गलप्रक्षेपरूपाऽऽन्त बृ० प्र० १७१ आ । उत्त० २०४ । वैयावृत्त्यम् । मौहूर्तिकी। उत्त० ५७६ । ओघ० ४५ । स्थापनम् । बृ० प्र० २३८ अ । बवादि- करणजड्डो- । नि० चू० द्वि० ३६ आ। गणितः । ओघ० ११५ । क्रियासिद्धौ प्रकृष्टोपकारकं करणतंतोवदरिसणत्थं-करणतंत्रोपदर्शनार्थं, मनोवाक्सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि । आचा० ४१६ । पादकर्म । कायलक्षणकरणायत्ततोपदर्शनार्थम् । विशे० १३२८ । ६० द्वि० २१८ आ । क्रियतेऽनेनेति करणं क्रियायाः करणपती-न्यायाधीशः । नि० चू० त० १०१ अ। साधकतमं कृतिर्वा करणं-क्रियामात्रम् । भग ० ७७३ । । करणपर्याप्त- । प्रज्ञा० २६ । कर्म उत्प्लवनलक्षणं यत्करण-क्रियाविशेषः । भग० | करणया-करणानां-संयमव्यापाराणां भाव:-करणता । १२८ । अवश्यं विपाकदायित्वेन निष्पादनं निधत्तादि- ज्ञाता० ५२ । रवरूपमिति । भग० ६३८ । इन्द्रियं कृत्यं वा । प्र० करणविहीणो-क्रियाहीनः । मर० । ४१ । न्यायालयः । बृ० तृ० ३३ अ । साधनम् ।। करणवीरिए-लब्धिवीर्यकार्यभूतो क्रियाकरणं तद्रूपं कर ( २६८ ) 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणवीरियं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ करियातिओ %3 %3 णवीर्यम् । भग०६५। करतलं-हस्तसंखं । नि० चू० प्र० ६० आ। करणवीरियं-क्रियावीर्यम् । नि० चू० प्र० १६ अ। | करतलपल्हत्थमुहे-करतले पर्यस्तं-अधोमुखतया न्यस्तं करणसत्ती-करणं-क्रिया-तस्यां शक्ति: प्रवृत्तिः क्रिया- | मुख येन सः । भग० १८० । शक्तिः । नंदी० १६० । करण शक्तिः-तन्माहात्म्यात् पुरा- | करधाण-करध्मानम्-परस्परं हस्तताडनम् । जं० प्र० ऽनध्यवसितक्रियासामर्थ्य रूपा। उत्त० ५६१ । २०६ । करणसच्चं-करणसत्यं,बाह्य प्रत्युपेक्षणादि,त्रयोदशोऽनगार- करपत्ते-क्रकचम् । ज्ञाता०. २०४ । ठाणा० २७३ । गुणः । आव ० ६६० । यत्प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तं सम्य- करपत्रम-शस्त्रविशेषः । आव० ८१६ । गुपयुक्त: कुरुते । सम० ४६ । करणे सत्यं करणसत्यं | करपल्लीवण-करप्रद्दीपनं-वसनावेष्टितस्य तिलाभिषिक्तस्य यत्प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगपयुक्तः कुरुते । उत्त० करयोरग्निप्रबोधनम् । सम० १२६ । ५६१ । यथोक्तप्रतिलेखनाक्रियाकरणम् । प्रश्न० १४५।। करबोडिय-व्याप्त । मर० । करणसभा-महावीरस्वामिनो निर्वाणस्थानम् । सम०७३। करभ- । नि० चू० द्वि० १२१ अ । करणसाला-करणशाला । दश० १०८ । करभी-घटसंस्थानकोष्ठिका । बृ० द्वि० १७६ अ । करणसालाए-न्यायालयः । नि० चू० द्वि० १२ अ। करमंदि-करमर्दी गुल्मभेदः । उत० ५४६ । करणा-करणानि चक्षुरादीनीन्द्रियाणि । जीवा० २७१। करमद्द-करमर्दम् । आव० ६२२ । गुच्छविशेषः । करणाए-उपकरणाय, उपकाराय । आचा० २८२ । उप प्रज्ञा० ३२ । करणार्थम् । आचा० २८८ । करमद्दिया- । नि० चू० द्वि० ६० अ। करणाणओगे-क्रियते एभिरिति करणानि तेषामनुयोगः | करमोअणं-करमोचनं यत् करं मन्यमानो वन्दते न निर्जकरणानुयोगः । ठाणा० ४८१ । राम्, कृतिकर्मणि पञ्चविंशतितमो दोषः । आव० ५४४ । करणाणपालया-पूवरिसीहिं पालियं जे पच्छा पालयंति | करयलं-करतलं-हस्तः । प्रश्न० ८ । ते करणाणुपालया। नि० चू० प्र० ३६० आ । | करयलत्थो-करतलस्थ:-वशवर्ती । आव० ७२१ । करणापर्याप्ताः-ये करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावनिर्व- करयलपरिग्गहिय-करतलपरिगृहीतः करतलाभ्यां परिर्तयन्ति अथचावश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते । जीवा० १० ।। गृहीतः-निष्पादितः । जीवा० २४३ । करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति अथचा- | करवत्तं-करपत्रम् । जीवा० ११७ । करपत्रं-क्रकचम वश्यं निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः । प्रज्ञा० २६ । उत्त० ४५६ । करवतम् । नंदी० १५५ । करणालसा-करणालसाः-चरणालसाः, चरणधर्म प्रत्यन्- | करवर-वनस्पतिविशेषः । पिण्ड० १२६ । द्यताः स्वस्य परेषां च चिन्ताश्वासननिमित्तमितिभावः। करालं-उन्नतम् । अनुत्त० ६ । प्रश्न० ३५ । करालो-युक्तः । भक्ति ।। करणि-सादृश्यम् । अनु० १२ । प्रशंसा, क्रिया । आव० | करिसुयसयं-करिसु इत्यनेन शब्देनोपलक्षितं शतम् । ६६३ । क्रिया । आव० ८१८ । भग० ९३८ । करणिज्जकिरिया-करणीयक्रिया-यद् येन प्रकारेण करणीयं करि-करोति । ओघ० १११ । तत्तेनैव क्रियते नान्यथा सा । सूत्र० ३०४ । करिए-करिक:-अष्टाशीत्यां चतुरशीतितमो ग्रहः । जं० प्र० करणिज्जो-करणीयः-सामान्येन कर्त्तव्यः । आव० ५७१।। ५३५ । करणी-क्रिया । अनु० १३८ । वर्गमूलमानीयते । ज० करित्ता-करेत्ता । अभ्यवहृत्य । ओघ० ४४ । प्र० १६ । करिमकरा-मत्स्यविशेषाः । सम० १३५ । करणीयाइं-करणीयानि-कादाचित्कानि । ज्ञाता० ६१ । करियातिओ-कृतवान् । नि० चू० प्र० १०६ अ । ( २६६ ) 2010_05 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करिसग] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कर्मद्रव्य करिसग-कर्षकः । नंदी० १६४ । करोडी-करोटिका-कपालिका । आव ० ६८६ । करिसणं-कर्षणं-कृषिः । प्रश्न० ८ । करोतिः-स्मरणे वर्तते न निष्पादने । नंदी० १७ । करिसो-कर्षः-पलस्य चतुर्भागः । अनु० १५४ । । | कर्कट:-पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । । करीर-गुच्छाविशेष: । प्रज्ञा० ३२ । कर्करायितं । उत्त० १२० । करीरपाणगं-पाणकस्य अष्टादशो भेदः । आचा० ३४७ । कर्कशः-स्पर्शस्य प्रथमभेदः । प्रज्ञा० ४७३ । करिलं-रागद्वेषाभावे द्रष्टान्तविशेषः । बृ० प्र० ३७ अ। कर्कशस्पर्शः-यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु कर्कशः स्पर्शो भवति, करीलो-वंशजातिविशेषः । व्य० प्र० २२५ आ । यथा पाषाणविशेषादीनां तत् । प्रज्ञा० ४७३ । करील-करीरं-प्रत्यग्रं कन्दलम् । अनुत्त० ४ । कतन-रत्नविशेषः । सम० १३६ । करीस-करीषम् । भग० ३०६ । करीषम्-शुष्कछगणम् । | कर्कोलकं-फलविशेषः । जीवा० १३६ । दश० ६२ । कर्णः-कण्ण-श्रवणः । आचा० ३८ । करीसओण्हा-करीषोष्मा । आव० ४१६ । कर्णकं-भाजनस्योद्धभागः। ओघ० १६८ । करिणी-करेणु । उत्त० ६३४ । कर्णगति-कन्दादारभ्य शिखरं यावदेकान्तऋजूरुपायां करुडगादियं-हिंगोलं । नि० चू० द्वि० २२ अ । दवरिकायां दत्तायां यदपान्तराले क्वापि कियदाकाशं करुणालंवणभूओ-करुणालम्बनभूतः । आव० ४१३ ।। तत्सर्वम् । जं० प्र० ३६३ ।। करुल्लं-कपालम् । आव २०१। कर्णाघाटकेन- ।विशे० ४०७ । करेंतगो-कर्ता । आव० २६२ । कर्णपर्पटका-शष्कुली । नंदी० ७५ । करेइ-निर्मथ्यते । ज्ञाता० २४२ । कोपकरणी । उत्त०३८२। करेणु-करेणुका-हस्तिनी । उत्त० ३४६ । कर्तव्यता । आव० ८३४ । करेणू-करेणुका । ज्ञाता० ६४। कई मजलम् यद् घनकर्दमस्योपरि वहति । ओघ० ३२ । करेमाणा-कुर्वाणाः । ज्ञाता० ५७ । कर्परक:- । विशे०६३८ । करोटक-कुप्यविशेषः । आव० ८२६ । कर्पूरं-निर्यासवस्तुविशेषः । जीवा० १३६ । करोटिका-भाजनविशेषः। पिण्ड०६८, १५५ । भाजन कर्परः-धटखण्डम् । नंदी० ६३ । विधिविशेषः । जीवा० २६६ । पात्रविशेषः। आव० कपासी-गुच्छविशेषः । आचा० ३० । ४४३ । पात्रविशेषः । पिण्ड १०५ । कर्बर-वर्णविशेषः । आचा० २६ । बकुशः-शबलो वा । करोडग-भाजनविशेषः । नि० चू० प्र०७१ आ । नि भग० ८६१ । ठाणा० ३३६ । कर्म-योगः, व्यापार:, क्रिया। विशे० २०६ । सिद्धशब्दचू० प्र० २५६ अ । नि० चू० द्वि०६३ आ। करोडि-करोडि । जं० प्र० १०१ । करोटि: । आव० । पर्यायः । ठाणा २५ । आर्यभेदः । सम० १३५ । कर्मकल्क:-कर्मसारः । प्रज्ञा० ३३१ । करोडिआ-अतीवविशालमुखा कुण्डिकैव करोडिका । अनु० कर्मचक्री- । जं० प्र० २१५ । १५२ । करोटिका-स्थगिका । ज्ञाता० ४४ । कर्मतः-आशीविसद्वितीयभेदः । विशे० ३८० । करोडिय-करोटिका-मृद्भाजनविशेषः । भग० ११३ । कर्मनिषेक:-तद्भवजीवितम् । आव० ४८० । करोटिक:-कपालिकः । विपा० ७६ । कर्मप्रवादः-अष्टम पूर्वः । विशे० १००६ । करोडिया-स्थगिका । भग०५४८ । कापालिका । ज्ञाता० कर्मभूमिजा-भूमिविशेषजन्मा। सम० १३५ । ५८ । करोट्या-कपालेन चरन्तीति करोटिका । ज्ञाता० कर्मक्षय-सिद्धशब्दपर्यायः । ठाणा० २५ । १५२ । कर्मद्रव्यकषायाः-तत्रादित्सितात्तानुदीर्णाः पुद्गला द्रव्य( २७० ) ६८६ । ___ 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममास अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कलमोडण प्रधानात् कर्मद्रव्यकषायाः । आचा० ६१ । प्र० २०५ आ । पङ्कः । पिण्ड० १०२ । कर्दमः । कार्ममास-त्रिंशदहोरात्रप्रमाणः । सूर्य० ११ । ठाणा० भक्त० । कलं-माधुर्यविशिष्टध्वनिविशेषरूपम् । प्रश्न० ३४५ । १५६ । कला:-अत्यन्तश्रवणहृदयहरा अव्यक्तध्वनिरूपा, कर्मसार:-कर्मणः सारः । प्रज्ञा० ३३१ ।। अथवा कलावन्तः-परिणामवन्त इत्यर्थः । ज्ञाता० २३३ । कार्या-यजनयाजनाध्ययनाध्यापनप्रयोगलिपिवाणिज्ययो- औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कला-वृत्तचनका: । निपोषणवृत्तयः । त० ३-१५ ।। पिण्ड० १६८ । कर्षादीनि-मापविशेषः । ठाणा० ८८ । कलकल-उपलभ्यमानवर्णविभागः । औप० ५७ । उपकलं-कलाम् भागम् । उत्त० ३१६ । शोभाया अंशः । | लभ्यमानवचनविभागः । भग० ४६३ । कलकलज्ञाता० १३१ । शब्दयोगात् कलकलम् । प्रश्न० १६ । यत् कलकलकलंक-कलत-दुष्टतिलकादिकं चित्रादिकं वा । जीवा० | शब्दं करोति तत् कलकलं अतितप्तमिति । प्रश्न० १६४ । २७७ । दुष्टतिलकादिकम् । औप० १६ । चूर्णादिमिश्रजलम् । विपा० ७० । आचा० ३३१ । कलंकलियवायं-कललिकावातम् । आव० २१७ । कलकल: व्याकुलशब्दसमूहः । जं० प्र० ४६३ । व्याकुलकलंकलीभागिणो-कलङ्कलीभावभाजः । सूत्र० ३४१ । । शब्दसमूहः । सूर्य० २८१ । कलंकलीभाव-कदर्यमानता । प्रज्ञा० १०८ । उत्त० | कलकलंत-अतिक्वाथतः कलकलशब्दं कुर्वन्ति । उत्त० १८३ । आचा० ११७ । ४६१ । कलंत-उत्काल्यमानः । मर० । कलकलिता-कलकलायमाना:-कोलाहलबोलं कुर्वाणाः । कलंदे-दिशाचरविशेषः। भग०६५६ । प्रश्न० ५०। कलंपि-कलामपि-मनागपि । व्य० द्वि० २२६ आ। कलकलेड-कलकलायति-भवजलधी कथयति । आव० कलंबचीरपत्तं-कलम्बचीरः। शस्त्रविशेषः । विपा० ७१।। ५६७ । कलंबचीरिया-कदम्बचीरिका-तृणविशेषः, दर्भादप्यतीव-कलगिर:-व्यक्तवाचः । जं० प्र० १२७ । छेदकः । जीवा० १०८ । कलणाय-कलनादः । उत्त० १५० । कलंबचीरियापत्तं-कदम्बचीरिकापात्रम् । जीवा० १०६ । । कलतं-यस्मात् सर्व आत्ते गृहणाति तस्मात् कलत्रम् । कलंबवालुया-कदम्बपुष्पाकारा वालुका कदम्बवालुका ।। नि० चू० २०५ आ । प्रश्न० २० । कलन्द-कूण्डं-कलन्दम् । उपा० २२-४ । कलंबाणं-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । कलभा-बालकावस्थाः । ज्ञाता० ६७ । -कलम्बुका सन्निवेशविशेषः । आव० २०६।। कलभाणिणी-कलभानना-स्वरमनोज्ञानना। व्य० द्वि० कलंबुया-जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । २२६ आ। कलंबुयापुप्फ-कलम्बुयापुष्पं-नालिकापुष्पम् । सूर्य० ७१। | कलभिया- । ज्ञाता० ६३ । जीवा० ३३६ । जं० प्र० ४५३ । कलम्बुकापुष्पसं- कलमल-जठरद्रव्यसमूहः । ठाणा० १४५ । स्थानसंस्थितं-श्रोत्रेन्द्रियम् । प्रज्ञा० २६३ । कलमलजंबाल-मूत्रादिकर्दमः । मर० । कलंबुवालुयापटु-कदम्बवालुकापृष्ठम् । आव० ६५१। कलमसालि-कलमशालिः, शालिविशेषः । जं० प्र० कलंबो-पिशाचानां चैत्यवृक्षः । ठाणा० ४४२ । । १०४। कल-मधुरः । जं० प्र० २०६ । कलायास्त्रिपूराख्या वृत्त- कलमा-तन्दुलाः । आ० २३८ । चणका वा । जं० प्र० १२४ । धान्यविशेषः । भग० | कलमाल-बिंदु । नि० चू० प्र० ४५ अ । ६८४ । पङ्कजलम् । उत्त० ३६१ । धनं । नि० चू० | कलमोडण- । नि० चू० द्वि० १६६ अ । (२७१ ) 2010_05 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलमोडियं ] कलमोडियं । नि० चू० प्र १३८ आ । कलयल-कलकलः - अव्यक्तवचनः । भग० ११५ । उपलभ्यमानवचनविभागः । भग० ११५ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः कलयलसद्द - कलकलशब्द: । आव० २३१ । कललं - प्रथम सप्ताहो गर्भावस्था । तं ० । कलश:-भाजनविधिविशेषः । जावा० २६६ । कलस-कलश:- महाघटः । जं० प्र० १०१ । कलश:-- ताम्रादिकलशः- उपकरणवस्तु । दश० १६४ । कलसए-कलशकाः - आकारविशेषवन्तः । उपा० ४० । कलसिबलिया - कलसिवलिका - कलायाभिधानधान्यफलिका। भग० २६० । कलंसिअ - लघुतरकलश एव कलशिका | अनु० १५३ । कलसीपुरं - कलशीपुरं, कृतिकर्मदृष्टान्ते पुरम् । आव ० ५१४ । कलहंस - लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । कलहंसः - लोमपक्षीविशेषः । जीवा० ४१ । कलह - कलहः- वचन राटिः । भग० १६८ । जं० प्र० १२५ । भण्डनम् । आव० ४६६ 1 वाचिको विग्रहः । उत्त० ३४७ | क्रोधः । उत्त० २६१ । इह प्रेमहासादिप्रभवं युद्धम् । भग० ५७३ । महता शब्देनान्योऽन्यमसमञ्जस भाषणम् । भग० ५७२ । राटिः । प्रज्ञा० ४३८ । भग० ८० । राटिः । प्रज्ञा० ६६ | ठाणा० २६ । विरोधवाचिकः । उत्त० ४३५ । वादिगो । नि० चू० द्वि० ७१ आ । कलहः - राटिः । जीवा ० १७३ । वाग्युद्धम् । ज्ञाता० २२० । जीवा० २८३ । वचनभण्डनम् । प्रश्न० ९२ । द्वादशं पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५. । वाचिककलहः । प्रश्न० ६७ । भंडणं, विवादो । नि० चू० तृ० ३५ अ । कलह कर - कलहकरः - भण्डनकरणशीलः । आव ० ४६६ । कल हकरत्वं- कलहहेतुभूत कर्त्तव्यकारित्वम् षोडशममसमा धिस्थानम् । प्रश्न० १४४ । कलहकारी - आत्मना कलहं करोति तत्करोति येन कलहो भवति, सप्तदशममसमाधिस्थानम् । आव० ६५३ । कलहगे - कलभकः | ओघ० १५८ । कलांतर । आव ० १०८ । 2010_05 [ कलिगं कला - मात्रा । सूर्य ०८ । धनुर्वेदादिः । प्रश्न० ६४ । अंश: । ठाणा० ४६७ | योजनस्यैकोनविंशतिभागच्छेदनाः एकोनविंशतिभागरूपा इति भावः । सम० ३७ । विज्ञानम् । सम० ८३ । वट्टचणया । दश० ० ६२ । वट्टचणगा । नि० चु० प्र० १४४ आ । ठाणा० ३४४ । द्विसप्तति निपुणा लेखादिका । प्रश्न० ६७ । कलाइरिय - कलाचार्यः । उत्त० १४८ । कलाओ - कलादः । आव ० ३७३ । कलनानि कला:, विज्ञानानि । जं० प्र० १३६ । कलाचिका - हस्तमूलम्, कटकं, आभरणविशेषः । प्रज्ञा० ८८ । कटकम् | जीवा० १६२ । कलाद- सुवर्णकारः । नि० ० द्वि० ४३ अ । कलादो नाना मूषिकारदारक इति पितृव्यपदेशेनेति । ज्ञाता ० १८७। कलाय - कलादः - सुवर्णकारः । वृ० द्वि० १०७ आ । ज्ञाता० १४२ । प्रश्न० ३० । वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । कलाया:- चणकाकारा धान्यविशेषाः । उपा० ५ । कलाया- कलायाः - वृत्तचनकाः । भग० २७४ । कलायकाःवृत्तचणकाः । दश० १६३ । कलाया:- चणकाकारा धान्यविशेषाः । उपा० ५ । कलालकुलं - कलालकुलम् । आव० ३६६ । कालब - कलाप:- ग्रीवाभरणविशेषः । उपा० ४४ कलापः - कण्ठाभारणविशेषः । भग० ४५६ । कलापः - भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६६ । कण्ठाभरणविशेषो मेखलाकलापः । औप० ५५ । कलावओ - कलापक :- ग्रीवाभरणम् । प्रश्न० १५६ । कलासवन्ने-कलानां अंशानां सवर्णनं सवर्ण, सवर्ण:-सहशीकरणं यस्मिन् सङ्ख्याने तत् कलासवर्णम् । ठाणा ० ४६६ । कलि- कलिः - एककः । सूत्र० ६७ । कलिगं - कलिङ्ग - जनपदविशेषः, करकण्डूत्पत्तिस्थानम् । उत्त० २६६ | नैमित्तिकः । आचा० ३५६ | कलिङ्गःद्रव्यव्युत्सर्गे देशविशेषः । आव० ७१६ | जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । देशविशेषः । ओघ० २१ । शिल्पसिद्धहष्टान्ते देशविशेषः । आव० ४१० । देशविशेषः । व्य० द्वि० ४१४ अ । ( २७२ ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिंगराया ] कलिंगराया - कलिङ्गराजा - द्रव्यव्युत्सर्गे करकण्डुः । आव ० ७१६ । १८७ । वंसमयो कड कलिंच - क्षुद्रकाष्ठरूपः । भग० ३६५ | वंशकप्परी । बृ० तृ० ६८ आ । वंसकपड्डी । नि० चू० प्र० ११६ आ । नि० चू० प्र० २२० अ । नि० चू० प्र० १०५ आ । कलिज - फलविशेष: । ओघ० वल्लो। नि० चू० तृ० ५६ अ । कलि- जघन्यः कालविशेषः कलहो वा । अनु० १३८ । प्रथमो भङ्गः । बृ० प्र० १८० आ । एकः । उत्त० २४८ । भग० ७४५ । अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ कलिऊण - कलयित्वा - विज्ञाय । दश० ५६ । कलिओए - एकपर्यवसितः कल्योजः । ठाणा० २३७ । कलिना - एकेन आदित एव कृतयुग्माद्वोपरिवर्तिना ओजो. विषमराशिविशेषः कल्योजः । भग० ७४५ । कलिओग- कल्योजः पर्वराशौ चतुर्भिर्भ के सति यद्येकः शेषो कलुससमावन्न - कलुषसमापन्नः । भग० ५४ । भवति तदा स राशि: । सूर्य ० १६७ । कलिओगक जुम्मे - कल्योजकृतयुग्मे, चतुरादयः । भग० ६६४ । कलिकन्दमूलं। उत्त० ३८३ । कलिकरंडो - कलिकरण्डः - कलीनां - कलहानां करण्ड इव भाजनविशेष इव । परिग्रहस्यैकोनविंशतितमं नाम । प्रश्न० ६२ । कलिकलंक कलिकलंडो- कलिकारकः । आव० ३६० । कलिकल हो - कलिकलह: - राटीकलहः । प्रश्न० ४३ । कलिकलुस - कलिकलुषम् । उत्त० ३३१ । कलहहेतु कलुषं मलीमसम् । विपा० ४० । कलिका - मुकुलं, कुड्मलम् । जीवा० १८२ । कलितोए - एकपर्यसितः कल्योजः । ठाणा० २३८ । कलित्तं - कटित्र - कृत्तिविशेषः । औप० १० । कडि कृत्तिविशेषः । ज्ञाता० ६ । 2010_05 [ कल्पद्वय० ६६४ । कलियो गदावरजुम्मे - कल्योजद्वापरे षडादयः । भग० । १६४ कलुणा - करुणा - दयास्पदभूता, करुणं वा पालयतीति । प्रश्न० १६ । कृपास्थानम् । पिण्ड० १११ । दीना । दश० २४८ । रङ्का । नि० चू० द्वि० १०६ अ । कलुणो-कुत्सितं शैत्यनेनेति निरुक्तवशात् करुणः, करु'णास्पदत्वात् प्रियवि प्रयोगादिदुःखहेतुसमुत्थः शोक प्रकर्षस्वरूपः करुणो रसः । अनु० १३५ । कलुयावासा - द्वीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । कलुषसमापन्नः - नैतदेवमिति विपर्यस्त इति । ठाणा० २४७ ॥ कलुसमावन्ने- कलुषमापन्नः - नाहमिह किञ्चिज्जानामीत्येवं स्वविषयं कालुष्यं समापन्न इति । भग० ११२ । नैतदेवमिति प्रतिपत्तिकः । ठाणा० १७६ । मतिमालिन्यमुपगतः । ज्ञाता० ६५ । कलुसा - कलुषयन्त्यात्मानमिति - कलुषाः कषायाः । आव ० ५८६ । कलुषयन्ति - सहजनिर्मलं जीवं कर्मरजसा मलिनयन्ति इति कलुषा:- कषायाः । बृ० प्र० १४१ आ । कलेवर - मनुष्यशरीरम् । जीवा० १८० । शरीरम् । उत्त० ३४१ । शरीराणि । कलेवराणि - असङ्ख्यातखण्डीकृतवालुकाकणरूपाणि । भग० ६७६ । कलेवराणिमनुष्यशरीराणि । जं० प्र० २३ । | ओघ० १६६ | कलेवरसंघाडा - कलेवरसङ्घारा :- मनुष्यशरीरयुग्मानि । जीवा० १५० । कलेवरसङ्घाटा :- मनुष्यशरीरयुग्मानि । जं० प्र० २३ । कलिमलं - मलः । तं । कलियोगकलिओगे- कल्योजकल्योजे पञ्चादयः । भग० ४० आ । कलोवाइओ - पिच्छी-पिटकं वा । आचा० ३२७ । कल्क: - कक्क - कषायद्रव्यक्वाथ । आचा० ३६३ । कल्ककुहकम् - । सूत्र० ४०२ । कल्पत पसा-तपविशेषः । आचा० २०३ । कल्काचार: - आचारविशेषः । आचा २०२ । कल्पक:- वैनयिकीबुद्धौ अर्थशास्त्रे मन्त्री । नंदी० १६१ । कलियोगतेओगे - कल्योजत्र्योजे राशौ सप्तादयः । भग० कल्पद्वय पर्युषितः- कल्पद्वयपर्युषितस्तु नियमाज्जिन कल्पि ६६४ । ( अल्प ० ३५ ) ( २७३ ) कलेसुयं - तृणविशेषः । सूत्र० ३०६ । कलो-चणओ । नि० चू० द्वि० ६३ आ । नि० चू० प्र० Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पनिका ] कपरिहारविशुद्धिकयथालन्दिकप्रतिमा प्रतिपन्नानामन्यतमः । आचा० २८० । कल्पनिका - शस्त्रविशेषः । भग० १६८ । सम० २६ । कल्पनी - कर्त्री - शस्त्र विशेषः । उत्त० ४६० । वरदपालाः- सुरादिविक्रयकारिणः । मद्यपाः । व्य० द्वि० ४२० अ । कल्पस्त्रियः-कल्पयोः-देवलोकयोः स्त्रियः कल्पस्त्रियः - देव्यः । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलित - ठाणा० १०० । वरुपस्थितः - वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः । ठाणा० ३२४ । करुपा - संविग्नविहारः । बृ० प्र० ११३ अ । कल्पातीतः - साधुभेदविशेषः । भग० ४ । कल्पातंसिका - कल्पावतं सकदेव प्रतिबद्ध ग्रन्थपद्धतिः । निरय० २१ । नंदी० २०७ । कल्पका - या कारणे प्रतिसेवना क्रियते सा । व्य० प्र० ४७ आ । कत्या- नीरोगी । नंदी० १६१ । कल्याणकं - यदासन प्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुरेन्द्रा जीतमितिविधित्सवो युगपत् ससम्भ्रमा उपतिष्ठन्ते । जं० प्र० १५६ । कल्ल - कल्यः- अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षः । उत्त० १२८ । प्रत्यूषः । आव० १४८ । नीरोगया मोरखो । दश० चू० ७१ । कल्यं श्वः प्रादुः प्राकाश्ये च । ओघ० २६ । सुखमारोग्यं शोभनत्वं वा । सूत्र० ३८३ । कल्यं पूपकम् । | ओघ ० १७२, १७३ । कल्यं - शब्द, शब्दशास्त्रम् । विशे० १३०४ । कल्ये । आव ० ६५ । कल्यं - आरोग्यम् । आव ० ७८८ । श्वः । भग० १२७ । कल्यः, मोक्षः । उत्त० १२८ । दश० १५८ । कल्यो - नीरोगः । चिन्ता दिनापेक्षया द्वितीयदिने । उत्त० ४७६ । वल्लसरीरा - कल्यशरीराः, पटुशरीराः । ठाणा० २४७ । कल्ला कल्लि - प्रतिप्रभातम् । उपा० ४० । प्रतिदिनम् । ज्ञाता ० १४६ । कल्ये च कल्ये च अनुदिनमिति कल्याकल्यिं । विपा० ५१, ५८ । कल्लाणं - कल्यम् - आरोग्यं अणति - शब्दयतीति कल्याणं । । कल्याणं- एकान्तसुखावहम् । जीवा० २७८ । इष्टार्थफलसंप्राप्तिः । सूत्र० ३८३ | कल्याणहेतुः । आव ० ७८८ 2010_05 [ कल्हाडए कल्याणप्राप-, सूर्य ० २६७ । अर्थहेतुः । औप० ५ । कत्वात् - अहिंसाया एकोनत्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न० ६६ । शुभम् । मुक्तिहेतुः । उत्त० १२८ | तत्त्ववृत्तया तथा-: विधविशिष्टफलदायी, अनर्थोपशमकारि वा कल्याणरूपं कल विपाकं वा । जीवा ० २०१ । कल्याणं श्रेयः । भग० ११६ | नीरोगताकारणम् । भग० १२५ । अनर्थोपशर्महेतुत्वम् । भग० १६३ । कल्यो - मोक्षस्तमणति प्रापयतीतिकल्याणं- दयाख्यं संयमस्वरूपम् । दश० १५८ । गुणसम्पद्रुपः संयमः । दश० १८६ | तत्त्ववृत्या तथाविधविशिष्टफलदायी, अनर्थोपशमकारी । जं० प्र० ४७ । कल्याणं - समृद्धिः । ठाणा० १११ । मंगलस्वरूपत्वात्कल्याणम् । ठाणा० २४७ | अर्थप्राप्तिः । भग० ५४१ । एकान्तसुखावहम् । जं० प्र० ११६ | पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कल्यः- अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमानयति अणति प्रज्ञापयतीति कल्याण: मुक्तिहेतुः । उत्त० . १२८ । कल्यं - आरोग्यं अणन्ति शब्दयन्तीति कल्याणाः । ठाणा० ४६४ । नीरोगताकरणम् । ज्ञाता० ७६ । कल्लाणकार - कल्याणकरणं, मङ्गलकरणम् । ज्ञाता० २२० । कल्लाणग - णाम ओहारो । नि० चू० प्र० ११३ आ । नि० चु० प्र० ७६ अ । कल्याणकं - अनुपहतं प्रवरम् । उपा० २६ । कलाणवयं। नि० चू० प्र० १६५ अ । कल्लाणपुक्खल - कल्यां- आरोग्यं कल्यमणतीति कल्याणं, पुष्कलं - सम्पूर्णं च कल्याणपुष्कलम् । आव० ७८८ । कल्लाणयं - कल्याणकं - कल्याणकारि । जीवा० १६२ । परमवस्त्रलक्षणोपेतम् । जीवा २६६ । क्ल्लाणी-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । कल्लालघर- कल्पपालगृहम् । अनु० १४२ । वल्लालत्तणं - कौलालत्वं सुराविक्रेतृत्वम् । आव० ८२६ । कल्लुगा- कृन्तकाः । नि० चू० द्वि० ८० आ । नदीपा पाणेषु उत्पद्यमाना द्वीन्द्रियविशेषाः । वृ० तृ० १६२ आ । कल्लुयावासा - द्वीन्द्रियविशेषः । जीवा० ३१ । कल्लेदाणि नित्यं । नि० चू० द्वि० १४४ आ । कल्लोलं - फलविशेषः । प्रश्न० १६२ । कल्हाडए - कल्हाङक: । गोरथकाः । वृ०. द्वि० १३८ आ । ( २७४ ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्हारे ] ___ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कविल्ली कल्हारे-जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ ।। कवाडोभिन्न-यद् पिहितं कपाटं उद्भिद्य-उद्घाट्य साधुकल्होड:-गोरथकः । दश० २१७ । भ्यो दीयते तत् कपाटोद्भिन्नम् । पिण्ड० १०५ । कवइय-कवचिका-सन्नाहविशेषः । औप० ६२ । भग० | कवाल-कपालं-कर्परम् । सूत्र० २६८ । घटखपरादि । | आचा० ३११ ।। कवए-कवच:-कङ्कटः । भग० ३१८ । तनुत्राणम् । जं० | कविजला-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । प्र० २१६ । कविक-खलिनम् । आव० २६१ । दश० २८३ । कवचं-कङ्कट-आवरणं । जीवा० १६३ । सन्नाहुविशेषः । | कविकच्छ-कपिकच्छू:-तीवकण्डूतिकारकः फलविशेषः । ज्ञाता० २२१ । प्रश्न० १६४ । कवड-कपट-वेषपरावर्तादिर्बाह्यो विकारः । आव०५६६ । कविकच्छ्र-कपिकच्छु:-खर्जुकारी । ज्ञाता० २०४ । देशभाषानेपथ्यादिविपर्ययकरणम् । सूत्र० ३२६ । वेष- | कविचियाओ-कलाचिकाः । भग० ५४८ । भाषावैपरीत्यकरणम् । प्रश्न० ५८ । भाषाविपर्ययकर- कविठ्ठ-कपित्थं फलविशेषः। प्रज्ञा० ३६४ । फलविशेषः । णम् । प्रश्न० २७ । वेषाद्यन्यथात्वम् । ज्ञाता० १५८ ।। आव० ७९८ । प्रज्ञा० ३२८ । भग० ८०३ । कपित्थवेषादिविपर्ययकरणम । ज्ञाता० २३८ । परवञ्चनाय | फलम। दश० १८५। बहबीजफलवि वेषान्तरकरणम् । जं० प्र० १६६ । नेपथ्यभाषाविपर्य- | कविटपाणगं-पानकभेदः । आचा० ३४७ । यकरणम् । ज्ञाता० ८० । वञ्चनाय वेषान्तरादिकरणम् । कविटलता-कपित्थलता । आव० १७३ । भग० ३०८ । कवित्थ-कपित्थं फलविशेषः । उत्त० ६५३ । कवडसडओ-कपटश्राद्ध: । आव० ७६६ । कवियच्छू-कपिकच्छू:-कण्डूविजनको वल्लीविशेषः । जीवा० कवडिया । ओघ० १८८ । १०७ । कवडुगा-ताम्रमयं नाणकम् । नि० चू० प्र० ३३० अ।। कविल-कपिल:-पक्षिविशेषः । ज्ञाता०२३१ । प्रश्न० ८ । कवणो-कतमः । पउ० ७१ । सुस्थिताचार्याणां शिष्यः । नि० चू० द्वि० ३१ आ । कवय-कवच:-कङ्कट: । भग० १६३ । सन्नाहविशेषः । ग्रन्थार्थपरिज्ञानशून्यः। परिव्राजकविशेषः । औप० ६१ । जं० प्र० २०५ । तनुत्राणम् । जीवा० २५६ । परि- राजपूत्रविशेषः । मरीचिशिष्यः। आव० १७०। सूस्थिकरः । प्रश्न० ७५ ।। ताचार्यशिष्यः वेदत्रयानुभववान् । बृ० तृ० १८ अ । कवर्गप्रविभक्तिकं-पञ्चदशो नाट्यविधिः । जं०प्र० ४१७ । क्षुलकश्रमण: । नि० चू० प्र० ७८ अ । राजगृहनगरे कवल-आहारविशेषः । ठाणा० ६३ । कुर्कुट्यण्डकमात्रा। ब्राह्मणः । व्य० द्वि० १६६ आ । नगरबाहिरिकायां ओघ० १८२ । कवलः । आव० ८४४ । ब्राह्मण: । आव० ६६१ । कौशाम्ब्यां काश्यपपुत्रः । कवलकः-उपकरणभेदः । आचा० ६० । उत्त० २८६ । लोभे द्रष्टान्तः । क्षुल्ल कविशेषः । नि० चू० कवलग्गाहो-कवलग्राहः-गलकण्टकापनोदाय स्थूलकवलन- | प्र० ७८ अ । कपिलः । उत्त० २८६ । चम्पानगाँ हणं,मुखविमर्दनार्थं वा दंष्ट्राधःकाष्ठखण्डदानम् । विपा०५१॥ कपिलनामा वासुदेवः । ज्ञाता० २२२ । कवलिका । भग० ६५१ । | कविला-नामविशेषः । विनयंबहुमानचतुर्थभङ्गे दृष्टान्तः । कवल्ली-कवली-गुडादिपाकभाजनम् । विपा० ५८ । । नि० चू० प्र० ८ अ । कपिला-दानस्यादत्री श्रेणिकस्य कवल्लीओ-लोही । नि० चू० प्र० ३१७ अ । दासी । आव० ६८१ । . कवाड-कपाट-द्वारयन्त्रम् । दश० १८४ । कपाट-प्रतोली- कविलिए-कृष्णपुद्गलस्य भेदविशेषः । सूर्य० २८७ । द्वारसत्कम् । जीवा० १५६ । कपाटानि-प्रतोलीद्वार- कविल्ली-कटाहः-लोहभाजनविशेषः । आव०३६६ । मण्डनसत्कानि । प्रज्ञा० ८६ । कादिपचनिका लोही । अनु० १५६ । ( २७५ ) 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविसाणए ] कविसाए - कपिशायनं मद्यविशेषः । प्रज्ञा० ३६४ । कविसीसं कपिशीर्षकं - प्राकाराग्रम् । आव ० २३१ । कविसीस ए- कपिशीर्षकः - प्राकाराग्रम् । जं० प्र० ३२० ॥ कविसीसग - कपिशीर्षकः । ज्ञाता० ६६ । जीवा० २१६ । कविहसितं - आगासे विकृतरूपं मुखं वाणरसरिसं हासं करेज्ज । नि० चू० तृ० ७५ अ । क विहसियं - कपिहसितं यदाकाशे वानरसदृशं विकृतं मुखं हासं कुर्यात् । आव ० ७५० । अकस्मान्नभसि ज्वलद्भीमशब्दरूपम् । जीवा ० २८३ । कपिहसितं - अन या विद्युत् सहसा तत् कपिहसितम् । भग० १६६ । कविहसिया - कपिहसितानि, अकस्मान्नभसि ज्वलद्भीमशब्दरूपाणि । अनु० १२१ । कवेलुका । दश० १०१ । कवेलुयं - कवेलुकम् । जं० प्र० २३ । कवेल्ली - लोहकटाहम् । भग० २३८ । कवेल्लुकं - भाव्यम् । आव० ५२१ । कवेल्लुकापाक:| जीवा० १२४ । कवेल्लुयं - कवेल्लुकं - मण्डनपचनिका लोही । जीवा० १८० । कवोड - कपोतः - पक्षिविशेषः । पिण्ड० ७६ ॥ आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः कवोतक - कपोतकः । प्रश्न० ८ । कate - कपोतकः पक्षिविशेषः । भग० ६६१ । कपोतःपक्षिविशेषः । उत्त० ४५६ । कवोया - लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । वोल देसो- कपोलदेशः - गण्डभागः । जीवा० २७३ । कव्व - काव्यः - धर्मार्थकाममोक्षलक्षण पुरुषार्थ प्रतिबद्धग्रन्थ:संस्कृतप्राकृतापभ्रंशसङ्कीर्ण भाषानिबद्धः, समविषमार्द्धसमवृतबद्धतया गद्यतया चेति, गद्यपद्यगेयवर्णपदभेदबद्धः । ठाणा ० ४५० | गन्थः । ठाणा० २८८ । कवेरभिप्रायः । अनु० १३५ । कव्वग - भाजनस्यावकल्पमपवृत्य । व्य० द्वि० ३०२ आ । कव्वडं - कुणगरो । नि० चू० द्वि० ७० आ । वाडवोपमकूडसविखसमुब्भावियदुक्खछलव्यवहारतं कव्वडं । दश० 2010_05 [ कसायकल हो कषः - संसारः । जीवा० १५ । कष पट्टकं - सुवर्णपरीक्षकपाषाणविशेषः । जीवा० १६१ । कषायः- रसस्य तृतीयभेदः । प्रज्ञा० ४७३ । पीत रक्तवर्णाश्रयरञ्जनीयवस्तु । जं० प्र० १८६ । कषायसमुद्घातः - कषायोदयेन समुद्घातः । जीवा० १७ । कस - कशः - वर्धविकारः । उत्त० ३६४ । कर्षन्ति हिंसन्ति परस्परं प्राणिनोऽस्मिन्निति कषः संसारः । प्रज्ञा० २८५ । कषः - चर्मदण्डः । जं० प्र० १४७ । कषः - वर्धः । प्रश्न० १६४ । कथ्यतेऽस्मिन् प्राणी पुनःपुनरावृत्तिभावमनुभवति कषोपलक्ष्यमाणं कनकवदिति कषः संसारः । उत्त० १६० । कर्म भवो वा । आव० ७७ । कषतिहिनस्ति देहिनः इति कषं कर्म्म । ठाणा० १६३ । कस:चर्मयष्टिका | प्रश्न० २२ । कशा - आयुष उपक्रमे द्वितीयभेदः । आव० २७३ । संसारः । आचा० ६८ । कशः - चर्मयष्टिः । उत्त० ४८ । चर्मदण्डः । जं० प्र० २३५ । कसट्ट - कचवरं । ओघ० १८४ । कसट्टिया - कषपट्टः । भग० २१३ । कस पहारे-वर्धताडनानि । ज्ञाता० ८७ । कसमाओ - कषमाय - कषमायन्ति कषं गमयन्ति । विशे० ५४३ । कसर - कशरः खशरः । भग० ३०८ । कसाइज्जति - कषायन्ते । आव० १११ । कसाइययं - कषायितकः । आव० २१६ | कसाई ओ - कषायितः । आव ० ३२३ । कसाए - कषायः कषायोदयः । प्रज्ञा० १३५ । कृषन्ति विलिखन्ति कर्मरूपं क्षेत्रं सुखदुःखशस्योत्पादनायेति कषायाः, कलुषयन्ति शुद्धस्वभावं सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति वा । प्रज्ञा० २६० । कर्षन्ति हिंसन्ति परस्परं प्राणिनोऽस्मिन्निति कषः - संसारस्तमयन्ते - अन्तर्भूतण्यर्थत्वाद्गमयन्ति प्रापयन्ति ये ते कषायाः । प्रज्ञा० २८५ । अन्नरुचिस्तम्भनकृत्कषायः । ठाणा० २६ । कसाय - कषायं - प्रज्ञापनायाश्चतुर्दशं पदम् । प्रज्ञा० ६ । वल्लादि । दश० १८० । चू० १५७ । कव्वाल भयगो-तइओ भयगभेओ । नि० चू० द्वि० ४४ अ । कव्वालो - खितिखाणतो उडुमादी । नि० चू० द्वि० ४४ आ । कशा - बन्धनविशेषः । भग० १६३ । दश ० २६७ | | कसायकल हो - कलहस्य द्वितीयो भेदः । नि० चू० प्र० ( २७६ ) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसायकुसील ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कहणा २५१ आ । २३४ । सूत्र० २७८ । व्य० द्वि०३०१ आ। कृत्स्नः । कसायकुसील-कषायः कुशील:-कषायकुशीलः । भग० विशे० ४२४ । भग० १४६ । व्य० प्र० ११८ आ। ८६० । कषायकुशीलः-यस्य पञ्चसु ज्ञानादिषु कषायैवि- कृत्स्नं सर्वार्थ ग्राहकत्वात् । ज्ञाता० १५३ । कृत्स्नं कृष्णं राधना क्रियते सः, कुशीलस्य द्वितीयो भेदः । उत्त० २५६ । वा । उत्त० ४८५ । प्रधानभावम् । नि० चू० प्र० कसायदृट्ठो-हंकारतो । नि० चू० द्वि० ४० अ। कसाय- १३६ आ । कृष्णं । क्लिष्टम् । दश० २३४ । वण्णतो दुष्टो यथा सर्षपनालिकाभिधानशाकमजिकाग्रहणकुपितो जुत्तप्पमाणा । नि० चू० तृ०.४६ अ। सदसं प्रमाणामृताचार्यदन्तभञ्जकः साधुः । ठाणा० १६३ । तिरिक्तं । नि० चू० प्र० १३८ आ । कसायपद-प्रज्ञापनायां चतुर्दशं पदम् । भग० ७४४ । कसिणखंध-कृत्स्नस्कन्धः-परिपूर्णस्कन्धः । अनु० ४० । कसायपञ्चक्खाण-क्रोधादिप्रत्याख्यान-तान् न करोमीति- ! कसिणधवलपडिवज्जगो-कृष्णधवलप्रतिपत्ता । आव० प्रतिज्ञानम् । भग० ७२७ । ३६४ । कसायपायाल-कषाया एवागाधभवजननसाम्येन पाताल- कसिणा-यावतोऽपराधानापन्नस्तावतीनां तच्छुद्धीनामारोपमिव पातालं यस्मिन् स:-कषायपातालः । आव०६०१। णा कृत्स्नारोपणा। सम० ४७ । कृत्स्ना यत्र झोषो न कसायलोगो-कषायलोक:-औदयिकभावकषायलोकः । क्रियते । व्य० प्र० १२४ आ। आचा० ८४ । कसिणाओ-कृत्स्नाः , सम्पूर्णा अनुपहृता । आचा० ३२३ । कषायसंकिलेस-कषाया एव कषायैर्वा सङ्क्लेश:-असमाधिः कसिणे-घनमसृणानि यैः सूर्यो न दृश्यते । बृ० द्वि० कषायसङ्क्लेश: । ठाणा० ४८६ । २४० अ । .. कसायसंलोणया-कषायसंलीनता, संलीनताया द्वितीयो कसेरुगं-वनस्पतिविशेषः । आचा० ३४८ । भेदः । सा च तदुदयनिरोधोदीर्णविफलीकरणलक्षणा। उदय कसेरुमती नदीविशेषः । व्य० प्र० २२७ आ । स्सेव निरोहो उदयं पत्ताणं वाऽफलीकरणं,जं इत्थ कसायाणं | कसेरुया-जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कसायसंलीनता एसा । दश० २६ । कसेहि-परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कष्टतपश्चरणादिकसाया-कषः, संसारस्तस्मिन् आ समन्तादयन्ते-गच्छन्त्ये- __ना कृशं करु, यदि वा "कष" कस्मै कर्मणेऽलमित्येवं पर्या. भिरसुमन्त इति कषायाः,यद्वा कषाया इव कषायाः। उत्त० लोच्य यच्छक्नोषि तत्र नियोजयेरित्यर्थः । आचा०१६१ । १६० । कर्षन्ति परस्परं हिंसन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निति कषं कथा वाक्यप्रबन्धरूपा । उत्त० ४२४ । कथं-केनकर्म भवो वा, अथवा कृष्यन्ते शारीरमानसदुःखलक्षघृष्य- प्रकारेण केनान्वर्थेनेति । सूर्य० २९२ । न्ते प्राणिनोऽस्मिन्निति कषं कर्मव,भव एव वा,यतो यस्मात् । कहंतरं-कथान्तरम् । आव० ५९२ उत्त० ४२५ । उच्चकषं कर्म, कषो वा भव आयो लाभो येषां ततस्ते स्वरः । बृ० प्र० २१३ अ । कषायाः । कषमायन्ति यतः, अतः कषायाः-कषं-गम- कहकह-हसितशब्दः । यन्तीत्यर्थः । विशे० ५४३ । कृषन्ति-विलिखन्ति-कर्म- कहकहक-प्रमोदभरजनितकोलाहलम् । जं० प्र० ४१६ । क्षेत्र सुखदुःखफलयोग्य-कुर्वन्ति-कलुषयन्ति वा जीवमिति | कहकहेंति-कहकहायमानं-प्रहसितविशेषः । प्रश्न० ५२ । निरुवतविधिना कषायाः । ठाणा० १६३ । कलुषाः । | कहग-कथक: सरसकथाकथनेन श्रोतृरसोत्पत्तिकारकः । ५८६ । कष:-संसारस्तमयन्ते गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति जं० प्र० १२३ । कथकः । अनु० ४६ । कषायाः-क्रोधादयः परिणामविशेषः । जीवा० १५। कहणविहि-कथनविधिः, कथनप्रकारः । आव० ८६२ । कसासिव्वणी- । नि० चू० प्र० १२७ अ। कहणविही-कथनविधिः, कथनप्रकारः । आव० ८०३ । कसाहीया-मुकुलिअहिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । कहणा-धर्मकथालब्धिसंपन्नः । ओघ० ६३ । कथनाकसिण-कृत्स्न:-सम्पूर्णः । आव० ४६२, ५०० । दश० । कथनम् । आव० २३४ । ( २७७ ) 2010_05 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहरत्तो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ काकजंघा कहरत्तो-कथासु रक्तः-सक्त: कथारक्तः । ओघ० १२७ । | काउंबरिय-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । कहल्लो-कभेल्लः-कर्परः । अन्त० १२ । | काउंबरो-काकोदुम्बरः-खादिमवृक्षविशेषः । आव० ८२८ । कहा-संयमाराधनी या वाग्योगप्रवृत्तिः । बृ० द्वि० ४० | काउज्जुय-कायर्जुक:-कायेन ऋजुरेव ऋजुकः । उत्त० अ । वाइगजोगेण संयमाराहणी कहा । नि० चू० तृ० १ / ५६० । आ । साधूवादं जल्पं वितडं वा एता तिण्णिवि कहा । काउज्जुयया-ऋजुकस्य-अमायिनो भावः कर्म वा ऋजुनि० चू०प्र० २४० अ। आख्यानकानि । सम० ११८ । कता कायस्य ऋजुकता कायर्जुकता । ठाणा० १६६ । वचनपद्धतिः, चरित्रवर्णनरूपा वा । ठाणा० १५६ । ब्रह्म- काउड्डावणे-कार्याकर्षण हेतुः । ज्ञाता० १८८ । चर्यगुप्ते दः । आव० ५७२ । कथा-वाक्यप्रबन्धः शास्त्रम् । काउदर-काकोदरः-दर्वीकरसर्पविशेषः । प्रश्न० ८ । सम० ५५ । कथा-वार्ता । दश० ११४ । काउय-कपोतः-बहुकृष्णरूपः । प्रज्ञा० ८० ।। कहाहिगरणाइं-कथा-राजकथादिका-अधिकरणानि च काउलेसा-कपोतलेश्या-कपोतवर्णा लेश्या-धूम्रवर्णा ! यन्त्रादीनि कलहा वा कथाधिकरणानि । सम० ५५ ।। ठाणा० १७५ । कहिथ-कुत्रात्र । उत्त० १६२ । काउस्सगो-कायस्योत्सर्गः कायोत्सर्गः । आव० ७७८ । कहिय-कथितं-प्रबन्धेन प्रतिपादितम् । उत्त० ३४१ । काऊ-लोहे धम्यमाने यादृक् कपोत:-बहुकृष्णरूपोऽग्नेर्वर्णः । कहियाइओ-कथितवान् । आव० २३७ । जीवा० १०३ । लेश्या कायवान् । आचा० २३१ । कांक्षा-ऐहलौकिकपारलौकिकेषु विषयेष्वाशंसा । तं०७१। काऊअगणि-कृष्णाग्निः । सम० १३६ । कांचणय-यस्मादुत्पलादीनि काञ्चनप्रभाणि काञ्चननामान-काऊअगणिवण्णाभा-कृष्णाग्निर्लोहादीनां ध्यायमानानां श्व देवास्तत्र परिवसन्ति ततः काञ्चनप्रभोसलादियोगात तद्वर्णवदाभा येषां ते कृष्णाग्निवर्णाभाः । सम० १३६ । काञ्चनकाभिधदेवस्वामिकत्वाच्च सः काञ्चनकः । जीवा० | काए-काय:-शरीरं, देहः, बोन्दी, चयः, उपचयः, सङ्घातः, २६१ । उच्छयः, समुच्छ्रयः, कडेवरं, भस्त्रा,तनुः, पाणुरिति । आव० कांचणिया-काञ्चनिका-राजधानीविशेषः । जीवा० २६२ ।। ७६७ । पर्यायः, सामान्यरूपो निविशेषणो जी वत्वलक्षण: कांजिक-जहणेणं ज्ञावे कोदवोदणो जूह, च तंदुलोदकं मुद्ग- विशेषरूपो नैरयिकत्वादिलक्षणः। प्रज्ञा० ३७५ । अष्टारसो । नि० चू० प्र० ३२६ आ। शीतौ पञ्चविंशत्तमो ग्रहः । जं० प्र०५३८ । कापोतिका । काइआण-निकाय । जं० प्र०७५ । बृ० द्वि० १०१ अ। काकः-वायसः । ज्ञाता० २०५ । काइओ-कायिक: । आव० ७७८ । कावोडी। नि० चू० प्र० १८७ अ । कवोडी । नि० काइमाईया-गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ ।। चू० द्वि० १८ अ । अष्टाशीत्यां पञ्चत्रिंशत्तमो महाग्रहः । काइय-कायिकी-प्रश्रवणम् । आव० ६३४ । ठाणा० ७६ । कुहणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ ।। काइयसमाहि-कायिकीसमाधिः । आव० ६१८ ।। काओ-कायः, जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपो विशेषरूपो काइया-चीयत इति कायः-शरीरं तत्र भवा तेन वा निर्वृता वा पर्यायविशेषः । जीवा० १४० । कायिकी, क्रियायाः प्रथमो भेदः । भग० १८१ । आव० | काओअरा-दर्वीकरसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । ६११ । चीयते इति कायः शरीरं काये भवा कायेन काओली-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० निर्वत्ता कायिकी। प्रज्ञा०४३५ । क्रिया:-व्यापारविशेषाः, ३४ । तत्र कायेन निर्वृत्ता कायिकी कायचेष्टेत्यर्थः । सम०१०। काकंदी-काकंदी-सुविधिनाथजन्मभूमिः । आव० १६० । काइयाभत्तो-कायिकीमात्रकम् । आव० ६३३ ।। काकंधे-अष्टाशीत्यां महाग्रहे षट्त्रिंशत्तमः । ठाणा० ७६ । काईया-कायिकी । आव० ५६ । काक-भिक्षायां दृष्टान्तः । व्य० प्र० १६३ आ । काउंबरि-कादुम्बरि बहुबीजकवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । काकजंघा-काकजंघा-वनस्पतिविशेषः । सा हि परिदृश्य ( २७८ ) 2010_05 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काकणि ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०२ [ काण मानस्नायुका-स्थूलसन्धिस्थाना च भवति इति तया जङ्घ- कागणिरयणं-काकणीरत्नम् । चक्रिणो रत्नविशेषः । जं. योरुपमानम् । अनुत्त० ४ । प्र० २३६ । काकणि-क्षत्रियभाषया राज्यम् । विशे० ४१० । कागणिलवखण-द्वासप्ततौ कलायां द्वाचत्वारिंशत्तमा । काकणिरयणे-चक्रवर्तिनः सप्तमेकेन्द्रियरत्नम् । ठाणा० ज्ञाता० ३८ । ३९८ । कागणी-रज्जं । नि० चू० प्र० २४३ आ । काकणी, काकणी-सूक्ष्मकण्ठगीतध्वनिः । ठाणा० ४७१ । चक्रिणो रत्नविशेषः । जं० प्र० १३८ । सपादा गुजा । काकतालीयम्-अवितर्कितसम्भवः, न्यायविशेषः । आचा० अनु० १५५ । रुप्पमयं । नि० चू० प्र० ३३० अ । कागणीरयणे-काकणीरत्नम्-सुवर्णाष्टकनिष्पन्नम् । अनु० काकट्ठो-काकधृष्टः । आव० ५५४ । १७१ । काकनः-पञ्चमं महाकुटम् । प्रश्न० १६१ । कागभुत्तं-वाकभुक्तं. थया काक उञ्चित्योच्चित्य विष्ठादेकाकनाद-कुष्ठविशेषः । आचा० २३५ । मध्याढल्लादि भक्षयति,विकिरति वा काकवत्सर्व, काकवकाकमुख-रथाग्रभागः । जं० प्र० २४६ । देव कवलं प्रक्षिप्य मुखे दिशो विप्रेक्षते । ओघ० १६२ । काकपद-मणिलक्षणविशेषः । जं० प्र० १३८ । कागलि-वल्लीविशेषः । प्रक्षा० ३२ । काकलि-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । कागवन्नो-काकवर्ण:-शिल्पसिद्धदृष्टान्तः जितशत्रोरपरकाकली-मनोज्ञगीतादि । उत्त० ६३३ । सूक्ष्मकण्ठ- नाम । आव० ४१० । गीतध्वनिः । ठाणा० ४७२ । कागस्सर-काकस्वरं श्लक्ष्णाश्रयस्वरम् । अनु० १३२ । काकस्सर-लक्ष्णाश्रव्यस्वरम् । ठाणा० ३६६ । ज० प्र० श्लक्षणस्वरेण काकस्वरम् । श्रीवा० १६४ । ४०। कागा-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ ।। काकिणी-राज्यम् । बृ० द्वि० १५४ अ । कागिणी-काकिणि:-विशतिकपर्दकाः । उत्त० २७२ । काकु: । जीवा० २६१ । प्रज्ञा० २४७ ।। चक्रवत्तिरत्नम् । उत्त० ६५०, २७६ । । काकुद-तालुकः । जं० प्र० ११३ । जीवा० २७३ । कागिणीमंसर्ग-काकिणीमांसक-श्लक्ष्णमांसखण्डम् । सूत्र० काकुपाठः । भग० ३३ । १२५ । श्लक्ष्णमासम् । आव० ६५१ । काकुयं-काकुदं-तालु । प्रश्न० ८२ । कागो-काक:-वायसः । आव० ८५६ । काकोदरो-काकोदरः, दर्वीकरसर्पविशेषः । जीवा० ३६ । काङ्क्षावान्-गृद्धः-मूर्छितः । आव० ५८७ । काकोली-साधारणवनस्पतिविशेषः । आचा० ५७ ।। काच-काच:-पाषाणविकारः । औप० ६३ । कागंदी-काकन्दी-नगरीविशेषः । खेमतेऽवि गाहावती- काचनं-बन्धनम् । ठाणा० २२२ । नगरी । अन्त० २३ । जितशत्रुराजधानी । अनुत्त० २। काञ्चनकाभिधान । ठाणा ३२७ । भद्रसार्थवाहीस्थानम् । अनुत्त० ८ । काश्चनासंविधानकं । प्रश्न० ८६ कगंदीए-काकन्दोन गरी तद्भवः । ज्ञाता० १६३ । कालिकं-आरनालं। बृ० प्र० २६७ आ । सौवीरकम् । कागजंघ-जहिं मणीपडितो तलागे तत्थ रत्ताणि जाणि-। ठाणा० १४८ । अम्लम् । ठाणा० ४६२ । आरनालम् । ताणि कायाणि भण्णंति । नि० चू० प्र० २५४ आ। ओघ० १५४ । कागणि-काकणि-क्षत्रियभाषया राज्यम् । विशे० ४०६ । काञ्जिकपत्रं-काजिकेन बाष्पितम् । बृ० प्र०२६७ आ । कागणिमंसं-काकणीमांसं श्लक्ष्णमांसखण्डम् । औप० काञ्जिका-आरनालम् । ओघ० २१५ । ८७ । काकणीमांसं-तद्देहोत्कृत्त ह्रस्वमांसखण्डम् । विपा० काडिअं-कौट्यौ, उभयप्रान्तौ । जं० प्र० २०१ । ४७ । श्लक्ष्णखण्डपिशितम् । प्रश्न० ५६ ।' काण-काणः, भन्निाक्षः, स्फुटितनेत्रः । दश० २१५ । ( २७६ ) 2010_05 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काणओ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ काम आच० ३८६ । काण्डकरणं-उपकरणविशेषरूपम् । विशे० १२५६ । काणओ-चक्षुर्विकलः । वृ० द्वि० ११६ अ । कातिता-कायिकी, कायचेष्टा । ठाणा० ३१७ । काणकक्रयी-बहुमूल्यमपि अल्पमूल्येन चौराहृतं काणकं | कातिते-कायिक-शारीरिकम् । इडापिङ्गलादि प्राणतहीनं कृत्वा क्रोणातीत्येवंशीलः. । प्रश्न० ५८ । त्वम् । ठाणा० ४५२ । काणक्रयेण । उपा० ७ । कादंबक-कादम्बाः , हंसविशेषाः । प्रश्न० ८ । काणगं-व्याधिविशेषात्सच्छिद्रम् । आचा० ३४६ । | कादम्बा-गन्धर्वभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० ।। काणग-काणक:-चोरितमहिषः । व्य० प्र० २३१ आ। कासणिया-कम्-आत्मानं दूषयति तमस्कायपरिणाकाणगमहिसो-जो चारिओ स काणगमहिसो । नि० मेन परिणमनात् कदूषणा सैव दूषणिका। भग० २६६ । चू० द्वि० ४३ आ। काननं-अरण्यम् । दश० १४७ । । काणच्छि-काणाक्षः । नि० चू० प्र० २५७ अ । काणाक्षः। काननद्वीप:-जलपत्तनम् । उत्त० ६०५ । आव० २१८ । काणाक्षि । आव० २१८ । कापालिक-दृष्टान्तविशेषः । नि० चु० प्र० १८० अ । काणण-सामान्यवृक्षजातियुक्तानि नगराभ्यर्णवर्तीनि । चरगविसेसो । नि० चू० तृ० ३१ अ । स्त्रीणां पूरुषाणां वा केवलानां परिभोग्यानि वा । येभ्यः कापालिका-अस्थिका । व्य० प्र० २०६ अ । . परतो भूधरोऽटवी वा तानि सर्वेभ्योऽपि वनेभ्यः पर्यन्त- कापिशायितं-मद्यविशेषः । जीवा० २६५ । वर्तीनि वा । शीर्णवृक्षकलितानि वा । अनु० १५६ । कापिशायणं-कापिशयनं-मद्यविशेषः । जीवा० ३५१ । स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकृतस्य भोग्येषु वनविशेषेषु कापुरिसा-कापुरुषाः, कुत्सितनराः । ज्ञाता० ५० । अथवा-यत्परतः पर्वतोऽटवी वा भवति तानि काननानि । कापोती-भारकायः, क्षीरभृतकुम्भद्वयोपेता कापोती भण्यते। ज्ञाता० ६७ । नगराद् दूरवत्तिवनखण्डः । भग० ४८३ । आव० ७७० । काननं-बृहवृक्षाश्रयैर्वनम् । उत्त० ४५१ । सामान्य- काम-शब्दरूपगन्धाः । आव० ८२५ । काम्यमानत्वात् वृक्षवृन्द नगरासन्नं काननम् । राज० ११२ । काननं कामा:-मनोज्ञशब्यादयः । उत्त० ३१८ । विषयाः । उत्त० सामान्यवृक्षवृन्दं नगरासन्नम् । जीवा० २५८ । सामान्य- २७७ । स्त्रीसंगः । उत्त० २४३ । मैथुनसेवा । जीवा० वृक्षोपेतं नगरासन्नं च। प्रश्न० १२७ । सामान्यवृक्षोपे- १७३ । मनोज्ञशब्यादिकः । उत्त० १८८ । लोमपक्षिवितनगरासन्नवनविशेषः । प्रश्न ७३ । दूरवत्तिवनम् । आव० शेषः । जीवा० ४१। इच्छानङ्गरूपः कामः । आचा० ५६८ । सामान्यवृक्षसंयुक्तं नगरासन्नं वनम् । भग० ८६ । इच्छाकामः-अप्राप्तवस्तुकाङ्क्षारूपः । उत्त० २३८ । सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासन्नानि कान- ६६४ । स्वेच्छा । प्रज्ञा० ६६ । इच्छा । आव० ३६५। नानि । ज्ञाता० ३६।। रोगः । दश० ८६ । वाञ्छामात्रम् । भग० ८६ । काणयं-काणक-हीनम् । प्रश्न० ५८ । मदनाभिलाषः । ठाणा० २६१ । इच्छा-अनुमतो वा । काणष-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०३ । नि० चू० प्र० ७६ अ । अभिधारियो-अनुमयो वा । काणिट्ट-लोहमय्य इष्टकाः । व्य० द्वि० १०६ आ । नि० चू० प्र० १४ आ। अवधृतार्थे द्रष्टव्यः । नि० चू० पाषाणमय्य: पक्वेष्टिका वा बलिका महत्यश्च कणिका, प्र० २३३ अ० । काम-अनुमतम् । आव० ५२७ । तन्मयगृहकारापकः । बृ० तृ० ५० आ। सम्मतम् । पिण्ड० ४५ । अभ्युपगमः । सूत्र० ५३ । काणियं-काणितम् । आव० ३६६ । अक्षिरोगः । आचा० । विमानविशेषः । जीवा० १३८ । तवेच्छया । आवा० २३३ । ४०३ । कामशब्द:-मकरध्वजे अवधृतौ च । व्य० प्र० काणो-काण:-दीपकाणः, फरलः । प्रश्न० २५ । १४५ अ । कामौ-शब्दरूपे । उपा०८। काम:-इच्छाकाण्डं-धनुः । भग० ६३ । मदनभेदभिन्नो विषयः । आव०६६२ । ( २८० ) 2010_05 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामकंतं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ . [ काममहावणे कामकंतं-कामकान्तं-विमानविशेषः । जीवा० १३८ । | कामदेव-उपासकदसायां द्वितीयमध्ययनम् । उपा० १ । कामकमा-काम:-अभिलाषस्तेन कामन्तीति कामक्रमाः ।। येन श्रृते सामायिकमवाप्तम् । आव० ३४७ ।। उत्त० ४१० । कामध्वजगणिका-गणिकाविशेषः । ठाणा० ५०७ । कामकहा-कामकथा-रूपं सुन्दरं, वयश्चोदग्रं, वेषः उज्वलः, | कामप्पभं-कामप्रभं विमानविशेषः । जीवा० १३८ । दाक्षिण्यं, मार्दवं, शिक्षितं च विषयेषु, शिक्षा च कलासु कामफासे-कामस्पर्शः-अष्टाशीतौ ग्रहे सप्तचत्वारिंशत्तमः । दृष्टमद्भूतदर्शनमाश्रित्य श्रुतं चानुभूतं च संस्तवः परि- | जं० प्र० ५३५ । चयश्चेति कामकथा । दश० १०६, १०७ ।। कामभोग-काम्यन्त इति कामाः, भूज्यन्त इति भोगाः, कामकामे-कामकामः-कामेन स्वेच्छया कामो-मैथूनसेवा ततश्च कामाश्च ते भोगाश्च कामभोगा:-अभिलषणीयशब्दायस्य सः-अनियतकाम इति । प्रज्ञा० ६६ । दयः, यद्वा कामौ च शब्दरूपाख्यौ भोगाश्च स्पर्शरसगन्धाकामकूट-विमानविशेषः । जीवा० १३८ ।। ख्याः कामभोगाः । उत्त० २४३ । काम:-इच्छा भोगा: कामगद्दहो-कामगर्दभः-मैथुने गर्दभ इवात्यन्तासक्तो जनः। शब्दाद्यनुभवाः कामप्रतिबद्धा वा भोगाः कामभोगाः । पिण्ड० १३१ । आव० ३६५ । कामेषु-स्त्रीसङ्गेषु, भोगेषु धूपनविलेपनाकामगम-कामगम:-विमानविशेषः। औप० ५२ । काम- दिषु सः । उत्त० २४३ । कामौ च शब्दरूपलक्षणी गमः-स्वेच्छाचारी । प्रज्ञा० ६६ । कामगम:-यानवि- भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः, अथवा काम्यन्त इति मानविकुर्वको देवविशेषः । जं० प्र० ४०५ । कामाः-मनोज्ञास्ते च ते भुज्यन्त इति भोगा:-शब्दादयः कामगुण-काम्यन्त इति कामाः-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शास्त ते कामभोगाः । ठाणा० १४३ । कामभोगः-शब्दादिभोगो एव स्वस्वरूपगुणबन्धेहेतुत्वाद् गुणाः कामगुणाः । आव० मदनसेवा वा । औप० ४३। भग० ६२५ । कामौ च शब्द ६१५ । कामस्य-मदनाभिलाषस्य अभिलाषमात्रस्य वा रूपे भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः, अथवा काम्यन्त सम्पादका गुणाः-धर्माः पुद्गलानां, काम्यन्त इति कामाः | इति कामा मनोज्ञा ते च ते भूज्यन्त इति भोगाश्च शब्दाते च ते गुणाश्चेति वा कामगुणाः । ठाणा० २६१ । दय इति कामभोगा । ठाणा० ६६ । कामभोगः, मदनशब्दादयः । प्रश्न० ६७ । काम्यन्ते-अभिलाषन्ते इति कामप्रधानः शब्दादिविषयः विपाककटुश्च । दश० २७२ । कामास्ते च ते गुणाश्च पुद्गलधर्माः-शब्दादय इति कामगुणा:, | कामभोगतिन्वाभिलासे-काम्यन्त इति कामाः शब्दरूपकामस्य वा मदनस्योद्दीपका गुणाः कामगुणाः शब्दादय गन्धा भुज्यन्त इति भोगा:-रसस्पर्शा: कामभोगेषु तीव्राइति । सम० ११ । कामगुणम् । आव० २०० । भिलाषः तदध्यवसायित्वं कामभोग तीव्राभिलाषः । कामगुणः । मकरकेतुकार्यम् । अब्रह्मणस्त्रिंशत्तमं नाम। आव० ८२५ । प्रश्न० ६६ । आचा० ६६ । भग० ६६४ । कामभोगमारो-कामभोगैः सह मारो-मदनः मरणं वा कामजलं-स्नानपीढम् । आचा० ३६७ । पहाणपीढं ।। कामभोगमार:-अब्रह्मण एकविंशतितमं नाम । प्रश्न० ६६ । नि० चू० द्वि० ८३ आ । कामभोगरसगिद्धो-कामभोगरसगृद्धः-कामभोगेषु अभिकामजाए-मनोजशब्दादीनां प्रकारः समूहो वा। उत्त० । हित स्वरूपेषु रसः-अत्यन्तासक्तिरूपस्तेन गृद्धास्तेष्व२६१ । भिकाङ्क्षावान् । उत्त० २६५ । कामज्झयं-कामध्वजं, विमानविशेषः । जीवा० १३८ । कामभोगासंसप्पओगे-कामभोगाशंसाप्रयोग:-कामभोगा. कामझया-कामध्वजा-वणिग्ग्रामे गणिका। विपा० ४५। भिलाषप्रयोगः । आव० ८३९ । कामड़ितगणे-महावीरस्य नवगणेषु सप्तमः । ठाणा०४५१। काममहावण-बनविशेषः । भग० ६७५ । कामस्थिआ-कामार्थिनः मनोजशब्दरूपार्थिनः । जं० प्र० । | काममहावणे-काममहावनं-वाणारस्यां चैत्यविशेषः २६७ । शब्दरूपार्थिनः । ज्ञाता० ५८ । __ अन्त० २५ । ज्ञाता० २५१ । ( अल्प० ३६ ) (२८१ ) 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामरए] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कायकं कामरए-कामलक्षणं रजः कामरजः । कामरतः । कामा- | कामोत्कोचकारि । प्रभ० १४१ । नुराग: । भग० ४८३ । कामोत्तरावडिसए-कामोत्तरावतंसकः, विमानविशेषः । कामरुवविउविणो-कामरूपविकरणाः, यथेष्टरूपाभि- | जीवा० १३८ । निर्वृर्तनशवितसमन्विताः। उत्त० १८७ । काम्पिल्य-अङ्गदेशे नगरी । ज्ञाता० १२५ । पञ्चाला कामरुविणो-कामरूपिणः-कामः-अभिलाषस्तेन रूपाणि यत्र काम्पिल्यं-नगरम् । ज्ञाता० १२५ । कामरूपाणि तद्वन्तः-विविधवैक्रियशक्त्यन्विताः । उत्त० काम्पिल्यपुरं-द्रुपदराजधानी । प्रश्न० ८७ । २५२ । कायंदी-काकन्दी, पुरुषपुण्डरीकवासुदेवनिदानभूमिः । आव० कामल-औणिक, वस्त्रम् । व्य० द्वि० १६२ अ । १६३ । नगरीविशेषः । भग० ५०१ । कामलालसा-विषयलम्पटा: । उत्त० ५३० । काय-जीवस्य निवासात् पुद्गलानां चिते: पगलानामेव केषाकामलेसं-कामलेश्य-विमानविशेषः । जीवा० १३८ । । ञ्चित् शरणात्, तेषामेवावयवसमाधानात् काय:-शरीरम् । कामवन्नं-कामवर्ण-विमानविशेषः । जीवा० १३८ । । आव० ४५६ । भूमिस्फोटकविशेषः । आचा० ५७ । कामविणए-शब्दादिविषयसम्पत्तिनिमित्तं तथा तथा औदारिकादित्रयं घातिचतुष्टयं वा, अथवा-चीयत इति प्रवर्तनं कामविनयः । उत्त० १७ । कायः । आचा० २५८ । प्रचयः । ठाणा० २१७ । कामवृक्षः-वृक्षोपरिजातो वृक्षः । सूत्रः ३५२ । निकायः । उत्त० ६६० । महाकायः । सूत्र० २७७ । का कामसमनोज्ञः कामा:-इच्छामदनरूपाः कायः-राशिः । प्रदेशराशिः। भग०१४८ । निजदेहः । सम्यग् मनोज्ञा यस्य स, अथवा सह मनोहर्वर्तत इति आव० ५४७ । कापोती, यया स्कन्धारुढया पुरुषाः समनोज्ञः, कामैः सह मनोज्ञः कामसमनोज्ञः, यदिवा पानीयं वहन्ति । पिण्ड० ३६ । चीयत इति कायः कामान् सम्यगनु-पश्चात् स्नेहानुबन्धाज्जानाति सेवत इति निकाय इति । उत्त० १८२ । गण: निकायः स्कन्धः कामसमनुज्ञः । आचा० १२५ । वर्ग: राशिः । विशे० ४१६ । कागः, काकविद्या । कासिंगारं-कामशृङ्गारं-विमानविशेषः । जी० १३८ । आव० ३१८ । गणः, निकायः स्कन्धः वर्गः राशि: पुञ्जः कामसिटुं-कामशिष्टं-विमानविशेषः । जीवा० १३८ । पिण्ड: निकर:-सङ्गातः आकुल: समूहः । विशे० ४२६ । कामा-काम्यन्त इति कामाः स्त्रीगात्रपरिष्वङ्गादयः । कायिकाभूमि गृहस्थसंबद्धां पश्यति । ओघ० ५६ । सूत्र० २६५। इच्छामदनरूपाः,गन्धालङ्करवस्त्रादिरूपा वा। निकायः, पृथिव्यादिसामान्यरूपः । ठाणा० ६७ । औदासूत्र० १८४ । रिकादिः शरीरः पृथिव्यादिषट्कायान्यतरो वा । भग० कामावत्तं-कामावर्त-विमानविशेषः । जीवा० १३८ । ३४७ । वंसो । दश० चू० १३१ । द्विपदादीनां प्रतिकामावसयिता ।सूत्र० १८४ । रूपम् । बृ० तृ० ६८ आ। कामासंसपओण-कामाशंसाप्रयोगः-शब्दादावभिलाषकर-कायकाल:-कायस्थिति: । ठाणा० ३ । णः । ठाणा० २७५ । कायकिलेसो-कायक्लेश:-बाह्यतपो विशेषः । वीरासनाकामिया-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । दिभेदरूपः । दश० २६ । बाह्यतपःपञ्चमभेदः । कामिकतीर्थ-लौकिकतीर्थम् । विशे० ४१० । भग० ६२१ । कामियसर-सरःविशेषः । बृ० प्र० ४७ आ । कायकोक्कुईया-कायकौकुच्यम्, यत्स्वयमहसन्नेव भ्रूनयनकामी-पंचविसया कामेतित्ति कामी । नि० चू० द्वि० वदनादि तथा करोति यथाऽन्यो हसति । उत्त० ७०६ । १६० अ। कायकोडिया-काचो-भारोद्वहनं तस्य कोटी-भागः काचकामे कामयते-सेवते । दश० १६८ । . कोटी तथा ये चरन्ति कोचकोटिका: । ज्ञाता. १५२। कामेयगो-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । |कायक-काचकं-कचकवृक्षफलम । आव० ५३० । । ( २८२) 2010_05 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायगुत्ती ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कायाणि कायगुत्ती-गमणागमणपचलणादाणण्णसणप्फंदणादिकिरिया- कायपरीते-कायपरीतः यः प्रत्ये शरीरी स । प्रज्ञा० णगोवणं कायगुत्ती । नि० चू० प्र० १७ अ । ३६४ । प्रत्येकशरीरी । प्रज्ञा० १३६ । कायगुप्तिः-शायनासनादान निक्षेपस्थानचंक्रमणेषु कायचेष्टा- | कायबलिआ-कायबलिका:-क्षुधादिपरीषहेष्वग्लानीभवत्कानियमः । तत्त्वा० १-४।। याः । औप० २८ । । कायगो-क्रायक: । आव० ६७ । | कायबलिय-कायवलिकाः परीषहापीडितशरीरः। प्रश्न० १०५। कायजोग-काययोगः-औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्य- कायभव-काये-जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव यो भवः परिणतिविशेषः । आव० ६०६ । जन्म सः कायभवः । भग० १३३ । कायछा-कायषट्कं कायानां पृथिव्यादीनां षट्कं । सम्य- कायभावो-काचभाव:-काचधर्मः । आव० ५२१ । गनुपालनविषयतया ऽनगारगुणाः । आव० ६६०। कायमओ-काचमयः । आव० ५५६ । कायट्टिई-कायो नाम जीवस्य विवक्षित: सामान्यरूपो कायमणिआ-काचमणि-कायः । आव० ७६६ । विशेषरूपो वा पर्यायविशेषस्तस्मिन् स्थितिः कायस्थितिः, कायमणियओमीसे- ।ओप० २२३ । यस्य वस्तुनो येन पर्यायेण जीवत्वलक्षणेन पृथिवीकायादि- कायमणीय-काचमणिकः-कुत्सितः काचमणिः । आव० त्वलक्षणेन वाऽऽदिश्यते व्यवच्छेदेन यद्भवनं सा। जीवा० । ५२१ । १४० । कायमाणं-कायमानम् । ओघ० ४६ । कायट्टिति-काये-निकाये पृथिव्यादिसामान्यरूपेण स्थिति: कायमाणमंडवो- नि० चू० प्र० २३० अ । कायस्थितिः असङ्ख्योत्सर्पिण्यादिका । सप्ताष्टभवग्रहणरूपा। काययोगः-औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिठाणा०६६ । काय इव कायः । तत्र सामान्यरूपो निवि- विशेषः । आव० ५८३ ।। शेषणो जीवत्वलक्षणः, विशेषरूपो नैरयिकत्वादिलक्षण कायरए-आजीविकोपासक: । भग० ३७० । स्तस्य स्थिति:-अवस्थानं कायस्थितिः । सामान्यरूपेण विशे कायरा:-कातरा:-परीषहोपसर्गोपनिपाते सति विषयलोषरूपेण वा पर्यायेणादिष्टस्य जीवस्य यदव्यवच्छेदेन लुपा वा । आचा० १५३ । चित्तावष्टम्भवजिताः । भवनं सा । प्रज्ञा० ३७५ ।। ज्ञाता० ५२ । कायठिई-कायस्थितिः-काय इति पृथिवीकायस्तस्मिन् स्थितिः | कायरिए-वरुणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भा० १६६ । ततोऽनुद्वर्तनेनावस्थानम् । उत्त० ६६० । आचा० ८८। कायरिया-कातरिका-माया । सूत्र. ५७ । कायकालः । ठाणा० ३ । कायस्थिति:-प्रज्ञापनायामष्टा कायवरो-काचवर:-प्रधानकाचः । प्रश्न० १५३ । दशं पदम् । भग० ३५७ । प्रज्ञा० ६ । जीवा० १४१ । कायविसए-कायाणि-कायविसए । नि०चू०प्र०२५४आ कायणुवाए-जहा दगतीरे असंवसंवातिमेसु काय गुवाए । कायसंकिले से-कायमाश्रित्य सङ्कलेश:- असमाधिः कायनि० चू० तृ० १४८ आ । संक्लेशः । ठाणा० ४८६ । कायतिगिच्छा-कायस्य-ज्वरादिरोगग्रस्तस्य चिकित्सा प्रति- कायसंवेहो-विवक्षितकायात्-कायान्तरे तुल्यकाये वा गत्वा पादक तन्त्रं कायचिकित्सा । ठाणा० ४२७ । | पुनरपि यथासम्भवं तत्रैवागमनम् । भग० ८०६ । कायदुक्कड-कायदुष्कृतः-आसन्नगमनादिनिमित्ता । आव० कायसंसिओ-कायसंसृतः-देहसङ्गतः । दश० १२७ । ५४८ । कायसुखता-काये सुखं-यस्यासौ कायसु वस्तभावः कायकायदुप्पणिहाणे-कायदुष्प्रणिधानम्-कृतसामायिकस्याप्रत्यु- सुखता । प्रज्ञा० ४६२ । पेक्षितादिभूतलादौ करचरणादीनां देहावयवानामनिभृतस्था- कायस्वभाव:-अनित्यता दुःखहेतुत्वं निःसारता अशुचिपनम् । आव० ८३४ ।। त्वम् । त०७-७ । कायपरित्तो-कायपरीत्तः प्रत्येकशरीरी। जीवा० ४४६ । कायाणि-जहिं मणी पडितो तलागे तत्थ रत्ताणि जाणि (२८३ ) 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायापरीत्तः ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कारवाहिया ताणि कायाणि भण्णंति । दूते वा काये रत्ताणि कायाणि । कारणप्रतिसेवी। व्य० प्र० ८ अ । नि० चू० प्र० २५४ आ । क्वचिद्देशे इन्द्रनीलवर्ण:- कारणभूता-प्रमाणभूताः । नि० चू० प्र० ३२० अ। कसो भवति तेन निष्पन्नानि कायकानि । आचा० ३६४।। कारणविणासाभाव-कारणविनाशाभावः । दश०१२८ । कायापरीत्तः-साधारणशरीरी । जीवा० ४४६ । । कारणविभागाभाव-कारणविभागभाव: कारणविभागाकायिका-उच्चारभूमिः । आव० ७८१ । प्रश्रवणम् । भावात् न खलु जीवस्य पटादेरिव तन्त्वादिकारणविभागोआव० ७९८ । ऽस्ति कारणाभावादेव । दश० १२८ । कारण विरुद्धकारं-राजदेयं द्रव्यम् । भग० ४८१ । कार्योपलम्भानुमानम् । ठाणा० २६३ । कारणविरुद्धोकारंडग-कारण्डक:-पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । पलम्भानुमानम् । ठाणा० २६२ । कार-वैयावृत्यादिकरणः । ६० प्र० ४३ अ, ५२ आ । कारणसूई- याः-परव्यपरोपणादिकारणमुद्दिश्य कारयित्वा कारओ-कारकः । विधायकः । उत्त० ३१३ । परस्य नखमूलादौ कुट्यन्ते ता: कारणसूच्यः । बृ० द्वि० कारक-हेतुः । नं० १६५ । सम्यक । विशे० १०६४ कर्तारम् । बृ० प्र० १५८ आ । हेतुर्व्यञ्जको वा। आव० | कारणा-यातना । व्य० प्र० २१० अ । ५६७ । सिप्पी। कारणाडं-कारणानि-विवक्षितार्थनिश्चयस्य जनकानि । कारगं-करोतीति कारकं उदाहरणम् । ओघ० ११ । ज्ञाता० ११० । साधुः । सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठाना । आचा० ४१६ । क्रिया। कारणानि-ज्ञातानि । सम० ११८ । बृ० प्र० ५२ आ। कारणानुपलम्भानुमानम्-न्यायविशेषः । ठाणा० २६३ । कारगसुत्तं-कारक सूत्रं । सूत्रस्य द्वितीयो भेद: । बृ० प्र० कारणिक-विवादनिर्णायकः । अनु० ३१ । विशे० ६२३ । ५० आ । राजपुरुषाः । नंदी० १५२, १५६ । विशे० ४१६ । कारगारी-अपराधी । दश०१८ । कारणिय-कारणिकः, न्यायकर्ता । आव० ७१८ । गुरुकारण-हेतुः, निमित्तम् । विशे० २७६ । उपपत्तिमात्रम् । वैयावृत्यादिना व्यापृतः । आव० ७७८ । न्यायालयभग० ११६ । आव० ६२ । अन्यथाऽनुपपत्तिमात्रम् । सत्क: पुरुषः । उत्त० ३०१ । उत्त० ३०८ । उपपत्तिमात्र दृष्टान्तादिरहितम् । उत्त० कारणिया-कारणिका । आव०१६ । कारणिका । नि० ३०८ । परोक्षार्थनिर्णयनिमित्तमुपपत्तिमात्र । ठाणा० चू० प्र० ११२ अ । नि० चू० प्र० १३५ अ । ४६३ । कारणं नामालम्बनं । प्रज्ञा० ६७ । हेतु:- कारणे-वेदनादिकारणमन्तरेण भुञ्जानस्य कारणदोषः । उपपत्तिमात्रम् । विशे० ४६३ । प्रयोजनम् । विशे० | ग्रासैषणादोषे पंचमो दोषः । आचा० ३५१ । ८७६ । आव० ५२४ । करोतीति कारणं, कार्य निर्व कारणेसु-कारणेषु-सिसाघयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतयतीति । आव० २७७ । स्वेन व्यापारेण कार्ये यदुप- तेषु ये मन्त्रादयो व्यवहारान्तास्तेषु । विपा० ४० । युज्यते तत्करणं। आव० २७८ । बाह्यकारणम् । प्रज्ञा० कारय-यस्मिन् सम्यक्त्वे सति सदनुष्ठानं श्रद्धत्ते, सम्यक २२३ । करोतीति कारणं-परोक्षार्थनिर्णयनिमित्तमूत्प करोति च तत् कारयति सदनुष्ठानमिति कारकं सम्यक्त्वत्तिमात्रम् । ठाणा० ४६२ । कारणं-ज्ञानादिव्यतिरिक्तं मुच्यते । विशे० १०६४ । कारणमाश्रित्य बन्दते तत् कृतिकर्मणि पञ्चदशो दोषः ।। कारवाहिआ-कर-राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीलाः कारवाआव० ५४४ । इष्टार्थानां हेत:-कृषि पशुपोषणवाणि हिनस्त एव कारवाहिका: कारबाधिता वा । जं० प्र० ज्यादिः । भग० ७३९ । कारण:-हेतु: । प्रज्ञा० १८०।। २६७ ।। कारणजाए-कारणजातः-कारणप्रकारः । उत्त० २३५ । कारवाहिया-करपीडिताः, नृपाभाव्यवाहिनो वा। औप० कारणपडिसेवि-अकृत्यं यतनया प्रतिसेवते इत्येवंशील:) ७३ । कारं-राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्वंशीयेलाः कारवा ( २८४ ) 2010_05 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काराग्रहम् ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०२ [ काले हिनस्त एव कारवाहिकाः, करवाधिता वा। भग० ४८१।। प्रज्ञा० ४७० । काराग्रहम्-कारागारम् । उत्त० ५५५ । कार्मणसङ्घातनाम-यदुदयवशात कार्मणशरीररचनानुकारापक:-करणं कारस्तं कारयति कारापयतीति णके कारिसङ्घातरूपा ( परिणतिः ) जायते तत् । प्रज्ञा० च कारापक: । आव० २६० । ४७० । कारापणे- । नि० चू० प्र० १०३ आ। कार्य-नेम ( देशी)। पिण्ड० २८ । कारियणिमित्तकरणं-कारितनिमित्तकरणम-सम्यगर्थपद- कार्यकारणभावः-न्यायविशेषः । आचा० । मध्यापितमस्माकं विनयेन विशेषेण वत्तितव्यं, तदनुष्ठानं कायेनिमित्तको विनयः-संग्रहमुपसंग्रह वा मे करिष्यतीत्येवं च कर्त्तव्यम् । दश० ३१ । बुद्धचा यो विनयः क्रियते सः । विनयस्य तृतीयो भेदः । कारियनिमित्तकरणं-सम्यक शास्त्रपदमध्यापितस्य विशेषेण व्य० प्र० २० आ । विनये वर्तनं तदार्थानुष्ठानम् । सम० ६५ । कार्यव्यासङ्गात्-न्यायविशेषः । आचा० १०६ । कारियल्लई-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कार्यानुपलब्ध्यनुमानम्-न्यायविशेषः । ठाणा २६३ । कारी-अपराधी। आव० ३४६ । कर्तारः। अपराधिनः । म-न्यायविशेषः । ठाणा० २६२ । आव० ६७२ । अपराधिनी । दश. ६६ । कार्षापण-माषः । प्रज्ञा० २५७ । उत्त० २७६ । कारीषाग्निसमानः-फुम्फुकाग्निसमानः परिमलमदन- कालजरवत्तिणी-कालञ्जरवत्तिनी-गङ्गामहानद्याविन्ध्यस्य दाहरूपः । जीवा० ६५ । चान्तरा अटवी । आव० ३४८ । कारुअवण्णे- । जं० प्र० १६४ । कालंबवालुआ-कदंबवालुका-कदम्बवालुकानदीपुलिनम् । कारुइज्ज-कारुकः, कारुकजातिविशेषः। करुटच्छिम्पकादिषु उत्त० ४५६ । भवा कारुकीया । प्रभ० ३० । काले-काल:-दक्षिणनिकाये प्रथमो व्यन्तरेन्द्रः । भग कारुण्यं-अनुकंपा, दीनानुग्रहः । त० ७-६ ।। १५७ । तृतीयप्रथमप्रहरादिः । विपा० ६६ । पिशाचेन्द्रः । कारुय-कारुक:-वरुटच्छिम्पकादिकः । प्रश्न ३० । जीवा० १७४ । तमतमापृथिव्यां प्रथमो महानिरयः । कारल्लक-वल्लीविशेषफलम् । अनुत्त० ६ । प्रज्ञा०८३ । सप्तमः परमाधार्मिकः । सूत्र० १२४ । आव० कारोडिआ-कारोटिकाः, कापालिकाः, ताम्बूलस्थगी . ६५० । पञ्चदशसु परमाधार्मिकेषु सप्तमः । उत्त०६१४ । वाहका वा। जं० प्र० २६७ । कापालिकाः । भग० कालानुयोगः । गणितानुयोगश्चेत्यर्थः । दश० ४ । तृतीया ४८१ । पौरुषी । बृ० प्र० ६८ अ । अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थकारोडिय-कारोटिकः । आव० १६१ । कारोडिकः ।। भागरूपः । सूर्य० १ । अष्टाशीत्यां महाग्रहे षट्पञ्चाकापालिकः । ताम्बूलस्थगिकावाहको वा । औप० ७३ ।। शत्तमः । जं० प्र० ५३५ । कलनं-काल: कलासमूहो कार्तिक:-रोहितकेशचियभिन्नो मुनिः । सं० । वा । आव०४६५, ५६३ । श्वा । स्वाध्यायकालः । मरकात्तिकश्रेष्ठी-शक्रस्य पूर्वभवः । भग० ३२२ । णम् । आव० २७५ । कोणिकबन्धुः। आव० ६८३, कार्पटिकः-दीनकृपणः । दश० २६० । पिण्ड ० १४०। । ६८४ । कोणिकस्य दण्डनायकः । आव० ६८४। काल:कार्मग्रन्थिकपरिभाषा कलासमूहो वा कालः । नि० चू० प्र० ५ आ। स्थितिः, कार्मग्रन्थिका । प्रज्ञा० ३६१।। प्रमाणं वा । ठाणा० ७६ । मरणं, मारणान्तिकसमकार्मणं-लक्षणतः संवत्सरं कार्मणं, यस्य' ऋतुसंवत्सरः धातः । भग० ६५० । यः कण्ड्वादिषु पचति वर्णत: सावनसंवत्सरश्चेति पर्यायौ । ठाणा० ३४५ । कालश्च स कालः । परमाधार्मिकसप्तमनाम । सम० २८ । कार्मणबन्धननाम-यदुदयात् कार्मणपुद्गलानां गृहीतानां | अष्टाशीत्यां महाग्रहे अष्टपञ्चाशत्तमः । ठाणा० ७६ । गृह्यमाणानां च परस्परं सम्बन्धस्तत्कार्मणबन्धननाम । पिशाचेन्द्रः । ठाणा० ८५ । ज्ञाता० २५२ । वेलम्बे ( २८५ ) 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित. [ कालनिषोथं न्द्रस्य लोकपालः । प्रभञ्जनस्य लोकपालः । प्रथमो वायु- कालकाचार्यः-गुणननिमित्तमनुयोगे द्रष्टान्तः । ६० प्र० कुमारः । ठाणा० १६८ । प्रथमस्य वडवामुखपाताल- ३६ अ । प्रवचनप्रत्यनीकशासक: । बृ० तृ० १५६अ, बृ० कलशस्याधिष्ठाता देवः । जीवा० ३०६ । ठाणा० २२६ । तृ० १५५ अ । नवमहानिधौ षष्ठनिधिः । ठाणा० ४४८ । गणितानुयोगः । कालकाल-तत्रैक: कालशब्दो वर्तनादिरूपः । द्वितीयस्तु जं० प्र०२। वर्तमानावसर्पिणीचतुर्थारकविभागरूपः । समय परिभाषया कालो मरणमुच्यते, ततश्च कालस्य मरणं जं० प्र० १३ । प्रस्तावः । उत्त८ ४८६ । मृत्युः ।। क्रियारूपस्य कलनं कालःकाल इत्यर्थः । विशे० ८३७ अ। आचा० १२२ । अवसरादिः । भग० ७७३ । कलनं- अभीष्टवस्त्ववाप्त्यवसरः, कालो, मरणं । मरणक्रियायाः कालः, कलासमूहो वा कालः,तेण वा कारणभूतेन, दव्वा- कलनं काल इत्यर्थः । दश०६। मरणक्रियाकलनं कालदिचउक्कयं कलिज्झतीति काल:-ज्ञायत इत्यर्थः । नि० कालः । आव० २५७ । चू० प्र० ५ आ । कालविषयम् । वृ० प्र० २०१ आ। कालकूट-कालकूटनामक विषम् । उत्त० ४७८ । निरयावलिकानां प्रथमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । निरय० कालखमणो-कालक्षपण:-कालकाचार्यः । उत्त० १२७ । ३ । कल्यते-संख्यायतेऽसावनेन वा कलनं वा कला- कालगज्ज-कालकाचार्यः । नि० चू० प्र० ३०३ अ । समूहो वेति कालः वर्तनापरापरत्वादिलक्षण: । ठाणा० कालगतिल्लतो-कालगतः । उत्त० १६० । ५५ । समयः । ठाणा० १९८ । ठाणा० २०१ । अव- कालगय-कालगत:-मृतः । आव० ६२६ ।। स्थितिः । भग० ५३३ । नारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां कालगहिया-कालेन मृत्युना गृहीताः, पौनःपुन्यमरणभाज सः । नारकादिभवेऽवस्थानं सः । ठाणा० २०१ । सञ्ज्ञा- इत्यर्थः । धर्मचरणाय वा गृहीता:-अभिसन्धितः कालो कालः । ओघ० १२२ । कृष्णवर्णः, कृष्णश्च स्वाध्याय- यैस्ते कालगृहीताः । आचा० १८४ । कालः । विशे० ८५४ । स्वाध्यायकालः । शुना । मर- कालग्गं-कालाग्रं-अधिकमासकः । यदिवाऽग्रशब्दः परिमाणम् । आव० २७५ । सुभिक्षदुभिक्षादिः कालः । आव० णवाचकस्तत्रातीतकालोऽनादिरनागतोऽनन्तः सर्वाद्धा वा। ८३७ । प्रक्रमात् पतनप्रस्तावः । उत० ३३४ । कालः । आचा० ३१८ । दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणः । भग० २६२ । विमानविशेषः । कालग्गहो-कालग्राही । व्य० द्वि० २५२ अ । सम० ३५ । आमलकल्पानगर्या गृहपतिविशेषः । कालव- - कालचक्क-कालचक्र । आव० २१७ । तंसकविमाने सिंहासनम् । ज्ञाता० २४७ । मरणधर्मः । | कालचारी-कालचारिणी-एतादृशी संयती । कालचारिजं० प्र० १५८ । दोर्घकालिकसंज्ञा । विशे० २८१ । श्रमणीयुक्तः । ओघ० ५७ । मरणम् । दश० ६। विशे०८३७ ।विपा०८० । क्षीयमाणादि- कालच्छेदे-कालपर्यन्ते । ओघ० २१३ । लक्षणः । दश० ११५ । कूणिक राज्ञो भिन्नमातृको भ्राता। कालण्णाण-कालज्ञान-सकलज्योतिःशास्त्रानुबन्धिज्ञानम् । भग० ३१६ । षष्ठो निधिविशेषः । जं० प्र० २५८ । जं० प्र० २५८ । गणित: । आव० २६६ । कालदोस-कालदोष:-अतीतादिकालव्यत्ययः । सत्रस्य द्वाकालए। जीवा० ३७० । त्रिंशददोषे एकविंशतितमः । आव० ३७४ । अनु० कालखी-कालम्-अनुष्ठानप्रस्ताव काङ्गत इत्येवंशीलः २६२ । कालकांक्षी । उत्त० २६६ । कालधम्म-कालो-मरणं तल्लक्षणो धर्म:-पर्यायः कालधर्मः । कालक-विद्याप्रदानाय प्रशिष्यसकाशमागत आचार्य विशे० १००३ । विशेषः । आव० ५२३ ।। | कालधम्मु-कालधर्म:-मरणः । ठाणा० १४३ । कालकरणं-चन्द्राऽऽदित्यादिज्योतिषिकदेवगतिविभिषेण यद कालनिषीथं-कृष्णरजन्योः यत्र वा काले निषीथं व्याख्याभवति तत् । विशे० १२७५ । यत इति । आचा० ४०८ । (२८६ ) 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालपएसे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कालसोयरि कालपएसे-कालप्रदेशः-एकादिसमयः । प्रज्ञा० २०२। कालवत्तिणि-कालवत्तिनी-काले-भोगकाले यौवने वर्तत कालपक्ख-कृष्णपक्षः । आव० ३४६ । इति । अन्त० १२ । कालपरियाए-मृत्युरवसरोऽत्रापि ग्लानावसरेऽसावेव काल- कालवादी-अस्ति जीव: स्वतो नित्यश्च कालत इति वादी। पर्याय इति । आचा० २८२ । आव० ८१६ । कालपाले-धरणेन्द्रस्य प्रथमलोकपालः । ठाणा १६७ । कालवादिनः-विद्यते खल्वात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालकालपोराणं-कृष्णपर्वणां उपरितनपत्रसमूहापेक्षया हरिता- वादिनः । सम० ११० । विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन लवत्पिञ्जराणां । जीवा० ३५५ । रूपेण न परापेक्षया हस्वदीर्घत्वे इव नित्यश्च कालकालप्रत्यपेक्षणा-उचितानुष्ठान करणार्थ कालविशेषस्य पर्या- वादिनः। ठाणा० २६८ । लोचना । ठाणा० ३६१ । कालवाल-नागकुमारेन्द्रस्य लोकपाल: । भग० ५०४ । कालप्रायश्चित्तं-त्रिविधप्रायश्चित्ते तृतीयम् । बृ० प्र० कालवासी-काले-प्रावृषि वर्षतीति एवंशील:-कालवर्षी । ४८ आ० । काले जिनजन्मादिमहादौ वर्षतीतिकृत्वा । भग० ६३४ । कालभूमी-कालभूमिः-कालमण्डलाख्या भूमिः । आ०७८४। कालवर्षी-अवसरवर्षीति । ठाणा० २७० । कालभेदः-अतीतादिनिर्देशे प्राप्ते वर्तमानादिनिर्देशः । कालवेसि-जितशत्रुपुत्रः शृगालभक्षितः । म० २० । ठाणा० ४६६ । कालवेसिय-कालवेसिकः । मथुरायां कालाभिधवेश्यायाः कालभोइ-जो मज्झण्हे भुंजइ अणथमिए वा। नि० चू० पुत्रः । उत्त० ६२० । तृ० ३८ आ० । कालशौकरिकः-निरुपक्रमायुषि द्रष्टातः । भग० ७६६ । कालमण्डला-कालभूमिः 1 आव० ७८४ । नरकादिकुगतिप्राप्तौ द्रष्टान्तः । उत्त० २७२ । कालमरण-यस्मिन् काले मरणमुपवर्ण्यते क्रियते वा । कालसंजोग-कालसंयोगः-समयक्षेत्रमध्ये आदित्यादिप्रकाउत्त० २२६ । शसम्बन्धलक्षणः । ठाणा० ३५६ । कालमहं-कालमहत्-अनागताद्धा । उत्त० २५५ । कालसंदीवो-कालसन्दीपकः । आव० ६८६ । कालमासा-मासाभेदः । ज्ञाता० १०७ । कालसंधिय-कालसन्धिता-काले स्वस्वोचिते सन्धानं सन्धा कालमासिणी-कालमासवती-गर्माधानान्नवममासवती ।। कालसन्धा सा सञ्जातैषामिति । जीवा० २६५ । . दश० १७१ । नवमे मासे गब्भस्स बद्रमाणस्स। दश० कालसंयोगो-वर्तनादिकाललक्षणानुभूमिः मरणयोगो वा। चू० ७६ । ठाणा० १३३ । कालमासे-कालस्य-मरणस्य मासः। उपलक्षणं चैतत्पक्षाहो- कालसमए-कालसमयः । सूर्य० ६० । कालेन-तथाविधे रात्रादेस्ततश्च कालमासे-मरणावसर इतिभावः। ठाणा०६६ नोपलक्षितः समय:-अवसरः कालसमयः । सूर्य० २९४ । कालमिगपट्ट-कालमृगपट्ट:-कालमृगचर्म । जं० प्र०१०७। कालसिरी-कालगृहपतेर्भार्या । ज्ञाता० २४८ । जीवा० २६६ । कालसीमा-तस्यामेव सार्द्धत्रयस्त्रिंशति त्रिशतागुणितायां कालमियचम्म-कालमृगचर्म । ज्ञाता० २२० । १००५ सप्तषष्ट्या हतभागायां यल्लब्धं तदेषां कालसीमा। कालमुही-कृष्णमुखी-उपद्रवकारिण्या विशेषणम् । ओघ० । सम० ८० । कालसुणगो-कालसुनका:-कालश्वानः । जीवा० २८२ । कालमुहे-कालमुखः । म्लेच्छविशेषः । जं० प्र० २२० । कालसूरियं-कालशौकरिक, श्रेणिकस्य नरकनिवारणे द्रष्टाकालमूढो- । नि० चू० द्वि०४१ आ। न्तः । आव० ६८१ । कालडिसगभवणे-चमरचञ्चाराजधान्यां भवनम्। ज्ञाता. कालसोयरि-विनयबहुमानचतुर्भङ्ग्यां चतुर्थे द्रष्टान्तः । . २४७ । नि० चू० प्र० ८ अ । (: २८७), 2010_05 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालसौकरिकः ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ काली % 353 कालसौकरिकः-नामविशेषः । सूत्र० १७८ । महदाप- विशेषः । औप० ७१ । भग० ३२२, ४८१ । गतोऽपि स्वत: महदापद्गतेऽपि च परे आमरणादसञ्जाता- कालालोणे-कृष्णलवणं-सैन्धवलवणपर्वतैकदेशजम् । दश० नुतापः । आव० ५६० । अभव्यकुमुदम् । बृ० प्र० १८८ ।। कालसौकरिकादि: । सूत्र० १२२ । कालावभासे-कालावभासः, कालदीप्तिर्वा । भग० २६६ । कालहत्थी-कालहस्ती कलम्बुकायां प्रत्यन्तिकः । आव० कालावीचिमरणं-यथाऽऽयुष्ककाले मरणम् । उत्त०२३१ । २०६ । कालास -पापित्यीयः । भग० १९ । प्रथमकालय-कालहत:-ग्रामेयकविशेषः । आव० ५५४ ।। शतकगतद्रष्टान्तः । भग० ३२७ । कालहेसि-काले-अराजकानां राजनिर्णयार्थके अधिवासना- | कालिगं-कालिङ्गम् । प्रज्ञा० ३७ ।। दिके समये हेषते शब्दादयतीत्येवंशीलं कालहेषि । ज०प्र० कालिगी-वल्लीविशेषः । भग०८०३। आचा०५७। प्रज्ञा०३२। २३७ । कालिकाचार्य:-गर्दभिल्लस्य शिक्षादाता । नि० चू० प्र० काला-कालार्थ एकादशः । भग० ५११ । पिशाच ३०४आ,२५६ । अशठाचीर्ण द्रष्टान्तः । ७० त० १४ अ। भेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । मथुरायां जितशत्रुराज- कालिगि-संज्ञाविशेषः । विशे० २७७ । वेश्या । उत्त० १२० । काला सन्निवेशः । सिंहविद्युन्मती कालिञ्जर-नगविशेषः । उत्त० ३८३ ।। गोष्ठीस्थानम् । आव० २०१ । कालिनी-आद्रदेवता, रौद्रीत्यपरनाम । जं० प्र० ४६६ । कालाइक्कमो-कालस्यातिक्रमः, कालातिक्रमः । आव० कालिपोरेति-काकजनावनस्पतिविशेषपर्व । अनुत्त० ४ । ८३८ । कालियं-काले-प्रथमचरमपौरुषीलक्षणे कालग्रहणपूर्वकं पठ्यकालाएस-कालप्रकारः । कालतः । भग० ८०६ ।। त इति कालिकम् । विशे० ६२७ । दिवसनिशाप्रथमपश्चिकालागुरु-गन्धद्रव्यविशेषः । सम० ६१ । कृष्णागुरुः । मपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्, तत्कालेन निवृत्तं कालिकम् , प्रश्न० ७७ । गन्धद्रव्यविशेषः । कृष्णागुरुः । सम० १३८ । उत्तराध्ययनादि । ठाणा० ५२ । नंदी० २०४ । कृष्णागुरुः । जं० प्र० ५१ । सुगन्धिद्रव्यविशेषः । जीवा० कालेन निर्वृत्तं कालिकम्,प्रमाणकालेनेति भावः । दश०२ । १६०,२०६ । प्रज्ञा०८७ । कालियदीवे-द्वीपविशेषः । ज्ञाता० २२८ । कालाणुट्टाई-यद्यस्मिन् काले कर्तव्यं तत्तस्मिन्नेवानुष्ठातुं | कालियपुत्ते-कालिकपुत्रः। स्थविरविशेषः । भग० १३८ । शीलमस्येति कालानुष्ठायी, कालानतिपातकर्तव्योद्यतः । कालियसुयं-इहैकादशाङ्गरूपं सर्वमपि श्रुतं कालग्रहणादिआचा० १३२ । विधिनाऽधीयत इति कालिकम् । विशे० ९३१ । कालातिवंत-काल-दिवसस्य प्रहरत्रयलक्षणं अतिक्रान्तः कालिकश्रुतं एकादशाङ्गरूपः । भग० ७६२ । कालिकश्रतं एकादशाङ्गरूप कालातिक्रान्तः । भग० २६२ । कालियसुयमाणुओगिए-कालिकश्रुतानुयोगे-व्याख्याने निकालातिवंता-ऋतुबद्धे काले वर्षाकाले च यत्र स्थितास्त युक्ता:-कालिकश्रुतानुयोगिका:, कालिकश्रुतानुयोग एषां स्यामृतुवद्धे काले मासे पूर्णे वर्षाकाले चतुर्मासे पूर्णे यत् | विद्यते इति कालिकश्रुतानुयोगिनः । नंदी० ५१ । तिष्ठति सा कालातिक्रान्ता । बृ० प्र० ६३ अ । तृष्णाबु- कालिया-काले सम्भवन्तीति कालिकाः-अनिश्चितकालान्तभुक्षाकालाप्राप्ताः । ज्ञाता० ११३ । रप्राप्तयः । उत्त० २४३ । कालिका-श्रेणिकभार्या । कालापाय-काल इत्यत्रापि कालादपायः कालापायः, काल- आव० ६८७ ।। एव वा । दश० ३६ । कालियावाए-कालिकावातः-प्रतिकूलवायुः । ज्ञाता०१५८ । कालायवसितो-कालादवैश्यः । व्य० द्वि० ४३२ आ। कालियावायरहिए-कालिकावातरहितः । आव० ३८७ । कालायस-लोहः । जं० प्र० ३७, २३८ । जीवा० १९२। काली-चमरेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी । भग० ५०३ । लोहं । नि० चू० द्वि० ८७ अ । कालायसम्-लोह- काली-अन्तकृद्दशानां अष्टमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । ( २८८ ) 2010_05 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालीगमए ] । ज्ञाता० २५१ । अन्त० २५ । देवीविशेषः । निरय० १६ । धर्मकथायाः प्रथमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । ज्ञाता० २४७ । कालगृहपतिकालश्रियोः दारिका । ज्ञाता० २४८ । कालीगमएकालीपव्वंगसंकासे- कालीपर्वाङ्गसङ्काशः काली-काकजङ्घा तस्याः पर्वाणि स्थूराणि मध्यानि च तनूनि भवन्ति ततः, कालीपर्वाणीव पर्वाणि - जानुकूर्परादीनि येषु तानि कालीपर्वाणि, तथाविधैरङ्गः-शरीरावयवैः सम्यक्काशते - तपः श्रिया atta इति कालीपर्वभिर्वा सङ्काशानि - सदृशानि अङ्गानि अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ चू० तृ० ३८ आ । कालुणितेति - कारुण्यं - शोकः । ठाणा० ४६६ । कालुद्दे से - कालोद्देशः । आव० ८२२ । कलुसभावो - कलुषभावः कालुष्यम् - दुष्टाभिसन्धिरूपम् । दशं० २१२ । १३५ । दश० चू० ५७ । arata - कावडिवाहकः । अनु० ४६ । यस्य सः । उत्त० ८४ । कालुट्ठिती-उग्गए आदिच्चे दिवसतो जो गच्छति । नि० कावोयलेस्सा - कापोतस्य पक्षिविशेषस्य वर्णेन तुल्यानि य द्रव्यानि धूम्राणि इत्यर्थः, तत्साहाय्याज्जाता कापोतलेश्या मनाक् शुभतरा सा लेश्या येषां ते । ठाणा० ३२ । काशा - शर्करा । प्रज्ञा० ३६६ । काशिमण्डलं- काशिदेशः । उत्त० ४४८ | काश्यपादीनि - गोत्रविशेषः । सम० ११२ । काष्टपादुके - मौजे । सूत्र० ११८ । काष्टमूलं - चणकचवलकादिकं द्विदलम् । वृ०प्र० २६७ आ । काष्टमूलरसं - चणकच वलकादिद्विदलं तदीयेन रसेन यत्परिमाणितम् । पानकम् । बृ० प्र० २६७ आ । काठमुद्रा। ठाणा ० ५१२ । काष्ठश्रेष्ठी - पारिणामिकीबुद्धौ दृष्टान्तः । नंदी० १६६ । श्रमणविशेषः । बृ० द्वि० ६४ अ । काष्ठाशब्दः - प्रकर्षवाची । सूर्य० १३ । कासंका से - कासंकषः । आचा० १३६ । कास - कासः - रोगविशेषः । भग० १६७ । गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । अष्टाशीती महाग्रहे सप्तचत्वारिंशत्तमः । कालुस्से - कसाउप्पत्ती । नि० ० प्र० ३१ अ । कालेख–कालेयकम् । सं० । कालेयकः । आव० ६५१ । कालेण–कालेन-प्रथमपश्चिमपौरुषीलक्षणेन हेतुभूतेनाघी यन्ते । ठाणा० १२६ । दुष्षमसुषमादिना विशिष्टेन कालेन सतोत्पत्त्यादिकमभूत् । आचा० ४२५ । कालेयक। सम० २९ । कालोदाइ - कालोदधिः - अन्ययूथिकः । भग० ३२७, ३२३ । रजन्यां भिक्षाग्राही बौद्धसाधुः । बृ० द्वि० ९३ अ । कालोदायी-गुणशिलचैत्यनिकटवर्ती अन्ययूथिकः । भग० ७५० । कालोय - धातकीखण्डपरितः शुद्धोदकरसास्वादः कालोदः समुद्रः । अनु० ९० । धातकीखण्डानन्तरं समुद्रः । प्रज्ञा० ३०७ । कालोवक्कम - कालस्योपक्रमः कालोपक्रमः । यदिह नालिकादिभिरादिशब्दात् शङ्कुच्छायानक्षत्रचारादिपरिग्रहस्तैः कालउपक्रम्यते स कालोपक्रमः । यत्तु नक्षत्रादिचारैः कालस्य विनासनं स वस्तुनाशे कालोपक्रमः । अनु० ४८ । कालोवाय- कालोपायः - अपायभेदः । दश० ४० । कावालिए- अस्थिसरजस्क: । बृ० द्वि० ६० आ । कापा( अल्प० ३७ ) 2010_05 [ कासवे लिक : - वृथाभागी | आव० ६२८ । काविट्ठ - महाशुक्रकल्पे विमानविशेषः । सम० २७ । काविलिज्ज - कापिलीयं, उत्तराध्ययनेष्वष्टमध्ययनम् । उत्त० २८६ । काविलियं - उत्तराध्ययनेषु अष्टममध्ययनम् । सम० ६४ । काविसायण - कपिशायनं मद्यविशेषः । जं० प्र० १०० । कावो - कावः - कापडिवाहकः । जीवा० २८१ । कावोडी - कापोती - तुलाकारं पानीयानयनसाधनम् । दश० ठाणा० ७६ । कासगो - कर्षकः । नि० चू० द्वि० १४३ आ । कासणं-काशनं - खाट्करणम् । ओघ० ९२ । कासय-कर्षक:-कृषीवलः । उत्त० ३६१ । कासरनालियं सीवणिफलं । दश० चू० ८६ । कासवं - काश्यपस्यापत्यं काश्यपः तं काश्यपगोत्रम् । नंदी० ४५ । कासवे - स्थविरविशेषः । भग० १३८ । कश्यपः - अन्त( २८६ ) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कासवए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ किंचिच्चसूरिवचन कृद्दशानां षष्ठमवर्गस्य चतुर्थ मध्ययनम् । अन्त० १८ । काहला-खरमुही । जं० प्र० १६२ । तस्स मुहत्थाणे खरराजगृहे गाथापतिः । अन्त० २३ । उत्तराफालगुन्याः | महाकारं कट्रमयं मुहं कज्जति खरमुखी। नि० चू० तृ० त्रनाम । जं० प्र० ५०० । काश्यपगोत्रो महावीरः। ६२ अ । वाद्यविशेषः । ठाणा० ६३ । उत्त० ८३ । ऋषभस्वामी वर्धमानस्वामी वा । सूत्र० काहामि-करिष्यामि । उत्त० ४३३ । । ६८। कौशम्ब्यां राजबहुमतो ब्राह्मणः । उत्त० २८६ । काहारसंठिते । सूर्य० १२६ । नापितस्य सम्बन्धिक्षुरगृहम् । तृ० प्र० १८४ अ। काहारो-जलवाहकः । दश० चू० ५७ । कासवए-काश्यपः-नापितशिल्पः । आव ० १३२ । काहावणं-कार्षापणम् । उत्त० २७६ । कर्षापणः-द्रम्मः । कासवग-काश्यपः-नापितः । भग० ४७२ । सूत्र० ११६ । प्रश्न० ३० । कासवगा-षष्ठीश्रेणिविशेषः । जं० प्र० १६३ । काहितो-सज्झायादिकरणिज्जे जोगे मोत्तुं जो देसकहादिकासवगोत्ते-काश्यपगोत्रम् । सूर्य ० १५० । आर्यजम्बु- कहीतो कहेति सो काहितो । नि० चू० द्वि ६१ आ । नामानगारस्य गोत्रम् । ज्ञाता० १३ । काहिया-धम्मत्थकामेसु अण्णाओ विकहाओ कहेंता कहिया कासवनालियं-श्रीपर्णीफलम् । आचा० ३४६ । दश० भवंति । नि० चू० तृ० ६ अ । १८५ । काहीआ-कथिका। ग०।। कासवसंडियट्ठाण-यस्तु ग्राम एव त्रिकोणतया निविष्ट: काहीउ-कथकः । ओघ० १५० । वृक्षा वा त्रयो यस्य बहिस्त्र्यस्राः स्थिताः एकतो द्वौ काहिए- । ओघ १५० । पासणिए । नि०चू०प्र०२६२ अ। अन्यतस्त्वेकः काश्यपसंस्थितः । वृ० प्र० १८४ अ । काहीति-करिष्यति । ठाणा० ४६६ । कासवा-कशे भव: काश्यः-रसस्तं पीतवानिति काश्यपस्त- कि-प्रश्ने क्षेपे वा । आचा० १६५ । प्रश्ने । ज्ञाता० दपत्यानि काश्यपाः । ठाणा० ३६० । १४६ । क्षेपप्रश्ननपुंसकव्याकरणेषु । आव० ३७६ । कासवी-पञ्चमतीर्थकरस्य प्रथमा शिष्या । सम० १५२ । किकमे-किंकमे, अन्तकृद्दशानां षष्टमवर्गस्य द्वितीयमध्ययकासाइअ-कषायेण-पीतरक्तवर्णाश्रयरञ्जनीयवस्तुना रक्ता नम् । अन्त० १८ । काषायिकी शाटिकेत्यर्थः । जं० प्र० १८६ । किकम्मय-किंकर्मकः । आव० ४०६ । कासायं-काषायिकं-वस्त्रविशेषः । आव० ३५२ । किंकर-भार्यादेशकर:-अन्वर्थः । पुरुषविशेषः । पिण्ड० कासि-काशीजनपदो यत्र वाणारसी नगरी। ज्ञाता० १२५।। १३५ । किङ्करा:-प्रतिकर्मपृच्छाकारिणः । जं० प्र० २६३ । कासिभूमि-काशीभूमिः-काश्यभिधानो जनपदः । उत० । किङ्करा-किङ्करभूताः । प्रज्ञा० ८६ । जीवा० १६० । प्रतिकर्मपृच्छाकारिणः । भग० ५४७ । आदेशसमाप्तौ पुनः कासी-काशी-जनपदविशेषः । ज्ञाता० १४१ । प्रज्ञा० ।। प्रश्नकारी । प्रश्न० ३६ । वाणारसी, तज्जनपदोऽपि काशी। भग० ३१७ । अष्टा-किकिणी-किडिणी, क्षुद्रघण्टिका । भग० ३२२ । प्रश्न शीतौ महाग्रहे सप्तचत्वारिंशत्तमः । भग०६८० । ७५ । क्षुद्रघण्टा घण्टिका वा। जं० प्र० ५२६ । कासीअ-अकार्षीत् । उत्त० ३२२ । किकिन्धपुरं-आदित्यरथराजधानी। प्रश्न० ८६ । कासीस-रागद्रव्यः । ज्ञाता० २३१ । किसाइंति-अथ किं पुनरित्यर्थः । भग० १४६ । कासो-इक्खु । दश० चू० ५८ । किगिरिडा-त्रीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । काह-कदा । भग० ११६ । किचनं-किञ्जनं-काञ्चनं-हिरण्यादि, अल्पमपि वा । आव० काहए-अकथयत् । उत्त० ४८० । काहरो-कापोतिक:-जलवाहकः । दश० १३५ ।। किचि-काश्चिः मूशलमूलस्थलोहकटी । पिण्ड० १६४ । काहलं-फल्गुप्रायम् । वृ० प्र० ४५ आ। किचिच्च सूरिवचनं ठाणा० २०३ । ( २६०) 2010_05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किचूणा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०२ [ किच्चणं किचूणा-किञ्चिदूना-एकत्रिंशत्कवला । ठाणा० १४६ । किंपुरुषोत्तमाः-किन्नरभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । ऊनोदरतायाः पञ्चमो भेदः । इत्थं पञ्चविंशतेरारभ्य याव- | किंभया:-कस्माद् भयं येषां ते, कुतो बिभ्यतीत्यर्थः । देकत्रिशत्तावत्किञ्चिदूनोदरता । दश० २७ ।। ठाणा० १३५ । किंचूणोमोअरिआ-किञ्चिन्न्यूनावमोदरिका - एकत्रिंशतो किमए-किमय:-किविकारः । जीवा० ११० । द्वात्रिंशत एकेनोनत्वात् । औप०३८ । किमज्भ-किंमध्यं-किशब्दस्य क्षेपार्थत्वात् असारम् । प्रश्न किणा- . । प्रज्ञा०३०८ ।। १३७ । किणापउल-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४।। किलेसे-का-कृष्णादिनामन्यतमा लेश्या येषां ते किलेश्या। किते-तद्यथार्थः । औप०५४। तद्यथा। जं० प्र० १६२। भग० १८८ । प्रश्न० १५६ । किंभूतान् । ज्ञाता० २३० । किशुककुसुम-पलासकुसुमम् । जीवा० १६१ । कस्तुघ्नं-एकादशमं करणम् । जं० प्र० ४६३ । किसंठिय-किसंस्थितं-किमिव संस्थितम् । जीवा० ३७८ । किंनए-किण्वं-अनन्तजीववनस्पतिभेदः । आचा० ५६ । किमिव संस्थिताः किंसंस्थिताः । जीवा० १०४ । किनर-किन्नरेन्द्रः । जीवा० १७४ । किन्नर:-दक्षिणनि । कि संस्थितं-संस्थानं यस्याः यदिवा कस्येव संस्थितंकाये पञ्चमो वाणव्यन्तरेन्द्रः । भग०१५८ । किन्नरभेदवि-: संस्थानं यस्याः सा किंसंस्थिता । सूर्य ० ७३ । शेषः । प्रज्ञा० ७०। वाणव्यन्तरभेदविशेषः । प्रज्ञा०६६ । | किसुकफुल्ल-किंशुकफुल्लं-पलासकुसुमम् । ठाणा० ४२० । चमरेन्द्रस्य रथानीकाधिपतिर्देवः । ठाणा० ३०२,४०६ । किसुयपुप्फरासी-किंशुकपुष्पराशिः । प्रज्ञा० ३६१ । इन्द्रनाम। ठाणा० ८५। किन्नर:-वाद्यविशेषः । देववि- किइ-कृति:-अवनामादिकरणं, मोक्षायावनामादिचेष्टव वा। शेषो वा । प्रश्न० ७० । देवविशेषः । भग० ४७८ । आव० ५११ । किनरकण्ठः-किन्नरकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः । जीवा० किइकम्म-कृतिकर्म-विश्रामणा । आव० ११८ । कृतिकर्म, २३४। वन्दनं, कार्यकरणम् । भग० ६३७ । वन्दनम् । आव० किनरी-देवीविशेषः । मैथुने द्रष्टान्तः । प्रश्न०६०। .८० । सम० २३ । ओघ० २२ । पादप्रक्षालनादि । ओघ० किन्नरोत्तमाः-किन्नरभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७०। । ६३ । द्वादशावर्तवन्दनम्। ओघ० १५६ । किंपगारे-किप्रकार:-किस्वरूपः । जीवा०६५। किई-कृतिः-द्वादशाव दिवन्दनम् । उत्त० १७ । कृतिकिपत्तियं-क: प्रत्ययः कारणं यत्र तत् किम्प्रत्ययम् । भग० कर्म वन्दनम् । दश० २४१ । १८१, १३८ । किच्च-कृत्यः-आचार्याणां वैयावृत्त्वम् । आव० २६० । किंपभासई-कि-कुत्सितं प्रकर्षण भाषते इति किंप्र- कृति:-वन्दनक-तदर्हतीति कृत्यः । उत्त० ५४ । कृत्यं, भाषते । उत्त० ४४३ । आसेवनीयं कालस्वाध्यायादि । आव० ५७३ । कृत्यं किंपाकफल:-फलविशेषः । आचा० १६४ । उचितानुष्ठानम् । उत्त०६५ । आचार्याद्यभिरुचितकाकिंपाग-किम्पाकः वृक्षविशेषः । उत्त० ६२८, ४५४ । र्यम् । दश० २५० । कृत्य:-आचार्यादिः । दश० २५० । फल विशेषः । आव० ३८५ । आचार्यः । दश० २३५ । माया । नि० चू० प्र० ७७ किंपुरिसा-वाणव्यन्तरभेदविशेषः। प्रज्ञा०६६ । किंपुरुषः- | आ । उत्तरनिकाये पञ्चमो वाणव्यन्तरेन्द्रः । ठाणा० ८५,३०२। किच्चकर-ग्रामकृत्ये नियुक्तः । ग्रामव्याप्ततकः । नि० चू. भग० १५८ । किंपुरुषः-किन्नरेन्द्रः । जीवा० १७४ । । प्र० १७६ आ। कृत्यानि कुर्वन्ति-अनुतिष्ठन्ति कृत्यकरा:किंपुरुषकण्ठः-किंपुरुषकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः । जीवा० नियोगिनः । उत्त० ३०५ । ग्रामचिन्तानियुक्तः । बृ० २३४ । प्र० ३१३ आ। ग्रामकृत्ये नियुक्तः । बृ• तृ०३३: अ । किंपुरुषा:-किन्नरभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । । किच्चणं-तत्र दिवसे क्षणिका विमुक्तकृषिलवनव्यापारा । ( २९१ ) 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किच्चाइ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ किडिभं ओघ० ७२ । कर्त्तनम् । बृ० प्र० २४१ आ। निष्पन्नं वस्त्रम् । बृ० द्वि० २०१ आ। किर चाइ-कर्तव्यानि यानि प्रयोजनानीत्यर्थः, अथवा किट्टिसिय-किल्विषिका भाण्डादय इत्यर्थः । भग० ४८१ । कृत्यानि नैत्यिकानि । ज्ञाता० ६१ । किट्टी-किट्टिजमवयवनिष्पन्नः। ठाणा० ३३८ । किच्चिरस-कियच्चिरेण । आव० ५५६ । किट्टीया-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । किरचोवएसगो-कृत्योपदेशिक: कृत्यं-कर्तव्यं सावद्यानु- किट्टेइ-कीर्त्तयति-पारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः कृत्यं ष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या-गृहस्थास्तेषामुपदेश:-संरम्भसमार- तच्च मया कृतमित्येवं कीर्तनात् । भग० १२५ । ज्ञाता० म्भारम्भरूपः स विद्यते यस्य सः । कृत्यं-करणीयं पचन- | पाचनकण्डनपेषणादिको भूतोपमर्दकारी व्यापारस्तस्योपदे- विट्रं-वाहितं । नि० चू० प्र० २२ अ। कृष्टम् । आव० शरतं गतीति कृत्योपदेशगः कृत्योपदेशको वा। सूत्र० ६३० । कृष्टं कर्षणं लभ्यग्रहणायाकर्षणम् । जं० प्र० १६४। किच्छं-कृच्छम् । आव० ३८४ । | किट्टि-देवविमानविशेषः । सम० ६ । व स्पतिविशेषः । किच्छदुवख-कृच्छदुःख-गाढशरीरायासः । भग० ४७०।। भग० ८०४। किच्छपाणो-कृच्छ्रप्राणः । उत्त० ११८ । | किटिकूडं-देवविमानविशेषः । सम० ६ । किच्छोवगयप्पाण-कष्टगतजीवितव्यः । ज्ञाता० २११। | किट्टिघोसं-देवविमानविशेषः । सम० १२ । किटिभ-क्षुद्रकुष्ठविशेषः । जं० प्र० १७० । नवमं क्षुद्र- काट्ठजुत्त-देवावमानविशेषः । सम०६ । कुष्ठम् । प्रश्न० १६१ । आचा० २३५ । -देवविमानविशेषः । सम० ।। किट्ट-लोहादिमलः । आचा० ३२२ । अच्युतकल्पे विमान | कि टिप्पभ-देवविमानविशेष: । सम०६। विशेषः । सम० ३६ । ऊर्णाद्यवयवाः तन्निष्पन्नं वस्त्रम् । अनन्तकायविशेषः । भग० ३००। बृ० द्वि० २०१ आ। वत्तं-देवविमान विशेषः । सम०६। किट्टइत्ता-कीर्तयित्वा-स्वाध्यायविधानतः संशुद्धय । उत्त० -देवविमानविशेषः । सम०६। ५७२ । गुरोविनयपूर्वकमिदमित्थं मयाऽधीतमिति निवेद्य । -देवविमानविशेषः । सम०६। उत्त० ५७२ । किट्रिसाविया- निचू०प्र० ३२६ अ। किट्टति-अपगच्छति । बृ० तृ० २३३ अ। किदिसिंग-देवविमानविशेषः । सम० ६ । किट्टा-रोमविसेसा । नि० चू० प्र० १२६ अ । किढिसिटुं-देवविमानविशेषः । सम०६ । किट्टिअं-कीत्तितम्-भोजनवेलायाममुकं मया प्रत्याख्यातं तत् किटठुत्तरडिसगं-देवविमानविशेषः । सम०६ । पूर्णमधुना भोक्ष्य इत्युच्चारणेन । आव० ८५१ । किठी-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । किट्टिका-साधारणबादरवनस्पतिकायिकभेदः । जीवा०२७ । किडए-पाककुम्भी। नि० चू० प्र० ३०३ अ। ट्रिय-कीत्तितं-अन्येषामुपदिष्टम् । प्रश्न०११३ । कीत्ति-[ किडयं । नि० चू० प्र० १०६ आ । ता-पारणकदिने अयमयं चाभिग्रहविशेषः कृत आसीद् अस्यां वि.डिकिडिया-किटिकिटिका-निर्मासास्थिसम्बन्ध्युपवेशनाप्रतिमायां स चाराधित एवाधुना मुत्कलोऽहमिति गुरुसमक्षं दिक्रियासमुत्थः शब्दविशेषः । भग० १२५ । निर्माकीर्तनादिति । ठाणा० ३८८ । सास्थिसम्बन्धी उपवेशनादिक्रियाभावीशब्दविशेषः । ज्ञाता किट्टिसं-उर्णादीनां यदुद्धरितं किट्टिसं तन्निष्पन्नं सूत्रमपि ७६ । ऊर्णादीनामेव द्विकादिसंयोगतो निष्पन्नं सूत्रम्, उक्तशेषा- किडिकिडीभूयं- । विपा० ७६ । श्वादिलोमनिष्पन्नं बा किट्टिसम् । अनु० ३५। कुतवो किडिभं-कुट्ठभेदो । नि० चू० द्वि० ६२ अ । जंघासु कालावरक्को किट्टिसं । नि० चू० प्र० १२६ अ । ऊर्णाद्यवयव- भं रसियं वहति । नि० चू० प्र० १२७ आ। शरीरैक (:२६२ ) 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किडिम(म) ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ . [ कित्तइस्सामि देशभाविकुष्ठभेदः । बृ० द्वि० २२२ अ। रोगविशेषः ।। २३१ अ । नि० चू० प्र० १८८ आ । किण्णं-कानि-किंविधानि । भग० १०६ । किडिम(भ)-किडिम:-क्षुद्रकुष्ठविशेषः । भग० ३०८। । किण्णरछाया-किन्नरछाया-छायागतिभेदः । प्रज्ञा० ३२७ । किडिया ।नि० चू० प्र० १२२ अ। किण्णा लद्धा-केन हेतूना लब्धा-भवान्तरे उपाजिता । किडुति-अन्तर्भूतकारितार्थत्वादन्यान् क्रीडयन्ति । भग० ज्ञाता० २५० । किपणे-केन हेतुना । भग० १६३ । किड्डा-पाशककपर्दकैः क्रीडन्ति । ओघ० ५६ । क्रीडा किण्ह-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२। कृष्णवर्ण:-अञ्जनवत् प्रधाना दशा क्रीडा, दशदशायां द्वितीयादशा । ठाणा० स्वरूपेण । ज्ञाता० ७८ । साधारणबादरवनस्पतिकाय५१६ । क्रीडा-जन्तो द्वितीया दशा। दश० ८ । द्वितीया- | विशेषः । प्रज्ञा० ३४ । दशा । नि० चू० द्वि० २८ आ । किण्हकेसरे-कृष्णकेशरः--कृष्णबकुल: । प्रज्ञा० ३६२ । जं० किड्डावियाए-क्रीडापिका, क्रीडनधात्री। ज्ञाता० २१६ । प्र० ३२ । किढ-वृद्धः । बृ० द्वि० २५६ आ । किण्हगुलिया-उदायनदासी । नि० वू० प्र० ३४६ आ। कि.ढग-किटक:-वृद्धः । व्य० द्वि० २३४ अ । किण्हचामरज्झय-कृष्णचामरध्वजा कृष्णचामरयुक्ता कि ढिण-वंशमयस्तापसभाजनविशेषः । निरय० २६ । । ध्वजा । जीवा० १६६ । कि ढिन-वंशमयस्तापससम्बन्धीभाजनविशेषः । भग०३२२, किण्हपविखए-कृष्णपाक्षिका-शुक्लानां आस्तिकत्वेन विशु५२० । द्धानां पक्षो-वर्गः शुक्लपक्षस्तत्रभवाः शुक्लपाक्षिकाः तद्विकिढिणसंकाइयं-किढिणं - वंशमयस्तापसभाजनविशेषः, परीतास्तु कृष्णपाक्षिकाः । ठाणा० ६१ । सांकायिकं-भारोद्वहनयन्त्रं किढिणसांकायिकम् । निरय० किण्हपत्ता-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । चतु२६ । रिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । किढिणसंकाइयगं-किढिणं-वंशमयस्तापसभाजनविशेषस्त | किण्हसिरी-षष्ठं चक्रवत्तिनः स्त्रीरत्नम् । सम० १५२ । तश्च तयोः साड्रायिक भारोद्वहनयन्त्रं किढिणसाक्षा- किण्हा-नदीविशेषः । ठाणा० ४७७ । कृष्णा-ईशानदेवेयिकम् । भग० ५१६ । न्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। जीवा० ३६५ । किढिणपडिरुवगं-कठिनप्रतिरूपकं-कढिनं वंशमयस्ता किण्होमासे-कृष्णप्रभः कृष्ण एव वाडवभासत इति कृष्णावपससम्बन्धीभाजनविशेषस्तत्प्रतिरूपकं तदाकारं वस्तु । भासः । ज्ञाता० ४ । कृष्णवर्ण एवावभासते-दृष्ट्णां प्रतिभग० ३२२ । भातीति कृष्णावभासः । ज्ञाता० ७२ ।। किदिदासी-काष्ठिकीदासी । आव० २३७ । कितिकम-वंदणं । नि० चू० प्र०२३८ अ । वेयावच्च । किढ़िया। नि० चू० प्र०१३६ आ। नि० चू० प्र० ८० आ। कृतिकर्म । आव० ७६३ । स्थविरा माता । बृ० तृ० ११४ अ। विस्सामणं-नि० चू० प्र० २१३ अ । कृतिकर्म-द्वादशाकिढी-थेरी । बृ०प्र०१६८ आ। स्थविरा स्त्री। बृ० तृ० । वर्त्तवन्दनम् । ओघ० १३९ । कृतिकर्म-वंदनकं, विश्राम१११ अ । काष्ठिकी। आव० २३७ । णादिकं वा । व्य० द्वि०७२ अ। कृतकर्म-विधामणा । किणा-किञ्चिन्मात्रा । पिण्ड० १७३ ।। व्य० द्वि० १८३ अ। किणिऊणं-क्रीत्वा । आव० १६८ । कितिकम्माति-कृतिकर्माणि-विश्रामणा । व्य० द्वि० किणित्ता-जातिजुंगितविसेसो । नि० चू० द्वि० ४३ आ। १७४ अ । किणिया-किणिका-ये वादित्राणि परिणह्यन्ति वध्यानां कित्तइस्सामि-कीर्तयिष्यामि-प्रतिपादयिष्यामि । दश च नगरमध्ये नीयमानानां पुरतो वादयन्ति । व्य० प्र०) १५ । ( २६३ ) 2010_05 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कित्तणं] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित. [ किमिण कित्तणं-कीर्त्यते-संशब्दयते येन कारयिता तत् कीर्तनं देव- । १३६ । दानकृता एकदिग्गामिनी वा प्रसिद्धिः । औप० कुलादि । प्रश्न० ६५ । १०८ । एकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः । बृ० तृ० ३६ आ। कित्तणयं-कीर्तनं शब्दनम् । आव० १८१ । कित्तोजीवियं-कीत्तिजीवितम् । आव० ४८० । कित्तणा-कीर्तना संशब्दना । आव० ४६२ । कित्तीपुरिसा-कीर्तिप्रधानाः पुरुषाः कीत्तिपुरुषाः । ठाणा० कित्ति-कीतिकूट-केसरिहदसूरीकूटम् । जं० प्र० ३७७।। ४४८ । कीति: एकदिगव्यापी । भग० ६७३ । दश० २५७ । कित्तीपुरिसो-कीर्तिपुरुष: वासुदेवः । आव० १५६ । एकदिग्गामिनी प्रख्यातिनिफलभूता वा। भग० ६४३। कित्तेइ-कीर्तयति-तत्समाप्तौ इदमिदं चेहादिमध्यावसानेषु जातितपोबाहुश्रुत्यादिजनिता श्लाघा । दानसाध्या । सूत्र० । कर्त्तव्यं तच्च मया कृतमिति कीर्तनात् । उपा० १५ । १८२। दानपुण्यफला । आव०४६६ । प्रसिद्धिः । प्रश्न किन्न-कीर्णः क्षिप्तः । ठाणा० ४६४ । ३६ । केसरिहदे देवताविशेषः । ठाणा० ७३ । सर्व- किन्नग्गन्थे-कीर्ण:-क्षिप्तः ग्रन्थो-धनधान्यादिस्तत्प्रतिबन्धो दिग्व्यापी साधुवाद: । ठाणा०. ५०३ । एकदिग्गामिनी वा येन स किर्णग्रन्थः । ठाणा० ४६४ । प्रसिद्धिः । भग० ५४१। एकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः सर्व- उगसंठिओ-आवलिकाबाह्यस्य नवमं संस्थानम् । दिग्गामिनी सैव । ठाणा० १३७ । दानपूण्यफला कित्तिः । जीवा० १०४ ।। ठाणा० १३७ । गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा, एकदेशगामिनी किब्बिस-किल्बिषस्य पापस्य हेतुत्वान्, द्वितीयाधर्मद्वारस्था. पुण्यकृता वा कीत्तिः । प्रज्ञा० ४७५ । टादशं नाम । प्रश्न० २६ । पापाः। बृ० प्र० २१२ आ । कित्ति(त्ती)-चतुर्थवर्गे चतुर्थमध्ययनम् । निरय० ३७ । किब्बिसभावणा-किल्बिषभावना । उत्त० ७०७ । प्रख्यातिः । ज्ञाता० २२० । किब्बिसिआ-किल्बिषिका:-परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिकित्तिकर-दानपुण्यफला कीत्तिस्तल्करणशील: कीत्तिकरः । णो भाण्डादयः । जं० प्र० २६७ । पातकफलवन्तो आव० ४६६ । निःस्वान्धपङ्गवादयः । ज्ञाता० ५६ । किल्बिषं-पापं कित्तिताइं-कीर्तितानि-संशब्दितानि नामतः । ठाणा उदये विद्यते येषां ते किल्बिषिकाः पापाः । ठाणा० १६२ । २६७ । किमंग पुण-किं पुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थम् कित्तिम-कृत्रिमः-योगेन निष्पन्नः । ओघ० १६८ । कृत्रिमः-1 अङ्गेत्यामन्त्रणे यद्वा परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थः । क्रमेण शिल्पिकर्षकादिप्रयोगनिष्पन्नः । जं० प्र० ६६ । निरय० ७ । कित्तिमई-कित्तिमती, कोत्तिसेनसुता ब्रह्मदत्तराज्ञी च । किमाइया-किमादिका-उपादानकारणव्यतिरेकेण किमादिः उत्त० ३७६ । अलोभोदाहरणे श्रावस्त्यामजितसेनाचार्य-- मौलं कारणं यस्याः सा । प्रज्ञा० २५६ । स्य महत्तरिका । आव० ७०१ । किमाई-किमादि:-मौलं कारणम् । प्रज्ञा० २५६ । कित्तिय-कीत्तितं-जनेन समुत्कीर्तितं कीत्तिदं वा । औप० किमाहार-चतुर्दशशते षष्ठोद्देशः । भग० ६३० । ५। कीर्तितः स्वनामभिः प्रोक्तः । आव० ५०७ । किमिकुट्ट-कृमिसंकुलं कोष्टमुदरं कृमिकोष्ठः । व्य० द्वि० कित्तिया-कीत्तिता प्रदर्शिता । आचा० ४२। कृत्तिका- ३५० अ । कृमिकुष्ठ:-रोगविशेषः । आव० ११६ । अग्निभूतेर्जन्मनक्षत्रम् । आव० २५५ । किमिच्छए-क: किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छकः । कित्तिसेणो-कीत्तिसेनः-ब्रह्मदत्तपत्न्याः कीतिमत्याः पिता।। दश० ११७ । उत्त० ३७६ । किमिच्छयं-यो यदिच्छति तस्य तदानं समयत एव किमिकित्ती-कीत्तिः एकदिग्गामिनी । प्रश्र० ८६ । कीत्तिःच्छकम् । आव० १३६ । ख्यातिहेतुत्वात् । अहिंसायाः पञ्चमं नाम । प्रश्न० ६६ किमिण-कृपणः । ठाणा० ३४२ । कृमयः-अशुच्यादिसम्भदानपुण्यफल भूता, एकदिग्गामिनी वा प्रसिद्धिः । प्रश्न० वाः । उत्त० ६६५। कतिपयकृमिवत् । ज्ञाता० १७७ । ( २६४ ) 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमिणा ] किमिणा - कृमिवन्तः । प्रश्न० ६० । किमिय - कृमिक: जन्तुविशेषः । आव ० ११७ । किमियड संठितो- आवलिका बाह्यस्याष्टमं संस्थानम् । जीवा० १०४ । किमिरागकंबले - कृमिरागेण रक्तः कम्बलः कृमिरागकम्बलः । प्रज्ञा० ३६१ । किमिरागो - कृमिरागः । जं० प्र० ३४ । किमिरासि - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । कि मुलग - वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । कियाsयाए - कर्णेन । व्य० प्र० ६ आ । वि. र - किल - परोक्षा सपादसूचकः । उत्त० ३४३, । अपारमार्दिकत्वख्यापकः । उत्त० ३४३ । परोक्षासवादसूचकः सम्भावने । उत्त० ७१२ । परोक्षाप्तवादसूचकः । उत्त० ६२० । संशये । आव० २४० । परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः । आव० १३० । किल - लक्षणमेवास्येदमभिधीयते न पुनस्तं कोऽपि छेत्तुं भेत्तुं वाऽऽरभत इत्यर्थसंसूचनार्थः । भग० २७६ । किराई - किल । आव ०६१ । किराडयं - किराटकं द्रव्यम् । आव० ८२२ । किरिकिरिया - तेषामेव वंशादिकम्बिकातोद्यम् । आचा० ४१२ । किरिमालए- किरिमालकः । दश० ५१ । किरिय- क्रिया- सम्यगवादः । आव० ७६२ । चिकित्सा | आव० ५६६ । कायिक्यादिक्रियाभिधानार्थः । अष्टमशते चतुर्थोद्देशकः । भग० ३२८ । किरियद्वाणं - क्रियास्थानम् । आव० ६५८ । किरियठाणं-क्रियास्थानं सुत्रकृताङ्गस्याष्टादशमध्ययनम् । उत्त० ६१६ । अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ किरियवादी - क्रियावादी जीवादिपदार्थ सद्भावोऽस्त्येवेत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो यस्य सोऽस्तीति । सूत्र० २०२ । क्रियां - जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं यस्य सः । सूत्र० २०८ । किरियविसालं - क्रियाः - कायिकयादिकाः विशाला:- विस्तीर्णाः सभेदत्वादभिधीयन्ते तत् क्रियाविशालम् । सम० २६ । 2010_05 [ किरियारुई I किरिया - अनुष्ठानम् । ठाणा० ५०३ । क्रिया सम्यक्संयमानुष्ठानम् । प्रज्ञा० ५६ । कर्मबन्धः । बृ० द्वि० ७१ आ । क्रियन्ते मिथ्यात्वादिक्रोडीकृर्जन्तुभिरिति क्रियाः । कर्मबन्धनिबन्धन भूताचेष्टाः । उत्त० ६१३ । अस्ति परलो कोsस्त्यात्मास्ति च सकल क्लेशाकलङ्कितं मुक्तिपदमित्यादिप्ररूपणात्मिका क्रिया । भग ६२५ । आस्तिकता । ठाणा० ४०८ | योगः, व्यापारः, कर्म । विशे० २०६ । कायादिका आस्तिक्यमात्रं वा । सम० ५ । कायिक्यादिः संयमक्रिया च । नंदी० २४१ । देशान्तरप्राप्तिलक्षणा । विशे० ८३६ । अनुष्ठानम् । ठाणा० ५०४ । क्रिया चारित्रम् । व्य० द्वि० ४५७ आ । वैद्योपदेशाद् औषधपानम् । नि० चू० प्र० १०१ अ । क्रिपा - अस्तिवादरूपा । दश० २४२ । चेष्टा परिस्पन्दनलक्षणा । आव० ५२५ । सदनुष्ठानम् । सूत्र० ३६१ । अस्ति परलोक इत्यादिप्ररूपणात्मिका । उत्त० १७ । करणं क्रिया, कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा । आव ० ६४२ । भग० १२१ । प्राणातिपातादिका । जीव० १२८ । एतन्नामा भगवतीसूत्रस्य तृतीयशतकस्य तृतीयोद्देशकः । भग० १८६ । क्रिया - करणं तज्जन्यत्वात् कर्मापि क्रिया । क्रियत इति क्रिया कर्म एव । भग० १८२ । करणं क्रिया-कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा । प्रज्ञा० ४३५ । प्रज्ञापनाया द्वाविंशतितमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । क्रिया । आव० ११६ । अत्थिवादो । दश चू० १३ । किरियाठाणा- क्रियास्थानानि करणं क्रिया-कर्मबन्धनिवन्धनचेष्टा तस्याः स्थानानि - भेदा:- पर्यायाः क्रियास्थानानि । सम० २५ । सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयमध्ययनम् । सम० ४२ । सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयsatara द्वितीयमध्ययनम् । ठाणा० ३८७ । किरियातीता - किरियाए कोरमाणीएवि जा ण पण्णपति सा । नि० चू० प्र० २११ अ । किरियारुइ - क्रिया सम्यक् संयमानुष्ठानं तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः । प्रज्ञा० ५६ । किरिया रुई - क्रियारुचिः - दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो रुचिरस्तीति सः । ठाणा० ५०४ । क्रिया- अनुष्ठानं तस्मिन् रुचिर्यस्य सः । उत्त० ५६३ । ( २६५ ) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरियावरण ] fafरयावरण - क्रियामात्रस्यैव-प्राणातिपातादेर्जीवैः क्रियमाणस्य दर्शनात्तद्धेतुकर्म्मणश्चादर्शनात् क्रिवाचरणंकर्म्म यस्य स क्रियावरणः । ठाणा० ३८३ । किरियावाई - क्रिया कर्तारं विना न संम्भवति सा चात्मसमवायिनीति वदन्ति तच्छीलाच ते क्रियावादिनः । क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । क्रियाप्रधानम् । भग० ६४४ । क्रियावादी - क्रियैव- चैत्यकर्मादिका प्रधानं मोक्षाङ्गमित्येवं वदितुं शील यस्य सः । सूत्र० ३७ । तत्र न कर्त्तारं विना क्रिया सम्भवति तामात्मसमवायिनीं वदन्ति ये तच्छीलाश्च ते क्रियावादिन: । आव ० ८१६ । तत्र न कर्त्तारं विना क्रिया सम्भवतीति तामात्मसमवायिनीं वदन्ति ये तच्छीलाच ते क्रियावादिनः । सम० ११० । नियतशुक्लपाक्षिकाः । दशाश्रु० । सकलमतसमवसरणे कथञ्चिदात्माद्यस्तित्वादि क्रियावादिनः सम्यग्दृशः । भग० ९४४ । किरियाarat - आत्मसमवायिनीं वदन्ति तच्छीलाच ये ते क्रियावादी । नंदी० २१३ । क्रियां वदतीति क्रियावादी वेज्जेत्यर्थः । नि० चू० तृ० ६६ आ । क्रियां जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवंरूपां वदन्तीति क्रियावादिनः आस्तिकाः । ठाणा० २६८ । यतः कर्मयोगनिमित्तं बध्यते, योगश्च व्यापारः स च क्रियारूप:, अतः कर्मणः कार्यभूतस्य वदनातत्कारणभूतायाः क्रियाया अप्यसावेव परमार्थतो वादीति । आचा० २२ । किरिया विसालपुवं त्रयोदशपूर्वम् | ठाणा० १६६ किरिया वहाणं - क्रियाविधानं - सिद्धक्रियाविधिः । प्रश्न० आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ किविणवणीमते किलामणया - ग्लानिनयनम् । भग० १८४ । किलामिओ-क्लामितः समुद्घातं नीतः, ग्लानिमापादितः । प्र० ५३० । किलकिलायमानः - किलकिलाशब्दं कुर्वाणः । नंदी० १५८ । किलाम - क्लमः शरीरायासः । भग० २६५ । देहग्लानिरूपः । आव० ५४७ । ग्लानि । ठाणा० १३ । 2010_05 आव० ५७४ । किलामेंति - क्लमयन्ति -- मूर्च्छापन्नान् कुर्वन्ति । प्रज्ञा०५९२ । किलामेइ - मारणान्तिकादिसमुद्घातं नयति । भग०२३० । किलामेह -क्लमयथ-- मारणान्तिकसमुद्घातं गमयथ । भग० ११७ । किरियाहि क्रिया- सावद्याऽनवद्ययोगनिवृत्तिप्रवृत्तिरूपा । किवणकलुणो- कृपणानां मध्ये करुणः कृपणकरुणः । विशे० ६ । अत्यन्तकरुणः । प्रश्न० ५६ । किलंत - क्लान्तः - ग्लानिमुपगतः । जीवा० १२२ । ग्लानि किवणकुलाणि - कृपणकुलानि तर्कणवृत्तीनि । ३८१ । किलिंच - शलाका । भक्त० । किलिञ्चं क्षुद्रकाष्ठरूपः । दश० १५२ । किलिजेणकिलिकिश्च तं रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपद्वा । सम० ६४ । । राज० १४१ । किलकिलाइतं - किलकिलायितम् । आव० ३४८ । किलिकिलितो - किलकिलायमानः । आव० ४२२ । किलि टुं - क्लिष्टं - बाधितम् । उत्त० १२२ । किलिन्न- क्लिन्नं निचितम् । उत्त० १२२ । किलीबे-क्लोबे - नपुंसकः । आचा० ३३१ । किलेसो-क्लेश:- रोगः । पिण्ड० ७० । क्लेशः - शारीरी । सूर्य० २६७ । किल्बिषिका - अन्तःस्थस्थानायाः । तस्व ० ४, ४ । किवण - कृपणा :- रङ्कादयो दुःस्थाः । ठाणा० ३४२ । दरिद्राः आचा० ३२५ । अपरित्यागशीलः, अहवा दारिद्दोवहतो जायगो कृपणः । नि० चू० द्वि०६८ आ । कृपणः- रङ्कः । भग० १०१ । दीनो वराककः, इन्द्रियैः पराजितः । सूत्र० ७२ । रङ्काः- रङ्कादयो दुःस्थाः । ठाणा० ३४१ । प्रश्न० २५ । भूतः । ज्ञाता० २८ । ४२० । किलकिला इयर - किलकिलायितरवः सानन्दशब्दः । जं० किविणं- कृमिवत् । प्रश्न० १६२ | कृपणः - पिण्डोलकः । दश० १८४ । किविणवणीमते - कृपणाः- रङ्कादयो दुस्थाः परेषामात्मदुस्थत्वदर्शनेनानुकूल भाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा वनी प्रतीतो तां पिबति - आस्वादयति पातीति वेति वनीपः स एव ( २९६ ) ठाणा० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किदिवस] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कीव वमीपक:-याचकः । ठाणा० ३४१ । कीते-द्रव्येण भावेन वा क्रीत-स्वीकृतं यत्तत्क्रीतमिति । किदिवस-किल्बिषं क्लिष्टतया निकृष्टमशूभानुबन्धि अधमः ।। ठाणा० ४६० । उत्त० १८३ । किल्बिषिकं कर्म । दश० १८६ । किल्बिषं कीय-शबले षठो दोषः । सम० ३९ । क्रीतं-मूल्येन पापम् । प्रज्ञा० ४०५ । परिगृहीतम्, अष्टमदोषः । किदिवसत्तं-किल्विषत्वं-चाण्डालप्रायदेवविशेषत्वम् । प्रश्न कीयकडं-क्रीतेन-क्रयेण कृतं-साधुदानाय कृतं क्रीतकृतम् । ११२ । प्रश्न० १५४ । किस-कृशं स्तोकमपि तृणतुषादिकमपीत्यर्थः । कसनं- कोयगड-क्रयणं क्रीतं तेन कृतं-निष्पादितं क्रीतकृतं, क्रीत कसः परिग्रहग्रहणबुद्धया जीवस्य गमनपरिणामः। सूत्र०१३।। मित्यर्थः । पिण्ड० ६५ । भग० २३१ । क्रीतकृतम् । किसलय-किशलयः-अवस्थाविशेषोपेतः पल्लवविशेषः । आचा० ३२६ । कयेण-कडं कीयकडं, कत्तिएण वा कडं-- जीवा० १८८ । किशलय:-अवस्याविशेषोपेतः पल्लव- कीयगडं । नि० चू० द्वि० १०३ आ । विशेषः । जं० प्र० २६ । अतिकोमलः । जं० प्र०५३। कीतिय-क्रीतत्रितयं-क्रयणकापणानूमतिरूपम् । दश० अभिनवपत्रम् । उत्त० ३३४ । किसि-कृषि:-क्षेत्रकर्षणकर्म । प्रश्न० ६७ । कीरंत-क्रियमाण: । ज्ञाता० १७३ । किसिपरासरो-कृषिप्रधानः पारासरः कृषिपारासरः । | कीर-शुकः । जीवा० १८८ । उत्त० ११८ । शरीरेण कृशस्तेन पारासरः कृशपारासरः । कोत्तिः -नीलवर्षधरपर्वते पञ्चमकूट: । ठाणा० ७२ । उत्त० ११६ । कोलं-कीलकम् । दश० १७६ । कण्ठः । सूत्र० १३० । किसी-कृषि:-कृषिकर्मोपजीवी । जीवा० २७६ । कोलंति-यथासुखमितस्ततो गमनवितोदेन गीत नृत्यादिविनोकिसीए-कृषीकरणम् । आचा० ३२ । देन वाऽवतिष्ठन्ते । जं० प्र० ४६ । कामक्रीडां कुर्वन्ति । किहं-केन प्रकारेण । भग० ११६ । भग० ६१८ । कीअ-कीचकः वंशः । दश० २४३ । कीलइ-क्रीडति । आव० १६२ । कोअगडं-क्रीतकृतं-द्रव्यभावक्रयक्रोतभेदम् । दश० १७४ । | कोलओ-कीलकः । प्रश्न० ५६ । . कीएइ-भोजनदोषः । भग० ४६६ । कोलकं कर्पराकारम् । बु० द्वि० २४५ अ । कोकशं-अस्थि । प्रश्न० ११ । कोलगसहस्सं-कोलकसहस्रं महत्कीलम् । जीवा० १८६ । कीकसं । आव० ६५१ । | कीलसंस्थाने-कीलवदीर्घ मुच्चं गतं तस्मिन् । ओघ०२११॥ कोट:-कचवरनिश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । कोलावणधाती-चउत्थी धाई । नि० चू० द्वि० ६३ आ। कीटजं-यत्तथाविधकीटेभ्यो लालात्मकं प्रभवति यथा पटसू- क्रीडनकारिणी । ज्ञाता० ४१ । त्रम् । उत्त० ५७१ । कीलिआइ-क्रीडतं-स्त्रीभिः सह तदन्या क्रीडेति । सम०१६६। कोड-कीट: कृमिः । दश० १४२ । घुणादि । बृ० प्र० | कीलिका-यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धानि तत् । जीवा. १५२ आं। चतुरिन्द्रियजीवभेदः । प्रज्ञा० ४२ । जीवा० | १५, ४२ । अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि । राज० ५७ । ३२ । उत्त० ६६६। यत्रास्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत् । प्रज्ञा कीडति-क्रीडति-यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीत- ४७२ । नृत्यादिविनोदेन वा तिष्ठति । जीवा० २०१ । कोलिगा-अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि । जं० प्र०१५। कीडयं-वडयपट्रोति । नि० चू० प्र० १२६ अ । कीलिय-क्रीडितं तादिक्रीडा । प्रश्न० १४० । कीलिका कोडाए-क्रीडाय-लंघनवलग्नास्फोटनक्रीडानां योग्यः । लोहरेखा । दश० ६१ । आचा. १०६ । कीव-कीव: पक्षिविशेषः । प्रश्न. २३ । मन्दसंहननम् । ( अल्प० ३८ ) ( २९७ ) 2010_05 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोस । आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कुंडलमहामहो भग० ४७१ । नामविशेषः । ज्ञाता० २०८ । मैथुना- प्रश्न० २५ । अवयवविशेषः । आचा० ३८६ । भिप्राये यस्याङ्गादानं विकारं भजति बीजबिन्दूश्च कुंटत्तं-कुण्टत्वं पाणिवक्रत्वादिकम् । आचा० १२० । . परिगलति स क्लीबः । बृ० तृ० ६६ आ । क्लीब:-अस- कुंटितो-कुण्टितः । आव० ३६६ । .. मर्थः । ठाणा० १६४ । क्लीब:-निःसत्त्वः । उत्त० ४५७। कुंडं-पुढविमयं । दश० चू० ६६ । गङ्गाकुण्डादि । नंदी. कोस-कस्मात् । उत्त० १३५ । कीसत्ता-किस्वता, किस्व- २२८ । कुलियं । नि० चूद्वि० २४ आ। स्थलविशेषः । भावता, कीदृशता वा कः प्रकार:-किस्वरूपतेत्यर्थः । भग० भग० १४२ । २२ । किम् । व्य० द्वि० ६७ अ । कुंडग-सण्हतंडुलकणियाओ कुकुसा य कुंडगा। नि० चू. कुंकण-चतुरिन्द्रियजीवविशेषः । उत्त० ६६६ । कोक- प्र० ३२ अ । कुडङ्गम्-जालिः । आव० ६७० । पानीयनदः । प्रज्ञा० ३७ । भाजनम् । नि० चू० द्वि० ६६ आ। कूण्डक:-कणक्षोकुंकुम-केशरः । अनु० १५४ । आव० ८२३ । जीवा० दनोत्पश्नकुक्कुसः । उत्त० ४५। १९१ । कुङ्कुम, जात्य घुसृणम् । जं० प्र० २१३ । | कुंडग्गाम-कुण्डग्रामः, वर्धमानस्वामिविहारभूमिः । आव० कुङ्कुम-कश्मीरजम् । प्रश्न० १६२ । नि० चू० प्र० २१६। ब्राह्मणकुण्डग्रामविषयोऽष्टमशते त्रयत्रिंशत्तमोद्देशकः। २७६ आ, १३६ अ । भग० ४२५ । वैश्यायनतापसस्थानम् । भग० ६६५ । कुंकुमकेसरं-पद्मकम् । दश० २०६ । | कुंडदोहणी-कुण्डदोहनी । ओघ० ६७ । कुंकुमपुड-गन्धद्रव्यः । ज्ञाता० २३२ ।। कुंडधारपडिमाओ-कुण्डधारप्रतिमे-आज्ञाधारप्रतिमे। जं. कुंकुमचच्चिकछुरियंतो-कुकुमहस्तकव्याप्तांगः । पउ० | प्र. ८२ । २८-२८ । कुंडधारी-तीर्यक्जृम्भकदेवविशेषः । आचा० ४२२ । । कंच-कौञ्च-पक्षिविशेषः । उत्त० ४०७ । सम० १५८ 1 कुंडपुर-कुण्डपुरं-वर्द्धमानजन्मभूमिः । आव० १६. । प्रभ० २ । प्रवज्यास्थानम् । आव० ३१२ । सुदर्शनाया वास्तव्यकुंचवीरगो-सगडपक्खिसारित्थं जलजाणं कज्जति । नि० | स्थानम् । उत्त० १५३ । चू० तृ० १७ अ । कुंडमोए-कुण्डमोदं, हस्तिपादाकारं मृन्मयं पात्रम् । दश . कंचिक-तापसविशेषः । व्य० प्र० ६४ आ। २०३ । कुंचिका- नंदी १६५ । तालोद्घाटिनी। कुंडरिया-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा पिण्ड० १०६ । ३४ । । कंचितो-तावसविशेसो । नि० चू० तृ० १०१ आ । कुंडरोट्ट । नि० चू० प्र०१६६ अ । कुंचिय-कुञ्चितः- कुण्डलीभूतः । भग० १० । वक्र: । कुंडल-कुण्डलं-कर्णाभरणविशेषरूपः। प्रज्ञा० ८८ । कर्णाप्रभ० ८२ । भरणविशेषः । औप०५०। भूषणविधिविशेषः । जीवा कंचियवेधि- । नि० चू० तृ० ५६ आ। २६८ । अरुणवरावभाससमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं कुंची-कुडिलो, मायावी । व्य० प्र० ६३ आ। समुद्रोऽपि । प्रज्ञा० ३०७ । कुण्डलं-कर्णाभरणविशेषः । कुंजरसेणा-कुञ्जरसेना-ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां मध्ये भग० १३२ । पञ्चमी । उत्त० ३७६ । ण्डलयुगलं-कर्णाभरणम् । आव० १९.। कंजरावत्त-वज्रस्वामिपूजास्थानम् । मर० । लभद्र:-कुण्डले द्वीपे पूर्वार्धाधिपतिर्देवः । कुंजरो-कोजीर्यतीति कुञ्जरः कुजे-वनगहने रमति-रतिमा- | जीवा० ३६८ । बध्नातीति कुञ्जरः । जीवा० १२२ । कुंडलमहामद्दो-कुण्डलमहाभद्रः- कुण्डले द्वीपेऽपरााधिकुंट-हीनहस्तः । नि० चू० द्वि० ४३ आ । विकृतहस्तः ।। पतिर्देवः । जीवा० ३६८ । ( २९८ ) 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडलवर ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कुंदकलिका Sate कुंडलवर-द्वीपविशेषः । अनु० ६० । कुण्डलवरे समुद्रे | कुंडिनी-भीष्मराजधानी । प्रभ० ८८ । पूर्वाद्धधिपतिर्देवः। जीवा० ३६८ । कण्डलसमुद्रानन्तरं कंडिय-कण्डिका कमण्डलू । भग० ११३ । द्वीपः, तदनन्तरं समुद्रोऽपि । प्रज्ञा० ३०७ । कुण्डलवराख्ये कडिया-कूण्डिका-कमण्डलू । प्रश्न० १५२ । औप०६५। .द्वीपे प्राकारकुण्डलाकृति:-कुण्डलवरः । ठाणा० १६६, आव० ३०५ । आलुका । अनुत्त० ५ । भग० ६६३ । १६७ । कुण्डलवरः कुण्डलसमुद्रपरिक्षेपी द्वीपविशेषः । कंडियायणस्स । भग० ६७५ । कण्डलवरद्वीपपरिक्षेपी समुद्रश्च । जीवा० ३६८ । नीयभाजनविशेषः । नि० चू० तृ० ६१ अ । कुंडलवरभद्दो-कुण्डलवरभद्रः कुण्डलवरद्वीपे पूर्वार्धाधिपति- | कुंडुक्क-भूमिस्फोटकविशेषः । आचा० ५७ ।। वः । जीवा० ३६८ । मालिन्दकम् । अनु० १५३ । कुंडलवरमहामहो-कूण्डलवरमहाभद्रः कुण्डलवरे द्वीपेऽप- ण्ढ:-मायावी । उत्त० १०८ । • रार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ । कुंत-भल्लः । आव० ५८८ । प्रज्ञा० ६७ । कुन्तम् । कंडलवरमहावर-कुण्डलवरे समद्रेऽपरार्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ११७ । कुन्तक-एतावद्रव्यं त्वया देयमित्येवं जीवा० ३६८ । नियन्त्रणया नियोगिकस्य देशादेर्यत्समर्पणम् । विपा०३६ । कुंडलवरावभास-कुण्डलवरसमुद्रानन्तरं द्वीपः, तदनन्तरं शस्त्रविशेषः । जीवा० १६३ । कुन्तः-भल्लाभिधः शस्त्रसमुद्रोऽपि । प्रज्ञा० ३०७। विशेषः । आव० ६५१ । कुंडलवरावभासमद्द-कुण्डलवरावभासे द्वीपे पूर्वार्धाधि- | कुंतग्गं-कुताग्रं-भल्लाग्रम् । पतिर्देवः । जीवा० ३६८ । कृण्डलवरसमद्रपरिक्षेपी द्वीपः, कुन्तफलम् । आचा० ३११ । ' कुण्डलवरावभासद्वीपतत्परिक्षेपी समुद्रश्च । जीवा० ३६८ । | कुंतल-शेखरकः । ज्ञाता १३८ । कंडलवरावभासमहाभहः-कुण्डलवरावभासे द्वीपेऽपरा - राजपत्नी । प्रश्न० ८७ । धिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ । कंथु-कुंथवः-सत्त्वाः । ओघ० १२६ । अनुद्धरिप्रभृतिः । कुंडलवरावभासमहावर-कुण्डलवरावभासे समुद्रेऽपरार्द्धा. उत्त० ६६५। पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । धिपतिर्देवः । जीवा० ३६८ । गोमयनिश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । षष्ठः चक्रकुंडलवरावभासवर-कुण्डलवरावभासे समुद्रे पूर्वार्धाधिपः | वत्तिनाम् । नि० चू० प्र० २७६ आ। कुन्थुः-सप्तदशो तिर्देवः । जीवा० ३६८। । जिनः, मनोहरेऽभ्युन्नते महाप्रदेशे स्तूपं रत्नविचित्रं स्वप्ने कुंडला-कुण्डला सुकच्छविजये राजधान' जं० प्र० । द्रष्टा प्रतिबुद्धा तेन तस्य कुन्थुरिति नामकृतम् । आव० ३५२। ५०५ । कुंडलाओ-विदेहेषु राजधानी, विशेषनाम । ठाणा० ८० । कंथू-कुः पृथ्वी तस्यां स्थितवानिति कुस्थः । आव० ५०५ । कंडलिक-मात्रकं हस्तो वा । ओघ० १६७ । षष्ठः चक्रवत्तिनाम । सम० १५२ । ठाणा० ३०२ । कुंडलो-कुण्डलः अरुणवरावभाससमुद्रपरिक्षेपी द्वीपविशेषः । । कुन्थुः षष्ठः चक्री । आव० १५६ । त्रीन्द्रियजीवविशेषः । ओघ० १६८ । कुण्डलद्वीपपरिक्षेपी समुद्रश्च । जीवा प्रज्ञा० ४२ । ३६८ । कुण्डलः जम्बूद्वीपादेकादशकुण्डलाभिधानद्वीपान्त- | कुंथूपिवीलिया-कुन्थुपिपीलिका-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः वर्ती कुण्डलाकारपर्वतः । प्रश्न० ६६ । . जीवा० ३२ । . कुंडागं-कुण्डाकं सन्निवेशः । आच० २०६ । कुंद-कुन्दं कुसुमम् । प्रज्ञा० ३६१ । जीवा० २७२ । कुंडिआ-कुण्डिका । अनु० १५२ ।। लताविशेषः । भग० ८०२ । पुष्पजातिविशेषः । ज्ञाता० कुंडिका-कुण्डिका । उत्त० ११३ । ६६ । पुष्पविशेषः। जं० प्र० ३५ । कुंडिगा-कमण्डलू । वृ० द्वि० २१ आ । | कुंदकलिका-धवलपुष्पम् । प्रज्ञा० ६१ । ( २९६ ) 2010_05 . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंदगुम्मा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कुकुला १२६ । कुंदगुम्मा-कुन्दगुल्माः । जं० प्र० ६८ । '-चीडाभिधानगन्धद्रव्यः । प्रश्न० ७७ । कुंभग्गसो-कुम्भागशः-अनेककुम्भपरिमाणानि । जं० प्र० कुंदु-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । १६२ । कुंदुरुक्क-चीडा । सम० १३८ । सिल्हकम् । सूर्य० २६३ । कुंभबलि-कुम्भबलिका। आव० ६७५ । कुक्कटरुत । आव० ४०८ । चीडा । ज्ञाता० ४० । औप० | कुंभार-प्रथमा श्रेणिविशेषः । जं० प्र० १६३ । । ५। वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । कुन्दुरुक्क:-चीडा- कुंभि-कुम्भी-पाकभाजनविशेषः । प्रश्न० १६४ । भिधं द्रव्यम् । जं० प्र० १४४ । चीडा। प्रज्ञा० ८७ । । प्रज्ञा० ११ । कुन्दुरुष्क:-चीडा । जीवा० १६०, २०६ । कुंभिका-कुम्भो मुक्ताफलानां परिमाणतया विद्यते येषु तानि कंदुलता-लताविशेषः । जीवा० १८२ । कुम्भिकानि । ठाणा० २३२ । कुंदो-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कुंभिक्का-कुम्भाग्रं-मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भपरिमाणम् । जं. कुंभ-ललाटम् । बृ० तृ० १३ अ । आढकषष्टयादिप्रमा- प्र० ५६ । णतः । ठाणा० ४६२ । कुंभ एव, अहवा चउकट्टि काउं कुंभिपाग-कुम्भ्यां-भाजनविशेषे-पाकः कुम्भीप.कः। सम. कोणे कोणे धडओ बज्झति, तत्थ अवलंबिउं आरंभिउं वा संतरणं कज्जति । नि० चू० प्र०४४ आ। एगो घडणा वा। कुंभी-नरके-रत्नप्रभादिनरकपृथिव्यात्मके स्थानानिनि० चू० द्वि० ७७ आ। मुनिसुव्रतनाथस्य प्रथमशिष्यः । सीमन्तकाप्रतिष्ठानादीनि । उत्त० २४७। मुखाकारा सम० १५२ । एकोनविंशतितमः तीर्थंकरस्य पिता । कोष्ठिका । बृद्वि ० १७६अ । जस्स वसणा सुज्जति । नि सम० १५१ । नवमस्वप्नः । ज्ञाता० २० । नरके एका- चू० द्वि० ३३ अ । कुम्भी-उष्ट्रिकाकृतिः । सूत्र० १२५ । दशः परमाधार्मिकः । उत्त० ६१४ । आव० ६५० । पिठरक एव सङ्कटमुखः कुम्भी। आचा० ३२७ । कुम्भीसम० २६ । मल्लिजिनपिता। ज्ञाता० १२४ । आव० नारकपचनस्थानम् । आव० ६५१ । वनस्पति विशेषः । १६१ । सूत्र. १२४ । आढकानां षष्ट्या जघन्यः कुम्भः भग० ५११ । कुम्भिकः नरकपालविशेषः । आव०६५१ । अशीत्या मध्यमः शतेनोत्कृष्ट इति । ज्ञाता० ११६ । कुइयण्ण-कुविकर्णः गोमण्डलाधिपतिः । विशे० ३२८ । घट: । आव० २६५ । कुउब-कुतुपं- चर्ममयं घृतभरणभाजनम् । पिण्ड० १५४ । कुंभकारकड-उत्तरापथे प्रत्यन्तनगरम् । बृ द्वि० १५३ कुऊहलं-कुतूहलं-इन्द्रजालाद्यवलोकनगोचरः । उत्त० १५१॥ अ । उत्तरापथे णगरं । नि० चू० तृ० ४४ अ । कुम्भ- कुऊहल्ले-कुतूहल:-औत्सुक्यः । सूर्य ० ५ । कारकटम् । उत्त० ११४ । कुकुम्मा-मत्स्यबन्धवागुरिकादयः । बृ० द्वि०५१ अ। कुक। जीवा० १२४ । र्माण:-मात्स्यिकादयः । ओघ० ७५ । कुंभकारुक्खेवो-कुम्भकारोत्क्षेप:-सेनापल्लयां पत्तनविशेषः। | कच्छियकम्मा-मच्छबंधगादयो। नि० चू०प्र०१०७ अ । आव० ५३८ । कुकम्मो-कुकर्मी-अङ्गारदाहककुम्भकारायस्कारादिकः । कुंभग-मिथिलायां राजा । मल्लिपिता । ज्ञाता० १२४ । सूत्र० १६१ । कुंभगारगड-कुम्भकारकृतः-नगरविशेषः । व्य० द्वि० कुकुइया-भाण्डाः । भाण्डप्रायाः। भग० ४७६ । ४३२ अ । कुकुच-भण्डचेष्टः । बृ० प्र० २१३ अ । कुंभगारो-कुम्भकार:-ढकाभिधो श्रमणोपासकः । आव० कुकुक्ति-कुत्सितं-अप्रत्युपेक्षितत्वादिना कुचितं-अघस्य३१३ । न्दितं यस्य सः कुकुचितः । ठाणा० ३७३ । कुंभग्गं-कुम्भाग्रं-मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भप्रमाणमुक्तामयं मु- कुकुर-श्वा । बृ० प्र० ८१ आ । श्वा। आचा० ३१४ । तादाम । जीवा० २१० । कुम्भपरिमाणतः । ज्ञाता० | कुकुला-फुफुका । दश० ११५ । ( ३००) कुंभकारापाक: 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंकुस ] अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ कुकुस - कुक्कुसा - तुषप्रायः, धान्यक्षोदः । आचा० ३४२ | कुकूलान लो - कुकूलानलः । कारीषाग्निः । प्रश्न० १४ । कुक्कुडे - चतुरिन्द्रियजीवविशेषः । उत्त० ६९६ । कुक्कुइआ कौरकुच्यकारिणो भाण्डाः । जं० प्र० ३६४ । कुक्कुइए - कुत्सितसङ्कोचनादि क्रियायुक्तः कुचः कुकुचस्तद्भाव: कौकुच्यम् । अनेक प्रकारा मुखनयनोष्ठकरचरणध्रुविकारपूर्विका परिहासादिजनिका भाण्डादीनामिव विडम्बनक्रिया । आव० ८३० । कौकुचिक:- कुकुचा वाअवस्यन्दनं प्रयोजनमस्येति । ठाणा० ३७३ | कौत्कुच्यं अनेकप्रकारा मुखनयनादिविकारपूर्विका परिहासादिज | निका भाण्डानमिव विडम्बन क्रिया । उपा० १०६ । कुहुइय - कुकुचेन- कुत्सितावस्पन्देन चरन्तीति कौकुचिकाः । कुक्कुडी - कुकुटी - कुटीरम् । भग० २६२ । औप० ६२ । खुखुणकम् । सूत्र० ११७ । कुक्कुयथं - खुखुणकम् । सूत्र० ११७ । कुक्कुओ - स्थानशरीरभाषाभिचपलः । बृ० तृ० २४७ अ । कुक्कुटमांसकं - बीजपूरककटाहम् । ठाणा० ४५७ कुक्कुट्टी - कवलानां प्रमाणं कुक्कट्यण्डम् । शरीरम् । पक्षिणी । कुक्कुसा - अतिगुलीकाः । बृ० तृ० १६५ अ । कुक्कुसापिण्ड० १७३ । कुकुरा - कुकुरी : - श्वानस्ते च जिहिंसुः । आचा० ३१० । कुकस - तुषप्रायो धान्यक्षोदः । दश० १७० । कणिक्का | आव० ६२२ । कुक्कुड कुटं विद्यादिना दम्भप्रयोगलक्षणम् । व्य० प्र० १६६ अ । कुर्कुट:- ताम्रचूडः । ज्ञाता० १ । प्रश्न० ८ । कुक्कुडप्रायः | ओघ० ५६ । चतुरिन्द्रियजीविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । कक्कटः-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । कुक्कटाः चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा ० ३२ । कुडुङगो - कुर्कुटः । आव ० ४२८ । कुकुडजाइयं- कुक्कुटजातिकं, अनेन पक्षिजातिरुद्दिष्टा । कुच्चं - कूर्चम् । आव० ३९१ | आचा० ३४० । कुक्कुडपोअ - कुक्कटपोतः- कुक्कटचेल्लकः । दश० २३७ ॥ कुक्कुडमं सए - कुक्कटमांसक - बीजपूरकं कटाहम् । ६९१ । भग० [ कुच्छि कुक्कुडिअंडो - कुक्कड्यण्डकम् । व्य० द्वि० ३३३ आ । कुडिअंडगपमाण-कुक्कट्यण्डकस्य यत् प्रमाणं मानं तत् । भग० २६२ । कुकुडिअंडगपमाणमेत्ता - कुक्कट्यण्डकप्रमाणमात्रा, कुक्कट्यण्डकस्य यत्प्रमाणं - मानं तत्परिमाणं - मानं येषां ते तथा, अथवा कुकुटी व कुटीरमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटीशरीरं कुत्सिता अशुचिप्रायत्वात् कुटी कुकुटी तस्या अण्डकमिवाण्डकं उदरपूरकत्वादाहारः कुकुट्यण्डकं तस्य प्रमाणतो मात्रा द्वात्रिंशत्तमांशरूपा येषां ते । भग० २६२ । कुक्कुडिय - कोकुटिका: - मातृस्थानकारिणः । वृ० प्र० ३०५ अ । कुक्कुडसं डेयगामपउरा - कुक्कुडसम्पात्या ग्रामाः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च प्रचुरा यस्याः सा कुक्कुडसण्डेयग्रामप्रचूराः । राज० २ । कुक्कुsि - कुक्कटिः माया । पिण्ड० ९३ । कुक्कटी- शरीरम् । व्य० द्वि० ३३३ आ । ३२ । कुक्कुडलक्खण- द्वासप्ततौ कलायां सप्तत्रिंशत्तमा । ज्ञाता० कुच्चिए - कूर्चवरः । वृ० द्वि० ६० आ । कुच्ची - कुच्चहरा | नि० चू० द्वि० १७२ अ । कुच्छणा - कुत्सना - अङ्गुल्यन्तराणां कोथः । व्य ० द्वि०६ आ । कुच्छल वाहगा - श्रीन्द्रियजीवविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । कुच्छा - कुत्सा - प्रतिषेधः । दश० २७० । कुच्छि - कुक्षि:- द्विहस्तमानः । प्रज्ञा० ४८ । द्विहस्तिप्रमाणा । नंदी० ९६ । ( ३०१ ) 2010_05 कुक्कुह - चतुरिन्द्रियजीवविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । जीवा ० ३२ । कुचरा - चौरपारदारिकादयः । आचा० ३०८ । कुच्छ्रियचरा कुचरा पारदारकादि । नि० चू० तृ० ५८ अ । कुचा - मृत्तिकाया उदकस्य च वधः । बृ० प्र० २६४ आ । कुचिकर्णः - मागधजनपदे धनपतिः । आव० ३४ ॥ कुचेले - जीर्णकर्पटः | ओघ० ७४ । कुच्चंधरो - कूर्चधरः अन्तः पुराधिष्ठायकः । ओघ० ७४ । कुच्चगं - कूर्चकाः क्रियन्ते येन । आचा० ३७२ । कुच्चो - कूर्चा: - येन तृणविशेषेण कुविन्दाः कुर्यान् कुर्वन्ति, कुशदर्भयोराकारकृतो विशेषः । प्रश्न० १२८ । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुच्छिकिमिया ] आचायधीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित. [ कुटुंतर कुडह कुच्छिकिमिया-कुक्षिकृमयः-कुक्षिप्रदेशोत्पन्नाः कृमयः ।। चू० प्र० १९६ अ । जीवा० ३१ । कुक्षिप्रदेशोत्पन्ना कृमयः कुक्षिकृमयः । कुडगफाणिए-कुटजफाणित-कुटजक्काथम् । प्रज्ञा० ३६४ । प्रज्ञा० ४१ । कुडगो-कुट:-कुम्भः । आव० ३१० । कुच्छिधार-कुक्षिधारा- नौपार्श्वनियुक्तकाः आवेल्लकवाह- कुडभी-लघुपताका । जीवा० २२६ । जं० प्र० ४०३, कादयः । ज्ञाता० १३६ । आव० ७१६ । जं० प्र० ३२५ । पताका । उत्त० ३०३ । . कुच्छिय-कुत्सित असारः । विशे० १०३७ । नि० चू० प्र० ३५७ आ । कुच्छिसूल-कुक्षिशूल-रोगविशेषः । ज्ञाता० १२१ । कुडय-कुटजपुष्पाणि । जं० प्र० २१२ ।। कुच्छो-अष्टचत्वारिंशदगुलप्रमाणा । भग० २७५ । अष्ट- कुडयज्जुणणीव-कुटजार्जुननीपा-वृक्षविशेषास्तत् पुष्पाणि चत्वारिंशदगुलानि कुक्षिः । जं० प्र० १४ । कुक्षि:- कुटजार्जुननीपानि । ज्ञाता० १६१ । द्विहस्तमानाः । जीवा० ४० । कुडवं-मानविशेषः । आव० ८२३ । कुच्छेज्जा-कुथ्येत्-पूतिभावं यायात् । अनु० १६२ ।। । ओघ० २०६ । कुज्जा-कुर्यात्-करोतेः सर्वधात्वर्थत्वाद् गृह्णीयात् । उत्त० कुडा-कुण्डानि-गङ्गाकुण्डानि । ५३६ । कुडागाराणि-कूटागारान्- पर्वतोपरिगृहाणि । आचा० कुटुंबिया-साधुसद्देण विच्छुद्धा खेताणी गच्छन्ति । नि० चू० ३८२, नंदी० २२८ । प्र० १०७ अ । कुडाविमा-वनस्पतिविशेषः । भग ८०२ । कुटुंबी-प्रभूतपरिचारकलोकपरिवृतः । बृ० द्वि० २७६ आ। कुडाहच्चं-कूटाघातम् । राज० १३४ । कुट्टणी-कण्डनकारिणी । बृ० द्वि० ६५ अ । कुडि-बृहती । आव० २६२ । कुटी। आव ० ५२० । कुट्टविदो-वडपिप्पलआसत्थयमादिदाणवक्को मट्टियाए सह कुडिउ-बद्धाङ्गः । नि० चू० प्र० १६१ आ । कुटिज्जति सो। नि० चू० तृ० ६४ अ । कुडियंठो कुण्डिकाण्ठः । आव० २७३ । कुट्टा-चिञ्चतिका । बृ० प्र० २६७ आ । कुडिय-हृतगवेषकः: । उत्त० १०६ । कुट्टिज्जताणं- । राज० ५२ कुडिलगइ-कुटिलगतिः-वक्रातिः । आचा० ४२ । ... कुट्टितं-छिद्रितं । नि० चू० द्वि० ६५ अ । कुडिलो-कुटिलः वक्र: । प्रश्न० ३० । कुट्टियं-पत्थरादिणा । नि० चू० द्वि० १७२ आ । कुडिव्वय-कुटिव्रतः-परिव्राजकविशेषः । औप० ६१। कुट्टियाओ- । नि० चू० प्र० १७१ आ। कुडी-कुटी-शरीरम् । भग० २६२ । गृहः । आव० कुटुंबं-कोबिनी-गामित्यर्थः । बृ० तृ० ९८ आ । ४८४ । कुटुं-कष्टम् । नि० चू० प्र० २८६ अ । रोगविशेषः । कुडीरग-कुटीरक, तृणादिनिर्मितं लघुगृहम् । दश० १६६ । नि० चू० प्र० १८८ अ । कुष्ठ-गन्धकहविक्रेयो वस्तु | कुडीरो-ओरजम् । तं० । विशेषः । विशे० १७३ । नि० चू० प्र० १० आ| कुडुंबजागरिय-कुटुम्बचिन्तायं जागरणं-निद्राक्षयः कुटुकुंड-माया । नि० चू० द्वि० ६३ अ । म्बजागरिका । ज्ञाता० ८३ । कुडुंग-वंशजालिका । बृ० द्वि. ६ अ । वनखण्डम् । कुडुंबिणीओ-पदातिरूपाः । भग० ५४८ । बृ० द्वि० २४६ अ । वंशादिगहनम् । ज्ञाता० २३६ || कुटुंबिया-कतिपयकुटुम्बस्वामिनः । राज. १२१। । देवकुलं वृक्षविषमो वा । व्य० प्र० २०५ अ। कुडंभगो-जलमंडुओ । नि० चू० प्र० ४५ अ । कुडंगीसरद्वाणं-गन्धवदुज्जयिन्यां स्थानम् । मर। कुडुग-बहुबीजविशेषः । भग० ८०३ । कुडओ-चतुःसेतिकः कुडवः । ज्ञाता० ११६ । कुडुभं- । नि० चू० प्र० १५०आ । । कुडगं-तुसमुहीकणिया कुक्कससीमा कुडगं भण्णति । नि० कुटुंतर-कुड्यान्तरं-कुडयं खटिकादिरचितं तेनान्तरं-व्य ( ३९२ ).. 2010_05 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ कुत्तियावण मांसम् । पिण्ड० ७१ । जीवा० १०७ । शबस्तद्रसोऽपि वसादि: कुणपः । जं० प्र० १७१ । कुणिमवावण्ण-व्यापन्न - विशराभूतं कुणि मांसं य स । जीवा० १०७ । कुणिमाहारे - कुणप :- शबस्तद्रसोऽपि वसादिः - कुणपस्तदाहारः कुणपाहरिः । भग० ३०६ | कुड्मलं - मुकुलं, कलिका । जीवा० १५२ । कुड्य। ठाणा० ३०१ | आचा० १६५ । कुणियं - मरहट्ठविसए चोद्दिति कुणियं वा भणतो । नि० कुयैकदेशः - भित्तिमूलम् । दश० १७८ । चू० प्र० २९४ आ । गर्भाधानदोषाद् हस्वैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा कुणि: । आचा० २३३ । कुढावय - अनुगमनम् । विशे० ६२० । कुढिय - हृतगवेषकः । उत्त० ११० । ग्रामाधिपः, आरक्षकः । कुण्डकोलिए- -रूपकान्तः । उपासकदसायां षष्ठमध्ययनम् । आव० २७२ । उपा० १ । कुढिया - कुविया । नि० चू० प्र० ७७ अ । कुढो - चौरहृतागवेषकः । बृ० द्वि० २२ अ । दश० चू० ४४ । नि० चू० प्र० ६ आ । कुष्णव के - कुहणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कुणपन हो - कुणपे - मांसे सूक्ष्मो नखो नखावयवः स कुणपनखावयवः । व्य० प्र० २५५ आ । जनपदविशेषः । नि० चू० द्वि० ८० आ । कुणाल - अशोकश्रीपुत्रः । बृ० द्वि० १५३ आ । विशे० ३३७ । ४०९ । कुणालः, भावप्रणिधावुदाहरणे दृष्टान्तः । आव० कुतित्थियधम्मो - कुतीर्थिकधर्मः - चरकपरिव्राजकादिधर्मः । ७१३ । असोगस्स पुत्तोः । बृ० तृ० ४७ अ । कुणाल कुमार - पाडलिपुत्ते असोगसिरिराया तस्स पुत्तो कुणालो । नि० चू० तृ० ४४ आ । कुणाला - जङ्घार्ध मानैरावतीकण्ठे नदी । बृ० तृ० १६१ आ । एरवती नदी कुणाला जणपदे, जनपदविशेषः । नि० चू० द्वि० ८० आ । जनपदः । राज० ११६ । जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । ज्ञाता० १४० | कुणाला यत्र श्रावस्तीनगरी । ज्ञाता० १२५ । कुणि-गर्भाधानदोषात् हस्वैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा कुणिः कुण्ट इति । प्रश्न० १६१ । पाणिविकलः । बृ० द्वि० ११६ अ । कुड ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ वधानं कुड्यान्तरम् । उत्त० ४२५ । कुड्डु - कुड्डु - भित्तिः । आव ० ६१६ । कुड्यम् । ओघ० ६१, १५३ । कायोत्सर्गे चतुर्थो दोषः । आव० ७६८ । कुख्य- भित्तिः । उत्त० ५३० । खटिकादिरचितम् । उत्त० ४२५ । कुणिएकुणिओ - कुणिकः-सेवकविशेषः । प्रश्न० १५ | कुणिमं - मांसम् । तं । उपा० २६ । रुधिरम् । ५६१ 1 कुणपः - शवः । अनु० १३८ । प्रश्न० 2010_05 कुतप - बस्तिः । नंदी० १६२ । तैलादिभाजन विशेषः । भग० ४७६ । चर्ममयं भाजनविशेषः । बृ० द्वि० २३६ अ । कुतव- कुतपः - छागलम् । ठाणा० ३३८ । भाजनविशेषः । नि० चू० प्र० ३५४ अ । । राज० १४३ । कुतित्थ - कुतीर्थम् । आव० ५६१ । कुत्सितानि च तानि तीर्थानि - कुतीर्थानि च शाक्यौलुक्यादिप्ररूपितानि तानि विद्यन्ते येषामनुष्ठेयतया स्वीकृतत्वात्ते कुतीर्थिनः । उत्त० दश० २३ । कुतुंबक - कुस्तुम्बकः । जीवा० १०५ | कुतुं कसं ठिय-कुतुम्बकसंस्थितः - आवलिका बाह्यस्यै कविशतितमं संस्थानम् । जीवा० १०४ । कुतुप - पक्वते लादिभाजनम् । औप० ६६ । चर्मनिष्पन्नं घृतभरणपात्रम् । पिण्ड० ३५ । चर्मकुम्भः । पिण्ड० १०५ । कुतूहलं - नटादिविषयम् । आव० ३४६ । कुत्तिय - स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्संभवं वस्त्वपि कुत्रिकम् । भग० १३६ । आव ० कुत्तियावण - कुत्रिकं स्वर्ग मर्त्यपाताललक्षणं भूत्रयं तत्सम्भवि वस्त्वपि कुत्रिकं तत्सम्पादको य आपणो - हट्टो देवाधिष्ठितत्वेनासी कुत्रिकापणः । भग० ४७२ । कून:स्वर्ग पाताल मर्त्यभूमीनां त्रिकं कुत्रिकं तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश ५२ । इति कृत्वा तत्स्थलोका अपि कुत्रिकमुच्यते, कुत्रिकमा - ( ३०३ ) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुत्तियावणचच्चरी] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः-- [कुमारिए - - पणयति-व्यवहरति यत्र हट्टेऽसौ कुत्रिकापणः । अथवा | कुब्बं-निम्नं क्षाममित्यर्थः । उपा० २१ । . धातुजीवमूललक्षगेभ्यस्त्रिभ्यो जातं विजं सर्वमपि वस्त्वि- कुब्बरो-कूबर: वैश्रमणलघुपुत्रः । अन्त० ५ । त्यर्थः, कौ-पृथिव्यां त्रिजमापणयति-व्यवहरति यत्र हते कुमार-दुःखमृत्युः । उपा० ५१ । विरुपमारणप्रकारः । स कुत्रिजापण: । विशे० ९६४ । कृत्रिमापणः । आव. ज्ञाता० १६२ । प्रत्यन्तान् सीमासन्धिवर्तिनः .क्षभ्यतो३२० । देवाधिष्ठित स्वेन स्वर्गमयं पाताललक्षणभूत्रितयसं- ऽन्तर्भूतण्यर्थत्वात् समस्ता अपि सीमापर्यन्तवत्तिनी: भविवस्तुसंपादक आवणो-हट्टः कुत्रिकापणः । ज्ञाता०५६ । प्रज्ञाः क्षोभयतो दुर्दान्तान् दुःशिक्षितान् संग्रामनीति कुशलः कूत्रिक-स्वर्गमर्मपाताललक्ष गं भूमित्रयं तत्सम्भवं वस्त्वपि । सर्वतः सर्वासु दिक्षु यो दमयन् वर्तते स एतादृशः कुमारः। कुत्रिकं तत्सम्पादक आपणो-हट्टः कुत्रिकापणः । भग० व्य० प्र० १७० अ । कुमार:-द्वितीयवयोवत्तिछात्रादिः । १३६ । उत्त० १७१ । उत्त० ३६४ । कुत्सिता मारा: कूमारा:- सौकरिकाः कुतियावणचच्चरी-कुत्रिकापणचर्चरी, (चर्चरी-चर्चा) । ओघ० ७५ । कुमारा-राज्याःि । प्रथमवयस्याः । दश० ५८ । ठाणा० ५०८ । मोदकप्रियकुमारः । पारिणामिकीबुद्धी कुत्थंभरि-कुस्तुम्भरि-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । दृष्टान्तः । नंदी० १६६ । अयस्कारः । उत्त० ४६१ । कुत्सति-निन्दति । आव० ५८७ । कुमारः राज्याहः । प्रश्न० ६६ । अमुकभोगी । बृ० द्वि० कुथुभरि-धाणगा । नि० चू० प्र० १४४ आ । १३ आ । कुदंडयं-कुदण्डक-काष्ठमयं प्रान्तरज्जुपाशम् । प्रश्न० ५६ । कुमारगाह-कुमारग्रहः उन्मत्तताहेतुः । भग० १६७ । कुदंडो-कुदण्ड:-असम्यग्निग्रहः । विपा० ६३ । बन्धन- कुमारग्गहो-कुमारग्रहः । जीवा० २८४ । विशेषः । प्रश्न० २२ । कुमारनंदी-कुमारनंदी चम्पायां सुवर्णकारः । आव ० कुदंसणं-मिथ्यादर्शनम् । आउ० । कुदर्शनाः शाक्यादयः । । २६६ । बृ० तृ० १०८ आ । प्रज्ञा० ६०। कुमारपुत्तिय-कुमारपुत्र: निर्ग्रन्थविशेषः । सूत्र० ४१० । कुद्दव-कोद्रवः, सामायिकलाभे द्रष्टान्तः । आव० ७५। कुमारभिच्च-कुमाराणां-बाल कानां भृतौ पोषणे साधु कुद्दाल-वृक्षविशेषः । भग० २७८ । उपरितनो भागः । कुमारभृत्यं, तद्धि शास्त्र कुमारभरणस्य क्षीरस्य दोषाणां उपा० २१ । कोद्दालः । जं० प्र० १८ । खनन- संशोधनार्थ दुष्टस्तन्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थं चेति। शस्त्रम् । शस्त्रविशेषः । आचा० ३३ । कुद्दाल:-भूख- आयुर्वेदस्य प्रथमाङ्गम् । विपा० ७५ । ठाणा० ४२७ । नित्रम् । प्रश्न० २४ । कुमारभुत्ती-कुमारभुक्तिः । आव० ३६६ । नि० चू० प्र० कुद्ध-क्रुद्धः । ज्ञाता० २१७ । २४३ अ । कुपक्ख-कुपक्षः-कुत्सितान्वयः । आचा० ३८८ । कुमारसमण-कुमारश्चासावपरिणीततया श्रमणश्च तपिस्व कुप्परा-कूपराविव कूर्परौ कूर्पराकारत्वात् । जं० प्र० रिव तया कुमारश्रमणः । उत्त० ४६८ । २०० कुमारामच्च-कुमारामात्यः । आव० ६७६, ४३६ नंदी० कुप्पावणियं-कुत्सितं प्रवचनं येषां ते तथा तेषु भवं! १६३ । दश० ५४ । कुमारामात्यः, असत्या सम्बद्धकुप्रावनिकम् । अनु० २६ । प्रलापित्वे उदाहरणम् । आव० ८३६ । कुप्पासओ-कुसिक:-कंचुकाः । बृ० द्वि० २३५ अ । कुमारामच्चतं-कुमारामात्यत्वम् । उत्त० १०५ । बृ० द्वि० २५६ आ । कुमारायं-कुमाराकं सन्निवेशः । वर्धमानस्वामिविहारकुबेरदत्तो-निजसुतागामी । भक्त. | भूमिः । आव० २०२ । कुब्जसंस्थानं-पञ्चमं संस्थानम् । प्रज्ञा० ४७२ । कुमारिए-सौकरिकः । बृ० द्वि०. ५१ अ । मारेति तं कुरिजका-वक्रजङ्गा । ज्ञाता० ४१ । | कुमारिया । नि० चू० प्र० १०७ अ । ( ३०४ ) 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. कुमारिया ] कुमारिया - जे कुमारेण मारेति ते । नि० चू० प्र० १०७ आ । कुमारो लग्गएहि - कुमारावलगकैः । उत्त० ११५ । कुमुअं- कुमुदं गद्दर्भकम् । दश० १८५ । कुमुदं चन्द्रबोध्यम् । जं० प्र० ११५ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ कुमुतं - कुमुदं - चन्द्रविकारयं पद्मम् । प्रश्न० ८४ । कुमुदं सहस्रारकल्पे विमानविशेषः । सम० ३३ । आनतकल्पे विमानविशेषः । सम० ३५ । कुमुदः - चन्द्रबोध्यम् । भग० ५२० । कुमुदः दिग्हस्तिकूटनाम । जं० प्र० ३६० । कुमुदो विजयः । जं० प्र० ३५७ । जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कुमुदगुम्मं - आनतकल्पे विमानविशेषः । मम० ३५ । कुमुदयभा- कुमुदप्रभा, पुष्करिणीनाम । जं० प्र० ३३५ । कुमुदा-कुमुदा पुष्करिणीनाम । जं० प्र० ३३५ । अञ्जनकपर्वते पुष्करिणी । ठाणा० २३० । कुमुदुगं - धान्यविशेषः । सूत्र० ३०६ । कुमुयं - कुमुदं चन्द्रविकासि । जीवा० १७७ । १९१९ । कुमुदः । राज० ८ । चन्द्रबोध्यादीनि । ज्ञाता० ६८ । कुमुयदल - कुमुददलम् । प्रज्ञा० ३६१ । कुसुया - महाविदेहेषु राजधानीविशेषः । ठाणा० कुमुदा - पश्चिमदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्यापरस्यां पुष्करिणी । जीवा० ३६४ | 1 ८० कुमुयाई - चन्द्र विकासीनि । जं० प्र० २६ | कुम्म -कूर्मः षष्ठाङ्गे चतुर्थं ज्ञातम् । आव० ६५३ सम० ३६ । उत० ६६४ । ज्ञाता० ६ | कच्छाः ज्ञाता० । सावोरुपमा । आव० ६५३ | कूर्मक: 2010_05 । । [ कुरुकुय ६६८ । कुल्माषाः - राजमाषाः । उत्त० २६५ । कुपित:मनसा कोपवान्। विपा० ५३ । माषविशेषाः । आचा० ३१३ । कुल्माषाः - उड़दा: । पिण्ड० १६८ । माषाः, ईषत्स्विन्ना मुद्रादयः । प्रश्न० १५३ | गोन्नद्वितीयनाम | आव० ६५४ । भग० कच्छपः । प्रश्न० ७० । कुम्मगामं - कूर्मग्रामः - वर्धमानस्वामिविहारभूमिः । ६६६ । आव० २१३ । कुरिणमि - महति अरण्ये । ओ० १५८ । कुम्मापुत्त - कूर्मापुत्रः । द्विहस्तसिद्धयां दृष्टान्तः । विशे० कुरु - जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । करुजनपदो यत्र १२२२ । कुम्मारगामं - कूर्मारग्रामः वर्धमानस्वामिविहारभूमिः भग० ६६४ | आव० २२२ । कुम्मासा - कुल्माषाः सिद्धमाषाः, यवमाषा इत्यन्ये । दश० १५१ । अर्द्धस्विन्ना मुद्गादयो भाषा इत्यन्ये । भग० ( अल्प० ३६ ) कुम्मुण्णया - कूर्मपृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता, अर्हदादीनां मातृयोनिः । प्रज्ञा० २२७ । कुम्मुन्नये - कूर्म्मः - कच्छपः तद्वदुन्नता कूम्र्मोन्नता । ठाणा० १२२ । कुय - कुव्वं - शिथिलम् । व्य० द्वि० २९७ आ । कुयवाय - वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कुरंग - द्विखुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । मृगभेदः शृङ्गवर्णादिविशेषः । जं० प्र० १२४ । कुरङ्गः मृगः । प्रश्न० .७ । द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः । जीवा ० ३८ । कुरंटओ - संदंशकः पुतपृष्टजान्वाच्छादि । वृ० द्वि० २३७ आ । I कुरच्छा (त्था ) - देवजाणरहो वा विविधा संवहणा गच्छति सेसा कुरच्छा (त्था ) । नि० ० ० ७१ आ । कुरज्ज - कुराज्यं भिल्लादिराज्यम् । जं० प्र० २७७ ॥ कुरणं - राजकीयमन्यदीयं वाची तं । व्य० प्र० १७७ आ । कुरत्था - कुरथ्या कुमार्गः । आव० ७४० । कुररी - पक्षिणी । उत्त० ४८० | कुररो - कुररः उत्क्रोशः । प्रश्न० २१ । कुरल - लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । जीवा० ४१ । कुरबक - वृक्षविशेषः । विशे० ६६ । |कुराईण- कुराजानः - प्रत्यन्तराजानः । आचा० ३३४ | कुराया- कुत्थितो राया, पञ्चंतणिवो । नि० ० प्र० २७७ अ । हस्तिनागपुरं नगरम् । ज्ञाता० १२५ । कुरुआ - कुरुकुचा - पादप्रक्षालनादिका । ओघ० ८२ । कुरुए- कुरुकम् । सम० ७१ । कुरुकुचा - पादप्रक्षालनाचमनरूपा । ओघ० १२५ । कुरुकु - अचित्तपुढवी । नि० चू० द्वि० १५६ आ । कुरु( ३०५ ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरुकुया ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [कुलत्थ कुच। ओघ० १९८ । आचा० २०३ । १४५। आव० ३४१ । कुटुंबं । नि० चू० प्र० ८३ कुरुकुया । नि० चू० प्र०१४८ आ।। अ । १५६ आ । चान्द्रादिकं साधुसमुदायविशेषरूपं प्रतीपादप्रक्षालनादिका । ७० द्वि० २६० अ । तम् । ठाणा०२६६ । कुटुम्ब, यूथं वा । प्रश्न० ३७ । कुरुकुरायंति-क्लिनीतः । आव० ३६३ । कृमिकीटवृश्चिकादि । जीवा० १३४ । पैतृक: पक्षः । कुरुजणपदं-कुरुजनपदं देशविशेषः । आव० १४५।। ज्ञाता० ७ । प्रश्न० ११७ । गच्छसमूदायरूपं चन्द्राकुरुजणवयं- " , । उत्त० ३६५ ।। दिकम् । प्रश्न० १२६ । नागेन्द्रादि । बृ० द्वि० ८४ कुरुटुक-काङ्कटुकबीजप्रायः । प्रश्न० ४३ । अ । विद्याधरादि । आव० ५१० । प्रख्यातं कुलम् । कुरुटुककडं-कुरुटुककृतं-कुरुटुकाः-काङ्कटकबीजप्राया अयो- ओघ० ४८ । अन्वयो गच्छः । उत्त, ३४७ । पार्श्वग्याः सद्गुणानां तैः कृतं अनुष्ठितम्, तृतीयाधर्मद्वारस्य नाथसन्तानम् । उत्त० ५०० । कुलमदः, द्वितीयं मदस्थाक्वचित् चतुर्थं नाम । प्रश्न० ४३ । नम् । आव० ६४६ । आर्यद्वितीयभेदे तृतीयः । सम० कुरुडः-कुणालायां स्थितमुनिः । उत्त० २०४ । १३५ । नागेन्द्रकुलादि । दश० २४२ । कुरुदत्त-अग्निदग्धो मुनिः । सं० । कुलए-कुडवं चतुःसेतिकामानम् । दश० १३४ । कुरुदत्तपुत्त-कुरुदत्तपुत्र:-ईशानसामानिकवक्तव्यतायां अन- कुलओ-चतस्रः सेतिका कुडवः । अनु० १५१ । कूलतः गारः । भग० १५६ । कुडवः । आव० ४२४। कुरुदत्तसुओ-कुरुदत्तसुतः हस्तिनापुरे इभ्यपुत्रः । उत्त० कुलकहा-उग्रादिकुलप्रसुतानामन्यतमा कथा कुलकथा । १०६। स्त्रोकथाया द्वितीयभेद: । आव० ५८१ । स्त्रीकथाया कुरुदत्तसुत-नषेधिकीमाचरतां हतः । मर० । द्वितीयभेदः । ठाणा० २०६। कूलसम्बन्धेन स्त्रीणां कथा कुरुभ-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२। कुलकथा । प्रभ० १३६ ।। कुरुमई-कुरुमता, ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां मध्येऽष्टमी, | कुलक्ख-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । कुलाक्षः-चिलातस्त्रीरत्नम् । उत्त० ३७६ । सम० १५२ ।। । देशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रभ० १४ । कुरुया-देशतः सर्वतो वा शरीरस्य प्रक्षालनं कुरुका । कुलगर-कुलकरः । आव० ४६६ । कुलकराः-विशिष्टबुद्धयो व्य० प्र० १६३ आ । लोकव्यवस्थाकारिणः कुलकरणशीला: पुरुषविशेषाः । जं० कुरुविंद-कुरुविन्दः-तृणविशेषः । जं० प्र० ११० । तृणवि- प्र० १३२ । कुलकराः-विशिष्टबुद्धयो लोकव्यवस्थाकाशेषः । आचा० ५७ । प्रज्ञा० ३३ । तृणविशेषः । प्रश्न० रिणः पुरुषविशेषाः । ठाणा० ५१८ ।। ८० । कुटलिकः । प्रश्न० ८० । कुलगरकालो-कुलकरकालः । आव० ११३ । कुरुए-कुत्सितं यथा भवत्येवं रूपयति-विमोहयति यत्तत् | कुलगा नि० चू० दि० १२० अ । कुरूपं भाण्डादिकर्म । भग० ५७३ । कुलघरं-पितृगृहम् । ज्ञाता० ११६ । औप० ८६ । बृ० कुर्यात्-आलोचयेद् । आचा० ३३७ ।। प्र० २०७ अ । नि० चू० प्र० १६४ अ । कुलं-आचार्यसंततिसंस्थितिः । त० ६-२७ । उग्रादि। पिण्ड० कुलच्चिया-कुलगता। व्य० प्र० २४८ । १२६ । वंशस्यावान्तरभेदम् । ज्ञाता० २२० । गृहम् । कुलजः-कुलपुत्रकः । बृ० द्वि० १६५ आ । आचा० ३२१ । बृ० द्वि० ८६ अ । नि० चू० कुलजुत्तीए-आत्मकुलौचित्येनेत्यर्थः । व्य० प्र० २२४ अ । प्र० १८५ अ । उत्त० ४०४ । गिहं । नि० चू० प्र० कुलत्थ-एकत्र कुले तिष्ठन्ति इति कुलस्थाः । धान्यविशेषः । ७० अ । समूहः । ज्ञाता० १६१ । स्थानीयादि । निरय० २४ । चवलिकाकाराः चिपिटिका भवन्ति । आचा० ८१ । एगं कुटुंबं । दश० चू० १६३ । पितृ भग० २७४ । धान्यविशेषः । भग० ८०२ । औषधिसमुत्थं कुलम् । पिण्ड० १२६ । सूत्र० २३६ । उत्त विशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कुलत्था:-चपलकतुल्याश्चिपिटा 2010_05 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलथेरा ] भवन्ति । जं० प्र० १२४ । कुलत्था: धान्यविशेषः । दश० १९३ । चवलगसरिसा चिप्पिडया भवन्ति । ठाणा० ३४४ । एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्था: । अन्यत्र कुलत्थाः धान्यविशेषाः । ज्ञाता० ११० । कुलथेरा - कुलस्य लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणस्तद्भङ्क्तश्च निग्राहकास्ते | ठाणा० ५१६ । कुलधमा - कुलधमगा- ये कुले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुञ्जते । निरय० १५ । कुलधम्मे - कुलधर्म्मः - उग्रादिकुलाचारः । कुलं- चान्द्रादिकमार्हतानां गच्छसमूहात्मकं तस्य धर्म्मः - सामाचार ठाणा० ५१५ । कुलपव्वए- कुलपर्वत: हिमाचलादि । जं० प्र० ४११ । कुलपव्वया-क्षेत्रमर्यादाकारित्वेन कुलकल्पाः पर्वताः-कुलपर्वताः, कुलानि हि लोकानां मर्यादानिबन्धनानि भवन्ति इतीह तैरुपमा कृता । सम० ६६ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ कुलपुत्तगो - कुलपुत्रकः । आव ० ४२२ । कुलपुत्तय - कुलपुत्रकः । उत्त० ५० । कुलपुत्रकुलमसी - कुलमषी - कुलमालिन्यहेतुः, त्रयोविंशतितमं नाम । प्रश्न० ४३ । कुलरोग - कुल रोगः - कुलजन्य रोगः । भग० १६७ । कुलल - गृध्रं, शकुनिका वा । उत्त० ४१० । पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । कुरर:- मार्जारनामा पक्षिविशेषः । उत्त० ५११ | मार्जारः । दश० २३७ | मज्जारो । दश० चू० १२६ । कुलवे - कुडवः । भग० ३१३ । कुलशिकाचतुर्थांशरूपो . धान्यमानः । बृ० द्वि० २३६ अ । कुलसरिसं - श्रीमद्वणिजां रत्नवाणिज्यमिव । ज्ञाता० २०५ कुला - कुलानि, नक्षत्राणि । सूर्य ० १११ । कुला - कुलानि गृहाण्यामिषान्वेषणार्थिनो नित्यं येऽटन्ति ते, मार्जाराः । सूत्र० ८०० । कुलाण - मृदुभाजनं । नि० चू० द्वि० नानि । नि० ० प्र० ३४४ आ । 2010_05 कुलिंगच्छाए - पिपीलिकासदृशः । भग० ७५४ | कुलिंगाले - कुलस्य -स्वगोत्रस्याङ्गार इवाङ्गारो दूषकत्वादुपतापकत्वाद्वेति । ठाणा० ६८४ । कुलिंग - द्वीन्द्रियादिः | ओघ० २२० । कुलपुत्तओ - शय्यातरः । बृ० प्र० ३१० अ । कुलपुत्रकः । कुलिअ - कुलिकं, लघुतरं काष्ठं तृणादिच्छेदार्थं यत्क्षेत्रे आव ० ८१६ । वाह्यते तत् मरुमण्डलादिप्रसिद्धम् । अनु० ४८ । क्षेत्रस्यास्थ्यादिशल्योद्धरणे साधनविशेषः । आव ० ५५४ । कुलिकं, क्षेत्रविदारणं कृषिसाधनम् । दश० ४० । कुलिज्जं - कुलसमवायं । नि० ० प्र० २६१ अ । कुलिय - कुलिकं - दन्तालवत्तिर्यक्कृतकाष्ठे उभयपार्श्वनिखातकाष्ठमयकीलकयोस्तिर्यग्व्यवस्थापिततीक्ष्णलोहपट्टकं हरितादिच्छेदनाथं क्षेत्रेषु यद् बाह्यते तत् लाटादिकृषीबलप्रतीतं वेदितव्यम् । विशे० ४३५ | कडणकृतं कुड्यम् । सूत्र० ५८ । हलप्रकारः । प्रश्न० ८ । हलविशेषः । प्रश्न २४ । कुंडं । नि० चू० द्वि० ८४ अ । कुलिकम् । आचा० ३३ । कुलिया - कुड्यम् । बृ० द्वि० १५९ अ । कुलीकोस- कुटीक्रोशः - पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । कुलोवकुला - कुलोपकुलानि । सूर्य ० १११ । कुल्माषा - उडदा, राजभाषा वा । बृ० प्र० २६७ आ । कुल्लग - नितम्बः । नि० चू० द्वि० ६२ अ । कोल्लाकसन्निवेशः । आव ० १७१ । | आचा० १०६ । 1 तृतीयाधर्मद्वारस्य [ कुल्लूरिकापण: नि० चू० प्र० २४३ अ । कुलाणुरूवं - कुलोचितम् । ज्ञाता० २०५ । कुलारिया - कुलार्याः । प्रज्ञा० ५६ । कुला - विशुद्धान्वयप्रकृतयः । त० ३-१५ । कुलालचक्र -दृष्टान्तविशेषः । प्रज्ञा० ११ । कुलालया - कुलानि - क्षत्रियादिगृहाणि तानि नित्यं पिण्डपातान्वेषिणां परतर्कुकाणामालयो येषां ते कुलालयाः, निन्द्यजीविकोपगताः । सूत्र० ४०० । कुलिंग - पिपीलिकादि । भग० ७५४ । कुलिङ्ग - तापसादिलिङ्गम् । आव ० १३४ । त्रीन्द्रियादि मर्दितः । ओघ० १६७ । १०६ अ | भाज- कुहूरिकहट्टः - खाद्यकापणः । विशे० ८५३ । असोगस्स पुत्तों । | कुछूरिकापणः खाद्यकापणः । आव० २७५ । ( ३०७ ) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवणउ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कुसल कुवणउ-लउडगो । नि० चू० द्वि० १३३ आ । ज्ञाता० ११४ । कुशः-छिन्नमूलो दर्भः । भग० २६०.। कुवणओ-लगुडः । बृ० तृ० ६८ अ । निर्मूलः । विपा० ७२ । दर्भः । ज्ञाता० ७६ । कुवणय-लगुड: । बृ० प्र० १५३ अ । औप० ६ । भग० २७८ । जं० प्र० ६८ । प्रश्न कुवथंभं-कूपस्तम्भम् । विशे० १३५५ । १२८ । दर्भसदृशस्तृणविशेषः । उत्त० ३३४ । कुवलय-नीलोत्पलं पद्मम् । प्रश्न० ८४ । कुवलयं तदेव कुसग्गं-कुशाग्रं, कुशाग्रपुरम्, अपरनाम प्रसेनजिद्रराजनीलम् । जं० प्र० १६५ ।। धाची। आव० ६७० । कुवलयन-वस्त्रादिमयं कुवलयनम् । व्य०द्वि०२७८ आ। कुसग्गजलबिन्दुसन्निहे-कुशाग्रजलबिन्दुसंन्निभः । उत्त. कुविद । आचा० २२८ । ३२६ । । आचा० ३७६ ।। कुसट्टा-जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । कुविंदवल्ली-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । कुसणं-द्विदलम् । आव० ८४४ । कुशनं सूपः, व्यञ्जनं कुविदाः-तन्तुवायाः । प्रज्ञा० ५८ । वा । उत्त० १६० । मुद्गदाल्यादि तदुदकं वा। बृ० कुविए-कुपित:-प्रवृद्धकोपोदयः । भग० ३२२ । ज्ञाता० द्वि० २४६ आ । कुसिणं-व्यञ्जनम् । आव० ३१४, ६८ । जं० प्र० २०२ । ८५६ । कुवितसाला-कुपितशाला-तूल्यादिगृहोपरकरशाला । प्रश्न० कुसणातिओ-कुसणादिक: मिश्रितः । आव० ८५७ । १२७ । कुसत्तो-कुसत्त्व:-तुच्छघृतिबलः । बृ० द्वि० २४१ आ। कुवितो-कुविओ । नि० चू० प्र० २८६ अ । कुसथंवो-कुशस्तम्बः-कुशसमूहः । आव० ६७१ । कुविय-कुप्यं-विविधं गृहोपस्कारात्मकम् । उत्त० २६२ । । कुसपडिमा-कुशपडिमा । आव० ६३०, ६३५ । कुप्यः-गृहोपस्कर: स्थालकच्चोलकादि । उपा० ८ । कुसपत्तएण- । आचा० ३७६ । गृहोपस्करः । प्रश्न. ६२ । आसनशयनभण्डककरोटक कुसमघरगं-कुसुमगृहक-कुसुमप्रकरोपचितं गृहकम् । लोहाद्युपस्करजातम् । आव० ८२६ । कुपित:-जातको- जीवा० २०० । पोदयः । भग० १६७ । कुपितम्-घटितम् । दश० ११५ । कुसमयमोहमोहमइमोहियाणं-कुत्सितः समय:-सिद्धान्तो कृवियपमाणाहकमे-कूप्यप्रमाणातिक्रमः । आव० ८२५ । येषां ते कुसमया:-कुतीथिकास्तेषां मोहः-पदार्थेष्वयथाकुवेणी-कुवेणी रूढिगम्या । प्रश्न० ४८ । वबोधः कुसमयमोहस्तस्माद्यो मोहः-श्रोतृमनोमूढता तेन कूटव-कुर्व-इत्यागमप्रसिद्धो । व्य० प्र०१०७ आ। मतिर्मोहिता-मूढतां नीता येषां ते कुसमयमोहमोहमतिकुव्वकारिया-गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । मोहिताः । सम० ११० । कुम्वासह-सुभरो । नि० चू० प्र० ३३२ आ । कुसल-कुशल-मिलितानां चौराणां सुखदुःखादितद्वार्ता प्रश्नः। कुशः-तृणविशेषः । जीवा० २६ । प्रज्ञा० ३० । प्रश्न० ५८ । कुशल:--आश्रवादीनां हेयोपादेयतास्वरूपकुशलानुष्ठानं-ब्रह्मचर्यम् । सम० ६६ । वेदी । भग० १३५ । पंडितो । नि० चू० द्वि० १४६ कुशवच्चकम्-दुर्बलालम्बनः । आव० ५३४ । . आ। कुशल:-सम्यक्रियापरिज्ञानवान् । जीवा० १२२ । कुशाग्रीयया-शेमुष्या । आचा० ११६ । 'जं० प्र० ३८८ । आलोचितकारी । भग० ६३१ । कुशूल-कोष्ठम् । बृ० द्वि० १६८ आ । विशे० ६३८ । गीतार्थः । आचा० ४३० । कुशलः-सम्बाधनाकर्मणि कुष्माण्डी-विद्याविशेषः । आव० ४११ । साधुः । औप० ६५ । कर्मक्षपणसमर्थः, प्रधानो वा । गणविशेषः । जीवा० १४५ । नि० चू० प्र० २५ आ । कुशलः-विधिज्ञः । प्रश्न कुसंतो-कुशान्तः-दर्भपर्यन्तः । जीवा० २१० । १२६ । क्रियापरो। नि० चू०प्र० २६६ आ। कुशल:कुस-दर्भानेव निर्मूलान् । निरय० २६ । मूलभूतः । । अवाप्तज्ञानदर्शनचारित्रो मिथ्यात्वद्वादशकषायोपशमसद ( ३०८ ) 2010_05 . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसलत्तणं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कुसुमा भावात् । आचा० १४७ । क्षीणघातिकर्मांशो विवक्षितः। कुसीलवे-कुशीलवानां-नटानां । बृ० प्र० १०३ आ। आचा० १४७ । आलोचितकारी । अनु० १७७ । कुसीलाणपरिभासा-सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्चे सप्तश्रीवर्द्धमानस्वामी । आच० २१६ । कुशाः द्रव्यतो दर्भा- ममध्ययनम् । उत्त० ६१४ । दयो भावतः कर्माणि तान् कर्मरूपान् कुशान् लुनन्ति- कुसीलाणपरिहासा-कुशीलपरिभाषा, सूत्रकृताङ्गाद्यसमूलानुत्पाटयन्तीति तीर्थकराः । वृ० प्र० १६३ अ । श्रुतस्कन्धे सप्तममध्ययनम् । आव० ६५१ । स्ववितर्काच्चिकित्सादिप्रवीणाः । ज्ञाता० १८० । कुसुंबए-वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३६ । तीर्यकृत् । आचा० २११ । कुसुंभ-औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । लट्टाकाणाः । कुसलत्तणं-कुशलत्वं-सम्यग्ज्ञानम् । आव० ३४६ । प्रावी- यत्पूष्पैर्वस्त्रादिरागः । जं० प्र० १२४ । गम्भ-तैलस्य ण्यरूपम् । उत्त० १४३ । तृतीय भेदः । आव० ८५४ । धान्यविशेषः । भग० ८०२ । कुसलदिट्ट-कुशलदृष्ट-तीर्थकरोपलब्धम् । दश० १०६ । कुसंभग-कुसुम्भक:-लट्टा । धान्यविशेषः । भग० २७४ । कुसलनरपसंसियं- । आचा० ४२३ । उदगविशेषः । नि० चू० तृ० ५२ आ । कुसलाणबंधि-मोक्षानुकूलम् । च० ३ । कुसुंभरागः-प्रायोगिकरागः । आव० ३८७ । कुसलोदंत-कुशलवार्ता । ज्ञाता० १४६ । कुसुंभवणे-कुसुम्भवनम् । भग० ३६ । कुलल्लिय-कुशल्यितं -- अन्तःप्रविष्टतोमरादिशल्यशरीरमिव कुसुमिओ-कुशुम्भका, अतमी । ओघ० १४६ । . सजातदुष्टशल्यम् । प्रश्न० १३४ । कुसुण-कुशनं, दध्यादि । पिण्ड० १६५, ६० । कुसवरो-कुशवर:-अपान्तरालद्वीपः । जीवा० ३६८ । कुसुणियं-कुसुणित-करम्बादिरूपतया कृतम् । पिण्ड०६१। कुसा-स्थावरजीवविशेषः । सूत्र० ३०७ । कुसुम-पाटलिपुत्राभिधं नगरम् । आव० २६४ । कुसुमकुसिणं-दधिदुग्धादि । ओघ० १६३ । समूहः । जीवा० २५५ । कुसुमजातन् । जीवा० २५६ । कुसिया-कुसिताः मोचयितुमसमर्थाः । व्य० द्वि० १५६ । अविकसितः । औप० ५६ ।। कुसी-कुशी । आव० ३६७ । | कुसुमकुंडलं-धत्तूर कपुष्पसमानाकृतिकर्णाभरणं, दर्भकुसुमं कुसीमूलियं-कुशीमूलिका । आव० ८२६ । वा । अन्त० ५ । कुसील-कुशील:-निर्ग्रन्थस्य तृतीयो भेदः । व्य० द्वि० ४०२ कुसुमघरए-कुसुमप्रायवनस्पतिगृहम् । ज्ञाता० ६५ । अ । निर्ग्रन्थस्य तृतीयभेदः । कुत्सितं शीलं-चरणमस्येति कुसुमघरगा-कुसुमप्रकरोपचितानि गृहकाणि कुसुमगृहकुशीलः । भग० ८६० । कुशील:-परतीर्थकः, पार्श्व- काणि । जं० प्र० ४५ । स्थादिर्वा स्वयूथ्या अशीलगृहस्थः । सूत्र० १५३ । कुत्सित- कुसुमट्टिया-कुट्टिया पुणो मट्टियाए सह कुट्टिजति । शीलः कुशील:-कालविनयादिभेदभिन्नानां ज्ञानदर्शनचारि- उसुमट्टिया, कुसुमट्टिया वा । नि० चू० तृ० ६४ अ । त्राचाराणां विराधक इत्यर्थः । ज्ञाता० ११३ । कुत्सितं कुसुमपुर-मायापिण्डोदाहरणे सिंहरयराजस्य नगरम् । शीलमस्येति कुशीलः । आव० ५१७ । कुशीलः । नि०. पिण्ड० १३६ । चूर्णद्वारविवरणे चन्द्रगुप्तराजधानी । चू० द्वि० १६८ अ। कुशील:-असंविग्नः । ओघ० १२० । पिण्ड० १४३ । पाटलीपुत्रमभिधीयते । नि० चू० प्र० कुसोलओ-कुशीलव:-विदूषक: । आव० ३९८ । .... १३६ आ । बृ० द्वि० २२७ अ । मुरुण्डस्य राजधानी। कुसोलपडिसेवणया- कुशीलप्रतिषेवणता- कुशील-अब्रह्म । बृ० द्वि० २५६ आ । तस्य प्रतिषेवणं कुशीलप्रतिषेवणं, तद्भावः । ठाणा० कुसुमरसं-कुसुमरसः. कुसुमासव: । दश० ७२ । २८१ । | कुसुमसंभवे-कुसुमसम्भवः, दशम मास नाम । जं० प्र० कुसोलपरिभासिए-सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे सप्तम- ४६० । सूर्य ० १५३ । मध्ययनम् । सम० ३१ । | कुसुमा-कुसुमसदृशत्वात् सौकुमार्यादिगुणयोगेन कुसुमाः । . ( ३०६ ) -- 2010_05 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसुमानि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कूड जं० प्र० १३१ । मुपगतः, ईषद्दुर्गन्धः । ज्ञाता० १२६ । कुसुमानि-पद्मलक्षणानि जातानि यत्र तत्कुसुमितम् । कुटुंडियाकुसुमं-कूष्माण्डीकुसुमं-पुष्पफलीकुसुमम् । जीवा० ठाणा० ५०२ । १६१ । कुसुमासव- किल्क: । औप० ८ । कुहुक-कुतूहलम् । उत्त० ३४७ । कुसुमासवलोला-किजल्कपानलम्पटा: । जीवा० १८८ । कुहुण-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । भूमिस्फोटकमकरन्दलम्पटाः । ज्ञाता० २७ । किञ्जल्कलम्पटाः । विशेषः । आचा० ५७ । ज्ञाता० ५। कुहेडविज्जा-कुहेटकविद्या-अलीकाश्चर्यविधायिमन्त्रतन्त्रज्ञाकुसुमिय-वसुमितं-सञ्जातवृसुमम् । भग० ३७ । । नात्मिका । उत्त० ४७६ । कुस्तुम्बकः-वनस्पतिविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । कूअ-कुतपः-तैलादिभाजनम् । जं० प्र० २६४ । कुरस-कुशो-यो वेधे प्रान्त: प्रवेश्यते । बृ० प्र० ३६ आ। कूअणता-कूजनता-आर्तस्वरकरणम् । ठाणा० १४६ । कुहंडयकुसुम-कूष्माण्डिकाकुसुमं,पुष्पा(पुंस्क)लिकापुष्पम्। कूइआ-कूर्चिका । आव० १०२ । प्रज्ञा० ३६१ । कूइए-कूजितम्-कासितम । आव० ५७४ । हंडिया-मुद्रितः । आव० २२४ । कूइगादि-कूचिकादि । आव ० १९८ । कुहंडे-कुहण्ड:-वाणमन्तरविशेषः । प्रज्ञा० ६५ । कूचिया-कूचिका-बिन्दुरूपा बुद्बुदा । विशे० ६३३ । कुह-कुहः-वृक्षः । दश० १७ । कूच्च-कूर्चः-गूढकेशोन्मोचको वंशमयः । उत्त० ४६३ । कुहए-कुहकः इन्जालादि । दश० २५४ । कुजणया-मातिपितिभातिभगिणीपुत्तदुहित्तमरणादीवि (सु) कुहकं-कुहकं, परेष विस्मयोत्पादनप्रयोगः । प्रभ० १०६ । महइमहंतेण सद्देण रोवइत्ति कूजणया । दश० चू० १५ । वृतूहलम् । उत्त० ६५६ । कूजन्त-अव्यक्तं शब्दायमानम् । ज्ञाता० १६७ । कुहकण्रा-क्षेपकरणम् । नि० चू० द्वि० ७ आ । कजित-विविधविहगभाषयाऽव्यक्तशब्द सुरतसमयभाविनम् । कुहण-भूमिस्फोटकविशेषः । आचा० ५७ । एक एवा. उत्त० ४२५ । लापको दाव्यः तदयोनिकानामपरेषामभावादिति भावः। कूट-१० १० ११ सूत्र० ३५२ । कुहणविशेषः । प्रज्ञा. ३३ । कुहण: । ठाणा० ५०७ । चिलातदेशवासी । प्रश्न. १४ । कूटप्रयोगकारी-प्रच्छन्नपापः । आव० ५८६ । कुहण ग-कुधनता-दारित्यभावः । क्रोधनता। प्रश्न०१०६ । कूड-कूट-शिखरं,स्तूपिकाः अथवा कूट-सत्त्वबन्धनस्थानम्। कुहणा-कुहणाः-भूमिस्फोटाभिधानाः ते चाप्कायप्रभृतयः । ठाणा० २०५ । कूट-शिखरम् । जीवा० २०५ । परप्रज्ञा० ३० । कुहणा-भूमिस्फोटाभिधानास्ते चाकाय वञ्चनार्थ न्यूनाधिकभाषणम् । प्रभ० २७ । मानादीनाप्रभृतयः । जीवा० २६ । कुहणा-भूमिस्फोटकविशेषाः । मन्यथाकरणम्। प्रश्न०५८ । कार्षापणतुलाप्रस्थादेः परवसर्पछत्रकादिः । उत्त० ६६२ । ञ्चनार्थं न्यूनाधिककरणम् । सूत्र० ३३० । कार्षापणतुलादेः कहर-पर्वतान्तरालम् । ज्ञाता० ६३ । जं० प्र. १४४ । परवञ्चनार्थ न्यूनाधिकरणम् । ज्ञाता० ८० । कार्षाकुहव्वए-कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ । पणतुलाव्यवस्थापत्रादीनामन्यथाकरणम् । ज्ञाता० २३८ । कुहा-कुत्ति पुहवि तीए. धारिजंति तेणं कुहा । दश० रत्नकूटादि । अनु० १७३ । असत्भूतम् । आव० ८२१ । कूट-भ्रान्तिजनकद्रव्यम् । जं० प्र० १६६ । कुहाड-प्रहरणविशेषः + नि० चू० प्र० १०५ अ। महच्छिखरम् । जं० प्र० ४६ । मृगग्रहणकारणं कुहित-कुथितः-कोथमुपनीतः । ज्ञाता० ६७ । गर्तादि । भग० ६३ । शिखरं, हस्त्यादिबन्धनस्थानं वा । कुहिय-कुथितः-पूतिभावमुपगतः । जीवा० १०७ । कोथ- भग० २३८ । माडभागः । रजतमय उत्सेधः । जं० प्र० (३१०) ___ 2010_05 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूडकवडमवत्थुगं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ कूयरा ४६ । भ्रान्तिजनकद्रव्यम् । भग० ३०८ । कूट:- कूडसामली-कूटाकाराशिखराकारा शाल्मली कूटशाल्मली। सिद्धायतनकूटप्रभृतिः । प्रज्ञा० ७१ । माडभागः । जीवा० ठाणा० ६६, ७६ । २०४, ३६० । कुटकेषु-अधोविस्तीर्णेषूपरि संकीर्णेषु कूडा-कूटा:-नन्दनवनकूटादिकाः । प्रश्न० ६६ । वृत्तपर्वतेषु हस्त्यादिबन्धनस्थानेषु वा । ज्ञाता० ६७ । कूडागारं-धन्नागारं । नि० चू० प्र० २६५ अ । कूटाकूट-प्रभूतप्राणीनां यातनाहेतुत्वं नरक इत्यर्थः । गारं-सशिखरभवनम् । प्रश्न० ८२ । पव्वतसंठितं उवउत्त० २४३ । पर्वतः । नंदी० २२८ । माडभागः । रुवरिभूमियाहिं वट्टमाणं कुडागारं, कूडेवागारं कूडागारं राज० ६२ । पाषाणमयमारणमहायन्त्रम् । भग० ६७३ । पर्वते कुट्टितमित्यर्थः । नि० चू० द्वि० ६६ आ । कूडकवडमवत्थुगं-कूटकपटावस्तुकं-कूटं-परवञ्चनार्थं न्यू- कूटाकारः । जीवा० २६६ । नाधिकभाषणं, कपट-भाषाविपर्ययकरणं । अविद्यमानं | कूडागारसंठिओ-कूटाकारसंस्थितः-शिखराकारसंस्थितः । वस्तू-अभिधेयोऽर्थो यत्र तत् । समानार्थत्वादेकमधर्म- जीवा०२७६ । । द्वारस्य षष्ठं नाम । प्रश्न० २६ । कडागारसाला-कूटाकारेण-शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कूडग्गाहो-कूटेन जीवान् गृह्णातीति कूटग्राहः । विपा० कूटाकारशाला । भग० १६३ । कूटस्येव-पर्वतशिखर४८ । स्येवाकारो यस्याः सा तथा, सा चासौ शाला च । कूडछेलियहत्थो-कूटछेलिकाहस्तः-या च कूटेन स्थाप्यते विपा० ६३ । कस्मिश्चिदुत्सवे कमिश्चिन्नगरे बहिर्भागचित्रकादिग्रहणार्थं छेलिका-अजा सा, कूटं-मृगादिग्रहण- प्रदेशे महतीदेशिकलोकवसनयोग्या शाला-गृहविशेषः । यन्त्रं च छेलिका चेति कूटछेलिका सा हस्ते यस्य सः । | निरय० २२ । कूटस्येव-पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा प्रश्न० १३ । कूटाकारा यस्या उपरि आच्छादनं शिखराकारं सा कूडतुलकूडमाणे-कूटतुलाकूटमानं, तुलया कुडवादिमानेन कूटाकारेति, कूटाकारा चासौ शाला च कूटाकारशाला, च यन्न्यूनाधिकत्वम् । आव० ८२२ । यदिवा कुटाकारेण शिखराकृत्योपलक्षिता शाला कूटा. कूडत्तं-कूटत्वं-न्यूनाधिकत्वम् । आव० ८२३ । कारशाला । राज० ५८ । कूडपासए-कूटपाशकः । आव० ४३५ । कूडाहच्चं- कूटस्येव-पाषाणमयमारणमहायन्त्रस्येवाहत्याकूडया-कूटता-तुलादीनामन्यथात्वम्, तृतीयाधर्मद्वारस्य आहननं यत्र तत् कूटाहत्यम् । भग० ६७० । कूटे इव द्वाविंशतितमं नाम । प्रश्न० ४३ । तथाविधपाषाणसम्पुटादौ कालविलम्बाभावसाधादाहत्याकडरूवग-कूटरूपकः । आव० ४२१ । कूटरूप्यम् । आहननं यत्र तत् कूटाहत्यम् । भग० ३२३ । आव० २०० । कृणिए-श्रेणिकचेल्लणयोः पुत्रः । निरय० ४ । श्रेणिकफूडलेहकरणं-कूट-असद्भूत लिख्यत इति लेखः, तस्य राजपुत्रः । ज्ञाता० ६ । चम्पानगर्यां राजा । निरय० करणं-क्रिया कूटलेखक्रिया-कूटलेखकरणं अन्यमुद्राक्षर १६ । चम्पायां राजा । भग० ६२० । बिम्बस्वरूपलेखकरणमित्यर्थः । आव० २२० । -कूणिक:-चम्पायां राजा । भग० ३२० । शिक्षाकूडव-मानविशेषः । आव० ८२३ । . योगदृष्टान्ते श्रेणिकपूत्रः, अपरनाम अशोकचन्द्रः । आव० फूडवाही-कूटवाही, बलीवर्दः । आव० ७६७ । . ६७९ । भग० ५५६ । परकृतमरणे दृष्टान्तः । भग० कूडसक्खिज्ज- कूटसाक्षित्वम्- उत्कोचमात्सर्याद्यभिभूतः । ७६६ । प्रमाणीकृतः सन् कूटं वक्ति, अविधवाद्यनृतस्यात्रवान्तर्भावो कूपिअं-कूपिका, सन्निवेशः । महावीरस्वामिविहारभूमिः । वेदितव्यः । आव० ८२० । आव० २०७ । कूडसामलिपेढे-कूटाकारा-शिखराकारा शाल्मली तस्याः कूबरं-युगन्धरम् । जं० प्र० २६१ । पीठं-कूटशाल्मलीपीठम् । ०प्र० ३५५ । कयरा-कुत्सितं शिष्टजनजुगुप्सितं चरन्ति इति कुचरा: ( ३११) 2010_05 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ कृमिः उद्भ्रामका, उद्भ्रामिका वा । बृ० द्वि० ६४ अ । अन्त० ३ । कूर-भक्तं । बृ० प्र० २३६ अ । ओदनविशेषः । ओघ० | कूवणय-कूपनय:-कुमारायां कुम्भकारः । आव० २०२ । १३३ । कूरः । आव० ३५२, ६२४ । धान्यविशेषः । कूवति-कूजति-शब्दं करोति । आव० ८१६ । आव० ३१४ । परिकगनायां दृष्टान्तः । ओघ० ६६ । कूवमहो-कूपमहः-कूपसत्क उत्सवः । जीव० २८१ । कूरओडिया-कूरकोटिका-शिप्रचटिका । आव० ६२२।। कूवय-कूपकः, स्तम्भविशेष: । औप० ४८ । कूरकम्मा- क्रूरकर्माः, क्रूराणि कर्माणि यस्य सः । प्रश्न कूवयट्ठाणं-कूपकस्थामम् । नि० चु० प्र० ४७ अ । कूवर-कूबरं-तुण्डम् । ज्ञाता० १५६ । कूरगडुकप्राय-सीयकूभोई अन्तपन्ताहारो । भग० ७०५। कूविए-चोरगवेषकः । ज्ञाता० ७६ । कूपिका । ज्ञाता. कूरपुवगादि-कूरसिस्थादि, (देशीवचनं) । आव० ३१५ ।। ७ । कूरभायण-कूरभाजनः, ओदनभाजनः । दश० ३८ । कूविय-कूजकः, व्याहारकारी, गवां व्यविर्तका इत्यर्थः । कूर विहाणं-कूरविधानम् । आव० ८५५ । __ पिण्ड ४७ । कूरिकड-रिकृतं, क्रूरं चित्तं को वा परिजनो यस्या- कूवियबल-निवर्तकसैन्यानि । ज्ञाता० २३८ । स्ति स क्रूरी, तेन कृतं-अनुष्ठितम् । तृतीयाधर्मद्वारस्य कूष्माण्ड:-व्यन्तरविशेषः । प्रश्न० ५१ । चतुर्थं नाम । प्रश्न० ४३ ।। कूष्माण्डा:-पिशाचविशेषः । प्रज्ञा० ७० । कूर्मापुत्रः-नामविशेषः । औप० ११७ । कूर्मापुत्रः । प्रज्ञा० | कूष्माण्डी-वल्लीविशेषः । जीवा० २६ । प्रज्ञा० ३० । १०६ । कूसेह-( देशी० ) गवेषयत । बृ० द्वि० १२० अ। कुनिता-मनुष्ययोनिभेदः । आचा० ६७ । कूहंड-कूष्माण्डः, व्यन्तरनिकायामुपरिवत्तिनो जातिवि. कूलधमग-कूले स्थित्वा । भग० ५१६ । शेषः । प्रश्न० ६६ ।। कलवारओ-कूलवारक: विशालाभले श्रमण शान्तः ।। ककलासः-अण्डविशेषः । दश० २३ आव० ४३७ । कृतकुल:-कृतकुरुकुचः । व्य० द्वि० १६१ आ । कूलवाल-श्रमणविशेषः । सूत्र० १.३ । । | कृतनिष्ठितता-तन्दुलानां वपनमारभ्य यावद् वारद्वयं कूलवालओ-कूलवालकः, विशालाभङ्गे श्रमण दृष्टान्तः । कण्डनं तावत् कृतत्वम्, तेषाञ्च तृतीयवारं तु कण्डनं आव० ४३७ । निष्ठितत्वम् । पिण्ड० ६६ । । कूलवालक-गुरूणामेव प्रत्यनीकः । बृ० प्र० २१४ अ । कृतप्रतिकृतिक:-कृते-उपकृते प्रतिकृतं-प्रत्युपकारः तद् विशालाभङ्गे श्रमणदृष्टान्तः । नंदी० १६७ । शिलाक्षेपकः यस्यास्ति स । ठाणा० २८५ । श्रमणः । उत्त० ४४ । आचार्य दिप्रतिकूलत्वे निदर्शनी- कृतमालिक-यक्षविशेषः । ठाणा० २५८ । भूत. क्षुल्लकः । उत्त० ५४६ । | कृतमाल्यक-तमिस्रागुहायाः अधिष्ठायकदेवः । ठाणा० ७१। कुलवालगो-कूलवालक:-शिलाऽक्षेपक: श्रमणः । आव०. कृतयुगादीनि- .... । ठाणा० १७८ । ६८५ । | कृतवीर्यः-कार्तवीर्यपिता क्षत्रियः । सूत्र०.१७०, १७८ । कूलवालो-श्रमणोऽविनीतः । बृ० द्वि० ५ आ । . कार्तवीर्यपिता । सूत्र० ३६५ । । कूव-कूपः । आव० ५८१ । प्रश्न० ८ । कूजक-व्यावत- कृतिकर्म-द्वादशावत्तवन्दनकम् । ठाणा० ४०८ । कर्मकबलम् । ज्ञाता० २२१ । अन्धकूपादिः । प्रश्न० ५६ । णोऽपनयनकारकमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायविषयमवनामादिकूप:-रोमरन्ध्रः । भग० ४६० । कुतुपः । ज्ञाता० रूपमिति । आव० ६८ । कृपणादि-द्रव्यशस्त्रम् । आचा० १७४ । कवए-अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्य एकादशमध्ययनम् । कृमिः-पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः । कचवरनिश्रितो जीव ( ३१२) 2010_05 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृमिराग ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा०२ [ केयाघडिया कृमिराग-लोभस्य लक्षणसूचकः । आचा० १७० । जीवा | आचा० ३० । सुरभिकुसुमविशेषः । उत्त० ६५४ । १९१ । जीवा० १६१ । कृमिरागपट्टसूत्रं- मनुष्यादिशोणितोत्पन्नकृमिलालसमुत्प- केतनं-सामान्येन । ठाणा० २१८ । संकेतः । व्य० द्वि० नम् । अनु० ३५ । १२५ अ । कृषिवलः-कर्षकः । आव० ८१५ । केतराती- । नि० चू० प्र० ३३० अ । कृष्णः केवलसम्यग्दर्शनी । आव० ८०५ । साधारण- केतु-आकाशपतितोदकनिष्पाद्यं क्षेत्रम् । आव० ८२६ । वनस्पतिविशेषः । आचा० ५७ । साधारणवनस्पतिका- ध्वजः । जीवा० १८८ । यिकभेदः । जीवा० २७ । कृष्णक, साधारणवनस्पति- केतुकरे-चिह्नकरः अद्भूतकारित्वादिति । ठाणा० ४६३ । विशेषः । प्रज्ञा० ४० । केतुमती-किन्नरेन्द्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । भग० ५०४ । कृष्णपाक्षिकः-संसारापरीत्तः । जीवा० ४४६ । ठाणा० २०४ । कृष्णराज्ञी-ईशानदेवेन्द्रस्य द्वितीयाऽग्रमहिषी । जीवा० केदार:-वप्रः, जलस्थानम् । जीवा० १२३ । केमहालए-किंमहालयः-कियान् । जं० प्र० ४५० । कि कृष्णसारः-नेत्रमध्यवत्तिनी कनीनिका । उत्त० ६५२ ।। महत्त्वं यस्यासौ किंमहत्त्वः । भग० १५१ । कृष्णवासुदेवः-द्वारिकाधिपतिः । प्रश्न० ८८ । | केमहालय-किंमहान्, कियत्प्रमाणमहत्त्वम् । जीवा० केड-काश्चिन्न सर्वा इत्यर्थः । ज्ञाता. २३१ । केइत्थ-कांश्चिदत्र । ज्ञाता० २३१ । केमहालिका-किम्महतो । जीवा० ३७२ । केउ-केतु-मेघवृष्ट्या निष्पद्यते तत् । प्रासादगृहादिकम् । केमहालिया-किम्महती । सम० १४२ । कियन्महतीबृ० प्र० १३८ आ। वर्षावारिनिष्पाद्यं क्षेत्रम् । बृ० तृ० किम्महत्त्वोपेता-कियती वा । अनु० १६३ । ५० अ। | केमहिडिए-केन रूपेण महद्धिकः, किंरूपा वा महद्धिरकेउते-पातालकलशविशेषः । ठाणा० २२६ । स्येति किमहद्धिकः । कियन्महद्धिकः । भग० १५४ । केउमती-धर्मकथायाः पञ्चमवर्गस्य अष्टादशमध्ययनम् । केय-केतनं, केत:-चिह्नमङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहादिकम् । ठाणा० ज्ञाता० २५२ । ४६६ । केतं-चिह्नम् । आव० ८४१ । केत:-चिह्नम् । केउस्सवि । सम० ८७ । भग० २६७ । केया-रज्जुः । दश० १०६ । रज्जु । केऊ-केतुः, जलकेत्वादिकः । औप० ५२ । ज्योतिष्क- नि० चू० प्र० २० । विशेषः । प्रश्न. ६५ । केयइ-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । केऊर-पातालकलशविशेषः । ठाणा० ४८० । केयूरं- केयइअद्धे-केकयीनामाध-अर्धमात्रमार्यत्वम् । राज० अङ्गदम् । जं० प्र० १०६ । केकई-अष्टमवासुदेवस्य माता । सम० १५२ । केयइपुड-गन्धद्रव्यविशेषः । पुष्पजातिविशेषः । ज्ञाता० केकय-चिलातदेशवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ । २३२ । केकयअद्धं-केकयाई, जनपदार्द्धविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । केयण-कृतकम् । नि० चू० प्र० ३५१ अ । शृङ्गमयधनुकेकारवं-केकायितं-मयूराणां शब्दः । ज्ञाता० ६६ ।। मध्ये काष्ठमयमुष्ठिकात्मकम् । उत्त० ३११ । केतनंकेगमई-कैकेयी-लक्ष्मणवासुदेवमाता । आव० १६२ । मत्स्यबन्धनम् । सूत्र. ८२ ।। केज्जगं-क्रय्यम् । आव० ६७७ । केयकंदली-कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ । केतइ-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । केयति-वनस्पतिविशेषः । भग०८०३ । केतकी-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३१ । वलयविशेषः । केयाघडिया-रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि बजेदि( अल्प० ४०) ( ३१३ ) 2010_05 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केयार ] त्याद्यर्थ प्रतिपादनार्थः, त्रयोदशशते नवम उद्देशकः । भग० ५६६ । रज्जुप्रान्तबद्धघटिका | भग० ६२७ । केयार - अवन्तीजनपदे कूपविशेषः । व्य० प्र० १८ अ । नि० च० प्र० ३५१ अ । केयावती- केआवन्ति केचन । आचा० १८५ । केयूरं - आभरणविशेषः । आव० १८२ । भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६६ । वाह्याभरणविशेषावित्यर्थः । ठाणा० ४२१ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः केयूवी-केयूपः, मेरोर्दक्षिणस्यां पातालकलशः । जीवा० ३०६ । केलास - कैलासः - मेरुः । नि० चू० द्वि०६६ अ । कैलाशः राहोः कृष्णपुद्गलः । सूर्य • २८७ । साकेतनगरे गाथापतिविशेषः । अन्त० २३ । अन्तकृद्दशानां पष्ठवर्गस्य सप्तममध्ययनम् । अन्त० १८ । ठाणा० २२६ । कैलाशः, नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवविशेषः । जीवा० ३६५ । तृतीयोऽनुवेलन्धरनागराजः, तस्यैवाऽऽवासपर्वतश्च । जीवा० | ३१३ । केलासभवणं - कैलासभवनं कैलासपर्वतरूपाश्रयः । पिण्ड० १३२ । केलाससमा कैलाससमा कैलासपर्वततुल्या । उत्त०३१६ । केलि-परिहासः । बृ० प्र० २६६ आ । क्रीडा । जीवा० १७३ । प्रज्ञा० ६, २५८ । केलिः, नर्म । औप० ५२ । केलीकिल:। आचा० २५५ । hasका - दुम्मा: । बृ० तृ० १३६ आ । hasकालं - कियत्कालम् । भग० १९ । hasकालस्स - कियता कालेन । जीवा० १४१ । केवगादि - द्रव्यविशेषः । नि० चू० द्वि० ४४ अ । केवच्चिरं - कियच्चिरं, कियन्तं कालं यावत् । जीवा०६७ । 2010_05 कियच्चिरं - कियत्कालम् । भग० ११६ । केवडिया - रूप्यकाः । वृ० प्र० २६७ आ । केवलं - शुद्धम् । आव० ७६६ । ठाणा० ४६ । अकलङ्कम् । उत्त० १८८ । सम्पूर्णज्ञेयविषयत्वात् सम्पूर्णम् । अनु० २ । परिपूर्ण, विशुद्धं वा । प्रश्न० १३५ । सकलजगदुद्भाविसमस्तवस्तुसामान्यपरिच्छेदरूपम् । प्रज्ञा० ५२७ । असहाय, मत्यादिज्ञाननिरपेक्षं, शुद्धं तदावरणकर्ममलक [ केवलवेयसो लङ्काङ्करहितं सकलं तत्प्रथमतयैव अशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं, अनन्यसदृशं ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासि वा । आव ० ८। अद्वितीयम् । आव० ७६० । असहाय, मत्यादिनिरपेक्षत्वादकलङ्कं वा आवरणमलाभावात् सकलं वा तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेरसाधारणं वा अनन्यसदृशत्वादनन्तं वा । ठाणा० ४७ । असहायं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा, आवरणमलकलङ्करहितत्वात् सकलं वा तत्प्रथमतथैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वा, अनन्यसदृशत्वात् अनन्तं वा । ठाणा० ३४८ । केवल:शुद्धः, अन्यपदासंसृष्टः । दश ० १२६ । परिपूर्णः । ज्ञाता० १८० । भग० १५५ । असहाय, शुद्धं, परिपूर्ण, असाधारणं, अनन्तं वा । भग० ६६ । सुद्धो अण्ण सह असंजुत्तो । दश० चू० ५४ । केवलकप्प - केवलकल्पं, केवलं - केवलज्ञानं तत्कल्पं परि पूर्णतया तत्सदृशं परिपूर्णमित्यर्थः । प्रज्ञा० ६०० । परिपूर्णम् । जीवा० १०९ । संपूर्णम् । बृ० तृ० ५२ आ । केवलज्ञानसदृशः, संपूर्णपर्यायो वा केवलकल्प इति । भग० १५५ । केवलः - परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यसामर्थ्यात् कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति, केवलकल्पः समयभाषया परिपूर्णः । ठाणा० ६१ । केवल:परिपूर्णः स चासौ कल्पश्च स्वकार्यसमर्थ इति केवलकल्पः । ज्ञाता० १८० । केवलकप्पा - केवलकल्पा-परिपूर्णा, परिपूर्ण प्राया वा । ठाणा० १६१ । केवल दंसणं - केवलमेव दर्शनं-सकलजगद्भाविवस्तुसामान्यपरिच्छित्तिरूपं केवलदर्शनम् । जीवा० १८ । केवल दस णि- केवलं सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्ण दर्शनं केवलदर्शनी - तदावरणक्षयाविर्भूततल्लब्धिमतो जीवस्य सर्वद्रव्येषु मूर्तीमूर्तेषु सर्व पर्यायेषु च भवतीति । अनु० २२० । केवलनाणं - केवलज्ञानं पञ्चमकं ज्ञानं, अथवाऽनन्तराभि हितज्ञानसारूप्यप्रदर्शक एव । आव०८ । पञ्चमं ज्ञानम् । ठाणा० ३३२ । केवलवेयसो - केवलवेदसः - अवगततत्त्वः । जीवा २५६ । ( ३१४ ) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलि ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ केसिआ २२२ । केवलि-केवली-श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानी । ठाणा. केस-केशा:-शिरोजाः । सम० ६१ । शिरसिजाः । उत्त० ३३८ । क:-अज्ञातकुलशीलसहजत्वादनिद्दिष्टनामकः सकारः केलिआराहणा-केवलिनां-श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञा- प्राकृतशैलीभवः । जं० प्र० २०२ । निनामियं केवलिकी सा चासावाराधना चेति केवलिका- केसभूमी-केशभूमिः, केशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकत्वक् । राधना । ठाणा० ६८ । जीवा० २७३ । केवलिइए-रूप्यकाः । बृ० तृ० ६३ आ । कूर्च केशाः । भग० ८८ । केवलिउवासग-केवलिनमुपास्ते यः श्रवणानाकाङ्क्षी तद् केसर-किंजल्कः । जं० प्र० ४२। आचा० ८१ । वर्ण उपासनमात्रपरः सन्नसौ केवल्युपासकः । भग० २२२। विशेषः । आचा० २६ । केशरम् । आव० ४१६, केवलिए-केवलं-अद्वितीयं केवलिप्रणीतत्वाद् वा कैवलिकम्। ६३५ । ज्ञाता० ६८ । केशरः-गन्धः । आव० २७७ । ज्ञाता० ५१ । केसरोपलक्षितः। जीवा० १७६ । केसरप्रधानम् । जीवा० केवलिकमंसे-केवलिनः 'कम्मंस'त्ति कार्मग्रन्थिकपरिभा- १२३ । काम्पील्यनगरे उद्यानविशेषः । उत्त० ४३८ । षयाशशब्दस्य सत्पर्यायत्वात् सत्कर्माणि केवलिसत्कर्माणि केसरचामरवाल-सिंहस्कन्धचमरपुच्छकेशाः । ज्ञाता० भवोपग्राहीणि । उत्त० ५८९ । केवलिकी । प्रज्ञा० ३६६ । केसरपाली-केसरपालिः-स्कन्ध केशश्रेणिः । जं०प्र०५३० । केवलिकेवली-केवलिनस्तृतीयो भेदः । नि० चू० द्वि० केसरा-केसराणि-कणिकायाः परितोऽवयवाः । जं० प्र० १३६ ओ। २८४ । केवलिपन्नतो-केवलिप्रज्ञप्तः-सर्वज्ञदेशितः । प्रज्ञा० ३६६ । केसरि-द्रहविशेषः । ठाणा० ७३ । केवलिमरण-केवलिमरणम् । सम० ३३ । ये केवलिनः- केसरिका-पात्रमुखवस्त्रिका । ओघ० २१२ । उत्पन्नकेवलाः सकलकर्मपुद्गलपरिशाटतो म्रियन्ते तज्ज्ञेय- केसरिद्दहो-केसरिद्रहो नाम द्रहः । जं० प्र० ३७७ । मिति । मरणस्य द्वादशो भेदः । उत्त० २३४ । | केसरिया-केशरिका-प्रमार्जनार्थं चीवरखण्डम् । भग० केवलिय-केवलमद्वितीयं नाप रमित्यम्भूतम् । आव ०७६ ० । ११३ । औप० ६५ । कैवलिक-परिपूर्णम् । आव० ३२६ । केवलस्य भावः केसरी-चीवरखण्डं प्रमार्जनार्थम् । ज्ञाता० ११० । प्रतिकैवल्यं-घातिकर्मवियोगः । आव० ७३ । वासुदेवनाम । सम० १५४ । केवलिसमुग्घाय-केवलिनि अन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदे समु- केसरुनती- ।व्य० प्र० २८ ० आ। द्घातः केवलिसमुद्घातः । जीवा० १७ । केसव-केशवः-वासुदेवः। आव० १६६ । ज्ञाता० २१३ । केवलिसावग-जिनस्य समीपे यः श्रवणार्थी सन् शृणोति | जीवा० १२६ । दसुदेवल चुसुतः वासुदेवः । उत्त० ४८६ । तद्वाक्यान्यसौ केवलिश्रावकः । भग० २२२ । अपरविदेहे जीर्णश्रेष्ठिपुत्रः, श्रेयासजीवः । ऋषभपूर्वभवकेवली-सर्वज्ञः। भग० ६७ । चतुर्दशशतके दशम उद्देशः । वैद्यपुत्रस्य मित्रम् । आव० १४६ । भग० ६३० । केसवरिसं-केशवर्षः । आव० ७३४ । केवलोणठाणं-केवलिनां स्थानं, केवलिनामहिंसायां व्यः केसवाणिज्ज-केशवाणिज्यम् । दासीयूँहीत्वाऽन्यत्र विक्री वस्थितत्वात् । अहिंसायाः षत्रिंशत्तमं नाम । प्रश्न०६६। णाति । आव० ८२६ । केशर-पद्मपक्ष्मम् । भग० १२ । जं० प्र० १३८ । केसहत्थ-केशहस्तो-धम्मिल्लः । भग० ४६८ । केशव-कृष्णः । आचा० ३६० । केसा-केशा:-शिरोजाः । प्रभ० ६८ । केशि-उदायनभागिनेयः । ठाणा० ४३१ । । केसि-कीदृशी स्त्री । अनु० १३ । केशिगौतमीयं-केशिगौतमाभ्यामभिहितं । विशे० ६४८ । केसिआ-केशा विद्यन्ते यस्याः सा केशिका । सूत्र० ११६ । ( ३१५) 2010_05 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसिगोयमिज्ज] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [कोउगं केसिगोयमिज्ज-केशिगौतमीयं, उत्तराध्ययनेषु त्रयोविंश- | कोंचा-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । तितममध्ययनम् । उत्त० ६ । केशिगौतमीयं-उत्तराध्य- कोंचावली-कोञ्चावलिः । जीवा० १६१ । यनेष त्रयोविंशतितममध्ययनम् । उत्त० ४६७ । कोंचासणं-क्रौञ्चासनं, यस्यासनस्याधोभागे कोञ्चो व्यकेसिसामि-केशिस्वामी । भग० १३८ । केशिनामा वस्थितः सः । जीवा० २०० । आचार्यः । भग० ५४८ ।। कोंची-द्रविडदेशे नगरी । बृ० द्वि० २२७ अ। केसी-पावपित्यः श्रमणः । राज० ११८ । निरय० १, कोटलवेंटनं-कार्मणवशीकरणादि । आव० १६३ । ४० । केशी-विगतिद्वारे उदायनस्य भागिनेयः । आव० | कोंडग-क्षत्रियविशेषः । नि० चू० प्र० १२ अ । ५३७ । केश्यभिधानः कंतसत्को दुष्टोऽश्वः । प्रश्न० कोंडलमेंढं-कुण्डलमेंढ-भृगुकच्छे वाणव्यन्तरविशेषयात्रा७५ । उदायनस्य भागिनेयः । भग० ६१८ । | स्थानम् । ६० द्वि० १३६ अ। भृगुकच्छ वाणव्यन्तरकेसुअ-किंशुकं-पलाशपुष्पम् । जं० प्र० २१२ । विशेषः । बृ० द्वि० १३६ अ । कैदारकः-मङ्खः । पिण्ड० ६६ । कोंडिण्णो-कौण्डिन्य-तापसविशेषः । आव० २८७ । कैवल्यं-घातिकर्मवियोगः । विशे० ५२७ । कोडिन्न-कोण्डिन्य-शिवभूतिशिष्यः। विशे० १०२२ । कोंकण-देशविशेषः । आचा ५ । व्य० प्र० १६८ अ। कोडियायण-चैत्यविशेषः । भग० ६७५ । नि० चू० प्र० ६३ अ । नि० चू० द्वि० ७६ आ। कोतियं-कौन्तिकम्-मधुविशेषः । आव० ८५४ । महुस्स कोंकणकसाधुः-अपध्यानाचरिते साधुः । आव० ८३० ।। पढमो भेओ । नि० चू० प्र० १९६ आ । कोंकणग-म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ । प्रज्ञा० ५५ । । कोति-पाण्डुराज्ञो राज्ञी । ज्ञाता० २१३ । कोकणक:-देशविशेषः । आव० ६३ । प्राणातिपातदोष- कोतेय । नि० चू० प्र० ३६ । विषये उदाहरणम् । आव० ८१८ । कोअगडं-पार्श्वजिनस्य प्रथमपारणकस्थानम् । आव०१४६। कोंकणगखमणओ-कोङ्कणकक्षपक:-मनोदण्डे उदाहरणम्। कोआसिअ-कोआसिते-विकसिते । जं० प्र० ११३ । आव० ५७७ । कोआसिय-पद्मवद्विकसितम् । औप० १७ । कोंकणगदेसो-कोङ्कणकदेशः-कर्मसिद्धोदाहरणे देशविशेषः। कोइल-कोकिल-अन्यपुष्टः । उत्त० ६५३ । आव० ४०८ । कोइलच्छद-कोकिलच्छदः-तैलकण्टकः । उत्त० ६५३ । कोंकणगरुवं । ओघ० १५६ । कोइलच्छदकुसुम-कोकिलच्छदकुसुमं-कोकिलच्छद:-तैलकोंकणगसावगो-कोङ्कणकश्रावक:-गुणोदाहरणे श्राद्धः ।। कण्टकः, तस्य कुसुमम् । प्रज्ञा० ३६० । आव० ८२१ । कोइला-लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । कोकिला-परकोंकारव-कोङ्कारवः, पुरद्वारस्योद्घाट्यमानस्याव्यक्तोऽयं भृत् । प्रश्न० ३७ । शब्दः । दश० ४८ । कोइल्लं-कोल्लेरं-नित्यवासविषये सङ्गमस्थविरदृष्टान्ते नगकोंच-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । क्रौञ्चः-पक्षिविशेषः। रम् । आव० ५३६ ।। आव० ३६६ । क्रोञ्चः, लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१। कोउअ-कौतुकं-रक्षा । जं० प्र० १८९ । अलङ्कारविचिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ ।। - शेषः । आव० १८२ । मषीपुण्ड्रादि । उपा० ४४ । कोंचवरो-क्रौञ्चवरः, अपान्तरालद्वीपः । जीवा० ३६८। कोउगं-सौभाग्यादिनिमित्तं परेषां स्नपनादि । औप० कोंचवीरग-पेटासदृशं जलयानम् । बृ० द्वि० ३२ । । १०६ । सौभाग्याद्यर्थं स्नपनम् । प्रज्ञा० ४०६ । अवकोंचस्सरा-क्रौञ्चस्वरा-विद्युत्कुमाराणां घण्टा । जं० प्र० तारणकादि । सूत्र० ३२५। रक्षादिकम् । प्रभ० ३६ । ४०७ । क्रोञ्चस्वरः, क्रोञ्चस्येव स्वरो यस्य सः । जीवा० कौतुकं-रक्षादि । आव० १३० । कौतुकं-समवसरणम् । २०७ । ! बृ० प्र० १९४ अ । मङ्गलकर्म । उत्त० ७१० । ( ३१६ ) 2010_05 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोउगामिगा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ कोट्टपाल कोउगामिगा-कौतुकात् मृगा इव मृगा। उत्त० ५०१ । कोकुइय-भाण्डा भाण्डप्राया वा। औप०६६ । कौकुच्यम् । कोउतं-कौतुकं-उत्सवः । आव० ४३३ । चेष्टाविशेषः । उत्त० ७०६ ।। कोउय-कौतुकं-रक्षाविधानादि । भग० ५४५ । ललाटस्य कोच्चितो-शैक्षकः । व्य० द्वि० १४७ अ । मुशलस्पर्शनादीनि । उत्त० ४६० । कौतुकानि-मषीपुण्ड्रा- कोच्छर- । नि० चू० द्वि० १३४ अ । दीनि । निरय० ७ । कौतुकं-आश्चर्यम् । व्य० प्र० कोच्छा-कुत्सा-शिवभूत्यादयः । ठाणा० ३६० । १६३ अ। मषी तिलकादिकम् । भग० १३७ । मषी- कोच्छुमो-मणी । नि० चू० तृ० ८१ आ। पुण्ड्रादि । भग० ३१८ । सौभाग्याद्यर्थं स्नपनकम् । भग० कोज्जय-कूब्जक, कुबो इति नाम्ना वृक्षविशेषः । जं. प्र० १६२। कोउयकरण-कौतुककरणं-सौभाग्यादिनिमित्तं परस्नपन- कोटलय-कौटलं ज्योतिष निमित्तं वा । ओघ० १४६ । कादिकरणम् । ठाणा० २७५ । कोटा-ग्रीवा । प्रश्न० ५६ । कोऊहल-कौतुकं--अपत्याद्यर्थं स्नपनादि । उत्त० ४७६ । कोटिंबो-उडवो । नि० चु० द्वि० ७७ आ । कोऊहलपडिया-कोऊहलप्रतिज्ञया-कौतुकेणेत्यर्थः । नि० कोटिक-गणविशेषः । आचा० ८१ । दश० २४२ । चू० प्र० १८४ अ । कोटिकादि:-गणविशेषः । प्रश्न० १२६ ।। कोऊहल्ल-कुतूहलं, नटादिषु कौतुकम् । दश० २६७ । कोटिम-उपरिबद्धभूमिकं गृहम् । व्य० द्वि० १०७ अ । कौतूहलम् । आव० ४१६ । उत्त० ७०६ । '-कुतूहलवान् । ओघ० ६८ । कोदंब-कौम्बानि-गौडदेशोद्भवानि । व्य०द्वि०२०४ अ । कोकंतिय-कोकन्तिकः-लोमटकः, यो रात्रौ को कौ एवं कोट्ट-जं अडविमझे भिल्लपुलिंदचाउवन्नजणवयमिस्सं दुग्गं रौति। प्रश्न०७ । लोमटिकः, सनखपदश्चतुष्पदविशेषः । | बसति वणिया च जत्थ ववहरंति तं कोट्टं भन्नति । नि० जीवा० ३८ । काकन्तिका-लोमटका ये रात्रौ को को चू० द्वि० २१ अ । प्राकारः । उत्त० ६०५ । ओघ० २१० । इत्येवं रवन्ति । जं० प्र० १२४ । शृगालाकृतिर्लोम अटव्यां चतुर्वर्णजनपदयुतं भिल्लदुर्गम् । बृ० द्वि० १०५ टको रात्री को को इत्येवं रारटीति । आचा० ३३८ ।। अ । प्राकारः । प्रश्न० १७ । कोकतिया-सनखपदचतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । कोक- कोट्टाकारय-कुट्टनाक्रया-राद्ररूपा चाण्ड | कोट्टकिरियं-कुट्टनक्रिया-रौद्ररूपा चण्डिका, महिषकुट्टनन्तिका:-लुङ्कडिकाः । जीवा० २८२ | लोमटकाः । क्रियावतीमित्यर्थः । भग० १६४ । तत्कुट्टनपरा कोट्टज्ञाता० ७० । क्रिया । अनु० २६ ।। कोकणदे-जलरुहविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । कोट्टगं-जत्थ लोगो अडवीए पउरफलाए गंतुं फलाई कोकासवड्ढई-कोकाशवर्द्धकी-शिल्पकर्मविषये दृष्टान्तः । सोसेति तं कोट्टगं भण्णति । नि० चू० द्वि० १२८ अ । आव० ४०६ । कोट्टकं-पुलिंदपल्ली । बृ०प्र०१६५ आ। गंत्रीपोट्टलकादिकोकासिअ-कोकासिते-विकसिते । जं० प्र० २३६ । भिरानीय नगरादौ विक्रीणाति । ७० प्र० १४७ आ । कोकास्यिं-कोकासितं-पद्मवविकसितम् । जीवा० २७३ । लोकः प्रचूरफलायामटव्यां गत्वा फलानि यावत्पर्याप्त विकसितम् । प्रभ० ८२ । गृहीत्वा यत्र गत्वा शोषयति, पश्चाद् गत्रीपोट्टलकादिभिकोकिला-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । रानीय नगरादौ विक्रीणाति तत् । बृ० द्वि० २६० अ । कोईतिए-कोकंतिया-लुङ्कडी । प्रज्ञा० २५४ । कोट्टणि-कोट्टन्यः-याः कोट्टग्रहणाय प्रतिकोट्टभित्तय उत्थाकोकासो-कोकाशः-शिल्पेरर्थोपार्जने कोकाशः । दश० | प्यन्ते ताः । जं० प्र० २०६ । १०७ । मामविशेषः । यन्त्रमयकापोतकारकः । व्य० कोट्टपाल-नगरं रक्खति जो सो णगररक्खिओ कोट्टः द्वि० १२७ आ । पालो । नि० चू० प्र० १६५ अ । (३१७ ) 2010_05 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोट्टबलिकरण ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कोडंड कोट्टिवे-जत्थ गे कोट्टबलिकरण-कोट्टाय-प्राकाराय बलिकरणम् । कोट्टा- मालिंदओ। नि० चू० प्र० १६२ अ । क्रीडा तेन बलिकरणं चन्दिकादेः पुरतो बस्तादेरिव उप- कोट्टग-कोष्ठक-श्रावस्त्यां तिन्दुकोद्याने चैत्यविशेषः । हारविधानम् । प्रश्न० १४ ।। । उत्त० १५३ । कोष्ठका:-अपवरकाः । प्रज्ञा० ८६ ॥ कोटरं-छिद्रम् । नि० चू० प्र० १६१ आ । बृ० प्र० ३१४ अ। जं० प्र० ७६ । अध्ययनापवरकः । कोट्टवीर-शिवभूतिशिष्यः । विशे० १०२२ । कोट्टवीर:- बृ० द्वि० १०७ अ। कोष्टक:-चट्टानां शाला। व्य० द्वि० शिवभूतेर्ल घुशिष्यः । उत्त० १८० । ४२० अ । आवासविशेषः । ओघ० ८२।। कोट्टा-कोट्टा:-क्रीडाः । प्रश्न० १७ । | कोढतो-कोष्ठकः । बृ० द्वि० ६२ अ ।। कोट्टागा-काष्ठतक्षकाः, वर्द्धकिनः । आचा० ३२७ । | कोटपुड-कोष्ठपुटः-गन्धद्रव्यपुट:। जीवा० १६१ । कोष्ठकोट्टितिय-कुट्टयन्तिका तिलादीनां चूर्णनिकारिका । पुटे ये पच्यन्ते ते कोष्ठपुटा:-वासविशेषाः । ज्ञाता. ज्ञाता० ११७ । २३२ । गन्धद्रव्यविशेषः । प्रज्ञा० ३०७ । कोष्ठं-गन्ध. कोट्टिबा-गोभक्तदानस्थानम् । बृ० द्वि० १३३ अ । द्रव्यं तस्य पुटा: । जं० प्र० ३५ । पुटः परिमितानि जत्थ गोभत्तं दिज्जति । नि० चू० त० ४२ अ। यानि कोष्ठादिगन्धदव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोउडुप । नि० चू० प्र० ४५ अ ! पचारात् कोष्ठपुटानि । जीवा० १६२ ।। कोट्टिम-कुट्टिमम् । आव० ५५० ।। कोदबुद्धिणो-कोष्ठबुद्धयः:-यथा कोष्टके धान्यं प्रक्षितं कोट्टिमअकोट्रिमाइं-कृत्रिमाकृत्रिमाणि । पउ० ६५-३८ ।। तदवस्थमेव चिरमण्यवतिष्टते न किमपि कालान्तरेऽपि कोट्टिमकारे-शिल्पविशेषः । अनु० १४६ । गलति, एवं येषु सूत्रार्थों निक्षिप्तौ तदवस्थावेव चिरकोहिल्ल-हस्वमुद्गरविशेषः । विपा० ७१ । मप्यवतिष्टतः ते कोष्ठबुद्धयः । बृ० प्र० १६३ आ । कोट्टिल्लयं-मुद्गरकः । विपा० ७२ । कोटबुद्धी-कोष्ठक इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखाद्विकोट्टेइ-कुट्टयति । आव० ३६६ । निर्गतौ तदवस्थानौ च सूत्रार्थों धारयति न किमपि तयोः कोट्ठ-कोष्ठः-कुशूलः । जं० प्र० १५४ । कुशूल: । जं० कालान्तरे गलति सा कोष्ठबुद्धिः । प्रज्ञा० ४२४ । प्र० १६ । गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा० १६१ । जं०प्र० कोष्ठवत्-कुशूल इव सूत्रार्थधान्यस्य यथाप्राप्तस्याविनष्ट६० । उपरितनगृहं, धान्यकोष्ठो वा। जं० प्र० २१० । स्याऽऽजन्मधरणाद् बुद्धिः-मतिर्येषां ते । औप० २८ । गन्धद्रव्यम । जं० प्र० ३५ । कोष्ठः-कुशुलः । भग० कोटसमग्गयं-कोष्ठसमुद्गकम् । जीवा० २३४ । २७४ । बृ० द्वि० १६८ आ। ठाणा० १२४ । सूर्य० | कोट्ठागार-दब्भादितणट्ठाणं । नि० चू० प्र० २६५ अ । ५ । कोष्ठकः, अपवरकः । जीवा० १६० । गङ्गासमु- जत्थ सणसत्तरसाणि धण्णाणि कोट्रागारो । नि० चू०प्र० दायात्मकः । भग० ६७६ । धान्यभाजनानि । ठाणा० २७२ आ । कोष्ठा-धान्यभाजनानि तेषामागार-गृहं १७३ । कोष्ठान् आ-समन्तात् कुर्वते तस्मिन्निति ।। कोष्ठागारं धान्यगृहम् । ठाणा० १७३ । कोष्ठा-धान्यउत्त० ३५१ । अविनष्टसूत्रार्थधारणम् । नंदी० १७७ । पल्यास्तेषामगारं-तदाधारभूतं गृहम् । उत्त० ३५१ । पुलिंदपल्ली । नि० चू० द्वि० १४४ अ । कोष्ठं, बद्धि- | कोद्रारं-कोष्ठागारम् । आव ० ४३५ । भेदः । प्रज्ञा० ४२४ । कोट्ठिया-पुरिसप्पमाणा हीणाधिया वा चिक्खल्लमती । कोट्टए-श्रावस्तीनगर्यां चैत्यः । भग० ५५२, ६५६, ४८४ ।। नि० चू० तृ० ५६ अ। कोष्ठिका-लोहादिधातुधमनार्य आव० ३१२। राज० १२६ । ज्ञाता २५१ । निरय० मृत्तिकामयी कुशूलिका । उपा० २१ । २२ । श्रावस्तीनगर्यां चैत्यः । उपा० ५३ । वाणा- | कुट्रियाओ-कोष्ठिकात:-मृन्मयकुशूलसंस्थानायाः । आचा. रसीनगर्या चैत्यः । उपा० ३१, ३४ । आव०७१४ । । ३४४ ।. . कोट्टओ-वट्ठमढो सुन्नओ । दश० चू० ८२ । अग्गि- कोडंड-कुदंड-कारणिकानां प्रज्ञापराधान्महत्यपराधिनोऽप (३१८) 2010_05 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोडंब ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ कोणंगुली राधे अल्पं राजग्राह्यं द्रव्यम् । भग० ५४४ । कोडीकरण-कोट्यौव कोटीकरणम् । दश० १६२ । कोडंब-कोलम्बप्रान्तः, लोकेऽवनतं वृक्षशाखाग्रमुच्यते । कोडोणं-कोट्यः-अनेका कोटाकोटिप्रमुखाः सङ्ख्याः । ज्ञाता० २३६ । जं० प्र० ९५ । कोडंबिय। नि० चू० प्र० ११८ अ । | कोडीणा । ठाणा० ३६० । कोड-कुटिलः, क्रुद्धः । आव ० ५३६ । कोडीमातसा । ठाणा० ३६३ । कोडल्लय-णयवेसिय । नि० चू० द्वि० ६२ आ । कोडीवरिसं-कोटिवर्ष, लाटजनपदे आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० कोडालसगुत्तो-कोडालसगोत्र:-ऋषभदत्तब्राह्मणस्य गोत्रः।। ५५ । कोटीवर्ष-मूलगुणप्रत्याख्यानोदाहरणे म्लेच्छनगरम् । आव० १७८ । आव० ७१५ । कोडालसगोत्त-गोत्रविशेषः । आचा० ४२१ । कोडीसहियं-कोटीभ्यां-एकस्य चतुर्थादेरन्तविभागोऽपरस्य कोडि-कोटि:-अनिः, विभागः । पिण्ड० ८३ । कोटयो- चतुर्थादेरेवारम्भविभाग इत्येवंलक्षणाभ्यां सहितं-मिलितं विभागाः सूक्ष्मपल्योपमापेक्षयाऽसंख्येयखण्डानि बादरप- युक्तं कोटीसहितं मिलितोभयप्रत्याख्यानकोटेश्चतुर्थादेः ल्योपमापेक्षया तु कोटयः-सङ्ख्याविशेषाः । ठाणा० ६१।। करणमित्यर्थः । ठाणा० ४६८ | कोटीसहितं-कोट्यौविभागः । ठाणा० ४५२ । अग्रे प्रत्याख्यानाद्यन्तकोणरूपे सहिते मिलिते यस्मिस्तत् । कोडिगारा-शिल्पार्य भेदः । प्रज्ञा० ५६ । । कोडुंब-कौटुम्ब-स्वराष्ट्रविषयम् । जीवा० १६६ । कोडिण्ण-कौडिन्यः-शिवभूतेज्येष्ठशिष्यः । उत्त० १८० । कोडुबिअ-कौटुम्बिका:-अधिकारिणः । जं० प्र० १८८ । नगरविशेषः । ज्ञाता० ३०६ । कोडिन्य:-महागिर्याचा- कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवगलकाः। जं० प्र० १६० । कौटुर्यशिष्यः । आव० ३१६ । कौण्डिन्यः-बोटिकशिवभूते- म्बिक:-श्रेष्ठयादिः । ओघ० १२० । कौटुम्बिका महरादिशिष्यः । आव० ३२४ । द्धिकाः । बृ० ६५ अ। कौटुम्बिक:-कतिपयकुटुम्बप्रभुः । कोडितगणे-महावीरस्य नवमो गणः । ठाणा० ४५१ । जीवा० २८० । कोडिन्न-कौण्डिन्यः-महागिरिसूरीणां शिष्यः । विशे० कोडुबित-कौटुम्बिक:-कतिपयकुटुम्बप्रभुः । ठाणा ४६३ । ६६० । शिवभूतेः प्रथमशिष्यः । विशे० १०२२ । उत्त० कोडंबिय-कौटुम्बिक:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः । ३२१ । कोण्डित्य:-मिथिलायां श्रीमहागिर्याचार्यशिष्यः । भग० ३१८ । औप० १४ । कौटुम्बिकाः-कतिपयकुटुम्बउत्त० १६३ । प्रभवो राजसेवकाः । भग० ११५ । कौटुम्विकाः-ग्रामकोडिन्ना । ठाणा० ३६०। महत्तराः । प्रश्न० ६६ । भग० ४७४ । कौटुम्बिकाःकोडिपडागा-कोटिपताका । आव० ३४२ । कतिपयकुटुम्बनायकाः । भग० ४६३ । नि० चू० प्र० कोडियं-गाढचम्पितम् । बृ० द्वि० २४३ आ । ७८ आ । कोडियसहियं-कोटीभ्यां सहित कोटीसहितम् । मिलितो- कोडं-स्फुटम् । आव० ४२० । कौतुकं-मनोरथः भयप्रत्याख्यानकोटि, चतुर्थादिकरणमेव । आव० ८४० । । आव० ४३२ । कोडिसहियं-मीलितप्रत्याख्यानद्वयकोटि चादि कृत्वा- कोढ-कुष्ठं-पाण्डुरोगः, गलत्कोष्ठं वा । बृ० प्र० १७० ऽनन्तरमेव चतुर्थादेः करणम् । भग० २६६। . अ । रोगविशेषः । ज्ञाता० १८१ । कोडिसिला-कोटीशिला । आव० १७६ ।। कोढिउ-कुष्ठी । आव० ६७४ । कोडी-कोट्यौ-अग्रे प्रत्याख्यानाद्यन्तकोणरूपे । उत्त० कोढी-कूष्ठमष्टादशभेदं तदस्यास्तीति कुष्ठी । आचा० ७०६ । कोटि-पञ्चोत्तरं लक्षम् १०५००० । जीवा० २३३ । . ... ३२५ । कोणं-कर्णम् । ब्र० प्र०.१०७ आ । कोडीए-कोट्या-अग्रभागेन । जं० प्र० ६८ । कोणंगुली-कोणेऽङ्गुलिः । आव० ६७६ । (३१६ ) 2010_05 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोण ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कोमुइया कोण-कोण:-वादनदण्डः । जीवा० १९३ । जं० प्र० कोत्थलगारिया-कोत्थलकारिका-भ्रमरीविशेषः । आव० ३८ । कोणः । आव० ८४२ । ६२५ । कोणओ-लगुडो । नि० चू० प्र० १०५ आ। कोत्थलवाहगो-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२ । कोणा-अश्रयः । जीवा० १२३ । कोत्थुभरि-कुस्तुम्भर्यो-धान्यककणाः । जं० प्र० २४३ । कोणालग-कोणालक:-पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८। कोथूभो-कौस्तुभो-वक्षोमणिः । प्रश्न० ७७ । कोणिए-कूणिक:-चम्पानगर्यां राजा । भग० ३१६ । । भग० २६०। उत्त० ३११ । कुदण्डस्तु कोणिक:-चम्पानगर्यधिपतिः । अन्त २५ । चम्पानगर्या कारणिकानां प्रज्ञाद्यपराधात् महत्यप्यपराधिनोऽपराधे राजा । प्रश्न०१। अल्पं राजग्राह्य द्रव्यम् । जं० प्र० १९४ । चापः । कोणिओ-कोणिकः, राजविशेषः । विपा०६०। श्रेणि जं० प्र० २०६ । कपूत्रः । दश० ५० । शिक्षायोगदृष्टान्ते श्रेणिकचेल्लणयोः -कोद्रवविशेषः । भग० २७४ । पुत्रः । यः पूर्वभवे कुण्डीश्रमण आसीत् । आव० ६७८ । कोदूसा-धान्यविशेषः । भग० ८०२ । कोणिक-श्रेणिकपुत्रः । व्य० द्वि० ४२६ अ। चम्पायां | कोद्दसा-औषधिविशेषः । प्रज्ञा ३३ । राजा । ज्ञाता० ३ । कोदव-कोद्रवः:-धान्यविशे । भग० ८०२ । दश० कोण्हआ-जम्बूकः । आव० ३५१ । १६३ । सूत्र०३०६ । धान्यविशेषः । तृणविशेषः । ठाणा। कोतव-उदररोगनिष्पन्नं कौतवम् । अनु० ३५। कोतवो- २३४ । औषधिविशेषः । प्रज्ञा०३३ । कोद्रवः, धान्यवरको। नि० चू० प्र० २५५ अ । विशेषः । तृणपञ्चके तृतीयोभेदः । आव० ६५२ । कोतालि-गोट्ठी । नि० चू० तृ० १७ आ । कोद्दवकूरं-कोद्रवतन्दुलम् । आव० २०० । कोताली-गोष्ठी । बृ० द्वि० ३१ आ । कोदवजाउलयं-कोद्दवोभज्झी । ओघ० १६६ । कोतविआ-कुतुपेन बहिर्यामे व्यवहारकृत् । बु० द्वि० कोद्दवोदणसेइया-कोद्रवौदनसेतिका । आव ० ६६२ । १६० आ । कोहब्भज्जी-कोद्दवोभज्झी-कोद्दवजाउलयं । ओघ०१९६६ कोतिया-भूमिशायिनः । भग० ५१६ । निरय० २५ । कोद्दालकः-एकोरूकद्वीपे वृक्षविशेषः । जीवा० १४५ । औप० ६० । कोद्दालिय-कुद्दालिकः, भूखनित्रविशेषः । विपा० ५८ । कोत्थ-जनपदविशेषः । भग०६८०। उदरदेशः । ज्ञाता० कोधे-क्रोधे निश्रितमिति सम्बन्धात क्रोधाश्रितं-कोपाश्रितं मृषेत्यर्थः । ठाणा० ४८६ ।। कोत्थल-वस्त्रकम्बलादिमयः । उत्त० ४५७ । कोप्पर-कूपरः । ओघ० ३१ । कूर्परम् । प्रज्ञा० ४७३ । कोत्थलक:-बस्तिः, अपाटितेनापनीतमस्तकेन निकर्षित- | स्कन्धावारः । आव० ६६७ । चर्मान्तर्वतिसर्वास्थ्यादिकचवरेणापरचर्ममयस्थिग्गलकस्थ- कोप्परथणी- । नि० चू० द्वि० ६४ अ । गितापानछिद्रेण सङ्कीर्णमुखीकृतग्रीवान्तविवरेणाजापश्वो कोमल-श्रोत्रमनसां प्रह्लादकारि । व्य० प्र० २० अ । रन्यतरस्य शरीरेण निष्नन्नश्चममयः प्रसेवक: कोत्थला- मनोज्ञम् । जीवा० १८८, २९५ । कोमल:-दृष्टिपरपर्यायो इतिः । पिण्ड० १८ ।। सुभगः । जीवा० ४७४ । कोत्थलकारिया-कोत्थलकारिका, भ्रमरी विशेषः । गृह-कोमारा-मट्टियो, उल्लामट्टिया । नि० चू० प्र० २५५ कारिका । ओघ० ११७+ आ । कोत्थलकारी-भ्रमरी । बृ० प्र० २७८ अ। कोमुइजोगजुत्तो-कौमुदीयोगयुक्त:- कात्तिकपौर्णमास्यामु. कोत्थलगारिअ-कोत्थलकारिका-गृहकारिका । ओघ० दितः । दश० २४६ । ११८ । | कोमुइया-कृष्णस्य प्रथमा भेरी । बृ० प्र० ५६ अ । ( ३२०) 2010_05 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोमुइवारं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ कोला कोमुइवारं-कौमुदीवासरम् । आव० ८१६ । | कोरन्वीया । ठाणा० ३६३ । कोमुई-कौमुदी । ओघ० ६७ । कौमुदी-कात्तिकी कोरिट-कोरिण्ट-कुसुमविशेषः । भग० ३१८ । कोरपौर्णिमा । जं० प्र० ११५ । ण्टक:-पुष्पजाति: । ज्ञाता० २३ । । कोमुतिआ-कौमुदीकी-वासुदेवस्य देवतापरिगृहीता गोशी- कोरिटक-अग्रबीजाः । ठाणा० १८६ । र्षचन्दनमयी तृतीया भेरी । आव० ६७ । कोरिटमल्लाम-कोरण्टकमाल्यदामं । प्रज्ञा० ३६१ । कोमुदि-कौमुदी-कात्तिकी । प्रश्न० ८४ । कोलंबए-कोलम्बः-शाखिशाखानामवनतमग्रं भाजनं वा । कोमुदिका-वासुदेवस्य गोशीर्षश्रीखण्डमयी देवतापरिगृ- अनुत्त० ५। हीता तृतीया भेरी । विशे० ६१६ । कोलंबो कोलम्ब:-प्रान्तः । विपा० ५५ । कोमुदितं-उत्सववाद्यम् । ज्ञाता० १०० । कोल-कोल:-घुणः । आव० ६५६ । दश० १५५ । कोमुदियवारो-कौमुदीमहः । आव० ५६२ । शूकरः । ज्ञाता० ७० । बृ० प्र० १४८ अ । बदरं। कोमुदी-कौमुदी । आव० ३५५ । दशः चू० ८०। पिण्ड० १६१ । दश० १७६, १८५ कोमुदीनिसा-कौमुदीनिशा, कात्तिकपौर्णमासी । ज्ञाता० दरचूर्णम् । बृ० प्र० २६८ अ । उन्दराकृतिजन्तुवि शेषः । प्रश्न० ७ । क्रोड:-शूकरः । प्रश्न० ७ । कुवलंकोयव-रूतपूरितः पटः, या लोके 'माणिकी' इति प्रसिद्धा । बदरम् । भग० २८५ । बृ० द्वि० २२० अ । कुतुपः । ठाणा० २३४ । . कोलघरियाओ-कुलगृहात्-पितृगृहादागताः कौलगृहिकाः। कोयवगो-वरक्को । नि० चू० द्वि० ६१ अ। रूतपूरित - उपा० ४८ । कोलगिणी-कोलिकी । आव० ४२१ । पट: । ज्ञाता० २३२ । कोयवाणि-वस्त्रविशेषः । आचा० ३६३ । | कोलचूण्णं-बदरचण्णं । दश० चू० ८० । बदरसक्तून् । - दश० १७६ । कोयवि-कौतपी-दष्प्रतिलेखितदष्यपञ्चके द्वितीयो भेदः ।। दश° १७६ । आव० ६५२ । कोलजुत्तो-कुलौचित्यः । व्य० प्र० २२४ अ । कोरंग-कोरङ्कः-पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । कोलट्ठिय-कुवलास्थिकम्-बदरकुलकः । भग० २८५ । कोरंट-कोरण्टक:-पुष्पजातिविशेषः । जं० प्र० ३४।। कोलपाणगं-पाणकविशेषः । आचा० ३४७ । कोरंटक-अग्रबीजः । दश० १९३ । गुल्मविशेषः । कोलपाले-धरणेन्द्रस्य द्वितीयलोकपालः । ठाणा० १६७ । आचा० ३० । स्थलजम् । प्रज्ञा० ३७ । कोरण्टकः, | कोलवं-कौलवं-तृतीयं करणम् । जं० प्र० ४६३ । पुष्पजातिविशेषः । जीवा० १६१ । कोलवालं-दवरकम् । आव० ४२७ । कोरंटगं-कोरंटकं-भरुकच्छे उद्यानम् । व्य० प्र० १७३ कोलवासंसि-कोला-घुणाः तेषामावासः । सम० ३६ । आ। कोलसुणए-कोलशुनकः-मृगयाकुशलः श्वा । प्रज्ञा०२५४ । कोरंटय-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । सूकरस्वरूपधारी । उत्त० ४६० ।। कोरंटयगुम्मा-कोरण्टकगुल्माः । जं० प्र० ६८ । कोलसुणक-कोलश्वान:-महासूकरः । प्रश्न० ७ । कोरंटयधाऊ-पीतवर्णः । (दे० ) । कोलसुणग-सनस्खपदचतुष्पदविशेषः। प्रज्ञा० ४५ । कोलकोरव-कोरकं-मुकुलम् । ठाणा० १८५। जं०प्र० ५२८ । शुनका:-महाशूकराः । जं० प्र० १२४ । पाटयित्वा भक्षकोरन्व-कौरव्यः-कोरव्यगोत्रः । जीवा० १२१ । कुल- णम् । नि० चू० द्वि० १२६ अ । विशेषः । आव० १७६ । कुरवः-कुरूवंशप्रसूताः । औप० | कोलसुणयं-महासुकरं । आचा० ३३८ । २७ । कुरवः-आर्यभेदः । ठाणा० ३५८ । कुरवः । कोला-घुणा । नि० चू० द्वि० ८३ अ । नि० चू० प्र० भग० ४८६ । कुलार्यभेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । २५५ आ । घुणा:-तदावासभूते जीवप्रतिष्ठितः । आचा० ( अल्प० ४१ ) ( ३२१) 2010_05 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोलाओ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कोविए ३३७ । आ । कोलाओ-कोलः । तं० । . कोलुणं-कारुण्यम् । नि० चू० द्वि० ५८ आ । कोलाल-मृद्भाजनविशेषः । आव० ४८४ । कुलाला:- | कोलेज्जाओ-अधोवृत्तखाताकाराद् असंयतः । आचा० कुम्भकाराः । उपा० ४२ । ३४४ । कालालिए-कौलालानि-मृद्भाण्डानि पण्यमस्येति कोला- कोल्लइर-संगमस्थविरविहारभूमिः । नि० चू० द्वि० ६५ लिकः । अनु० १४६ । आ । कोल्लकिर-क्रीडनधात्रीदोषविवरणे नगरम् । पिण्ड० कोलालिया-कर्मार्यभेदविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । कोला- | १२५ । लिकाः-कुलाल क्रयविक्रयिणः । बृ० द्वि० १७५ अ । । | कोलगाणुगो-जो रयहरणणिसेज्जाए उवग्गाहियपादपुंछणे कोलावास-कोला-घुणकीटकास्तेषामावासः । आचा० । __वा ठितो वा एति चिट्ठति वा। नि० चू० तृ० १३७ अ । २६३ । घुणावासः । आचा० ४१० । कोला-घुणास्त- | कोल्लयग्गामे-वर्द्धमान जिनस्य प्रथमं पारणकस्थानम् । दावासभूत: कोलावासः । आचा० ३३७ । आव० १४६ । कोल्लयर-कूल्लयरं-नगरविशेषः । उत्त० १०८ । बहुजनमहाध्वनिः । ज्ञाता० २२० । जीवा० १७३ । कोल्लर-हस्तिन उपरि कोल्लररूपा 'गेल्लि' या मानुषं बोलः । प्रज्ञा० ६७ । आतशकुनिसमूहध्वनिः । भग० | गीलतीव । भग० १८७, ३६६ ।। ३०६ । आतशकुनसमूहध्वनिः । जं० प्र० १६७ । कोल्लाए-सन्निवेशः । उपा० २, १४ । सन्निवेशः । महाकोलाहलभूत-कोलाहल:- विलपिताऽऽक्रन्दितादिकलकलः | वीरस्वामिविहारभूमिः । भग० ६६२ । कोलाहल एव कोलाहलकः स भूत इति जातो यस्मि- कोल्लाकसन्निवेश-वर्द्धमानजिनस्य विहारभूमिः । आव० स्तत् कोलाहलकभूतम् । उत्त० ३०७ । २०० । कोलाहलबभूए-कोलाहल:-आतशकुनिसमूहध्वनिस्तं भूतः | कोल्लाग-कोल्लाक:-सन्निवेशः। महावीरस्वामिविहारभूमिः । प्राप्तः कोलाहलभूतः । भग० ३०६ । आव० १८८ । कोलाहा-दर्वीकरअहिभेदविशेषः । जीवा० ३६ । प्रज्ञा० | काल्लागसान्नवस-कालागसाम कोल्लागसन्निवेस-कोल्लागसग्निवेश:-व्यक्तसुधर्मगणधरयो जन्मभूमिः । आव० २५५ । कोलिअतंतयं-कोलिकतन्त्रकम् । ओघ० ११७ । कोल्लुकपरंपर-महाराष्ट्रप्रसिद्धकोल्लुकचक्रपरंपरन्यायः । कोलिओ-कृतिकर्मदृष्टान्ते द्वारिकायां वासुदेवभक्तो वीर- | बृ० प्र० ६० आ । काभिधः कोलिकः । आव० ५१३ ।। कोल्लगा-सिगाला । नि० चू० प्र० १७५ अ । कोलिकपुटक-वाद्यविशेषः । भग० २१६ । कोल्हुकं-इक्षुयन्त्रम् । बृ० द्वि० १६६ आ । कोलिग-कोलिक:-जीवविशेषः । बृ० द्वि० १६४ अ। कोल्हुगाणूगे-क्रोष्टुकानुगः । आचार्याणां तृतीया उपमा । कोलिगजालग-कोलिकजालकानि-जालकाकाराः कोलि उपमा । व्य० प्र० १२१ आ । कानां लालातन्तुसन्तानाः । ब्र० प्र० २७८ अ। कोव-कोप:-क्रोधोदयात्स्वभावाञ्चलनमात्रम् । भग० ५७२। कोलिय-कौलिक:-तन्तुवायः । नन्दी० १६५। कोवघर-कोपगृहम् । विपा० ८३ । कोलियकः-लूता । ओघ० १२६ । कोवडिओ-केतराती। दीणारो। नि० चू०प्र० ३३० अ। कोलियकण्णा-कोलिककन्या विषभोजन निवृत्ती दृष्टान्तः। कोपिड-कोपपिण्ड:-कोहप्रसादात पिंडं लभते स कोपआव० ५५६ । पिण्डः । नि० चू० द्वि० १०० अ। कोलियगो-कोलिकः । उत्त० १०० । कोविए-कोविदः-पण्डितः । उत्त० ४८२ । लब्धशास्त्रकोलियापुडिगो-मक्कडसंताणओ । नि० चू० प्र० २५५ परमार्थः । उत्त० ४१६ । ( ३२२ ) 2010_05 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोविओ ] [ कोसला कोविओ - कोविदः - संसारविमुखप्रज्ञतया पण्डितः । पिण्ड ० आव० २२१ । शतानीकराजधानी । भग० ५५६ । विपा० ६८ । आव० २२२ । ७२ । कोवियप्पा - कोविदात्मा- कोविदः - लब्धशास्त्रपरमार्थ आत्मा को संबिय- कोशाम्बी अज्ञातोदाहरणेऽजितसेनराजधानी । ऽस्येति । उत्त० ४२० । आव० ६६६ । कोविया - खोडिया - नाशिता । नि० चू० द्वि० १०८ आ । aras - कोपयति । विशे० ९५६ । कोशः - घटस्यादौ आकारः । विशे० कोशकं - आव ० कोशकारकीटः| दश० २७३ | कोशलजनपदः - कोशलजनपदोऽप्यभिधीयते यत्र अयोध्या नगरीति । ज्ञाता० १२५ । पिण्ड० ६८ । कोशला - देशविशेषः । पिण्ड० ६८ । कोशातकी - तिक्तरसपरिणता । प्रज्ञा० १० । वल्लीविशेषः । आचा० ३० । कोसंबी - कौशाम्बी - नगरीविशेषः । उत्त० २१४, १६३, ३७९ । यज्ञदत्त द्विजस्थानम् । उत्त० १११ । वत्सदेशराजधानी । बृ० द्वि० १६७ आ । द्रमकप्रव्रज्यास्थानम् । बृ० द्वि० १५३ आ । वर्द्धमानस्वामिपारणकस्थानम् । २२५ । दुर्गन्धायाः उत्पत्तिस्थानम् । उत्त० १२३ । नगरीविशेषः । ज्ञाता० २५३ । वत्थजणवए णगरी । नि० चू० तृ० १६ अ । भग० ५५६ । नगरीविशेषः । उत्त० ४४ । दश० ४६ । तापसश्रेष्ठिस्थानम् । उत्त० हह । वत्सजनपदे आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० ५५ । जितशत्रुराजधानी । उत्त० २८६, २८७ । धनपालराजधानी । विपा० ९५ । पद्मप्रभजन्मभूमिः । आव ० १६० | शिक्षायोगदृष्टान्ते हारोत्पत्तिविषये नगरी । आव० ६७६ । भावप्रतिक्रमणदृष्टान्ते नगरी । आव ० ४८५ । अज्ञातोदाहरणेऽजितसेन राजधानी । आव० ७०० । संपइस्स उप्पत्तिद्वाणं । नि० चू० तृ० कोशिकार : - कीट विशेषः । आचा० ७१ । कोष्टक - श्रावस्तीनगर्यां तेन्दुकोद्याने चैत्यः । विशे० ६३५ । कोष्ठ - लक्षणहीनम् । अनु० १०२ । वाससमुदायः । भग० ७१३ । धान्यपत्यः । उत्त० ३५१ । ४४ आ । कोष्ठबुद्धिता - ऋद्धिविशेषः । ठाणा० ३३२ । कोसं - कोषं - भाण्डागारं चर्मलताद्यनेकवस्तुरूपम् । उत्त० ३१६ । कोस - सरावं । दश ० चू० ६९ । जहि रयणादियं दव्वं सो । कोश: । नि० चू० प्र० ३४ आ । कोश: - आश्रयः । प्रश्न० ६४ | समुदायो । नि० चू० द्वि० ६२ आ । क्रोश: - गव्यूतम् । उत्त० ६८६ । कोश: - वारकादिभाजनम् । सूत्र० ११८ । कोसंब - एकास्थिकवृक्षविशेषः । भग० ७०५, ८०३ । कोसंबीओ - कौशाम्बीक: । आव ० ६३ । कोसकोट्ठाग। रकहा- कोशो-भाण्डागार, कोष्ठागारं - धान्यागारं, तत्कथा कोशकोष्ठागारकथा । ठाणा० २१० । कोस कोट्ठारे - कोशकोष्ठागारं राज्ञः कोशकोष्ठागारसम्बन्धीविचारः । राजकथायाश्चतुर्थभेदः । आव ० ५८१ । कोसग - कोशक:- चर्मपञ्चके चतुर्थो भेदः । ठाणा० २३४ । कोश: - चर्मपञ्चके चतुर्थो भेदः । आव० ६५२ । नखभंगरक्षकश्चर्मकोशः । बृ० द्वि० १०१ अ । अंगुलीनामगुष्ठस्य वा छादकः स कोशकः । बृ० द्वि० २२२ आ । कोसयं - कोश: । आव ० ६२५ । कोसल - देशविशेषः । उत्त० ३७५ । भग० ६८० । कोशलकः - कोशलदेशोत्पन्नः । व्य० द्वि० २१६ आ । कसलग - कोशलकः - कोशलदेशीयः । पिण्ड० १६७ । कोसलपुरं - सुमतिनाथजन्मभूमिः । आव ० १६० । कोसंबवण - कौशाम्बवनं - कृष्णस्य कालकरणस्थानम् अन्त० १६ । कोसं बाहार - आर्य सुहस्तिविहारभूमिः । द्रमकदीक्षास्थानम् । नि० चू० प्र० २४३ अ । विशे० कोसंब - कौशाम्बी-यमुनातीरे नगरीविशेषः । ४९५ । वर्धमानस्वामिविहारभूमिः । भग० ५५६ | | कोसला - कोशला-अयोध्या, तज्जनपदोऽपि कोशला । ( ३२३ ) प्रज्ञा० ३१ । कोसंब गंडियं 2010_05 अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ ६३८ । | आचा० ३५७ । । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोसलाउरे ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ कौटुंबिकः भग० ३१७ । अयोध्या। जं० प्र० १३६ । कोशला- क्रोधः । आचा० १७० । क्रोधनं-क्रुध्यति वा येन सः जनपदविशेषः । ज्ञाता० १३० । प्रज्ञा० ५५ । कोशला- क्रोध:-क्रोधमोहनीयसम्पाद्यो जीवस्य परिणतिविशेषः अचलगणधरजन्मभूमिः । आव० २५५ । क्रोधमोहनीयकमव । ठाणा० १६३ । अप्रीतिलक्षणः । कोसलाउरे-कोशलपुरे-मायोदाहरणे नगरं, यत्र पूर्वभवे उत्त० २६१ । क्रोधः-अप्रीतिपरिणामः । जीवा० १५ । धनपतिधनापहभार्ये नन्दनेभ्यस्य श्रीमतिकान्तिमतिदुहि- क्रोधः-नोकर्मद्रव्यक्रोधः-चर्मकारचर्मकोथो नीलकोथातरौ जाते । आव० ३६४ । दिश्च । विशे० ११७० । क्रोधः । आव० ८४८ । कोसलिए-कोशलदेशोत्पन्नत्वात् कोशलिकः । ठाणा० क्रोधः-सप्तम उत्पादनदोषः । पिण्ड० १२१ । षष्ठं ३२७ । कोशलायां-अयोध्यायां भवः कौशलिकः। जं०प्र० पापस्थानकम् । ज्ञाता० ७५ । कोथ:-कुथितत्वं शटितं १३६ । कोशलदेशे भवः कोशलिकः। सम० ६० । वा । भग० १६८ । कोसलियं-कौशलिक-देशविशेषः । उत्त० ३.४ । | कोहणिस्सिया-क्रोधनिःसृता-क्रोधान्निःसृता, क्रोधाद्विनिकोसा-कोशा, पाटलिपुत्रे गणिका । आव० ४२५ । वेश्या, गतेति । प्रज्ञा० २५६ । यस्या गृहे स्थूलभद्रो द्वादशवर्षं यावत् स्थितः । आव० | कोहण-क्रोधनः-सकृत् क्रुद्धोऽत्यन्तकुद्धो भवति । नवम६६५ । मसमाधिस्थानम् । सम० ३७ । क्रोधनः-यः सकृत्क्रुद्धोकोसातकी-तिक्तरसे दृष्टान्तः । उत्त० ६७६ । ऽत्यन्तऋद्धो वा भवेत् । नवममसमाधिस्थानम् । आव० कोसि-कोशी-प्रतिमा। ज्ञाता० ५७ । कोसिओ-कौशिकनामा अश्ववणिक् । आव० २२० । कोहनिस्सिया-क्रोधनिसृता-मृषाभाषाभेदः । दश० २०६ । कौशिकनामा ब्राह्मणविशेषः । आव० १७१ । कौशिक:- कोहविवेग-क्रोधविवेकः-कोपत्यागः, तस्य दुरन्ततादिपरितापसपुत्रः । आव० १७६ । भावनेनोदयनिरोधः । भग० ७२७ । कोसिकारकोड-कोशिकारकीट:-आत्मवेष्टकः कीटविशेषः। कोहसन्ना-क्रोधोदयादावेशगर्भा प्ररूक्षनयनदन्तच्छदस्फुरप्रश्न०६१। णादिचेष्टव संज्ञायतेऽनयेति क्रोधसंज्ञा । भग० ३१४ । कोसिता-कौशिका:-षड्रलकादयः । ठाणा० ३६० । क्रोधवेदनीयोदयात्तदावेशगर्भा पुरुषमुखवदनदन्तच्छदस्फूकोसियं-कौशिक-हस्तगोत्रम् । जं० प्र० ५०० । रणचेष्टा क्रोधसंज्ञा । प्रज्ञा० २२२ । कोसियगोत्ते-कौशिकगोत्रम् । सूर्य० १५० । कोहा-क्रोधा-क्रोधानुगता । आव० ५४८ । कोसियज्जो-कोशिकार्यः-आर्जवोदाहरणे चम्पायामुपा- कोहाड-प्रहरणविशेषः । नि० चू० द्वि० ३१ आ । ध्यायः । आव० ७०४ । | कोहंडियाकुसुमेइ-कुष्माण्डिकाकुसुमं-पुंस्फलीपुष्पं । जं० कोसी-नदी विशेषः । ठाणा० ४७७ । कोशः-परिवारः । प्र० ३४ । सूत्र० २७६ । कोशी-प्रतिमा । उपा० २४ । कोहिल्लो । ओघ. ९८ । कोसेज-कौशेयकं-कौशेयककारोद्भवं वस्त्रम् । प्रश्न० ७१। | कोहेतुः-को हेतु:-का उपपत्तिः । सूर्य० २२ । किं कार. वस्त्रम् । औप० १० । कौशेयं-त्रसरितन्तुनिष्पन्नम् ।। णम् । सूर्य० १३ । जं० प्र० १०७ । वेडयकारिणो। नि० चू० ४३ आ।। कौकुच्यं-दुष्टकायप्रचारसंयुक्तं हास्यं असभ्यो वाक्प्रयोवस्त्रविशेषः । जं० प्र० २०२ । गश्च । (त०७-२७ ) । कोसेयं-कौसेयं-त्रसरितन्तुनिष्पन्न वस्त्रम् । जीवा० २६६ । कौटलं-अर्थशास्त्रम् । ज्योतिष निमित्तं वा । ओघ० कोहंडा-कूष्माण्डा:-पुंस्फलाः । अनु० १६२ । १४६ । कोह-कारणेऽकारणे वाऽतिक्रूराध्यवसायः क्रोधः। आचा० | कौटिल्य-मायी । दश० २५४ । १९१ । तत्रात्मीयोपघातकारिणी क्रोधकर्मविपाकोदयात् | कौटुंबिकः-कर्षकः । .. ( ३२४ ) 2010_05 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौतुकं] अल्पपरिचितसद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [क्षीरबिडीलिका कौतुकं-युथुकरणं, बन्धकडकादिबन्धनं, एतत् सर्वमपि | प्रश्न १४४ । कौतुकमुच्यते । बृ० प्र० २१५ मे । क्रोधादिपिण्ड:-क्रोधमानमायालोभैरवाप्तः क्रोधादिपिण्डः । कौतुका । भग० २३ । । आचा० ३५१ । कौमोदकी-वासुदेवस्य गदा। उत्त० ३५० । गदाविशेषः । क्रोधादिमान-क्रोधादीनां मानम् । आचा० १६४ । प्रश्न० ७७ । गदा, लकटविशेषः । सम० १५७। क्रौंचारि:-कात्तिकेयः । आचा० २६ ।। कौलिकः-कोकिलजातीयः पुरुषविशेषः । नंदी० १५५। क्रौष्टिकी-श्रीकृष्णस्य नैमित्तिकः । उत्त० ४६० । कौलिकी-कोकिलजातीया-भ्रामरम, उत्पातिकीबुद्धे क्वणितं-शब्दितम् । आव० ६४६ । दृष्टान्तः । नंदी० १५५ । क्वणिता-काचिद्वीणा । जीवा० २६६ । कौशलिकतया- । ठाणा० ४०१ । क्वथितं-प्रधानम् । जीवा० २६८ । कौशाम्बकानने-बनविशेषः । ठाणा० ४३३ । क्वथितोदकं-उष्णोदकम् । दश० २२८ । कौशिकः- । दश० २१३ । दश० २१२ । | क्वार्थ-फाणितम् । प्रज्ञा० ३६४ । कौशेयकानि-वस्त्रविशेषभूतानि । सम० १५८ । कौसुंभ-रागविशेषः । रञ्जनविशेषः । जं० प्र० १८८ । क्खलियं-स्खलितम् । विशे० ४०६ । | क्षणक्षयिभावप्ररूपकः-सामुच्छेदः । आव० ३११ । क्खायं-ख्यातं, कथितं, प्रसिद्धम् । प्रज्ञा० ६८ । क्षणमात्रं-पलमात्रम् । नंदी० १५५ । क्रतु-सयूपो यज्ञ एव । विशे० ७८५ ।' क्षणिकं । ओघ० ७२ ।। क्रम-गतिः, प्रवृत्तिः । विशे० २२० । क्षणीभूतं-स्तिमितम् । ओघ० १८४ । क्रमभङ्गः-यथैको जीव एक एवाजीवेत्यादि । आव० क्षपकर्षिः-भिक्षुविशेषः । उत्त० ४१८ । क्षपणं-अनारोपणम्, प्रस्थे चतःसेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव क्रमभङ्गकाः-भङ्गस्य द्वितीयभेदः । ठाणा० ४७८ ।। झाटनमित्यर्थः । ठाणा० ३२६ । क्रयाणकः-द्रव्यसमूहः । नंदी० १५० । क्षपणोपसम्पत्-चारित्रनिमित्तं क्वचित्क्षपणार्थम् । आव० क्राकचव्यवहार:-क्रकचेन काष्ठस्य तद्विषयं सङ्खधानं २७१ । कल्प एव यत्पाट्यां काकचव्यवहारः । ठाणा० ४६७ । क्षनिष्पन्न-तत्फलरूपो विचित्र आत्मपरिणामः, केवलक्रियानयः-नयविशेषः । दश० ८० ।। ज्ञानदर्शनचारित्रादिः। ठाणा० ३७८ । क्रियाविशालं-कायिक्यादिक्रियाविशालं संयमबियाविशालं क्षयोपशम-अर्द्धविध्यातानलोद्घट्टनसमतां नीतम् । आव० च । नंदी० २४१ । । ७६ । क्रियासिद्धिः-इहैव मोक्षावाप्तिलक्षणा। आचा० ४१६ । क्षान्त:-क्षामितसमस्तप्राणिगणः । आचा०२९१ । क्रीडारथः-क्रीडार्थ रथः । रथस्य प्रथमो भेदः । जीवा० क्षात्रखानकः-सन्धिच्छेदकः । प्रश्न०४६ । • १८६ । क्षारोदका-आमलकोदकाः । पिण्ड० ६५ । क्रीत-साध्वकल्प्यमशनादि । दश० २०३ । प्रश्न० १४४ । क्षाल-निर्द्धमनः । ठाणा० २९४ । करच्छाणि- ।नि० चू० प्र० ३२३ अ । क्षीरं- । जीवा० १६१ । क्रराणि-क्रूराणि, निर्दयानि निरनुक्रोशानि । नि० चू० क्षीरकाकोली-साधारणवनस्पतिविशेषः । आचा० ५७ । प्र० १६६ । | क्षीरपूरम्- । जीवा० १६१ । क्रोधकारणः-गर्वः । आचा० १६४ । क्षीरबिडीलिका-साधारणवनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० क्रोधनत्वं-अत्यन्तक्रोधनत्वम् । नवममसमाधिस्थानम् ।। २७ ।। ( ३२५ ) 2010_05 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीररसा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ खंडघडगं क्षीररसा-वापीनाम । जं० प्र० ३७१ । पुत्रः । पिण्ड० १०० । क्षीरवरः-द्वीपविशेषः । अनु० ६० । क्षोमः-आकस्मिकः संत्रासः । ओघ० १६ । क्षीराश्रवत्वं-ऋद्धिविशेषः । ठाणा० ३३२ ।। क्षौमक-वस्त्रम् । ठाणा० ५१२ । क्षीराश्रवः-क्षीरवन्मधुरवक्ता । आचा० ६८ । ख क्षीरिका-साधारणवनस्पतिकायिकभेदः । जीवा० २७ । क्षीरोद:-क्षीररसास्वादः समुद्रः । अनु० ६० । | खं-आकाशम् । आव० ८५० । क्षुद्रिका-सर्वतोभद्राप्रतिमायाः प्रथमो भेदः । ठाणा ०२६२ । खंघकरणी-कुडभकरणी साध्व्युपकरणम् । बृ० द्वि० क्षुद्रकीकण्टको- । नि० चू० तृ० १०० आ। २५३ अ। क्षुद्रघण्टा-घण्टिकाः, किङ्किण्यः । जं० प्र० ५२६ ।। खंज-खंजः-पादविकलः । बृ० द्वि० ११६ अ। क्षुध इति कर्मणः । नि० चू० तृ० ८५ अ। खंजणं-खञ्जनं-दीपमल्लिकामलः, स्नेहभ्यक्तशकटाक्षघर्षक्षाभता:-आकुलाः । ओघ० ७१ । णोद्भवं वा। प्रज्ञा० ३६१ । जं० प्र० ३२ । दीपमलः । क्षरप्रसंस्थितं-रसनेन्द्रियसंस्थानम् । भग० १३१ । बृ० द्वि० ६२ अ० । खञ्जनः । सूर्य० २८७ । ज्ञाता०६। क्षरिका-शस्त्रविशेषः । जीवा० १६२ । नंदी० १६४। खंजन-खञ्जनं दीपादीनाम् । ठाणा० २१६ । दीपादिआभरणविशेषः । पिण्ड० १२४ । खजनतुल्यः पादादिलेपकारी कर्डमविशेष एव । ठाणा० क्षल्लककूमार:-श्रमणविशेषः । सूत्र० ७२ ।। २३५ । स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षघर्षणोद्भूतम् । उत्त० ६५२ । क्षलकभव- ठाणा० ८६ । लोभस्य लक्षणसूचकः । आचा० १७० । क्षलहिमवत्-हिमवद्वर्षधरपर्वते द्वितीयकूटम् । ठाणा ०७२।। खंजरीट-जीवविशेषः । दश० १४१ । क्षल्लिका-भद्रोत्तरप्रतिमायाः प्रथमो भेदः । ठाणा० २६३ । खंड-शर्करा । बृ० प्र० ७५ आ। अनु० १५४ । भग्नक्षल्लिकाविमानप्रविभक्तिः- ।ठाणा० ५१३ । कर्णः । विशे० ६३० । भिन्नः । जीवा० १३० । इक्षुक्षेत्र-आर्यस्य द्वितीयभेदे प्रथमः । सम० १३५ । विकारः। उत्त० ६५४ । मधू शर्करा वा । जीवा० क्षेत्रगणितं-रज्जुगणितम् । ठोणा० २६३, ४६७ । २६८ । लवणम् । ओघ० १३७ । पव्वदेससहितं । नि० क्षेत्रग्रहणलक्षणका-सङ्ग्रहपरिज्ञासम्पतः, प्रथमो भेदः । चू० तृ॰ २३ अ० । खण्डम् । प्रज्ञा० ३६४ । आचा० उत्त० ४० । ६७ । क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा-कायोत्सर्गनिषदनशयनस्थानस्य स्थण्डि- खंडकण्णो-खण्डकर्णः-अवन्तीपतेर्मन्त्री । व्य० प्र० लानां मार्गस्य विहारक्षेत्रस्य च निरूपणा । ठाणा०३६१ ।। १४६ आ । क्षेत्रमरणं-यस्मिन् क्षेत्रे मरणं इङ्गिनीमरणादि वर्ण्यते खंडकुटो-खंडकुटो नाम यस्य कर्णी बोटौ स पानीयमूनं क्रियते वा, यदा वा तस्य शस्याद्युत्पत्तिक्षमत्वमुपहन्यते गृह्णाति । बृ० प्र० ५४ अ। तदा तत् । उत्त० २२६ । | खंडकुडे-खण्डकुट: । आव० १०१ । क्षेत्रविज्ञानं-किमिदं मायाबहुलमन्यथा वा ? तथा साधु- खंडग-खण्डप्रपातगुहाकूट, वैताढ्यकूटनाम । जं० प्र० भिरभावितं भावितं वा नगरादीति विमर्शनम् । प्रयो- ३४१ । खण्डप्रपाता नाम वैताढ्यगुहा । ठाणा० ४५४ । गमतिसम्पतः तृतीयो भेदः । उत्त० ३९ । खंडगप्पवायगुहा-खण्डप्रपातगुहा । आव० १५१ । क्षेत्रार्या:-कर्मभूमिजाताः । त०३-१५ ।। खंडगमल्लगं-खंडमल्लक-खण्डशरावं भिक्षाभाजनम् । क्षेत्रोपक्रमः-क्षेत्रविनाशः । अनु० ४८ । ज्ञाता० २००, २०३ । क्षेम-तत्तदुपद्रवाद्यभावापादनम् । राज० १०६ । खंडघडगं-खण्डघटक:-पानीयभाजनम् । ज्ञाता० २०० क्षेमङ्करः-आधायाः परिवर्तितद्वारे वसन्तपुरे निलयश्रेष्ठि- । २०३ । ( ३२६ ) 2010_05 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंडना ] खंडना - विराधना | प्रश्न० ७ । खंड पट्टे - खण्डपट्टः- धूर्त्तः । विपा० ७२ । खण्डः - अपरि पूर्ण: पट्टः परिधानपट्टो यस्य मद्यद्यूतादिव्यसनाभिभूततया परिपूर्णपरिधानाप्राप्तेः ते खण्डपट्टाः - द्यूतकारादय:, अन्यायव्यवहारिणः, धूर्त्ता वा । विपा० ५६ । खंडपाडिय - खण्डपाडितः । विपा० ५६ । खंडप्पवाय गुहाकूड-खण्ड प्रपातगुहाधिप देवनिवासभूतं कूटं खंति - क्रोधनिग्रहः । ज्ञाता० ७ । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ खण्ड प्रपातगुहाकूटम् । जं० प्र० ७७ । खंडपात - गुहाविशेषः । ठाणा० ७१ । खंडभेदः - क्षिप्तमृत्पिण्डस्येव । ठाणा० ४७५ | खंडभेय - खण्डभेदः - लोष्टादेरिव यः खण्डशो भवति । भग० २२४ । खण्ड - वा । खंडरक्ख-खण्डरक्षः-दण्डपाशिकः । राय० २ । रक्षः । उत्त० १६५ । दण्डपाशिक: शुल्कपालो औप० २ । श्रमणोपासकविशेषः । आव० ३१७। शुल्कपालः । प्रश्न० ३० । शुल्कपालः कोट्टपालो वा । प्रश्न० ४६ । खंडरक्खा - खण्डरक्षा: - राजगृहे श्रावकविशेषाः । विशे० ६१ । दण्डपाशिकाः शुल्कपाला वा । ज्ञाता० २ । दण्डपाशिकाः । ज्ञाता० २३६ । हिंडिका: । बृ० द्वि० [ खंदमह खंडी - खण्ड: - अपद्वारम् । विपा० ५६ । खंडीओ - प्राकारच्छिद्ररूपाः । ज्ञाता० ८१ । खंत- पिता । बृ० तृ० ३२ आ । पिण्ड० १२७ । क्षमो - पेतः क्षान्तः । सूत्र० २९८ । वृद्धः । उत्त० १२८ । आव० ३६६ । दश० ८६ । पिता । आव० ३०४ । खतपुत्तो - वृद्धपुत्रः । आचा० ६४ । १८० आ । खंडलकं । औघ० १८७ । खंडशर्करा - मत्स्यण्डी । जं० प्र० १०५ | प्रज्ञा० ३६६ । जीवा० २६८ । खंडाखंडिकतो - खण्डखण्डीकृतः । आव ० ९३ । खंडाखंडेहि - खण्डशः । आव० ३७० । खंडाभेद - खण्डभेदः । लोहखण्डादिवत् । प्रज्ञा० २६७ । खंडिअ - खण्डितम् । देशतो भग्नम् | आव० ५७२ । 2010_05 क्षमः - अनगारः । भग० १२२ । खं तिखमाते - क्रोधनिग्रहेण क्षमा-मर्षणं न त्वशक्ततयेति क्षान्तिक्षमा । ठाणा० १४६ । खंतिया - जननी | ओघ ० १६३ । पिण्ड० १२६, १२७ । खंति सुद्धि - क्षान्तिः क्षमा शुद्धिः - आशयविशुद्धता, क्षान्तेः शुद्धि: - निर्मलता क्षान्तिशुद्धिः । उत्त० ५८ । खंती - क्षान्तिः - क्रोधनिग्रहः तज्जन्यत्वादहिंसाऽपि क्षान्तिः । अहिंसायास्त्रयोदशं नाम । प्रश्न० ६६ । खते - पितरि गहिते । नि० चू० प्र० १७६ अ । खंद - स्कन्दः - कार्तिकेयः । भग० १६४ । जं० प्र० १२३ ॥ ज्ञाता० ४६, १३६ । जीवा० २८१ । पात्रालके ग्रामकूटपुत्रः । आव० २०१ । खंदए - स्कन्दकः श्रावस्तीनगर्यां कात्यायनगोत्रो गर्दभालिशिष्यः स्कन्धकः परिव्राजकः । भग० ११२, १२४ । स्कन्दकः-स्कन्दकसम्बन्ध्युद्देशकः । भग० २१२ । भग० ३२१, ३२४, ४५६, ५१८, ५२३, ५५२, ५५४, ६२४ । श्रावस्तीनगर्यां जितशत्रोः पुत्रः । बृ० द्वि १५२ आ । जितशत्रु राजपुत्रः । उत्त० ११४ । भगवत्यां द्वितीय - शत उद्देशकः । ज्ञाता० १२४, १६८ । खंदगगच्छो-दृष्टान्तविशेषः । नि० चू० प्र० ३०३ अ । खंदगपडिमा - स्कन्दप्रतिमा । आव० २२१ । खंदगाह-स्कन्दग्रहः-उन्मत्तताहेतुः । भग० १६७ । खंदगो - आयविराहणाए दिट्ठतो । नि० चू० तृ० ४४ अ । स्कंदकः । अन्त० १८ | चंपाणाम णगरी, तत्थ खंदगो राया । नि० चू० तृ० ४४ अ । खंदमह - स्कन्दस्य- कार्तिकेयस्य प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः स्कन्दमहः । जीवा० २८१ । कार्तिकेयोत्सवः । ज्ञाता • ( ३२७ ) आव० ७७८ । खंडिए - खण्डिकः - छात्रः । उत्त० ३६४ । खंडिओ - छात्रः । आव ० ५६१ । खंडितए - खण्डयितुं - देशतः भङ्क्तुम् । ज्ञाता० १३६ । खंडिय - खण्डितं - दण्ड इव विभागेन छिन्नम् । प्रश्न० १३४ । खण्डिकः छात्रः । आव० २४६ । उत्त० ३६७ । विशे० ६८६ । खंतिखमे - क्षान्त्या क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ क्षान्ति Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंदसिरी ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ खतर ४६ । (खंधार-स्कन्धावारः । विशे० ६७८ । स्कन्धावारः सैन्यखंदसिरी-स्कन्दश्री:-विजयस्य चौरसेनापतेर्भार्या । विपा० संनिवेशः । आव० ४२४ । राजबिम्बयुतं स्वचक्रं पर५७ । राजगृहेऽर्जुनकमालाकारस्य भार्या । उत्त० ११२। चक्रं वा । वृ० द्वि० २७३ आ । खंदिल-स्कन्दिल: तगरायामाचार्यशिष्यः, सद्वयवहारका- खंधारमाणं-कलाविशेषः । ज्ञाता० ३८ । चार्यः । व्य० प्र० २५६ आ । खंधावार-स्कन्धावारम् । आव० २१७ । स्कन्धावारः । खंध-स्कन्धोऽचित्तमहास्कन्धः। विशे० २२६ । स्तम्भः । हस्ती । आव० ६७१ । प्रज्ञा० ३००। नि० चू०प्र० नि० चू० तृ० २१ अ । स्कन्धः । विशे० ४२६ । ३५८ अ । आव० २६६, ५५६ । स्कन्धः-रूपवेदनाविज्ञानसज्ञासकाराख्यः । प्रश्न० ३१ । खंभ-स्तम्भः । औत्पातिकीबुद्धौ द्वादशमुदाहरणम् । नंदी० स्कन्धः-अंशदेशः । जं० प्र० ११२ । स्कन्धः-स्थु डम् ।। १५३ । भग० २३८ । स्तम्भ:-कायोत्सर्गस्य विशती राय० ६। स्थुडः । दश० २४७ । औप० ७ । जीवा० दोषे तृतीयो दोषः । आव० ७९८ । सामान्यतः । जीवा० १८७ । उत्त० २४ । स्थुडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति । १८२ । सुवर्णरुप्पमयं फलकम् । जीवा० १८० । जं. प्र० २६ । पागारी पेढं वा, घरो मृदिष्टकदारु- औत्पात्तिकी बुद्धौ यस्य दृष्टान्तः । आव० ४१६ । संघातो स्कन्ध इत्यर्थः । नि० चू० द्वि० ८४ अ । खंभछाया-स्तम्भछाया, छायाभेदः । सूर्य ० ६५ । स्कन्धः-संहतानेकपरमारगुरूप: । उत्त० ६७४ । | खंभपुडंतरं-स्तम्भपुटान्तरं-द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुटं तेषाखंधकरणी । नि० चू० प्र० १८० मन्तरम् । जीवा० १८२ । जं० प्र० २५ । आ । ओघ० २०६ । खंभबाहा-स्तम्भपार्श्वम् । जीवा० १८२ । खंधगसीसा-कुम्भकारकटे यन्त्रपीलिताः । मर० । खंभसीसं-स्तम्भशीर्षम् । जीवा० १८२ । खं वग्गहो-स्कन्धग्रहः । जीवा० २८४ । खंभागरिसो-स्तम्भाकर्षः । आव० ४१२ । खंधदेसा-स्कन्धदेशाः । स्कन्धानामेव स्कन्धत्वपरिणाम- खंभालणं-स्तम्भालगनम् । मजहतां बुद्धिपरिकल्पिता द्वयादिप्रदेशात्मका विभागाः । -स्तस्भोद्गता-स्तम्भोपरिवर्तिनी। जं०प्र० ४३ । जीवा० ७ । खंभोग्गया-स्तम्भोद्गता-स्तम्भोपरिवर्तिनी। जीवा० १६६ । खंधप्पएसा-स्कन्धप्रदेशाः-स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणाममज खंवियाओ- ।नि० चू० प्र० १८५ आ। हतां प्रकृष्टा देशा:-निविभागा भागाः परमाणवः । जीवा० खइअ-खचितानि-विच्छूरितानि । जं०प्र० २७५, ७६ । ७ । स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिणामपरिणतानां बुद्धिपरि खइए-क्षयाज्जातः क्षायिक:-अप्रतिपातिज्ञानदर्शनचारिकल्पिता:-प्रकृष्टा देशा निविभागा भागा: परमाणव त्रलक्षणः । सूत्र० २३० । क्षायिक:-क्षयः कर्मणोऽपगमः इत्यर्थः स्कन्धप्रदेशाः । प्रज्ञा० १० ।। स एव तेन या निर्वृत्तः । अनु० ११४ ।। खंधबीए-स्कन्धबीजः सल्लक्यादिः । सू० ३५० । खइय-क्षापितं-प्रशस्तयोगै निर्वाणहुतभुक् तुल्यतां नीतम् । खंधबीया-निहशल्लक्क्यरणिकादयः स्कन्धबीजाः। आचा० | आव० ७६ । ख्यातम्-प्रसिद्धम् । आव० ७०० । ५७ । स्कन्धबीजं शल्लक्यादि । दश० १३६ । खादितं-भक्षणम् । ठाणा० २७६ । खंधभूयं-स्कन्धभूतं-नालकल्पम् । प्रश्न० १३४ । खइया-असकृदासेविताः । बृ० द्वि० १३ अ । . खंधवसहो-स्कन्धवृषभ:-ककुदधरः । आव० ७१६ । खइव-संवेगशून्यधर्मकथनलक्षणः । ठाणा० २७६ । । खंधा-खन्धः-थुडम् । राय० ६ । स्कन्दन्ति-शुष्यन्ति खउर-खोरखदिरमादियाण खउरो । नि० चू० तृ० २३ धीयन्ते च-पुष्यन्ते पुद्गलानां विचटनेन चटनेन चेति | अ । खपुरं-चिक्कणद्रव्यम् । बृ० द्वि० २२० आ । स्कन्धाः । प्रज्ञा० ६ । स्कन्धा:-स्थुडाः । प्रज्ञा० ३१ । कठिनमतिशयेन धनम् । बृ० प्र० ५५ अ । शुष्कः । द्वीन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । नि० चू० द्वि० ६१ अ । ( ३२८) 2010_05 | Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खउरंगे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ खज्जूरसारए खउरंगे-व्याप्ताङ्गः । मर० । खग्गा-गण्डीपदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । -क्षौरपूत्रः । आव० २११ । खग्गि-यस्य गच्छतो द्वयोरपि पार्श्वयोश्चर्माणि लम्बन्ते स ख उरिता-खरण्टिता रोसेणेत्यर्थः । रुष्टाः । नि० चू० जीवविशेषः । कोऽपि थावक: प्रथमयौवनमदमोहितमना प्र० २०७ अ । धर्ममकृत्वा पञ्चत्वमुपागतः खड्गः समुत्पन्नः । नंदी० खउरियाओ-कलुषितचेतसः कषायेणानालपनम् । बृ० द्वि० १६७ । खड्गिः-आरण्यपशुविशेषः । ज्ञाता० १०४ । २०६ आ । खग्गी-खड्गी-श्वापदविशेषः । आव० ४३७ । आटव्यो खओ-क्षयः-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशः । जीवा० १८३ । जीवः । औप० ३५ । विजये राजधानी । जं० प्र० ३४७ । खओवसम-क्षयोपशम:-उदितानां क्षयोऽनुदितानां विष्क- खग्गीतो-महाविदेहे विजयराजधानी । ठाणा० ८० । म्भितोदयत्वम् । ज्ञाता० ६४ ।। खग्गूड-कुटिलः । पिण्ड० १०० । खओवसमिए- क्षायोपशामिकः-क्रियामात्रं क्षयोपशमेन खग्गूडप्रायाः-अवसन्नाः । ओघ० १५६ । वा निवृत्तः । भग० ६४६ । क्षयादुपशमाच्च जातः | खग्गूडा-इहालसाः स्निग्धमधुराद्याहारलम्पटाः खग्गूडा क्षायोपशामिक: देशोदयोपशमलक्षणः । सूत्र. २३० ।- उच्यन्ते । बृ० प्र० २४० अ। अलसाः, निर्द्धर्मप्रायाः । खओवसमिया-तथाऽवधिज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदया- ओघ० ७१, १५३ । वलिकाप्रविष्टस्यांशस्य वेदनेन योऽपगमः स क्षयोऽनु- खग्गूडो-निर्धर्मप्रायः । ओघ० ४४ । दयावस्थस्य विपाकोदयविष्कम्भणमुपशमः क्षयश्च उपश- खरगडे-खग्गूडप्रायः । ओघ० ७३ । पशमौ ताभ्यां निर्वृत्तं क्षायोपशमिकः । प्रज्ञा० खग्गृडो-शठप्राग: । ओघ० ४४ । निद्रालुः । ६० प्र० ५३६ । २४२ अ । खक्खरओ-खर्खरकः । आव० ४२४ । खचित-परिगतः । औप० ११ । खक्खरो-खर्खर:-अश्वोत्वासनाय चर्ममयो वस्तुविशेषः, खचिय-खचितं-मण्डितम् । ज्ञाता० २७ । भग० ४७७ । स्फुटितवंशो वा । विपा० ४७ । खज-खाद्यं-कूरमोदकादि । ज्ञाता. २३ । खाद्यानिखग्ग-खड्गः शस्त्रविशेषः । उत्त० ७११ । आटव्यो जीव- अशोकवर्त्तयः । उपा०५ । प्रश्न १५३ । खाद्यम् । स्तस्य विषाणं-शृङ्गम् । ठाणा० ४६४ । आयुधम् ।। आव० २०० । भग० ३१८ । खड्ग:-एकशृङ्ग आटव्यस्तियंग्विशेषः । खज़ा-खाद्यते-भक्ष्यते । आव० ५६६ । खाद्यते खण्डबृ० द्वि० १०६ अ । गण्डीपदचतुष्पदविशेषः । जीवा० | खाद्यादि । उत्त० ३६० । ३८ । खड्गः-अटव्यश्चतुष्पदविशेषः । औप० ५३ । खज्जगं-खाद्यकम् । निरय० ३४ । प्रज्ञा० १०० । कायोत्सर्गफले दृष्टान्तः । आव०८०१।। खज्जगविही-खण्डखाद्यादिलक्षणभोजनप्रकारः । भग आटव्यश्चतुष्पदविशेषः । प्रश्न० १५८ । यस्य पार्श्वयोः ६६२ । आव० ३१४ । पक्षवच्चर्माणि लम्बन्ते शृङ्ग चैकं शिरसि भवति । प्रश्र० खज्जगादि-खाद्यकादि । आव० ८२२ । ७ । एगसिंगी अरण्णे भवति । नि० चू० प्र०४७ आ । खज्जगावणो-खाद्यकापणः कुल्लुरिकापणः । आव० आटव्यचतुष्पदविशेषः । जीवा० ३८६ । वनजीवः ।। २७५ । मर० । खज्जयं-खाद्यम् । उत्त० १५६ । खग्गथंभणं-खड्गस्तम्भनं-कायोत्सर्गफले दृष्टान्तः । आव० खज्जुरी-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । ७६६ । खज्जूरे-खर्जूरं-पिण्डखजूरादि । उत्त० ६५४ । खग्गपुरा-सुवल्गुविजये राजधानी । जं० प्र० ३५७ । | खज्जूरपायगं-पानकभेदः । आचा० ३४७ । खग्गपुराओ-विदेहेषु राजधानीविशेषः । ठाणा० ८०। खज्जूरसारए-मूलदलखर्जूरसारनिष्पन्न आसवः ख‘र( अल्प० ४२ ) ( ३२६ ) 2010_05 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खज्जूरसारो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ खत्तमेहा सारः । प्रज्ञा० ३६४ । प्रस्तावः । उत्त० ६३१ । परमनिरुद्धः कालः क्षणः । खज्जूरसारो-खर्जूरसारः । जीवा० २६५ । अष्टप्रकारेण कर्मणा संसारबन्धनैर्वा विषयाभिष्वङ्गखजूरि-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । स्नेहादिभिः । आचा० ११२ । क्षणनं क्षणो-हिंसा। खज्जूरिवणं-खर्जूरिवनं-वृक्षविशेषवनः । जीवा० १४५ । आचा० २११ । महतः । ठाणा० ३४५ । क्षणं-अवखजूरिसार-खज्र्जूरसारनिष्पन्न आसवविशेषः । ज० सरम् । आचा० १०६ ।। प्र० १०० । खणजोइणो-परमनिरुद्धः कालः क्षणः, क्षणेन योग:खज्जोयग-खद्योतक:-प्राणिविशेषः । आचा० ५० । सम्बन्धः क्षणयोगः स विद्यते येषां ते क्षणयोगिनः । खचरीट:-जीवविशेषः । दश० १४१ । सूत्र. २५ । खटिका-वत्तिः । बृ० प्र० २५ आ । खणणं-खननम् । आव० ६१६ । खट्ट-खट्वा । आव० ३५४ । खणभंगविघायत्थं-क्षणभङ्गविघातार्थ-निरन्वयक्षणिकवखट्टमेहा-अम्लजलमेघाः । जं०प्र० १६८ । भग० ३०६। स्तुवादविघातार्थम् । दश० १३० । खट्टा-खट्वा-तूल्यादि । प्रश्न० ६२ । खणयन्नो-क्षण एव क्षणक:-अवसरो भिक्षार्थमुपसर्पणादिखट्टामल्लो-अतिशयेन वृद्धः । खट्टामल्लो नाम प्रबलजराज- कस्तं जानातीति । आचा० १३२ । जरितदेहतया यः खट्वाया उत्थातुं न शक्नोति । बृ० द्वि० खणलव-कालोपलक्षणः क्षणलवादिषु संवेगभावनाध्याना५६ आ । सेवनतश्च निर्वत्तितवान् । ज्ञाता० १२२ । खट्टिका-कम्मनुंगितविसेसो । नि० न० द्वि० ४३ आ । | खणसंखडी-क्षणसङ्खडी । दश० ८६ । खट्टोदए-खट्टोदकं-ईषदम्लपरिणामम् । जीवा० २५ । खणाति-क्षणाः सङ्ख्यातानप्राणलक्षणः । ठाणा० ८७ । प्रज्ञा० २८ । खणिए-क्षणिक: नियाघातः । ओप० २०० । खड-तृणम् । व्य० प्र० १०७ अ । खणित्त-खनित्वा-समाकृष्य । आचा० ४१७ । खडखडावेह-वादयत । आव० २०४ । खणीकरेंति-प्रक्षालयन्ती । आव० २१५ । खडखडेइ-खटत्कारयति । उत्त० १३८ । खण्णा-(देशी०) सर्वात्मना लूषिता । व्य० प्र० १४० खडपूलग-तृणपूलक: । नि० चू० तृ० १२८ अ । आ। खडपूलय-तृणपूलिका । मर० । खतं-स्वदेहोद्भवमेव क्षतम् । अनु० २१२ । खडहडो- नि० चू० प्र० १९६ आ। खतए-राह्वप्रलापीमते कृष्णपुद्गलविशेषः । राहोः चतुर्थखडुग-खड्डुक:-टोलकः । बृ० तृ० ६२ अ । नाथ । सूर्य ० २८७ । खड्डं-गर्त्तम् । आव ० ६२४ । । खतोवसम-क्षयोपसमः क्रियारूप एव । ठाणा० ३७८ । खडु-बृहत्प्रमाणः । विशे० १०३० । गतः । आव० खत्तं-क्षत्रम् । उत्त० २०७ । क्षत्रं-करीषविशेषः । १६६, ३८४ । पिण्ड ८-१८ । ओघ० १३० ।। खड्डा-गरौ । आव० ३६८, ६८५ । खत्तए-खात:-गः इत्यर्थः । खातकः क्षेत्रस्येति गम्यते चौर खड्डुग-अङ्गुलीयकविशेषः । औप० ५५ । इत्यर्थः । ज्ञाता ७६ । खड्ड्य -खड्डुकः टक्करः । उत्त० ६२ । । खत्तखणग-क्षात्रखानका-ये सन्धानजितभित्ती: काणखण-क्षणं-स्तोककालम् । दश० १८० । क्षण:-समयः । यन्ति । ज्ञाता० २३६ । आव० ६१० । पारणम् । आव० ३२५ । क्षणं-अव- खत्तखयणण । ज्ञाता० २३६ । सरः । सूत्र० ७६ । परमनिरुद्धः कालः क्षणः । सूत्र० खत्तमेहा-खात्रमेघा:-करीषसमानरसजलोपेतमेघाः । जं. २५ । बहुतरोच्छ्वासरूपः । ज्ञाता० १०४ । क्षण:- । प्र० १६८ । भग० ३०६ । ( ३३० ) 2010_05 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खत्ता] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ खमावणय खत्ता-क्षत्ता-क्षत्रीयस्त्रीक्षुद्राभ्यां जातः । आचा० ८ । खद्धादाणिओ-बहुदानीयः-श्रीमान् । आव० ६७६ । क्षत्रा:-क्षत्रियजातयो वर्णसङ्करोत्पन्ना वा । तत्कर्म- | खद्धादाणिय-प्रचुरादानीयः-ऋद्धिमान् धनाढ्यः । आव० नियुक्ताः । उत्त० ३६३ । ४३३ । खत्तिआ-क्षत्रियाः-श्रेष्ठ यादयः । दश० १६१ । क्षत्रिया। खद्धादाणियगिहा-ईश्वरगृहा इत्यर्थः । नि० चू० प्र० - आव० १२८ । क्षणनानि सतानि तेभ्यस्त्रायत इति . ३५० अ । क्षत्रियः-राजा । उत्त० १८२। राजा। भग० १०१। खनित्रम्-खननसाधनम् । शस्त्रविशेषः । आचा० ३६ । राजकुलीनः । नग० ११५ । इक्ष्वाकुवंशादिकः । सूत्र० खन्ना-मत्स्यकच्छपविशेषाः । जीवा० ३२१ । " २३६ । कुलविशेषः । आव० १७६ । राष्ट्रकूटादयः । खपुसवग्गुरि-अद्धजंघातियाओ। नि० चू० द्वि०. १८ अ । आचा० ३२७ । सामान्य राजकुलीनः । औप० १८। । खसा-हिमाहिकण्टकादिरक्षाय पादपरिधानम् । बृ० द्वि० खत्तियकुंडग्गाम-क्षत्रियकुण्डग्राम-सिद्धार्थ राजधानी । १०१ अ । चुटकच्छादकं चर्म । या घुण्टकं पिदधाति सा आव० १७६ । नगरविशेषः । भग० ४६१ । खपूसा । ब० द्वि० २२२ आ। खत्तिया-सामान्यतो राजोपजीविनः । ६० द्वि० १५२ खमंत-क्षपयन् , क्षपणम् । पिण्ड० १६६ । अ । क्षत्रिया:-हैहेयाद्यन्वयजाः । उत्त०४१८ । चक्रवत्ति- खम-क्षेम-सङ्गतत्वम् । । क्षम-युक्तार्थः । ब० वासुदेवबलदेवप्रभृतयः । आचा० ३३३ । क्षत्रिया:- प्र० १०७ अ । क्षमा । भग० ४६६ । सामान्य राजकुलीनाः । राय० १२१ । क्षत्रिया:-शेष- खमइ-क्रोधाभावात् क्षमते । भग० ४६८ । प्रकृतितया विकल्पिताः । जं. प्र. १४५ । क्षत्रिया:- खनए-क्षपकः । आव २६३ । क्षपक:-विकृष्टतपस्वी। आरक्षिका: । नि० चू० प्र० २७७ अ । बृ० प्र० २५६ आ । खत्थो-विलक्षः । दश० ५५ । खमओ-क्षपक:-श्रमणः । दश० ३७ । एकान्तरितादिखदिरचञ्चः -वजुलः । प्रश्न० १० । क्षपणकर्ता । बृ० द्वि० ६४ आ । खदिरसारए-खदिरसार: । प्रज्ञा० ३६० । खमग-क्षपक-मासक्षपकादिकम् । ओघ० ६४ । अनशनी खद्धं-त्वरितम् । आचा० ३३७ । वृहच्छब्देन खरकर्क- भक्त० । उपोषिताः । बृ० प्र० २४४ आ । नि० चू० शनिष्ठुरम् । आव ० ७२६ । बहुः । उत्त० १४६ ।। द्वि० ५५ अ । क्षपकः । आव० १६५ । महाप्रमाणम् । बृ० द्वि०६४ आ । प्रचुरम् । आव० खमणं-उपवासः। द्वि०६४ आ। क्षपण-अभक्तार्थः । ३६३, ५६ । बृ०प्र० २३५ अ । बृ० तृ० २४८ आ। व्य० प्र० १६१ आ । ओघ० ६८, १२७ । पिण्ड० ७०, १३६ । आव० यं-क्षपणादि-अनशनतादि । आव० ८४० । ७२६ । प्रश्न० १२८ । आचा० ३३६ । प्रचुरम् । व्य० खमया-क्षमा-क्रोधनिग्रहः । चतुर्दशोऽनगारगुणः । आव० प्र० १८० अ। प्रभूतम् । ओघ० ४८ । प्रभ० १४१। ६६० । आचा० ३५३ । शीघ्रम् । आचा० ३५२ । बहता खमसि-क्षमसे क्षोभाभावेन । ज्ञाता० ७१ । . बृहता कवलेन भक्षणम् । आव० ७२६ । बृहत्प्रमाणं । खमा-क्षमा-अनभिव्यक्तक्रोधमानस्वरूपस्य द्वेषसज्ञितओघ० २१६, १२१ । ठाणा० १३८ । स्याप्रीतिमात्रस्याभावः, अथवा क्रोधमानयोरुदयनिरोधः । खद्ध पलालितो-प्रचुरपलालितः-सुखीधनाढ्यः । उत्त०' सम० ४६ । सङ्गतत्वम् । औप० ५६ । रोसावगमो। २२५ । नि० चू० प्र० २१६ अ । क्षमत्वम् । भग० ४५६ । खद्धवसभो-समर्थवृषभः । उत्त० ३०३ । खमामि-आत्मनि परे वाऽविकोपतया क्षमे । ठाणा० खद्धादाणिअगामो-खद्धादानिकग्रामः-समृद्धग्रामः । ओघ० २४७ । खमावणय-परस्यासन्तोषवतः क्षमोल्पादनम् । भग०७२७ । (३३१ ) खम 2010_05 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खमाह ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ खरबादर० खमाह-क्षमस्व, सहस्व । उत्त० ३६७ । खरओ-द्वयक्षरो वा कर्मकरः । ओघ० १५६ । दासः खमिय-क्षपिकः । बृ० द्वि० २०५ अ । बृ० तृ० २२५ अ। खय-क्षयः राजयक्ष्मा । वृ० प्र० १७० अ। सर्वविनाशः। खरकंट-खरा-निरन्तरा निष्ठुरा वा कण्टा:-कण्टका: भग० ५३६ । यस्मिस्तत् खरकटं बुब्बूलादिडालम् । ठाणा० २४४ । खयक्का-कीलकः । उत्त० ८५ । खरकंटयसमाणे-यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान्न खयक्कियाण- । नि० चू० तृ० ३७ आ। चलति अपितु प्रज्ञापकं दुर्वचनकण्टकैविध्यति स खरखरं-कठिनम् । जीवा० ८६ । उच्चेण महंतेण सरेण कण्टकसमानः । ठाणा० २४३ । जं सरीसं उक्तं तं खरं । नि० चू० प्र० २६६ अ । खरकंडे-खरकाण्डम् । कठिनो विशिष्टो भूभागः । जीवा० खरस्थानम् । अनु० १३३ । सरोसवयणमिव अकतं. ८६ । खरं । नि० चू० प्र० २७८ अ । खरकम्मिअ-दण्डपासगः। ओघ० ८६ । खरंटं-खरण्टयति-लेपवन्तं करोति यत् तत् खरण्टं अशु- खरकम्मिए-वरकमिक:-आरोग्याभिरतो बीजपुरवनद्दच्यादि । ठाणा० २४४ । ष्टान्ते कुम्भकाराद्यन्यतमः । आव० ४५३ । खरंटणा-खिसना । ओघ० ४५ । णिप्पिवासा । नि० | खरकम्मिओ-खरकर्मिक:-आरक्षकः। बृ० तृ० १०२आ। चू० द्वि० १३१ अ । प्रवचनोपदेशपूर्वकं परुषभणनम् ।। खरकम्मिय-खरकमिकः । आव० ६२७ ।। ओघ० ४२ । खरंटनं-निर्भत्सनम् । व्य० प्र० १२० आ। खरकम्मिया-सन्नद्धपरिकराः । बृ० द्वि० १२६ अ । खरंटना-निर्भर्त्सना । बृ० प्र० १५० आ । रायपुरिसा । नि० चू० प्र० २१० अ । राजपुरुषाः । खरंटि-खरण्टनम् , लेपविशेषः । पिण्ड० ८७ । बृ० द्वि० २१३ आ । खरंटिओ-तिरस्कृतः । उत्त० १३६ ।। खरकर-श्लक्ष्णपाषाणभृतचर्मकोशकविशेषः, स्फुटितवंशो खरंटिता-खउरिता रोसेणेत्यर्थः । रुष्टः । नि० चू० प्र० | वा। प्रश्न० ५६ । २०७ अ । खरग-खरक:-वैद्यविशेषः । आव० २२६ । दासः । खरंटेउं-निर्भय॑ । बृ० प्र० ३६ आ। नि० चू० द्वि० १०५ आ । खरंटेति-भर्त्सयति । नि० चू० प्र० २११ आ ।। खरडिए ।ठाणा० ३८६ । खरंटेहिति-निर्भर्त्स यिष्यन्ति । दश० ३८ । खरणं-बब्बूलादिडालम् । ठाणा० २४४ । खरंटो उ जो मलो तं कमद भण्णति। नि० चू० प्र० खरदूषण:-रावणभगिनीपतिः । प्रश्न० ८७ । १६० आ। खरपम्हं-खरा णिसड्ढा दासाओ जस्स तं खरपम्हं । खरंडिय-संतयं, निर्भय॑ । आव० ४३१ । नि० चू० प्र० २४५ आ । खर-खरस्थानम् । ठाणा० ३६७ । तिलम । आव० | खपिड-कठिनपिण्डः । आचा० ३६१ ८५४ । गर्दभः । प्रज्ञा० २५२ । जीवा० २८२ । खरफरुस-खरपरुषः अतिकर्कशः । आव० ६१७ । ज्ञाता० दासः । बृ० द्वि० १६७ अ । खरसन्नय । ओघ० १४६ । ७६ । स्पर्शतोऽतीवकठोरः । भग० ३०८ । खरइ-क्षरति-संशब्दयति । विशे० २५५ । | खरबायरपुढवी-खरबादरपृथिवी-मण्यादिषट्त्रिंशभेदाखरउ-शातवाहनस्यामात्यः । व्य० प्र० १६३ अ। त्मिको पृथिवी । आचा० २८ ।। खरए-राह्वाप्रलापीमते कृष्णपुद्गलविशेषाः । सूर्य० खरबादरपुढविक्काइया-खरा नाम पृथिवी संघातविशेष २८७ । राहोः चतुर्थनाम । भग० ५७५। राहो तृतीय- काठिन्यविशेषं वाऽऽपन्ना तदात्मका जीवा अपि खराश्च ते नाम । सूर्य० २८७ । दासदासीरूपं द्वयक्षरकम् । ६० । बादरपृथिवीकायिकाश्च, खरा चासो बादरपृथिवी च द्वि० १६४ आ। स कायाः-शरीरं येषां ते एव खरबादरपृथिवीकायिकाः । ( ३३२ ) 2010_05 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरमुखी ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ खलुंकोयं जीवा० २२ । खलं-कुथितादि विशिष्टम्, अल्पधान्यादि वा । सूत्र० खरमुखी-काहला, तस्स मुहत्थाणां खरमुहाकारं कट्ठमयं- ३२४ । खलं-धान्यमेलनपचनादिस्थण्डिलम् । जं० मुहं कज्जति । नि० चू० तृ० ६२ अ । प्र० १४६ । धान्यमेलनादिस्थण्डिलम् । ज्ञाता० १०४ । खरमुहि-खरमुखी काहला । भग० ४४७, २१६ । ज० खलखलंति-खटत्खटदिति भवन्ति,खलखलशब्दं कुर्वन्ति । प्र० १०१ । आव. ७१६ । खरमुही-काहला । जोवा० २४५ । तोहाडिका । आचा० | खलखलिति-खलखलशब्दं करोति । उत्त० ३०३ । ४१२ । खरमखी-काहला। औप०७३ । जीवा० २६६। खलखिलं-निर्जीवमित्यर्थः । व्य० द्वि० १९६ आ । खरमुही-काहला । जं० प्र० १६२ । राय० २५ । खलगं-जत्थ मंसं सोसंति । नि० चू० द्वि० २२ आ । खरवायं-खरवातम् । आव २१७ । खलणा-स्खलना-प्रतिसेवणा, भङ्गो, विराधना, उपघात: खरशानया-पाषाणप्रतिमावत् । ठाणा० २३२ । अशोधिः, शबलीकरणं, मइलणा च । ओघ० २२५ । खरस्सरे-यो वज्रकण्टकाकुलं शालमलीवृक्षं नारकमारोग्य | खलतिना । ठाणा० ४१३ । खरस्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षति स खरस्वरः । चतु- | खलपुरिसो-खलपुरुषः। राजपुरुषविशेषः । आव० ८२१ । दशः परमाधार्मिकः । सम० २६ । खरस्वर:-नरके खलमत्स्यः -मत्स्यविशेषः । प्रश्न०.६ । चतुर्दशः परमाधार्मिकः । आव० ६५० । चतुर्दशः | खलयं-खलक-धान्यमेलनस्थण्डिलम् । ज्ञाता० ११६ । परमाधार्मिकः । उत्त० ६१४ । सूत्र० १२४ । खलयारिओ-स्खलीकृतः । आव० २६४ । खरा-कठिनाः । उत्त० ६८६ । सङ्घातविशेष काठिन्य- खलहाणाणि- ।नि० चू० प्र० ३४४ आ । विशेषं वाऽऽपन्ना पृथिवी । जीवा० २२ । निरन्तरा | खलाहि-(देशी) अपसर । उत्त० ३५६ । निष्ठुरा वा । ठाणा० २४३ ।। खलिणं-कायोत्सर्गस्य एकोनविंशतौ दोषे त्रयोदशमदोषः । खरावते-खरो-निष्ठुरोऽतिवेगितया पातकश्छेदको वा | आव० ७९८ । अस्सरस्सी । दश० चू० १५४ । आवर्तनमावतः स च समुद्रादेश्चक्रविशेषाणां वेति खरा- खलिनं-कविकम् । आव० २६१ । खलिनः-कविकः । वर्तः । ठाणा० २८८ । ज्ञाता० २२० । खरि-दुवक्खरिदा । नि० चू० तृ० २० अ । खलियं-स्खलितं-छलितम् । ओघ० २२५ । विनष्टम् । खरिए-दूयक्षरिका । ओघ० २२३ । बृ० तृ० १०२ आ । खरिका-कठोरकर्मा । उत्त० १०७ । खलियाइ-स्खलितादि । भग. ८६१ । खरिमुह-खरमुखी-नपुंसकी दासी वा । व्य० द्वि० खलीकओ उपसर्गितः । दश० ३७ । १५० अ । खलीकुर्वन्ति । ओघ० ४५। खरियत्ताए-नगरबहिर्वत्ति वेश्यात्वेन । भग० ६६४ । | खलीण-विषमभूमिः । आव० ५६ । खलिनं-कविकम् । खरिया-द्वयक्षरिका दासी । बृ० द्वि० ४७ आ। द्वय- | दश० २८३ । क्षरिका । ओघ० ५६ । द्वयक्षरिका-कर्मकारी । ओघ० खलाणा-खलाना-आकाशस खलोणा-खलीना-आकाशस्था। विपा० ४४ । १५६ । दासी । नि० चू० द्वि० ३६ आ । . खलुक-गलिरविनीत इति । ठाणा० २५० । दुःशिष्यः । खरेणं । आव० ६४ । उत्त० ५४८, ५५३ । । खरोट्टी-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । खलुकिज्ज-खलुङ्कीयं, उत्तराध्ययनेषु सप्तविंशतितममध्यखर्जु-कण्डूम् । ठाणा० ५०५ ।। यनम् । उत्त० । । सम० ६४ । खव-स एव उन्नतो जात्यादिना भावेनाशोकादिरिति । खलंकीयं-उत्तराध्ययनस्य सप्तविंशतितममध्ययनम् । उत्त० ठाणा० १८२ । ५४८ । ___ 2010_05 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खलु ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ खाइम खलु-विशेषणे विशेषेण-अत्यर्थम् । आचा० १०५। खलु- खवणो-चउप्पगारं भवं खवेमाणो। जम्हा अप्पा कम्म निश्चितम् । सूर्य० १४ । अपिशब्दार्थः । आव० ५३० ।। खयइ तम्हा वा । दश० चू० १४५ । खलुए-गले । नि० चू० प्र० १३८ अ । पादमणिबन्धः । खवलिओ-आमन्त्रितः । आव० १७५ । विपा० ७२ । खवल्लमच्छ-मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ । प्रज्ञा० ४३ । खलुका:-जानुकादिसंधयः, जानुकादिसन्धिषु वातः । बृ० | खविउणं-क्षपयित्वा । पिण्ड ० १६७ । द्वि० १२३ आ । खवियदंदा-क्षीणक्लेशाः । चउ० । खलुखेत्तं-खलुक्षेत्रं-यत्र किमपि प्रायोग्यं लभ्यते । व्य० | खवुस । नि० चू० प्र० १३६ आ । द्वि० ३३५ आ । खस-खस:-चिलातदेश निवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न०१४। त्ता-खलुक्षेत्राणि-यत्राल्पो लोको भिक्षा प्रदाता । खसखसा-प्रक्षाल्यमानकुण्डलिकादेः शब्दविशेषः । ओघ० बृ० प्र० २०६ आ । खलुग-खलुकः-घुण्टकः । बृ० द्वि० २२३ अ । चरण- खसदुमो नाम मिगराया । व्य० प्र० २२३ आ। गुल्फः । बृ० द्वि० २५२ अ । खसरः-खर्जूः । जीवा० २८४ । खलुगमेत्तो-कद्दमो । नि० चू० द्वि० ७६ आ । खसर-खशर:-कशरः । भग० ३०८ । कसरः । जं० प्र० खल्लेज-स्खलयेयु:-निष्काशयेयुः । उत्त० ३६४ ।। १७० । खल्लए-कपईकविशेषः । ज्ञाता० २३५ । खसा-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । खल्लका-पत्रपटानि । बृ० द्वि १४ अ । खसूचो-मूर्खः । सूत्र० २३७ । । खल्लकादि:-चर्मकोशः, पाणित्रम् । आचा० ३७० । खहं-आकाशम् । ठाणा० ११५ । उत्त० ६६८ । खह-आकाशम् । ठाणा० ११५ । खल्लग-खल्लक: चर्मपञ्चके द्वितीयो भेदः । आव०६५२ । खहयर-खचरज-पुद्गलविशेषः । आव० ८५४ । खचरा:खल्लक: । ठाणा० २३४ ।। वैताट्यवासिनो विद्याधराः । जं०प्र०१६८ । खे-आकाशे खल्लगादिपुडगे- । नि० चू० द्वि० १८ अ । चरन्तीति खचराः । प्रज्ञा० ४३ । खल्लाडो-खल्वाट: । आव० ३१७ । खहयरगन्भवतिया- भग० ३२६ । खल्लिता-खल्लयौ । दश० ८६ ।। खो-खनने भुवो हाने च त्यागे यद्भवति तत् खहम् । खल्ली-खलतिः । उत्त० १६५ । खल्वाट: । विशे० भग० ७७६ । ६७२ । खाई-अवश्यम् । आव० ४०१ । खल्लीडो-खल्वाट: । उत्त० १६५ । खाइ-कथय । उत्त० १८, १७४ । गच्छ, अवश्यं वा। खल्लट-साधारणवनस्पतिकायिकभेद: । जीवा०२७।। आव० २२० । भग० १७० । तदा, अत्यन्तम् । आव० खल्लूर-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४।। ७०१ । पुनः । भग० ३६८ ।। खवए-क्षपको मासक्षपणादितपस्तप्यते । बृ० तृ० ३५ | खाइज्जा -खादेत्-भाषेत् । दश० २३५ । आ । मासादिक्षपकः । बृ० तृ० ३५ आ । खाइणं-देशभाषया वाक्यालङ्कारे । औप० ११५ । खवगा-क्षपका:-उपवासिका: । ओघ० ६४ । खाइम-खाद्यत्त इति खाद्यं-खजूरादि । दश० १४६ । खवणं-क्षपणं-प्रकृत्यन्तरसंक्रमितस्य कर्मणः प्रदेशोदयेन खादिम फलादी । ख-आकाशं तच्चमुख विवरमेव तस्मिन् निर्जरणम् । विशे० १००६ । अप्रत्याख्यानादिप्रक्रमेण मातीति खादिमम् । आव० ८५० । खादिम-त्रपुष क्षपकश्रेण्यां मोहाद्यभावापादनम् । आचा० २६८ । फलादि । आव० ८११ । खादिम-पिण्डखजूरादि । खवणा-क्षपणा-पापानां कर्मणां क्षपणहेतृत्वात क्षपणेति । उत्त० ४१८ । खादनं खादस्तेन निर्वृत्तं खादनार्थं तस्य ठाणा० ६ । क्षपणा श्रुतनाम । दश० १६ । निर्वर्त्यमानत्वादिति खादिमं । ठाणा० १०६ । खाद्यत ( ३३४ ) 2010_05 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाइयं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०२ [ खारिया इति खादिम-नालिकेरादि । आचा० २६५ । खामेत्ता-क्षमयित्वा । ज्ञाता० ७४ । खाइयं-खातवलयम् । प्रश्न० १६० ।। खायं-खातं-उपरि विस्तीर्णमधः सङ्कटम् । ज्ञाता० २ । खाई-ख्याति अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति-प्रकाशयति ।। औप०३ । खातमध उपरि च समम् । सम० १३७ ।। प्रज्ञा० ६०० । कूपादि । अनु० १५४ । ख्यातं-प्रसिद्धम् । आव ०५१४ । खाओदया-खातायां भूमौ यान्युदकानि तानि खातोदकानि। खातं-उभयत्रापि समम् । जीवा० १५६ । बृ० प्र० भग० ६६४ । २८ अ । जं० प्र० ७६ । खातानि-पृष्करिण्यादिकानि । खाडखडे-नरकेन्द्रविशेषः । ठाणा० ३६५ । जं० प्र० २१० । खाइहिला-कृष्णशुक्लपट्टाङ्कितशरीरा शून्यदेवकुलादि- खायजसो-ख्यातयशाः । आव० ६१७ । . वासिन्यः । प्रश्न० ८ । खायजाणए-खातज्ञायक: । आव० ४२४ । खाडहिल्ला-खाडहिल्ला । आव० ४१७ । । खार-कट्रकम् । प्रज्ञा० ३६५ । क्षारं-तिलक्षारादि । खाणं-वादनम् । आव० ११५ ।। प्रश्न० ५७ । तीक्ष्णम् । जीवा० ३०३ । क्षार:-परस्परं खाणगतेणो-खत्तं खणंतो । नि० चू० द्वि ३८ आ। मत्सरः । जं० प्र० १२५ । कीरादिप्रभवः । दश० खाणी-खनिः । आव० २७४ । १३६ । परस्परमत्सरः । भग० १६८ । क्षार:-भुजखाणु-स्थाणवः-कीलका ये छिन्नावशिष्टवनस्पतीनां शुष्का- परिसर्पः तिर्यग्योनिकः। जीवा०४०। परस्परं-मार्यम् । वयवाः 'ठुठा' इति लोकप्रसिद्धाः । जं०प्र० ६६ । स्थाणुः- जीवा० २८३ । वस्तुलादिलवणं वा । बृ० द्वि० २७१ ऊर्ध्वकाष्ठम् । जं० प्र० १२४ । दश० १६४ । स्थाणुः । अ । यवक्षारादिः । पिण्ड० ८ । वत्थुलमाती वारो । ज्ञाता० ६५, ७८, ७६ । नि० चू० प्र० १६२ आ । वत्थुलादिगो । नि० चू० खाणुगं-उद्घाययट्ठियं कटुं खाणुगं भण्णति । नि० चू० प्र० ३५६ अ । क्षारा:-क्षाररसामोरडप्रभृतयः । व्य० प्र० ६६ अ। प्र० ६१ आ । क्षार:-तिलक्षारादिः । ओघ० १३० । खाणू-स्थाणुः कीलकः । बृ० द्वि० ७७ आ । नि० चू०, क्षारो-भस्मादि । ठाणा० ४६२ । प्र० ३२ अ । खारकडुयं-क्षारकटुकम् । आव० ५५६ । खातं-खातं, उभयत्रापि सममिति । प्रज्ञा० ८६ । नंदी० खारकाइए-क्षारकायिकी । आव० २१७ । . १६४ । भूमिगृहकादि । आव० ८२६ । उपरि विस्ती- खारगंधो-क्षारगन्धः-कट्रकगन्धः विषगन्धः । आव०७२३ । पर्णमधः सङ्कुचितम् । राय० २ ।। खारतंते-क्षरणं क्षारः, शुक्रस्य तद्विषयं तन्त्रं यत्र तत् खाति। भग० २२६ । क्षारतन्त्रम् । ठाणा० ४२७ । खातिका-अध उपरि च समखातरूपा । अनु० १५६ । खारतउसी-क्षारत्रपुषी कटुका त्रपुषी । प्रज्ञा० ३६४ । खातिया-खातिका-परिखा । प्रश्न० ८ । उपरि विस्ती- खारत उसोफलं-कटुकात्रपुषी क्षारत्रपुषी तस्याएव फलं धः सङ्कटखातरूपाः। भग० २३८ । क्षारत्रपुषीफलम् । प्रज्ञा० ३६४ । खातोच्छ्रितम्-भूमिगृहस्योपरि प्रासादः । आव० ८२६ । खारमेहा-क्षारमेघाः सर्जादिक्षारसमानरसजलोपेतमेघाः। खामिअविडसविआणं-क्षमितव्यवशमितानां - मषितत्वे- भग० ३०६ । नोपशान्तानाम् । सम० ३७ । खारवावी-क्षारवापी-क्षारद्रव्यभृतवापी। प्रश्न० २० । खामित-क्षामितानि-वचसा मिथ्यादुष्कृतप्रदानेन शमिता- | खारातणा-मण्वगोत्रविशेषः । ठाणा० ३६० । नि । बृ० तृ० २२१ अ । खारिअ-सलवणानि । ओघ० ६८ | खामियं-मिथ्यादुष्कृतेन शमितम् । क्षामितव्यम् । बृ० खारिया-क्षारितानि यानि लवणखरण्टितानि शालनकातृ० २२२ अ। | न्यास्तानानीत्यर्थः । व्य० द्वि० १४२ अ । ( ३३५ ) 2010_05 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खारोदए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ खित्त खारोदए-क्षीरोदक-ईषल्लवणपरिणामम् । जीवा० २५ । नि० चू० द्वि० १०६ अ । आव० ७६६ । स्वसमक्षं क्षारोदक-ईषल्लवणस्वभावम् । प्रज्ञा० २८ । वचनैः कुत्सन्ति । भग० १६६ । खालु । ओघ० २०९ । खिसह-खिसत, जनसमक्षं निन्दत । भग० २१९ । खासिअं-कासनं-कासितम् । विशे० २७४ । खिसा-जुगुप्सा असमीक्षितभाषिणम् । ओघ० ५३ । खासिए-कासितम् । आव० ७७६ । खिसिजमाणो-निन्द्यमानः । आव० ८६३ । खासिय-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । खासिकः-चिला- खिसितं-जन्मकर्माद्युद्घट्टनत: ।. ठाणा ० ३७१ । तदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ । खिसितवयण-जन्मकर्माद्यघट्टनवचनम् । ठाणा० ३७० । खिखिएइ-खिङ्किङ्करोति । उत्त० १२१ । खिसिय-खिसित:-निन्दापूरस्सरं शिक्षितः । व्य० प्र० खिखिणि-किङ्किण्य:-क्षुद्रघण्टिकाः । जं० प्र० १०६ । १६६ आ । किङ्किणी-क्षुद्रघण्टिकाः। प्रश्न० १५६ । जीवा० १८१ । खिइ-क्षितयः-धर्माद्या ईषत्प्राग्भारावसाना अष्टौ भूमयः । ज्ञ.ता० १६७ । क्षुद्रघण्टाः । जीवा० १६२ । आव० ६०० । खिखिणिघंटाजालं-किङ्किणीघण्टाजालं-क्षुद्रघण्टासमूहः। खिइपइट्रिअं-क्षितिप्रतिष्ठितं नगरविशेषः । आव० ११६ । जीवा० ३६६ । खिइपइद्वितं-जितशत्रुराजधानी। नि० चू० तृ० ६८ आ। खिखिणिजालेण-किङ्किणीजालेण क्षुद्रघण्टिकाः एकैकेन | खिइपइट्ठियं-क्षितिप्रष्ठितं, द्रव्यव्युत्सर्गोदाहरणे प्रसन्नचन्द्रघण्टाजालेन । जीवा० १८१ ।। राजधानी। आव० ४८७ । आत्मसंयमविराधनादृष्टान्ते खिखिणियाइं ज्ञासा० १३४ । जितशत्रुनगरम् । आव०७३२ । नगरविशेषः । उत्त० खिखिणिस्सरे-किङ्किणि-क्षुद्रघण्टिकाः तस्याः स्वरो ध्वनिः ३६५ । आव० ३७० । मगधाया मूलराजधानी । उत्त० किङ्किणिस्वरः । ठाणा० ४७१ । १०५ । द्रव्यव्युत्सर्गे नगरम् । आव० ७२० । खिखिणी-किङ्किणी-भूषणविधिविशेषः । जावा० २६६ । खिइपतिट्टियं-क्षतिप्रतिष्ठितं-नगरविशेषः । उत्त० ३०४ । क्षुद्रघण्टाः । जीवा० २०५ । क्षुद्रघण्टिकाः । जं० प्र० | आव० ३८८ । २३ । ठाणा० ४७२ । खिइपदिट्ठिअं-क्षतिप्रतिष्ठितं-नगरविशेषः । आव० ११५ । खिखिणीजालं-किङ्किणीजालं-क्षुद्रघण्टासंघातः। जीवा० खिज्जणिया-खेदक्रिया । ज्ञाता० २०५ । २०५ । खिजिओ-खिन्नः-सृष्टः । आव० ६७३ । खिसं-परोक्षे हीलना खिसा । आव० ५२८ । खिण्ण-श्रान्तः । नि० चू० द्वि० ६६ अ । खिसण-खिसनं-निन्दावचनं, अशी लोऽसावित्यादिवचनम्।। खिति-क्षिति-क्षितिप्रतिष्ठितं, योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते नगप्रश्न० १६८ । सूयया असूयया वा असकृदुष्टाभिधानं रम् । अपरनाम चणकपुरं वृषभपुरं राजग्रहं च । आव० खिसनम् । दश० २५४ । जनसमक्षं निन्दा । भग ६७० । २२७ । खितिखाणतो-उड्डुमादी । नि० चू० द्वि० ४४ आ। खिसणा-खिसना-तान्येव लोकसमक्षम् । औप० १०३ । खितिपतिट्ठिय-जितशत्रुराजधानी। नि० चू० प्र० ३५१ परिभवः । ओघ० २१५ । पुणोरदुघणियस्स भवइ आ । थभा उ काहो उ वा हवेज्जा । दश० चू० १४० । खित्त-क्षेत्र-आकाशम् । अनु० १८१ । क्षिप्त-व्याप्तम् । लोकसमक्षमेव जात्याद्यघट्टनम् । अन्त०१८ । राय०२८ । क्षियन्ति-निवसन्ति तस्मिन्निति क्षेत्र-आकाखिसणिज्ज-खिसनीयो जनमध्ये । ज्ञाता०६६ ।। शम् । उत्त० ६४५ । क्षेत्र-शस्योत्पत्तिभूमिः । आव० खिसंति-परस्परस्याग्रतः तद्दोषकीर्तनेन । ज्ञाता० १४६ ।। ६२६ । क्षेत्र-यदाकाशखण्डं सूर्यःस्वतेजसा व्याप्नोति खिसांत-खरष्टयति । बृ० द्वि० ६८ आ । नन्दति ।। तत् । जं० प्र० ४५६ । इन्द्रकोलादिवजितं ग्रामनग ( ३३६ ) 2010_05 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खित्तचित] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ खौरिन्ज रादि । बृ० प्र० ३६ अ । क्षियन्ति-निवसन्त्यस्मि- जं०प्र० १६ । क्षीण:-स चावशेषसद्भावे । भग० ६७६ । निति क्षेत्र-ग्रामारामादि सेतुकेतूभयात्मकं वा । उत्त० खीर-क्षीरम् । प्रज्ञा० ३६१ । १८८ । खोर-क्षीरोद:-क्षीरवरद्वीपानन्तरं समुद्रः । प्रज्ञा० ३०७ । खित्तचित-क्षिप्तचित्तः-पुत्रशोकादिना नष्टचित्तः । ठाणा० खीरकाओली-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३०५ । शोकेन । ठाणा० ३१५ ।। खित्तचित्ता-क्षिप्तं-नष्टं रागभयापमानैश्चित्तं यस्याः सा खीरकाकोलि-वल्लीविशेषः । भग० ८०४ । क्षिप्तचित्ता । बृ० तृ० २३० आ । अपमानतया क्षिप्तं- खीरगहण-क्षीराम्यवहारम् । ओघ० ४७ । नष्टं चित्तं यस्याः सा क्षिप्तचित्ता । बृ० द्वि० २१० अ। खीरधरं-खीरसाला । नि० चू० प्र० २७२ आ। अपमानेनोन्मत्ता। बृ० द्वि० २१० अ । खीरणि-एकमस्थिकं फलविशेषः । भग० ८०३ । । खित्तवत्थुपमाणाइक्कमे-क्षेत्र-शस्योत्पत्तिभूमिः, वास्तु | खीरदुमा-वडउम्बरपिप्पला । नि० चू० प्र० ३६ अ । अगारं, क्षेत्रवास्तूनां प्रमाणातिक्रमः क्षेत्रवस्तुप्रमाणाति- क्षीरद्रुमाः, उदुम्बरादयः । ओघ० १२६ ।। क्रमः । आव० ८२५ । खीरद्दुमो-क्षीरद्रुमः, वटाश्वत्थादिः । पिण्ड ० ८ । खिद्यमानार्थतया प्रयोजनम् । आचा० १०६ । खीरधाती-धातीविसेसा । नि० चू० द्वि०६३ आ । खिन्नो-खिन्नः विषण्णः । प्रश्न० ६२ । | स्तन्यदायिनी । ज्ञाता० ४१ । खिम्तो -क्षिप्यन्-प्रतीक्षमाणः । दश० ५७ । | खीरपूरए-क्षीरपुर-क्वथ्यमानमतितापादूवं गच्छत् क्षीरम्। खिप्पामेव-शीघ्रमेव । ज्ञाता० ३२ । प्रज्ञा० ३६१ । खिलप्रदेशे । विशे० ४३७ । खोरपरेड-क्षीरपूर-क्वथ्यमानमतितापादूवं गच्छत्क्षीरम्। खिलभूमी-खिलभूमिः, हलैरकृष्टा भूमिः । प्रश्न० ३६ । । जं० प्र० ३५ । खिलोभूय-खिलीभूतं-अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण क्षप- खीरप्पभो-क्षीरप्रभः क्षीरखरद्वीपाधिपतिर्देवः । जीवा० यितुमशक्यं निकाचितमित्यर्थः । भग० २५१ । । ३५३ । खिल्लणयं- । निरय० ३४ । खीरभुस-वनस्पतिविशेषः । भग० ८०२ । तृणविशेषः । खिल्लरं-पल्वलम् । आव० ५६ । प्रज्ञा० ३३ । खिल्लरबंधे- । नि० चू० प्र० २२१ अ । गोण्यदे । | खीरमह-क्षीरमध्वाश्रयलब्धिः । विशे० ३८५ । नि० चू० तृ० १८ अ । खीरमेहे-क्षीरमेघा नामतो महामेघः । जं०प्र० १७४ । खिल्लिर-क्रीडितम् । आव० ५६६ । खीरवरो-क्षीरवर:-द्वीपविशेषः । जीवा० ३५२, ३५३ । । आचा० ३७८ । प्रज्ञा०३०७ । खिवेमाणे-क्षेपयन्-प्रेरयन् । ज्ञाता० ८५ । खीरवुट्ठी-क्षीरवृष्टिः । भग० १६६ । खीणकसातो-क्षीणकषायः । उत्त० २५७ । खीराइया-क्षीरकिताः-सजातक्षीरकाः । ज्ञाता० ११६ । खीणभोगी-भोगो जीवस्य यत्रास्ति तभोगी-शरीरं खीरामलएणं-अबद्धास्थिकं क्षीरमिव मधुरं यदामलक तत्क्षीणंतपोरोगादिभिर्यस्य सः क्षीणभोगी-क्षीणतनुर्दुर्बलः। तस्मादन्यत्र । उपा० ३ । भग० ३११ । खीरासव-क्षरन्ति ये ते क्षीराश्रवाः क्षीरवन्मधुरत्वेन खीणमोह-क्षीणमोहः क्षीणमोहनीयकर्म । ठाणा० १७८।। श्रोतणां कर्णमनःसुखकरं वचनमाश्रवन्ति । औप० २८ । क्षीणमोहः-श्रेणिपरिसमाप्तावन्तर्मुहूर्तं यावत्क्षीणवीत- | क्षीरमिव मधुरं वचनमाश्रवन्ति ये ते क्षीराश्रवाः, लब्धिरागः । भूतग्रामस्य द्वादशं गुणस्थानम् । आव० ६५० ।। विशेषवन्तः । प्रश्न० १०५ । खोणे-क्षी वाजानाकर्षणात्क्षयमुपगतः । भग० २७७ । खीरिज्ज-क्षीरिण्यः-गाव अत्र दुह्यन्ते । आचा० ३३५ । ( अल्प० ४३ ) ( ३३७ ) 2010_05 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोरिणि ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [खुड्डका खीरिणि-क्षीरणी-एकास्थिकवृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३१ ।। अ। कुब्जः-यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तखीरो-क्षीर: क्षीरवरद्वीपाधिपतिर्देवः । जीवा० ३५३।। प्रमाणलक्षणोपेतं उरउदरादि च मडभं तत् । प्रज्ञा० खीरोए-क्षीरमिवोदकं यस्य सः, क्षीरवनिर्मलस्वभावयोः ४१२ । कुब्जः-वक्र: । ओघ० ७४, ८२ । वक्रशरीरः । सूरयोः सम्बन्धि उदकं यत्रेति वा क्षीरोदः । जीवा० बृ० प्र० २४२ आ । सर्वगात्रमेगपार्श्वहीनं कुब्जम् । ३५३ । समुद्र विशेषः । जीवा० ३५३ । नि० चू० द्वि० ४३ आ० । अधस्तनकायमभं, इहाधखीरोद-क्षीरोदः, समुद्रविशेषः । ज्ञाता० १२८ । स्तनकायशब्देन पादपाणिशिरोग्रीवमुच्यते, तद् यत्र शरीरखीरोदए-क्षीरसमुद्रे क्षीरोदकम् । प्रज्ञा० २८ । क्षीरो- | लक्षणोक्तप्रमाणव्यभिचारि यत्पूनः शेषं तद्यथोक्तप्रमाणं दकं-क्षीरसमुद्रजलम् । जीवा० २५ । तत् कुब्जम् । ठाणा० ३५७ । कुब्ज-यत्र पाणिपादशिरोखीरोदा-क्षीरोदा, अन्तरनदी । जं० प्र० ३५७ ।। ग्रीवं समग्रलक्षणपरिपूर्ण शेषं तु हृदयोदरपृष्ठलक्षणं कोष्ठ खीरोयाओ-नदीविशेषः । ठाणा० ८० । लक्षणहीनं तत् । अनु० १०२ । अधस्तनकायमडभं खील । व्य० द्वि० ३५८ अ । संस्थानम् । आव० ३३७ । कुब्ज:-वक्रजङ्घः । प्रश्न कीलक: । आव० ५७८ । कील:-शकुः । प्रश्न०.८ । २५ । कुब्जं-ग्रीवादी हस्तपादयोश्चतुरश्र लक्षणयुक्तं खीलए-कीलका, लोहकीलकः । दश० ५६ । सक्षिप्तविकृतमध्यम् । भग० ६५० । खोलग-कीलकः । आव० ४२० । खुज्जतं-कुब्जत्वं-वामनलक्षणम् । आचा० १२० । खीलगसंठिते-कीलक संस्थितं सातीनखत्तस्स संठाणं ।। री-कूब्जबदरी । ओघ० १०० । सूर्य० १३० । खुज्जसंठाण-ग्रीवाहस्तपादाश्च समचतुरस्त्रा लक्षणयुक्ता खीलगो-कोलकः । ओघ० १७८ । यत्र संक्षिप्तं विकृतं च मध्ये कोष्ठं तत कूजसंस्थानम् । खीलच्छाया-छायाविशेषः । सूर्य० ६५ ।। सम० १५० । खीलया-कीलिकाः । आव० ३६० । खुज्जा -कुब्जा । आव० ६४ । नि० चू० प्र० २७७ खीलसंठितं-जं उविज्जं तं ण ठाति तं खीलसंठितं । अ । कुब्जा कुब्जिका:-वक्रजङ्घाः । जं० प्र० १६१ । नि० चू० प्र० १२५ आ। ज्ञाता० ४१ । खीलसंठियं- । नि० चू० तृ०५१ आ। खज्जियं-कूब्ज पृष्ठादावस्यास्तीति कुब्जी । आचा० खुंखुणगा-घुघुरका:-गुल्फाः । आव० २०६ । २३३ । खुदति-आस्कन्दति प्राप्नोतीत्यर्थः । व्य० द्वि० १८७ / खुटुं-त्रुटितम् । आव. १४६ । आ । क्षोदयन्ति-विनाशयन्ति । उत्त० ६२८ । खुटुंति-कुट्टयन्ति । उप० मा० गा० ४६६ । खंभणं-क्षोभणम् । प्रश्न० २४ । गान्धारस्वरस्य द्वितीया मूर्छना । जीवा० १६३ । खु-खुक्यिालङ्कारे अवधारणे वा । आचा० ८४ । खुटुं-रयणिपमाणातो जं आरतो तं । नि० चू० प्र० , अवधारणे । आव ० ५३२ । निश्चितं अवधारणे वा ।। २१६ आ । उत्त० ३६६ । निश्चये । जं० प्र० २०१। वाक्यालङ्कारे खुटुंत-कीडत । नि० चू० प्र० ११५ अ । प्रश्न० १२० । क्षुत्-अष्टप्रकारं कर्म । व्य० प्र०३६ आ। खुडु-क्षुल्ल:-लघुः । जीवा० २०० । क्षुद्रः बालः-शीलखुइ-क्षुतिः छीत्कारादिशब्दविशेषः । ज्ञाता० २२१ । हीनो वा पार्श्वस्थादि । उत्त० ४७ । बालो । नि० खुच्चक- । व्य० प्र० २१८ आ। चु० प्र० ६८ आ । क्षुल्लः । ओघ० १६० । खुज्ज-यत्र शिरोग्रीवं हस्तपादादिकं च यथोक्तप्रमाणलक्ष- | खुड्डइ-त्रोटयति । भग.० ६६८ । णोपेतं उरउदरादि च मण्डलं तत् कुब्जम्, पञ्चमं संस्था- | खुड्डए-क्षुल्लकः । आव० १६५ । । नम् । जीवा० ४२ । कुब्जकरणी। बृ० प्र० ३१४ । खुड्डका-भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६८ । ( ३३८ ) 2010_05 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ खुडखुड्डुगा ] खुडखुड्डुगा- क्षुल्लक्षुल्लका - अतिलघवः आयताच । जं० प्र० ४४ । खुड्डु (खंड) गं - मुद्रिका | आव० ४१८ । खुड्डुग-मुद्रिका | आव ० ६७१ । आव ० ४१७ । क्षुल्लक:- द्रव्यभावबालः । दश० १६५ । क्षुल्लक:, हास्ये दृष्टान्तः । आव ० ४०४ । क्षुल्लकः लघुः - बालकः । उत्त० १०२ । खुड्डग कुमारो - क्षुल्लककुमारः, योगसंग्रहे अलोभोदाहरणे कण्डरी युवराजपत्नी यशोभद्रायाः साध्व्यवस्थायां जातपुत्रः । आव० ७०१ । खुड्डुगगणी - क्षुल्लकगणी, क्षुल्लकाचार्य: । व्य० प्र० २३७ खुड्डिया - क्षुद्रिका : लघ्व्यः । आचा० ३७० । आ । खुड्डति त्रोटयति । भग० ६६७ । खुड्डपाणा-क्षुद्रा-अधमा अनन्तरभवे सिद्ध्यभावात् प्राणाउच्छ्वासादिमन्तः क्षुद्रप्राणाः । ठाणा० २७३ ॥ खुड्डय क्षुद्रका - वयसा श्रुतेन वाऽव्यक्ताः । सम० ३६ । जुडाग अङ्गुलीयकैः । भग० ४५६ | क्षुल्लकः । दश० ६१ । क्षुद्रकं - अङ्गुलीयकविशेषः । जं० प्र० १०५ । अङ्गुलीयकम् । ज्ञाता० २७ । खुड्डुलए - स्वल्प कुटीरकः । अध० ४६ | क्षुल्लकः । आव ३८८ । ओ० १६० । खुड्डा - क्षुद्राः - अखातसरस्यः । जं० प्र० ४० । लघवः । जीवा० १६७ । क्षुल्लं । लघु स्तोकं च । जीवा० ४४२ । क्षुद्रा:- अधमाः । क्रूरा: । ठाणा० ३६६ । खुड्डा-भव - खारादवि कालि काशतद्वयप्रमाणं समयोनम् । जीवा० ४३४ | खुड्डागंसव्वओभद्दं-तुद्रिका सर्वतोभद्र, क्षुद्रिका महत्व पेक्षया सर्वतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च भद्रा - समसङ्घयेति सर्वतो भद्रा तपोविशेषः । अन्त० २६ । खुड्डागं सोहनिक्की लियं - क्षुल्लकं सिंहनिष्क्रीडतं - वक्षमाणम हदपेक्षया क्षुल्लकं-ह्रस्वं सिंहस्य निष्क्रीडितं -विह्रीतं गमनमिति, तपोविशेषः । अन्त० २८ । खुड्डाग - क्षुल्लक:- लघुः । जीवा० १७७ । क्षुल्लक:- ह्रस्वः । प्रज्ञा० ५६६ । ज्ञाता० ११६ । खुड्डागनियंठ - क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीयम्, उत्तराध्ययनेषु षष्ठ 2010_05 मध्ययनम् । उत्त० २५५ । खुड्डागपयरेसु - क्षुल्लकप्रतरयोः सर्वलघुप्रदेश प्रतरयोः । भग० ६०७ । [ खुभिज्जा खुड्डागभवग्गहणं - क्षुल्लं लघु स्तोकं च क्षुल्लमेव क्षुल्लक एका संवेदन कालो भवस्तस्य ग्रहणं भवग्रहणं क्षुल्लकं च तद्भवग्रहणं च क्षुल्लकभवग्रहणम् । जीवा० ४४२ । खुड्डा सहनिक्कीलयं क्षुल्लकसिंहनिक्रीडितं वक्ष्यमाणमहासिंहनिक्रीडितापेक्षया क्षुल्लकं सिंहनिक्रीडितं सिंहगमनं तदिव यत्तपस्तत् । औप० ३० । ज्ञाता० १२२ । खुड्डियदुवारिया - क्षुद्रद्वाराः सङ्कटद्वाराः । आचा० ३२६ । खुड्डियाओ - क्षुल्लिकाः - लत्रवः । जीवा० १६७ । अखातसरस्यस्ता एवं लघ्व्यः - क्षुल्लिकाः । जं० प्र० ४१ । खुड्डीय - क्षुल्लको । नि० चू० प्र० १३२ आ । खुण्णं - विषण्णं । वृ० द्वि० २०५ आ । खुति - क्षुतं तस्यैव सम्बन्धीशब्दः तच्चिन्हं वा । ज्ञाता० ८५ । खुतग - मनाङ् मग्नः केवलं तत उत्तरीतुमशक्तः । औप० ८७ । खुतो - निमग्नः । प्रश्न० ६० । खुद्द - क्षुद्रकर्मकारित्वात् क्षुद्रः । ज्ञाता० २३८ । क्षुद्र:द्रोहकः अधमो वा । प्रश्न० ५ । खुद्द ए - क्षुद्रकं विनाशयितुं शक्यत इति क्षुद्रं तदेवानुकम्प्यतया क्षुद्रकं सोपक्रममम् । उत्त० ६२८ । खुद्दिमा - गान्धारग्रामस्य द्वितीया मूर्छा | ठाणा ३६३ । खुद्दिया-शुद्रिका, जलाशयविशेषः । प्रश्न० १६० । खुन्निय - भूपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि । भग० ४६८ । खुपते - कर्दम एव निमज्जति । ओघ २६ । खुम्पति - सचिखल्ले जले मज्जति । नि० चू० द्वि०७९ अ । खुपिज्ज - निमज्जनं । ओघ २६ । खुप्पिलं - निमज्जकं । तं० । खुभंति-क्षुभ्यन्ति राज्यविलोडनाय संचलन्ति । द्वि० ३३ आ । खुभाएज्ज - स्कम्नीयात् क्षुभ्येत् । भग० २६६ । खुभिज्जा -क्षोभं यायात् प्रकुप्येत् । ओघ० ४० । ( ३३६ ) व्य ० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुभियं] आचार्यश्रीआनन्द खुभियं-कलहः । बृ० द्वि० १६ आ । खेटन-कर्षणः । जं० प्र० २४३ । खुभियजल-क्षुभितजलः, क्षुभितं जलं यस्य सः । जीवा० खेटय-वाहय । नंदी० १५४ । ३२१ । वेलावशात् क्षुभितजलः । भग० २८२ ।। खेट्यन्ते-उत्त्रास्यन्ते । उत्त० ६०५ । खुम्मिया-भूमितपनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि । ज्ञाता० | खेडं-पशुप्रकारनिबद्धं खेटम् । राय० ११४ । जीवा०२७६ । ४८ । प्रकारोपेतं खेटम् । ठाणा० २६४ । धुलीमयप्राकारोखुर-चरणे येषामधोवर्त्य स्थिविशेषः । उत्त० ६६६ ।। पेतम् । अनु० १४२ । पाशुप्राकारबद्धम् । आचा० क्षुरम्-शस्त्रविशेषः । प्रश्न. १४ । आव० ३७० । खुर:- २८५ । प्रज्ञा० ४७ । जीवा० ४० । खेट्यन्ते-उत्त्रास्यन्तेशफः । जीवा० ३८ । प्रज्ञा० ४५ । खुरा:-पादतलरुपा ऽस्मिन्नेव स्थितैः शत्रव इति खेटं पांशुप्राकारपरिक्षिप्तम् । अवयवाः । जं० प्र० २३४ । शफः । उपा० ४४ । उत्त० ६०५ । खेटस्थानं उल्लुकानद्याश्चैकस्मिँस्तीरे क्षुर:-छुरः । ठाणा० २७३ । धूलिप्राकारावृतनगरविशेषरूपम् । विशे० ६७२। खेटानिखुरखुरओ-चर्ममयं भाजनं वाद्यम् । बृद्वि०२३६ अ। प्रांसुप्राकारनिबद्धानि क्वचिन्नद्यद्रिवेष्टितानि । जं० प्र० खुरदुगत्ता-चर्मकीटता । सूत्र० ३५७ । १२१ । खेटं-धूलिप्राकारम् । औप ७४ । भग० ३६ । खुरनिबद्धा-रासभबलिवदयः । पिण्ड० १०२ । विपा० ३६ । प्रश्न० ५२, ६६ । सूत्र० ३०६ । धूलीखुरपत्त-क्षुरपत्र-क्षुरप्रम् । जीवा० १०६ । विपा० ७१ । । प्राकारोपेतम् । प्रश्न० ६२ । खेडं नाम धूलीपागारपरिखुरपत्ते-क्षुरपत्रं-छुरः । ज्ञाता० २०४ । क्खित्तं । नि० चू० द्वि० ७० आ । धूलीपागारो जस्स खुरप्पं-क्षुरप्रं-प्रहरणविशेषः । प्रज्ञा०८० । जीवा० १०३। __तं । नि० चू० प्र० २२६ आ । खुरप्पसंठाणसंठितं-क्षुरप्रसंस्थानसंस्थितं, जिव्हेन्द्रियसं- खेडगं-खेटक-फलकम् । प्रश्न० ७० । स्थानम् । प्रज्ञा० २६३ । | खेडग-खेटकं-शस्त्रविशेषः । आव० ३६० । खरबंध । ज्ञाता० २३० । खेडठाणं-खेटस्थानं-उल्लूका नद्या. एकस्मिन् तीरे यत् । खुम्भंत-क्षुभ्यन्तं, अघोनिमज्जन्तम् । ठाणा० ३८५।। आव० ३१७ । खुरभं ई-क्षुरप्रादिभाजनम् । दश० १०५ । खेडत्थाम-खेटस्थाम-उल्लूकायां द्वितीये तीरे नगरविखुल-कर्कशक्षेत्रादयः । बृ० प्र० २४३ आ । शेषः । उत्त० १६५ । खुलए-पादधुंटक: जानुरित्यर्थः । बृ० तृ० १६२ आ। । खेडमारी-खेटमारी-मारीविशेषः । भग० १६७ । खलुगो-उवरिकडीओ आरद्धा । नि० चू० प्र० १८० अ । खेडय-खेटक वंशशलाकादिमयम् । जं० प्र० २०५ । खल्मइ-क्षुभ्यति-पृथिवीं प्रविशति क्षोभयति वा पृथिवीं। आवरणविशेषः । जीवा० १९३ । बिभेति वा । भग० १८३ । खेङरुवं-खेटरूपम् । भग० १६३ । खुल्लग-क्षुल्लक:-कपर्दकः । प्रश्न० ३७ । खेडाउ-क्रीडनकानि । बृ० प्र० ४७ आ । खल्ला-खुल्ला:-लघवः शङ्खाः सामुद्रशलाकाराः । प्रज्ञा० | खेडाति-धूलीप्राकारोपेतानि । ठाणा० ८६ ।। ४१ । जीवा० ३१ । | खेडाहारः-खेडग्रामस्य समासन्नो देश: परिभोग्यः खेडाखुवे-भुवो, ह्रस्यशिखः शाखी । ज्ञाता० ६५ । हारः । सूत्र० ३४३ । खुह-क्षुरादिदुःखहेतुत्वात् क्षुत् । दश० २६१ । खेडिय-खेटितम् । दश० १०५ । खुहत्ते-प्रसह्य । नि० चू० द्वि० १०६ अ । खेड-बूतविशेषः । जं० प्र० २६४ । खुहा-क्षुधा, भुत्परीषहः, प्रथमपरीषहः । आव० ६५६ । खेड्डा-क्रीडा । ग० । खेज्जणा-खेदना-खेदसंसूचिका । ज्ञाता० २३५ । खेड्डाउ-क्रीडा । आव० ३६० । खेटक:-आवरणः सन्नाहः । जं० प्र० २५९ । | खेत्त-क्षेत्रं-आकाशम् । अनु० १८१ । प्रज्ञा० ३२८ । ( ३४०) 2010_05 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेत्तच्छेए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [खेयण्ण क्षेत्र-धान्यवपनभूमिः । प्रश्न० ३६ । क्षिप्तचित्तता ।। रहितम् । जीवा० १६० । क्षेम, तदुपद्रवाद्यभावापादआव० ७३७ । क्षेत्र-धान्यजन्मभूमिः। जं० प्र० १४६ ।। नम् । जीवा० २५५ । क्षेमं देशसौस्थ्यम् । उत्त० १४५ । औप० ३६ । क्षेत्र-ग्रामादि कृषिभूमिर्वा । प्रश्न० १२०। परचक्राशुपद्रवाभावः । बृ० तृ० १५१ अ । लब्धस्य क्षियन्ति अवगाहन्ते निवसन्ति जीवादयोऽस्मिन्नितिक्षेत्र परिपालनं क्षेमः । ज्ञाता० १०३ । आकाशम् । विशे० ८६२ । क्षेत्र-भौतादि भावितम् । खेमकर:-क्षेमङ्कर:-पञ्चमः कुलकरः । जं० प्र० १३२ । दश० ११५ । आर्यम् । आव० ३४१ । क्षेत्र-भार्या ।। अष्टाशीत्या महाग्रहे नवषष्टितमः । ठाणा० ७६ । तृतीयः ठाणा०५१६ । यदाकाशखण्डमादित्यः स्वतेजसा व्याप्नोति कुलकरः । ठाणा० ५१८ । चतुर्थः कुलकरः । सम० तत् । भग० ३६३ । १५३ । क्षेमकर:-अष्टाशीत्यां महाग्रहे सप्तषष्ठितमः । जं० खेत्तच्छेए-क्षेत्रच्छेदः बुद्धया प्रतरकाण्डविभागः । जीवा० | प्र० ५३५ । ६३ 1 खेमंधर-क्षेमन्धरः षष्ठः कुलकरः । जं० प्र० १३२ । खेत्तते-क्षेत्र भार्या तस्या जातः क्षेत्रजः । ठाणा० ५१६ । चतुर्थकुलकरः । ठाणा० ५१८ । पञ्चमकुलकरः । सम० खेत्तपरमाण-क्षेत्रपरमाणु:-आकाशप्रदेशः । भग० ७८८ । १५३ । खेत्तपलिओवमे-क्षेत्रं-आकाशं तदुद्धारप्रधानं पल्योपमं | खेम-क्षेम-शिवम् । दश० २५५ । लब्धस्य च परिपालनं क्षेत्रपल्योपमम् । अनु० १८० । क्षेमम् । उत्त० २८३ । क्षेम-राजविड्वरशून्यम् । दश० खेत्तमूढो-जं खेत्तं ण याणाति जम्मि वा खेत्ते मुज्झत्ति २२२ । सुस्थम् । उत्त० ३१३ । व्याध्यभावेन क्षेमरातो वा परसंथारं अप्पणो मण्णति । नि० चू० द्वि० त्वम् । उत्त० ५१० । परचक्राद्युपद्रवरहितम् । उत्त. ४१ आ । ३५१ । क्षेमः-गुणोदाहरणे जितशत्रुराज्ञो मन्त्री । आव० खेत्तवत्थु-इह क्षेत्रमेव वस्तु क्षेत्रवस्तु, क्षेत्रं च वास्तु च | ८१६ । गृहं क्षेत्रवास्तु । उपा० ४ । खेम कुसल-क्षेमकुशल:-अनर्थानुद्भवानर्थप्रतिघातरूपः । खेत्तवासी-क्षेत्रवर्षी-पात्रे दानश्रुतादीनां निक्षेपकः। ठाणा० | ज्ञाता० ८६ । २७० । खेमते-क्षेमक:-अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य पञ्चममध्ययनम् । खेत्ताणि-क्षेत्राणि-क्षेत्रोपमानि पात्राणि । उत्त० ३६१। अन्त० १५ । क्षेमक:-गाथापतिविशेषः । अन्त० २३ । खेत्तातिवंत-क्षेत्रातिक्रान्त:-क्षेत्रं सूर्यसम्बन्धि तापक्षेत्र | खेमपया-क्षेमपदानि-रक्षणस्थानानि । आचा० ४३० । दिनमित्यर्थः, तदतिक्रान्तः तस्य आहारः। भग० २६२। -खेमपुरा, राजधानी । जं० प्र० ३४५ । खेत्ताविचीमरणं-क्षेत्रावीचिमरणं-अवीचिमरणस्य द्विती -महाविदेहे विजयराजधानी । ठाणा० ८० । यो भेदः । उत्त० २३१ । खेमल्लो-क्षेमिलो नाम शकुनज्ञाता । आव० १६७ । खेत्ते-क्षेत्रिके-क्षेत्रस्वामिनि, गणावदेच्छेदके आचार्य वा खेमा-क्षेमानाम्ना राजधानी । जं० प्र० ३४४ । व्य० द्वि २६ आ। क्षेमाणि-परकृतोपद्रवरहितानि । जं० प्र० ७६ । प्रज्ञा खेत्तोवक्कमे-क्षेत्रोपक्रम:-क्षेत्रस्य परिकर्म-विनाशकरणम् ।। ८६ । क्षेमा अशिवाभावात् । औप० २ । अनु० ४८ । खेमाओ-महाविदेहे विजयराजधानी । ठाणा० ८० । खेत्तोवसंपदा-उपसम्पदायाः भेदः । नि०चू०प्र० २४१। खेमियं-क्षेमम् । गणि० । खेत्तोवाय-क्षेत्रोपायस्तु लाङ्गलादिना क्षेत्रोपक्रमणे भवति | खेय-खेदः श्रमः संसारपर्यटनजनितः अभ्यासः । आचा उपायभेदः । दश० ४० । १३२ । संयमः, खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः संयमः । उत्त० खेदियं-खिन्न-खेदः क्लेशो वा । उत्त० ४५६ । ४१६ । खेद:-अग्निव्यापारः । आचा० ५३ ।। खेम-क्षेमं, विषयः । आव० ३४१ । क्षेमं परकृतोपद्रव वेयण्ण-अग्निव्यापार यो जानातीति खेदज्ञः । आचा० ( ३४१) 2010_05 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेटन्न ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ खोड्डाहारा ५३ । निपुणः । आचा० १५६,२७४ । जन्तुदुःखपरिच्छे- खेल्लामो-क्रीडामः । उत्त० २८६ । त्तारः । आचा० १७६ । क्षेत्रज्ञ:-निपुणः । आचा० ५३ । खेवणि-क्षेपिण्यः-हथनालिरिति लोकप्रसिद्धा । जं० प्र० खेदज्ञः । आव० ५५५ । २०६ । खेयन्न-खेदज्ञः-निपुणः । सूत्र० २५८ । खेद:-अभ्यास खेवा-आरुहंतस्स उवरुवरि हत्थालंबणे खेवा । नि० स्तेन जानातीति खेदज्ञः । आचा० १३२ । खेदज्ञः- चू० द्वि० ६४ अ । गीतार्थः । ओघ० २०२ । ज्ञानी। नि० चू० प्र० २०१ खेवियं-क्षिपितं-पापम् । उत्त० ४५६ । आ । सर्वज्ञः । सूत्र० ३७० । तीर्थकृत् । सूत्र० २६६ । खवा-क्षपः, परहस्ताद्रव्य खेवो-क्षेपः, परहस्ताद्रव्यस्य प्रेरणम् । अधर्मद्वारस्य विशक्षेत्रज्ञः-पंसक्तविरुद्धद्रव्यपरिहार्य कुलादि क्षेत्रस्वरूप परिच्छे तितमं नाम । प्रश्न० ४३ । दकः । आचा० १३२ । खोअ-इक्षुरसास्वादः समुद्रः । अनु० ६० । खेयाण-खेदयत्यनेन कति खेट-संयमस्तेनानतो खोअवर-इक्षुवरः, द्वीपविशेषः । अनु० ६० । युक्त: खेदानुगतः । उत्त० ४१६ । खोइय-क्षोभितः, विसंयोजितः । उत्त० १०० । खेल-श्लेष्मा । ओघ० १८६ । विशे० ३७६ । उत्त० खोओदए-क्षोदोदकम्, इक्षुरससमुद्रजलम् । जीवा० २५ । २६१ । ठाणा० ३४३ । आव० ४७, ४३२, ५६४, खोखरं-प्रतोदः कशा वा । आव० २६१ । ६१६, ७६५ । गोरसभाविता पोत्ता खेलो भन्नत्ति । खोखुब्भमाणो-क्षोक्षुभ्यमाणः, भृशं क्षुभ्यमाणः । औप० नि० चू० द्वि०१८ आ । निष्ठीवनः । ओघ १८६।। ४७ । महामत्स्यादिभिर्भृशं व्याकुलीक्रियमाणः । भग० ८७ । औप० २८ । प्रश्न० १०५ । सम० ११। खोटकक्षेपः-हडीबन्धनम् । प्रभ० १६४ । कफः । जं० प्र० १४८ । कण्ठमुखश्लेष्मा । भगः खोटका:-समयप्रसिद्धाः स्फोटनात्मका: । उत्त० ५४१ । १२२ । मखविनिर्गतः श्लेष्मा । उत्त० ५१७ । निष्पी- खोट्टिजिहि-क्षेप्स्यते । आव० ६५ । वनम् । ज्ञाता० १०३ । खोट्टेउ-खटत्कर्त म्, पिट्टितुम् । ओघ० १६४ । खेलइ-त्रीडति । उत्त० १४७ । खोड-कोणः । आव० ७४२ । जं रायकुलस्स हिरण्णादि खेलण-क्रीडा । निचू० द्वि ११६ आ । खेलति क्रीडति। दव्वं दायव्वं । नि० चू० तृ० ८६ आ । प्रदेशः । बृ० प्र० व्य० द्वि० ८ अ । २३५ आ । खोट:-राजकुले हिरण्यादि द्रव्यदातव्यम् । खेलणगं-क्रीडनकम् । आव० २६० । व्य० प्र० ४५ अ । खेलन्ति-क्रीडन्ति । आव० २०५ । खोडा-खोटकाः । ओघ० १०६ । स्थाणौ । नि० चू० खेलमल्लय-श्लेष्ममल्लकः । दश० ३७ । । तृ० ७२ आ । खोटका ते च त्रयस्त्रयः प्रमार्जनानां खेलमल्लो-श्लेष्ममल्लकम्, श्लेष्मशरावः । आव० ४३ त्रयेण त्रयेणान्तरिता:-कार्या इति । ठाणा० ३६१ । श्लेष्मकुण्डिका । आव ० ३२१ ।। खोडि-महाकाष्ठम् । प्रश्न० ५७ । खेलसिंघाण-श्लेष्मसिङ्घानम् । आव ० ८३२ । खोडियं-नाशितम् । आव० ६६४ । खेलासव-खेलनिष्ठीवनं तदाश्रवति-क्षरतीति खेलाश्रवः । खोडिया- ।नि० चू० द्वि० १०४ आ । ज्ञाता० १४७ । खोडी-पेटा । आव० २६८ । खेलूडे-अनन्तकायभेदः । भग० ३०० । खोडेयव्वा-निषेधयितव्या । भग० ५८३ । खेलेज-खेलयेत् । बृ० प्र० २३२ आ। खोडेहामि-स्खलयिष्यामि । आव० ३२२ । खेलेसु । प्रज्ञा० ५० । | खोड्डाहारा-क्षौद्राहारा:-मधुभोजिनः, क्षीणं वा-तुच्छा: खेलौषधिः-औषधिविशेषः । ठाणा० ३३२ । वशिष्टं तुच्छधान्यादिकं आहारो येषां ते । जं० प्र० खेल्लइ-क्रीडति । आव० ४०१ । १७१ । ( ३४२ ) 2010_05 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोतोदए] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ गंगदेवो खोतोदए-इक्षुसमुद्रे क्षोदोदकम् । प्रज्ञा० २८। खोरगं-द्रव्यभृतं भाजनम् । नि० चू० तृ० १३६ आ । खोद-क्षोदः-इक्षुरसः । जीवा० १९८ । जं० प्र० ४२। खोरयं-रूप्यमयमहाप्रमाणभाजनविशेषः । नंदी० १५६ । खोद्दाहार-मधुभोजिनः भूक्षोदेन वाऽऽहारो येषां ते-क्षोदा- खोरा-भुजपरिसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । हाराः । भग० ३०६ । खोरुसताए-विरुद्धराज्यत्वेन । नि० चू० द्वि० १० आ। खोभ-क्षोभः संभ्रमः । आव० ७८४ । । खोल-राजपुरुषविशेषः । आव० ८२१ । मद्यस्य किट्टखोभण-क्षोभ:-वेदोदयरूपः । पिण्ड० १६० । विशेषः । प्र० बृ० २६८ आ। मद्याध:कर्दमः । आचा० खोभिअ-क्षोभितः-स्वस्थानाच्चालित: । जं० प्र० ३७।। ३४८ । खोभिए-क्षोभ: आकस्मिकः संत्रासः । ओघ० १६।। खोलपक्कस-मद्यकीट्टः । नि० चू० ६६ आ । खोभितो-क्षोभितः । उत्त० १६८ । खोला-खोला:, हेरिकाः. गुप्तचराः । राज्ञा नियुक्ताः । खोभित्तए-क्षोभयितुं-एतान्येवं परिपालयाभ्युतोज्झामीति पिण्ड० ४६ । सीसखोला । बृ० द्वि० १०२ अ । गोरसक्षोभविषयान् कत्तु क्षोभयितु संशयोत्पादनतः । ज्ञाता० भावितानि पोतानि । बृ० द्वि० १०० आ । बृ० प्र० १३४ । १२६ अ । गोरसभाविता पेत्ता । नि० चू० वि० खोभियं-क्षोभितं-स्वस्थानाच्चालितः । जीवा० १९२।। १८ आ । खोभेति-क्षोभयति, ईषभूमिमूत्कीर्य तत्प्रवेशनेन । ज्ञाता खोल्लं-कोत्थरं । नि० चू० द्वि० १३३ अ । देशीशब्द६४ । त्त्वात् कोटरम् । बृ० प्र० १५२ आ। खोम-क्षौम-कासिकम् .। जीवा० २६६ । जीवा० खोसियं-खोसितं-जीर्णप्रायम् । पिण्ड० १०० । २३२ । देववस्त्रम् । आव० १८० । दुकूलं, कासिकं ख्यातं-स्वसंवेदनत: प्रसिद्धम् । उत्त० २५८ । वस्त्रम् । जं० प्र० ५५ । क्षौम, सामान्यतः कासिकं ख्यातसत्यवृत्तिः-प्रसिद्धसत्यवृत्तिः । नंदी० १५६ । अतसीमयम् । जं० प्र० १०७ । खोमजुअलं-क्षौमयुगलम् । आव० १२४ । कासिकवस्त्रम् । प्रश्न० १३४ । गंग-गङ्ग-यस्माद्वैक्रिया उत्पन्ना स आचार्यः । आव ० खोमजुगलं-क्षौमयुगलम् । आव० ५६२ । । ३१२ । द्वैक्रियनिन्हवगुरुर्धनगुप्तशिष्यः । आव० ३१७ । खोमजुयलं-कासिकवस्त्रयुगलम् । उपा० ५ । क्षोम- धनगुप्तस्य शिष्यः । द्वैक्रियविषयो निन्हवः,पञ्चमो निन्हवः । युगलम् । ज्ञाता० १२८ । ठाणा० ४१० । गाङ्ग:-पुरुषपुण्डरीकधर्माचार्यः । आव० खोमिते-काप्पासिकाम् । ठाणा० १३८ । १६३ टी। गङ्गाचार्यः । उत्त० १५३ । खोमिय-क्षौमिकं, सामान्यकाासिकम् । आचा० ३९४ । गंगदत्त-मुनिविशेषः। भग० ७०६ । निरय ० २२, ३६ । क्षौमिक-कार्पासिकं, वृक्षेभ्यो निर्गतं वा, अतसीमयं वा।। षष्ठबलदेववासुदेवयोः पूर्वभविको धर्माचार्यः । सम० प्रश्न० ७१ । दुकूल-कार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रम् ।। १५३ । हस्तिनापुरे गृहपतिः । भग० ७०७ । गङ्गासूर्य ० २६३ । कार्पासिकम् । आचा० ३६३ । . . दत्तः । कृष्णवासुदेवपूर्वभवः । सम० १५३ । आव० खोमियकप्पाय-क्षौमिककासिः । ठाणा० ३३६ । . १६३-टी० । मंकातीगाहावतीए जेट्टपुत्तो । अन्त० १८ । खोयरसघडए-इक्षुरसघट: । आव० १४५ । .वासुदेवपूर्व भवः । आव० ३५८ । रागान्निदानकृत् । खोयरसो-क्षोदरसः-इक्षुरसः । जीवा० २६५, ३५१ ।। भक्त । खोयवरो-क्षोदवरः, द्वीपविशेषः । जीवा० ३.५५ । गंगदता-गङ्गदत्ता । सागरदत्तसार्थवाहपत्नी । विपा० खोरए-खोरकं-तापसभाजनम् । दश ५६ । क्षौरकम् ।। ७४ । आव० ६२५ । | गंगदेवो-गङ्गदेव:-धतगमशिष्य आचार्यः । उत्त० १६५। (३४३ ) 2010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा ] गंगा - गङ्गा नदीविशेषः, यत्र नन्दो नाम नाविकः । आव ० ३८६, १४३ । नदीविशेषः । ज्ञाता० ६४ । ठाणा० ७५ । हिमवद्वर्षधर पर्वतस्य पञ्चमं कूटम् । ठाणा० ७१ । गङ्गा नदोविशेषः । जं० प्र० २६० । गङ्गा द्वैक्रियोत्पत्तिस्थानम् । विशे० ९३४ । आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः गंगा कुंड-यत्र हिमवतो गङ्गा निपतति तद्गङ्गाकुण्डम् । जं० प्र० ८७ । कुण्डविशेषः । नंदी० २२८ । गंगा कूलं - गङ्गाकुलं - गङ्गातटम् । उत्त ० १२६ । गंगादीव - गङ्गाद्वीप इति नाम्ना द्वीपः । जं० प्र० २९३ । गंगादेव कूडे - गङ्गादेवीकूटम् । जं० प्र० २९६ | गंगापवाह - गङ्गप्रपातद्रहः - हिमवद्वर्षधरपर्वतो परिवर्तिपंद्महृदस्य पूर्वतोरेण निर्गत्य क्रमेण यत्र प्रपतति सः । द्रहविशेषः । ठाणा० ७४ । गंगायडं - गङ्गातटम् । आ० ६८८ । गंगावत्तणकूडे - गङ्गावर्तननाम्नि कूटे | जं० प्र० २६० । गंगा वालुआ-गङ्गावालुका - गङ्गापुलिनगतधूली । अनु० १६२ । गंठिम - ग्रन्थिमं-ग्रन्थनेन निष्पन्न मालावत् । प्रश्न० १६० । ग्रन्थिमं- यत्सूत्रेण ग्रथितम् । जं० प्र० १०४ । यद् ग्रथयते सूत्रादिना ग्रन्थिमम् । ज्ञाता० ५६ । गठियसत्त-ग्रन्थिकसत्त्वः - अभिन्नग्रन्थिजीवः । विशे ० ५३७ । गंठियसत्ता-प्रन्थिगसत्त्वाः- ये ग्रन्थिप्रदेशं गत्वापि तद्भेदाविधानेन न कदाचिदुपरिष्टाद् गन्तारः ते चाभव्या एव । उत्त० ६४५ । गंठी - ग्रन्थि - पर्व, सामान्यतो भङ्गस्थानम् । बृ० प्र० १६१ आ । ग्रन्थिपिहितम् । बृ०प्र० ८३ आ । आव० ८४५ । गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । ग्रन्थिः पर्व, सामान्यतो भङ्गस्थानं वा । प्रज्ञा० ३६ । गंड- वराङ्गः । जीवा० २१३ । पिण्ड० १५४ । पुरस्सरः । प्रा० २५४ | जीवा० २८२ । काण्डं समूहः, गण्डो वा दण्डः । ज्ञाता० १२५ । गडु । उत्त० ३३८ । गण्ड: - कपोलः । भग० १७४ | गंडमाला । नि० चू० प्र० १८६ अ । व्रणविशेषः । सूत्र० ६८ । गण्डंअपद्रव्यम् । सूत्र० १४८ । वातपित्तश्लेष्मसन्निपातजं चतुर्द्धा गण्डं तदस्यास्तीति गण्डी - गण्डमालावान् । प्रश्न० १६१ । गोलम् । जं० प्र० ४२३ । व्याधिविशेषः । आव० ६२३ | गण्डम् । आव० ८२० । गण्डः - हस्तः । भग० ३१३ । स्तना । नि० चू० प्र० १५० अ । कपोलः । आचा० ३८ प्रज्ञा० ८८ । गण्ड : - कपोलैकदेश: । प्रज्ञा० १०१ । अमिलनचामरदण्डः । ४८० । गण्डः - गण्डीपदश्चतुष्पदविशेषः । जीवा ० ३८ । कपोलः । जीवा० १६२ | वारगः । जं० प्र० ५७ । स्तनः - कुचः । पिण्ड० १२२ । नि० चू० प्र० १२८ आ । गंडइया-गण्डिका - नदी विशेषः । आव० २१४ । गंडओ - मरूकः । आव० ३७२ | दंडपती । नि० चू० प्र० १५६ आ । गण्डकः - नापितः । उद्घोषणाकारकः । ( ३४४ ) भग० गंगेए- पार्श्वापत्यः । भग० ४३६ । गंगेय - भगवत्यां नवमशतके द्वात्रिंशत्तम उद्देशकः । भग० ४२५ । गङ्गापत्यः । ज्ञाता० २०८ । गंगेया- अणगारविशेषः । भग० ४५५ ६१७ । गंछिय - कारुजातिविशेषः । जं० प्र० १६४ । गंज- गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । भग० ८०३ । गञ्जः 2010_05 भोज्यविशेषः । प्रश्न० १५३ । गंजसाला - जत्थ धणं दलिजति सा गंजसाला । गंजाजवा जत्थ अच्छंति सा गंजसाला । नि०चु०प्र० २७२ आ । गंजा -जवा । नि० चू० प्र० २७२ आ । गंठ - ग्रन्थः - शब्दसंदर्भः । जीवा० २५५ । गंठि -ग्रन्थिः - कार्षापणादिपुट्टलिका । औप० २ । पर्वभङ्गस्थानं वा । आचा० ५६ | पर्वग्रन्थिः । जीवा० ३५५ । ग्रन्थि - घनो रागद्वेषपरिणामः । उत्त० ६४५ | ग्रन्थिःगठित सुदुभेओ कक्खडचणरूढगूढगंथि व्व । जीवस्स कम्मजणिओ घणरागद्दोसपरिणामो । विशे० ५३२ । गंठिगो - ग्रन्थिकः -प्रन्थिकसत्वः, ग्रन्थिभेदं कर्त्तुमसमर्थः । सूत्र० ३७३ । [ गंडओ गंठिछेयओ-ग्रन्थिच्छेदक: । आव० ७०४ । गंठिभेए-ग्रन्थि - द्रव्यसम्बन्धिनं भिन्दन्ति- घुघुरकद्विकर्तिकादिना विदारयन्तीति ग्रन्थिभेदाः । उत्त० ३१२ । गंठिभेओ-ग्रन्थिभेदः - चौरविशेषः । प्रश्न० ३८ । गठियणो- घुघुरादिना यो ग्रन्थी: छिन्दति सः ग्रन्थिभेदक: । विपा० ५६ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंडग] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ गंडूकः ओघ० २०२ । तस्या अनुयोगो गण्डिकानुयोगः । नंदी० २४२ । भरतगंडग-गंडक:-श्रवणे दृष्टान्तः । ग्रहणकाले प्राप्ते दृष्टान्तः। | नरपतिवंशजानां निर्वाणगमनानुत्तरविमानवक्तव्यता व्याआव० ७४५ । ख्यानग्रन्थः । ठाणा० ४६१ । गंडथणी-उण्णयथणी । नि० चू० द्वि० ६४ अ । गंडी-गण्डी-गण्डमालावान् । प्रश्न० १६१ । अहिकरणगडंभाग:-कपोलदेशः । जीवा० २७३ । विशेषः । नि० चू० प्र० २२ अ । वातपित्तश्लेष्मगंडमाणिया-गण्डयुक्ता माणिका । राज० १४१ । सन्निपातजं चतूर्ती गण्डं, तदस्यास्तीति गण्डी । आचा० गंडय-वनजीवाः । मर० । २३४ । गण्डमस्यास्तीति गण्डी गण्डमालादि। नि० चू० गंडरेहा-गण्डरेखा-कपोलपाली । ज०प्र० ११५ । प्रश्न द्वि० १४८ अ । गण्डमस्यास्तीति गण्डी गण्डमालावान् । ८४ । आचा० २३३ । गण्डमस्यास्तीति गण्डी। यदिवोच्छनगंडलीतोकाउं-खण्डीकृत्य | उत्त० २१६ । गुल्फपादः स गण्डी । आचा० ३८६ । सुवर्णकारादीगंडलेहा-गण्डलेखा-कपोलपाली । जीवा० २७६ । कपो- नामधिकरणी गण्डिका तद्वत्पदानि येषां ते तथा ते लपत्रवल्ली। औप० १३ । कपोलविरचितमृगमदादिरेखा। हस्त्यादयः । ठाणा० २७३ । नि० चू० प्र०१८१ अ। ज्ञाता० १३ । पञ्चपुस्तके प्रथमः । ठाणा० २३३ । पद्मकर्णिका । उत्त० गंडवच्छासु-गण्डं-गडु, इह चोपचितपिशितपिण्डरूपतया | ६६६ । तुल्यबाहल्यपृथक्त्वं पुस्तकम् । बृ० द्वि० २१६ गलत्पूतिरुधिरार्द्रतासम्भवाच्च तदुपमत्वाद्गण्डे कुचावुक्तौ । आ । गण्डीपुस्तकं । यद् बाहल्यपृथक्त्वैस्तुल्यं दीर्घम् । ते वक्षसि यासां तास्तथाभूतास्तासु । उत्त० २६७ । आव० ६५२ । । गच्छति-प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते गंडवाणिया-गण्डपाणिका-वंशमयभाजनविशेष एव यो | च कूर्दमानो विहायो गमनेनेति गण्डिः । दुष्टाश्वो दुष्ट गण्डेन-हस्तेन गृह्यते डल्लातो लघुतरः । भग० ३१३ ।। गोणो वा । उत्त० ४६ । गंडविव्वोयणे-सुपरिकर्मितगण्डोपधानम् । भग० ५४० । गंडोतेंदुगो-गण्डीतिन्दुकः-वाणारस्यां तिन्दुकयक्षायतने गंडशैल:-ग्रावाणः । नंदी० १५३ । यक्षः । उत्त० ३५६ । गंडसेल-गण्डशल:-उपलः । उत्त० ६८६ । गंडीपद-व्याधिविशेषः । आचा० ३९० । चतुष्पदभेदः । गंडा-गण्डीपदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । सम० १३५ । गंडाग-गण्डको-नापितः । आचा० ३२७ । गंडीपदा-गण्डीव-सुवर्णाकाराधिकरणीस्थानमिव पदं येषां गंडाति-रोगविशेषः । नि० चू० प्र० १८८ आ । ते गण्डीपदाः-हस्त्यादयः । प्रज्ञा० ४५ । गंडिआ-गण्डिका-सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिगरणी) | गंडीपया-गण्डीपदाः हस्त्यादिकाः । जीवा० ३८ । गण्डी. स्थापनी । दश० २१८ । पद्मकणिका तवृत्ततया पदानि येषां ते गण्डीपादाःगंडिक-गंडिकानुयोगः-यस्तु कुलकरादिवक्तव्यता गोचरः गजादयः । उत्त० ६६६ । स गण्डिकानुयोगः । ठाणा० २०० । गंडीपोत्थगो-दोहो बाहल्लपुहत्तेण तुल्लो चउरंसो गंडीगंडिया-गण्डिका-खण्डविशेषः । भग० ७०५ । एकवक्त- पोत्थगो । नि० चू० द्वि० ६० आ । व्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयः गण्डिकाः । सम० गंडीव-सुवर्णकाराधिकरणीस्थानामिव । प्रज्ञा० ४५ । १३२ । एकार्थाधिकारा ग्रन्थपद्धतिः । नंदी० २४२ । | गंडुवहाण-गण्डोपधानम् । अप्रतिलेखितदूष्यपञ्चके तृतीयो सुवण्णगारस्स भन्नइ, जत्थसुवण्णगं कुट्टेइ । द० चू० भेदः । आव० ६५२ । गण्डोपधानम् । ठाणा० २३४ । १११ । गंडुवहाणिगा-उवहाणगस्सोवरिगंडपदेसे जा दिज्जति गंडियाणुयोगे-इक्ष्वादीनां पूर्वापरपरिच्छिन्नो मध्यभागो सा गंडुवहाणिगा । नि० चू० द्वि० ६१ अ । गण्डिका गण्डिकेव गण्डिका-एकार्थाधिकारा ग्रन्थपद्धतिः, | गंडूकः-पुष्पलम्बूसकः । जीवा० २५३ । ( अल्प० ४४ ) ( ३४५ ) 2010_05 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंडूपदः ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गंधजुत्ती गंडूपदः-पृथिव्याश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ ।। गंथभेदगो- । नि० चू० द्वि० ३८ आ । गंडूयलगा-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । जीवा० गंथा-ग्रन्थात्-महतो द्रव्यव्ययात् । आचा० २७२ । गंथिअसत्ता-ग्रन्थिकसत्त्वा:-अभिन्नग्रन्थयः । उत्त०७१३ । गंडूलया-अलसाः । प्रश्न० २४ ।। गंथिभेयग-ग्रन्थिभेदकाः-न्यासकान्यथाकारिणः घुर्घरकागंडोवहाणं-गण्डोपधानं-गलमसूरिका । बृ० द्वि० २२० | दिना वा ये ग्रन्थीन् छिन्दन्ति । ज्ञाता० २३६ । ' गंथिम-ग्रन्थः-सन्दर्भः सूत्रेण ग्रन्थनं तेन निवृत्तं ग्रन्थिम गंडोवहाणियाओ-गण्डोपधानिकाः-गल्लमसूरिकाणि । जं० मालादि । ठाणा० २८६ । प्रन्थिम-ग्रन्थननिवृत्त सूत्रप्र० २८५ । ग्रथितमालादि । भग० ४७७ । कौशलातिशयाद् ग्रन्थिगंत-गत्वा । उत्त० ५६७ । भग० ६३ । समुदायनिष्पादितं रूपकम् । अनु० १३ । ग्रन्थनं-ग्रन्थगंतव्वं-गन्तव्यं युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः । ज्ञाता०६१ । | स्तेन निर्वृत्तं ग्रन्थिमम् । जीवा० २५३ । यत्सूत्रेणगंतुंपच्चागता-उपाश्रयान्निर्गतः सन्नेकस्यां गृहपङ्कतौ भिक्ष- | ग्रथितम् । जीवा० २६७ । ज्ञाता० १८० । माणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा प्रत्यागच्छन् पुनः द्वितीयायां गृह- गंथी-ग्रन्थि:-या दवरकस्यादौ बध्यते । जीवा० २३७ । पडतो यस्यां भिक्षते सा गत्वा प्रत्यागता, गत्वा प्रत्या- गंथेहि-ग्रन्थैः-अङ्गानङ्गप्रविष्टः । आचा० २६१ । गतं यस्यामिति च । ठाणा० ३६५ । नि० चू० त० गंधंग-गन्धाङ्गम् । उत्त० १४२ । १२ अ । गंध-गन्धः-विशोधिकोटिरूपः । सुत्र० १४५ । गन्धःगंतुकाम-योज्यमानम् । बृ० प्र० ७६ आ । कोष्ठपुटादिलक्षण: । आव० १२६ । गन्धः वासादिः । गंतुकामा-गन्तुकामः यः सदैव गन्तुमना व्यवतिष्ठते ।। जं० प्र० ४११ । गन्धः-गन्धाङ्गम् । जीवा० १३६ । आव० १०० । गन्धः-गन्धवासादिः । जीवा० २४४ । वासः । जीवा. गंत्रिका-युण्यविशेषः । आचा० ६० । २४५ । गन्धः-पटवासादिः । पिण्ड०६६ । आमोदः । गंत्रीढश्वनक-इड्डरम् । भग० ३१३ । उत्त० ३६६ । गन्ध्यते-आघ्रायत इति गन्धः। अनु० गंथ-ग्रन्थः ज्ञानादिः । ठाणा० ४६५ । परिग्रहम् । बृ० ११० । गन्धाः-वासाः । जं० प्र० १६१ । विशुद्धप्र० १३५ अ । ग्रथ्यते-बध्यते कषायवशगेनात्मनेति कोटि: । बृ० प्र० ५१ अ। नासिकेन्द्रियम् । गन्ध्यतेग्रन्थः । अथवा ग्रथ्नाति-बध्नात्यात्मानं कर्मणेति ग्रन्थः । आघ्रायते शुभोऽशुभो वा गन्धोऽनेनेति गन्धः । प्रज्ञा० उत्त० २६० । विप्रकीर्णार्थग्रन्थनाद् ग्रन्थः । अनु०३८ । ५६६ । गन्धः-कोष्ठपुटपाकः । भग० २०० । कोष्ठग्रन्थः-अष्टप्रकारकर्मबन्धः । आचा० ३८ । सूत्रकृताङ्गस्य | पुटादिः । दश० ६१ । प्रथमश्रुतस्कन्धे चतुर्दशमध्ययनम् । सम० ३१ । आव० गंधकासाइ-गन्धकाषायी । आव० १२३ । ६५१ । ग्रन्थः-शालकादिसम्बद्धस्तद्भार्या तत्पुत्रादिः । | गंधकासाइआ-गन्धकाषायिकी-सुरभिगन्धकषायद्रव्यपरिप्रश्न० १४० । ग्रन्थः-प्रथ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽर्थ कमिता लघुशाटिका । जं० प्र० २७५, ४२० । । आव० ८६ । ग्रन्थः-सूत्रकृताङ्गस्य चतुद- | गंधकासाइए-गन्धप्रधानया कषायरक्तया शाटिकयेत्यर्थः । शमध्ययनम् । उत्त० ६१४ । गृथ्यते-विरच्यत इति | भग० ४७७ । ग्रन्थः । विशेषा० ५६१ । द्रव्यभावभेदभिन्नः । इह तु | गंधकासाई-गन्धप्रधाना कषायेण रक्ता शाटिका गन्धग्रन्थं द्रव्यभावभेदभिन्नं यः परित्यजति शिष्य आचारा- | कषायी । उपा० ४ । दिकं वा ग्रन्थं योऽधीतेऽसो अभिधीयते । आदानपदाद | गंधगहणेन-प्रतिर्गह्यते । आचा० १३१ । गुणनिष्पन्नत्वाच्च ग्रन्थः । सूत्र० २४१ । ग्रन्थः श्रुतस्य | गंधचंगेरी-भाजनविशेषः । जीवा० २३४ । पर्यायः । विशे० ४२३ । | गंधजुत्ती-गन्धानां-गन्धद्रव्याणां श्रीखण्डादीनां ल्हसणा(३४६ ) 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधट्टए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ गंधव्वणगरं दीनां च युक्तयो गन्धयुक्तयः । उत्त० ३० । २३४ । गंधट्टए-गन्धाट्टक:-गन्धद्रव्यक्षोदः । ठाणा० ११७ । गन्ध- गंधर्वानीकं-सैन्यविशेषः । जीवा० २१७ । द्रव्याणामुपलकुष्ठादीनां 'अइओ' त्ति चूर्ण गोधूमचूर्णं वा गंधवट्टए-गन्धचूर्णम् । विपा० ८६ । गन्धयुक्तम् । उपा०.३ । । | गंधवट्टओ-गन्धवर्तकः । आव० १२३ । गंधणा-गन्धना-अमानी सर्पः । सर्पजातिविशेषः । दश० | गंधवट्टयं-गन्धवर्तक-गन्धद्रव्यचूर्णपिण्डम् । जं० प्र० ३७ । गन्धना-सर्पजातिविशेषः । उत्त० ४६५ ।। गंधद्धणि- गन्धध्राणिः- यावद्भिर्गन्धपुद्गलोणेन्द्रियस्य गंधवट्टि-गन्धवत्तिः-गन्धद्रव्याणां गन्धयुक्तिशास्त्रोपदेशेन तृप्तिरूपजायते तावती पुद्गलसंहतिरुपचाराद् गन्ध- निर्वतितगुटिका । सम० १३८ । ध्राणिः । जं० प्र० ३० । गन्धस्तेन या ध्राणि:-तृप्तिः | गंधवट्टिभूए-गन्धवत्तिभूतं-सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्र व्यगुगन्धध्राणि:-गन्धोत्कर्षः । ज्ञाता० २६ । सुरभिगन्धगुणः टिकाकल्पम् । औप० ५। तृप्तिहेतुः । ज्ञाता० १२६ । यावद्भिर्गन्धपुद्गलैर्गन्धविषये गंधवट्टिभूया-गन्धवतिभूतानि-सौरभ्यातिशयाद् गन्धद्रव्यगन्धघ्राणिरुपजायते तावती गन्धपुद्गलसंहतिरुपचारात् । गुटिकाकल्पानि । प्रज्ञा० ८७ । सौरभ्यातिशयाद् गन्धगन्धघ्राणिरित्युच्यते । राज० ७ । यावद्भिर्मन्धपुद्गलै- द्रव्यगुटिकाकल्पाः । जं० प्र० ५१ । गन्धविषये ध्राणिरुपजायते तावती गन्धपुद्गलसंहति- गंधवत्तिभूए-गन्धवत्तिभूतः-सौरभ्यवत्तिभूतः । जीवा० रुपचाराद् गन्धध्राणिः । जीवा० १८६ । गंधपलिआम-गंधाम-गंधपलिआम अवयं आदिसहातो गंधवासा-गन्धवर्षः-कोष्ठपुटपाकवर्षणम् । भग० २०० । मातुलुंगं वा पक्कं अण्णेसिं आमयाणं मज्झे छुब्भति गंधवुट्ठी-गन्धवृष्टिः-कोष्ठपुटपाकवृष्टिः । भग० १६६ । तस्स गंधेणं ते अण्णे आमया पच्चंति जं तत्थ ण | गंधव्वं-गन्धर्व नाट्यादि । जीवा० १९४ । गन्धर्व-नृत्यं पच्चंति तं गंधामं भण्णति नि० चू० द्वि० १२५ आ। गीतयुक्तम् । विपा० ४५ । गान्धर्व-गीतम् । आव० यदपक्कफलं तत् गंधपर्यायामं । बृ० प्र० १४३ आ। ५६५ । गान्धव्वं नगरविकुर्वणम् । आव० ७३५ । गंधपुडियाइ-गन्धपुटिकादि । आव० १६८ । गन्धर्व-मुरजादिध्वनिसनाथं गानम् । भग० ३२३ । गंधपुलागं-विकटपलांडुलसुणादिन्युत्कटगन्धि । बृ० तृ० | गन्धः कृतं गान्धर्व नाट्यादि । जं० प्र० ३९ । पद२११ अ । स्वरतालावधानात्मकम् । जं० प्र० ३६ । गन्धर्वःगंधप्पिओ-गन्धप्रियः घ्राणेन्द्रियदृष्टान्ते कुमारविशेषः । गन्धर्वजातीयो देवः । प्रज्ञा० ६६ । जीवा० १७२ । आव० ४०१ । नि० चू० प्र० ११७ अ । एकविंशतितमो मुहूर्तः । जं० प्र० ४६१ । सूर्य ० १४६ । गंधमादण-गन्धमादनः-गजदन्तकगिरिविशेषः । प्रश्न० गान्धर्वः-विवाहविशेषः । आव० १७४ ।। ११६ । पर्वतविशेषः । ठाणा० ६८, ३२६ । गंधव्वगणो-गन्धर्वगणः-गन्धर्वसमुदायः । प्रज्ञा० ६६ । गंधमायण-पर्वतविशेषः । प्रश्न० १६१ । ठाणा० ७१। गंधव्वघरगं-गन्धर्वगृहक-गीतनृत्याभ्यासयोग्यं गृहकम् । गन्धेन स्वयं माद्यतीव मदयति वा तन्निवासिदेवदेवीनां | जीवा० २०० । मनांसि इति गन्धमादनः । जं० प्र० ३१५ । गन्धमादन:- गंधव्वघरगा-गीतनृत्याभ्यासयोग्यानि गृहकाणि । जं० वक्षस्कारगिरि । जं० प्र० ३१२ । गन्धमादनः वक्ष- प्र० ४५ । स्कारपर्वतविशेषः । जीवा० २६३ । गंधव्वछाया-गन्धर्वछाया । प्रज्ञा० ३२७ । गंधमायणकूडे-गन्धमादनकूटम् । जं० प्र० ३१३ । गंधवणगरं-गन्धर्वनगरं-सुरसदनप्रासादोपशोभितनगरागंधमायणा-गजदन्तविशेषः । ठाणा० ८० । कारतया तथाविधनभःपरिणतपुद्गलराशिरूपम् । जीवा० गंधर्वकण्ठः-गन्धर्वकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः । जीवा० | २८३ । अनु० १२१ । ( ३४७ ) 2010_05 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधव्वणागदत्तो ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गंभीर गंधव्वणागदत्तो-गन्धर्वनागदत्त:-कषायप्रतिक्रमणोदाहरणे गान्धार:- द्रव्यव्युत्सर्गे देशविशेषः । आव० ७१६, ७२० । गान्धर्वप्रियः श्रेष्ठिपत्रः । आव० ५६५ । गन्धो विद्यते यत्र स एव गन्धारो, गन्धवाहविशेषः । गंधवनगर-गन्धर्वनगरं-आकाशे व्यन्तरकृतं नगराकार- ठाणा० ३६३ । गान्धारः गन्धो विद्यते यस्य स प्रतिबिम्बम् । भग० १६६ । गन्धारः, स एव गान्धारः-गन्धवाहविशेषः । अनु० गंधवनयर-गन्धर्वनगरं-यत् चक्रवादिनगरस्योत्पात- १२७ । वीतभयनगरे श्रावकः । उत्त० १६ । जनपदसूचनाय संध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं विशेषः । नि० चू० प्र० ३४८ आ । प्राकाराट्टलकादिसंस्थितं दृश्यते । व्य० द्वि० २४१ अ। गंधारओ-श्रावकविशेषः । आव २६८ । गंधव्वपन्नगो-गन्धर्वप्रज्ञकः । आव० १४४ । गंधारगाम-सप्तस्वरे तृतीयः स्वरः, संगीते ग्रामविशेषः । गंधव्वलिवी-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । ठाणा० ३६३ । गंधव्वसमय-गन्धर्वसमयः-नाट्यसमयः । जीवा० २६६। गंधारजणवए-गान्धारजनपद:-गन्धिलावत्यां जनपदविजं० प्र० १०१ । शेषः । आव० ११६ । गंधव्वा-नारुजातिविशेषः । जं० प्र० १९३ । वाणव्यन्तर- गंधारी-गान्धारी-बलकोट्टलघुभार्या । उत्त० ३५४ । भेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । अन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्य तृतीयमध्ययनम् । अन्त० । गंधविया-गान्धविका:-सङ्गीतकलानिपुणः । दश० ४४, | १५ । कृष्णवासुदेवस्य राज्ञी । अन्त० १८ । चत्वारि महाविद्यायां द्वितीया । आव० १४४ । गंधसमिद्धो-गन्धसमृद्धः-गन्धिलावत्यां वैताढ्यपर्वते गा- गंधावई-गन्धापाती; वृत्तवैताढ्यम् । जं० प्र० ३७६ । न्धारजनपदे नगरविशेषः । आव० ११६ । गन्धापाती वृत्तवैतादयः हरिवर्षस्य पर्वतः । जीवा०३२६ । गंधसमुग्गय-गन्धद्रव्यरतिविशिष्टः परिपूर्ण भृतः समु गंधिए-गंधिकाः-गन्धावासाः । भग० ४७७ । द्गकः गन्धसमुद्गकः । प्रज्ञा० ६०० । गंधिला-विजयविशेषः । ठाणा०८०।। गंधसमुद्धं-विद्यामन्त्रद्वारविवरणे धनदेवनगरम् । पिण्ड० गंधिलाइ-गन्धिलावत्याः-शीतोदोत्तरकूलवतिनोऽष्टमवि१४१ । जयः । जं० प्र० ३१४ ।। गंधसयं-गन्धशतं-गन्धाङ्गशतम् । जीवा० १३५ ।। गंधिलावई-गन्धिलावती विजयः । जं० प्र० ३५७ ।। गंधहत्थी-गन्धहस्ती-हस्तीविशेषः। भग०७ । अनु गंधिलावईकूडे-गन्धिलावतीकूटम् । जं० प्र० ३१३ । योगप्रकाण्डः । व्य० प्र० २५८ । गंधिलावती-धातकीखण्डे विजयविशेषः । ठाणा० ८० । गंधहस्ती-आचार्य विशेषः । आचा०१। गंधिलावतीविजए-गन्धिलावतीविजयः । आव० ११६ । गंधहारगान्धहारक:-चिलातदेशनिवासी ग्लेविला गंधिले-गन्धिलो विजयः । जं० प्र० ३५७ । प्रभ० १४ । गंधोदय-गन्धः-आमोदस्तत्प्रधानमुदकं-जलं गन्धोदकम् । गंधांगं-वालकप्रियङ्गुपन्नकदमनकत्वक्कन्दनोशीरदेवदा- । उत्त० ३६६ । गन्धोदक-कुडकुमादिमिश्रितम् । ज० दि । आचा० ६१ । जातिकुसुमादिद्रव्यः । आचा० प्र० ३६४ । • ४१८ । गंधोवरए-गन्धापवरक: । दश० ६१ । गंधा-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा०५५। गंधयुक्तीकृता गंधा। गंभीर-गम्भीर:-अन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य चतुर्थमध्ययनि० चू० प्र० १४४ आ । नम् । अन्त०१ । गम्भीर:-परैरलब्धमध्यो निरूपमगंधापाति-नवमकूटः । ठाणा० ७२ । ज्ञानवत्त्वेऽपि रहः कृतपरदुश्चरितानामपरिस्रावित्वात् हर्षगंधावाती-गन्धापाती। ठाणा० ७१ । शोकादिकारणसद्धावेऽपि तद्विकारादर्शनाद्वा । जं० प्र० गंधार-गान्धारं-जनपदविशेषः । उत्त० २९९, ३०४ ।। १४६ । अलब्धमध्यभागः । जीवा० १८८ । अलब्ध ( ३४८ ) 2010_05 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंभीरमालिणी ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ गई मध्यम् । ज्ञाता० २ । अतिमन्द्रः । जं० प्र० ५२६ । गतिनामकर्मोदयसम्पाद्यो जीवपर्यायः । प्रभ० ९८ । अलक्ष्यदन्यादिविकारः । प्रश्न० १३३ । साणुणादि । अनुकूलं गमनं गतिः । आव० २८१ । नि० चू० प्र० १०६ अ । अलक्ष्यमाणान्तर्वृत्तित्वम् । गइकाय-गतिकायः यो भवान्तरगती, स च तेजसकाप्रभ० ७४ । चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ ।। मणलक्षणः । दश० १३४ । गतिकायः-नारकतिर्यङ्जीवा० ३२। गाम्भीर्यः-अलब्धमध्यात्मको गुणः । उत्त० नरामरलक्षणां चतुर्विधां गतिमाश्रित्य कायः । सर्व३५३ । भग्नत्वादिदोषवजितं, शेषजनेन च प्रायेणालक्ष- | सत्त्वानामपान्तरालगतौ वा य: कायः । आव० ७६७ । गीयमध्यभागं स्थानं गम्भीरम् । व्य० प्र० ६२ अ । | गइचरमे-य: पृच्छासमये सामर्थ्यान्मनुष्यगतिरूपे पर्याये अलब्धमध्यः । उत्त० ५५४ । अलब्धस्ताघम् । जीवा०, वर्तमानोऽनन्तरं न किमपि गतिपर्यायमवाप्स्यति किन्तु १२३ । निपुणशिल्पिनिष्पादिततयाऽलब्धस्वरूपमध्यम् । मुक्त एव भविता स: गतिचरमः । प्रज्ञा० २४५ । जीवा० २६६ । मन्मथोद्दीपि । जीवा० २७६ । स्वर- गइतसत्त-नामकर्मोदयाभिनिवृत्तर भादगतित्रसत्वम्। विशेषः । नि० चू० प्र० २७८ अ । गम्भीरः-खेदसहः । आचा० ६७ । - आचा० ३ । अतीवोत्कट: । जीवा० १०७ । प्रज्ञा० गइप्पवाए-गतेः प्रपातः गतिप्रपातः । गतिशब्दप्रवृत्तिरुप८१ । गम्भीरं-अप्रकाशम् । दश० १७५, २०४ । निपततीत्यर्थः । प्रज्ञा० ३२८ । । अवनतम् । ज्ञाता० १५ । गम्भीरः-द्राक्षाचन्दनलताद्या- गइप्पवायं-गतिः प्रोद्यते-प्ररूप्यते यत्र तद्गतिप्रवाद च्छादितप्रदेशः । विशे० १२६३ ।। गतेर्वा प्रवृत्तेः क्रियायाः प्रपात:-प्रपतनसम्भवः प्रयोगागंभीरमालिणी-अन्तरनदी, गम्भीरं जलं मलते-धारय- दिष्वर्थेषु वर्तनं गतिप्रपातस्तत्प्रतिपादकमध्ययनं गतिप्रपातं तीति गम्भीरमालिनी । जं० प्र० ३५७ । तत् । भग० ३८० । गंभीरमालिणीओ-नदीविशेषः । ठाणा० ८० । गइरडया-गती रतिः-आसक्तिः प्रीतिर्येषान्ते गतिरगंभीरलोमहरिसो-गम्भीर:-अतीवोत्कटो रोमहर्षो-रोमो- तिकाः । सूर्य० २८१ । द्वर्षोभयवशाद् यस्मात् स: गम्भीररोमहर्षः । जीवा० गइरतिया-गती रति:-आसक्ति: प्रीतिर्येषान्ते गतिरति. १०७ । काः । जीवा० ३४६ । गंभीरविजय-गम्भीरविजयः-गम्भीरमप्रकाशं विजयः- गइरागइ-द्वयोर्द्वयोः पदयोविशेषणं विशेष्यतयाऽनुकूलं आश्रयः । दश० २०४ । गमनं गतिः, प्रत्यावृत्त्या प्रातिकूल्येनागमनमागतिः । गंभीरशब्द-गम्भीरशब्द मेघस्येव । सम० ६३ । गतिश्चागतिश्च गत्यागती । आव० २८१ ।। गंभीरसाणणाए-गम्भीरसानुनाद:-सामायिकदानस्य स्था. गइलक्खण-गमनं गतिः-देशान्तरप्राप्तिः. लक्ष्यतेऽनेनेति नम् । आव० ४७० । लक्षणं, गतिलक्षणमस्येति गतिलक्षणः । उत्त० ५५६ ।। गंभीरा-अत्थाघा । नि० चू० प्र० ३३६ अ । गइल्लऐणं-गतेन । बृ० प्र० २७ आ । गंमुणिग-फलविशेषः । नि० चू० द्वि० ११६ अ। गइसमावण्णे-गतिसमापन्नः-गतियुक्तः । सूर्य ० १६७ । गइंद-गजेन्द्रः । ज्ञाता० ६५ ।। गई-तत्र गम्यते-नरयिकादिगतिकर्मोदयवशादवाप्यते इति गइ-गति:-पदवी । आचा० २२४ । गत्यर्थानां ज्ञानार्थ- गति:-नैरयिकत्वादिपर्यायपरिणति: । प्रज्ञा० २८५ । तया हिताहितलक्षणा स्वरूपपरिच्छित्तिः । उत्त० ४७२।। गमनं गतिः-प्राप्तिरिति । प्रज्ञा० ३२८ । गम्यतेगमनं गति:-देशान्तरप्राप्तिः । उत्त० ५५६ । गति- तथाविधकर्मसचिवैः प्राप्यते इति गतिः-नारकत्वादिरवादीनां गमनपरिणामः । विशे० २६७ । गतिशब्देन- पर्यायपरिणतिः । प्रज्ञा० ४६६ । तथापरिणामवृत्तिः । मनुष्यगतेर्जीवापगमः । जं० प्र० १५४ । विहायोगति- दश० ७० । गति:-प्रवृत्तिः । विशे० २२०, २२२ । नामोदयसम्पाद्या गतिरूपा । भग० ६४३ । गति:- ठाणा० ४६४ । प्रज्ञापकस्थानापेक्षया मृत्वाऽन्यत्र गमनम्। ( ३४६ ) 2010_05 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ठाणा० १३३ । ३८६ । गए-गज:-अन्तकृद्दशानां तृतीयवर्गस्याष्टममध्ययनम् । गज्जला । नि० चू० प्र० २५५ अ । अन्त० ३ । गतः-व्यवस्थितः । जीवा० २४२ ।। गज्जहाणकूलवाए-गर्जभानुकुलवातः । आव० ३८७ । गओ-गतः-प्राप्तोऽन्तर्भूत इति यावत् । विशे० ३० । गज्जिते-गजितं-जीमूतध्वनिः । ठाणा० ४७६ । स्वस्थानं प्राप्तः । ज्ञाता० १६६ । गज्जियाति-गजितानि-स्तनितानि । भग ० १६५ । गगणतलं-गगनतलं-अम्बरतलम् । सूर्य ० २६४ ।। गज्जियकरणं-गजितकरणम् । आव० ७३५ । गगणवल्लभपामोक्खा-गगनवल्लभ प्रमुखाः । जं०प्र०७४ । गढिए-तद्गतस्नेहतन्तुभिः सन्दभितः । भग० २६२ । गगणवल्लभो-गगनवल्लभः । आव० १४४ । गडु-गण्डम् । उत्त० ३३८ ।। गग्गर-गग्गरक:-परिधान विशेषः । जं० प्र० ५२६ । । गडुलं-आविलं आकुलं वा । ठाणा० २७८ । सम. गग्गरगसिवणा- ।नि० चू०प्र० १२७ अ। गग्गा-गौतमगोत्रस्य भेदः । ठाणा० ३६० । गडु-गर्तः श्वभ्रम् । भग० ६८३ । गर्ता-नीचैरुत्खातितो गग्गे-गायः गर्गसगोत्रः । उत्त० ५५० । भूमिभागः । भग० १७४ । गच्चागइतिश्च गतिश्च गत्यागती । विशे० ८५५ । गड्डुरिका-ईतिः । राज० ६ । गच्छति-धावन्ति । उत्त० ५०४ ।। गड्डुरिया-गडरिका ईतिविशेषः । जं० प्र० २६ । गच्छ-गच्छ:-एकाचार्यपरिवारः । औप० ४५ । गड्डा-गर्ता । बृ० द्वि० ६ अ । ओघ ० २० । खड्डा । गच्छड-गच्छति-स्वीकरोति । विशे० १०६ । नि० चू० प्र०६८ अ गच्छति-आरभते । प्रज्ञा० ६०१ । प्रवर्तते । उत्त० | गड्डाइ-गर्ता-महती खड्डा । जं० प्र० १२४ । २४३ । गड्डाओ-गळ्यः । बृ० प्र० २८ अ । गच्छपागट्रित्तणं-गच्छप्रकर्षित्वम् । बृ० प्र० ११६ अ । | गड्डाहारा-क्षुद्राहारा । जं० प्र० १७१ । गच्छागच्छि-एकाचार्यपरिवारो गच्छः। गच्छेन गच्छेन- गड्डी-गन्त्री । ओघ० १४१ । आव० १०३ । भंडी । भूत्वा गच्छागच्छी । औप० ४५ । नि० चू० प्र० १८७ अ । दुचक्क । ओघ० १४० । गजचलनमलनं-अशुभकर्मफलविपाकविशेषः । सम० गढिए-प्रथित आहारविषयस्नेहतन्तुभिः सन्दर्भितः । भग १२६ । ६५० । लोभतन्तुभिः सन्दभितः । ज्ञाता० ८५ । गजदन्तः-वनस्पतिविशेषः । जीवा० १६१ । जं० प्र० गढिते-मूछितः । विपा० ३८ । गढिय गिद्धो-प्रथितगृद्धः-अत्यन्तगृद्धिमान् । प्रश्न० ३६ । गजसुकुमाल-सोमिलद्विजेन मारितो मुनिविशेषः । विशे० गण-मूलभेदो । नि० चू० प्र० १५२ आ । गण:-एक८४३ । अनु० १३७ । धरण्यां क्षिप्तो मुनिः । सं० । समाचारजनसमूहः । प्रश्न० ८६ । एकवाचनाचारक्रियागजसुकुमाल:-कृष्णभ्राता । व्य० प्र० १८८ आ। स्थानां समुदायः सूत्रं वा । आव० १३४ । गण:गजानीकं-सैन्यस्य भेदः । जीवा० २१७ । स्थविरसन्ततिसंस्थितिः। तत्त्वा०६-२४ । कुलसमुदायः । गज्ज-गद्य-महूरं हेउनिजुत्तं गहियमपायं विरामसंजुत्तं, बृ० प्र० २६१ अ। ठाणा० २६६ । स्कन्धस्य पर्यायः । अपरिमियं चऽवसाणे कव्वं गज्जति नायव्वं । दश०६७।। विशे० ४१६, ४२६ । परिवारः । जं० प्र० ३२३ । गद्यं-अच्छन्दो निबद्धम् । ठाणा० २८८ । एकवाचनाचारयतिसमुदायः । जं० प्र० १५३ । समुगज्जइ-गर्जति-साक्षेपं जल्पति । विशे० ६२७ । दाय:-निजज्ञाति: । जं० प्र० १६७ । गण:-समुदायः । गज्जफलाणि-वस्त्रविशेषः । आचा० ३६३ । आव० २४१॥ कोटिकादिः । दश० २४२ । शिष्य. गज्जभो-गर्जभ:-अपरोत्तरोस्यां वातविशेषः । आव० | वर्गम् । भम २३२ । ( ३५०) 2010_05 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणए ] गणए - गणक:- जोतिषिकः भाण्डागारिको वा । औप० १४ । गणओ-गणशो - बहुशोऽनेकशो वा । सूत्र० ३८६ । गणका - गणितज्ञा भाण्डागारिका इति । ज्योतिषका इत्यपरे । राज० १२१ । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ गणग- गणका :- गणितज्ञाः भाण्डागारिकाः । भग० ४६४ । गणका :- ज्योतिषिकाः भाण्डागारिका वा । भग० ३१८ । जं० प्र० १६० । गणचितगो-गणावच्छेदकादिः । बृ० द्वि० २४० आ । गण करे - गणस्य - साधुसमुदायस्यार्थान् - प्रयोजनानि तीति गणार्थंकर :- आहारदिभिरुपष्टम्भकः । २४१ । करो ठाणा ० आव ० गणगं - गणनं - एतावदधीतमेतावच्चाध्येतव्यमिति । ६८ । पाठे स्मृतौ वा गणनम् । आव० ६८ । गणणग्गं - गणनाग्रं - संख्या धर्म्मस्थानात् स्थानं, दशगुणमित्यर्थः । आचा० ३१८ । गणणायग - गणनायकाः - प्रकृतिमहत्तराः । राज० १४० । गणनायकाः- मल्लादिगणमुख्याः । जं० प्र० १६० । गणनायक : - प्रकृतिमहत्तरः । औप० १४ । गणणोवगं - गणनां कराङ्गुलिरेखास्पर्शनादिने कद्वित्रिसंख्यात्मिकामुपगच्छति - उपयाति गणनोपगम् । उत्त० ५४२ । गणति - गणयति - प्रेक्षते, आलोचयति वा । आव० ५३६ । गणथेरा-ये गणस्य लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्था कारिणस्तद्भङ्क्तु निग्राहकास्ते गणस्थविरा: । ठाणा ० 2010_05 ५१६ । गणधम्म - मल्लादिगणव्यवस्था जैनानां वा कुलसमुदायो गणः- कोटिकादिस्तद्धर्म्मः तत्सामावारी गणधर्मः । ठाणा० ५१६ । गणधर्म :- मल्लादिगणव्यवस्था । दश० २२ । गणधर - जिनशिष्यविशेषः, आर्यिका प्रतिजागरकः वा साधुविशेषः । ठाणा० १४३ | जिनशिष्यविशेषः आर्यिका - प्रतिजागरको वा साधुविशेषः समयप्रसिद्धः । ठाणा० २४४ । अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयतीति गणधरः । दश० १० । आव० ६१ । गणधरता - लब्धिविशेषः । ठाणा० ३३२ | [ गणापु गणधर देवकृतं - अङ्गप्रविष्टं मूलभूतमित्यर्थः । नंदी० २०३ । गणनागुणे - द्विकादि । आचा० ८६ । गणनायग- गणनायकाः - प्रकृतिमहत्तराः । भग० ३१८, ४६३ । गणमूढो-जे गणे ता ऊणं अहियं वा मन्नति सो । नि० ० द्वि० ४१ आ । गणराजा -सेनापतिः । आव० ५१६ । गणराया- गणराजाः - सामन्ताः । भग० ३१७ | आचा० ३७७ । समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजाः सामन्ता इत्यर्थः । भग०३१७ । विशालीनगर्यां शङ्खाभिधो गणराज: । आव ० २१४ । गणसंठिति - गणसंस्थितिः - स्वगच्छकृता मर्यादा | ठाणा० २४१ । गणसंमया - गणसंमताः महत्तरादयः । दश० १०३ । ग सोभकरे - गणस्यानवद्यसाधुसामाचारीप्रवर्त्तनेन वादि - धर्मथि नैमित्तिक विद्यासिद्धत्वादिना वा शोभाकरणशीलो गणशोभाकरः । ठाणा० २४१ । सोहकरे - गणस्य यथायोगं प्रायश्चित्तदानादिना शोधिशुद्धि करोतीति गणशोधिकरः । ठाणा० २४१ । हर - यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग्विहरति स गणधरः । आचा० ३५३ । गणं-गणसमूहं धारयति - आत्मन्यवस्थापयतीति गणधरः । उत्त० ५५० । निर्ग्रन्थीवर्त्तापकः । बृ० द्वि० २०३ आ । गणधरः-सूत्रकर्त्ता । आव० ३१४ | गणधर : - आचार्यः । प्रज्ञा० ३२७ । आव० ६१ । गणहरा - गणः - एकवाचनाचारयतिसमुदायस्तं धरन्तीति गणधराः, वाचनादिभिर्ज्ञानादिसम्पदां सम्पादकत्वेन गणाधारभूता इति भावः । जं० प्र० १५४ | गणधराःतन्नायका आचार्याः भगवतः सातिशयानन्तरशिष्याः । ठाणा० ४३० । गणा - एकक्रिया वाचनानां साधूनां समुदायाः । ठाणा ०४३०, ४५२ । निवूढपइन्ना जोगा । दश० चू० १५८ । समानवाचनाक्रियाः साधुसमुदायाः । सम० १४ । गणापु - रचाउ । नि० ० प्र० १६ अ । ( ३५१ ) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणाभियोगो] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गणिसंपइ गणाभिओगो-गणाभियोगः । आव० ८११ । पिटकम् । अनु० ३८ । परिच्छेदसमूहः । नंदी० १६३ । गणावच्छेहए-गणावच्छेदक:-गच्छकार्यचिन्तकः । आचागणीनां-अर्थपरिच्छेदानां पिटकमिव पिटकं स्थानं गणि३५३ । पिटकम् । औप० ३४ । पिटकमिव वालञ्जकवाणिजकगणावच्छेए-गणस्यावच्छेदो-देशोऽस्यास्तीति गणावच्छे- सर्वस्वाधारभाजनविशेष इव यत्तस्पिटकं, गणिन दकः । ठाणा० २४५ । प्रज्ञा० ३२७ । आचार्यस्य पिटक गणिपिटक-प्रकीर्णकश्रुतादेशश्रुतनिगणावच्छेदे-गणस्यावच्छेदो-विभागोऽशोऽस्यास्तीति, यो र्युक्त्यादियुक्तं जिनप्रवचनम् । औप० ३४ । गणिपिटकहि गणांश ग्रहीत्वा गच्छोपछम्भायैवोपधिमार्गणादिनि- आचार्य सर्वस्वम् । दश० १३ । मित्तं विहरति स गणावच्छेदकः । ठाणा० १४४। गणिम-गणणाए गणिज्जंति । नि० चू० प्र० ८६ आ। गणावच्छेतितो-उवज्झाओ । नि० चू० प्र० २१२ अ।। आव० १८६ । गणिमं-गण्यते संख्यायते वस्त्वनेनेति, गणाहिवई-आर्यिकाणां गणधरः । बृ० प्र० ३०६ अ । एकादि रूपकादि । अनु० १५१ । गणि-परिच्छेदः । नंदी० १६३ । गणाधिपतिः, आचार्यः । गणियं-गणितं सङ्ख्यानम् । आव० १२८ । ज्ञाता० ३८ । ठाणा० १७२ । अर्थपरिच्छेदः । औप० ३४ । गणि- जीवा० ३२५ । गणितविषये बीजगणितादौ परं पारम्पशब्दः परिच्छेदवचनः । सम० १०७ । प्रज्ञा० ३२७ ।। गतः । आचा० ४१६ । गणितं-पंख्यानं सङ्कलितादि उवज्झाओ । नि० चू० प्र० ३११ आ । अनेकभेदं-प्राटीप्रसिद्धम् । सम० ८४ । एकादि । गणिअ-गणितं-सङ्ख्यानं, सङ्कलिताद्यनेकभेदं पाटीप्रसि- ठाणा० १९८ । द्धम् । ज० प्र० १३७ । गणितं, अङ्कविद्या । जं० प्र० गणियधम्मो-गणितधर्मः यद् बहु स्तोकेन गुण्यते । प्रज्ञा० १३६ । . २७५ । गणिआयरिओ-गणित्वमाचार्यत्वं च यस्यास्त्यसौ। नि० गणियपयं-गणितपदमित्येवंप्रकारस्य गणितस्य सज्ञा । चू० प्र० ३०० अ । भग० ४२६ । गणियलिवी-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । गणिका-भावस्याप्रशस्ते दृष्टान्तः । ठाणा० १५५ । वाराङ्गना । आव० ५५ । गणियविसए-गणितविषयः-गणितगोचरः गणितप्रमेयः । गणितं-विष्कम्भपादाभ्यस्तः परिक्षेपः। तत्त्वा ३-११ । भग० २७६ । सम० १३० । गणियसुहुमया-परिकम्मेसु गणियसुहुमया । नि० चू० तृ. गणितपरिभाषया । भग० ७४५ । ६७ आ। गणितप्पहाणा-बावत्तरिकलासु प्रथमा कला ।ज्ञाता०३८ । गणियसुहमे-गणितसूक्ष्म-गणितं सङ्कलनादि तदेव सूक्ष्म गणितानुयोगः-अर्हद्वचनानुयोगे द्वितीयभेदः सूर्य प्रज्ञप्त्या- सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वात् । ठाणा० ४७८ । दिकः । आचा० १ । ठाणा० ४८१ । गणियाघरविहेडिओ-गणिकागृहविनिर्गतः । आव०५७७ ॥ गणित्तिय-माला । आव० ४३३ । गणियापाडग-गणिकापाटक-गणिकागृहविथिः । दश. गणिपिडग-गणिनः आचार्यस्य पिटकमिव पिटकं गणि- १०८ । पिटकम् । सम० ५ । परिच्छेदसमूहो गणिपिटकम्, | गणियायारा-गणिकाकारा:-समकायाः । ज्ञाता०६८ । गणानां गणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटकमिव गणिविज्जा-गणि-आचार्य तस्य विद्या-ज्ञानम, सबालपिटकं सर्वस्व भाजनं गणिपिटकम् । सम० १०७ । वृद्धो गच्छो-गणः सोऽस्यास्तीति गणिविद्या । नंदी. गणिनः-आचार्यास्तेषां पिटकमिव पिटकं-सर्वस्वाऽऽधारो | २०५ । गणिपिटकम् । उत्त० ५१३ । द्वादशाङ्गी । आव० ५७ । गणिसंपइ-गणिसम्पदः-आचाराद्यष्टभेदभिन्ना, अष्टौ सम्पगुणगणोऽस्यास्तीति आचार्यस्तस्य पिटकं-सर्वस्वं गणि-। दः । उत्त० ३८ । ( ३५२ ) 2010_05 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणी ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [गवं गणी-गच्छाधिपः । आचा० ३५३ । गणः-साधुसमुदायो स वा गतिपर्यायः । ठाणा० ६६ । यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासो गणी गणाचार्य:-गण- गतिपरियाते-गतिपर्यायः चलनं जीवत एव । ठाणा० नायकः । ठाणा०.१४० । उवज्झातो अन्नो व गच्छे १३३ । वुढो । नि० चू० द्वि० ६३ आ । गणोऽस्यास्तीति पतिप्पहाणं-प्रधानति मुक्तिमिति । उत्त० ४६६ । गणी गणाचार्यः । ठाणा० १४३, २४४ । गुणानां गणो- गतिरतिया-गती रतिर्येषां ते गतिरतिकाः समयक्षेत्र. ऽस्यास्तीति गणी-आचार्यः । सम० १०७ । आचार्यः । वत्तिनः । ठाणा० ५७ । अनु० ३८ । नंदी० १६३ । उपाध्यायः । बृ० तृ० गतिश्चक्रमणं-उपाश्रयान्तरे शरीरश्रमव्यपोहार्थमित६५ अ । ६० द्वि० ३ अ । गणी-गणाधिपतिः । स्ततः सञ्चरणम् । सम० १०७ । दश० २४२ । गणाचार्यः । उत्त० १७ । आचार्यः । गतिसमावन्नगा-गति-गमन समिति सन्ततमापनका: आव० ५२ । अर्थपरिच्छेद: । भग० ७११ । गणी- प्राप्ता: गतिसमापन्नकाः, अनुपरतगतय इत्यर्थः । ठाणा उपाध्यायः । व्य० प्र० १७१ आ । गणी-गच्छाधिपतिः ।। ५८ । व्य० प्र० १३७ अ । गणोऽस्यास्तीतिगणी-ाणावच्छे गती-गमनं, गम्यत इति वा गति:-क्षेत्रविशेषः । गम्यते दकः । व्य० द्वि० २३ अ । वृषभः । व्यद्वि० ३६७ वा अनया कर्मपुद्गलसंहत्येति गतिः-नामकर्मोतरप्रकृतिआ । गणी-उपाध्यायः । वृ०४० १७७ आ। . रूपा, तत्कृत्वा वा जीवावस्था । ठाणा० ३४४ । गणेड-गणयति दृष्ट्या परिभावयति । पिण्ड० ७८ ।। गत्त-गात्रं-अङ्गम् । प्रश्न० ६०। उरः । ज्ञाता०६६ । गणेत्तिया-गणेत्रिका-कलाचिकाऽऽभरणविशेषः । भग. श्वभ्रम् । भग० ३०७ । गात्रं-स्कन्धोरुपृष्ठादि । अनु० ११३ । रुद्राक्षकृतं कलाचिकाभरणम् । ज्ञाता० २२० । १७७ । देहः । भग० ७०५ । हस्ताभरणविशेषः । औप० ६५ । गत्तगाई-गात्राणि-ईषादीनि । राज० ६३ । गण्डक-लम्बूसकः । राज० १०४ । गत्तपरिपुंछणं-गात्रपरिपुञ्छनं-पुच्छम् । जं०प्र० ५२६ । गण्डकादि:-शरीरोद्भवो व्रणविशेषादिः । आव० ७६५ । गत्ता-गर्ता-महती खड्डा । २८२ । गण्डलेखा-कोलविरचितमृगमदादिरेखा । निरय० ४ । गत्ताइ-गात्राणि-ईषादीनि । जं० प्र० २८५ । गत-व्यवस्थितः । सूत्र० ३८६ । स्थितः । विशे० २०७ । गत्ति-कृत्ति:-चर्म । ओघ० ३४ । ज्ञानम् । आचा० १६७ । गदतियातो-गहितं । नि० चू० द्वि० १६ अ । गतप्रत्यागतलक्षणं- । आचा० ५३ । गद्दतीय-चन्द्राभविमानवासी पञ्चमो लोकान्तिकदेवः । गतवाही-शुक्रमहाग्रहस्य द्वितीया विधि । ठाणा०४६८। भग० २७१ । ठाणा० ४३२ । आव० १३५ । गता-गदा । जीवा० ११७ । गहभा-एकखुरचतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । गतिचंचल-चञ्चलस्य प्रथमो भेदः । बृ० प्र० १२४ अ । गहभालि-गर्दभालिः-स्कन्दकचरिते श्रावस्तीनगर्चा स्कन्दगतिचपल:-द्रुतचारी । उत्त० ३४६ । कपरिव्राजकस्य गुरुः । भग० ११२ । अनगार शेषः । गतिनामनिहत्ताउए-गतिर्न रकगत्यादिभेदाच्चतुर्की सैव । उत्त० ४३६, ४४२ । । नाम गतिनाम तेन सह निधत्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः । गद्दभिया-गर्दभिका-शालिरत्नम् । आव० ४३५ । प्रज्ञा० २१७ । गद्दभो-यवराजस्य पुत्रः । बृ० प्र० १६१ अ । गर्दभ:गतिपरिणाम-अजीवपरिणामे द्वितीयो भेदः । ठाणा | दृष्टान्तविशेषः । ओघ० ८४ । एकखुरचतुष्पदः । जीवा० ४७५ । गतिपरियाए-चलनं मृत्वा वा गत्यन्तरगमनलक्षणः, यश्च | गद्दा-गर्ता । ज्ञाता० ६७ । बैक्रियलब्धिमान् गर्भान्निर्गत्य प्रदेशतो बहिः सङ्क्रामयति गद्यं-अच्छन्दोबद्धं शस्त्रपरिज्ञाध्ययनवत्। जं० प्र० ३५६ । ( अल्प० ४५ ) ( ३५३ ) 2010_05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गब्भ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गमणागमण गन्म-गर्भ:-उदरसत्त्वः । ठाणा० ५२३ । गर्भः-हंस- ११६ । जासिंण तावं सीसयं । दश० चू० ११२ । 'निर्वतित: कोसिकाकारः । अनु० ३४ । गर्भः सजीव- गम्भिल्लगा- । ज्ञाता० २२८ । पुद्गलपिण्डकः । भग० २१८ । गर्भो-मध्यभागः । जं० | गब्भुद्देसो-गम्भोद्देशके-गब्भसूत्रोपलक्षितोद्देशके सप्तदशप्र० १८३ । । पदस्य षष्ठे सूत्रम् । भग० ७६१ । गभगडंडिया-रणपटुंगो। नि० चू० प्र० २४५ आ। गम्भो-गर्भ:- गर्भावास: । प्रज्ञा० ४४ । गब्भगिह-गर्भगृह-गेहाकारद्रुमगणविशेषः। जीवा० २६६ । गम-सदृशपाठः कृतः । ठाणा० १८३ । इहादिमध्यावउत्त० २१६ । सानेषु किञ्चिद्विशेषतो भूयोभूयस्तस्यैव सूत्रस्योच्चारणं गमः। गम्भघर-गर्भगृह-सर्वतो वतिगृहान्तरं, अभ्यन्तरगृहम् ।। नंदी० २०३ । अर्थगमाः-अर्थपरिच्छेदाः । नंदी० २११ । जं० प्र० १०६ । प्रकारः। विशे० ६३० । गम्यते अनेन वस्तुरूपमिति गम्भघरए-मोहनगृहस्य गर्भभूतानि वासभवनानीति । गमः-प्ररूपणा । उत्त० २४० । प्रकारः । बृ० प्र० ज्ञाता० १२६ । १५२ आ । चतुर्विशतिदण्डकादिः, कारणवशतो वा गब्भघरगा-गर्भगृहकाणि- गर्भरहाकाराणि । जीवा०२००। किञ्चिद्विसदृशः सूत्रमार्गः । आव० ५६६ । गमनम् । जं० प्र० ४५ । वृ० प्र० ७७ अ । गम:-व्याख्या । भग० २४३ । गब्मट्रमे वासे- । ज्ञाता०३८ । वाचनाविशेषः, पाठः । ज्ञाता० ३६ । जं० प्र० २६६ । गब्भमासो-गर्भमासः । कार्तिकादिवित् माघमासः । व्य० गमा:-तदक्षरोच्चारणप्रवणाभिन्नार्थाः । दश० ८८ । २४० अ । गमक:-भङ्गः। ओघ० ३५ । गमः-पाठः । जं० प्र० गम्भया-मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । ३२८ । सदृशपाठः । जं० प्र० २१६ । योगः । पिण्ड ० गभवतिय-गर्भ-गर्भाशये व्युत्शान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते १२४ । आगमो । नि० चू० प्र० २०२ अ । सदृशः गर्भेव्युत्क्रान्तिका न संमूच्छिनजा इत्यर्थः । सम० १३५ ।। पाठः । भग० ४५ । गम्यतेऽनेनेति गमः-पन्था । विशे० गब्भवक्कंतियमणुस्सा-गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः । प्रज्ञा० | ८६६ । गमग-गमक:-भङ्गः । ओप० ३५ । गम्भवक्कंतिया-गर्भे व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते,अथवा गमणं-अवधावनम् । बृ० द्वि० २१८ आ । गमनम्गर्भात्-गर्भावाशाद् व्युत्क्रान्ति:-निष्क्रमणं येषां ते गर्भ- आसेवनरूपतया प्रापणम् । आव० ८२३ । संहितादिव्युत्क्रान्तिकाः । जीवा० ३५ । प्रज्ञा० ४४ । क्रमेण व्याख्यातुः प्रवर्तनम् । उत्त० ११ । अन्यतोऽ. गब्भवसही-गर्भवसतिः । आव० ३२५ । न्यत्र गमनम् । दश० १५५ । अभिगमः, मैथुनासेवगन्भवासो-गर्भवास:-मध्यभागविस्तारः । प्रश्न० ६२ । ना वा । आव० ८२५ । मैथुनासेवनम् । उपा० ८ । गब्भसाडणा-गर्भशातना:-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतन- वेदनम् । ठाणा० ३४८ । वर्तनम् । आचा० २६२ हेतवः । विपा० ४२ । भिक्षादानार्थमभ्यन्तरप्रवेशः । ओघ ० १६६ । गब्भसारो-गर्भसारः । आव० ४१३ । गमणगुण-गमनं-गतिस्तद् गुणो-गतिपरिणामपरिणतान गब्भाकरा-गर्भकरा गर्भाधानविधायिनी विद्या। सत्र० जीवपुद्गलानां सहकारि कारणभावत: कार्य मत्स्यान ३१६ । जीवस्येव यस्यासौ गमन गुणो गमने वा गुण:-उपकारो गभिआ-गभिता-अनिर्गतशीर्षकाः । दश० २१६ । जीवादीनां यस्मादसौ गमनगुण इति । ठाणा० ३३३ गभिजा-गर्भ भवाः गर्भजा:-नौमध्ये उच्चावचकर्मका- गतिसामर्थ्यः । ज्ञाता० ३५ ।। रिणः । ज्ञाता० १३७ । गमणपयार-गमनप्रचार::-गतिक्रियावत्तिः। ज्ञाता०३५ गभिया-गर्भिता-जातगर्भा डोडकिता इत्यर्थः । ज्ञाता० गमणागमण-ईपिथिकी । ज्ञाता० २०० । ( ३५४ ) 2010_05 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमयति ]. अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०२ [गया गमयति-स्केटयति प्रापयति वा शिवम् । नंदी० २३ । गयग्गपदग्गो-गजाग्रपदक-यत्र इन्द्ररावणस्य पदानिगमा-गमा:-अर्थगमा गृह्यन्ते अर्थपरिच्छेदाः। सम० १०८। देवताप्रभावेणोत्थितानि । तेन प्रसिद्ध दशार्णकूटम् । वस्तुपरिच्छेदप्रकाराः नामादयः । उत्त० ३४२ । अर्थ- आव ० ६६६ : ....... परिच्छित्तिप्रकाराः । उत्त० ७१३ । भङ्गका गणितादि- गयग्गपय-गजाग्रपदो दशार्णकूटवर्ती। आचा०:४१८ । विशेषाश्च गमाः-सदृशपाठाः । विशे० २६८ । प्रकारा:- गयग्गपादगो-गजाग्रपादकः दशार्णकूटापरनामा । आव० द्विरुच्चारणीयाणि पदानि । बृ० द्वि० १५६ आ । भङ्ग- ३५६ । गणितादय:-सदृशपाठा वा । बृ० तृ० ११० आ । | गयग्गोपवतो-पर्वतविशेष: । नि० चू० प्र०-३४१ अ । गमागमसंववहारो-गमागमसंव्यवहारः । आव० ३६५। गयछाया-गजछाया । प्रज्ञा० ३२७ । गमि:-अयमनेकार्थत्वाद्धातूनामवस्थाने वर्त्तते । दश०७०। गयजोही । ज्ञाता० ३८ । गमिओ-ज्ञापित: । आव० ६२७ । गयणंफुसे-गगनस्पर्शा-अतिप्रबलतया न भोऽङ्गणव्यापिना । गमिर्क-गमा अस्य विद्यन्त इति । आव० २५ । दृष्टि. उत्त० ४६ । वादः । नंदी० २०३ । गयण्हाण-गजस्नानम् । दश० २२६ । गमित्तए-गन्तुम् । उत्त० ३४० ।। गयतालुए-गजतालुकम् । प्रज्ञा० ३६१ । । गमेइ-गमयति । आव० १७२ । . गयतेये-गततेजाः । भग० ६८४ । गमेय-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । गयत्थरणो- । नि० चू० द्वि० ६१ अ । गमो-पकारो। नि० चू. प्र० ११५ आ। गयदंतसंठिते-गजदन्तसंस्थितम् । सूर्य० १३० । गम्मधम्म-गम्यधर्म:-यथा दक्षिणापथे मातुलहिता गम्या गयनियत्त-अनुसंपन्ना एवात्मीयेन व्यक्त विहाडादिना समं उतरापथे पुनरगम्यैव । दश० २२ । गतास्तस्य च कालगततया प्रतिभग्नत्वादिना वा कारगम्मो-गम्यो गमनीयो वा अष्टादशानां कराणाम्, असते णेन प्रत्यागन्तव्यं नाभवततः प्रत्यागच्छन्तस्तं साधुसवा बुद्धयादीन् गुणान् ग्रामः । बृ० प्र० १८१ अ । संपद्यते । व्य० द्वि० ३७६ अ । गम्य:-परिभवस्थानम् । प्रश्न० १२० । | गयपुरं-गजपुरं-कुरुजनपदे आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० ५५ । गय-गत:-स्थितः। जीवा० १६४ । प्रज्ञा० ६१ । गतः । कुरुजनपदे नगरविशेषः । आव० १४५ । शान्तिकून्यू. ज्ञाता० ११८ । चीर्णम् । सूर्य० २२ । गजः । प्रश्न नाथजन्मभूमिः । आव० १६० । पांडवानां राजधानी। ७३ । प्रथमस्वप्ननाम । ज्ञाता० २० । गतः-आश्रितः। आव० ३६५ । यत्र धनश्रीजीवइभ्यधारकश स्य भग० १६१ । गदा-लकूटविशेपः । प्रश्न २१ । दुहिता सर्वाङ्गसुन्दरी च्युता । आव० ३६४ । गयउर-गजपुरं नगरविशेषः । उत्त० १०६, ३५४, ३५५॥ गयमच्छर-गतमत्सर:-परस्परासहनवजितो निर्मसको वा। गयकंठ-गजकण्ठः-हस्तिकण्ठप्रमाणो रत्नविशेषः । जीवा० - ज्ञाता० २३१ । २३४ । गयमागम-गतागमः । व्य० द्वि० १५८ अ । गयकण्णो-गजकर्णः अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४।। गयमारिणि-गुच्छविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । गयकन्नदीवे-अन्तरद्वीपविशेषः । ठाणा० २२६ । गयलक्खणं । ज्ञाता० । ३८ । गयकन्ना-गयकन्नान्तीपे मनुष्यविशेषः । ठाणा० २२६ । गयविक्कमसंठिते-गजविक्रमसंस्थितम् । सूर्य० १३० । गजकर्णनामा अन्तर्वीपः । प्रज्ञा० ५० । | गयसुकुमाल-गजसुकुमाल:-अनगारविशेषः । उत्त० गयकलमे-गजकलभ:-करिपोतः । प्रज्ञा० ३६० । । ५८२ । वसुदेवपुत्रः । आव० २७३ । प्रद्वषविषये गयग्गपदगं-गजाग्रपदक-योगसंग्रहेऽनिश्रितोपधानदृष्टान्ते | दृष्टान्तः । आव० ४०४ । पितृवने श्वशुरदग्धः । मर० । एडकाक्षनगरे पर्वतविशेषः । आव० ६६६ । | राया-गदा-प्रहरणविशेषः । औप०३ । गता-स्थिता । ( ३५५ ) 2010_05 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयागत ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [गरलासणं ज्ञाता० १७ । गर्हा-जुगुप्सा । दश० १४४ । गहणं गर्हा-दुश्चरितं गयागत-अव्यक्ता, अविहाडा, अदेशिका, अभाषिका प्रति कुत्सा । ठाणा० ४३ । गर्दा-गर्हणं, परसाक्षिकी वा अन्यं साधुमुपसंपद्यते, अस्माकममुकप्रदेशेन यथा वा कुत्सा, षड़भेदभिन्नं प्रतिक्रमणमेव, प्रतिक्रमणस्य सप्तमं यत्र तेषां गन्तव्यं तत्र ये विवक्षितसाधोरन्येऽव्यक्तवि. नाम । आव० ५५२ ।। हाडादयो गन्तुकामास्तान् ब्रुवते वयं युष्माभिः सह गरिहाहि-गर्हणं गुरुसमक्षं निन्दनमेव । ज्ञाता० २०६ । गमिष्यामस्तत्र यत्र गन्तुकामस्ततो यदि प्रत्यागच्छन्ति गरिहिअ-गहितं निन्द्यम् । आव० ४७८ । निन्दितः । तदैतत् गतागतम् । व्य० द्वि० ३७६ अ । । दश० १६७ । गया(ज्ज)लं-उद्वेल्यमानं परिधीयमानं वा गर्जयति । गरिहिइ-गर्हति लोकसमक्षं कुत्सति । भग० १६६ । जीवा० २६६ । गरु-अध:पतन हेतुरयोगोलकादिगतो गुरुः । अनु० ११० । गर-य आहारं स्तम्भयति कामणं वा गरः । ओघ० १६६। गन्धद्रव्यविशेषः । नि० चू० प्र० २७६ आ । गराद्यपरनाम । जं० प्र० ४६४ । गरः-विषम् । भग० गरुगी-जा इत्थी जस्स साहस्म माउलहियादिया भव्वा १८२ । सा गगी भण्णत । नि० चू प्र० ११० अ । गरण-करणः - विपरिणामहेतुः । नग ६५ । विषम् । गरुड । व्य० प्र० १६५ अ । उत्त० ४२६ । गरुडवूहो-गरुडव्यूहः कोणिकस्य युद्धे सैन्यरचना । आव ० गरलिगाबद्धं-णिविखतं । नि० चू० प्र० ८३ आ । ६८४ । गरुडाकारसैन्यविन्न्यासविशेषः । प्रश्न० ४७ । गरहं-गर्हा-निन्दा, जुगुप्सा । उत्त० ६४ । सैन्यस्य व्यूह विशेष: । भग० ३१७ । गरहइ-आत्मनैव गर्हते-निन्दति । भग० ५८ । गरुडवेग:-देवविशेषः । जं० प्र० ३५६ । गरहणय-गर्हणं-परसमक्षमात्मदोषोद्भावनम् । भग० | गरयं-गुरुकं-बादरम् । प्रश्न० ३६ । ७२७ । गरुयनिवतितं-गुरुकनिपतितं विद्युदादिगुरुकद्रव्यनिपातगरहणा-कुत्सनान्येव च गर्हणीयसमक्षाणि । औप० जनितध्वनिः । प्रश्न० ५१ । १०३ । गर्हणीयसमक्षं कुत्सा । अन्त० १८ । गरुल-गरुडः सुपर्णः । प्रश्न० ८ । गरुड:-सुपर्णकुमारगरहणाते-लोकसमक्षदायकादिनिन्दा गर्हता। प्रश्न०१०६ ।। जातीयः वेणु देवः । ठाणा० ६६ । गरुडा गरुडध्वजाः गरहणिज्जे-गहणीयः समक्षमेव । ज्ञाता० ६६ । सुपर्णकुमाराः । प्रश्न० ६६ । गरुडलांछनत्वात् गरुडः । गरहह-जनसमक्षं निन्दां कुरुत । भग० २१६ । सम० ६२ । गरुडा:-सुवर्णकुमारा: । राज० १२३ । गरहा-गुरुसाक्षिका आत्मनो निन्दा गर्दा । ठाणा०२१४ । गरुडः गरुडध्वजः । भग० १३५ । सुवर्णकुमाराः । गरहिए-गह याणि दास्यादि कुलानि । आचा० ३२७ । ज्ञाता० १०६ । गरुडध्वजा:-सुपर्णकुमारा इत्यर्थः । गरहिज्जा-गुरुसाक्षिका । ठाणा० १३७ । सम० १५५ । गरहित्तए-गर्हितुं गुरुसमक्षं तानेव जुगुप्सितम् । ठाणा० | गरुलदेवे-गरुडदेव:-गरुडो गरुडजातीयो वेणदेवनामा मतान्तरेण गरुडवेगनामा वा देवः । जं० प्र० ४, ३५५ । गरहित्ता-गहणं जनसमक्ष निन्दा विधाय । भग० २२७ । गरुलपविखयं-एकत उभयतो वा स्कन्धोपरि वस्त्राञ्चगराइ-गरादि गरं वा । जं० प्र० ४६३ । लानामारोपणरूपम् । बृ० त० २५४ अ । एकत उभगरिदैव-एकास्थिकभेदविशेषः । भग० ८०३ । यतो वा स्कन्धोपरि कल्पाञ्चलनामारोपणरूपम् । बृ० गरिहंति-गर्हन्ते-कुत्सन्ति । दश० १८८ । प्र. १२५ अ । गरिहा-आलोचना, विकटना, शुद्धिः, सद्भावदायणा | गरुलवूह-गरुडव्यूहम् । निरय० १८ । णिदणा गरहणा विउट्टणं सल्लुद्धरणं च । ओघ० २२५ । गरुलासणं-गरुडासनं-यस्यासनस्याधोभागे गरुडो व्य ( ३५६ ) CI 2010_05 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुलोववाए] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ गवलसामला वस्थितिः सः । जीवा० २०० । गली-गलिः - दुष्टाश्वः । उत्त० ६२ । गिलत्येव केवलं गरुलोववाए-गरुडोपपातः कालिकसूत्रविशेषः । नंदी न तु वहति-गच्छति वेति गलिः-दुष्टाश्वो दुष्टगोणो २०७ । वा । उत्त० ४६ । गजिकृत-गजिता । ठाणा० २७० । गलेरवं-यो गलेनात्यन्तं रटति । आव० ६६१ । । -दारुसंक्रमस्य भेदः । आचा० २०२ । गल्ल-कपोलः । उपा० २१ ।। गर्दभक-कुमुदम् । दश० १८५ । प्राणिविशेषः । आचा० गल्लोदए-गल्लोदकाः । दश० १०४ । ३७६ । गवं-मृगादिपशुः । सूत्र ७२ । गर्दभिल्लः-नृपतिविशेषः । ६० तृ० १५६ अ । गवए-गवाकृतिराटव्यो जीवविशेषः । बृ० द्वि० १०६ अ । गर्भोत्पादनं-गर्भपातनम् । व्य० प्र० १६३ आ । गवओ-गोणागिती गवओ। नि० चू० प्र० ४७ आ । गलतिया-गलन्तिका गर्गरी । आव०६६२ । । गवक्खए-गवाक्षः । आव० ६७६ । गल-गलं-बडिशम् । विपा०८० । प्रश्न० १३, ५७ ।। गवख्खजाल-गवाक्षजालं-गवाक्षाकृतिरत्नविशेषो दामबिडिषम् । ज्ञाता० २३४ । आचा० ३८ । उत्त० ममहः । जीवा, १८१. २०५, ३६१ । ज. . ४६० । विघ्नो नागे। विशे० २२ । गल: । ओघ० १८० । दंडगस्स अती लोहकंटगो कज्जति । नि० चू० गवक्खसंठिओ-गवाक्षसस्थितः-वातायनसस्थितः । मावा प्र० २१५ अ। २७६ । गलइ-अनन्तजीववनस्पतिभेदः । भग०८०४ । गवक्खो- गवाक्ष:-वातायन: । जीवा० २७६ । प्रश्न गलओ-गलः । आव० ४०५ । ग्रीवा । आव. २०३ ।। १३८ । नंदी० ७३ । गलओस-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । गवच्छ-आच्छादनम् । जं० प्र० ५८ । गलकः-स्वरभंगः । बृ० प्र० ६१ अ । गवच्छिता-गवच्छ-आच्छादनं गवच्छा सजाता एष्विति गलकवोला-गलकपोलौ । जीवा० २७५ । गवच्छिकाः (ताः) । राज० ७१ । गलकुक्कुटी-गल एव कुक्कुटी । पिण्ड १७३ । गवत्थिया-गवस्था-आच्छादनम् । जीवा० २१४ । गलगहिओ-गल गृहीतः । आव० ३४६ । गवय-वन गवः । जं० प्र० १२४ । आटव्यः पशुविशेषः । गलच्छल्लं-गलगृहणम् । प्रश्न ५६ । प्रश्न० ३८ । गवयः द्विखुरश्चतुष्पदः । जीवा. ३८ । गलणं । नि० चू० प्र० २३२ आ । गवाकृतिर्वत्लकण्ठः । प्रश्न० ७ । द्विखुरचतुष्पदविशेषः । गलत्थल्ला-हस्तेन गलग्रहणरूपा । ज्ञाता० १६८ । प्रज्ञा० ४५ । गलयंत्र-यन्त्रविशेषः । दश० २७० । गवलं-महिषीशृङ्गम् । आचा० २६ । उत्त० ६५२ । पललाय-गललातानि कण्ठे न्यस्तानि वरभूषणानि । जं. ज्ञाता० १०१ । महिषं शृङ्गम् । जीवा० १६४ । प्रज्ञा० प्र० २६५ । ६१ । माहिषं शृङ्ग उपरितनत्वग्भागापसारणे दृष्टव्यम् । गलवृन्द-शरिरान्तर्वर्धमानावयवविशेषः । प्रज्ञा० ४७३ । । प्रज्ञा० ३६० । शृङ्गम् । प्रश्न० २२ ।। गलि-अविनीतः । उत्त० ४८ । मरालः । आव० ७९५ । । गवलगुलिया-तस्यैव माहिषशृङ्गस्य निबिडतरसारनिगलिगर्दहा-गलिगर्दभा:-दुःशिष्याः । उत्त० ५५४ । तिना गुटिका गवलगुटिका । जं० प्र० ३२ । गवलगलिच्चा-गलसत्कानि आभरणानि । पिण्ड ० १२४ । । गुलिका-महिषशृङ्गगोलिका । ज्ञाता० २६ । गवलंगलियलंबणा-गलितलम्बना-आलम्बनाद् भ्रष्टा, लम्ब्यन्ते । महिष्यशृङ्ग गुलिका-नीली गवलस्य वा गुलिका गवलइति लम्बना:-नङ्गरास्ते गलिता यस्यां सा ज्ञाता० गुडिका । ज्ञाता० १०१ । १५८ । । गवलसामला-गवलं-महिषशृङ्ग तद्वत् श्यामलः श्यामा । ( ३५७ ) 2010_05 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवलेइ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः - प्रारम्भरसविशेषः । दश० ८८ । ज्ञाता० २३१ । गवलेइ-माहिषं शृङ्गं तदपि चापसारितोपरितनत्वग्भागं गहगज्जिय-ग्रहगर्जितं - ग्रहचारहेतुकं गर्जितम् । जीवा० २५२ । ग्रहञ्च लादो गर्जितं स्तनितं ग्रहगजितम् । भग० १६६ । ग्राह्यम् । जं० प्र० ३२ । गवाणी - सामान्येन गवादनी । आचा० ४११ । गवालीयं - गवालीक- गोविषयमनृतम् । आव ० ८२० । गवासं - गावश्वाश्वाश्च गवा, गावो वाहदोहोपलक्षिताः अश्वा:- तुरगाः । उत्त० २६५ । गवेल - गौः । अनु० १२६ । गवेलग- गवेलक:- उरभ्रः । औप० १२ । ज्ञाता २ । गवेलगा - गवेलकाः ऊरणकाः । अनु० १२६ । ठाणा ० ३६५ । गवेलकाः उरभ्राः । भग० १३५ । गावश्वएकाच ऊरणका गवेलका: । ठाणा० ३६५ । गवेषणा - व्यतिरेकधम्र्म्मालोचनम् । नंदी० १८७ । गवेसओ - गवेषकः शोधक: । आव० ४१८ | गवेषकः । आव० ३५४ । गवेसण - व्यतिरेकतो गवेषणम् । भग० ६६३ । गवेषणं - व्यतिरेकध में रन्वेषणम् । औ१० ६५ । व्यतिरेकधर्मालोचनम् । आव ० ६६ । अनुपलब्भ्यमानस्य पदार्थस्य सर्वतः परिभावनम् । पिण्ड० २९ । गवेष्यतेऽनेनेति गवेषणं तत ऊर्ध्वं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेक त्यागोऽन्वयधर्माध्यासालोचनम् । नंदी० १७६ । गवेषणं व्यतिरेकधर्मालोचनम् । भग० ४३३ । इह शरीरकण्डूयनादयः पुरुषधर्माः प्रायो न घटन्त इति व्यतिरेकधर्मालोचनरूपम् । ज्ञाता० १२ । गवसणा-व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा । आव० १८ । नंदी० १८७ । गवेषणं व्यतिरेकधर्मालोचनं गवेषणा । विशे० २१६ । गवेषणा - प्रार्थना । सूत्र० ७२ । अदि गवेषणा थुभिया चिघेहि गवेसणा । नि० चू० प्र० १६६ अ । गवेसति - गवेषयति । आव० २०० । गवेसमाणे - गवेषयन् व्यतिरेकधर्मपर्यालोचनत: बहुजन 2010_05 [ गहणगुण गहजुद्धं - ग्रहयुद्ध - यदेको ग्रहोऽन्यस्य ग्रहस्य मध्येन याति । जीवा० २८२ ।। गहण - गुविलं । दश० ० १२० । नंदी० ४२ । गहनंसङ्कुलम् । आव० ५६७ । वननिकुञ्जः । दश० २२६ बृ० द्वि० ६ अ अपूर्वस्य ग्रहणं ग्रहणम् । व्य० द्वि० ३७६ अ । गहनः - गुपिलः । उत्त० २६० । वृक्षवल्लीलतावितानवीरुत्समुदायः । भग० ६२ । सर्वांगीणं करा भ्यामादानम् । बृ० तृ० २३० अ । गहनं वृक्षगह्वरम् । विपा० ६२ । धवादिवृक्षैः कटिसंस्थानीयम् । सूत्र० ८६ । गह्वरम् । प्रश्न० ३६ । गहनमिव गहन दुर्लक्ष्यान्तस्तत्वत्वात् । प्रथम अधर्मद्वारस्य विंशतितमं नाम । प्रश्न० २७ । चसूरुवरागो गहणं भण्णति । नि० चू० तृ० ७० आ । गृह्यत इति ग्रहणम् । प्रज्ञा० २६२ । ग्रहणकम् । प्रश्न० ३० । सम्बन्धनम् । जीवा० ४४२ । सूत्रादेस्तत्प्रथमतया आदानम् । आव ० २६७ । भाषाद्रव्याणां काययोगेन यत् ग्रहणम् । दश० २०८ । सर्वाङ्गिकं तु ग्रहणम् । ठाणा० ३२७ । ग्रहणं ग्रहस्य वस्तुनः परिच्छेदः । अनु० २१६ | गृहस्थस्य गृह्यतेऽस्मिन्निति ग्रहणं यस्मात्प्रदेशाद्भण्डकं गृण्हाति तं प्रदेशम् | ओघ० १६६ । गृह्यतेऽस्मिन्निति ग्रहणं शरावसंपुटम् । ओघ० १३६ । निर्जल प्रदेशोऽरण्यक्षेत्रं वा । आचा० ३८२ । आक्षेपकम् । उत्त० ६३० । गृह्यत इति ग्रहणं ग्राह्यम् । आ० ६३० । स्वीकरणम् । उत्त० ७११ । ज्ञानम् । उत्त० ५०३ । ग्रहणं - परस्परेण सम्बन्धनम् । जीवेन वा औदारिकादिभिः प्रकारैर्ग्रहणम् । भग० १४८ । गहण कप्पा - सुतं अत्थं उभयं वा गेण्हंतेण भत्तिबहुमाणा अब्भुट्ठाणाइविणओ पर्युजियव्वो । नि० चू० तृ० १४६ स्य । ज्ञाता० ८१ । अ । भग० ५७२ । गव्व-गर्वः-अभियोगः । आव० ७७२ । गर्व - शौण्डीर्यम् । गहणगुण-ग्रहणं- औदारिकशरीरादितया ग्राह्यता इन्द्रियग्राह्यता वा वर्णादिमत्वात् परस्परसम्बन्धलक्षणं वा तद्गुणो धर्मो यस्य स तथा । ठाणा० ३३४ । ( ३५८ ) गह- ग्रहः - देवयोनिविशेषः । विशे० ६७१ । ग्रहः - उत्क्षेपः Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहणजाय ] - अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [गहियाउपहरणे गहणजाय-यानि पुनर्द्रव्याणि समणिविश्रेणिस्थानि | गहरा-लोमपक्षी विशेषः । प्रज्ञा० ४६ । भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कुलीविवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते गहरो-लोमपक्षीविशेषः । जीवा० ४ । तानि चातन्तप्रदेशिकानि, द्रव्यतः क्षेत्रतोऽसंङ्ख्येयप्रदे- गहसंघाडओ-ग्रहसङ्घाटक:- ग्रहयुग्मम् । जीवा० २८२ । शावगाढानि, कालत एकद्वित्र्यादियावदसङ्ख्येयसमय- गहसम-प्रथमतो वंशतन्त्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीतस्तत्सम स्थिति कानि, भावतो स्पर्शवन्ति, तानि चैवं भूतानि । गीयमानं ग्रहसमम् । अनु० १३२ । ठाणा० ३६४ । ग्रहणजातमित्युच्यन्ते । आचा० ३८५।। गीतस्य तृतीयो भेदः । नि० चू० तृ० १ अ । गहविदुग्ग-एगजातीयअणेगजाईयरुक्खाउलं गहण- गहसिंघाडग-ग्रहसिंघाटक-ग्रहाणां सिङ्घाटकफलाकारेणाविदुग्गं । नि० चू० द्वि० ७० आ। सूत्र० ३०७ । । वस्थानम् । भग० १६६ । गहनविदुर्ग:-पर्वतैकदेशावस्थितवृक्षवल्ल्यादिसमुदायः । गहसुसंपउत्त-यः प्रथमं वंशतन्त्र्यादिभिः स्वरी गृहीतभग० ६२ । स्तन्मार्गानुसारि ग्रहसुसंप्रयुक्तम् । जीवा० १६५ । गहणसिक्खा-द्वादशवर्षाणि यावत् सूत्रं त्वयाऽध्येतव्य प्रथमतो वंशतन्त्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीतस्तत्समेन मित्युपदेशो ग्रहणशिक्षा । विशे० ।। स्वरेण गीयमानं ग्रहसुसंप्रयुक्तम् । जं० प्र० ४० । गहणा-गहरा । आव २६ । दोषविशेषः । निक गहां-ग्रहा:-अङ्गारकादयो गृह्यन्ते । आव. ..। चू० प्र० २७२ आ । ग्रहा:-ज्योतिष्कभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । ग्रहाः सूयागहणाई-ग्रहणादयः-ग्रहणबन्धनताडनादय: दोषाः। पि दिकत्वन्ता नव, सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवत्तिनो१६२ । देवाः । भग० १६५ । गहणागरिस-एकस्मिन्नेव भवे ऐर्यापथिककर्मपुद्गलानां गहाय-गृहीत्वा-सम्प्रधार्य । उत्त० २०६ । ग्रहणरूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षः । भग० ३८६ । गहावसव-गहापसव्यं-ग्रहाणामपसव्यगमनं, प्रतीपगमगहणी-ग्रहणी । आव० ६४४ । गुदाशयः । औप० १६ । नम् । भग० १६६ । प्रश्न० ८२ । ग्रहणी-गुदाशयः । जं० प्र० ११७ । गहिति-गमिष्यन्ति-ग्रहीष्यन्ति वा स्वीकरिष्यन्ति । उत्त० गहदंडा-दण्डा इव दण्डा:-तिर्यगायताः श्रेणयः ग्रहाणां- १६४ ।। मङ्गलादीनां त्रिचतुरादिनां दण्डा ग्रहदण्डा: । भग०१६५ । हिअ-गृहीतः-अनिक्षिप्तः । ओघ० ५८ ।। गहदंडो-दण्डाकार व्यवस्थितो ग्रहो ग्रहदण्डः । जीवा० हिए-धनिकः । बृ० तृ० ४६ आ । २८२ । . | गहिओ-गृहीतः-अवधारितः । आव० ४१५ । गहन-महाटवी । वनम् । सूत्र० २४५ । गह्वरम् । गहियं-पडिबद्धं । दश० चू० १५१ । गृहीतम् । विशे० ओघ० १८१, १६० । ४०५ । प्रश्न० ३० । गहभिण्णं-ग्रहभिन्नं-ग्रहविदारितन् । विशे० १२६४ । गहियगहणं-गृहीतग्रहणं-गृहीतं ग्रहणं-ग्रहणक येन सः । मझेण जस्स गहो गतो तं गहभिण्णं । नि० चू० तृ० प्रश्न० ३० । ६६ अ। गहियट्ठा-परस्मात् । भग० ५४२ । अर्थावधारणात् । गहभिन्नं-यस्य मध्येन ग्रहोऽगमत् तत् ग्रहभिन्नम् । व्यं० - गृहीतार्थम् । भग० १३५ । प्र. ६२ अ । गहियवलंजो-सेज्जातरो खेत्तस्स अंतोबहिं वा गहियवगहमुसलं-ग्रहमुशलम् । जीवा० २८२ । गृहमुशल-ऊर्ध्वा- लजो। नि० चू० प्र० १५८ अ । यता श्रेणिः । भग० १६६ । | गहियाउपहरणे-गृहीतायुधप्रहरण:-गृहीतानि आयुधानि गहयुद्ध-ग्रहयुद्धं ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण सम श्रेणि- शस्त्राणि प्रहरणनाय-परेषां प्रहारकरणाय येन सः । तयाऽवस्थानम् । भग० १६६ । भग० ३१८ । ( ३५६) 2010_05 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहियो ] भाचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गामकंटए गहियो-विडम्बयितुं प्रारब्धः । ६० तृ. ४७ आ । गामंतिय-ग्रामस्यान्ते समीपे वसतीति ग्रामान्तिकः । गहिल्लगवेस-ग्रहगृहीतवेषः भूतविण्ट इव विचित्रवेसवान्। सूत्र० ३१५ । दश०१६ । . गाम-ग्रसति बुध्यादीन् गुणानिति गम्यो वाऽष्टादशानां करणामिति ग्रामः। आचा० २८५। ग्रामा:-सङ्काताः। गहो-ग्रहः । आव० ३६७ । राहुलक्षणः । ३६ । गां-वृषभम् । आचा० ३८४ । उत्त०६१३ । ग्रसन्ति बुद्धयादीन् गुणानिति ग्रामाः। आचा० गाइयव्यं-गातव्यम् । ओघ० १५७ । . २५४। इन्द्रियग्रामो रूढेः । जनपदाश्रयः । ठाणा० ५१६ । गाउअं-द्वे धनुःसहस्र गव्यूतम् । अनु० १५७ ।। समूहः । आव० ६५० । ग्रसति गुणान् गम्यो वाऽष्टागाउयं-क्रोशद्वयं गव्यूतिः । ओघ० २३ । गव्यूतं-द्विधनु: दशानां कराणामिति ग्रामः । उत्त० ६०५ । ग्राम:-ग्रामसहस्रप्रमाणम् । प्रज्ञा० ४८ । जीवा० ४० । धनुःसह शब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलक्षितः । आचा० २६१ । स्रद्वयप्रमाणम् कोशः । भग० २७५ । ग्रसते बुद्धयादीन् गुणानिति ग्रामः । अनु० १४२ । गागरं-स्त्रीपरिधानविशेषः । प्रश्न० ७० । असते बुद्धयादीन् गुणान् यदि वा गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामगागरा-मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । ष्टादशानां कराणामिति ग्रामः । राज० ११४ । असतिगागरि-गर्गरी । अनु० १५२ । बुद्धयादीन् गुणान् यदि वा गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां गागरी-बृहद्वर्तुलघटिका । तं० । कराणामिति ग्रामः । व्य० प्र० १६८ अ । करादियाण गागलि-शालमहाशालभागिनेयः । उत्त० ३२४, ३२१ । गम्मो गामो । नि० चू० द्वि० ७० आ । नि० चू० गाङ्गलि:-तापसविशेषः । दश० ५१ । प्र० २२६ अ । ग्रामः-जनपदप्रायजनाश्रितः । प्रश्न० ३६ । गागली-पृष्टि चम्पायां यशोमतीपुत्रः । आव० २८६ ।। दशकुलसाहसिको ग्रामः । ज्ञाता० ४४ । जनपदप्रायजगाढ-निबिडम् । नंदी० ४६ । अत्यर्थम् । ओघ० १२७, नाश्रितः स्थानविशेषः । भग० ३६ । इन्द्रियग्रामः । ३२४ । गाढं-वाढम् । भग० ३७ । उत्त० ११२ । इन्द्रियवर्गः। प्रश्न०६३ । जनपदाध्यागाढोकय-गाढीकृतम्-आत्मप्रदेशः सह गाढबद्धम् । भग० सितः । औप०७४ । असति बुद्धयादीन गुणान गम्यो वा २५१ । करादीनामिति ग्रामः । सन्निवेशविशेषः । आव० ५६३ । गाणंगणिए-गणादगणं षण्मासाभ्यन्तर एव सङ्क्राम- ग्रसति बुद्धयादीन् गुणानिति यदिवा गम्य:-शास्त्रप्रसिद्धातीति गाणणिकः । उत्त० ४३५ ।। नामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः । जीवा० ४०,२७६ । गाणंगणितो-णिक्कारणे गणातो अण्णं गणं संकमंतो सीमापर्यन्तः, प्रजासमध्यासितगृहाऽऽरामवापीदेवकुलादिगाणंगणिओ। नि० चू० तृ० ८० आ । रूपः, केवला प्रजा वा, प्रधानपुरुषो वा । विशे० ८९७ । गाणंगणिया-गाणंगणिकता-गणे गणे प्रविशतीत्येवं प्रवाद- ! ग्रसति बुद्धयादीन गुणानिति ग्रामः, यदि वा गम्यः शास्त्रलक्षणा । व्य० द्वि० ४६ अ । प्रसिद्धानामष्टादशकराणामिति ग्रामः। प्रज्ञा०४७ । ग्राम:गाणि-मानम् । आव० ६७४ । इन्द्रियम् । दश० २६७ । शालिग्रामादिः । दश०२८१ । गातभंग-गात्राभ्यङ्गः-तैलादिनाऽङ्गम्रक्षणम् । ठाणा० इन्द्रियसमूहः । भग० १०१ । समूहः । ज्ञाता० १ । २४७ । ग्रसति बुद्धचादीन गुणानिति ग्रामः । दश० १४७ । गातुच्छोलणाइं-गात्रोत्क्षालन-अङ्गधावनम् । ठाणा० गामउड-गाममहत्तरो। नि० चू० प्र० २०६ अ । २४७ । ग्राममहत्तरः । बृ० द्वि० २१२ आ । गात्राणि-ईषादीनि । जं० प्र० ५५ । गामउडपुत्तो-ग्रामकूटपुत्रः । आव० २०२ । गाधेन-उद्वेधेन । ठाणा० ४८० । गामकंटए-इन्द्रियं तद्दुःखहेतुः कण्टकः स ग्रामकण्टकः । गामंतरं-ग्रामादन्यो ग्रामः प्रामान्तरम् । आव० १४ । दश० २६७ । ग्राम:-इन्द्रियग्रामस्तस्य कण्टका इव ( ३६० ) 2010_05 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामधाए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [गारत्थियवयण कण्टकाः ग्रामकण्टका:-प्रतिकूलशब्दादयः । उत्त० ११२ । एक ग्रामालघुपश्चाद् भावाभ्यां ग्रामोऽणुग्रामः । ठाणा० ग्रामकण्टका:-नीचजनरूक्षालापाः । आचा० ३११ । ३१० । मासकप्पो जत्थ कतो ततो जं गम्मइ तं गामघाए । ज्ञाता० २३६ । गामाणुगामं । नि० चू० प्र० १६१ अ । ग्रामानुग्रामम् । गामघाय-ग्रामघातः । सूत्र० ३०६ । __ आव० १४२ । गामतेणो-गामतो हरंतो गामतेणो । नि० चू० द्वि० गामाणुगामो-मासकप्पविहारगामाओ गच्छतो अण्णो ३८ आ। अणुकूलो गामो गामाणुगामो । नि० चू० प्र० २१६ अ। गामथेरा-ये ग्रामनगरराष्ट्रेषु व्यवस्थाकारिणो बुद्धिमन्त गामायं-ग्रामाकं नाम सन्निवेशः । आव० २०८ । आदेयाः प्रभविष्णवस्ते तत्स्थविराः । ठाणा० ५१६ । गामायारा-ग्राम्याचाराः-विषयाः । आव० १३४ । गामधम्म-ग्रामधर्म:-विषयोपभोगगतो व्यापारः । आचा० गामिए-ग्राममहत्तरः । नि० चू० प्र० १४१ आ । ३३१ । ग्रामा-जनपदाश्रयास्तेषां तेषु वा धर्मः समा-गामिया-ग्रामिका:-ग्रामधर्माश्रिताः । आचा० ३०८ । चारो-व्यवस्थेति ग्रामधर्मः, अथवा ग्राम:-इन्द्रियग्रामो गामिलय-ग्रामेयकः । आव० ४३५, । रूढेस्तद्धर्मो-विषयाभिलाषः । ठाणा० ५१५ । ग्राम- गामील्लए-ग्रामेयकः । आव० ५५४ । धर्म:-प्रतिग्रामं भिन्नः । दश० २२। गामेयगा-ग्रामेयकाः । उत्त० २६३ । गामधम्मतित्ति-ग्रामधर्माः-शब्दादयः कामगुणास्तेषां गामेल्लग-ग्रामेयक:-ग्रामवास्तव्यः । दश० ५६ । आव० तप्तिः-गवेषणं पालनं वा ग्रामधर्मतप्तिः, अब्रह्मणोऽष्टा- १०३ । दशं नाम । प्रश्न० ६६ ।। गामेल्लगत्तणं-ग्रामेयकत्वम् । आव० ७२१ । गामधम्मा-ग्रामा:-इन्द्रियग्रामास्तेषां धर्मा:-स्वभवा यथा -ग्रामवासीजनः । ओघ० ४६ । स्वविषयेषु प्रवर्तनं ग्रामधम्माः । आचा० २१८ । ग्राम पारद्धो-ग्रामेयकप्रारब्धः । आव० ३५१ । धर्मा:-विषयाः । आचा० २७६ । गाय-गात्रं-ईषादि । जीवा० २३१ । कायः । दश० गापिंडोलगं-ग्रामपिण्डोलक:-भिक्षयोदरभरणार्थं ग्राम- ११७ । कायः-चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्न माश्रितः तुन्दपरिमृजो द्रमकः । आचा० ३१४ । । १४ । गामभोइओ-ग्रामभोजिकः । आव० ३५५ । गायकम्म-गात्रकर्म-हस्तादिगावचम्पनरूपमङ्गपरिकर्म । गाममहो-गामे महा गाममहो यात्री इत्यर्थः । नि० चू० | प्रश्न० १३७ । द्वि० ७० आ । | गायगंठिमेय-गात्रानु-मनुष्यशरीरावयवविशेषान् कट्यादेः गाममारी-ग्राममारी । भन० १९७ । सकाशाद् अन्थिकार्षापणादिपोट्टलिका भिदन्ति-आच्छिगामरटुमयहरो-ग्रामराष्ट्रमहत्तरः । आव० ७३८ । न्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदाः । ज्ञाता० २। गामरोग-ग्रामरोगः । भग० १९७ । गायदोहं-जत्थ गाआ डझंति तं गायदाहं भण्णति । गामवधोगामस्स वधो गामवधो ग्रामघातेत्यर्थः । नि० । नि० चू० प्र० १६२ आ। चू० द्वि० ७० आ । गायाई-गात्राणि भरतशरीरावयवाः । जं० प्र० २७५ । गामवाह-ग्रामवाहः । भग० १६६ । गारं-अगारं गेहम् । ठाणा० ३७१ । . गामा-ग्रामा:-वृत्त्यावृत्ताः कराणां गम्या वा। जं० प्र० गारत्थ-गृहस्थः-गृहधर्मवान् । दश० १० । १२१ । ग्रामादीनां च जीवाजीवता प्रतीतैव, तत्र | गारत्था-गिहत्था । नि० चू० प्र० ४६ आ। करादिगम्या ग्रामाः । ठाणा० ८६ । गारथिए-गृहस्था:-पिण्डोपजीविनो धिग्जातिप्रभृतयः । गामाणुगाम-एकस्माद् ग्रामादवधिभूतादुत्तरप्रामाणामन- आचा० ३२४ । तिक्रमो ग्रामानुप्रामं ग्रामपरम्परा । ठाणा० ३१ । गारत्थियवयण-अगारं-गेहं तवृत्तयो अगारस्थिता-गृहिणः ( अल्प० ४६ ) (३६१) 2010_05 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गारव ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गाहावइदीवे तेषां-यत्तदगारस्थितवचनम् । ठाणा० ३७० । | गाहगसुद्धं-ग्राहकशुद्धं-यत्र ग्रहीता चारित्रगुणयुक्तः । गारव-गौरवं-आदरः । प्रश्न. ३५ । गौरव-यद्गौरव- विपा० ६२ । निमित्तं वन्दते तत्, कृतिकर्मणि चतुर्दशो दोषः । आव० | गाहण-ग्राह्यते शिष्य एतदिति बाहुलकात् कर्मण्यनट ५४४ । गुरोर्भावः गौरवः । आव० ५७६ । गौरवः । ग्राहणं-आचारादिसूत्रं आसेवना। व्य० प्र० २२६ अ । गमनपर्यायः । ठाणा० ४५३ । लब्धिमाहात्म्यम् । बृ० गाहवतीओ-सुकच्छमहाकच्छविजयोविभागकारिणी नदी। द्वि० २६० । परिवारधिधर्मकथाद्यष्टप्रकारोऽभिमानः । ठाणा० ८० । व्य० प्र० २५७ । गौरवः गर्वः । ठाणा० ४६६ । गाहा-गाथा-प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थस्य गानाद् गाथा, गारवा-गौरवाणि-ऋद्धिरससातगौरवरूपाणि । प्रश्न गाथा वा तत्प्रतिष्ठाभूतत्वादिति मेरनामसूत्रे गाथा श्लोकश्च । सम० ३२ । गीयत इति गाथा, सा चेहागारबिए-गर्वेण लब्धिसम्पन्नोऽहमितिकृत्वा एकाकी र्थाद्धर्माभिधायिनी सत्र पद्धतिः । उत्त० ३५५ । गीयतेभवति । ओघ० १५० । शब्द्यते स्वपरसमयस्वरूपमस्यामिति गाथा सूत्रकृताङ्गस्य गारी-अगारी । ओघ० ९९ षोडशमध्ययनम् । उत्त० ६१४ । गाहा-घरं गिहं वा । गालणं-गालनं-छाणनम् । प्रश्न० २५ । घनमसृणवस्त्रा- व्य० द्वि० २८३ अ । गाहा गेहं तत्र ऋतौ-ऋतुबद्धे न्तेिन गालनम् । आचा० ४२ । काले वर्षाकाले वा पर्युषितः । व्य० द्वि० २८३ अ । गालणा-यरूपायर्गों द्रवीभूय क्षरति । विपा० ४२ । गाथा-सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कंधे षोडशमध्ययनम् । आव० गालियदहियस्स-गालितस्य दनः । आव० ६२४ । ६५१ । गृह्णन्ति ग्राहाः जलचरविशेषाः । उत्त० ६६६ । गालेमाणे-गालयन्-अतिवाहयन् । भग० ४६२ । गाथा-सूत्रकृताङ्गस्य षोडशमध्ययनम् । उत्त० ६१४ । गालो-वेगलो । नि० चू० द्वि० ६८ आ । संस्कृतेतरभाषानिबद्धा आर्या । जं० प्र० १३७ । प्रतिष्ठा गाव-बलीवर्दसुरभयः । प्रश्न० ३७ । निश्चितिश्च । आव० ८०४ । गीयत इति गाथा-छन्दोगाविकुविय-गोगवेषकः । भर० । विशेषरूपा । उत्त० ३३४ । गृहम् । बृ० द्वि० ८६ गाविमग्गो-गोमार्गः । आव० ४१६ । अ । ग्राहा:-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकायां तृतीयो गावी-गो-त्रिपृष्ठवासुदेवनिदानकारणम् । आव० १६३टी.। भेदः । प्रज्ञा० ४३ । विक्षिप्ताः सन्त एकत्रमीलिता गासं-प्रासं-कवलम् । उत्त० ११७ । . अर्था यस्यां सा गाथा, अथवा सामुद्रेण छन्दसा वा निबद्धा गासषणा । आचा० २८३ । वा गाथा । गीयते-पठ्यते मधुराक्षरप्रवृत्त्या गायन्ति गाह-गाथा । आव० ७६३ । ज्ञाता०३८ । महान् । वा तामिति गाथा । सूत्र. २६२ ।। निर्बन्धः । बृ० द्वि० २१ अ । ग्राहः-जलजन्तुविशेषः । गाहावइ-गृहपतिः-गृहस्वामी । ६० द्वि० ८६ अ । गृहप्रभ० ७ । ग्राहः-स्थूलदेहो जलजन्तुविशेषः । आव० पतिः-गृही । भग० २२८ । गृहपतिः-ऋद्धिमद्विशेषः । ८१६ । उपा० १ । गृहपतयः-कुटुम्बनायकाः । भग० ५०२ । गाहग-ग्राहक आचार्यः, ग्राहयतीति ग्राहकः, ग्राहको | गाहाबइकरंडग-गृहपतिकरण्डकः-श्रीमत्कौटुम्बिककरण्डनाम शिष्यः गृहातीति ग्राहकः । व्य० प्र० २५७ अ । कः । ठाणा० २७२ । ग्राहक-प्रतिपाद्यस्य विवक्षितार्थप्रतीतिजनकम् । प्रभ० | गाहावइकुंडे-गाहावत्या अन्तरनद्याः कुण्डं-प्रभवस्थानं १२० । ग्राहक:-शिक्षयिता गुरुः । उत्त० १४५ । गुरुः । पाहावतीकुण्डनाम कुण्डम् । जं० प्र० ३४५ । आव० ३४१ । गाहावइकुलं-गृहपतिकुलं-पाटकं रथ्यां ग्रामादिकं वा । गाहणगिरा-पाहयतीति वाहिका, ग्राहिका चासो गीश्च | आचा० ३३७ । गृहपतिकुलं-गृहिगुहम् । भग० ३७४ । ग्राहकगीः । आव० २३७ । | गाहावइदीवे-प्राहावतीद्वीपः । जं० प्र० ३४६ । (३६२) 2010_05 . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहावइरयण ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ गिम्ह गाहावइरयण-गृहपतिरत्नं-कौटुम्बिकरत्नम् । जं० प्र० | गिणिभमेत्तं-उदाहरणं । नि० चू० प्र० २६६ आ । २४३ । गिण्हमाणे-बाह्यादावङ्गे गृहन् । ठाणा० ३२७ । गृहन्गाहावई-गृहपतिः-माण्डलिको राजा । भग० ७०० ।। ग्रीवादाववलम्बयन् । ठाणा० ३५३ । गृहस्थः । पिण्ड० ४ । गृहपतिः । आचा० ३३५ । गिण्हित्तए-ग्रहीतुं-आदातुं विधातुमित्यर्थः । ज्ञाता० गृहस्य पतिः-गृहपतिः, सामान्यतः प्राकृतपुरुषः । सूत्र० ३६४ । ग्राहा:-तन्तुनामानो जलचरा महाकायाः सन्त्य- गिव्हियन्वे-गृह्यते-उपादीयते कार्याथिभिरिति ग्रहीतव्यः स्यामिति ग्राहावती महानदी । जं० प्र० ३४६ । कार्यसाधक इति । उत्त० ६८ । गाहावतिरयणे-गृहपतिः-कोष्ठागारनियुक्तः । ठाणा० | गिद्ध-गृध्रः-पक्षिविशेषः, गृद्धो वा मांसलुब्धः शृगालादि। . ३६८ । भग० १२० । गृद्धः-प्राप्ताहारे आसक्तोऽतृप्तत्वेन वा गाहाविया-कृष्टा । आव० ६८७ । तदाकाङ्क्षावान् । भग० ६५० । विशेषाकाङ्क्षावान् । गाहासोलसग-गाथाषोडशकादीनि स्थितिसूत्रेभ्य आरा- भग० २६२। आकाङ्क्षावान् । ज्ञाता० ८५ । मूर्छितः । त्सप्त सूत्राणि, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धे षोडशा- विपा० ३८ । मूच्छितः, कांक्षावान् । आव० ५८७ । ध्ययनानि तेषां च गाथाभिधानं षोडशमिति गाथाभि- गृद्धं-प्राप्तातृप्तिः । ठाणा० १४५ । धानमध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि । सम० गिद्धपट-गृध्रः स्पृष्टं-स्पर्शनं यस्मिस्तद् गृध्रस्पृष्टं, यदिवा ३२ । गाथाषोडशक:-गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यस्मिन् । गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि च तद्भक्ष्यकरिश्रुतस्कन्धे सः, सूत्रकृताङ्गस्याद्यः श्रुतस्कन्धः । सूत्र०८। करभादिशरीरानुप्रवेशेन महासत्त्वस्य मुमूर्षोर्यस्मिस्तत् गाहासोलसमे-प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थस्य गानागाथा, | गृध्रप्रष्ठम् । ठाणा० ६३ । सूत्रकृताङ्गस्य षोडशमध्ययननाम । सम० ३१ । गिद्धपट्टठाण-गृध्रपृष्ठस्थानानि-यत्र मुमूर्षवो गृध्रादिभक्षगाहिति-प्रज्ञापयन्ति । बृ० द्वि० १६४ आ। णार्थ-रुधिरादिदिग्धदेहा निपत्यासते । आत्रा० ४११ । जंति-ग्राह्यन्ते । आव० १०१ । गिद्धपिट्ठ-गार्द्धपृष्ठं-अपरमांसादिहृदयन्यासाद् गृद्धादिनागाहिति-ग्राहयति । आव० ३४३ ।। ऽऽत्मव्यापादनम् । आचा० २६० । गृधः स्पृष्टं-स्पर्शनं -ग्राहिका-अक्लेशेनार्थबोधिका । औप० ७८ । यस्मिस्तत् गृध्रस्पृष्टम्, यदिवा प्रधाणां भक्ष्यं पृष्ठमुपगाहोकया-गाथीकृताः-पिण्डीकृताः। सूत्र० २६२। लक्षणत्वादुदरादि च मर्तुर्यस्मिस्तद् गृध्रपृष्ठम् । उत्त० गाहेंति-भावयंति । नि० चू० प्र० ३३८ आ । गाहेहिति-प्राहयिष्यन्ति-प्रापयिष्यन्ति स्थलेषु स्थापयिष्य- | गिद्धपिट्ठमरणं-गृध्रपृष्ठमरणं, मरणस्य चतुर्दशो भेदः । व्यन्तीत्यर्थः । भग ३०६ । सम० ३३ । उत्त० २३० । । गिज्झति-गृध्यन्ति प्राप्तस्यासन्तोषेणाप्राप्तस्यापरापरस्या- | गिद्धाइभक्खणं-गृद्धाः प्रतीतास्ते आदिर्येषां शकुनिकाशिकाक्षानन्तो भवन्तीति । ठाणा० २६३ । | वादिनां तैर्भक्षणम् गम्यमानत्वादात्मनः तदनिवारणादिना गिज्भ-गृद्धः-प्रतिबद्धः । दश० २६८ । तद्भक्ष्यकरिकरभादिशरीरानु प्रवेशेन च गृध्रादिभक्षणम्। गिज्झवओ-ग्राह्यवाक्यः । आदेयवाक्यः । आव० २३६ । । उत्त० २३४ । । गिज्झह-गृध्यत-गृद्धि प्राप्तभोगेष्वतृप्तिलक्षणां कुरुत । गिद्धापिट्ठ-गृध्रस्पृष्टं गृध्रुः स्पर्शनं कडेवराणां मध्ये निपत्य ज्ञाता० १४६ । गृधेरात्मनो भक्षणमित्यर्थः । ज्ञाता० २०५ । गिझियन्वं-द्धितव्यं-अप्राप्तेष्वाकाङ्क्षाकार्या। प्रश्न गिद्धि-गृद्धिः-गाद्धयं ममत्वं वा । सूत्र० १७१ । १५६ । गिद्धी-गृद्धिः-अभिकाङ्क्षा । ठाणा० ४४७ । गिझु-ग्राह्यः-संवेवः । उत्त० ४०२ । गिम्ह-ग्रीष्मः-उष्णकालः । ओघ० २१२ । ग्रीष्म:( ३६३ ) - २३४ । 2010_05 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिम्हा ] आचायश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [गिल्लि ज्येष्ठादिः । भग० ४६२ । ग्रीष्मः-उष्णकालः । भग० गिरिमह-पर्वतमहः । आचा० ३२८ । २११ । ग्रीष्मः-षष्ठ: ऋतुः । सूर्य० २०६। वैशाख- गिरिराया-सर्वेषामपि गिरीणामुच्चस्त्वेन तीर्थकरज्येष्ठौ । ज्ञाता० १६१ । ग्रीष्मकाल:-उष्णकाल इत्यर्थः । जन्माभिषेकाश्रयतया च राजा गिरिराजः, मेरुनाम । सूर्य० ११ । जं० प्र० ३७५ । गिरिराजः, । सूर्य० ७८ । गिम्हा-ग्रीष्मा-उष्णकालमासाः । जं० प्र०.१५० । । गिरिविडकादि-आभरणविशेषः । आचा० ३९४ । गिरा-गी:-वाणी । बृ० द्वि० २५५ आ । गिरिसरिउवला-गिरिसरिदुपला-गिरिसरित्पाषाणाः । गिरि-गिरयः-गृणन्ति शब्दायन्ते जननिवासभूतत्वेनेति आव० ७५ । गिरयः-गौपालगिरिचित्रकूट प्रभृतयः । भग० ३०७ ।। गिरिसरित्परिरयः । आव० ५५२ । गिरिशब्देन क्षुद्रगिरयो ग्राह्याः । जं० प्र० २२३ । । गिरिसिद्धो-गिरिसिद्धः । दश० ४४ । गिरयः-दुर्गादिकरणार्थं जनावासयोग्याः पर्वताः । जं० गिरो-जत्थ पव्वए आरूढेहिं अहो पवायट्ठाणं दीसइ सो प्र० २१० । गृणन्ति-शब्दायन्ते जनं निवासभूतत्वेनेति । गिरी भष्णइ । नि० चू० द्वि० ५२ अ । गिरयः । जं० प्र० १६८ । गिरिः-महापाषाणः । गिला-ग्लानिः । व्य० प्र० १८५ अ । औप० ८८ । गिलाइ-ग्लायति ग्लानो भवति । भग० १२६ । ग्लानि:गिरिउडे- । नि० चू० १६२ आ । खेदः । भग० २३२ । गिरिकडग-गिरिकटक:-पर्वतनितम्बः । ज्ञाता० २३८ ।। गिलाए-ग्लाति:-खेदः । भग० २१६ ।। गिरिकण्णइ-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । गिलाण-ग्लानः । आव० ७८४ । ग्लान:-पञ्चमः कुडङ्गः । गिरिगिह-गिरिगृह-पर्वतोपरि गृहम् । ठाणा० २६४ । | आव० ८५६ । अनीरुजः । आव०८४३ । क्षीणहर्षः, प्रश्न० १२७ । भग० २०० । आचा० ३६६ । अशक्त इत्यर्थः । ज्ञाता० १८० । अपगतप्रमोदः । सूत्र० गिरिजण्णयं-अवरण्हसंखडी । नि० चू० द्वि०१५ अ। १३७ । ग्लानो नाम रोगाभिभूतः । दश० ३१ । मन्दः । गिरिजत्ता-गिरियात्रा-गिरिगमनम् । ज्ञाता० ४६ । । ओघ० १४ । जरादिगहितो विमुक्को वा । नि० गिरिजनो-गिरियज्ञः-उस्सूरं मत्तवालसंखडी वा । गिरि- चू० प्र०१४ आ। विकृष्टतपसा कर्त्तव्यताऽशक्तो वातायज्ञः-कोंकणादिदेशेषु सायाह्नकालभावीप्रकरणविशेषः ।। दिक्षोभेण वा ग्लानः । आचा० २८१ । मन्दोऽपगतहर्षो बृ० द्वि०.६५ आ। वा । उत्त० २४६ । । गिरिणगरं-गिरिनगरं नगरविशेषः । आव० ५२ । विशे० गिलाणभत्तं-गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाणभत्तं । नि० ४१३ । गिरिनगरं-परदारगमने पुरम् । आव० ८२३ । चू० प्र० २७२ आ । ग्लानभक्तं-ग्लानस्य नीरोगतार्थ गिरिणयरं-गिरिसमीपे नगरं गिरिनगरम् । अनु० १४६ । भिक्षुकदानाय यत् कृतं तत् भक्तम् । भग० २३१ । गिरितडगं-गिरितटकं सन्निवेशविशेषः । उत्त० ३७६ । भग० ४६७ । ग्लानः सन्नारोग्याय यद् ददाति तत् गिरिनदी । ज्ञाता० २५ । ग्लानभक्तम् । ज्ञाता० ५२ । औप० १०१। ग्लानो गिरिपक्खो-गिरिपक्ष:-पर्वतपार्श्व: । औप० ८८ । रोगोपशान्तये यद्ददाति ग्लानेभ्यो वा यद् दीयते तत् । गिरिपडणे-पर्वतपातः । ज्ञाता० २०२ । ठाणा० ४६० । गिरिपुर-नगरविशेषः । उत्त० ३७६ । गिलायं-ग्लानं-पर्युषितम् । बृ० प्र० ३१२ आ । गिरिप्पवात-गिरिप्रपातः । आव० ३५० । गिलायंति-ग्लायन्ति-श्राम्यन्ति । ठाणा० १३५ । गिरिफलिगा-नगरीविशेषः। नि०० द्वि०. १०० आ। गिलासणि-भस्मको व्याधिः । आचा० २३५ । गिरिफुल्लिय-गिरिपुष्पितम्, मानपिण्डदृष्टान्ते नगरम् । गिलासिणि-रोगविशेषः । नि० चू० द्वि० १४८ अ । पिण्ड० १३३, १३४ । गिल्लि-वाहनविशेषः । उत्त० ४३८ । भग० २३७ । ( ३६४ ) 2010_05 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिल्ली ] हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषं गिलतीव । अनु० १५६ । जीवा० २८१ । पुरुषद्वयोत्क्षिता डोलिका । जं० प्र० १२३ । गिल्ली - पुरुषद्वयोक्षिता झोल्लिका । सूत्र० ३३० । भग० अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ २३७ । गिल्लीओ - हस्तिन् उपरि कोल्लराकाराः । भग० ५४७ ॥ हिंतरं - हिं चेव अंतरं गिहं । दश० चू० ५१ | गिहंत र निसिज्जा - गृहान्तरनिषद्या - गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम् । दश ११७ । गिह- गृहं - पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयः । दश० २७३ | गृहंशरणं, लयनम् । जीवा० २६६ । सकुडुंगिहं । नि० ० प्र० २६५ अ । वणरायमंडियं भवणं तं चेव वणविवज्जियं गिहं । नि० चू० द्वि० ७० अ । गृहअस्मद्गृहकल्पम् । जीवा० २७९ । गृहं - अपवरकादिमात्रम् 1 ठाणा० २९४ | अवस्थितप्रासादरूपम् । उत्त० ३८६ । गृहं सामान्यवेश्म । उत्त० ३०८ । दश० २३६ । सकलत्रः । दश० २६० । गिहिचेतियं-पडिमा । नि० चू० द्वि० ६६ आ । गिहिजोग - गृहियोग:- गृहसम्बन्धं तद्वालग्रहणादिरूपः गृहिव्यापारो वा प्रारम्भरूपः । दश० २३१ । गिहीहि समं जोगं - संसग्गि, गिहिकम्मं जोगो वा । दश० चू० १२२ । गिहिणि सेज्जा - पलियंकादी । नि० ० द्वि० ६५ अ । गिहिधम्म - गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्याभिसंधाय तद्यथोक्तचारिणो गृहिधर्म्माः । अनु० २५ । गृहिधर्म एव श्रेयानित्यभिसन्धेर्देवातिथिदानादिरूपगृहस्थधर्मानुगताः । औप० । गृहिधर्मा - गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभिसन्धाय तद्यथोक्तकारी । ज्ञाता० १६५ । गिहिधम्मचितएगिहिभायणं - गृहिभाजनं स्थाल्यादिः गिहिमत्तो- घंटीकरगादि । नि० गृहिमा - गृहस्थभाजनम् । दश० ११७ | । ज्ञाता० १६५ । । सम० ३६ । ० द्वि ६४ आ । गिहकम्म- गृहनिष्पत्त्यर्थं कर्म गहकर्म इष्टकामृदानयानादि । | गिही- गृद्धिः - अभिष्वङ्गलक्षणा । आव० ६५८ | अधाभद्रकः । नि० चू० प्र० १४७ अ । उत्त० ६६५ । गिहत्थ- गहस्थः- गृहलिंगे तिष्ठतीति गहस्थः । व्य० द्वि० गिहेलुगं - गिहेलुक :- उम्बरः । आचा० ३९७ | २७ आ । गीअं - गीतिका - पूर्वार्द्धसदृशाऽपरार्धलक्षणा आर्या । जं० प्र० १३८ । गिहत्थ संसद्वं - गृहस्थसंसृष्टम् । आव० ८५४ । गिहदुवारं - अग्गदारं पावेसितं तं गिहदुवारं भण्णति । गीइयं नि० चू० प्र० १६२ अ । हिमुहं - अग्गिमालिदयो छद्दारुअलिंदो एते दो वि गिहमुहं । नि० चू० प्र० १६२ अ । गिहas - गृहपतिः धनाभिप: । आव ० २९४ | गृहपतिः अवग्रहे तृतीयो भेदः । आचा० ४०२ | गृहपतिः - सामान्यमण्डलाधिपतिः । बृ० प्र० १०८ अ । गिहवती - शय्यादाता | ठाणा० ३४० । गिहवास - गृहमेव वा पारवश्यहेतुतया पाशः गृहपाशः । उत्त० ६६४ । गृहवासं - गृहावस्थानम् । उत्त० ६६४ । गिहापत्तणं - गृहेष्वागमनं गृहापतनम् । जीवा० ३४४ । गिहाययणं - गृहेषु तेषामायातनं गमनं गृहायतनम् । जीवा० २७६ । गिहि- गृही - भद्रक: । ओघ० ५७, १०५ । असंयतः । 2010_05 [ गीयजसे । ज्ञाता० ३८ । गोई - गीतेन सूत्रेण केवलेन सम्यक् पठितेन गीतमस्यास्तीति गीति । वृ० प्र० ११२ अ । गीतजसे। ठाणा ० ४०६ । गीतत्थो - गृहीतार्थ: । नि० चू० प्र० ७६ आ । गीतयशसः - गन्धर्व भेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । गीतरतयः - गन्धर्व भेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । गीतरती - गन्धर्वेन्द्रः । उत्त० ४२५ । ठाणा० ८५ । गीतिया - गीतिका - गानविशेषः । आ० ५५७ । गीय गीतं - स्वरग्रामानुगतगीतिकानिबद्धम् शब्दितम् । उत्त० २८७ । गीतं - गानमात्रम् । भग० ३२३ । ज्ञाता० ३८ । रागगीत्यादिकम् । जं० प्र० ३६ । गोयज से - गीतयशः - उत्तरनिकाये अष्टमो व्यन्तरेन्द्रः । भग० १५८ । ठाणा० ८५ । ( ३६५ ) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीयत्थ ] गीयत्थ- गीतार्थ: - वस्त्रपात्रपिंडे षणाध्ययनादिच्छेदसूत्राणि च सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो वा येन सम्यगधीतानि स गीतार्थः । व्य० प्र० २४ आ । स्वयं व्यवहारमवबुद्धयते प्रति पद्यमानो वा प्रतिपद्यते व्यवहारं सः गीतार्थः । व्य० प्र० आ सूत्रार्थं तदुभयविदः, अन्यथा हेयोपादेयपरिज्ञानयोगात् ते एतादृशा एवंविधा गीतार्था गणावच्छेदिनः । व्य० प्र० १७२ अ । गीयरइपिय-गीत रतिप्रियः - गीतेन या रती- रमणं क्रीडा सा प्रिया येषां गीतरतयो वा लोका: प्रिया येषां ते। औप० ६२ । गीय रई - गीत रतिः - दक्षिणनिकाये अष्टमो व्यन्तरेन्द्रः । भग० १५८ । गीयसद्दं - गीत शब्द - पञ्चमादिहुङ्कृतिरूपम् 1 ठाणा० ४०६ । गीया - गीतार्था - वृषभाः । व्य० प्र० २५१ । गुंगुयंता - कान्दिशीकाः । उत्त० १७६ । गुंजत - गुञ्जन्तः शब्दविशेषं विदधानाः । जीवा० १८८ गुंडिय - गुण्डित - परिकरिता । शब्दायमानाः । ज्ञाता० २७ । ज्ञाता० ६१ । गुंतरुक्ख गुंज - गुआ - रक्तिका । जं० प्र० ३४ । गुंजद्धर । गे - गुञ्जा तस्या अर्धसगो गुञ्जार्धरागः । प्रज्ञा० गुंद - वृक्षफल विशेषः । आव० ८२८ । ३६१ । गुआर गुंजा - गुञ्जा - भम्मा | आचा० ७४ । आतोद्यविशेषः । गुग्गुलभगवं - गुग्गुलभगवान् | आव० ७१२ । प्रश्न० ५१ । चणोठिया । अनु० १५५ । गुंजालिका -सारिण्येव वक्रा । अनु० १४९ । गुंजालिका :- दीर्घा गम्भीराः कुटिलाः श्लक्ष्णाः जलाशयाः । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आचा० ३८२ । गुंजालिया - गुञ्जालिका: वक्रसारिण्यः । भग० २३८ ॥ औप० ६३ । वक्रा नदी । प्रज्ञा० २६७ । वक्रसारणी । प्रश्न० ६० । वक्रसारिणी । ज्ञाता० ६७ । नद्य एव वक्रा गुञ्जालिका: । प्रज्ञा० ७२ । अन्नेऽन्ने कवाडसं जुत्ताओ गुंजालिया भन्नंति । नि० चू० द्वि०७० आ । गुंजा लियाओ - सारण्यस्ता एव वक्राः गुञ्जालिकाः । जं० प्र० ४१ । [ गुज्झ गुञ्जावातः । जीवा० २६ । प्रज्ञा० ३० । गुंजावाता-ये गुञ्जतो वान्ति । उत्त० ६६४ । गुंजावाय - गुञ्जन् सशब्दं यो वाति स गुञ्जवातः । भग० १६६ । 2010_05 गुंजावाए - गुञ्जा - भम्मा तद्वत् गुञ्जन् यो वाती स गुञ्जावातः । आचा० ७४ । यो गुञ्जन् - शब्दं कुर्वन् वाति गुंजिए - गुञ्जितं - निर्घातविकारो गुञ्जावद्गुञ्जितो महाध्वनिः । आव० ७३६ । गुंजितं - निर्घातः- तस्सेव विकारो गुंजावत् । गुंजमानो महाध्वनिः । नि० चू० तृ० ७० आ । गुंजीवल्ली - वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । गुंज्जित - गुंजावत् गुंजमानो महाध्वनिगुंजितम् । व्य० द्वि० २४१ आ । गुंठा - मायाविनः । व्य० प्र० २५५ । गुंठा-माया 1 व्य० प्र० २५६ । गुंठा - वाहणा गुंठादि गुंठो घोडगो । नि० चू० तृ० ३७ आ । घोटको महिषो वा । बृ० द्वि० १२५ आ । गुंडिज्ज - गुण्डयते । आव ० ६२५ । प्रश्न० ४७ । गुण्डितः । । भग० ५०३ । । आव० ७१२ । गुग्गुलमारगुच्छ - वृन्ताकीप्रभृतिः । जीवा० २६, १८८ । गुच्छःवृन्ताकीसल्लकीकर्पास्यादिकः । आचा० ३० । पत्रसमूहः । भग० ३७ । जं० प्र०२५ । गुच्छाः - वृन्ताको प्रभुतयः । भग० ३०६ ॥ जं० प्र० ३० । जीवा० २६ । गुच्छगलइअंगुलिओ - अङ्गुलिभिर्लातो - गृहीतो गोच्छको येन सोऽयमङ्गुलिलातगोच्छकः । उत्त० ५४० । गुच्छय-गोच्छकं - पात्रको परिवर्युपकरणम् । उत्त० ५४० १ गुच्छा - वृन्ताक्यादय: । औप० ८ । गुच्छाः - वृन्ताकी - प्रभृतयः । प्रज्ञा० ३० । ज्ञाता० २८ | पल्लव समूहाः । ज्ञाता० २८ । 1 | जं० प्र० १६४ | गुच्छिय - सञ्जातगुच्छम् । भग० ३७ । | गुज्झ - गुह्यं - रहस्यम् । विपा० ४० । लज्जनीय व्यवहार( ३६६ ) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण ] गोपितम् । ज्ञाता ० १२ । गुह्यं गोपनीयत्वात्, अब्रह्मणस्य चतुर्विंशतितमं नाम । प्रभ० ६६ । गुह्यः - बहिनाप्रकाशनीयः । राज० ११६ । गुह्यं लज्जनीयव्यवहारगोपनम् । भग० ७३६ । गुज्झक्खिणी - स्वामिनी । बृ० तृ० १७१ आ । गुज्भगं - गुह्यकम् । ओघ० १६० । गुज्झगा - गुह्यकः भवनवासिनः । दश० २४६ । गुज्भगो-गुह्यकः - देवः | आव० ६३४ | देवविशेषः । पिण्ड १३१ । वैमानिकः । आव० ८१३ । गुज्झदेसो- गुह्यदेशः । जीवा० २७० । गुज्झाणुचरिअ - गुह्यानुचरितं सुरसेवितमित्यर्थः । दश० २२३ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ गुटु-स्तम्बः । उपा० २२ । गुट्टी-गोष्ठी - दत्तवासुदेव निदानकारणम् । आव ० १६३ टी । गुडधाना। ठाणा० ११८ । सूर्य ० २६३ । गुडपटक| सूर्य० २९३ । गुडसत्थं - गुड शस्त्रं- नगरविशेषः । आव० ४११ । गुडा - तनुत्राणविशेषः । प्रश्न० ४७ । महाँस्तनुत्राणविशेषः । विपा० ४६ । गुडियागुडेणं । नि० चू० प्र० ३ आ । । नि० चू० प्र० ३४८ आ । गुण-गुण्यते - भिद्यते विशेष्यतेऽनेन द्रव्यमिति गुणः । आचा० ६६ | आत्मा वा शब्दाद्युपयोगानन्यत्वाद् गुणः । आचा० ६६ । रसना । आचा० ३६३ | स्वभावः- यथोपयोगस्वभावः । सम० ११२ । गुणशब्दोंऽशपर्यार्यः । अनु० १११ । ज्ञानादिः रूपादिश्च । अनु० १०५ । ज्ञानम् । उत्त० ७० । आचा० ८० । अनु० २६६ । प्रशस्तता । ज्ञाता० १२ । कटिसूत्रम् । ज्ञाता० ३५ । कान्तिलक्षणः । ज्ञाता० ३५ । क्षान्त्यादिः । आव० ४६ । विविधार्थसंवादनलक्षणः । सम० १२४ । उत्तरगुणो भावनादि - रूपः । प्रज्ञा० ३६६ । स्वाध्यायध्यानादिः । आव० २६५ । कडीसुतयं । नि० चू० प्र० २५४ आ । निरवद्यानुष्ठानरूपः । आचा० ३३ । सौभाग्यादिकः । भग० ११६ । गुणः - गुणव्रतम् । भग० १३६ । प्रियभाषित्वादिः । ज्ञाता० ४३ । सौन्दर्यादिः । ज्ञाता० 2010_05 [ गुणट्टीए २२० । संयमगुणः । भग० १३६ । कार्यं दाक्षिण्यादिः । भग० १४८ । दर्शनज्ञाने । विशे० २ । निर्जराविशेषः । ज्ञाता० ७३ । गुणः - शब्दादिकः । आचा० ६२ । गुण:ज्ञानादिः । सूर्य० ५ । अनन्तगमपर्यायवत्त्वमुच्चारणं वा । सूत्र० ७ । मूलोत्तरगुणभूतः । सूत्र० ४०० । उपकारः । प्रश्न० ३६ । गुणव्रतम् । औप० ८२ । सहवर्त्ती । औप० ११७ । पर्यायः विशेषः धर्मश्च । प्रज्ञा० १७६ । रक्तसूत्ररूपः । जीवा० २०५ । क्षान्त्यादिः । जीवा ० २७४ । सुरूपादिः । आव० ५८५ । प्रशस्तत्वम् । प्रश्न० ७४ । वर्णादिः सहभावी धर्म एव । प्रश्न० ११७ ॥ ऐहिकामुष्मिकोपकाराः । प्रश्न १२३ । निर्विभागो भागः । जं० प्र० १२६ । धर्म्मः । ठाणा० ३३४ । गुणाः-संयमगुणाः । निरय० २ । गुण्यन्ते संख्यायन्त इति गुणा:पिण्डविशुद्धाद्युत्तरगुणरूपाः । विशे० २ । गुणाःरूपादयः । उत्त० ५५७ । गुणं गुणव्रतम् । भग० ३२३ । गुणओ - गुणतः - कार्यतः - कार्य माश्रित्येत्यर्थः । ठाणा ०३३३। गुणकरणं - गुणानां करणं गुणकरणं, गुणानां कृतिः । आव० ४६६ । तपकरणं - अनशनादि संयमकरणं च पश्चाश्रविरमणादि गुणकरणमुच्यते । उत्त० २०५ । गुणकरो - गुणकरः - गुणाः - ज्ञानादयस्तत्करणशीलः, भावकरविशेषः । आव० ४६६ । । आचा० ५५ । गुणकल्पनागुणकारोत्ति - गुणकारस्तेन यत्सङ्ख्यानं तत्तथैवोच्यते । तच्च प्रत्युपन्नमिति लोकरूढम् अथवा यावतः कुतोऽपि तावत एव गुणकराद्यादृच्छिकादित्यर्थः । ठाणा० ४६७ ॥ गुणचंद - गुणचन्द्रः - चन्दावतंसकराज्ञः प्रियदर्शनाराज्यो ज्येष्ठः पुत्रः । आव ० ३६६ | आधाकर्मानुमोदनायां श्रीनिलयनगरे राजा । पिण्ड० ४६ । आधाकर्मपरिभोगे शतमुखपरे श्रेष्ठी । पिण्ड० ७४ । गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तश्रेष्ठिपुत्रः । पिण्ड० ७८ । उत्कृष्टमालापहृतविवरणे साधुः । पिण्ड० १०६ । मानपिण्डोदाहरणे क्षुल्लकः । पिण्ड० १३४ । प्रज्ञा० ४४१ । गुणचूड: - गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तश्रेष्ठीपुत्रः । पिण्ड० ७८ । गुणट्ठीए - गुणार्थी - रन्धनपचनप्रक्रम्शातापनाद्यग्निगुणप्रयो( ३६७ ) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणततिला ] - आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गुणा गुणम भग० ११२ । जनवान् । आचा० ५३ । गुणश्रेणिरचना । भग० १८ । गुणतत्तिला-गुणग्राहका । नंदी० ६४ । गुणसंकर-गुणसमुदायरूपः । ज्ञाता० १६८ । गुणदेशः-गुणोद्देशा । प्रश्न० १०२ । गुणसङक्रमः । उत्त० ५८० । गुणना-परावर्तना । बृ० प्र० २३३ अ । गुणसमिय-गुणयुक्तोऽप्रमत्ततया यतिः गुणसमितः। आचा० गुणनिकाकाले । ठाणा० २५७ । २१७ । गुणनिप्फन्नं-गुणनिष्पन्नम् । ज्ञाता० ४१ । गुणसमृद्ध-महाबलराजधानी । पिण्ड० ४७ । गुणनी ।नंदी० १६६ । गुणसागरः-गोचरविषयोपयुक्ततायां गुणचन्द्रपुत्रः । पिण्ड. गुणभावणा-गुणभावना । आव० ४८४ । गुणभूई-गुणभूतिः- अचिन्त्या गुणसम्पत् । आव ० २३७ । गुणसिद्धी-गुणसिद्धिः--अन्वर्थसम्बन्धः । दश० ७१ । गुणभूतत्वम् । दश० ५७ । गुणसिल-गुणशिलं राजगृहे चैत्यविशेषः । उत्त० १५८ । -गुणमहान-उपशमकः । आव० ८३ । उपा० ४८ । विपा० ८६ । गुणशिलं राजगृहनगरे गुणमित्रः-आधाकर्मण अभोज्यतायां उग्रतेजसः पुत्रः । चैत्यम् । भग० ६, ३२३, ३७६, ५०२, ७३६, ७५० । पिण्ड ० ७१ । ज्ञाता० ३६ । आव० ३२५ । अनुत्त० १७७ । अन्त० गुणयारो-गुणकारः । सूर्य ० ११४ । १८ । गणशिल:-वर्धमानस्यामिनः समवसरणस्थानम् । गुणरयणं-गुणरत्नं तपःकर्मः । अनु० १ । गुणरत्नसंवत्स उद्यानविशेष: । व्य० प्र० १७४ अ । राभिधस्तपोविशेषः, तपोविशेषः । अन्त० ३, १८ । गुणसिलयं-राजगृहे चैत्यम् । आव० ३१४ । गुणरयणचच्चिका-गुणरत्नचाकचिक्या:-गुणरत्नमण्डिताः। गुणसिला-गुणशिला-स्कन्दकचरित्ते राजगृहनगरे चैत्यम् । चउ० । गुणरयणसंवच्छर-गुणानां-निर्जराविशेषाणां रचनं- गुणसेढीयं-गुणश्रेणी--क्षपणोपक्रमविशेषरूपा । सामान्यतः करणं संवत्सरेण सत्रिभागवर्षेण यस्मिस्तपसि तद् गुण- किल कर्मबह्वल्पमल्पतरमल्पतमं चेत्येवं निर्जरणाय रचरचनसंवत्सरम्, गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा यति,यदा तु परिणामविशेषात् तत्र तथैव रचिते कालन्तरगुणरत्नः संवत्सरो यत्र तद् गुणरत्नसंवत्सरं तपः ।। वेद्यमल्पं बहू बहुतरं बहुतमं चेत्येवं निर्जरणाय तदा सा भग० १२५ । ज्ञाता० ७३ । गुणभेणीत्युच्यते । औप० ११३ । गुणवंतो-गुणवन्तः-पिण्डविशुद्धयाधुत्तरगुणोपेताः। आचा० गुणसेन-गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तष्ठिपुत्रः । ३५० । पिण्ड० ७८ । गुणवती-गुणचन्द्रस्य राज्ञी । पिण्ड० ४६ ।। गुणस्थानक । ठाणा० ५३ ॥ गुणविरियं-जं ओसहीण तितकडुयकसायअंबिलमहुर- गुणा-सौभाग्यादयः,अथवा लक्षणव्यञ्जनयोर्ये गुणाः।ठाणा. गुणताए रोगावणयणसामत्थं एतं गुणविरियं । नि० चू० | ४६१ । चारित्रविशेषरूपाः । सम० ४६ । शेषमूलगुणाः प्र० १६ अ । उत्तरगुणाश्च । सम० १२७ । ज्ञानादयः । सम० १२४ । गुणवत-गुणवत:-दिग्वतोपभोगपरिभोगव्रतलक्षणः । प्रभावाः । सम० १२५ । साधनभूता उपकारकाः । ठाणा० २३६ । उत्त० ४१६ । पिण्डविशुद्धचादयः । उत्त० ५६७ । गुणशतकलितः-प्रश्नयादिगुणोपेतः सूरिः । आचा० ३ ।। विपा० ४५ । सन्तः मुनयः पदार्था वा । आव० ७६०॥ गुणशेखरः-गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तभेष्ठिपुत्रः । रसादिकाः संयममुणा वा । आव० ८५० । कार्याणि । पिण्ड० ७८ । प्रश्न० ७४ । शुक्लादयः । विशे ३५६ । गुणवतानि । गुणश्रेणिः । प्रशा० ६०८ ।। सम०१२० । भग० ३६८ । महद्धिप्राप्त्यादयः शकन्ध्वा. (३६८) 2010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणागुणे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ गुम्मइअ दिदर्शनात् । सम० १५७ । । पर्यवाः धर्माः विशेषा | वा परिक्षिप्ता । बृ० प्र० ३१० अ । वा । भग० ८८६ । गुणा:-करुणादयः । औप० ३३ । गुत्तागुत्तिदिय-गुप्तागुप्तेन्द्रियः-गुप्तानि शब्दादिषु रागाक्षान्त्यादयः । जं० प्र० ११३ । गुणाः-सप्तविंशतिरन- दिनिरोधाद् अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिगारगुणाः । प्रश्न० १४५ । गुणास्तु पुद्गलानुत्तिनः | रोधादिन्द्रियाणि येषां ते । औप० ३५ । पर्यायाः । विशे० ३६२ । | गुत्तिदिय-गुप्तेन्द्रियः शब्दादिषु रागादिरहितः इत्यर्थः । गुणागुणे-ऋजुता । आचा० ८६ । औप० ३५ । गुणाणं विराहणा-गुणानां विराधना हिंस्यप्राणिगतगुणानां गुत्ति-रक्षा । बृ० द्वि० १२६ आ । गोपनं गुप्ति:हिंसकजीवचारित्रगुणानां वा विराधना-खण्डना । प्रश्न०६। सम्यग्योगनिग्रहः । प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापनगुणालयं-गोचरविषयोपयुक्ततायां सागरदत्तस्य वास्तव्य- मुन्मार्गगमननिवारणं गुप्तिः । उत्त० ५१४ । पुरम् । पिण्ड० ७८ । गुत्तिसेण-गुप्तिसेनः । सम० १५३ । गुणिता-अधीता। ओघ० ५३ । गुत्ती-गुप्तिः-प्रविचाराप्रविचाररूपा । आव० ५७२ । गुणत्तर-भवत्थकेवलिसुहं । नि० चू० तृ० २४ आ । । सूत्र० २४४ । मनोगुप्त्यादिः वसत्यादि । प्रश्न० १३४ । गुणत्तरतरं-मोक्खसुहं । नि० चू० तृ० २४ आ ।। अशुभानां मनःप्रभृतीनां निरोधः, अहिंसायास्त्रिचत्वारिगुणत्तरधरो-गुणेषूत्तरा:-प्रधाना गुणोत्तराः ज्ञानादय- | शत्तमं नाम । प्रश्न ६६ । स्तान् धारयतीति गुणोत्तरधरः । उत्त० ३५७ । गुत्तीओ-गुप्तयः मनोवाक्कायलक्षणा अनवद्यप्रविचाराप्रविगुणुद्देसो-गुणोद्देशः-गुणदेशः । प्रश्न० १०२ । चाररूपाः । प्रश्न० १४२ । गुण्यते-भिद्यते । आचा० ६६ । गुत्तीतो-गुप्तयः-रक्षाप्रकाराः । ठाणा ० ४४५ । गोपनानि गुत्त-गुप्तं-युक्तम् । प्रश्न० १३४ । वृत्त्या फलहकेन वा गुप्तयः-मनःप्रभृतीनामशुभप्रवृत्तिनिरोधनानि शुभप्रवृत्तिवृत्तम् । बृ० द्वि० १८१ आ । गुप्तः-अभेदवृत्तिः । करणानि चेति । सम० ६ । गोपनं गुप्तिः-मनःप्रभृतीनां भग० १६४ । प्राकाराद्यावृता । भग० ३१३ । न कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति । ठाणा० स्वामिभेदकारिणः । पराप्रवेश्या । जीवा० २६० ।। ११२ । गुप्तिभि:-वसत्यादिभिः । जं० प्र० १४८ । तिसृभिर्गु- गदं-अपानम् । नंदी० १५२ । प्तिभिर्गुप्तः । सूत्र० २६८ । संमूढः । ओघ० ११६ । | गुपिलं-गहनम् । नंदी० ४२ । प्रविष्टः । नि० चू० प्र० १७२ आ । गां त्रायत इति | गुप्ति-विधानतो ज्ञात्वाऽभ्युपेत्य सम्यग्दर्शनपूर्वकं त्रिविगोत्र-साधुत्वम् । सूत्र० ४१३ । प्राकारवेष्टितत्वाद् | धस्य योगस्य निग्रहः । तत्त्वा० ६-४ । गुप्तम् । ठाणा० ३१२ । गोत्र-कुलम्, नामानि । ठाणा० । गुप्फ-गुल्फ:-धुटिक: । जं० प्र० ११० । २६४ । गुब्भंग-मृगीपदम् । नि० चू० प्र० २११ अ । गुत्तदुवारा-गुप्तद्वारा-कपाटादियुक्तद्वारा । भग ० ३१३ । । गुम्म-गुल्म-वृन्दमात्रम् । औप० ५६ । वंशजालिप्रभृतिः । गुत्तदुवारे-द्वाराणां स्थगित्वाद् गुप्तद्वारम् । ठाणा० ३१२ । ज्ञाता० ३६ । समूहः-समुदायः । बृ० द्वि० २६० अ। गुत्तपालिय-गुप्तपालिकाः-तदन्यतो व्यावृत्तमनोवृत्तिका गुच्छैकदेश:-उपाध्यायाधिष्ठितः । औप० ४५ । गुल्म:मण्डलिकाः । भग० १६४ । गुप्ता-पराप्रवेश्या पालि:- नवमालिकाप्रभृतिः । भग० ३०६ । प्रज्ञा० ३० । सेतुर्यस्य सः । जीवा० २६० । . जीवा० २६ । गुल्म:-नवमालिकादिः । औप० ८ । गुत्तबंभचारी वसत्यादिनवब्रह्मचर्यगुप्तियोगात । ज्ञाता० | जीवा० १८८ । जं० प्र० ३० । लतासमूहः । विशे० १०३ । । ६०४ । गुत्ता-गुप्ता-पराप्रवेश्या । राज० ११३ । वृत्त्या कुड्येन | गुम्मइअ-गुल्मितं-धूणितचेतनम् । बृ० प्र० २३१ आ। ( अल्प० ४७ ) ( ३६९) 2010_05 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुम्मा ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ गुलं गुल्मयितं-मूढम् । औप० ६४ । गुरुगतराग-गुरुतरक:-चतुर्मासपरिमाणः । व्य० प्र० गुम्मा-गुल्मा नाम ह्रस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पकलोपेताः । | १८७ अ। जं० प्र०६८ । गुल्मा-पुष्करिणी नाम । जं० प्र० गुरुगती-भावप्रधानत्वानिशस्य गोरवेण ऊधिस्ति३६०। र्यग्गमनस्वभावेन या परमाण्वादीनां स्वभावतो गतिः सा गुम्मिय-गुल्मेन-समुदायेन चरन्तीति गौल्मिकाः । व्य गुरुगतिः । ठाणा० ४३४ । प्र० १३५ अ । गुल्म-स्थानं तद्रक्षपाला गुल्मिकाः । | गुरुगो-गुरुको नाम व्यवहारो मासो मासपरिमाणः । ओघ० ८० । स्थानक रक्षपाला: । ओघ० ८२ । व्य० प्र० १८७ अ । गुम्मी-शतपदी त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । उत्त० ६६६ ।। उत्त० ६६६ । । गुरुजणं-गुरुजन:-गुणस्थसुसाधुवर्गः । आव० ५१६ । -गुमगुमायमाना । आव. ५१४ ।। गुरुतप्पओ-गुरुतल्पक:-दुविनीतः । प्रश्न० ३६ । गुरु-स्वप्रयोजननिष्ठः । उत० ६३१ । पूज्यास्तीर्थकृद्गण | गुरुनि ओगविणयरहिया-गुरुषु मात्रादिषु नियोगेन-अवभृदादयः । उत्त० २३१ । यथावच्छास्त्राभिधायकाः । श्यतया यो विनयस्तेन रहिताः गुरुनियोगविनयरहिताः । उत्त० ६२२ । अधोगमनहेतुः । ठाणा० २६ । स्पर्शस्य भग० ३०८ । चतुर्थो भेदः । ४७३ । गुरूणां-मात्रादिकानां । जं० | गुरुनिग्गहो-गुरुनिग्रहः । आव० ८११ । प्र० १६६ । गुणाति शास्त्रार्थमिति गुरु:-धर्मोपदेशदाता। गुरुपरिओसगए-गुरुपरितोषगतः-गुरूपरितोषजातः । आव० ११६ । धर्मोपदेशकः । ज्ञाता० १२३ । पिता- | आव० २६६ । महादिलक्षणः । आव० ५१६ । आचार्यः । दश० ४५ । गुरुपरिभासिय-गुरून् परिभाषते विवदते गुरुपरिभाषिकः । सारोपेतम् । दश० २६३ । तीर्थकरादिः । पिण्ड० उत्त० ४३४ । ११४ । गृणन्ति तत्त्वमिति गुरवः-तीर्थकरगणधरादयः । | गुरुपरिसंस्थापनम् ।दश० २८४ । विशे० ३ । मातापितृधर्माचार्याः । ठाणा० ३६६ । गौर. गुरुपर्वक्रमलक्षणः केवलश्रद्धानुसारिणः प्रति । प्रज्ञा०२। वाहः। उत्त० ४४ । वैद्यः । बृ० द्वि० १४१ अ । गुरु:- गरुमहत्तरएहि-गुर्वो:-मातापित्रोमहत्तरा:-पू धर्माचार्यः । उत्त० १५२ । आचार्यः । 'बृ० तृ० ६५ गौरवार्हत्वेन गुरुवो महत्तराश्च वयसा वृद्धत्वाद्ये ते अ । धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्त्वे- गुरुमहत्तराः । ठाणा० ४६३ । भ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते । प्रज्ञा० १६३ । आय- गुरुयत्ता-गुरुकता-विस्तीर्णता । भग० २१५ । रियो । नि० चू० द्वि० १६४ अ । दीक्षाद्याचार्यः । गुरुलहुपज्जव-गुरुलघुद्रव्याणि-बादरस्कन्धद्रव्याणि औदाभग० ७२७ । चैत्यसाधुः । उपा० १३ । रिकवैक्रियाहारकतैजसरूपाणि तत्पर्यवाः । जं०प्र० १३० । गुरुअब्भुट्ठाणं-गुर्वभ्युत्थानम् । आव० ८५३ । गुरुलहफासपरिणामे- । सम० ४१ । गुरुअमुई-गुर्वमोची-निष्ठुरं निर्भत्सितोऽपि गुरुणाममोचन- | | गुरुवायणोवगयं-गुरुप्रदत्तया वाचनया उपगतं-प्राप्त शीलः । बृ० प्र० १२१ आ । गुरुवाचनोपगतं न तु कर्णाघाटकेन शिक्षितम् । अनु० १६ । गुरुई-गुर्वी-गुरुका । ज्ञाता० १५६ । गुरुविषयं-गुराविदं करणं गुरुकरणम् । आव० ४७१ । गुरुए-गुरुक:-भगवत्याः प्रथमशतके गुरुकविषयो नवम | गुरुसम्भारियत्ता-गुरोः सम्भारिकस्य च भावो गुरुउद्देशः । भग० ६ । सम्भारिकता गुरुता सम्भारिकता चेत्यर्थः । अतिप्रकर्षागुरुओ-गुरुकर्मा । सूत्र० १६७ । वस्था । भग० ४५६ । गुरुक-गुरुक:-षण्मासः । व्य० प्र० ६। ठाणा० १४५ । गुरूणां-आलोचनार्हाणामाचार्यादीनाम् । उत्त० २३३ । वृ० प्र० ४६ अ । गुर्जर:-देशविशेषः । अनु० १३६ । गुरुकुलं-गुरोः कुलं गुरुकुलं-गुरुसान्निध्यम् । आचा०२०३।। गुलं-गुडम् । अनु० १५४ । गुल्म-लतासमूहः । भग० ( ३७० ). 2010_05 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलइय] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ गृहणं गुल्म-स्थानम् । ओघ० ८ । गुलइय-गुल्मवान् । औप० ७ । गुल्मः -रोगविशेषः । बृ० प्र० १७० अ । गुलकडं- । नि० चू० प्र० १६६ आ । गुल्मकं-लतासमूहः । जं० प्र० २५ । गुलगुलाइअ-गुलगुलावित रूपेण । जं० प्र० १४४ । | गुल्मिका-गोत्तिपालाः । ओघ० २२३ । गुलदव-गुलद्रवं नाम यस्यां कवल्लिकायां गुड उत्काल्यते गुवंति-गुप्यन्ति-व्याकुलीभवन्ति । भग० ६७० । तस्यां यत्तप्तमतप्तं वा पानीयं तद्गुडोपलिप्तं द्रवं गुड गुवल-गुप्तः । नि० चू० द्वि० ४० आ। - द्रवम् । बृ० प्र० २५३ अ । गुविते-गुप्येत-व्याकुलो भवेत् क्षुभेद् । ठाणा ० १६२ । गुलपाणिय-गुलो जीए कवल्लीए कड्ढिज्जति तत्थ जं गुविलं-व्याप्तम् । महाप० । पाणीयं कयं तत्तमततं वा तं गूलपाणियं भण्णति । नि० गविला-गम्भीरा । बृ० तृ० २१ अ । चू० प्र० २०४ अ । गविलो-गहणो । नि० चू० तृ० १४६ अ । गुलया-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४१ ।। गुहा-कन्दरा । भग० २३७ । प्रश्न० २० । सुरङ्गाः । जं. गुललावणिका-गुडपर्प टिका । ठाणा० ११८ । प्र०२०६ । लयनम् । उत्त० ४६३ । तिमिश्रागृहादयः । गुललावणिया-गुडलावणिका-गुडपर्पटिका गुडवाना वा ।। नंदी० २२८ । उष्ट्रिकाकृतिर्नरकविशेषः । सूत्र० १३० । सूर्य० २६३ । भग० ३२६ । प्रश्न० १६३ ।। गुहालयन । आचा० २२६ । गुलवंजणी-मोदती । नि० चू० तृ० ६४ अ । गुह्यापवरक:-मन्त्रगृहादि रहःस्थानम् । दश० १६६ । गुलिका-तुवरवृक्षचूर्णगुटिका । बृ० द्वि० १०० आ, गूढं-मांसलत्वादनुद्धतम् । जीवा० २७० । अनुपलक्षम् । १०२ अ । पिटकं बुसपुञ्जो वा पिण्डका वा । बृ० प्रश्न० ८०। द्वि० ६४ आ । गूढगब्भा-गूढगर्भा । आव० २१२ । गुलिगा-लोलगा । नि० चू० द्वि० १४ आ । गूढदंत-जंबुद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिष्यति उत्सपिण्यां तृतीगुलिय-गुटिका । आव० २६६ । यश्चक्रवर्ती । सम० १५४ । गूढदन्तः-अनुत्तरोपपातिकगुलियविरेयणपीओ-पीतविरेचनगुलिकः । उत्त० ३७६ । दशानां द्वितीयवर्गस्य चतुर्थमध्ययनम् । अनुत्त०२ । अन्तगुलिया-गुटिका-द्रव्यवटिकाः । विपा० ४१ । द्रव्यसं रद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ । योगनिष्पादितगोलिकाः । ज्ञाता० १८३ । आव० ६७६ । गूढदंता-गूढदन्तनामा अन्तरद्वीपविशेषः । प्रज्ञा० ५० । हरितालिकासारनिर्वतिता गुटिका । जं० प्र० ३४ । गूढदंतदोवे-अन्तरद्वीपविशेषः । ठाणा० २२६ । वक्कलाणि । बृ० द्वि० १०२ आ । गुटिका वटिका । गूढमुत्तोलि-गूथगोणी । तं । उत्त० १४३ । मुखे प्रक्षेपकस्य स्वरूपपरावर्त्तादिका गूढसामत्थो-गूढसामर्थ्यः । आव० ६४६ । रिका गुटिका । पिण्ड ६६ । गुलिका:-पीठिकाः । गूढसिरागं-गूढशिराक-अलक्ष्यमाणशिराविशेषम् । प्रज्ञा० मनोगुलिकापेक्षया प्रमाणतः क्षुल्लाः । जीवा० ३६३ । ३७ । नीनी । ज्ञाता० १०१ । पीठिका: । जीवा० ३५६ ।। गूढा-गूढा:-बहिःसंवृत्तिमन्तः । उत्त० ५२६ । गलिका:-वर्णद्रव्यविशेषः । औप० ११ । गूढावत्ते-गूढश्वासावावर्त्तश्चेति गूढावतः । ठाणा० २८८ । गुलियासहस्सं-गुलिकासहस्रम् । जीवा० २३३ । गूथं-वर्चः । ओघ० १२३ । गुलुकः-गुल्फ: । जीवा० २७० । गृहग-विष्ठा । तं० । गुलुम्मातितो-सङ्गाभिलाषी। नि० चू० प्र० ३४८ आ। गृहणं-किंचिकहणं । दश० चू० १२४ । सति बलपरक्कमे गुल-गुरु:-आचार्यः । बृ० द्वि० २८३ अ। - अकरणं गृहणं । नि० चू० प्र०१८ अ। गृहनं-किञ्चिगुल्फपाद: । आचा०३ कथनम् । दश० २३३ । ( ३७१) 2010_05 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूहे ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [गेहि गृहे-गृहयेत् । दश ० २३२ । गेरुआ-परिवायया । नि० चू० द्वि० ९८ अ । गुंजनं ।जं० प्र० २४४। गेरुक-मृत्तिकाभेदः । आचा० ३४२ । गृहकोलिका-गृहगोधिका । दश० २३० । गेरुय-गौरिक:-मणिविशेषः । प्रज्ञा० २७ । गेरुअ:-मणिगृहजातः-दासः । उत्त० २६५ । भेदः । उत्त० ६८६ । गृहजामाता-गृहस्थाता दुहितृपतिः । नंदी० १६२। । गेलन-ग्लानत्वम् । ओघ० ८६ । ग्लान्यं-ग्लानत्वम् । गृहणेषणा । आचा० २८३ । ठाणा० ३१३ । गृहपतिः-माण्डलिको राजा। आव० १५६ । गृहस्थः । गेल्लि-हस्तिन उपरि कोलररूपा या मानुषं गिलतीव । आचा० ३२१ । भग० १८७ । गृहपतिरत्न ।जं० प्र० २१९ । विज्ज-प्रैवेयक-ग्रीवा बन्धनम् । प्रश्न०१६ । ग्रैवेयं गृहपत्यवग्रहः-अवग्रहपञ्चके तृतीयो भेदः । आचा० ग्रीवाभरणविशेषः । जं० प्र०१०५। ग्रीवात्राणं ग्रीवा१३४ । माण्डलिकावग्रहः । आव० १५६ । भरणं वा । जं० प्र० २१६ । अवेयक-कण्ठलम् । गृहिव्यापारः-गृहियोगः-प्रारम्भरूपः । दश० २३१ । औप० ५५ । ग्रैवेयं-ग्रीवाभरणम् । जीवा० २५६ । गृहशाला । उत्त०६०५। गेविज्जगा-प्रैवेयकाः । प्रज्ञा० ६६ । गृहस्थो-भिक्षां प्रयच्छन्ती गृहस्थी । ओघ० १६२।। गेविज्जन-लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थाने भवानि अवेयकानि । गृहस्थोपसम्पत्-उपसम्पतौ प्रथमो भेदः । आव० २६७ । ठाणा० १७६ । यत्पुनरवस्थाननिमित्तं गृहिणामनुज्ञापनं सा गृहस्थविषया। गेविज्जा-वेया-देवावासास्तन्निवासिनो देवा अपि । उत्त० बृ० प्र० २२२ अ। ७०२ । गृहाचार:-गार्हस्थ्यं-आगारधर्मः । उत्त० ५७८ । गेवेज्ज-प्रैवेयक-ग्रीवाभरणम् । भग० १६३ । लोकपुरुगृहीतव्यः-निश्चेतव्यः । व्य० प्र० २०५ अ । षस्य ग्रीवाविभागे भवानि विमानानि । अनु० ६२ । गृहे-गृहलिगे। व्य० द्वि०२७ आ। गेहं-गृहम् । उत्त० ३२० । गेंदुए-गेन्दुक:-पृष्पलम्बूसकः । जं० प्र० २७५। गेहसंठिया-गेहस्येव वास्तुविद्योपनिबद्धस्य गृहस्यैव संस्थितं गेदुकदवरक:- ठाणा० २८६ । संस्थानं यस्याः सा गेहसंस्थिता । सूर्य० ६६, ७० । गेंदुग। नि० चू० द्वि० ७१ आ। हागारा-गेहाकाराः भवनत्वेनोपकारिणः । सम० १८ । गेज्जं-गा-यत्र स्वरसञ्चारेण गद्यं गीयते । जं०प्र० ३६ ।। गेहाकारा-नामद्रुमगणाः । जं० प्र० १०६ । ठाणा० गेण्हितुं-गृहीत्वा । आव० ८२७ । ५१७ । गेद्धावरंखी-भोयणकाले परिवेसणाए इतो बाहित्ति | गेहागारो-गेहाकारः द्रुमविशेषः । जीवा० २६६ । गृहाभणितो ताहे गेखो इव रिखंतो भायणं उडेति । नि० कारः-षष्ठः कल्पवृक्षः । आव० १११ । चू० द्वि १०१ अ । गेहावणसंठिय-गृहयुक्त आपणो गृहापणो-वास्तुविद्या. गेधी-सदोसुवलद्धेवि अविरमो गेधी । नि० चू० द्वि० । प्रसिद्धस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्या सा गृहापणसंस्थिता ७१ आ। सूर्य ६६ । गेयं-गन्धव्यो रीत्या बद्धं गानयोग्यम् । जं० प्र० २५६ । गेहावणाइ-गेहेषु आयतनानि आपतनानि वा उपभोगार्थ गोयत इति गेयं-तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं मागमनानि । जं० प्र० ११६ । लयसमं च कव्वं । तु होइ गेयं पंचविहं गीयसन्नाए । गेहावणो-गृहयुक्त आपणो वास्तुविद्याप्रसिद्धः गृहापण: दश० ८७ । ठाणा० ३६७ । सूर्य० ६६ । गेरुअ-गैरिका-धातुः । दश० १७० । गेहि-गृद्धि:-अप्राप्तार्थाकाङ्क्षा । प्रश्न० ६७ । अप्राप्तस्ट ( ३७२ ) 2010_05 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेहिए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [गोडंडेणालिया प्राप्तिर्वाञ्छा । प्रश्न. ४४ । विषयाभिकाङ्क्षा । उत्त० | | गोग्गहणे । ज्ञाता० २२६ । २६४ । गोधायको-गोघातकः । आव० ३९१ । गेहिए-गेहक:-भर्ता। उत्त० १३७ । गोचरः-विषयः । आव० ५८६ । गेही-गृद्धि:-प्राप्तार्थेष्वासक्तिः । भग० ५७३ । गोच्छं-भाजनवस्त्रविशेषः, वक्ष्यमाणलक्षणं प्रमार्जयति । गरिक: । जीवा० २३ । ओघ० ११७ । गोंड-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । गोच्छओ-गोच्छक:-पात्रवस्त्रप्रमार्जनहेतुः कम्बलशकलगोंफा-गुल्फो-घुण्टको । प्रश्न० ८० । रूपः । प्रश्न० १५६ । कंबलमयो बद्धपात्रोपरि । बृ० गो-पूरित्थगतो लोगं तं गच्छतीति । दश० चू० १०३ । द्वि० २३७ अ । गोशब्देन गावोबलिवर्दाः । ६० प्र० १५७ आ । गो- गोच्छकः-यः पात्रकस्योपरि दीयते सः। ओघ० १६६ । गाविओ। नि० चू० द्वि० १३७ अ । गोच्छिया-जातगुच्छाः । ज्ञाता० ५ । गोअ-गोत्र-गुणनिष्पन्नाभिधानम् । औप० ५७ । गोजलोया-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । जीवा० गोअम-विचित्रपादपतनादिशिक्षाकलापयुक्तवराटकमालि ३१ । कादिचितवृषभकोपायतः कणभिक्षाग्राहिणो गोतमाः । गोजिब्भा-गोजिव्हा । प्रज्ञा० ३६७ । अनु० २५ । गौतमः । आचा० ३५६ । गौतमः-आगम चरं । नि० चू० द्वि० १४४ अ। प्रसिद्धो गणधरविशेषः । आव० ४१३ । गोज्ज-नर्तकः । दश० ४६ । गोअरे-सामायिकत्वाद् गोरिव चरणं गोचरः। दश० १८ । गोज्झपेक्खिया-नृत्यविशेषप्रेक्षिका । आव० ६२ । गोउर-गोभिः पूर्यत इति गोपुरं-पुरद्वारम् । जीवा० गोट्ठ-गोष्ठं-गोकुलम् । आव० ७१६ । २७६ । प्रतोली कपाटो वा, पुरद्वारम् । प्रश्न० ८ ।। गोट्ठामाहिल-गोष्ठमाहिल: यः स्पृष्टाबद्ध प्ररूपकः । उत्त० गोपुर-नगरप्रतोली पुरद्वारम् । भग० २३८ । १५३ । सप्तमो निण्हवः । विशे० १००२। विनयगोउलं-धोसं । नि० चू० द्वि० ७० आ । करणभीरुः कूशिष्यः । विशे० ६१४ । अर्थाज्ञाविराधगोकण्णो-गोकर्ण:-अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ । नायां दृष्टान्तः । नंदी० २४८ । गोष्ठामाहिल: यस्माद द्विखुरचतुष्पदविशेषः । प्रश्न० ७ । जीवा० ३८ ।। बद्धिका उत्पन्नाः स आचार्यः । आव० ३१२ । गोष्ठगोकन्न-द्विखुरचतुष्पदविशेष: । प्रज्ञा० ४५ । माहिल:-गच्छप्रधानः श्रावकः । आव० ३०८ । नि० गोकन्नदीवे-अन्तरद्वीपविशेषः । ठाणा० २२६ । गोकर्ण- चू० प्र० ३३५ आ । नामान्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । गोटि-समवयसां समुदायो गोष्ठी । दश० २२ । जनगोकर्ण-मृगभेदः । शृङ्गवर्णादिविशेषः । जं० प्र० १२४ । | समुदायविशेषः । ज्ञाता० २०६ । गोकलिज-डल्ला । जं० प्र० ५८ । गोकलिज नाम यत्र गोठ-गोष्ठः-गोष्ठामाहिल:-अभिनिवेशे दृष्टान्तः । व्य० गोभक्तं प्रक्षिप्यते । राज० १४१ । गवां चरणार्थं द्वि० १७६ अ । यद्वंशदलमयं महद्धाजनं तद्गोकलिज डल्लेति । उपा० दासी-गोष्ठादासी । आव २०१ । २० । गोद्विधम्मो-गोष्ठीधर्म:-गोष्ठीव्यवस्था । दश० २२ । गोकिलिञ्जरं । जीवा० २१३ । ए-गोष्ठीकः । आव० ६२ । विपा० ५५ । गोकुलं-परग्रामदूतीत्वदोषविवरणे ग्रामविशेषः । पिण्ड० गोट्टी-गोष्ठी-जनसमुदायः । ज्ञाता० २०६ । आव० ८२२, १२७ । ८२४ । उत्त० ११२। महत्तरादिपुरुषपञ्चकपरिगृहीता। गोक्षुरकं-त्रिकण्टकम् । ओघ० १२४ । बृ० द्वि० २०० अ। गोखीरफेणो-गोक्षीरफेनः । जीवा० २७२ । | गोडंडेणालिया- । नि० चू० प्र० ४६ आ । (३७३) 2010_05 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोड ] गोड-गोड:- चिलातदेश निवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ । गोड्डु - मौल्यं - गौल्यरसोपेतं मधुररसोपेतमितियावत् । भग० ७४८ । आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः गोण - बलीवर्द: । बृ० प्र० २४७ आ । ओघ० ६७ । आव० २२६ । गौणं गुणनिष्पन्नम्। प्रश्न० ६ । गोणागावः । जं० प्र० १२४ । प्रश्न० ७ । गोणः-गौः । प्रज्ञा० २५२ । गौः । ओघ० २०१ । नि० चू० प्र० I उपा० ४६ ॥ । ज्ञाता० ३५ । २ अ । गवः । आव० १६०, ८२६ । गणपतलओ - गोपेतः । आव ० १६८ । गोणपोयए-गोणपोतको गोपुत्रकौ । गोण लक्खणगोणसं - गोनसं-सर्प जातिविशेषम् । व्य० प्र० २३ अ । गोणस - गोणस: - निष्फणाहिविशेषः । प्रश्न० ७ । गोणसखइयं - गोनस भक्षितम् । आव० ७६४ । गोणसहा - गोधरेकः । उत्त० ६६६ । गोणसा - मुकुली - अहिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । गोणा - बलीवर्दाः । उत्त० ५४८ । गोणा - द्विखुरचतुष्पदविशेषः । जीवा० ३८ । प्रज्ञा० ४५ । गावः । प्रश्न० ३८ । गोणाई - गवादीनि । ओघ० १४२ । गोणादिचमढणा- बलीवर्दादिपादप्रहारादिः । ओघ० ८१ । गोणीगौः । विशे० ६१८ । आव० ९६ । गोणं-गुणादागतं गौणं, व्युत्पत्तिनिमित्तं द्रव्यादिरूपं गुणमधिकृत्य यद्वस्तुनि प्रवृत्तं नाम तदु गौणनाम । पिण्ड ० ४ । गुणनिष्पन्नम् । बृ० तृ० २४८ अ । गोण्णनाम - गुणैनिष्पन्नं गौणं तच्च तन्नामं च गौणनाम । आचा० १६६ / 2010_05 [ गोथूभे तरः प्रवेशमार्गः । जीवा० ३२३ । प्रज्ञा० ४१३ । गवांतीर्थं - तडागादाववतारमार्गे गोतीर्थं ततो गोतीर्थमिव गोतीर्थं - अवतारवती भूमिः । ठाणा० ४८० | गोतित्थसं ठाणसं ठिए-गोतीर्थ संस्थान संस्थितः - क्रमेण नीचर्नीचैस्तरमुद्वेधस्य भावात् । जीवा० ३२५ । गोतिपाला - गुल्मिकाः । ओघ० २२३ । गोत्त- गूयते - शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैर्यत् तद् गोत्रं-उच्चनीच कुलोत्पत्तिलक्षणः पर्यायविशेषः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि गोत्रम्, यद्वा कर्मणोऽपादानविवक्षा गूयते शब्द्यते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् कर्म्मणः उदयाद् गोत्रम् | प्रज्ञा० ४५४ | प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानस्तदपत्यसन्तानो गोत्रम् | जं० प्र० ५०० । सञ्ज्ञा । आव० २७६ । अभिधानम्, कर्मविशेषः । ठाणा० ४५५ । गां-वाचं त्रायते - अर्थाविसंवादनतः पालयतीति, समस्तागमाधारभूतः । सूत्र ० २३५ । गोत्रशब्दो नामपर्यायः । उत्त० १८१ । गौतमगोत्रादि । ज्ञाता २२० । प्रकाशकाद्यपुरुषाभिधानतस्तदपत्यसन्तानो गोत्रम् । सूर्य० १५० १ गोत्र - संज्ञा । विशे० ८७४ । गोत्ता- इतराणि त्वितराणि नामानि । ठाणा ३८६ | तथाविधैकैकपुरुषप्रभवा मनुष्यसन्तानाः उत्तरगोत्रापेक्षया । ठाणा० ३६० । गोत्तासए - गोत्रासकः - हस्तिनापुरे भीमकूटग्राहिदारकः । विपा० ५० । गोत्थुभ - गोस्तुभः - लवणसमुद्रमध्ये पूर्वस्यां दिशि नागराजावासपर्वतः । भग० १४४ । गोथुभति - कौस्तुभाभिधानो यो मणिविशेषः । सम० १५८ । गोतम-भक्तिकर्तव्यतायां दृष्टान्तः । व्य० द्वि० १७२ आ । गोतमगोत्ते - गौतम गोत्रम् । सूर्य० १५० । गोतमा - गोतमस्यापत्यानि गौतमाः क्षत्रियादयः । ठाणा० ३६० । गौतमः - प्रथमो गणधरः । अनुत्त० ३ । ज्ञाता० ११४ | लघुतराक्षमालाचचितविचित्र पादपतनादिशिक्षाकलापवद्वृषभकोपायतः कर्णभिक्षाग्राही । ज्ञाता० १९५ । गोतित्थं - गोतीर्थं - तडागादिष्विव प्रवेशमार्गरूपो नीचो नीचतरो भूदेश: । जीवा० ३०८ । क्रमेण नीचो नीच गोभा - गोस्तूपा - दक्षिणपश्चिम रतिकरपर्वतस्यापरस्यां शक्रदेवेन्द्रस्य नवमिकाऽग्रमहिष्या राजधानी । ठाणा ०२३१ । जीवा० ३६५ । पूर्वदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्य अपरस्यां दिशि पुष्करिणीविशेषः । जीवा० ३६४ । पाश्चात्याञ्जनपर्वतस् पाश्र्चात्यायां पुष्करिणीविशेषः । ठाणा० २३० । गोथूभे - गोस्तुभः - प्राच्यां लवणसमुद्रमध्यवर्त्तिनो वेलन्धरनागराजनिवासभूतपर्वतस्य पौरस्त्याच्चरमान्तादपसृत्य वडवामुखस्य महापातालकलशस्य पाश्चात्यश्वरमान्तो येन ( ३७४ ) | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोथूभो] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ गोमाणसिआ व्यवधानेन भवति । सम० ७१ । वेलन्धरनागराजस्य सूर्य० ६६ । औप० ३ । प्रश्न० ८ । जीवा० २६६ । आवासपर्वतः । देवविशेषः । ठाणा० २२६ । श्रेयांस- प्रतोली । ज्ञाता० २२२ । प्रतोलीद्वाराणां परस्परनाथस्य प्रथमः शिष्यः । सम० १५२ । तोऽन्तराणि । अनु० १५६ । गोभिः पूर्यन्त इति गोपुराणि गोथूभो-गोस्तूपः-भुजगेन्द्रस्यावासपर्वतः । जीवा० ३११ । प्रतोलीद्वाराणि । उत्त० ३११ । प्रथमो वेलन्धरनागराजः, भुजगेन्द्रो भुजगराजः । जीवा० गोपुरसंठिओ-गोपुरसंस्थितः । जीवा० २७६ । ३११ । गोपुरसंठिया-गोपुरस्येव-पुरद्वारस्येव संस्थितं संस्थानं गोदत्ता-ब्रह्मदत्तस्याष्टाग्रमहिषीणां मध्ये द्वितीया । उत्त० यस्याः सा गोपुरसंस्थिता । सूर्य० ६६ । ३७६ । गोपेन्द्रवाचक:-द्रव्यानुयोगे परपक्षनिवर्तकः । दश० ५३ । गोदासे-गणविशेषः । ठाणा० ४५१ । गोप्पतं-गोष्पदं-तत्कल्पं देशविरत्यादिकमल्पतमम् । ठाणा० गोदुह-गोदोहिका । ठाणा. २६६ । २७६ । गोदोहिका-गोर्दोहनं गोदोहिका । ठाणा० ३०२ । गोप्पहेलिया-गोप्रहेल्या । आचा० ४११ । गोदोहिकासन-आसनविशेषः । उत्त० ६०७ । गोफण-गोफण:-प्रस्तरप्रक्षेपकोदवरकगम्पितः शस्त्रविशेषः । गोदोहिया-गोदोहिका । आव० २२७ । आव० ६१३ । गोदोहियाए । आचा० ४२४ ।। गोफणा-चम्मदवरगमया । नि० चू० प्र० १०५ आ । गोदोही-गोदोहिका । आव० ६४८ । | चर्मदवरकमयी । बृ० तृ०६८ अ । गोधमो-अनाचारः । नि० चू० प्र० ११३ आ । गोबर-गोमयः। बृ० प्र० २७० आ । गोध-अलसः । उत्त० २६२ । व्यवहारी । दश० ५६ । गोबहुल-शरवणसन्निवेशे ब्राह्मणविशेषः । भग० ६६० । गोधणं-गोधनं-गवादिद्रव्यम् । आव० ८२५ । गोबहल:-प्रचुरगोमान् शरवणसन्निवेशे ब्राह्मणविशेषः । गोधा-गोधा । प्रश्न०८। म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । आव० १६६ । गोधिका-वाद्यविशेषः । ठाणा० ३६५ । गोब्बरगाम-गूर्बरग्राम:-मगधाविषये ग्रामः । आव ० ३५५। गोधूमजंतर्ग-गोधूमयन्त्रकम् । उत्त० २२३ । गोबरग्राम:-ग्रामविशेषः। आव० २१२। वइरिसगामागोधूमो-गोधूमः-धान्यविशेषः । आव० ८५५ । सन्नं । बृ० तृ० २१७ आ। सन्निवेशः, इन्द्राग्निव युगोधेरक:-गोणसहा । उत्त० ६६६ । भूतिगणधराणां जन्मभूमिः । आव० २५५ । . गोनिषधिका-यस्यां तु गोरिवोपवेगनं सा । ठाणा गोभत्तं-गोभक्तं छगणादि । आव० ६१ । २६६। उपवेशन विशेषः । ६० तृ० २००. अ । गोभत्तकलंदयं- । नि० चू० द्वि० ६१ आ । गोपालओ-गोपालक:-अज्ञातोदाहरणे प्रद्योतलघपत्रः । गोभूमी-सदा गावश्चरति यत्र तेन गोभूमिः । आव०२११ । आव० ६६६ । गोमंडलं-गोवर्ग: । बृ० प्र० १५७ आ । गोपालगिरिः-गिरिदिशेषः । जं० प्र० १६८ । भग० गोमए-गोमयं-छगणम् । भग० २१३ ।। ३०७ । गोमड-गोमृतः-मृतगोदेहः । जीवा० १०६ । गोपालघट: । उत्त० ५५६ । गोमयं-गोकरिसो गोमयं । नि० चू० प्र० २६५ आ । गोपुच्छसंठाणसंठिया-गोपुच्छस्येव संस्थानं गोपुच्छसं- गोमयकीडगो-गोमयकीटक:-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । स्थानं तेन संस्थिता गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता-ऊर्वीकृत-] जीवा० ३२ । गोपुच्छाकारा । जीवा० १७८ । | गोमयकीडा-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । गोपुट्ठए-गोपृष्ठाद्यत्पतितम् । भग० ६८० । | गोमाणसिआ-गोमानस्यः-शय्यारूपाः स्थानविशेषाः । गोपुर-प्राकारद्वारम् । जीवा० २५८ । गोपुरं-पुरद्वारम् ।। जं० प्र०. ३२६ । (३७५.) 2010_05 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोमाणसिया ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ गोयमदीव गोमाणसिया-गोमानस्यः शय्याः । जीवा० २०४, ३५६ । | भेदः । आचा० २६ । राज. ६२ । गोमानसिका: शय्यारूपा:-स्थान विशेषाः। गोमयक-रत्नविशेषः । उत्त० ४५१ । जीवा० २३० । | गोम्मिए-गौल्मिकः- शुल्कपालः । बृ० द्वि० २२८ अ । गोमाणसीओ-शय्याः । जं० प्र० ४६ । । गोम्मिय-गुप्तिपालकः । प्रश्न० ३७ । गोमाणसी-गोमानुषी-शय्यारूपा । जीवा० ३६३ । गोम्मिया-बद्धस्थाना आरक्षकाः । बृ० द्वि० १०६ आ। गोमायु:-शृगालः । प्रज्ञा० २५४ । आचा० १६७ । बद्धस्थाना मार्गरक्षका: । बृ० द्वि० ८३ अ । गुल्मेन गोमायुपुत्ते । भग० ६५६ । समुदायेन चरन्तीति गौल्मिकाः स्थानरक्षपालः । बृ० गोमिज्जए-गोमेजक:-मणिभेदः । प्रज्ञा० २७ । उत्त० द्वि० २६० अ० । गौल्मिकाः ये राज्ञः पुरुषाः स्थानक ६८६ । बद्ध्वा पन्थानं रक्षन्ति । बृ० द्वि० ८३ अ । गोमिनि-गोमिनि-नानादेशापेक्षया गौरवकुत्सादिगर्भमा- गोम्ही-कर्णशृगाली । अनु० २१४ । कण्णसियाली । मन्त्रणवचनम् । दश० २१६ ।। नि० चू० प्र० १६३ अ। त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० गोमिय-गोमिक:-गोमान् । प्रश्नः ३८ । गोम्मिक- ४२ । जीवा० ३२ । कर्णसियालिया । प्रज्ञा० ४२ । गौल्मिक:-गुप्तिपालः । प्रश्न० ५६ । गोय-गास्त्रायत इति गोत्रं-मौनं वाक्संयमः, जन्तूनां जीवि. गोमिया-सूकिया। नि० चू० प्र० १४० अ । दंडपा- तम् । सूत्र० २४६ । गीयते-शब्द्यते उच्चावचैः शब्दः सिया । नि० चू० १६४ अ । ठाणइल्ला । नि० चू० कुलालादिव मृद्रव्यमत आत्मेति गोत्रम् । उत्त० ६४१ । द्वि० ११ आ । गुणनिष्पन्नम् । भग० ११५ । अन्वर्थिकम् । भग ० गोमुत्तिअदट्ट-गोमूत्रदग्धः-गोमूत्रसहितं स्थानम् । ओघ० ५६१ । गोत्रं-गुणनिष्पन्नः । निरय० ७ । गोत्र-अन्वर्थः । ५४ । राज० १३ । सरीरं । दश० चू० ५६ । गोत्र-आन्वगोमुत्तियवूहो-गोमूत्रिकाव्यूहः-गोमूत्रिकाकारसैन्यविन्यास- थिकीसज्ञा । विपा० ४२ । विशेष: । प्रश्न० ४७ । गोयम-प्रथमो गणधरः । नि० चू० द्वि०७७ अ । स्थविर गोमुत्तिया-गोचर्यामभिग्रहविशेषः । नि० चू० तृ० १२ विशेषः । नि० चू० प्र० २०७ आ। गौतम-रोहीणिअ । उत्त० ६०५ । गोत्रम् । जं० प्र० ५०० । गौतमः-अन्तकृद्दशानां गोमुह-गोमुखनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । गोमुखः प्रथमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अन्त० १ । कुमारविशेषः । अन्तरद्वीपविशेषः । जीवा० १४४ । अन्त० २ । भक्तिबहुमाने तृतीयभङ्गे दृष्टान्तः । नि० गोमहदीव-अन्तरद्वीपविशेषः । ठाणा० २२६ । चू० प्र० ८ अ । हुस्वोबलिवर्दस्तेन गृहीतपादपतनादि. गोमुहिए-गोमुखवदुरःप्रच्छादकत्वेन कृतानि गोमुखितानि । | विचित्रशिक्षण जनचित्ताक्षेपदक्षेण भिक्षामटन्ति ये ते ज्ञाता० २३७ । गौतमः । औप० ८६ । एषणासमितिदृष्टान्ते धिग्जातीयगोमुहो-गोमुखी-काहिला-यस्या मुखे गोशृङ्गादिवस्तु श्चक्रकरः । आव० ६१६ । प्रतीच्यां दिशि लवणसमदीयत इति । अनु० १२६ । काहला । ठाणा० ३६५। द्राधिपसुस्थितनामदेवावासभूतो द्वीपविशेषः । प्रज्ञा० गोमूत्रिका-यस्यां तु वामग्रहाद्दक्षिणगृहे दक्षिणगृहाच्च । ११४ । गोनतिका गृहीतशिक्षं लघुकायं वृषभमुपादाय वामगृहे भिक्षां पर्यटति सा गोमूत्राकारत्वात् गोचर- धान्याद्यर्थं प्रतिगृहमटन्ति ते गौतमाः । सूत्र० .१५४ ॥ भूमिरपि । बृ० प्र० २५७ अ । प्रज्ञा० ४७३ । नि० चू० प्र० ३५२ आ । गोमूत्रिकाबन्धः-मुद्रिकाबन्धः । ओघ० १४५ । गोयमकेसिज्ज-उत्तराध्ययनेषु त्रिंशत्तममध्ययनम् । सम० गोमेज्ज-गोमेयक:-रत्नविशेषः । जीका० २०४ । ६४ । गोमेज्जए-गोमेज्जकः । जीवा० २३ । गोमेदक:-पृथिवी गोयमदीव-गौतमद्वीपः-द्वीपविशेषः । सम० ७६ । ( ३७६ ) 2010_05 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोयमसामी ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [गोल्लविसओ गोयमसामी-गौतमस्वामी,प्रथमो गणधरः, । आव० ६५ । गोरूग । नि० चू०प्र० २२६ आ। ज्ञाता० १७०, १७१, १७८, २२६ । अन्त० २२ । गोरूवं-जौः। आव० १८६ । गोयर-गोचरः-भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः । सम० १०७ । गोरे-गोधूमः । बृ० द्वि० १२६ अ। .. नंदी० २१० । भिक्षाटनम् । ज्ञाता० ६१ । गोचरः- गोल-देशान्तरेऽवज्ञासंसूचकः । आचा० ३८८ । गोल:भिक्षाटनम् । भग० १२२ । गोरिव चरणं गोचरः । तत्तद्देशप्रसिद्धितो नष्ठुर्यादिवाचकोऽयं शब्द: श्वा वा । उत्त० ११६ । गोरिव चरणं गोचर:-उत्तमाधममध्यम दश० २१५ । साधोरुपमानम् । दश० १६ । गोले-नानाकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम् । दश० १६३ । देशापेक्षया गौरवकुत्सितादिगर्भमान्त्रणवचनमिदम् । दश० गोयरग्गपविट्ठो-गोरिव चरणं गोचरस्तस्याग्र्यं-प्रधानं २१६ । ज्ञाता० १६७ । वृत्तपिण्डः । ठाणा० २७२ । तस्मिन् प्रविष्टः गोचराग्रप्रविष्ट: । उत्त० ११६ । गोलक:-वर्तुलः पाषाणादिमयः । अनुत्त० १४ : गोयरचरिया-गोश्चरणं गोचरः चरणं-चर्या गोचर इव | गोलगो-गोलक:-जन्तुमयो वर्तृलाकारः । आव० ४१६ । चर्या गोचरचर्या-भिक्षाचर्या । आव० ५७५।। आव० ४२२। गोयरतिअ-गोचरत्रिकं-त्रिकालभिक्षाटनम् । ओघ० ६५। गोलछाया-गोलमात्रस्य छाया गोलच्छाया । सूर्य०६५। गोयारिया-गोचरचर्या । नि० चू० प्र० ६अ। गोलपुंजछाया-गोलानां पुञ्जो गोलपुञ्जो गोलोत्कर गोयावरी-गोदावरी-नदीविशेषः । व्य० प्र० १६३ अ। इत्यर्थः, तस्य छाया गोलपुञ्जच्छाया । सूर्य० ६५ । गोरक्खरा-एकखुरचतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । गोलय-गोलक:-वृत्तोपलः । जं० प्र० ३२६ । पिण्डकः । गोरखुरो-गोरखुर:-एकखुरचतुष्पदः । जीवा० ३८ । उत्त० ५३० । गोरव-गौरवं-अशुभाध्यवसायविशेषः । प्रश्न० ६२ । गोलव्वायणं-गोलव्यायनं-अनुराधागोत्रम् । जं० प्र० ऊवधिस्तिर्यग्गमनस्वभावः । ठाणा० ४३४ । गोरस-गोरसं-गोभक्तादि । आव० ६१ । गोरसः । गोलव्वायणसगोत्ते । सूर्य० १५० । आव० ३४३ । सूत्र० २६३ । गोलांगूल-गोलाङ्गूलं-वानरः । भग० ५८२ । गोरसकुंड-गोरसकुण्डः । आव० ६४१ । गोलाकारे-गोलाकार:-वृत्ताः । सूर्य० २६७ ।। गोरसदवो-गोरसद्रवः-दध्यादिपानकम् । पिण्ड० १५० । गोलावलिछाया-गोलनामावलिर्गोलावलिस्तस्याः छाया गोरसधोवणं-गोरसधावनम् । आव० ६२४ । गोलावलिच्छाया । सूर्य० ६५ । गोरहत्ति-गोरहक:-कल्होटकः । आचा० ३६१ । गोलिका:-भण्डिकाः । ठाणा० ४१६ । गोरहग-गोरथक:-कल्होड: । दश० २१७ । कल्होडकः । गोलिकातणा । ठाणा० ३६० । बृ० द्वि० १३८ आ । गोलिगि-महियविक्कया । नि० चू० तृ० ४५ अ । गोरहसंठितो पासातो । मि० चू० द्वि०६६ आ। गोलियधणयं-गोलिकधनुः । उत्त० २४५ । गोरा-नदीपाषाणशृङ्गिका । बृतृ० १६२ आ । गोधूमा। गोलिया-गोलिका-गन्धप्रधाना शाला । व्य० द्वि० २४८ नि. चु० त० ३७ आ । आ । मथितविक्रायकाः । बृ० द्वि० १५४ आ। गोरी-गौरी-कृष्णवासुदेवस्य राज्ञी । अन्त० १८ । अन्तः गोलियालिगं-अग्नेराश्रयविशेषः । जीवा० १२३ । कृशानां पञ्चमवर्गस्य द्वितीयमध्ययनम् । अन्त०१५ । गोलोममेत्तो-अहस्तप्राप्या-गोलोममात्रा । नि० चू० प्र० चत्वारिमहाविद्यायां प्रथमा । आव० १४४ । बलकोट्ट ३५४ अ ।। ज्येष्ठभार्या । उत्त० ३५४ ।। गोलोमा-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३१ । प्रज्ञा०४१। गोरीपाडलगोरा-गौरी या पाटला पुष्पजातिविशेषस्तद्वद्ये गोल्लविसओ-गोल्लविषयः-गोलदेशः । आव० ४३३ । गौरास्ते गौरीपाटलागौराः। ज्ञाता० २३१ । गौडविषयः-गोडदेशः । आव० ८३० । ( अल्प ० ४८ ) ( ३७७ ) 2010_05 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोल्ला ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [गोह मोल्ला । ठाणा० ३६० । गोशाल:-आजीविकमतप्रवर्तकः । नंदी० २३६ । ... गोल्हाफलं-बिम्वफलम् । प्रभ० ८१ । जीवा० २७२ । गोशालक:-जिनोपसर्गकारीनिह्नवः । विपा० ६४ । सूत्रों गोवगो-गोपः । आव० ३६० । ३८६ । शाता० १६२ । उत्त० ४७ । गोवग्ग-गोरूपाणि । ठाणा ५०२ । गोशीर्ष-चन्दनविशेषः । सम० १३८ । गोवच्छय-गोवत्सः । उत्त० ३०३ । गोशीर्षचन्दनं-चन्दनविशेषः । ज्ञाता० १२८ ।। गोवती-गोपति:-गवेन्द्रः । ज्ञाता० १६१ । गोसंखी-गोशङ्खी-कौटुम्बिक आभीराणामधिपतिः । आव० गोवतीते-गोवतिकः-गोश्चयानुकारी । ज्ञात० १६५ ।। गोवल्लं-गोवल्लायनं-पूर्वाफाल्गुन्या गोत्रम् । जं०प्र०५००। गोसंखो(स)डी-उज्जूहिगा । नि० चू० द्वि० ७१ अ। गोवल्लायणसगोत्ते-पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्रस्य गोत्रम् । सूर्य० गोसंधिओ-गोसन्धिक:-गोष्ठाधिपः । आव० ८६३ । १५० । जं० प्र० ५०० ।। गोस-गोषः-प्रत्यूषः । आव० ७८१ । प्रातः । व्य० प्र० गोवाटादि-कईमः । ठाणा० २१९ । २३६ । गोवालो-यो गाः पालयति गोपालः । उत्त० ४६५ । गोसाल-मङ्खलिपुत्रः । भग० ६५६, ६६० । आव० १६६ । गोपालः । आव० ४१८ । गोसाल सिस्सा-आजीवगा । नि० चू० द्वि०६८ अ । गोवलकंचु-गोवालकञ्चकम् । बृ० द्वि० १०६अ। गोसाला-गोणादि जत्थ चिटुंति सा गोसाला । नि० चू० गोवालकंचुगो-गोवालकञ्चुकः । बृ० द्वि २१७ अ । प्र० २६५ अ। गोवालगमाया-गोपालकमाता शिवा, शृगालिनी। आव० गोसीस-गोशीर्ष-उत्तमचन्दनविशेषः । प्रश्न० १३५ । ६७५ । चन्दनविशेषः । जीवा० २२७ । गोशीर्षनामकचन्दनम् । गोवालवुयं- । नि० चू० प्र० २१२ आ। प्रज्ञा० ८६ । गोवाला-गोपाला:-राजा । नंदी० १५१ ।। गोसीसचंदणं-गोशीर्षचन्दनम् । आव० ११६ । गोवालियाओ ।ज्ञाता० २०४ ।। गोसीसावलिसंटिते-गोशीर्षावलिसंस्थितं-गो: शीर्ष गोगोवाली-गोपाली-संवरोदाहरणे श्रीपार्श्वस्वामिसाध्वी । शीर्ष तस्यावली-तत्पुद्गलानां दीर्घरूपा श्रेणिः तत्समं संस्थाआव० ७१४ । वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । नम् । सूर्य० १२६ । गोविंद-गोविन्दः । आव० ७१३ । भिक्षुविशेषः । नि. गोसे-प्रातः । व्य० प्र० २३५ । उदियमादिच्चे । चू० द्वि० ३६ अ । श्रावकविशेषः । व्य० द्वि० १७६अ। नि० चू० तृ० ७७ अ० । गोविंददत्त-गोपेन्द्रदत्त:-सद्व्यवहारकाचार्यः । तगराया षः । आव० ३५१ । माचार्यस्याष्टमः शिष्यः । व्य० प्र० २५६ अ। समुद्रमध्यवत्तिनः पर्वतविशेषाः । प्रश्न० ९६ । गोविंदनिज्जुत्ति-हेतुशास्त्रभेदः । बृ० तृ० १४२ अ। गोष्ठानि-घोषा । ठाणा० ८८ । गोविंदवायगो-मिच्छादिट्ठी व्रतेसु ठवित्तो पच्छा समत्त- गोष्ठामाहिलः-मिथ्यादर्शनशल्ये दृष्टान्तः । आव० ५७६ । पडिवत्तस्स सम्म आउट्ठस्स मूलं । नि० चू०तृ० १२६ अ।। स्वाग्रहग्रस्तः कश्चित् । सूत्र० २३३ । गोष्ठामाहिलः । नि० चू० तृ० ८३ अ । गोविन्दवाचक:-मूलप्रायश्चित्ते आचा० २०६ । दृष्टान्तः । व्य० प्र० १०३ आ। वाचकविशेषः । नि० गोह-राजपुरुषः । उत्त० १७६ । गोध:-आरक्षः । आव० चू० प्र०२६३ आ। २६६, ३१६ । उत्त० १६२ । अधमः । आव० ४१५ । गो विही । ठाणा०४६८ ।। गोहः-जारः । ओष० ४६ । दण्डिक:-आरक्षकः । गोवृष:-बलीवर्दविशेषः । बृ० प्र० २१३ अ। आव० ६६२ । कर्मकरः । दश० १८१ । प्राकृतः । गोवतिकाः-गोचर्यानुकारिणः । अनु० २५ । आव० ३०१ । उपपतिः । नंदी० १४५ । गोधः । ( ३७८ ) 2010_05 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोहा अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ दश० ८६ । गोहा - गोधा । उत्त० ६६६ । गोधा - भुजपरिसर्पतिर्यग्- ग्रहापसव्यं ग्रहोपरागः योनिकः । जीवा० ४० । गोहिआ - चर्मावनद्धवाद्यविशेषः । दर्दरिकेत्यपरनाम्ना प्रसिद्धा । अनु० १२६ । गोहिका - भाण्डानां कक्षाहस्तगतातोद्यविशेषः । आचा० ४१२ । गोहुम - गोधूमः - धान्यविशेषः । ज्ञाता० २३१ । दश ० १९३ । औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । रूपतोऽपि प्रतिषेध्यानि । जी० २८२ | । बृ० प्र० ६१ आ । ग्रहणवाक्यम्। विशे० ५६३ । ग्रहण शिक्षा - प्रथमा शिक्षा | नंदी० २१० । ग्रहणाभ्यासः । 2010_05 ग्रामकूट: - ग्रामे महत्तरः । नि० चू० ग्रामणीः- आधाकर्मपरिहरणे वणिग् । ग्रामभोगिक :- ग्रामनगरपतिः । ओघ० गोहे-गोधा-सरीसृपविशेषः । भग० ३६५ । गोधा । ग्रामेण जनसमूहेन । सम० ५३ । आव० ९६ । व्यवहारी । दश० ५६ । गोहेहि । नि० चू० प्र० ३४४ आ । गौतम :- रागद्वेषादिसहभावविरहितो गणधर विशेषः । उत्त० २४१ | गौतमस्पापत्यम् । गौतमस्वामी - प्रथमगणधर । आचा० २१ । गौतमादिः - सूत्रत आत्मागमवान् । आव० ५७ । गौरखर:। उत्त० २७० | | गौरवं ऋद्धा नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया । सम०६ । गौरीपुत्राः - भिक्षाकाः । जं० प्र० १४२ । गौर्गलिः -- असञ्जातकिणस्कन्धः । आचा० ८७ । ग्रन्थ-ग्रन्थ- काव्यं धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थनिबद्धं संस्कृतप्राकृतापभ्रंश संकीर्ण भाषानिबद्धं गद्यपद्यगेयचौर्णपदबद्ध वा । जं० प्र० २५६ । विशे० ४१६ । ग्रन्थविच्छेदविशेषः- वस्तु । नंदी० २४१ । ग्रहगृहीतः - उन्मत्तः - दृप्तः । पिण्ड० १६३ । ग्रहणर्क - सूचकम् । उत्त० २४२ । ग्रहण कुल्पिकम् - [ घंटा आव० २३८ । ग्रामरक्ष - त्रिकचत्वादिव्यवस्थितं शक्तिकुन्तादिहस्ता उपचरन्ति । आचा० ३०८ । | जीवा० २८२ । । उत्त० २२६ । प्र० १७६ आ । पिण्ड ० ७२ । ४६ | ठक्कुरः । ग्रामेयकः - ग्राम्यः । नंदी० १४६ । ग्राहः - अभिलाष: । आव० ८१४ । ग्रहणाकुशल:-यो बह्वीभिर्युक्तिभिः शिष्यान् बोधयति, व्याख्याप्रायोग्यः सूरिः । आचा० ३ । ग्राह्यवाक्य:- सर्वत्रास्खलिताज्ञः, व्याख्याप्रायोग्यः सूरिः । आचा० २ । घ घंघसालगिहे - घशालागृहे । पिण्ड० १०५ । घंघशाला - शालाविशेषः । आचा० ३०६, ४०२ । सम० ३८ । घशाला - अनाथमण्डपम् । ओघ० २०० । बृहच्छाला । आव० ६५४ । घट्टनं धर्मकथनं वा तत्राव्यतिरिक्ता बहुकार्पेटिकासेविता वसतिघशाला । व्य० द्वि० २५ अ । आव० ८३३ । बृ० प्र० ६४ । ग्रहणा - शिक्षा आसेवनात्मिका । उत्त० २५२ । ग्रहणावग्रहे। आचा० ४०२ । ग्रहदण्डाः - दण्डाकारव्यवस्थिता ग्रहा - ग्रहदण्डाः ते चान घंचनघोलना- न्यायविशेषः । विशे० ५३७ । घंटए - पिबेत् ( ग० | ·) पनिपातहेतुतया प्रतिषेध्या न स्वरूपतः । जीवा ० २८२ । ग्रहगजितानि - ग्रहचारहेतुकानि गर्जितानि, इमानि स्व घंटलोह - घंटालोहः - यस्मिन्नेव दिने यत्र लोहे घंटाकृता तल्लोहं तस्मिन्नेव दिने विनष्टम् । व्य० द्वि० २०२ अ । घंटा - सियालो । बृ० प्र० ११६ अ । किङ्किण्यपेक्षया | ( ३७६ ) ग्रीवा-लोकपुरुषस्य त्रयोदशरज्जूपरिवर्त्तीप्रदेशः । उत्त ७०२ | कोटा | प्रश्न० ५६ । आचा० ३८ । गोवाग्रहः - ग्रीवाग्रहणं - प्रतिमल्लेनापरमल्लस्य गलग्रह्णम् । वि० १३० । ग्रैवेयकाणि-लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि विमानानि । आव० ४० । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घंटाजालं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ घटा किञ्चिन्महत्यो घण्टाः । जीवा० १८१ । जं० प्र० २३ । घद्रग-घटक: येन पाषाणकेन पात्रं नवलेपं मसृणं क्रियते । घंटाजालं-किङ्किण्यपेक्षया किञ्चिन्महती घण्टा तज्जालम् । ओघ० १४४ । पाषाणक:-येन पात्रक लेपितं सद् घृष्यते। जीवा० १८१ । ओघ० १३० । घट्टकः । अणा० ३३६ । घंटापासगा-घण्टापा-घण्टैकदेशविशेषाः। जं०प्र० ५३। घगरइतं-घटकेन रचितं-मसृणितं-घृष्टम् । ओघ०१४५। घंटापासो-घण्टापार्श्वः । जीवा० २०७ ।। घद्रण-घट्टनं खागतिः । प्रज्ञा० ३२६ । आव ७९१ । घंटि । नि० चू० द्वि० ६४ आ। चालकम् । दश० १५२ । पिण्ड ० १७१ । चलनम् । घंटिआ-घण्टिका:-घण्टावादकाः । जं० प्र० १८२ । ओघ० १३६ । आहननम् । ओघ० ५२ । घट्टनंघण्टिका-घरिका: । जं० प्र० १०६ । मिथश्चालनम् । दश० २२८ । सजातीत्यादिना चालघंटिकयक्षः-कुलदेवता । ७० प्र० २१५ अ । नम् । दश० १५४ । घटनानि-जालादीनि चलनानि । घंटिक्करग-स्थालः। नि० चू० द्वि० ६१ अ । ओघ० १८१ । आव० ५४० । घंटिया-घण्टिका: । प्रश्न० १५६ । अषण विधिविशेषः । घटणता । ठाणा० २८० । जीवा० २६६ । क्षुद्रघण्टा: । जं० प्र० ५२६ । घट्टणया-वङ्कगतेः प्रथमो भेदः । घट्टनता । प्रज्ञा० ३२८ । घंटियाजाल-घण्टिकाजालं किङ्किणीवृन्दम् । भग०४७८ । घट्टनता-अक्षिण रजः प्रविष्ठं मर्दित्वा दुःखयितुमारब्धम्, घंतु-धातुक:-हननशील इति । उत्त० ४३६ । स्वयमेवाक्षिण गले वा किञ्चत्सा लुकादि उत्थितं घट्यति। घंसण-चन्दनस्येव घर्षणन् । आव० २७३ । विशे०८४३ । आव० ४०५ । घंसिका-अनुरङ्गा यानविशेषः । बृ० द्वि० १२५ आ। । घट्टणा-घट्टना-चलनम् । ओघ० २२ । घंसित्ता-घृष्ट्वा । आव० ८३१ । घट्टनता-अक्षिकणुकादेः । आचा० २५५ । घंसियगा-घर्षितकाश्चन्दनमिव दृषदि । औप० ८७ । घट्टना-कदर्थना । आचा० २६३ । घओदए-घृतोदकं-बादरः अकायिकविशेषः । प्रज्ञा०२८। घट्टयंतं-वस्त्वन्तरं स्पृशन्तम् । ठाणा० ३८५ । घट । आव ० २८० । घट्टिओ-घट्टितः-मुद्रितः । दश० ६२ । घटक:-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । घट्टित-घट्टित:-प्रेरितः । प्रश्न० ५६ । सुष्ठुतरं परिताघटकार:-स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तः । नंदी० १६५ । पितः । बृ० तृ० ८१ आ। घटखप्पर-कपालः । आचा० ३११ । घट्टितघट्टनं-घट्टितानि-संबद्धानि घट्टनानि जालादीनि चलघटना-अप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना । भग० नानि यस्य सः । आव० ५४०, ५४६ । ओघ० १८१ । .४८४ । घट्टिय-घट्टितः-सुविहितोपायः । धीवरादिकृत उपायः । घटाभोज्य-महत्तरानुमहत्तरादिर्बहिरावासितः । व्य० द्वि० | पिण्ड ० १७१ । घट्टितः-स्पष्ट: । प्रश्न० ६० । परस्परं ३६२ अ। घर्षयुक्ता । जं० प्र० ३७ । घटिकालय । ठाणा० १२२ पति अगुल्या मसूणानि करोति । ओध० १४३ । घटिकालयादीनि-येष्वतिसम्पीडिताङ्गा दुःखमाकृष्यमा- घट्रेइ-घट्टयति स्पृशति । ओघ० २११ । हस्तस्पर्शनेन णा:-बहिनिष्कामन्ति जन्तवः । उत्त० २४७ । घट्टयति । ज्ञाता० ६६ । घटिज्जंताणं । राज० ५२ । घट्टे-घट्टयित्वा-तिरस्कृत्य । ओष० १६२ । घट्टइ-सर्वदिक्षु चलति, पदार्थान्तरं वा स्पृशति । भग० घट्टे-घृष्टं पाषाणादिना उपरि घर्षिते । सूर्य० २६३ । १८३ । घट्टते-परस्परं संघट्टमाप्नोति । जीवा० ३०७। जीवा० १६० । घट्टए-लिप्तपात्रमसृणताकारकः पाषाणः । बृ० द्वि० २५३ घट्टा-घृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् । सम० १३८ । प्रज्ञा० ८७ । घृष्टा इव घृष्टा खर( ३८०) 2010_05 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ घणदंतदोवे शाणया पाषाणवत् । जं० प्र०२० । येषां-जङ्गे श्लक्ष्णी- भग० ४८४ । अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या। ज्ञाता०६० । करणार्थ फेनादिना घृष्टे भवतस्तेऽवयवावयविनोरभेदो. | घडीमत्तयं-घटीमात्रक-घटीसंस्थानं मुन्मयभाजनविशेषः । पचारात् घृष्टाः । अनु० २६ । घृष्टा इव घृष्टा खर. | बृ० द्वि० २६ आ । शाणया प्रतिमेव । औप० १० । घृष्टा-जनासु दत्त- घडेति-घटयन्ति संयोजयन्ति । जं० प्र० ३६४ । फेनका । ओघ० ५५ । घृष्टा । ठाणा० २३२ । । घडेमि-घटयामि । आव० ४२० । घड-घटकार:-कर्मजायां बुद्धौ दृष्टान्तः । नंदी० १६५। | घणंगुले-घनाङ्गुलम् । अनु० १७३ । प्रतरश्च सूच्या घटा-समृदायरचना । भग० २१५ । गुणितो दैर्येण विष्कम्भतः पिण्डतश्च समसङ्ख्यं घनाङ्घडओ-घटः । आव० ४२३ । घटक: । आव० ५५६ । । गुलम् । अनु० १५८ ।। घडक-घटक: । अनु० १५२ । घगं-अन्यान्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशतो निबिडा । जीवा घडणं-घटनं-अप्राप्तसंयमयोगप्राप्तये यत्नः । प्रश्न० १०६।। १८७ । घनं-वादित्रविशेषः । जं० प्र० ४१२ । धनम् । घडण-घटक:-लघुर्घट: । जं० प्र० १०१ ।। आव० २०८, ८३८ । घन-कांस्यतालादि । जीवा० घडणजयणप्पहाणी-घटनं-संयमयोगविषयं चेष्टनं यतनं- २६६ । निविडा । ओघ० ३० । निश्छिद्रम् । ज्ञाता० तत्रवोपयुक्तत्त्वं ताभ्यां प्रधान:-प्रवरः घटनयतनप्रधानः । २। घनं-कंसकादि। जीवा०२४७। देवविमानविशेषः । उत्त० ५२२ । सम० ३७ । कोटगपुडगादिगंधा । नि० चू० तृ० १ घडणा-घटना-परस्परादिघर्षणा । विशे० ५३७ । अ। कलुषः । बृ० द्वि० १३८ अ । घनः-यस्य राशेर्यो घडदास-घटदास । आचा० ३८८ । वर्गः स तेन राशिना गण्यते ततो घनो भवति । प्रज्ञा० घडदासी-घटदासी-जलवाहिनी । सूत्र० २४५ । २७५ । निविडप्रदेशोपचयः । सूर्य० २८६ । घनाकारं घडभिंगारो-घटभृङ्गार:-जलपरिपूर्णः कलशभृङ्गारः ।। वादित्रम् । सूर्य० २६७ । व्याप्तः । प्रज्ञा० ३६ । घन:औप० ६६ । सङ्ख्यानं यथा द्वयोर्धनोऽष्टौ । ठाणा० ४६६ । धनःघडमुह-घटमुखं, घटकमुखमिव मुखं तुच्छदशनच्छदत्वात् । बहुलत्तरः । जीवा० २०७ । स्त्यानीभूतोदकः पिण्डीभग० ३०८ । भूतो वा । जीवा० ६१ । घनं-काश्यतालादिकम् । घडमुहपवत्तिए-घटमुखेनेव कलशब्दनेनेव प्रवर्तितः-प्रेरितः | भग० २६७ । जं० प्र० १०२ । चतुःषष्टिपदात्मकं घटमुखप्रवत्तितः । सम० ८५ । तपः घनतपः । उत्त० ६०१ । घडा-गोष्ठी । बृ० द्वि० १८८ आ । गोट्ठी । नि० चू० | घणकडियकडिच्छा-अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद् बहलप्र० १५६ आ। महत्तरानुमहत्तरादिगोष्ठीपुरुषसमवाय- निरन्तरच्छायः । भग० ६२८ । लक्षणा । बृ० तृ० ६ आ। घटा-समुदायः । भग० ८३ । | घणकडियकडिच्छाए-अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद् बहुल घडाविओ-योजितः । आव० ६८८ । निरन्तरच्छायः । औप०६ । घडिगा-घटिका-मृन्मयकुल्लडिवा । सूत्र० ११८ । घणकरणं-घनकरणं-यथायोगं निधत्तिरुपतया निकाचनाघडिगापोद्रवत- । नि० चू० द्वि०४१ आ। रूपतया वा व्यवस्थापनम् । पिण्ड० ४१ । घडितव्वं-घटितव्यं-अप्राप्तेष योग: कार्यः । ठाण०४४१। | घणकूड़ा-घनकूड्या-पक्वेष्टकादिमयभित्तिकाः। ब्र० प्र० घडिय-घटितं-संयोगो जातः । आव० ८२४ । कूपितम्। ३१० आ । दश० ११५ । घणगणियभावणा-घनगणितभावना । जीवा० ३२५ । घडियनाती-घटितज्ञाति:-दृष्टाभाषितः । व्यद्वि०५५ अ। घणघणाइय-घनघनायित: घणघणायितरूपः । जं० प्र० घडियल्लय-घटितः । आव० ४१० । घडियन्वं-अप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या । घणदंतदीवे-अन्तरद्वीपविशेषः । ठाणा० २२६ । (३८१ ) 2010_05 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणदंता ] घणदंता - घनदन्तनामा अन्तरद्वीपः । प्रज्ञा० ५० । घणदन्तो- घनदन्तः - अन्तरद्वीप विशेषः । जीवा० १४४ । घणमुई - जस्स मुइंगस्स घणसहसारित्थो सद्दो सो घणमुई । नि० चू० द्वि० १७१ आ । घणमुइंग - मेघसदृशध्वनिर्मुरजः । जं० प्र० ६३ । घणमुयंगो-घनमृदङ्गः - घनसमानध्वनियों मृदङ्गः । जीवा० २१७ । पटुना पुरुषेण प्रवादितः घनसमानध्वनिर्यो मृदङ्गः । जीवा० १६२ । घणवट्टे - सर्वतः समं घनवृत्तम् । भग० ८६१ । घणवाए - घनवातः - घनपरिणामो वातो रत्नप्रभापृथिव्याद्यधोवर्त्ती । जीवा० २६ । घनवातो धनपरिणामो रत्नप्रभा पृथिव्याद्यवर्ती । प्रज्ञा० ३०, ७७ । घणवाय- घनवातः - अत्यन्तघनः पृथिव्याद्याधारतया व्यवस्थितः हिमपटलकल्पः । आचा० ७४ । आचार्य श्री आनन्दसागरसू रिसङ्कलितः 2010_05 तालकं सालादि । आचा० ४१२ । घनकडियकडच्छाए - कटः सञ्जातोऽस्येति कटितः -कटान्तरेणोपरि आवृत इत्यर्थः कटितवासी कट कटितकट: घना - निविडा कटितटस्येवाधो भूमौ छाया घनकटितकच्छायः । जीवा० १८७ । घणवायवलय । प्रज्ञा० ७७ । घणवाया - रत्नप्रभाद्यधोवर्तिनां घनोदधिनां विमानानां वाssधारा हिमपटलकल्पा वायवो घनवातः । उत्त० ६६४ | घणविज्जुया| भग० ५०४ । ठाणा० ३६१ । घणसंतानिया - घनसत्तानिका घनतन्तुका । ओघ० ११८ घणसं मद्दे - घनसम्मर्दः यत्र चन्द्रः सूर्यो वा ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा मध्ये गच्छति स योगः | सूर्य० २३३ । घणोदधिवलए - घनोदधिवलयः - वलयाकारघनोदधिरूपः । घयउरा - घृतपूर्णाः । उत्त० २१० । [ घर घनगुप्तः - नामशिल्पः । विशे० ६२७ । | घनतपः - षोडशपदात्मकः प्रतरः पदचतुष्टयात्मिकया श्रेण्या गुणितो- घनो भवति, आगतं चतुःषष्ठिः ६४ स्थापना तु पूर्विकैव नवरं बाहल्यतोऽपि पदचतुष्टयात्मकत्वं विशेषः, एतदुपलक्षितं तपो घनतप उच्यते । उत्त० ६०१ । घनपरिमंडलं- चत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं चत्वारिंशत्परमा वात्मकं च तत्र तस्या एव विंशतेरुपरि तथैवान्या विंशतिरवस्थाप्यते । प्रज्ञा० १२ । घनोदधि - घनः - स्त्यानो हिमशिलावत् उदधिः - जलनिचयः स- चासौ चेति घनोदधिः । ठाणा० १७७ । घनोपलः - करकः । प्रज्ञा० २८ । धम्मपक्कं - धर्मपक्वम् । विपा० ८० । धम्मो धर्मः । आव ० ३४६ । घय - घृतवरः - क्षीरोदसमुद्रानन्तरं द्वीपः । प्रज्ञा० ३०७ । द्वीपविशेष: । अनु० ६० । घृतं - आज्यम् । दश० १८० १ घृतविक्रय, कर्म्मजायां बुद्धी दृष्टान्तः । नंदी० १६५ । जीवा० ६५ । धत्तह - यतध्वम् । तं । धत्तामो - क्षिपामः दिशो दिशि विकीर्णसैन्यं कुर्मः । जं० घयणो - घृतान्नः । आव० ४१६ । भाण्डः । बृ० प्र० प्र० २३३ । २१३ । घत्तिय प्रेरितः । ओघ० १३७ । घयपुण्णो- घृतपूर्णाः । उत्त० २०६ । घत्तिया - दूरमुत्सारिताः । पउ० २८-६०६ । घत्तिहामि यतिष्ये । विपा० ८३ । धत्तेह - प्रक्षिपत । जं० प्र० २४० ॥ घत्थं - ग्रस्तं - अभिभूतम् । आव० ५८८ । घत्थे - गृहीताः । पिण्ड० ४७ । घत्थो - ग्रस्तः । मर० । घमंडो- घृतमण्ड : - घृतसारः । जीवा० ३५४ | घयमे - घृतवत् स्निग्धो मेघो घृतमेघः । जं० प्र० १७४ । घयवरो - घृतवरः द्वीप विशेषः, घृतोदकवाप्यादियोगाद् धृतवर्णदेवस्वामीकत्वाच्च द्वीपः । जीवा० ३५४ । धविक्किणओ - घृतविक्रायक: । आव० ४२७ । विविकणिया-घृतविक्रायिकाः । आव० १९७ । घरंतरं - घरंतरा उपरेण जंतं घरंतरं । नि००प्र० १८७ । घन-घनतपः । उत्त० ६०१ । स्त्यानो हिमशिलावत् । ठाणा० १७७ । वाद्यकशब्दविशेषः । ठाणा० ६३ । हस्त- | घर-गृहाणि सामान्यजनानां सामान्यानि वा । अनू० ( ३८२ ) घयकुडो - घृतकुटः - घृतकुम्भः । आव० ३१० । घयणं - भाण्डः, औत्पत्तिको बुद्धौ दृष्टान्तः । नंदी० १५३ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घरओ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ घिसिसिखासे १५६ । गृहम् । आव ० ५८१, ८४५ । गृहं-सामान्यम् । घसिरो-बहुभक्खगो। ओघ०१८ । नि० चू० प्र० २०१ प्रश्न० ८। घरओ-गृहम् । आव० ३६१ । घसो-भूराजिः । जीवा० २८२ । स्थलादधस्तादवतरणम् घरकुटीए-बहिरवस्थितं धनकादि, अथवा तत्कलहिका- आचा० ३३८ । न्तर्गतकुट्यां वा निवसति । आव० ५७ । घाए-घातः-गमनम् । सूर्य० ८, ४६ ।। घरकोइल-गृहगोधिका । पिण्ड० १०३ । घाओ-घाता:-प्रहाराः । ज्ञाता० ६६ । संपीडनम् । घरलोइलओ-गृहकोकिल:-गृहगोधा । आव० ३८६ । ओघ० १३६ । घरकोइलिमा-गृहकोकिलिका-घरोलिका । ओध० १२६। घाड-घाट :- मस्तकावयवविशेषः । पुरुषादिवधः । ज्ञाता० घरकोइलिया-गिहिकोइला । नि० चू० प्र० १८२ आ। गृहकोकिला-गृहगोधिका । आव० ७११ । घाडामुह-घाटामुख-शिरोदेशविषयः । भग० ३०८ । घरकोइलो-गृहकोकिला । आव० ६४१ । घाटामुख-कृकाटिकावदनम् । जं० प्र० १७० । घरघरओ-घरघरक:-कण्ठाभरणविशेषः । जं० ५२६ । धाडिए-मित्रम् । नि० चू० द्वि० ७८ अ । घरचिडओ-चटकः । नि० चू० द्वि० ३३ आ । घाडिय-सहचारी । ज्ञाता० ८६ । मित्रम् । नि० चू० घरछाइणिया-गृहच्छादनिका । उत्त० १४७ । द्वि० १२७ अ । घरछादणिया-गृहच्छादनिका । आव० ३४३ । घाणं-तिलपीडनयन्त्रम् । पिण्ड० १७ । घ्राणं-गन्धः । घरजामाउ-गृहजामाता । ज्ञाता० २०१ । प्रज्ञा०६०१। घ्राणो-गन्धो गन्धोपलम्भक्रिया वा । गन्धघर-घंटी, यन्त्रविशेषः । ओघ० १६५। भ्रमणकल्पम् । गुणः । भग० ७१३ । घ्रायत इति घ्राणो-गन्धगुणः । दश० ११४ । भग० ७५३ । घरणी-गृहिणी । आव० २२४ । घाणामाड-घ्राणमयात् । ठाणा० ३६६ । घरवइ-गृहाणां वृतिः । बृ० प्र० १८४ अ। घाणिदिए-नाणेन्द्रियम् । प्रज्ञा० २६३ । घरवगडा-गृहवगडा-गृहवृतिपरिक्षेपः । बृ० प्र० ३०६आ। घाणो । औघ० १६६ । घरसमुदाणिया-गृहसमुदान-प्रतिग्रहम् । औप० १०६ । धात-हन्यन्ते प्राणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् घात:घरा-गृहाणि सामान्यतः । जं० प्र० १०७ । गृहाणि- नरकः । सूत्र० १२८ । प्रासादाः । दश० १६३ । गृहाणि सामान्यजनानांघातिकर्म-वेदनीयादिकर्म । प्रज्ञा० ५६५ । सामान्यं वा । भग० २३८ । . घातो-घात:-देशतो घातनम् । प्रश्न. १३७ । घरास-घरावासो। नि० चू० प्र० २०५ आ । गृहवासः।। घाय-धात्यन्ते-व्यापाद्यन्ते नानाविधैःप्रकारैर्य स्मिन् प्राणिनः बृ० द्वि० २०७ अ । स घातः-संसारः । सूत्र० १६१ । घरोइला-भूजपरिसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । घायए-घातकः योऽन्येन घातयति । जं० प्र० १२३ । घरोलिका-गृहकोकिलिका । ओघ० १२६ । घायओ-घातक:-योऽन्येन घातयति । जीवा० २८० । घरोलिया-भुजपरिसर्पतिर्यग्योनिकः । जीवा० ४०. ।। घायणा-घातना-प्राणवधस्य षष्ठः पर्यायः । प्रश्न० ५ । घर्मा-आद्यभूमिः । आव० ६०० । घालती-गृहीतभाण्डाः । निरय० २५ । घल्छइ-क्षिपति । पउ० ६२-१२ ।। घास-ग्रासम्-आहारम् । उत्त० ६०६ । ग्रासम् । उत्त० घसा-जत्य एगदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सम्वो वलइ २६४ । पासा:-बृहत्यो भूमिराजयः । आचा०४११ । सा । दश० चू० १०२ । शुषिरभूमिः । दश० २०५। अस्यत इति ग्रास:-आहारः । सूत्र० ४६ । औप० ३८ । घसिरं-प्रसिता-बहुभक्षी । बृ० प्र० २४८ अ । घिसिसिखासे-ग्रीष्मकाले, शिशिरकाले, वर्षाकाले। ओष ( 3) 2010_05 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घिसु ] आचार्य श्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः २०५ । घिसु - ग्रीष्मे । उत्त० १२३ । घिणा - घृणा - पापजुगुप्सालक्षणा । प्रश्भ० ५ । आव० ३५१ । घिणीअण्णो- जीवदयालु । नि० ० प्र० १२० अ । धीरोलिय - गृहको कलिकाः - गृहगोधिकाः प्रश्न० ८ । घुंटकः - गुल्फः । प्रश्न० ८० घुंटिउ - पीत्वा । तं । घुट्टति - पिबन्ति । नंदी० ६३ । घुट्टा-छुट्टक:- लेपितपात्र मसृकारकः पाषाणः । पिण्ड० ६ । घुण:- काष्ठनिश्रितो जीवविशेषः । आचा० ५५ । घुणकीटक :- सचित्ताचितवनस्पतिशरीरेऽपि कीटविशेषः । सूत्र० ३५७ । घुणक्खर - घुणाक्षर:- न्यायविशेषः । दश० १११ । घुणखइयं घुणखादितं - कोलावासः । आव० ६५६ । घुणचुण्णघुणचूर्णं - अचित्तचूर्णम् । विशे० ६६० । घुणाक्षर करणं - न्यायविशेषः । दश० १५८ । घुणितं - णाणं आवासो घुणितं काष्टमित्यर्थः । नि० चू० प्र० २५५ आ । घुरघुरायमाणं - अन्तर्नदन्तं - गलमध्ये रवं कुर्वन्तम् । सम० ५२ । घुघुरंघुघुरकं घुघुरा दि 2010_05 । सूत्र० ३२१ । । उत्त० ३१२ । । विपा० ५६ । | नंदी० १६५ । | आचा० ३६१ । घृत विक्रयीघृतोदः - घृतवरद्वीपानन्तरं समुद्रः । प्रज्ञा० ३०७ । घृतरसास्वादः समुद्रः । अनु० ६० । घृष्टःघेच्चिओ-पिट्टितः । आव० २०६ । घेच्छति - ग्रहीष्यति । आव० २३४ । घेत्थिहि ग्रहीष्यति । आव ० २९३ । घोच्छामो - गर्हिताः स्म । आव ० ९० । घोड-घोटकः । ग० । घोटा डं ( डि) गरा: । व्य० द्वि० २३३ आ । घोडए - घोटक:- अश्वः । प्रज्ञा० २५२ । घोडओ - घोटक:- सामान्योऽश्वः । जीवा० २८२ । घोडगा - एकखुरचतुष्पदविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । घोडगो - घोटक:- अश्वः । आसुव्व विसमपायं गायं ठावित्तु ठाइ उस्सगे । आव ० ७६८ । बलीवर्दः । नि० चू० तृ० [ घोरगस ३७ आ । घोडमादो - असंखंडी दोषविशेषः । नि० चू० द्वि० ३२ अ । घोडयगीवो-घोटकग्रीवः । आव० १७६ । घोडा - घोट्टा - चट्टा, जूअकारादिधुत्ता । नि० चू० प्र० घोणसो - सर्पः । आव ० ४२६ । घुलति-भ्राम्यति । उत्त० १५० । घुल्ला - घुल्लिका । जीवा० ३१ । घुल्लाः- धुल्लिकाः द्वीन्द्रिय- घोणा - नासिका । जं० प्र० २३६ । १५२ । जीवविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । घूमायमान:। ज्ञाता ० घूय- घूक : - कौशिकः । ज्ञाता० १३८ । घूरा-जङ्घा खलका वा । सूत्र० ३२४ । घूर्णितचेतस:। नंदी० १५२ । घृत - स्निग्धस्पर्शपरिणता घृतादिवत् । प्रज्ञा० १० । घृतपूपः - घृतनिष्पन्न: पूपः । आव० ४५८ । घृतपूर्ण - सुपक्ववस्तुविशेषः । उत्त० ६१ । अशनम् । आव० ८११ । घृतवारका: २०७ । चट्टा | बृ० तृ० ६६ आ । बृ० प्र० ३११ अ । बृ० द्वि० ३० आ । घोडो - घोटः- एकखु रचतुष्पदविशेषः । जीवा० ३८ । घोण-नासा । प्रश्न० ८२ ॥ घोर - घोर:- अतिनिर्घृणः, परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य निर्दयः, आत्मनिरपेक्षः । भग० १२ । घोरःनिर्घणः परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमधिकृत्य निर्दयः, अन्यैरनुचरो वा । सूर्य० ५ । घूर्णयतीति घोर:निरनुकम्पः । उत्त० २१७ । प्राणसंशयरूपम् । आचा० १४ | आत्मनिरपेक्षम् । ठाणा ० २३३ । घोरं-हिंस्रा । भग० १७५ । रौद्रम् । दश० १६७ । घोरो - निर्घृणः परिषहेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां विनाशे कर्त्तव्ये । अन्ये त्वात्मनिरपेक्षं घोरम् । ज्ञाता० ८ । | विशे० ६३७ || घोरगत - घोरगात्रम् । उत्त० ३०३ । ( ३८४ ) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोरगुणे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [चंचलायमाणं घोरगुणे-घोरा:-अन्य१रनुचरा गुणा ज्ञानादयो यस्य स । प्र० ११७ । गोष्ठः । ठाणा० ८५ । घोषः-दशमो सूर्य० ४ । अन्यैर्दुरनुचरा गुणा मूलगुणादयो यस्य सः । दक्षिणनिकायेन्द्रः । भग० १५७ । जीवा० १७० । स्तभग० १२ । नितकुमाराणामधिपतिः । प्रज्ञा० ६४ । निनादः । घोरतवस्सी-घोरतपस्वी-घोरैस्तपोभिस्तपस्वी । भग जीवा० २०७ । १२ । सूर्य० ४ । घोसगसद्दो-घोषकशब्दः । आव० ४२४ । घोरपरक्कमो-घोरपराक्रमः-कषायादिजयं प्रति रौद्रसा- घोसण-घोषणं । आव० ११५ । मर्थ्यः । उत्त० ३६५ । घोसवई-घोषवती सेनाविशेषः । आव० ५१४ । घोरबंभचेरवासी-घोरं-दारुणं अल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वात् | घोसवती-घोषवती-प्रद्योतराज्ञो वीणा । आव० ६७४ । ब्रह्मचर्य यत्तत्र वस्तु शीलं यस्य स घोरब्रह्मचर्यवासी । घोससम-घोषा-उदासादयस्तैर्वाचनाचार्याभिहितघोषःसमंसूर्य० ४ । भग० १२ । घोषसमम् । अनु० १५ । घोरमहाविसदाहो-घोरा-रौद्रा महाविषा-प्रधानविषयु- घोसा-निनादः । जं० प्र० ५३ । क्ता । दंष्ट्रा-आस्यो यस्य स घोरमहाविषदंष्ट्रः । आव ० घोसाइ-घोषा-गोष्ठानि । ठाणा० ८६ । घोसाडइ-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । घोरविसं-परम्परया पुरुषसहस्रस्यापि हननसमर्थविषम् । घोसाडए-घोषातकी । प्रज्ञा० ३६४ । भग० ६७२ । घोसाडयं-घोषातकम् । प्रज्ञा० ३७ । घोरवओ-घोरव्रतः-धृतात्यन्तदुर्धरमहाव्रतः । उत्त०३६५। घोसाडिफलं-घोषातकीफलम् । प्रज्ञा० ३६४ । घोरा-झगिति जीवितक्षयकारिणी औदारिकवतां, परि- घोसाडियाकुसुम-घोषातकीकुसुमम् । जं० प्र० ३४ । जीवितानपेक्षा वा । प्रश्न० १७ । जीवा० १६१ । घोरासम-घोराश्रमः-गार्हस्थ्यम् । उत्त० ३१५ । | घोसेह-घोषयत-कुरुत । ज्ञाता० १०३ । घोलण-घोलनं-अङ्गुष्ठकाङ्गुलिगृहीतसञ्चाल्यमानयूकाया | घ्राणं-पोथः । जं० प्र० २३७ । इव । आव० २७३ । अङ्गुष्ठकागुलिगृहीतसंवाल्यमानयूकाया इव घोलनम् । विशे० ८४३ । घोलिओ-घूर्णित: । आव० ३०३ ।। चंकमंत-चङ्क्रममाणः । ज्ञाता० २२१ । घोलितः । नंदी० १६२ । चंकमणं-चक्रमणं-गमनम् । आव० ५२६ । घोलियया-घोलितका दधिघट इव पट इव वा । औप० | चंकमणगं-प्रचङ्क्रमणक-भ्रमणम् । ज्ञाता० ४१ । ८७ । | चंकमणिया-चक्रमणिका-गतागतादिका । आव ५५८ । घोष। ठाणा० २०५। | चंक्रमणभूमिः । ओघ० १२२ । घोषविशुद्धिकरणता-उदात्तानुदात्तादिस्वरशुद्धिविधायि- चंक्रमणिका । ओघ० १२२ । ता । उत्त० ३६ । चंगबेरे-चङ्गबेरा-काष्ठपात्री । दश० २१८ । घोषातको-कटुकवल्लीविशेषः । नंदी० ७७ । चंगिक-औदारिकम् । ओघ० ६० । घोसं-नर्दितम् । ज्ञाता० १६१ । देवविमानविशेषः । चंगेरी-चङ्गेरी-ग्रथितपुष्पसशिखाकरूपा। प्रज्ञा० ५४२ । सम० १२, १७ । ज्ञाता० २५१ । गोउलं । नि० चू० महतीकाष्ठपात्री बृहत्पदृलिका वा । प्रश्न० ८ । द्वि० ७० आ। घोषः-गोकुलम् उत्त० ६०५ । बृ० प्र० चंगोडए-नाणककोष्ठागारम् । बृ० तृ० ६३ आ । १८१ आ। बृ० द्वि० १८३ अ । घोष:-शब्दः । उपा० | चंचरिकः-भ्रमरः । प्रज्ञा० ३६१ । २५ । उदत्तादिः । भग० १७ । घोषः-अनुनादः । जं० | चंचलायमाणं-चञ्चलायमानं सौदामिनीयमानं कान्ति( अल्प० ४६ ) ( ३८५ ) 2010_05 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंचले ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [चंद झात्कारेणेत्यर्थः । जं० प्र० २०२ । चंडरुद्राचार्यः-खरपरुषवचने दृष्टान्तः । व्य०प्र० ११८ अ। चंचले-चञ्चल:-अनवस्थितचेत्तः । प्रज्ञा० ६६ । विमुक्त- चंडवडंसओ-चन्द्रावतंसक:- साकेतनगरे राजा, यो माघस्थैर्यम् । ज्ञाता० १३८ । मासे प्रतिमयास्थितः सन् कालगतः । आव० ३६६ । चंचा-सप्तमदशा । नि० चू० द्वि० २८ आ । चंडडिसओ-चन्द्रावतंसक:-कोशलदेशे साकेतनगरे नृपतिः। चंचु-चञ्चु:-शुकचञ्चुः । जं० प्र० २६५ । उत्त० ३७५ । चंचुच्चियं-चञ्चुरितं-कुटिलगमनं, अथवा चञ्चु:-शुक- | चंडविसं-दष्पकनरकायस्य झगिति व्यापकविषम् । भग चञ्चुस्तद्वद्वक्रतयेत्यर्थः, उच्चितं-उच्चिताकरण-पादस्यो- ६७२ । त्पादनं चंचुच्चितम् । जं० प्र०२६५ । चञ्चुरितं-कुटि- चंडा-वेगवती-झटित्येव मूलॊत्पादिका। ठाणा० ४६१ । लगमनम् । शुकचञ्चुस्तद्वद्वक्रतयेत्यर्थः, उच्चितं-उच्च- चण्डा-चमरासुरेन्द्रस्य मध्यमिका पर्षत् । जीवा० १६४ । ताकरणं पादस्य उच्चितं वा-उत्पाटनं पादस्यैवं चञ्चूच्चि- चमरस्य द्वितीया पर्षत्, तथाविधमहत्त्वाभावेनेषत्कोपातम् । औप० ७० । जं० प्र० ५३० । चञ्चुरितं- दिभावाच्चण्डा । भग० २०२ । चण्डौ क्रोधनत्वात् । कुटिलगमनम् । चञ्चु:-शुकचञ्चुस्तद्वद्वक्रतया उच्चितं- ज्ञाता० ६६ । ठाणा० १२७ । चण्डा-शकदेवेन्द्रस्य उच्चताकरणं पादस्योत्पाटनं वा (शुक)पादस्येवेतिचञ्चू- मध्यमिका पर्षत् । जीवा० ३६० । च्चितम् । भग० ४८० ।। चंडाए-चण्डया-रौद्रयाऽत्युत्कर्षयोगेन । ज्ञाता० ३६ । चंचुमालइय-पुलकिता । भग० ५४१ । पुलकितः । चंडाल-चाण्डाल:-ब्राह्मस्त्रीशूद्राभ्यां जातः । आचा० ८। औप० २४ । चंडालरूवे-चण्डालस्येव रूपं-स्वभावः यस्य सः । ज्ञाता० चंड-रौद्रः । भग० ४८४ । चण्ड:-कोपन: परुषभाषी वा।। ८० । उत्त० ४६ । चप्ड:-चारभटवृत्त्याश्रयणतः । उत्त० चंडालियं-चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कलितश्चण्डालः, ४३४। क्रोधः। भक्त० । चण्डं-झगिति व्यापकत्वात् । स चातिकरत्वाच्चण्डालजातिस्तस्मिन् भवं चाण्डालिकम् । ज्ञाता० १६२ । चण्डा-रौद्रा । भग० १६७, २३१, उत्त० ४७ । चण्ड:-क्रोधस्तद्वशादलीक-अनृतभाषणं चण्डा५२७ । चण्डत्वं संरम्भारब्धत्वात् । ज्ञाता० ६६ । चण्ड: लिकम् । उत्त० ४७ । उत्कटरोषत्वात् । ज्ञाता० २३८ । चंडावेणया । भग० ८०२ । चंडकोसिओ-चण्डकौशिकः । आव० १९६ । प्रद्वेषे सर्प- चंडिक्कं-चाण्डिक्यं-रौद्ररूपत्वम् । प्रश्न० १२० । चाण्डिविशेषः । आव० ४०५ । चंडकौशिक:-येन कर्मणां क्षये क्यम् । सम० ७१ । कृतेऽवाप्तं सामायिकम् । आव० ३४७ । दृष्टिविषसर्प-! चंडिक्किए-चाण्डिकित:-सञ्जातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्रविशेष: । आचा० २५५ । नंदी० १६७ । रूपः । भग० ३२२ । ज्ञाता०६८ । चाण्डिक्यः-रौद्रचडगं-समूहः । आव० ६७१ । रूपः । जं० प्र० २०२ । चाण्डिक्यितः-दारूणीभूतः । चंडतिव्व-चण्डतीव्रः अत्यर्थतीवः । ज्ञाता० १६२ ।। विपा० ५३ । चंडपिंगल-मोहान्निदानकृत् । भक्त । चण्डपिङ्गलः- अर्थो- चंडिक्किय-प्रकटितरौद्ररूप: । भग० १६७ । दाहरणे चोरः । आव० ४५२ । . चंडी-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । चंडप्रद्योतः-उज्जयिन्यधिपतिः । नंदी० १६६ । प्रश्न०६०। चंडीदेवगा-चण्डीदेवका:-चक्रधरप्रायाः । सूत्र० १५४ । चंडमेहो-चण्डमेघ:-अश्वग्रीवराज्ञो दूतः । आव० १७४। चंद-तृतीयवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । नि (ण्डरुद्रः-कायदण्डोदाहरणे उज्जयिन्यामाचार्यः । निरय० ३६ । धर्मकथाश्रतस्कंधेऽष्टमवर्गे देवः । ज्ञाता. आव० ५७७ । चण्डरुद्र:-परुषवचने उदाहरणम् । बृ० २५३ । ठाणा० ३४४ । चन्द्रः । प्रज्ञा० ३६१ । चान्द्रःतृ० २१८ अ । साधुविशेषः । ओघ० ३८ । प्रथमो द्वितीयश्चतुर्थश्व युगसंवत्सरः । सूर्य० १५४ । (३८६) 2010_05 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदऊडू ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [चंदद्धं चन्द्रो-वक्षस्कारपर्वतः । जं० प्र०३५७ । चन्द्र:-चन्द्रा- चंदज्झयं-देवविमानविशेषः । सम० ८ । कारमर्द्धदलम् । प्रज्ञा० ४११ । देवविशेषः । जीवा० चंदण-चंदणं मलयजम् । प्रश्न १६२ । चन्दनं-उपकार२६२। द्वीपविशेषः । जीवा० ३१७ । देवविमानविशेषः । कम् । प्रश्न० १५७ । भग० ८०३ । चन्दन:-मणिभेदः । सम०८। उत्त० ६८६ । चन्दनः । प्रज्ञा० २७ । चन्दनं-वृक्षविचंदऊडू-चन्द्रतुः । सूर्य० २०९ । शेष: । प्रज्ञा० ३२ । गन्धद्रव्यविशेषः । नि० चू० प्र० चंदकंतं-देवविमानविशेषः । सम०८ । २७६ आ । चंदकंता-द्वितीयकूलकरस्य भार्या । सम० १५० । आव० । चंदणकंथा-चन्दनकन्था-गोशीर्षचन्दनमयी भेरी । आव. ११२ । ठाणा० ३६८ । चंदकुडं-देवविमानविशेषः । सम० ८ । चंदणकयचच्चागा-चंदनकृतचर्चाक:-चन्दनकृतोपरागः । चंदग-चन्द्रक: चक्राष्टकोपरिवत्तिपत्तलिकायामाक्षिगोलकः ।। जीवा० २०५ । बृ० द्वि० १०० अ । चंदणकलसा-चन्दनकलशा:-मांगल्यघटा: । जं० प्र० ४६, चंदगइण-चन्द्रगतिना । पउ० २८-४५, ५१ । ४२० । औप० ५। जीवा० २०५ । चन्दनकलशा:चंदगविज्भ-राधावेधोपमम् । आउ । माङ्गल्यकलशा: । प्रज्ञा० ८६ । जीवा० १६० । चंदगविज्झयं-चन्द्राध्यक-प्रकीर्णकविशेषः । आव०७४०।। चंदणग-चन्दनक:- अक्षः । प्रश्न० २४ । चंदगवेझं-चक्राष्टसुपरिपुतलिकाक्षिचंडिकावेधवत् । नि० | चंदणघडो-चन्दनघट:-चन्दनकलशः । जीवा० २२७ । चू० द्वि० १७ आ । चंदणज्जा-महावीरस्वामिनः प्रथमशिष्या। सम० १५२। चंदगवेज्झो -चन्द्रकवेधः । ओघ० २२७ । चंदण थिग्गलिया-चन्दनथिग्गलिका । आव० ६८ । चदगुत्त-चन्द्रगुप्तः । दश० ६१ । नंदी० १६७ । विमर्श चंदणपायवे-चन्दनपादप:-मृगग्रामनगरे उद्यानविशेषः । दृष्टान्ते राजा । आव० ४०५ । प्रशंसाविषये पाटली- विपा० ३५ । पुत्रराजा । आव० ८१८ । चूर्णद्वारविवरणे कुसुमपरे चंदणपुड-गन्धद्रव्यविशेषः । ज्ञाता० २३२ । राजा । पिण्ड ० १४२ । नि० चू० तृ० ६ अ । बिन्दु-चंदणा-चन्दनकाः-अक्षाः । उत्त० ६६५ । चन्दना-शीलसारपिता । बृ० प्र० ४७ अ । नि० चू० प्र० २४३ चन्दनाया द्वितीयं नाम । आव० २२४ । चन्दनका:अ । पाडलिपुत्ते राया । नि० चू० द्वि० १०२ अ । अक्षाः, द्वीन्द्रियजीवविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । वृ० प्र० ४७ अ । अशोकस्य पितामहः । बृ० द्वि० चंदणि-व! गृहम् । आव० ६८१ । १५४ अ । चंदणिउदय-आचमनोदकप्रवाहभूमिः । आचा० ३४१ । चंदगुत्तपपुत्तो-चन्द्रगुप्तप्रपौत्र: । विशे० ४०६ । चंदणिका-चन्दनिका-व!गृहम् । उत्त० १०६ । चंदगोमी-चन्द्रगोपी-व्याकरणकर्ता कोऽपि । सूर्य० २६२। चंदणिया-व!गृहम् । आव० ३५८, ६६६ । चंदघोसे-चन्द्रघोष:-चन्द्रध्वजः संवेगोदाहरण आरक्षरा-चंदणो-चन्दनक:-अक्षः, द्वीन्द्रियजीवविशेषः। जीवा०३१। भिधप्रत्यन्तनगरे मित्रप्रभमनूष्यः । आव० ७०६ । चंददहे-द्रहविशेषः । ठाणा० ३२६ । चंदच्छाए । ज्ञाता० १२४, १३२। चंददिण-चन्द्रदिन-प्रतिपदादिका तिथिः । सम० ५० । चंदच्छाये-चन्द्रच्छायः- अङ्गजनपदराजश्चम्पानिवासी । चंददीवो-चन्द्रद्वीपः-जम्बूद्वीपसत्कचन्द्रस्य द्वीपः । जीवा ठाणा० ४०१ । ३१७ । चंदजसा-चन्द्रयशाः कुलकरपत्नी । आव० ११२ । संवेगो- चंदद्दह-चन्द्रहृदः, चन्द्रहृदाकाराणि चन्द्रहृदवर्णानि चन्द्रदाहरणे चन्द्रध्वजभगिनी। आव०७०६ । विमलवाहन- । श्चात्र देव: स्वामीति चन्द्रहृदः । जं० प्र० ३३० । कुलकरस्य भार्या । सम० १५० । ठाणा० ३६८ । चंदद्धं-चन्द्रार्द्ध-अष्टमीचन्द्रः । जीवा० २०७ । ( ३८७ ) 2010_05 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदन ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [चंदसूरोवरागा चंदन-चंदन-मणिविशेषः । जीवा० २३ । काष्ठविशेषः । धर्मकथाश्रुतस्कंधेऽष्टमवर्गे प्रथमाध्ययने देवी । ज्ञाता जीवा० १३६ । गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा० १६१ । । २५३ । चंदनकं-अक्षम् । ओघ० १३५ । चंदप्पह-चन्द्र प्रभ:-मणिभेदः । उत्त० ६६८ | पृथिवीचंदनघड-चन्दनघट: चन्दनकलशः । प्रज्ञा० ८६ । भेदः । आचा० २६ । चन्द्रस्येव प्रभा-ज्योत्सना सौम्या. चंदनमाला । प्रश्न० १२७ । ऽस्येति, अष्टमजिनः, यस्मिन् गर्भगते देव्याश्चन्द्र पाने दोहदः चंदपडिमा-चन्द्राकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमा । व्य० द्वि० ।। चन्द्रसदृशवर्णश्च तेन चन्द्रप्रभः । आव० ५०३ । ३५६ अ । चंदमग्गा-चन्द्रमार्गा:-चन्द्रमण्डलानि । सूर्य ० ६ । चन्द्रचंदपरिवेस-चन्द्रपरिवेष:-चन्द्रसमन्ताज्जामानः कुण्डला- स्य मार्गा:- चन्द्रस्य मण्डलगत्या परिभ्रमणरूपा मण्डलकारस्तेजः परिधिः । भग० १६५ । रूपा वा मार्गा आख्याता इति चन्द्रमार्गाः । सूर्य० १३७ । चंदपरिवेसो-चन्द्रस्य परितो वलयाकारपरिणतिरूपः ।। चंटमसं-चान्द्रमसं-सौम्यापरनाम, मृगशिरोदेवता । जं. जीवा० २८३ । प्र० ४६६ । चंदपव्वत-वक्षस्कारपर्वतविशेषः । ठाणा० ३२६,८०। चंदलेसं-देवविमानविशेषः । सम० ८ । चंदपुत्तो-चन्द्रपुत्रः । आव० ३६७ । चंदले हिक-आभरणविशेषः । नि० चू० प्र० २५५ अ । चंदप्पभ-देवविमानविशेषः । सम० ८ । मथुरायां गाथा- चंदडिसयं-चन्द्रावतंसक-चन्द्रविमानम् । जं०प्र० ५३३ । पती । ज्ञाता० २५३ । चन्द्रप्रभा-सुराविशेषः । आव० | चंदवडिसो-नियमस्थिरो नृपः । मर० । ६६५ । शीतलनाथजिनस्य शिबिकानाम। सम० १५१। चंदवणं-देवविमानविशेषः । सम० ८ । चन्द्रकान्तः । जं० प्र० ५१ । जीवा० २३४ । चन्द्र- चंदसंवच्छर-चन्द्रसंवत्सरः 'ससिसमगे' त्यादिलक्षणगाथा । प्रभः । प्रज्ञा० २७ । चन्द्रप्रभः-एकोरुकद्वीपे द्रुमविशेषः । सूर्य० १६८, १७१ । जीवा० १४६ । चन्द्रकान्तः । मथुरानगर्यां भिण्डवडेंस- चंदसाला-चन्द्रशाला । आव० १२३ । कोद्याने गाथापतो । ज्ञाता० २५३ । धर्मकथाश्रुतस्कंधे चंदसालिआ-चन्द्रशालिका-शिरोगृहम् । जं० प्र० १०७ । ऽमवर्गे देवीचन्द्रप्रभाया विमानम् । ज्ञाता० २५३ । चंदसालिय-चन्द्रशालिका-प्रासादोपरितनशाला । प्रश्न०८। धर्मकथाश्रुतस्कंधेऽष्टमवर्गे देवीचन्द्रप्रभाया सिंहासनम् । चंदसालिया चन्द्रशालिका । शिरोगृहम् । जीवा० २६६ । ज्ञाता० २५३ । चंदसिंग-देवविमानविशेषः । सम० ८ । चंदप्पभा-चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा चंदसिट्र-देवविमानविशेषः । सम० ८ । सुराविशेषः । जीवा० ३५१ । जं० प्र० १०० । चन्द्रस्य ! चंदसिरी-मथुरानगर्यां चन्द्रप्रभगाथापतेर्भार्या । ज्ञाता० ज्योतिषेन्द्रस्य प्रथमाऽग्रमहिषी। जीवा० ३८४ । चन्द्र- २५३ । स्येव प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा मद्यविधिवि- चंदसरदसणं-चन्द्रसूरदर्शनं । अन्वर्थानुसारी तृतीयदिवशेषः । जीवा० २६५ । चन्द्रस्य प्रथमाऽयमहिषी । सोत्सवः । विपा० ५१ । ठाणा० २०४ । जं० प्र० ५३२ । शिबिकाविशेषः । चंदसूरदंसणिय-चन्द्रसूर्यदर्शनं-उत्सवविशेषः । ज्ञाता० आव० १८४ । भग० ५०५ । चन्द्रप्रभा-चन्द्रस्येव प्रभा- ४१ । चन्द्रसूर्यदर्शनिकाभिधानं सुतजन्मोत्सवविशेषः । आकारो यस्याः सा । प्रज्ञा० ३६४ । वर्धमानजिनस्य शिबिकानाम । सम० १५१। चन्द्रस्येव प्रभा-आकारो- चंद्रसरपरिवेसा-चन्द्रादित्ययोः परितो वलयाकारपुद्गलयस्याः सा चन्द्रप्रभा । जं० प्र० १०० । धर्मकथायाः परिणतिरूपाः सुप्रतीता । अनु० १२१ । अष्टमाध्ययने प्रथममध्ययनम् । ज्ञाता० २५२, २५३ । चंदसूरोवरागा-चन्द्रसूर्योपरागाः-राहुग्रहणानि । अनु । मथुरानगर्यां चंद्रप्रभगाथापतेर्दारिका । ज्ञाता० २५३ । ' १२१ । ( ३८८ ) वर्धमानजिनस्य औप० १०२ । 2010_05 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ चंपा चंदा-चन्द्रः चन्द्रमाः सोमस्याज्ञोपपातवचननिर्देशवर्ती देवः। चंपक-वृक्षविशेष:-आद्यंहिपेषु तु विविधसुगन्धिगन्धवस्तुभग० १६५। चन्द्रा-चन्द्र राजधानी। जंबू० प्र० ५३३ ।। निकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिलसेकात् तत्प्रकटनं घ्राणेचन्द्रा:-ज्योतिष्क भेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । न्द्रिय ज्ञानस्य । विशे० ६६ । चंदाणण-जम्बूद्वीपे ऐरावतक्षेत्र प्रथमो जिनः । सम०१५३।। चंपकच्छल्ली-सूवर्णचम्पकत्वक । जीवा० १६१ । चन्द्राननं-चन्द्र प्रभजन्म भूमिः । आव० १६० । चंपकदमनक-गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा० १६१ । चंदाणणा-शश्वती प्रतिमानाम । ठाणा० २३२ । चन्द्रा- चंपकपटुं-फलकविशेषः । उत्त० ४३४ । नना-चन्द्राननप्रतिमा। जीवा० २२८ । चंपकप्पिओ-चम्पकप्रिय:-पार्श्वस्थदृष्टान्ते कुमारः । आव० चंदाणयं । नि० चू० प्र० ३०६ आ । ५२० । चंदाभ-देवविमान विशेषः । सम० १४ । चन्द्राभः-कुल- | चंपकभेद-सुवर्णचम्पकच्छेदः । जीवा० १६१ । करनाम । जं० प्र० १३२ । पञ्चमं लोकान्तिकविमानम्। चंपकलया-लताविशेषः । प्रज्ञा० ३० । भग० २७१ । ठाणा० ४३२ । चंपगकुसुम-चम्पककुसुमं-सुवर्णचम्पककुसुमम् । जीवा० चंदायण-चान्द्रायण:-अभिग्रहविशेषः । व्य० द्वि० ३३४ | १९१ । आ । चंपगजीइ-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । चंदालगं-चन्दालक-देवातानिकाद्यर्थं ताम्रमयं भाजनम् । चंपगपट्ट-फलयविसेसो । नि० चू० प्र० ३५७ आ । सूत्र० ११८ । चंपगपूड-पुष्पजातिविशेषः । गन्धद्रव्यविशेषः । ज्ञाता. चंदावत्तं-देवविमानविशेषः । सम० ८ । २३२ । चंदावली-चन्द्रावली-तडाकादिषु जलमध्यप्रतिबिम्बितचन्द्र- चंपगवण-चम्पकवनं, वनखण्डनाम । जं० प्र० ३२० । पक्तिः । जीवा० १६.१ । तटागादिषु जलमध्ये प्रति- | ठाणा० २३० । बिम्बिता चन्द्रपङ्क्तिः । जं० प्र० ३५ । चंपगलया-लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । चंदिमा-चन्द्रमा-ज्ञातायां दशममध्ययनम् । सम० ३६ । | चंपगेइ-चम्पक:-सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः । जं० प्र० उत्त० ६९४ । ज्ञाता० १० । आव० ६५३ । अनुत्तरोपपातिकदशानां तृतीयवर्गस्य षष्ठमध्ययनम् । अनुत्त०२। चंपगो-चम्पक:-वृक्षविशेषः । जीवा० २२२ । चंदुत्तरडिसगं-देवविमानविशेषः । सम० ८। चंपतो-किंपुरुषाणां चैत्यवृक्षः । ठाणा० ४४२ । चंदोत्तरणं-कोशाम्ब्यामुद्यानविशेषः । विपा०६८। चंपय-मुनिसुव्रतस्वामिजिनस्य चैत्यवृक्षः । सम० १५२ । चंदोदयं-चन्द्रोदयं-चन्द्राननापुर्यां चन्द्रावतंसराज उद्यानम्। चंपयकुसुम-चम्पककुसुम-सुवर्णचम्पकवृक्षपुष्पम् । प्रज्ञा० पिण्ड० ७६ । चंदोयरणंसि-उदंडपुरनगरे चैत्यविशेषः । भग० ६७५ । | चंपयछल्ली-चम्पकछल्ला-सुवर्णचम्पकत्वक् । प्रज्ञा० ३६१ । चंदोवतरणे-कोशाम्बीनगर्यां चैत्यविशेषः । भग० ५५६ । चंपयभेदे-चम्पकभेदः सुवर्णचम्पकस्य भेदो द्विधाभावः । चंदोवराग-चन्द्रोपरागः-चन्द्रग्रहणम् । जीवा० २८३ ।। प्रज्ञा० ३६१ । भग० १६६ । चंपयवडिसए-चम्पकावतंसकः । भग० १६४ । चंदोवराते-चन्द्रस्य-चन्द्रविमानस्योपरागो-राहुविमानतेज- चंपयवणं-चम्पकवनम् । भग० ३६ । आव० १८६ । सोपरञ्जनं चन्द्रोपरागो ग्रहणमित्यर्थः । ठाणा० ४७६ । । चंपरमणिज्ज-चम्परमणीयः-उद्यानविशेषः । आव०२०२। चंपं-चम्पा-यत्र वासुपूज्यस्वामिपादमूले तरुणधर्मा पद्म- चंपा-चम्पापुरी । उत्त० ३७६, ३८० । जितशत्रुराजस्य रथो राजा प्रवजितु गतः । आव० ३६१ । नगरी- नगरी । ज्ञाता० १७३ । उत्त० ६२ । क्षितिप्रतिष्ठिविशेषः । आव० २१३, २२५ । तस्य पञ्चमं नाम । उत्त० १०५ । पालितसार्थ(३८६ ) 2010_05 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंपानयरि] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ चउजमलपय वाहवास्तव्या नगरी । उत्त० ४८२ । कपिलवासुदेवस्य चमं चर्ममयं तूलिकाद्युपकरणम् । बृ० द्वि० १०० आ। नगरी । ज्ञाता० २२२ । उत्त० ३०१, ३२४ । नगरी, चंमतियं-आस्तरप्रावरणोपवेशनोपयोगिकृत्तितूलिकावर्धरूपं दत्तराजधानी । विपा० ६५ । संवेगोदाहरणे नगरी। वा । बृ० द्वि० २५३ अ । आव० ७०६ । सङ्गपरिहरणविषये नगरी । आव०७२३। च-प्रकृतमनुकर्षति । उत्त० १६७ । प्रस्तावनायाम् । आर्जवोदाहरणे नगरी । आव० ७०४ । स्त्रीलोलुपसुवर्ण- विशे० १०३६ । वा। उत्त० २०६ । जं० प्र० ४५६ । कारवास्तव्यानगरी । आव० ६५ । द्रव्यव्युत्सर्गे दधि- चशब्दश्चेदित्येतस्यार्थे वर्तते । भग० ४९८ । उक्तसमुच्चवाहननगरी । आव० ७१६ । वासुपूज्यस्वामिनो जन्म- यार्थः । आव० ८ । एवकारार्थः । आव० १० । च:भूमिः । आव० १६० । चक्षुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्ते नगरी । आधिक्याथें । आचा० ५५ । पूरणार्थः । आव०१२। च आव० ३६६ । नगरीविशेषः। आव० २१२ । कुमार- शब्द:-समाहाररेतरेतरयोगसमुच्चयान्वाचयावधारणपादपू. नन्दीवास्तव्या नगरी । आव० २६६ । इहलोके रणाधिकचनादिष्विति । ठाणा० ४६५ । अपिशब्दार्थः । कायोत्सर्गफलदृष्टान्ते पूरी । आव० ७९९ । जिनदत्तस्य उत्त० ४७६ । आभिनिबोधिकश्रुतज्ञानयोस्तुल्यक तोपुत्रीसुभद्रोदाहरणे नगरी । दश० ४६ । कुणिकराज्ञो द्भावनार्थः । आव० ७ पृथक् पृथक् अवग्रहादिस्वरूपस्वाराजधानी । भग० ३१६ । अङ्गेषु आर्यक्षेत्रम् । प्रज्ञा० । तन्त्र्य प्रदर्शनार्थः । आव०६ । इवादेशः । जं० प्र० ५५ । नगरीविशेषः । औप०१ । प्रज्ञा० ५५ । अन्त. २०० । अधिकवचनः । आचा० १०२ । १ । कोणिकराजधानी। ज्ञाता०१। अन्त० २५। ज्ञात चडओ- । त्याजितः । ओघ०६० । २५२ । भग० ४८४, ६१८, ६२० । धन्नसार्थवाह- चइत्ता-त्यक्त्वा, अथवा च्युत्वा, कृत्वा । भग० १२६ । वास्तव्या नगरी । ज्ञाता० १६३ । चम्पा । ज्ञाता। चित्वा कृत्वेति । औप० १०१ । १२५, १३२ । माकन्दीसार्थवाहवास्तव्या नगरी ।। चइय-च्यावितः-स्वत एवायुष्कक्षयेण भ्रंशितः । भग०२६३। ज्ञाता० १५६ । नारदत्तसार्थवाहवास्तव्या नगरी ।। त्याजिता-भोज्यद्रव्यात् पृथक्कारिता दायकेन । भग० ज्ञाता० २००, २०५ । कुणिकराजधानी। निरय० ४, २६३ । च्यावितः-ताभ्य एवायुःक्षयेण भ्रंशितः । त्या१६ । नगरीविशेषः । उपा० १६ । जितशत्रुराज्ञो जित:-देयद्रव्यात्पृथक्कारितो दायकेन । प्रश्न० १०८। नगरी । उपा० १६ । सुभद्रावास्तव्या नगरी। व्य० प्र० | चइया-त्याजिताः । ओघ० १५८ । ११७ अ । अनंगसेनसुवर्णकारवास्तव्यं नगरम् । बृ० चउक्क-चतुष्क-रथ्याचतुष्कमेलकम् । औप०४। रथ्यातृ० १०८ आ । अनङ्गसेनवास्तव्यं नगरम् । नि० चू० चतुष्कमीलकः । औप० ५७ । आव० १३६, २०७ । प्र० ३४५ अ । खंधगरायरायहाणी । नि० चू० तृ० रथ्याचतुष्कमीलनस्थानम् । भग० १३७, २००, २३८ । ४४ अ। योगसंग्रहे आपस्तु दृढधर्मदृष्टान्ते नगरी । आव० प्रश्न० ५८ । चतुष्पथयुक्तम् । ज्ञाता० २८ । जीवा० ६६७ । सुनन्दवणिग्वास्तव्या नगरी । उत्त० १२३ । २५८ । प्रभूतगृहाश्रयश्चतुरस्रो भूभागः चतुष्पथसमागमो दधिवाहनराजधानी । उत्त० ३००, ३०२। शय्यम्भव- वा चतुष्कम् । अनु० १५६ । यत्र रथ्याचतुष्टयम् । ठाणा० सूरिविहारभूमिः । दश० ११ । रविविषयप्रश्ननिर्णये । २६४ । नगरी । भग० २०६ । लोभपिण्डदृष्टान्ते पुरी । पिण्ड० | चउक्का । चक्रे । नि० चू० तृ० १२१ आ। १३३, १३६ । कोणिकराजधानी । विपा० ३३ । प्रश्न चउगर ।भग० ४६४। १ । भग ६७५ । चउचरणगवी-चतुश्चरणगौः । आव० १०३ । चतुर्णा चंपानयरि- . । ज्ञाता० २०८ । चरणानां सम्बन्धिनी सा गौः । विशे० ६३५ । चंपाप्रविभक्ति-त्रयोदशनाट्यभेदः । जं० प्र० ४१७ । चउजमलपय-चतुर्यमलपदं-द्वात्रिंशदङ्कस्थानलक्षणं, चतुचंपे-चम्पक:-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३६१ । विशतेरङ्कस्थानानामुपरितनाकाष्टकलक्षणं वा । अनु० ( ३६० ) 2010_05 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउजायग] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ चउरग २०६ । चउफास-चतुःस्पर्श-सूक्ष्मपरिणामम् । भग० ६६ । चउजायग-चतुर्जातकं- त्वगेलाकेसराख्यगन्धद्रव्यमरिचा-चउन्भाइय-घटकस्य-रसमानविशेषस्य चतुर्थभागमात्रो. त्मकम् । जीवा० ३५५ ।। मानविशेषः । भग० ३१३ । चउत्थं-चत्वारि भक्तानि यत्र त्यज्यन्ते तच्चतुर्थं, इयं चउब्भागपलिओवमं-चतुर्भागमात्रं पल्योपमं चतुर्भागप. चोपवासस्य संज्ञा । ज्ञाता० ७३ । चतुर्थं भक्तं यावद् ल्योपमम् । जं० प्र० ५३६ । भक्तं त्यज्यते यत्र तच्चतुर्थं, उपवासस्य संज्ञा । भग० चउभागमंडलं-चतुर्भागमण्डलम् । सूर्य० २१, २७ । १२५ । मेहुणं । नि० चू० द्वि० १६६ आ । चउभाइया-चतुष्षष्ठिपलमाना चतुर्भागिका । अनु०१५२ । चउत्थगं-चतुर्थ-एकमुपवासम् । ओघ० १३६ । चउभागपल्लोवम-चतुर्भागः पल्योपमस्य चतुर्भागपल्यो. चउत्थभत्त-चतुर्थभक्त-केवलं एक पूर्वदिने द्वे उपवास- पमम् । जीवा० ३८५ ।। दिने चतुर्थं पारणकदिने भक्त-भोजनं परिहरति यत्र चउमासिआ-चतुर्थी भिक्षुप्रतिमा । सम० २१ । तपसि तत् चतुर्थभक्तम् । ठाणा० १४७ । चतुर्थभक्तं | चउमुहं-चतुर्मुखम् । आव० १३६ । एकदिनान्तरितः । जं० प्र० १३२ । चउम्मुह-चतुर्मुखं-देवकुलादि । ठाणा० २६४ । भग० चउत्थभत्तस्स-चतुर्थ भक्ते एकस्मिन् दिवसेऽतिक्रान्ते इत्यर्थः। २३८ । चतुर्मुखदेवकुलिकादि । अनु० १५६ । तथाप्रज्ञा० ५०५ । विधदेवकुलकादि । औप० ५७ । प्रश्न० ५८ । चतुचउदसभत्तं-चतुर्दशभक्त-षडात्रोपवासः । आव० १६८ । रिं देवकुलादि । भग० २३८, औप० ४। यस्माच्चतचउदसरूवी-चतुर्दशोपकरणधारी । बृ० द्वि० २३७ आ। सृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति । जीवा० २५८ । चउदिसि-चतुर्दिक-चतस्त्रो दिशः समाहृताः । जीवा०, चतुर्मुखम् । भग० २०० । २२२ । चउरंग-अश्वा गौः सगड पाइक्का । मि० चू० प्र० ८६ चउपुरिसपविभत्तगती-चतुःपूरुषप्रविभक्तगती:-चतुर्दा पु- आ । रुषाणां प्रविभक्तगतिः, विहायोगतेश्चतुर्दशो भेदः । प्रज्ञा० चउरंगिज्ज-चतुरङ्गीयं-उत्तराध्ययनेषु तृतीयमध्ययनम् । ३२७ । उत्त० ६ । चउपएडोआरे-चतुर्यु-पूर्वापरविदेहदेवकुरूत्तरकुरुरुपेषु क्षेत्र- चउरतं-चतुरन्तं-चतुर्विभागम् । प्रश्न० ६३ । चतुरन्तंविशेषेषु प्रत्यवतार:-समवतारः, चतुर्विधस्य पर्यायो वा। दानादिभेदेन चतुर्विभाग, चतसृणां वा नरनारकादिगजं० प्र० ३१२ । तीनामन्तकारित्वाच्चतुरन्तम् । भग० ७ । चउप्पडोयारे-चतुर्यु भेदलक्षणालम्बनानुप्रेक्षालक्षणेषु पदा- चउरंतगमाइया-चतुरन्तगमादिका,शारिपट्टादिका। आव० र्थेषु प्रत्यवतार:-समवतारो विचारणीयत्वेन यस्य तच्च- ५८१ । तुष्प्रत्यवतारः । भग० ६२६ । चउरंतचक्कवट्टी-चतुरन्तचक्रवर्ती-त्रिसमुद्रहिमवत्परिच्छिचउप्पय-चतुष्पदं-नवमं करणम् । जं० प्र० ४६३ ।। नेषु चतुव॑न्तेषु चक्रेण वत्तितुं शीलं यस्यासौ। जीवा० चत्वारि पदानि येषां ते चतुष्पदाः-अश्वादयः । प्रज्ञा० । २७८ । ४४ । जीवा० ३८ । चउरंस-चतुरस्रं-चतुष्कोणम् । जीवा० २७६ । चतुरस्रः । चउप्पाइय-चतुष्पादिक:-भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः ।। भग० ८५८ । चतुरस्रः-संस्थानविशेषः । प्रज्ञा० २४२ । जीवा० ४० । चउरंससंठाणपरिणया-चतुरस्रसंस्थानपरिणताः । प्रज्ञा० चउप्फलं-कप्पं । नि० चू० प्र० १६१ आ । ११ । चउष्फला-पुट । नि० चू० प्र० १८० आ । चउर-चतुरः-दक्षः । ठाणा० ३६७ । अनु० १३३ । चउष्फाला । ज्ञाता० ५३ । । चउरग-चकोरक:-पक्षिविशेषः । प्रभ० ८ । ( ३९१) 2010_05 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ चक्कवालविक्खंभ चउल । भग० ८०३ । चक्कभया-चक्रालेख रूपचिह्नोपेताः ध्वजाः । जं०प्र० ६० । चउवग्गो - णामवत्थव्वा संजयासंजतीओ वि आगंतुंगा चक्कद्धचक्कवालसंठिया - चक्रार्द्धचक्रवालसंस्थिताः । सूर्य ० संजता संजतीओ य । नि० चू० द्वि० १५५ आ । aratसइत्थय - चतुर्विंशतिस्तवः - आवश्यकसूत्रे द्वितीयम चक्कद्धया - चक्रध्वजाः - चक्रालेखरूपचिह्नोपेता ध्वजाः I ३६ । जीवा० २१५ । ध्ययनम् । आव ० ४६६ । चउसट्ठिआ-चतुष्पलप्रमाणा - चतुषष्ठिका । अनु० १५१ । चक्कपुरं चक्रपुरं - कुन्थुजिनस्य प्रथमचारणकस्थानम् 1 चउस किला - चतुःषष्ठिकला । आव० ५५ । आव० १४६ । पुरुषपुण्डरीकपुरम् । आव० १६२ | चउसट्टिगुणा - चतुःषष्ठिगुणा । उत्त० ४८४ । चक्कपुरा - चक्रपुरा - राजधानी । जं० प्र० ३५७ । चउसट्टिया - चतुषष्ठिका - पलं मानविशेषः, तस्यैव चतुषष्ठ- चक्कपुराओ - तमांशस्वभावापलमिति तात्पर्यम् । भग० ३१३ । चउसरणगमण-अर्हत्सिद्धसाधुकेवलिप्रज्ञप्तधर्म शरणकरणम् । चक्कमज्झभूमी - चक्रमध्यभूमिः । आव० ४१७ । चक्कमंतो- चङ्क्रम्यमाणः । आव ० ४१२ । चक्कयरो - चक्रकरः । आव ० ६१६ | चक्करयणे - चक्रवर्ते रेकेन्द्रियं प्रथमं रत्नम् । ठाणा० ३९८ । चक्कला- पादानामधः प्रदेशः । जं० प्र० ५५ । जीवा ० २१० । चक्कलिकाभिन्नं तिर्यक बृहत्कत्तलिकाकृतम् । बृ० प्र० १७५ अ । चक्कलिय-चक्रम् । नि० चू० द्वि० १२४ आ । चक्कवट्टिविजय - पुष्कलावर्त्ते सप्तमो विजयः स एव चक्रवत्तिविजेतव्यत्वेन चक्रवर्तिविजयः । जं० प्र० ३४९ । arrage ऋद्धिप्राप्तार्यभेदः । प्रज्ञा० ५५ । चक्रवर्तिनः चतुर्दशरत्नाधिपाः, षट्खण्डभरतेश्वराः । आव ० ४८ । चक्रेण रत्नभूतप्रहरणविशेषेण वर्त्तितुं शीलं ययोस्तौ चक्रवतिनः । ठाणा० ६६ । चउल ] चउ० । चउसाले। नि० चू० प्र० २६० अ । चउसालयं - चतुःशालकम् । जीवा० २६६ । चउसुवग्गे सु-संजतिसंजयसावगसाविगाण य एते । नि० चू० प्र० २२७ आ । चओ- चयः - स्तोकतरा वृद्धि: । पिण्ड० ४१ । पिण्डनेत्यर्थः । नि० चू० प्र०२० आ । चओवचइयं - चयापचपिकं - वृद्धिहन्यात्मकम् । आचा०६६ । चकार- छकार -जकार- कार - ञकार - प्रविभक्तिनाम षोडशो नाट्यविधिः । जीवा० २४७ । चक्क - चक्र - सुदर्शनम् । उत्त० ३५० । अरघट्टयन्त्रिकाचक्राणि । ज्ञाता० २ । रथाङ्गम् । सूर्य ० ६९ । रथाङ्ग अरघट्टाङ्गं वा । औप० ३ । चक्रम् । आव० ८२६ ॥ ओघ० १३ । प्रहरणविशेषः । आव० ४८७ । जीवा० ११७ । प्रहरणम् । आव० ५८५ । रायचधसहियं सचक्कं । नि० चू० प्र० ३५८ अ । चक्रं - तिलयन्त्रम् । बृ० द्वि० १६६ आ । तिलपीडनयन्त्रम् । बृ० द्वि० २२१ अ । तिलपीलगं । नि० चू० द्वि० ६१ आ । चक्रः- रत्नभूतप्रहणविशेषः । ठाणा० ९६ । चक्र:- वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीयो देवः । भग० २०० | चक्रं - धर्मचक्रम् | ओघ० ६० । सम० ६१ । चक्रं - आज्ञा । व्य० द्वि० २२८ अ । चक्रं - अरम् । प्रश्न० ४८ । चक्कग - चक्रकं - भूषणविधिविशेषः । जीवा० २६९ । चक्रकं चक्राकार:- शिरोभूषणविशेषः । जं० प्र० १०६ । 2010_05 चक्कवाग - चक्रवाकः - रथाङ्गः । प्रश्न० ८ । लोमपक्षिविशेषः । जीवा ० ४१ । चक्कवालं - चक्रवालं विशेषस्य सामान्येऽनुप्रवेशात् । समचक्रवालम् । जं० प्र० ३६७ । मण्डलम् । प्रज्ञा० ६००१ सूर्य० ६६ । जीवा० १७८ । चक्रवालं सर्वं परिमण्डल - रूपम् । जीवा ० २६६ । चक्रवालं - सर्वतः परिमण्डल - रूपम् । जं० प्र० १०२ । चक्रवालः - नगरविशेषः । आव० १४४ । चक्रवालं चक्रम् । भग० १८८ । चक्रम् । आउ० । चक्रवालं - जलपरिमाण्डल्यम् । सम० १२७ । चक्कवालविक्खंभ - चक्रवाल विष्कम्भः - वृत्तव्यासः, इदं च प्रमाणयोजनमवसेयम् । सम० ६ । ( ३६२ ) । ठाणा० ८० Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्कवालसामायारि ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [चक्खुहरं चक्कवालसामायारि-सामाचारीविशेषः । नि० चू० प्र० चक्षुः-श्रुतज्ञानं शूभाशुभार्थविभागोपदर्शकत्वात् । भग०७ । २६३ आ। नि० चू० द्वि० ३६ आ। चक्खता-पञ्चमकूलकरस्य भार्यानाम । सम० २५० । चक्कवाला-चक्रवाला-वलयाकृतिः । ठाणा० ४०७ ।। आव० ११२ । ठाणा० ३९८ । चक्षुःकान्तः-कुण्डलसमुद्रेमण्डलबन्धेन स्थिताः । ओघ० ५५ । चक्रवालं-मण्डलं | ऽपरा धिपतिदेवः । जीवा० ३६८ । ततश्च यया मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा चक्खूदंसणं-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि चक्षुषा दर्शनंचक्रवाला । भग० ८६६ । रूपसामान्यपरिच्छेद: चक्षुदर्शनम् । जीवा० १८ । चक्कवालानि-पृष्ठस्योपरिमण्डललक्षणानि । व्य० प्र० | चक्खुसणि चतुर्दशनी-चक्षुदर्शनलब्धिमान् । अनु०२२०॥ २३ अ । - चवखुदए-चक्षुर्दय:-चक्षुरिव चक्षुः-श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थचक्कवूह-चक्रव्यूहः-चक्राकारः सैन्यविन्यासविशेषः । प्रश्न विभागकारित्वात्तद्दयते इति चक्षुर्दयः । सम० ४ । ४७ । ज्ञाता० ३८ ।। चक्खुदये-चक्षुरिव चक्षुः श्रुतज्ञानं दयत इति चक्षुर्दयः । चक्काइट्ठगो-चक्राविद्धः । आव० २१७ । भग० ७ । चक्कागं-चक्राकं-चक्राकार-एकान्तेन समम् । प्रज्ञा०३६ । चक्खुदो-चक्षुरिव चक्षुः-विशिष्ट आत्मधर्मस्तत्त्वावबोधनिचक्राकारः सम इत्यर्थः । बृ० प्र० १६१ आ । चक्रकं- बन्धनं श्रद्धास्वभावः तद् ददातीति चक्षुदः । जीवा० चक्राकार:-समच्छेदो मूलकन्दादिनां भङ्गः । आचा०५६ । २५५ । पक्षिविशेषः । ज्ञाता० २३१ । लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० चक्खुप्फास-चक्षुस्पर्शः-दृष्टिस्पर्शः । भग० ७७ । चक्षुः४६ । जस्स चक्कागारा भंगो समोत्ति वृत्तं भवति । नि० स्पर्श-स्थूलपरिणतिमत्पुद्गलद्रव्यम् । उत्त० १६६ । चक्षुःचू० द्वि० १४१ अ। स्पर्श:-चक्षुर्विषयः । आचा० ३० । जं० प्र० ४४१ । चक्कारबद्ध-चक्रारबद्धं गन्त्र्यादि । दश० १६३ ।। दृष्टिपातः । भग० १३८ । दर्शनम् । ज्ञाता० ४६ । चक्काह । सम० १५२ ।। औप० ६० । सूर्य० ६१ । चक्षुःस्पर्श दृग्गोचरे चक्षुःस्पचक्कियंति-सक्किज्जति । नि० चू० द्वि० ७६ अ । । शंगो वा दृग्गोचरगतः । उत्त०५६ । चक्किया-चाक्रिकाः चक्रप्रहरणाः-कुम्भकारतैलिकादयो वा। चक्खुभीया-चक्षुशब्दोऽत्र दर्शनपर्यायः,दर्शनादेव भीता दर्शऔप० ७३ । चक्रिका:-चक्रप्रहरणाः कुम्भकारादयो वा नभीताः । आचा० ३०२। भग० ४८१ । कुम्भकारतैलिकादयः । ज्ञाता० ५६ । चक्खुम-चक्षुष्मान्-द्वितीयः कुलकरनाम । सम० १५० । शक्नुयात् । भग० ३२५ । जं० प्र० १३२ । ठाणा० ३६८ । आव० १११ । चक्कलैंडा-चक्री लण्डिका-द्विमुखसर्पः । आव० ३५७ । चक्लमेंटा-एक्कं अस्थि उम्मल्लेति बिति णिमिल्लेति । चक्खल्लाउडुओ-दतिको येन तीर्यते । ओघ० ३३ । । नि० चू० तृ० १२४ आ । चक्खिदिअत्थोवगहे-चक्षुषः प्रथममेव स्वरूपद्रव्य घुणक्रि- | चक्खुल्लोयणलेसं । आचा० ४२३ । याकल्पनातीतमनिर्देश्यसामान्यमात्रस्वरूपार्थावग्रहणं चक्षु- चक्खुविक्खेवो-चक्षुर्विक्षेप:-चक्षुर्धमः । भग० १७५ । रावग्रहः । प्रज्ञा० ३११ । चक्खुसुभो-चक्षुःशुभः-कुण्डलसमुद्रे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । चक्खिदिए-चक्षुरिन्द्रियम् । प्रज्ञा० २६३ । जीवा० ३६८ । चक्खिय-दृष्ट्वा । आव० ४१७ । . चक्खुसे-चाक्षुषः चक्षुरिन्द्रियग्राह्यः । दश० २०२ । चक्खु-चक्षुः विशिष्ट-आत्मधर्मः तत्त्वावबोधनिबन्धनः चक्खहरं-चक्षुहरति आत्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशयश्रद्धास्वभावः । राज० १०६ । चक्षुःशब्दोऽत्र दर्शनपर्यायः।। कलितत्वाच्चक्षुहरम् यत्तत् । जीवा० २५३ । चक्षुहरं, आचा० ३०२ । चक्षुः-ज्ञानम् । आचा० २०८ । चक्षुरिव । चक्षुर्द्धर-चक्षुरोधकम् । जं० प्र० २७५ । चक्षुहरंचक्षुः-श्रुतज्ञानम् । सम० ४ । लोचनम् । भग० ७३६ ।। लोचनानन्ददायकत्वात्, चक्षु रोधकं वा घनत्वात् । भग० ( अल्प० ५० ( ३९३ ) 2010_05 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्खू ] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ चतुष्कल्पसेकसिक्तः ४७७ । जं० प्र० २०० । चटकरप्रधान-विच्छई प्रधानम् । ज्ञाता० चक्खू-चक्षुः विशिष्टआत्मधर्मस्तत्त्वावबोधनं श्रद्धास्वभावः। ३६ । समुदायः । ज्ञाता० २०० । चटकर:-विस्तारजीवा० २५५ । वान् । भग० ३१६ । चक्रर्वात्तता- ठाणा० ३३२। चडगरत्तण-चडकरत्त्वं-अतिप्रपञ्चकथनम् । दश० ११५ । चक्रवाल-प्रत्युपेक्षणादि नित्यकर्मा। बृ० प्र० २२१ अ । चडत्ति-झटिति । आव० ३५७ । चक्रवालसामाचारी-सामाचारीविशेषः । आव० ८.३३ । चडफडत-कम्पमानम् । उत्त० ५२२ । प्रतिदिनक्रियाकलापरूपा । बृ० प्र० २०७ आ। चडफड-प्रलपसि । नि० चू० प्र० १३२ अ । चक्रार्द्धचक्रवालं- चतुर्थनाट्यविशेषः । जं० प्र० ४१५ । चडप्फातो-करपादौ भूमौ आस्फोटयन् । नि० चू० द्वि० चक्षुरुन्मीलयति। व्य०प्र० १०१ आ। २६ अ । चच्चपुडा-चच्चपुटा:-आघातविशेषाः । जं० प्र० २३६ । चडयपट्टाति- ।नि० चू० प्र० १२६ ब । चच्चरं-चत्वरं-सीमाचतुष्कम् । उत्त० १०६ । त्रिपथ- चडवेला-चपेटाः । प्रश्न० ५७ । भेदि चत्वरम् । ज्ञाता० २८ । स्थानविशेषः । विपा० चडावणा-आरोपणा । ठाणा० ३२५ । जं दव्वादि ५७ । आव० १३६, ४०२ । चत्वरं-बहतररथ्यामी- परिसविभागेण दाणं सा आरोवणा। नि० चू० त० लनस्थानम् । भग० १३७ । चत्वरम् । भग० २००, ८५ अ । २३८ । चतुष्पथसमागमः, षट्पथसमागमो वा चत्वरम् । चडाविओ-आरोहितः । आव० ४३४ । अनु० १५६ । रथ्याष्टकमध्यम् । ठाणा० २६४। । चडाविज्जइ-चटाप्यते । ओघ. ८४ । चच्चरसिवंतरितो-चत्वरशिवान्तरितः । उत्त० २२१ । चडाविया-चटापितः । आव० ५०६ । चच्चागा-उपरागाः । जं० प्र० ४६ । चर्चाका:-चन्दन- चडुगे-अपवृत्य । व्य० द्वि० ३०२ आ । कृतोपरागाः । राज० ६४ । चण-चणक-चणकक्षेत्र, योगसंग्रहे शिक्षा दृष्टान्ते यद् वास्तुचच्चिअ-चचितं-समण्डनकृतम् । जं० प्र० २७८ । । पाठकश्चणकाभिधनगरं निवेशितम् । अपरनाम क्षितिचटकसूत्रं-कोशकारभवं सूत्रम् । अनु० ३४ । प्रतिष्ठितं, वृषभपुरं, कुशाग्रपुरं, राजगृहं च । आव० चटुल-चन्टुल:-विविधवस्तुषु क्षणे क्षणे आकाङ्क्षादिप्र- | ६७० । वृत्तेः । प्रश्न ३० । चणगपुरं-चणकपुरं-क्षितिप्रतिष्ठितस्य द्वितीयं नाम । । सूत्र. १२५ ।। उत्त० १०५ । । चटुली:-पर्यन्तज्वलिततृणपूलिका । नंदी० ८४ । चणगा-चणका:-धान्यविशेषाः । अनु० १६२ । चट्टवेसो-विप्रवेष:-चक्षुरिन्द्रियान्तर्दृष्टान्तः । आव० ३६६ । चणगो-चणकाः, पारिणामिकीबुद्धौ गोल्लविषये चणकग्रामे चट्टशाला । बृ० प्र०६३ अ। ब्राह्मणः, श्रावकः । आव० ४३३ । चट्टा-जूअकारादिधुत्ता । नि० चू० प्र० २०७ आ। चणयग्गामो-चणकग्रामः, गोल्लविषये नम: आव० चटुक । आचा० ३५७ । ४३३ । चट्टो-विप्रः । आव० ४००। चतुरंगः-सेना । आव० ७६७ । चडतो-आरुहन् । नि० चू० द्वि० १३३ आ। चतुरय-चतुरकाः-सभाविशेषाः, ग्रामप्रसिद्धाः । सम० चडकर-चटकरप्रधानः-विस्तरवान् । विपा० ३६ । चट- | १३८ । करं-वृन्दम् । जं० प्र० १४५ । चतुर्विधशब्द:-चतुष्प्रत्यवतारम् । भग० ६२६ । चडगर-चटकरं-आडम्बरः । बृ० द्वि० १३० अ । विस्तार- | चतुष्कपूरणं ।प्रश्न० १२७ । , वृन्दं ( देशीशब्दः ) । जं० प्र० १९६ । विस्तारवन्तः । चतुष्कल्पसेकसिक्त:-चत्वारः कल्पाः सेकविषया रसव ती. ( ३६४ ) चटुलकं 2010_05 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुः कल्याणकं ] शास्त्राभिज्ञेभ्यो भावनीयाः । जीवा० २६८ । चतुः कल्याणकं - तत्र चत्वारि चतुर्थभक्तानि चत्वार्याचा म्लानि चत्वारि एकस्थानानि चत्वारि पूर्वार्द्धानि चत्वारि निर्वृतिकानि च भवन्ति । बृ० प्र० १२८ अ । चतुः षष्टीपद वास्तुन्यासः - | जं० प्र० २०८ | चत्त - जेण सरीरविभूसादिणि निमित्तं हत्थपादपक्खालगादीहिं परिकम्म वदति तं । दश० चू० १५० । त्यक्तंनिर्दयतया दत्तम् । बृ० द्वि० २०० आ । च्युतःजीववत् क्रियातो भ्रष्टः । २६३ । चत्तदेह - त्यक्तदेहः- परित्यक्तजीवसंसर्गजनिताहारप्रभवो पचयः । भग० २९३ | परित्यक्तजीव संसर्गसमुत्थशक्ति जनिताहारादिपरिणामप्रभवोपचयः । प्रश्न० १०८, १५५ । चत्तरं चत्वरं - बहुरथ्यापात्तस्थानम् । जीवा० २५८ । औप० ४ । यत्र बहवो मार्गा मिलन्ति । औप० ५७ । अनेकरथ्यापतनस्थानम् । प्रश्न० ५८ । चत्ता - स्वयमेव दायकेन त्यक्ता-देयद्रव्यात्पृथक्कताः । प्रश्न ० १०८ । स्वयमेव दायकेन त्यक्ता भक्ष्यद्रव्यात्पृथक्कृता । भग० २६३ । चनिक: - मतविशेषः । बृ० प्र० १७३ आ । चनिकोपासकः चन्द्रः - रत्न विशेषः । जीवा० १६१ । चन्द्रकान्तः- चन्द्रप्रभः । जीवा० २३४ | अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ सूर्य ० ११ । । जं० प्र० ३२७ । चन्द्रमुखा - मूलद्वारविवरणे धनदत्तपत्नी । पिण्ड १४४ । चन्द्ररुद्र-जो पुण खरफरुसं भणतो आयरिओ । नि० ०. तृ० १३५ अ । चन्द्रशेखर:चन्द्रहासं - परमासवविशेषः । जीवा० १६८ । चन्द्रागमनप्रविभक्ति - चन्द्रागमन - सूर्यागमन - प्रविभक्त्यभिनयात्मक - आगमनागमनप्रविभक्तिनामा सप्तमो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ । चन्द्रादि-गच्छविशेषः । प्रश्न० १२६ । चन्द्रानना - आज्ञाऽऽराधनखण्डनादोषदृष्टान्ते पुरीविशेषः । पिण्ड ० ७६ । मूलद्वारविवरणे धनदत्तनगरी । पिण्ड ० 2010_05 चन्द्रावरणप्रविभक्ति-चन्द्रावरणप्रविभक्ति - सूर्यावरणप्र विभक्त्यभिनयात्मक आवरणावरणप्रविभक्तिनामा अष्टमो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ । चन्द्रावलिप्रविभक्ति - पञ्चमो नाट्यभेदः । जं०प्र० ४१६ । चन्द्रावलि प्रविभक्ति - सूर्यावलिप्रविभक्ति-वलयावलिप्रविभक्ति-हंसावलिप्रविभक्ति- तारावलिप्रविभक्ति - मुक्तावलिप्रविभक्ति - रत्नावलिप्रविभक्ति - पुष्पावलिप्रविभक्तिनामा पचमो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ । । जं० प्र० ४२३ । चन्द्रकान्ताद्या:- मणयः । सम० १३६ । ठाणा० २६३ । चन्द्रगुप्तः - चाणक्यस्थापितो राजा । व्य० प्र० १४० आ । चन्द्रास्तमयनप्रविभक्ति - चन्द्रास्तमयनप्रविभक्ति-सूर्यास्त नृपतिर्नाम । जं० प्र० २६३ । ठाणा० २८१ । चन्द्रगोपक:चन्द्रनखा-खरदूषणपत्नी । प्रश्न० ८७ । चन्द्रप्रतिमं - प्रकीर्णतपोविशेषः । उत्त० ६०१ । चन्द्रप्रभः - मणिविशेषः । जीवा० २३ । चन्द्रभागा - नदीविशेषः । ठाणा० ४७७ । चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति - चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति-सूर्य मण्डलप्रविभक्ति - नागमण्डलप्रविभक्ति- जक्षमण्डलप्रविभक्ति-भूत मण्डलप्रविभक्त्यभिनयात्मकामण्डलप्रविभक्तिनामा दशमी नाट्यविधिः । जीवा ० २४६ । चन्द्रोद्गमपविभक्ति - चन्द्रोद्गमप्रविभक्ति-सूर्योद्मप्रविभक्त्यभिनयात्मकः - उद्गमनोद्गमनप्रविभक्तिनामा षष्ठो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ । | चन्द्रोद्योतः - द्वीपः समुद्रोऽपि च । प्रज्ञा० ३०७ । चपलका : - आलिसन्दकाः । जं० प्र० १२४ ॥ - 'चपलित: - भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । चन्द्रमास: - मुहूर्त परिमाणमष्टौ शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि । चप्पडए - चप्पलकाः - चतुष्पलाः । वृ० तृ० २०३ अ । ( ३६५ ) | आचा० १४६ । [ चप्पडए १४४ । चन्द्रावतंसः - आज्ञाराधनखण्डनादोषदृष्टान्ते राजा । पिण्ड ० ७६ । मनप्रविभक्त्यभिनयात्मकः - अस्तमयनास्तमयन प्रविभक्तिनामा नवमो नाट्यविधिः । जीवा० २४६ चंद्रिका - आधा कर्म परिभोगे गुणचन्द्र श्रेष्ठिनः स्त्री । पिण्ड ० ७४ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चप्पडग ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ चम्मयर चप्पडग-चप्पडक:-काष्ठयन्त्रविशेषः। प्रश्न० ५७। चमरुप्पातो-चमरस्य-असुरकूमारराजस्योत्पतनं-उर्ध्वगचप्पाचप्पं । नि० चू० त०५० आ। मनं चमरोत्पातः । ठाणां० ५२४ । चप्पार्चाप्प । नि० चू० तृ० ५५ अ। चमसो-चमस:-दविका । औप० ६४ । चप्पुटिका-अप्सरो निपातो नाम चप्पुटिका। प्रज्ञा०६००। चम्म-चर्म-अङ्गुष्ठाङ्गुल्योराच्छादनरूपम् । जीवा० जीवा० १०६ । अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुलिकृतः आस्फोटः ।। २६० । राज० ११३ । पुलविशेषः । आव ८५४ । भग०२६६ । सिंहादीनां चर्माणि । दश० १६३ । स्फूरकः । भग. चप्पुडिया-चप्पुटिका । आव० ५३६ । अप्सरो निपातो- १९४ । त्वक् । प्रश्न० ८ । चर्म-सेवाल: । विशे० चप्पुटिका । जीवा० ३६६ । चप्पुटिका अगुलीद्वयोत्थः शब्दः । उत्त० १०८ । चम्मए-चर्मकृति-छवडिया । ओघ० २१७ । चप्फलिगाइय-कौतूहलिक-आशीर्वादः । आव० ४३२ । चम्मकडे-चर्मकट:-कटस्य तृतीयभेदः । आव० २८६ । चप्रलाप:-नकुलः । उत्त० ६६६ । वर्द्धव्यूतमञ्चकादिः । ठाणा० २७३ । चमक्क-चमत्कारं । ग० । चम्मकारा-पदकारा । नि० चू० द्वि० ४३ आ ८ । चमढण-प्रवचनोक्तर्वचनैः खिसनं करोति । ओघ० ४३ । | चम्मकिडं-चर्मव्यूतं-खट्वादिकम् । भग० ६२८ । निर्भर्त्सनम् । बृ० द्वि० २१५ आ । चम्मकोसए-चर्मकोशकः । ओघ० २१७ । चर्मकोश:चमढने-मर्दने । ओघ० १२६ । पाणित्रं खल्लकादिः । आचा० ३७० । चमढिउं-मदित्वा । आव० ४०५ । चम्मखंडं-चर्मखण्डम् । नि० चू० प्र० २२७ बा । चमढियं-विनाशितम् । व्य० प्र० १८४ अ । चम्मखंडिअ-चर्मपरिधानाश्चर्मखण्डिकाः, अथवा चर्ममयं चमढेत्ता-तिरस्कृत्य । आव० २०४ । सर्वमेवोपकरणं येषां ते चर्मखण्डिकाः । अनु० २५ । चमढ्याते-कदर्थ्यन्ते । ओघ० ६६ । चम्मखंडिए-चर्मखण्डकः-चर्मपरिधानः चर्मोपकरण इति । चमतिगं । नि० चू० प्र० १८० अ।। ज्ञाता० १६५ । चमर-द्विखुरविशेषः । प्रज्ञा० ४५ । चमर:-प्रथमो दक्षिण- चम्मचडिया-चर्मचटका:-चर्मपक्षिणः । उत्त० ६६६ । निकायेन्द्रः । भग० १५७ । पञ्चमतीर्यकरस्य प्रथमः | चम्मच्छेदन-चमच्छेदः-वर्द्धपट्टिका, चर्मच्छेदनकं पिष्पलशिष्यः । सम० १५२ । दक्षिणात्यासुरकुमाराणामधि- कादि । ओघ० २१८ । पतिः । ठाणा० ८४ । जीवा० १७० । प्रज्ञा० ६४ । चम्मज्झामे-चर्मध्याम-धर्म च तद्धयामं च-अग्निना घ्याज्ञाता० १६१ । मलीकृतं-आपादितपर्यायान्तरम् । भग० २१३ । चमरचञ्चा -देवस्थानविशेषः । भग० १४३ । चमरेन्द्र- चम्मट्ठिल-चर्मास्थिल:-चर्मचटकः । प्रभ० ८ । राजधानी । सम० ३२ । जं० प्र० ३३६ । ठाणा० चम्मपक्खो-चर्मात्मको पक्षौ चर्मपक्षी तो विद्यते ५२४ । चमरचञ्चा-चमरेन्द्रराजधानी । भग० १७१।। । येषां ते चर्मपक्षिणः । प्रज्ञा० ४६ । चर्मरुपी पक्षौ विद्येते जं० प्र० ४०७ । भग० ६१७ । दाक्षिणात्यस्यासुरनि- यस्य स चर्मपक्षी । जीवा० ४१ । कायनायकस्य चञ्चा-चञ्चाख्यानगरी चमरचञ्चा। ठाणा० चम्मपट्टो-चर्मपट्टः-वर्द्धः । विपा० ७१ । ३७६ । चम्मपणयं-चर्मपञ्चक-अजै१ डकरगो३महिष४मृगाजिनचमरा-चमरा-आरण्यगौः। प्रश्न० ७ । आटव्यो गावः।। लक्षणम् । आव० ६५२ ।। जं० प्र० ४३ । चम्मपाय-चर्मपात्रं-स्फुरकः खगकोशको वा । भग० चमरो-चमरी-द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः । जीवा० ३८ । १९१ । गोविशेषः । प्रश्न. ७६ । चम्मयह-श्रेणिविशेषः । जं० प्र० १६४ । ( ३९६ ) 2010_05 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्मरयणे ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ चरण चम्मरयरणे-चक्रवर्तेरेकेन्द्रियं तृतीयं रत्नम् । ठाणा० चरंतं-चरत्-विश्वं व्याप्नुवत्, अब्रह्मणस्तृतीयं नाम । ३९८ । प्रश्न० ६६ । चम्मरुक्ख-वृक्षविशेषः । भग० ८०३ । चरंतमेसणं-परिशद्धाहारादिना वर्तमानम् । आचा०४२६। चम्मिय-चर्मणि नियुक्ताश्चाम्मिकाः । भग० ३१७ । चरंति-आचरन्ति । प्रश्न०६५। चरन्ति-प्रवर्तन्ते । जं० चम्मे-चर्मपक्षिणः-चर्मचटकाप्रभृतयः, चर्मरूपा एव | प्र० २२७ । भिक्षानिमित्तं पर्यटन्ति । उत्त० ३६२ । हि तेषां पक्षा इति । उत्त८ ६६६ । आसेवन्ते । उत्त० ३६३ । चम्मेढ़-लोहमयः प्रतलायतो लोहादिकुट्टनप्रयोजनो लोह- चरंतिअ-चरन्ति यस्यां दिशि तीर्थंकरादयो यावद् युगकाराद्युपकरणविशेषः । भग० ६१७ । चर्मेष्टः-चर्मनद्धपा- प्रधाना विहरन्ति सा दिक् । आव० ४७० । षाणः । प्रश्न ४८ । चर्मेष्ट:-चर्मवेष्टितपाषाणविशेषः। चरंतिया-सा इमा जाए दिसाए तित्थकरो केवली मणप्रश्न० २१ । पज्जवणाणी ओहिणाणी चोद्दसपुब्वी जाव णवपुव्वी जो चम्मेद्वग-चमेष्टकं-चर्मपरिणद्धकुट्टनोपगरणविशेषः। जं० जम्मि वा जुगपहाणो आयरिओ जत्तो विहरति ततो हुत्तो प्र० ३८७ । चर्मेष्टिका-इष्टकाशकलादिभृतचर्मकुतपरूपा | पडिच्छति । नि० चू० तृ० ६६ आ। यदाकर्षणेन धनुर्धरा व्यायाम कुर्वन्ति । उपा० ४७ । चरंतो-विहरन्ति । व्य० प्र० ६२ आ । चर्मेष्टकम् । राज० २२ । चर्मेष्टका । अनु० १७७ ।। चर-सूचामात्रत्वादस्य चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरणः-प्रथम चर्मेष्टकम् । जीवा० १२१ ।। उद्देशकः । भग० ६३० । चयं-अधिकत्वेन वृद्धिः । सूर्य० १६ । शरीरम् । भग० चरइ-चरति-करोति । सम० ६६ । आचरति । सम० १२६ । १६, २१। चरति-अटित्वा आनीतं भुङ्क्ते । दश०२५३ । चयइ-ददाति । भग० २८६ । त्यजति-विरहयति । चरए-धाटिभिक्षाचरः । ज्ञाता० १६५ । भग० २८६ । चरकः-मतविशेषः । उत्त० २४१ । जीवा० १४३ । नि० चयणं-वैमानिकज्योतिष्कमरणम् । ठाणा० ४६६ । चयनं- चू० प्र० १८६ अ । कषायपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम् । प्रज्ञा० २६२। चरग-चरक:-धाटिभिक्षाचरः । जं० प्र० २३६ । चरकःचयति-च्यवते । जीवा० ११० । चीयते-सामान्यतश्चय- मतविशेषः । आव० ८५६ । चरतीति चरकः-दंशममागच्छति । प्रज्ञा० २२८ । शकादिः । सूत्र० ६५ । चरक:-कच्छोटकादयः। भग० चयनं-व्याख्यानान्तरेणासकलनम् । ठाणा० ४१७ । कषाय- | ५० । कच्छोटकादिकः । प्रज्ञा० ४०५ । परिणतस्य कर्मपुगलोपादानमात्रम् । ठाणा० १६५ । चरगपरिव्वायग-चरकपरिव्राजकः - धाटिभक्ष्योपजीविनकषायादिपरिणतस्य कर्मपुद्गलोपादानमात्रम् । ठाणा० स्त्रिदण्डी, अथवा चरकः-कुच्छोटकादिः परिव्राजकस्तु १०१, ५२७ । कपिलमुनिसूनुः । भग० ५० । चयमाणे-च्यवमान:-जीवमानः जीवन्नेव मरणकाल त्यजन् चरगपरिवायय-चरकपरिव्राजक:-धाटिभैश्योपजीवी त्रि. इत्यर्थः । भग० ८६ । दण्डी। प्रज्ञा० ४०५। चयिका-पोठिका। पिण्ड० १०७ । चरगा-धाटिवाहकाः सन्तो ये भिक्षां चरन्ति ते, ये च चयो-चीयते चयनं वा चयः, परिग्रहस्य तृतीयं नाम । भूञ्जानाश्चरन्ति वा ते चरकाः । अनु० २५ । कणदाः, प्रश्न. ६२ । धाटिवाहका वा । बृ० प्र० २४२ आ। चयोवचयं-चयोपचयं-चयेन अधिकत्वेन वृद्धिरपचयेन हीन- चरण-चारित्रं-क्रिया । व्य० द्वि० ४५७ आ । चर्यतेत्वेनापवृद्धिः । सूर्य० १३ । मुमुक्षिभिरासेव्यत इति चरणं, चर्यते गम्यते प्राप्यते चरः-उपचरकः । आचा० ३७७ । भवोदधेः परकुलमनेनेति चरणं-वतं-श्रमणधर्मादयो मूल( ३६७) 2010_05 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरणकरणपारविऊ ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [चरमसमयनियंठो गणाः । विशे० २ । चतुर्वेदब्राह्मणः । बृ० प्र० ५६ अ। चरति-उपपद्यते । सूर्य० ११।। चारणलब्धिः । विशे० ३८५ । गमनम् । आव० ५५२ । चरमंतपएस-चरमाण्येवान्तवत्तित्वात् अन्ताश्चरमान्तागवेषणम् । प्रश्न० १०६ । नित्याऽनुष्ठानम् । ओघ०७।। स्तत्प्रदेशश्च चरमान्तप्रदेशः । प्रज्ञा० २२६ । व्रतश्रमणधर्मसंयमाद्यनेकविधम् । सम० १०६ । महा- | चरम-चरम-पर्यन्तवत्ति । प्रज्ञा० २२८ । चरमम् । व्रतादि । ज्ञाता० ७ । औप० ३३ । विशिष्टं गमनम्, प्रशा० २३४ । चरमेभ्योऽल्पस्थितिकेभ्यो नारकादिभ्यः गमनम् । नंदी० १०६ । उत्तराध्ययनेषु एकत्रिंशतममध्य- परमा-महास्थितयो महाकर्मतरा इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थः । यनम् । उत्त०६ । व्रतादि । भग० १२२ । ज्ञाता० एकोनविंशतितमशतके पञ्चम उद्देशकः । भग० ७६१ ॥ ६१ । उत्त० ५६७ । उच्चावचकूलेष्वविशेषेण पर्यटनम् । प्रान्तं पर्यन्तवत्ति । भग० ३६५ । आव० ८५२ । शैलेउत्त० ६०७। गतिचरणं भक्खणाचरणं, आचरणाचरणं शीकालान्त्यसमयभावी । प्रज्ञा० ३०३ । अर्वाग्भागच । नि० चू० प्र० १ अ। आचारः। उत्त० ५३२। वत्ति स्थित्यादिभिः । भग० ६३० । चरम:-यस्य चरमो चारित्रं, सच्चेष्टेतियावत् । उत्त० ५१६ । चरणं-व्रत- भवो भविष्यति स चरमः । भग० २५६ । श्रमणधर्मादि । भग० १३६ । सर्वतो देशतश्व चारित्रमिह चरमअचरिमसमय-चरमास्तथैव अचरमसमयाश्च प्रागुक्तविवक्षितम् । विशे० २ । चारित्रं-समग्रविरतिरूपम् । युक्तरेकेन्द्रियोत्पादापेक्षया प्रथमसमयवतिनो ये ते चरमादश० ११० । चरमसमयाः । भग० ६६६ । चरणकरणपारविऊ-चर्यत इति चरणं मूलगुणाः, क्रियत चरमचरम: । जं० प्र० ४१८॥ इति करणं-उत्तरगुणास्तेषां पारं-तीरं पर्यन्तगमनं तद्वे. चरमचरमनामनिबद्धनाम-चरमपूर्वं मनुष्यभव-चरमत्तीति चरणकरणपारवित् । सूत्र० २९८ । देवलोकभव-चरमच्यवन-चरमगर्भसंहरण - चरमभरतचरणकरणानुयोग:-अर्हद्वचनानुयोगस्य चतुर्थो भेदः,आचा- क्षेत्रावसप्पिणीतीर्थकरजन्माभिषेक -चरमबालभाव-चरमरादिकः । आचा० १ । अनुयोगस्य प्रथमो भेदः । ठाणा० यौवन-चरमकामभोग- चरमनिष्क्रमण- चरमतपश्चरण४८१। चरमज्ञानोत्पाद-चरमतीर्थप्रवर्तन-चरमपरिनिर्याणाभिनचरणगुणट्टिओ-चरणगुणस्थितः-सर्वनयविशुद्धः । उत्त. यात्मकः, द्वात्रिंशत्तमो नाट्यविधिः। जीवा० २४७ । ६६ । चर्यत इति चरणं-चारित्रं, गुणः साधनमुपकारक- चरमचरमसमय-चरमाश्च ते विवक्षितसङ्ख्यानुभूतेश्वरममित्यनर्थान्तरं, ततश्च चरणं चासौ गुणश्च निर्वाणात्यन्तो | समयवत्तित्वात् चरमसमयाश्च प्रागुक्तस्वरूपा इति चरमपकारितयाः चरणगुणस्तस्मिन् स्थित:-तदासेवितया | चरमसमयाः । भग० ९६६ । . निविष्टः । उत्त० ६६ । चरमतियति ।बृ० प्र० ६३ अ। चरणगुणा-चरणान्तर्गता गुणाः, चरणं-प्रतादि गुणाः चरमनिदाघकालसमओ-चरमनिदाघकालसमय :-ज्येष्ठपिण्डविशुद्धचादयश्चरणगुणाः । उत्त० ५६७ । मासपर्यन्तः । जीवा० १२२ । चरणग्गो-चरणेन अग्रः-प्रधानः चरणानः । पिण्ड ० ४१ । चरमपाडिआ-चरमप्राभृतिका बादरा । दश० १६२ । चरणनया-चरणनयाः-चरणवृत्तयः । विशे० १३५२ । चरमप्रदेशजीवप्ररूपी-जीवप्रदेशो निह्नवः ।' आव. चरणमालिया-चरणमालिका-भूषणविधिविशेषः । जीवा० ३११ । . २६६ । चरमसमय-चरमसमयशब्देनैकेन्द्रियाणां मरणसमयो विवचरणरिया-चरणेर्या-चरतेर्भावे ल्युट चरणं तद्रुपेर्या चर- क्षितः स च परभवायुषः प्रथमसमय एव तत्र च वर्त र्या, चरणं गतिर्गमनमित्यर्थः । आचा० ३७५ । । मानाश्चरमसमयाः । भग० ६६६ । चरणविही-उत्तराध्ययनेषु एकत्रिंशत्तममध्ययनम् । सम० चरमसमयनियंठो-यश्चरमे-अन्तिमे समये वर्तमानः सः चरमसमयनिर्ग्रन्थः । उत्त० २५७ । (३६ ) 2010_05 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमाई ] चरमाई चरमाणीति प्रश्नमुद्दिश्य प्रवृत्तत्त्वात् प्रज्ञापनाया दशमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । चराई - चराणि अनियततिथिभावित्त्वात् । जं० प्र० ४६४ । चरामि - आसेवयामि । आव० ५६७ । चरि चारि:- आजीविका । उत्त० ११६ । अचारिच्चरित्वा अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ च । उत्त० ४४८ । चरिअ चरिका - नगर प्राकारान्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्ग:द्वारं व्यक्तम् । जं० प्र० १०६ । गृहाणां प्राकारस्य चान्तरेष्टहस्तविस्तारो हस्त्यादि सञ्चारमार्गश्वरिकाः । अनु० १५६ । चरिअका मो - चरितुं काम:-: -भक्षयितुं काम: । ओघ ० ३६ । चरिआ - ग्रामादिष्वनियतविहारित्वम् । सम० ४१ । चरिका संदेशकारीणी दासी । आव० ३४९ । चरिका - परिव्राजिका । ओघ० १६४ । चरित - चारित्र - विरतिपरिणामरूपेण क्षायिकभावापन्नम् । जं० प्र० १५१ । चर्यते - मुमुक्षुभिरासेव्यते तदिति चर्यंते वा गम्यते अनेन निर्वृत्ताविति चरित्रं, अथवा चयस्य कर्म रिक्तीकरणाच्चरित्रं निरुक्तन्यायादिति, चारित्रमोहनीयक्षयाद्याविर्भूत आत्मनो विरतिरूपः परिणामः । ठाणा० २४ । चर्यंते आसेव्यते यत्तेन वा चर्यते - गम्यते मोक्ष इति चरित्र - मूलोत्तरगुणकलापः । ठाणा ० ५२ । चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चारित्रम् । अनु० २२१ । चरन्ति गच्छन्त्यनेन मुक्तिमिति चरित्रम् । उत्त० ५५६ | चारित्रंचारित्रमोहनीयक्षय क्षयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः । भग० ३५० । मूलोत्तरगुणरूपम् । वृ० प्र० १७२ अ । चारित्र - बाह्यं सदनुष्ठानम् । राज० ११६ | चारित्रं - सावयोगनिवृत्तिलक्षणम् । प्रश्न० १३२ । चयरिक्तीकरणाचारित्रम् | ओघ० । चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्र क्षयोपशमरूपं तस्य भावः । इहान्यजन्मोपाताष्टविधकर्मसञ्चयापचयाय चरणं चारित्रं, सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिरूपा क्रियेत्यर्थ: । आव ० ७८ । चारित्रम् । आव० ७९३ । चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य भावः चारित्रं अशेषकर्मक्षयाय चेष्टेत्यर्थः । दश० २३ । अनुष्ठानम् । ज्ञाता० ८१ । चरित कसायकुसील - यः कषायाच्छापं प्रयच्छति स चारित्रे 2010_05 [ चरिम कुशीलः । भग० ८६० । चरित्तधम्मे-चयरिक्तीकरणाच्चारित्रं तदेव धर्मचारित्रधर्मः । ठाणा० ५१५ । चरित्रधर्म्मः - क्षान्त्यादिश्रमणधर्मः । ठाणा १५४ । चरित्तधम्मो - चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं-क्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रं, अशेषकर्मक्षयाय चेष्टेत्यर्थः, ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्मः । दश० २३ । प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपः । दश० १२० । चरित्तपज्जवे-चरित्रपर्यवाः - चारित्रभेदाः क्षायोपशमिका इति । उत्त० ५६२ । चरित पुलाए - पुलाकस्य तृतीयो भेदः, मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनया चारित्रं विराघयति । भग० ८६० । चरित्तपुलात - चारित्रपुलाकः - पुलाकस्य तृतीयो भेदः । चारित्रनिस्सारत्वं य उपैति स पुलाकः । उत्त० २५६ । मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः । ठाणा० ३३७ । चरित्तभावभासा - चारित्रभावभाषा - भावभाषाभेदः, चारि त्रं प्रतीत्योपयुक्तर्या भाष्यते सा । दश० २०८ ॥ चरितविणओ- चारित्राद्विनयः, चारित्रविनयः । दश० २४१ । चरित्तवीरियं -असेसकम्म विदारणसामत्थं खीरादिलदुप्पादणसामत्थं च । नि० चू० प्र० १६ अ । चरित्तसंकिले से - चारित्रस्य सङ्क्लेश: अविशुद्धमानता स चारित्रसङ्क्लेशः । ठाणा० ४८६ । चरितायारे - चारित्राचारः - समितिगुप्तिभेदोऽष्टधा । ठाणा ० ३२५ । समितिगुप्तिरूपोऽष्टधा । ठाणा० ६५ । चरितिदे-चरित्रेन्द्रः - यथाऽऽख्यात चारित्रः । ठाणा० १०४ । चरिमंत- चरमान्तः - अपान्तराललक्षणः । जीवा० ६४ । चरमरूपः पर्यन्तः । जीवा० २८६ । चरिमंतपएसा - चरिमाण्येवान्तवत्तित्वादन्ताश्वरिमान्तास्तेषां प्रदेशाः चरिमान्तप्रदेशाः । भग० ३६६ ॥ चरिम- चरमोऽनन्तरभावी भवो यस्यासौ चरमः । राज० ४७ । चरमः - यस्य चरमो भवः संभवी योग्यतयाऽपि सः, भव्यः । प्रज्ञा० १४३ । चरमो भवो भविष्यति यस्य सोSभेदाच्चरमो भव्यः । प्रज्ञा० ३६५ । चरमसमयभावी - चतुर्थ• समय भावीति । प्रज्ञा० ५६६ । चरमभववान् भव्यविशेषः । ( ३६६ ) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरिमपदं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [चलणि जीवा० ४४४ । चरेज्ज-चरेत्-सेवेत । भग० ३६८ । चरिमपदं । भग० ३६५। चर्च:-संहितादि चर्चः । ठाणा० ३८ । चरिमभव-चरमभव:-पश्चिमभवः । प्रज्ञा० १०५ । चर्मकारकोत्थ:-क्रोधविशेषः । आव० ३६१ । चरिमभवत्थ-चरमभवस्थ:-भवचरमभागस्थः । भग० । ओघ० २१७ ॥ १८१ । चर्मदलं-चतुर्थ क्षुद्रकुष्ठम् । आचा० २३५ । प्रश्न० १६१ । चरिमा-वद्धमाणसामिणो सिस्सा। नि० चू० प्र० ३५३ अ । चर्मपक्षिण:-चर्ममयपक्षाः पक्षिणः, वल्गुलिप्रभृतयः । चरिमाचरमो-नारकभवेषु स एव भवो येषां ते चरमाः,नार- ठाणा० २७३ । खचरप्रथमो भेदः । सम० १३५ । कभवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः । भग० ६००। चर्मपक्षौ-चत्मिको पक्षौ चर्मपक्षौ । प्रज्ञा० ४६ । चरिय-चरिका-नगरप्राकारयोरन्तरमष्टहस्तो मार्गः । चर्मपञ्चकम् ठाणा० २३४॥ सम० १३७ । चरिका-अष्टहस्तप्रमाणो मार्गः। राज. चर्या-वहनं गमनमित्यर्थः । ठाणा० २४०। ३ । चरितं-चेष्टनम् । प्रश्न० ६२ । चरित:-सेवितः ।।चलंत-स्वस्थानादन्यत्र गच्छन् । ठाणा० ३८५ । प्रश्न० ५१ । चरित-यवृत्तम् । दश० ३४ । चलंतसंधि-चलन्तः-शिथिलीभवन्तः सन्धयो यस्मिस्तत् । चरियव्वगं-चरणं-तृणादनम् । आव० २२६ । उत्त० ३३४ । चरिया-चरणं चर्या-ग्रामानुग्रामविहरणात्मिका । उत्त० चलं-थम् । ठाणा० २०६ । गन्तं प ८३ । नवमः परिषहः, वजितालस्यो ग्रामनगरकुलादिष्व- २३ । अनियतविहारित्वात् । आचा० २५८ । अवधि:, नियतवसतिनिर्ममत्त्व: प्रतिमासं चर्यामाचरेदिति । आव० अनवस्थितश्च । आव० २८। गमनाभिमुखम् । ओघ. ६५६ । विहितक्रियासेवनम् । उत्त० ८१ । दशविधचक्र- १४१ । चल:-गमनक्रियायोगात हारादिः । आव० १८५। वालसामाचारी इच्छामिच्छेत्यादिका । सूत्र०. ८८ ।। चलो वायुराशुगत्वात् । जं०प्र०२६५ । चरिका-नगरप्रकारयोरन्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्गः ।प्रश्न० चलइ-चलति-कम्पते । जीवा० ३०७ । स्थानान्तरं ८। अष्टहस्तप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः। औप०३। गच्छति । भग० १८३।। जीवा० २५८, २६९ । ज्ञाता० २ । चरिका । आव० चलचल-तवए पढमं जं घयं खित्तं तत्थ अण्णं घयं अपवित्र६४० । चरिका-परिवाजिका । व्य० प्र० २०५ आ । | वंती आदिमे जे तिणि घाणा पयतिते चलचलेति । नि० ग्रहप्राकारान्तरो हस्त्यादिप्रचारमार्गः। भग० २३८ । नगर- चू० प्र० १९६ आ। प्राकारान्तराले हस्ताष्टकमानो मार्गः। बृ० तृ० ५३ अ । चलचलओग्गहिम | आव० ८५७1 चरियाचरिए-चारित्राचारित्रं-देशविरतिः स्थूलप्राणाति- | चलचवलं-चलचपलं-अतिशयेन चपलम् । प्रज्ञा० १६ । पातादिनिवृत्तिलक्षणम् । आचा०६८ । जीवा० १७२। चरियारए-चर्यारता:-निरोधासहिष्णुत्त्वाञ्चक्रमणशीलाः। चलणं-चलनं-मोटनम् । ओघ० १७७ । चलन:-चलनआचा० ३६६ विषयको भगवत्याः प्रथमशतके प्रथमोद्देशकः । भग०५१ चरिसामि-चरिष्यामि-अनुष्ठास्यामि । उत्त० ४०६ । चलणमालिआ-चरणमालिका-संस्थानविशेषकृतं पादा. चरु-बलम् । निरय० २७ । स्थालीविशेषः । औप०६४ । भरणं लोके पगडां इति प्रसिद्धम् । जं० प्र० १०६ । चरु:-भाजनविशेषः । भग०५२० । चलणाओ-चलनकः, भगवत्याः प्रथमशतकदशमोद्देशः । चरे-चरे:-आसेवस्व । उत्त० ३४१ । चरेत-आसेवेत । भग० ५ । उत्त० ५६ । चरति-आचरति । दश० २५५ । चरेत्- | चलणाहण-पारिणामिकबुद्धौ षोडशो दृष्टान्तः । नंदी. उद्युक्तो भवेत् । आचा० १२२ । विदध्यात् । आचा० १८० । चरेत्-गच्छेत् । प्रवर्ततेतियावत् । उत्त० ४३०।चलणि-चलनप्रमाणः कर्दमश्चलनीत्युच्यते । भग०३०७ । ( ४०० ) 2010_05 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलणिगा ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [चाउरंत चलणिगा-मल्लचलणाकृतिः । नि० ५० ५० १७६ आ। चन्वायं-चार्वाक:-रोमन्थायमाणः । व्य० प्र० २५५ । " चलणिचिक्खल्लो- । नि० चू० द्वि० ७६ आ। चषक:-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ । चलणी-चलनी । ओघ० २०६ । चरणमात्रस्पर्शी कर्दमः। चसक-चषक:-सुरापानपात्रम् । जं० प्र० १०१ । जीवा० २८२। चसूरि-विस्तारः । भग० ७६० । विस्तरः । ओघ ५ । चलत-ईषत्कम्पमानम् । जीवा० १८८ । अनु० १३६ । नंदी० ३३ । चलतोरणं-जेण वामं दक्खिणं वा चालिजति सो चल- | चाइया-शकिताः । उत० ६२७ । तोरणं । नि० चू० तृ० ६३ आ। चाई- त्यागी-सङ्गत्यागवान् । भग० १२२ । सर्वसङ्गत्यागः, चलनकाल:-उदयावलिका । भग० १५ । संविग्नमनोज्ञसाधुदानं वा । प्रश्न० १५७ । चलमाणे-चलत्-स्थितिक्षयादुदयमागच्छत् विपाकाभिमु- चाउक्कालं-चतुष्कालं-दिवसरजनीप्रथमचरमप्रहरेष्वित्य खीभवद्यत्कर्मेति प्रकरणगम्यं तत् । भग० १५। । र्थः । आव० ५७६ । चलसत्ते-चलं-अस्थिरं परीषहादिसम्पाते ध्वंसात् सत्त्वं यस्य चाउग्घंट-चतस्रो घण्टा अवलम्बमाना यस्मिनु सः । ज्ञाता० स चलसत्त्वः । ठाणा० २५१ । ४५ । चतस्रो घण्टा:-पृष्ठतोऽग्रतः पार्वतश्च यस्य सः । चलहत्थो-णाम कंपणवाउणा गहितो । नि० चू० प्र० ज्ञाता० १३२ ।। १०१ अ। चाउजामो-चातुर्यामः-निर्वृत्तिधर्म एव । आव० ५६३ । चलाचल-चलाचलं-अप्रतिष्ठितम् । दश० १७५ । चाउज्जाभा-चतुर्महाव्रतानि । भग० १०१ । चलिः-परिस्पन्दनार्थः । दश ० ७० । चातुर्यामः-महाव्रतचतुष्टयात्मको यो धर्मः । उत्त० ४६६ । चलिअ-चलितं-विलासवद्गतिः । जं० प्र० २६५ । चाउज्जायग-चातुर्जातक-सुगन्धद्रव्यविशेषः । उत्त०२१६ । चलिए-चलनं-अस्थिरत्वपर्यायेण वस्तुन उत्पादः । भग. चाउज्जायगा-सुगंधदव्वं । नि० चू० प्र० ३१८ आ। १८। चाउत्थजरो-चातुर्थज्वरः । आव० ५५६ । चलेमारणे-गच्छन् । आचा० २६५ । चाउत्थहिय-चातुर्थाहिक:-ज्वरविशेषः । भग० १६८ । चवइ-च्यवते-अपयाति-चरति । आचा०४०६ । चाउद्दसी-चतुर्दशी तिथिः । ज्ञाता० १३६ । चवणं-च्यवनं-पातः । आचा० १६३ । उद्वर्तना । जीवा० | चाउप्पायं-चतुष्पदा-भिषग्भैषजातुरप्रतिचारकात्मकचतुर्भा१३५ (त्मकभा)ग चतुष्टयात्मिका । उत्त० ४७५ । चवल-चपलं-उत्सुकतयाऽसमीक्षितम् । प्रभ० ११६ । चा. चाउम्मासिएसु- । आचा० ३२७ । लत्वं कायस्य । ज्ञाता० ६६ । चञ्चलम् । ज्ञाता० १३८ । | चाउम्मासियं-चातुर्मासिक-चतुर्मासातिचारनिर्वृत्तं प्रतिहस्तिग्रीवादिरूपकायचलनवत् । प्रश्न० १२६ । चापल्यं- क्रमणम् । आव० ५६३ । कायोत्सुक्यम् । जं० प्र० ३८८ । चपला' कायतोऽपि । चाउम्मासियमज्जणए- । ज्ञाता० १४० । शाता० ३६ । चपलः । आव० १८५ । चाउरंगिज्जं-उत्तराध्ययनेषु तृतीयमध्ययनम् । सम० चवलगं-चपलकम् । आव० ६२२। ६४ । नि० चू०प्र० ६ अ । चातुरङ्गीयम् । दश० १०५। चवलगा-धान्यविशेषः । नि० चू० प्र० १४४ आ। चाउरंत-चातुरन्तं-चतुर्गतिकम् । प्रश्न०६१ । चतुर्विभागचवला-चपला-कायचापलोत्पेता। भग० १६७ । संसारः । ज्ञाता० ८६। चतुरन्तः संसारः । आव० ५४६ । चवलाए-चपलया-कायचापल्येन । भग०५२७ । चतुरन्त:-चतसृष्वपि दिक्ष्वन्तः-पर्यन्तः, एकत्र हिमवानन्यचवलिअ-चपलितः । जं० प्र० १०१ । | त्रच दिक्त्रये समुद्रः स्वसम्बन्धितयाऽस्येति । चतुभिर्वा चवेडा-चपेटा-करतलाघातः । उत्त० ६२ । चपेटा- हयगजरथनरात्मकरन्तः-शत्रुविनाशात्मको यस्य स । उत्त. पञ्चाङ्गुलीप्रहारः । उत्त० ४६१।। ३५० । चतुर्विभागं नरकादिगतिविभागेन । ठाणा ४४ । ( अल्प० ५१ ) (४०१) 2010_05 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाउरंतचक्कटि] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [चार चाउरंतचक्कवट्टि-चतुर्यु-दक्षिणोत्तरपूर्वापररूपेषु पृथिवी- चाउसालए-चतुःशालक-भवनविशेषः । जं० प्र० ३६१ । पर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितं शीलं यस्स स चातुरन्तचक्रवर्ती | चाउस्सालं-चतुःशालम् । ओघ० ४६ । गृहम् । बृ० द्वि० । जं० प्र० ५८ । १४८ आ । चाउरंतचक्कवडी-दिक्त्रयभेदभिन्नसमुद्रत्रयहिमवत्पर्वत- चाएइ-शक्नोति । आव० ७०३ । पर्यन्तसीमाचतुष्टयलक्षणा: ये चत्वारोऽन्तास्तांश्चतुरोऽपि | चाकचिक्यं । नंदी० ५५॥ चोण वत्तयति पालयतीति-चतुरन्तचक्रवर्ती-परिपूर्ण- चाक्रिकः-यान्त्रिकः । ओघ० ७५ । षट्खण्डभरतभोक्ता । अनु० १७१ ।। चाटुयार-चाटुकर:-मुखमङ्गलकरः । प्रश्न० ३० । चाउरंतमुक्ख-चतुरन्तमोक्ष:-संसारविनाशः । आव० चाडु-चाटु । आव० ६३ ।। ५४६ । चाडुकर-चाटुकरः । प्रश्न० ५६ । चाउरक्क-चातुरक्यं चतु:स्थानपरिणामपर्यन्तम् । जीवा० चाइयं-हावभावम् । जीवा० ६९६ । २७८, ३५३ । चाणक्क-चाणक्यः-कौटिल्यः। दश० ५२, ६१ । पाशके चाउलं-तन्दुलधावनम् । ६० द्वि० २४६ आ । दृष्टान्तः । आव० ३४२ । चन्द्रगुप्तमन्त्री । नि० चू० तृ० चाउलणा-जहा आफासुयं अणेसणिज्जति तेसिं चाउलणा ४ आ। नीतिकार:-कौटिल्यः। चूर्णद्वारविवरणे चन्द्रगुप्तकहिज्जति । नि० चू० द्वि० १४८ आ । मन्त्री । पिण्ड० १४२ । उपायेनार्थोपार्जनकारको चाउलपलंवं-अर्द्धपक्कशाल्यादि कणादिकमित्येवमादिकम् ब्राह्मणः । दश० १०७। विमर्शदृष्टान्ते नीतिकारो द्वि। आचा० ३४२ । तन्दुला:-शालिव्रीह्यादेः त एव चूर्णी- जन्मा । आव० ४०५ । प्रशंसाविषये पाटलीपुत्रे चन्द्रकृतास्तत्कणिका वा । आचा० ३२३ । गुप्तराजमन्त्री । आव० ८१७ । गोब्बरनामे सुबन्धुना चाउललोट्टो-रोट्टः । ओघ० १३७ । दग्धः । मर० । सुबन्धुप्रदीपितः। भक्त० । पाडलीपुत्ते चाउला-तन्दुला:-शालिव्रीह्यादेः । आचा० ३२३ । मंती। नि० चू०द्वि० १०२ अ । नि० चू०प्र० ११६अ। चाउलोदग-तण्डुलोदकम् । पिण्ड० १० । तन्दुलोदकं- चाणक्य:-पाटलीपुत्रनगरे मन्त्री । विशे० ४१० । व्य० अट्टिकरकम् । दश० १७७ । प्र० १४० आ । चाणक्यः-शचुदग्धोऽनशनी । सं० । चाउलोदयं-तन्दुलधावनोदकम् । आचा० ३४६ । चाणाक्यः-संन्यासे दृष्टान्तः । व्य० प्र० २५६ अ । चाउवण्णं-चातुर्वण्यं-ब्राह्मणादिलोकः । भग० ६६० ।। ठाणा० २८२ । पारिणामिकबुद्धौ द्वादशो दृष्टान्तः । नंदी० चाउवन-चत्वारो वर्णाः-प्रकारा: श्रमणादयो यस्मिन् । १६७ । स तथा स एव स्वाथिकाविधानाच्चातुर्वर्णः । ठाणा चाणूरः-कंसराजसम्बन्धी एतदभिधानो मल्लः । प्रश्न ३२१ । चाउवण्णाइण्णे-चत्वारो वर्णा:-श्रमणादयः समाहृता चातुरंतसंसारकतारो-चातुरंतसंसारकान्तारः । आव. इति चतुर्वर्णं तदेव चातुर्वण्यं तेनाकीर्ण:-आकुलश्चातु- ७६३ । बाकीर्णः, अथवा चत्वारो वर्णा:-प्रकारा यस्मिन् स चामरगंडा-चामरदण्डाः । ज्ञाता० ५८ । तथा, दीर्घत्वं प्राकृत्वात्, चतुर्वर्णश्वासावाकीर्णश्च ज्ञाना. | चामरच्छायं-चामरच्छायनं-स्वातीगोत्रम् । जं० प्र० दिभिर्महागुणैरिति चतुर्वर्णाकीर्णः । ठाणा० ५०३। । ५०० । चाउवण्णाइन्ने-चातुर्वर्णाश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिगुण- चामरधारपडिमाओ-चामरधारप्रतिमाः । जं०प्र० ८१। रिति चातुर्वर्णाकीर्णः । भग० ७११ ।। चारंचरइ-चारञ्चरति-मण्डलगत्या परिभ्रमति । जीवा. चाग्वेज्ज-चातुर्वधः । आव० १०३, ६६५। ३७७ । चाउवेज्जमत्तं-चातुर्वरभक्तम् । आव० ५२४ । चार-चरन्ति-भ्रमन्ति, ज्योतिष्कविमानानि यत्र स चारो ( ४०२) ७४। 2010_05 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारकपालकः ] ज्योतिश्चक्रक्षेत्रं समस्तमेव । ठाणा० ५८ । नियुक्ताः । नि० चू० द्वि० १०६ अ । चरणं चारः - अनुष्ठानम् । आचा० २१२ । विहारः । भग० ३ । ज्योतिषामवस्थानक्षेत्रम् । भग० ३९४ । ठाणा० ५८ । चारः - ज्योतिवारस्तद्विज्ञानम् । जं० प्र० १३६ । मण्डलगत्या परि- | भ्रमणम् । जीवा० ३७८ । जं० प्र० ४६२ । चरणम् । प्रश्न० ९५ । फलविशेषः । प्रज्ञा० ३२८ । चारं-परिभ्रमणम् । सूर्य० ११ । चारः । ज्ञाता० ३८ । । उत्त० ६२ । । आचा० १६५ । चार - चारक:- गुप्तिः । प्रश्न० ६० । औप० ८७ गुसिगृहम् । प्रश्न० ५६ । बन्धनगृहम् । आव० ११४ । चारगपरिसोहणं - चारगशोधनम् । ज्ञाता० ३७ । चारगपाले - चारकपालः - गुप्तिपालकः । विपा० ७१ । चारगबंधणं - चारकबन्धनम् । सूत्र० ३२८ । चारगभंडे - चारकभाण्ड : - गुप्त्युपकरणम् । विपा० ७१ । चारगभडिया - चारकभट्टिनी, भर्तृका । आव० ९३ । चारगवसहि- चारकवसति - गुप्तिग्रहम् । प्रश्न० ५६ । चार ट्ठिइए - चारस्य यथोक्तस्वरूपस्य स्थिति:- अभावो यस्य स चारस्थितिकः - अवगतचारः । सूर्यं ० २८१ । चारट्ठिइओ - चारकस्थितिकः - चारस्य स्थितिः - अभावो यस्य सः, अपगतचारः । जीवा० ३४६ । चारद्वितीया - वारे - ज्योतिश्चक्रक्षेत्रे स्थितिरेव येषां ते चारस्थितिकाः - समय क्षेत्र बहिर्वत्तिनो घण्टाकृतय इत्यर्थः । ठाणा० ५७ । चारण । व्य० प्र० १७६ आ । चारणगणे - नव गणे चतुर्थी गणः । ठाणा० ४५१ । चारणा- अतिशयचरणाच्चरणाः - विशिष्टाकाशगमनलब्धियु चारकपालक: चारकादि अल्पपरिचितसे द्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ 2010_05 [ चारिचमट्ठो चारते - चारकं - गुसिगृहम् | ठाणा० ३६८ । चारपुरिसो-चारपुरुषः । उत्त० २१४ । चारभट-सूर । प्रश्न० ११६ । भटः, बलात्कारप्रवृत्तिः । औप० २ । शूरः । उत्त० ३४६, ४३४ । आचा० ३५३. । चारभट्टः। सूत्र० ३०६ ॥ चारभड - अबलगकादयः । ओघ० ६२ । चारभटः । प्रश्न० ३०, ५६ । औघ० १६३ । चारभडओ - चारभटः । आव० ८३१ । चारभडा-स्वामिभटाः । पिण्ड० १११ । सेवगा । नि० चू० प्र० ३५८ अ । चारभटाः - राजपुरुषाः । बृ० प्र० ३११ अ । चारभडिया। बृ० प्र० २६ आ. चारविसेसे-चारविशेषः । सूर्य ० २७६ । चारवृक्षः - यस्मिन् चारकुलिका उत्पद्यन्ते । अनु० ४७ । चारस्थितिका:- समय क्षेत्र बहिर्वत्तिनो घण्टाकृतयः । ठाणा० ५८ । चारा - हेरिका: । भग० ४ चारि - चारीम् । विशे० ६३५ । तृणाति । आव० १५६ । चारिकः । आव० २०२ । चरः । उत्त० १२२ । हेरिकः । बृ० तृ० ४० आ । चारिए -चारिकः । आचा० ३८८ । चारिगा-चारिका । उत्त० १६२ । चारित चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं-क्षयोपशमरूपं तस्य भाव: चारित्रं, इहान्य जन्मोपात्ताष्टविधकर्मसचयाय चरणभावश्चारित्रं, सर्वसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपा क्रिया वा । आव० ५६२ । अण्णणोवचियस्स कम्मचयस्स रित्तीकरणं चारितं । नि० चू० प्र० १८ आ । चयस्य- राशेः प्रस्तावात्कर्मणां रिक्तं विरेकोऽभाव इतियावत् तत्करोतीत्येवंशीलं चयरिक्तकरं चारित्रम् । उत्त० ५६६ । अष्टविधकर्मच रिक्तीकरणाद्वा चारित्रं सर्वविरतिक्रियेत्यर्थः । चरन्त्यनिन्दितमनेन चारित्रं । विशे० ५४५ । चयरिक्तीकरणाच्चारित्रम् | ओघ ०६ । बाह्यं सदनुष्ठानम् । ज्ञाता० ७ । tor: I प्रश्न० १०५ । चारणाः - जङ्घाचारणादयः । ज्ञाता० १००। चरणं - गमनमतिशयवदाकाशे एषामस्ति इति चारणाः । भग० ७६४ । ऋद्धिप्राप्तार्यभेदः । प्रज्ञा० ५५ । जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च । सम० ३४ । चारणा- जङ्घाचारणविद्याधराः । जीवा० ३४४ । चरणंगमनं तद्विद्यते येषां ते चारणाः । प्रज्ञा ० ४२४ । चारणिका - अनेकशो भिन्नाः । ओघ० २६ । ( ४०३ ) चारितबलिय- चारित्रबलिकः । औप० २८ । चारितभट्ठो - चारित्रभ्रष्टः - अव्यवस्थितपुराणः । आव० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ५३३ । चारित्र - आर्यभेदः । सम० १३५ । ठाणा० ३३७ । चारित्रतः शापं ददत् चारित्रतः । ठाणा० ३३७ । चारित्रधर्मः - चारित्रसम्बन्धी धर्मः । आव ०७८८ । चारित्रधर्माङ्गिनि-संयमात्मप्रवचनानि । भग० ६ । 'चारित्र मेदा:- क्षपणवैयावृत्त्यरूपाः । ठाणा० ३८१ । चारित्रद्ध: - निरतिचारता । ठाणा० १७३ । चारित्रसमाधिप्रतिमा - समाधिप्रतिमाया द्वितीयो भेदः । सम० ६६ | ठाणा० ६५ । चारित्रोपसम्पत् वैयावृत्यकरणार्थं क्षपणार्थं चोपसम्पद्यमानस्य । ठाणा० ५०१ । वैयावृत्त्यविषया क्षपणविषया च । आव० २६८ । चारिय-चारिक:- हैरिकः । प्रश्न० ३० । प्रणिधिपुरुषः । | चालनी-यया कणिक्कादि चाल्यते चालनी । आव ०१०२ ॥ चालित्तए - भङ्गकान्तरगृहीतान् भङ्गकान्तरेण कर्तुम् । ज्ञाता० १३६ । चालिया - चालिताः - इतस्ततो विक्षिप्ता । जं० प्र० ३७ । चालेति - चालयति स्थानान्तरनयनेन । ज्ञाता० ६४ । चालेमाणो-चलनु - शरीरस्य मध्यभागेन सञ्चरन् । जीवा० १२० । चारु - चारुः - प्रहरणविशेषः । राज० ११३ । प्रहरणविशेषः । चाव-चापा:- कोदण्डः । जं० प्र० २०६ । चापं धनुः । जीवा० २६० । जीवा० २७३' । चारुदत्त - यो वेत्रवतीं नदीमुत्तीर्य परकुलं गतः । नामवि शेषः । सूत्र० १६६ । चारुदत्तः - ब्रह्मदत्तपरन्या - वच्छया: पिता । उत्त० ३७६ । प्रश्न० ३८ । चारिया -चारिका । आव० ३१६ । चारी- चीर्णवान् विहृतवान् । आचा० ३१० । चारीभंडिय-चारीभण्डिकः । ओघ० १४८ ॥ [ चिचियायंतं श्रितवन्तश्वारोपपन्नाः । जीवा० ३४६ः । चार्वाक : - यथा वृषनेत्रं वृषसागारिकं नीरसमरो वृषभवयति एवं यः कार्यः रोमन्थायमाणो निष्फलं रचयन् तिष्ठन् - चर्वणशीलः चार्वाकः । व्य० प्र० २५६ अ । चालणा - क्वचित्किञ्चिदनवगच्छन् पृच्छतिः शिष्यः कथमेतदिति इयमेव चालना । दश० २१ । दूषणं चाल्यतेआक्षिप्यते यया वचनपद्धत्या सा चालना । ब्र० प्र० १३६ अ । सूत्रार्थगतदूषणात्मिका । उत्त० २० । चालना - सूत्रस्य अर्थस्य वा अनुपपत्त्युद्भावनं चालना । अनु० २६३ । 2010_05 चाववंसे - पर्वगविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । चावियं-च्यावितं - आयुः क्षयेण भ्रंशितम् । प्रश्न० १५५ । चावोण्णतं । ज्ञाता० १२१ । चारुपव्वएचारुपीया - चारुपीनका । जं० प्र० १०१ । चारुपीनक:-भाजनविधिविशेषः । जीवा० २६६ ॥ चारुवण्णो-चारुवर्णः सत्कीत्तिः गौराद्युदात्तशरीरवर्णयुक्तः, सत्प्रज्ञो वा । औप० ३३ । चारू - चारुः - शोभनः । सूर्य० २६४ । सम० १५२ । चारोपपन्नकाः - ज्योतिष्काः । ठाणा० ५८ । चारोवगो - चारोपगः- चारुयुक्तः । जीवा० ३४० ॥ चारोव वन्नगा - ज्योतिश्चक्रचरणोपलक्षितक्षेत्रोपपन्नाः । भग० ३६४ । चरन्ति - भ्रमन्ति ज्योतिष्कविमानानि यत्र स चारो - ज्योतिश्चक्रक्षेत्रं समस्तमेव । तत्रोपपन्नकाचारोपपनका :- ज्योतिष्काः । ठाणा० ५७ । 'चारोववनो-चार:- मण्डलगत्त्वा परिभ्रमणमुपपन्ना:- आ | चिचियायंतं- चिचिमिति कुर्वन्तम् । उत० ५२१ । । सम० ३६ । चास - पक्षिविशेषः । उत्त० ६५२ । चाषः - पक्षिविशेषः । आव० ६८७ । प्रज्ञा० ३६० । किकिदीवी । पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८ । चासपिच्छए-चासस्य पतत्रम् । प्रज्ञा० ३६० । चासा - लोमपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । चिचइअं - ( देशी ० ) खचितम् । आव० १५० । चिचणिकामयी-अम्बिलिकामयी । ओघ० ३० । चिचतिया - दीप्ताः । नि० चू० प्र० ३४८ अ । चिचापाणग - पानकविशेषः । आचा० ३४७ । चिश्वापानकम् । बृ० प्र० २५३ अ । चिचियंत - चिचिकुर्वन् सर्पेण ग्रस्यमानः शब्दायमानो मण्डुकः । उत्त० ५२२ । (808) ' Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितनिका] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [चिगिच्छए चितनिका-परिभावनीयः । ठाणा ३४६। . चिअं-चित-इष्टिकादिरचितं प्रासादपीठादि । अनु०१५४ । चिता-चिन्ता-पूर्वकृतानुस्मरणम् । भग० १८० । मन- चिअत्ते-मनःप्रणिधानम् । दश० १८० । श्वेष्टा । आव० ५८३ । ततो मुहुर्मुहुःक्षयोपशमविशे- चिइ-कुशलकर्मणश्चयनं चितिः, रजोहरणाद्युपधिसंहतिः । पत: स्वधर्मानुगतसद्भतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता। नंदी० | आव० ५११ । . १७६ । कथमिदं भूतं कथं चेदं सम्प्रति कर्त्तव्यं कथं चिइया-चितिका-शस्त्रविशेषः । आव० ६५१ । चैतद्भविष्यतीति पर्यायलोचनम् । नंदी० १६० । चिई-चयनं चितिः-प्रवेशनम् । आव० ४७४ । चियन्ते चितापसंग-चिन्ताप्रसंग:-चिन्तासातत्यम् । प्रश्न० ६१ । मृतकदहनाय इन्धनानि अस्यामिति चिति:-काष्ठरचनाऔप० ४६ । त्मिका । उत्त० ३८६ । चितासुविणे-जाग्रदवस्थस्य या चिन्ता-अर्थचिन्तनं तत्सं. | चिउरंगरागो-चिकुराङ्गरागः-चिकुरसंयोगनिमितो वस्त्रा दर्शनात्मकः स्वप्नश्चिन्तास्वप्नः । भग० ७०६ । । दौ रागः । जीवा० १६१ । चितिए-चिन्तितः-स्मरणरूपः । भग० ११५, ४६३ । चिउरंगराते-चिकुराङ्गराग:-चिकुरसंयोगनिर्मितो वस्त्राचिन्तितः । विपा० ३८ । चिन्तितः चिन्तारूपश्चेतसोऽन- दौ रागः । राज० ३३ । वस्थितत्वात् । जं० प्र० २०३ ।। चिउर-चिकुर:-रागद्रव्यविशेषः । जं० प्र० ३४ । जीवा० चितिय-चिन्तितं-अपरेण हृदि स्थापितम् । ज्ञाता० ४१।। १९१ । पीतद्रव्यविशेषः । प्रज्ञा०. ३६१ । चिकुरोचितियाइओ-चिन्तितवान् । आव० १५२ । राग द्रव्यविशेषः । राज. ३३ । चितेमि-चिन्तयामि-युक्तिद्वारेणापि परिभावयामि । प्रशा० | चिउररागे-चिकुररागः-चिकुरनिष्पादितो वस्त्रादौ रागः । २४६ । प्रज्ञा० ३६१ । चिर्घ-चिह्न स्वस्तिकादि । आव० ३२१ । लाञ्छनम् । | चिए-चयः-प्रदेशानुभागादेर्वर्धनम् । भग० ५३ । शाता० २२२ । चिकित्सित्वा । आव० ११८ । चिघत्थी-चिह्नयते-ज्ञायतेऽनेनेति चिह्न स्तननेपथ्यादिकं, चिक्कण-अन्योन्यानुवेघेन गाढसंश्लेषरूपः । पिण्ड ० २७ । चिह्नमात्रेण स्त्री चिह्नस्त्री, अपगतस्त्रीवेदछद्मस्थः केवली | चिक्कणं-दुविमोचम् । प्रश्न० २२ । दारुणम् । दश० वा, अन्यो वा स्त्रीवेषधारी । सूत्र० १०२ । २०६ । चिषद्धय-चिह्नध्वजः-चक्रादिचिह्नप्रधानध्वजः । भग० चिक्कणिका-नोकर्मद्रव्यलोभः, आकारमुक्तिः । आव ३१६ । ३६७ । चिधपट्ट-चिह्नपट्टः-योधतासूचको नेत्रादिवस्त्ररूपः-सौवर्णो चिक्कणीकय-चिक्कणीकृतं-सूक्ष्मकर्मस्कन्धानां सरसतया वा पट्टो येन सः । भग० १६३ । ध्वजपटः । ज्ञाता० परस्परं गाढसम्बन्धकरणतो दुर्भेदीकृतम् । भग० २५१ । २७ । चिह्नपट्टः योधचिह्नपट्टः । भग० ३१८ । नेत्रा- चिक्खल-सकर्दमः प्रदेशः । ओघ० २१६ । दिमयः । विपा० ४७ । नेत्रादिचीवरात्मकः । प्रभ० चिक्खलगोलए-कर्दमगोलः । दश० ६४ । चिक्खल्ल-शुष्क: । ओघ० २६ । यत्र निमज्जनं स्यात् चिधपुरिसे-पुरुषचिह्न:-श्मश्रुपृभृतिभिरुपलक्षितः पुरुषश्चि- सः चिक्खल्लः । ओघ० २६ । चिदिति करोति खलं पुरुषः । ठाणा० ११३ । च भवतीति चिक्खल्लम् । अनु० १५० । कर्दमः संसार चिधिअ-दर्शितः । आव० ६२ । पक्षे विषयधनस्वजनादिप्रतिबन्धः । सम० १२७ । चिधे-चिंधपुरिसे-चिह्नपुरुषः । अपुरुषोऽपि पुरुषचिह्नोप- कर्दमः । दश० ८७ । उत्त० १२८ । प्रज्ञा० ८० । लक्षितः । आव० २७७ । आव० १६६, ६२१, ६२४ । व्य० द्वि० ६ आ । चिह्न-केतम् । आव० ८४१ । चिगिच्छए । ज्ञाता० १११ । ( ४०५) 2010_05 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिच्चं ] भाचायभीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः ... [चित्तकूट चिच्च-चिचं नाम सुतं वानमित्यर्थः, विशिष्टवानम् । आव० १११ । जीवा० २३१ । चिच्चं नाम व्यूतं विशिष्टं वानमित्यर्थ । चित्तंतरलेसागा-चित्रमन्तरं लेश्या च प्रकाशरूपा येषां जं० प्र० २८५ । ते चित्रान्तरलेश्याकाः । सूर्य० २८१ । जीवा० ३४१ । चिच्ची-चित्कारः । विपा० ५० । चित्तं-चित्रं-अद्भुतम् । जौवा० १६४ । आश्चयंभूतम् । चिज्जति-चीयन्त बन्धनतः, निधत्ततो वा। भग० २५३। जीवा० १७५ । आलेखः । जीवा० १८६, २१४ । चिटुं-भृशमत्यर्थम् । आचा० १८४ । चित्रं-नानारूपम् । जीवा० २०५ । इत्थीमादीरूवं दर्दू चिट्टइ-तिष्ठति-ऊर्ध्वस्थानेन वर्तते । जीवा० २०१ । तदंगावयवसवचितणं चित्तं । नि० चू० तृ० १ आ। चिट्ठा-चेष्टा-व्यापाररूपा । आव० ७८५ । किलिक्षादिकं वस्तु । अनुत्त० ५ । चैतन्यम् । सम. चिट्ठित्तु-स्थातुं-कायोत्सर्ग कर्तुम् । आव० २७१ । १८ । मनो विज्ञानं च । अनु० ३६। भावमनः । औप. चिट्ठियव्वं-शुद्धभूमौ ऊर्ध्वस्थानेन स्थातव्यम् । ज्ञाता० ६० । चित्रं-अनेकरूपवत् आश्चर्यवद्वा । सूर्य० २६३ । एगतरवण्णुज्जलं । नि० चू० प्र० २५३ अ । चित्र:चिट्रिस्सामो-स्थास्यामः-वतिष्यामः । ज्ञाता० १५६ । श्रीदामराजस्यालङ्कारिविशेषः । विपा०७० । चित्रकूट:चिट्ठ-तिष्ठन्-ऊर्ध्वस्थानेनासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् । पर्वतविशेषः । प्रश्न० ६६ । शङ्खराजभागिनेयः । आव. दश० १५६ । स्थातव्यम् । ओघ० २२ । २१४ । नानारूपः आश्चर्यवान् वा । जीवा० २०६ । चिट्ठज्जा-तिष्ठेत्-ऊर्ध्वस्थानेनाऽवतिष्ठेत् । प्रज्ञा० ६०६ । पर्वतविशेषः । जं० प्र० ३५४ । वाराणस्यां ब्रह्मदत्तचिट्ठमाणे-चेष्टयन्-व्यापारयन् चेष्टमानो वा । भग० ५४ । जीवसंभूतचण्डालज्येष्ठभ्राता । उत्त० ३७६ । चित्र:चिडगा-लोमपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । प्रज्ञा०४६ । उत्त० ३०५ । प्रदेशीराज्ञो मन्त्रि । चिडिग-चिटिका:-कलम्बिकाः, पक्षिविशेष: । प्रश्न० ८ । निरय०६,१५,४० । चित्र-अनेकविधः । ठाणा० ५१७ । चिण-आसंकलनतः चितवन्तः। ठाणा० १७६ । चित्र:-ब्रह्मदत्तराज विद्युन्मालाविद्युन्मतीपिता । उत्त. चिणविसए-देशविशेषः । नि० चू० प्र० २५५ अ। ३७६ । चित्तं-सामान्योपयोगरूपम् । भग० ८६ । प्रदेशीचिणाइ-अनुभागबन्धापेक्षया निधत्तावस्थाऽपेक्षया वा । राज्ञः सारथिनाम । राज० ११५। चित्तं-त्रिकालविषयंभग० १०२ । ओघतोऽतीतानागतवर्तमानग्राहि। दश० १२५ । चित्रचिणिसु-तथाविधापरकर्मपुरलैश्चित्तवन्तः-पापप्रकृतीरल्प- आलेखः । जं० प्र० ३२। ठाणा० १९७ । चेतयति प्रदेशा बहुप्रदेशीकृतवन्तः । ठाणा० २८६ । येन तच्चित्तं-ज्ञानम् । आचा० ६६ । चित्रकूटपर्वतः । चितं-बद्धम् । ओघ० १८० । भग० ६५४ । चिति-चयनं चितिः, इह प्रस्तावात् पत्रपुष्पाद्युपचयः । चित्तउत्ते । सम० १४ । उत्त० ३०६ । चितिः भित्यादेश्वयनं, मृतकदहनार्थं चित्तए-चित्रकः । प्रज्ञा० २५४ । दारुविन्यासो वा । प्रश्न ८ । चित्तकम्मे-चित्रकर्म-चित्रलिखितं रूपकम् । अनु० १२। चितीकया-चैत्यत्वेन स्थापिता । बृ० तृ. २६ आ । चित्तकणगा-द्वितीया विद्युत्कुमारीमहत्तरिकाया नाम । चित्तंग-चित्राङ्गाः-पुष्पदायिनः । सम० १८ । ठाणा० १९८ । चित्रकनका। जं० प्र० ३६१ । विदिचित्तंगओ-चित्राङ्गकः-द्रुमगणविशेषः । जीवा० २६७ ।। ग्रुचकवास्तव्याविद्युत्कुमारीस्वामिनी । आव० १२२ । चित्तंगा-चित्रस्य-अनेकविधस्य विवक्षाप्राधान्यान्माल्यस्य चित्तकम्माणि-चित्रकर्माणि । आचा० ४१४ । कारणत्वाचित्राङ्गाः । ठाबा० ३४८, ५१७ । चित्रस्य चित्तकरसेणो-चित्रकरश्रेणिः । आव० ५५८ । अनेकप्रकारस्य किसामन्यान्माल्यस्य अङ्ग-कारणं चित्तकारे-चित्रकारः-शिल्पभेदः । अनु० १४६ । तत्सम्पादकत्वाद् वृक्षा अपि चित्राङ्गाः । जं० प्र० १०४। चित्तकूड-चित्रकूट:-पर्वतविशेषः । आव० ८२७ । चित्र (४०६ ) 2010_05 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तगरसेणी ] [ चित्ताणुय रसा मधुरादयो मनोहारिणो येभ्यः सकाशात् सम्पद्यन्ते ते चित्ररसाः । ठाणा० ३६६ । चित्ररसः - दुमगणवि - शेषः । जीवा० २६८ । कूटपर्वतः । जं० प्र० ३०८, ३५४ । ठाणा० ८० । सीतामहानद्यः उत्तरे द्वितीयो वक्षस्कारपर्वतः । ठाणा० ३२६ । चीत्रकूटम् । जं० प्र० ३४४ । पर्वतनाम | ठाणा० ७४, १२६ । गिरिविशेषः । जं० प्र० १६८ । चित्तलंग-चित्तलाङ्गाः - कर्बुरावयवाः । भग० ३०८ । भग० ३०७ । विजयविभागकारिणः पर्वतविशेषः । चित्तलगा-सनखपदश्चतुष्पदविशेषाः । आरण्यजीवविशेप्रश्न० ६६ । चित्तगरसेणी - चित्रकृच्छ्रेणि । आव० ६४ | चित्तगा - सनखपदचतुष्पदविशेषाः । प्रज्ञा० ४५ । चित्रका:सनखपदचतुष्पदविशेषाः, आरण्यजीवविशेषाः । जीवा० अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० २ ३८ । चित्तगुत्ता - चित्रगुप्ता- दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव ० १२२ । दक्षिणरुचकवास्तव्या सप्तमी दिक्कुमारी · महत्तरिका । जं० प्र० ३९१ | भग० ५०३ | ठाणा० २०४ । चित्तघरगं - चित्रगृहकं - चित्रप्रधानं गृहकम्। जीवा० २०० । चित्तधरगा - चित्रप्रधानानि गृहकाणि । जं० प्र० ४५ । चित्तजीवो - चित्तमंतो । दश० चू० ६० । चित्तनिवाई - चित्तं - आचार्याभिप्रायस्तेन निपतितुं - क्रियायां प्रवत्तितुं शीलमस्येति चित्तनिपाती । आचा० २१५ । चित्तपक्खा - चतुरिन्द्रियजीवविशेषाः । जीवा० ३२ । प्रज्ञा० ४२ । ठाणा ० १६७ । चित्तपडयं - चित्रपटकम् । आव० ६७७ । चित्तपत्तए - चतुरिन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९६ । चित्तप्पहार चित्तफलयं - चित्रफलकम् । आव० १६६ । चित्तभित्ति चित्रभित्तिः - चित्रगता स्त्री । दश० २३७ । चित्तमंत - चित्तमात्रा - स्तोकचित्तेत्यर्थः । दश० १३८ । चित्तवान् - आत्मवान् । दश० १४० । चित्त रक्खट्टा-चित्तरनार्थं - मनोऽन्यथाभावनिवारणार्थं दाक्षिण्याद्युपेतः । पिण्ड० ४६ । चित्तरसा - चित्रो - मधुरादिभेदभिन्नत्वेनानेकप्रकार आस्वादयितृणामाश्र्चर्यकारी वा रसो ये ते । जं० प्र० १०४ । चित्रा - विविधा मनोज्ञा रस मधुरादयो येभ्यस्ते चित्तरसा भोजनाङ्गा इति भावः । ठाणा० ५१७ । भोजनदायिनः । सम० १८ । आव० १११ । चित्रा - विचित्रा 2010_05 । ज्ञाता० २३० । षाः । जीवा० ३८ । चित्तलया - विविधवर्णवस्त्राणि । ग० । चित्तलिणो-मुकुली - अहिभेदविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । चित्तविचित्त - चित्रविचित्र - मनोहारिचित्रोपेतम् । जीवा ० १९२ । एगतरेण वा गणण्णउज्जलो विचित्तो दोहि वणेहि चित्तविचित्तो । नि० ० प्र० २२९ अ । चित्तविभ्रमः - चित्तविलुतिः । ओोष० २११ । चित्तविलुत्ती - चित्तविलुतिः - चित्तविभ्रमः । ओघ० २११ । चित्तसंभूइ - चित्रसंभूतिः - उत्तराध्ययनेषु त्रयोदशमध्ययनम् । उत्त० १ । चित्तसंभूयं - उत्तराध्ययनेषु त्रयोदशमध्ययनम् । सम०६४ । चित्तसभा - चित्रसभा - चित्रकर्मवन्मण्डपः । प्रश्भ०८ । आज● ६३ । चित्तसालं चित्रशालम् । जीवा० २६६ । चित्तसालयघर - चित्रशालगृहं चित्रकर्मवद्गृहम् । जं० प्र० १०६ । चित्तसेणओ - चित्रसेनक:- ब्रह्मदत्तपत्न्या भद्रायाः पिता । उत्त० ३७६ । चित्तसुद्धे - चैत्रशुक्लः । ज्ञाता० १५४ । 1 चित्ता - नानारूपा आश्चर्यवन्तो वा । जं० प्र० ५४ । चित्रा - विदिचकवास्तव्याविद्युतकुमार्यः स्वामिनी आव० १२२ । मुसिता । नि० चू० तृ० ४० आ । चित्रा - चित्रवन्तः आश्चर्यवन्तो वा । सम० १३६ । भग० ५०५ । चित्रा - द्वादशं नक्षत्रम् | ठाणा० ७७ । सूर्य • १३० । प्रथमा विद्युत्कुमारी महत्तरिका । ठाणा० १६८, २०४ | चित्रा | जं० प्र० ३६१ । कर्बुरा । ज्ञाता० १३६ । चित्ताचिल्लडय - आरण्यो जीवविशेषः । आचा० ३३८ । चित्तागुय-चित्तानुगः - चित्तं हृदयं प्रेरकस्यानुगच्छतिअनुवर्त्तयतीति । उत्त० ४६ । ( ४०७ ) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तानुशयः ] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ चिलातोपुत्रः . चित्तानुशयः-मनःप्रद्वेषः । उत्त० ३६८ ।' १२३ । चित्तामूलं-चित्रमूलम् । प्रज्ञा० ३६४ । चियाग-त्याग:-संयतेभ्यो वस्त्रादिदानम् । आव० ६४६ । .. चित्तारा-शिल्पार्यभेदः । प्रज्ञा० ५६ । , चिरं-वारिसितो । नि० पू० तृ० ६५ अ । चित्तावरक्खा-चित्तावरक्षा । आव० २२१ । चिरंतणं-चिरन्तनं-आचार्यपरम्परागतम् । बृ० द्वि० २४१ चित्रक-एकवर्णः । नि० चू० प्र. २२६ आ । आ । चित्रक्षुल्लकः-लब्धकामार्थे दृष्टान्तः । आचा० २०१ ।। चिरद्वितीए-चिरस्थितिकः । भग० १३२ । चित्रा-त्वाष्ट्रीत्यपरनाम । जं० प्र० ४६६ । चिरपरिचिअ-चिरपरिचितः-सहवासादिना स पूर्वो यः । चिद्ध-चिह्न-पिशाचकेतुः । ज्ञाता० १३८ । - उत्त० ३२२ । चिन्नं-चीर्णम् । सूर्य० २१ । चिरपव्वइओ-चिरप्रवजितः । बृ० प्र० ६२ अ । चिपिड-चिपटा-निम्ना । ज्ञाता० १३८ । चिरपोराण-चिरपुराणं-चिरप्रतिष्ठितत्त्वेन पुराणम् । भग. चिप्पिय्-चिप्पित्वा-कुट्टयित्वा । बृ० द्वि० २०३ अ । २०० । चिप्पित-कुट्टिया । नि० चू० तृ० ६३ आ। चिररायं-चिररात्रं -प्रभूतकालं यावज्जीवमित्यर्थः । आचा• चियं-चितं-उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या रसवृद्धयाऽव २४५ । स्थापितः । प्रज्ञा० ४५६ । चितः-शरीरे चयं गतः ।। चिरसंसट्ठ-चिरं-प्रभूतकालं संसृष्टः-स्वस्वाम्यादिसम्बधेन भग० २४ । चित:-धान्येन व्याप्तः । अनु० २२३ । सम्बद्धो यः। उत्त० ३२२ । चियगा-चितिः । प्रश्न० ५२ । चितिका । आव० ६७५। चिराणओ-चिरन्तनः । आव० ४२१ । चियट्ठाणं-चितस्थानम् । आव० ५६० । चिराणयं-चिरन्तनम् । चियत्त-लक्षणोपेततया संयतः । भग ० ६२४ । त्यक्तः, चिराणो-चिरन्तनः । नि० चू० त० ३३ अ। प्रीतिविषयो वा । भग० ४६८ । संयमोपकारकोऽयमिति संयमोपकारकोऽयमिति चिराति । ज्ञाता० १९८ । प्रीत्या मलिनादावप्रीत्यकरणं वा । ठाणा० १४६ ।। चिरिक्का-छटा । नि० चू० तृ० ४४ आ । छटाः । उत्त. प्रीतिकरः, नाप्रीतिकरः । राज० १२३ । नाप्रीतिकरः। ज्ञाता० १०६ । औप० १०० । आव०७१३। प्रीति-चिरुएहि-वृकैः । बृ० ११८ आ । करं त्यक्तं वा दोषः । औप०-३८ । लोकानां प्रीति | चिपितः-नपुंसकभेदः । उत्त० ६८३ । करः, नाप्रीतिकरः । भग० १३५ । त्यक्तः । भग० चिटिका-त्रपुषी ।नंदी० १४६ । १३६ । संयमीनां संमतः उपधि:-रजोहरणादिकः । ठाणा. चिलाइपुत्त-उपशमादिपदत्रयीवान् । मर० । उपशमविवे१४६ । कसंवरपदत्रयवान् । भक्त० । चियत्तकिच्च-प्रीतिकृत्यं वैयावृत्यादि । ठाणा० २००। चिलाइया-चिलाता-धनसार्थवाहदासी । आव० ३७० । त्यक्तकृत्यः-परित्यक्तसकलसंयमव्यापारः । बृ० प्र० चिलाती-अनार्यदेशोत्पन्ना । ज्ञाता० ४१ । २५७ आ । चिलाए-चिलातः-मूलगुणप्रत्याख्याने कोटीवर्षे नगरे म्लेचियलोहिए-चितं-उपचयप्राप्तं लोहितं- शोणितमस्येति च्छाधिपतिः । आव० ७१५ । धनसार्थवाहस्य दासचेटः । चितलोहितः । उत्त० २७५ । ज्ञाता०: २३५ । चियाए-त्यागः । अशनादेः साधुभ्यो दानं त्यागः । ठाणा चिलातपुत्रः-मुनिविशेषः । आचा० २६४ । सूत्र० १७२। २३४ । त्यजनं त्यागः-संविग्नैकसाम्भोगिकानां भक्ता- चिलातिपुत्तो-कीटिकाभक्षितो मुनिः । सं० । दिदानम् । ठाणा० २९७ । स्यागो-दानधर्म इति । चिलातीपुत्र:-रागे दृष्टान्तविशेषः। व्य० प्र० १२ अ । ठाणा० ४७४ । त्यागः-पतिजनोचितदानम् । ज्ञाता० संक्षेपरुचिस्वरूपनिरूपणे दृष्टान्तः । उत्त० ५६५ । नंदी. (४०८) 2010_05 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिलातो ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ चीनांशुकः १६६ । भूतभावनायां यस्य दृष्टान्तः । आव ५६५ । भूप्रदेशा गिरिप्रदेशा वा । प्रज्ञा० ७२ । चिलातो-किरातः। आव० १५० । चिल्ललग-देदीप्यमान् । राज० ४६ । प्रज्ञा० ६६ । चिलाय-म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । दीप्यमानम् । ज्ञाता० २१६ । सनखपदश्चतुष्पदविशेषाः । चिलायगो-चिलातक:-धनसार्थवाहदासीचिलातायाः पुत्रः। प्रज्ञा० ४५। आरण्य जीवविशेषः । ज्ञाता०७०। आव० ३७० । चिल्लिआ-दिप्यमानाः (देशी) जं० प्र० १०२ । चिलायपुत्त-चिलातीपुत्रः-त्यक्तदेहे दृष्टान्तः । व्य० द्वि० चिल्लिका-लीना:-दीप्यमाना वा। प्रभ० ७७ । ४३२ आ । चिल्लिय-दीप्यमानम् । भग० ५४० । सूर्य० २६३ । चिलायविसय-चिलातविषय:-म्लेच्छदेशः। प्रथ०१४ । । लीनं दीप्तं वा । औप० ५१ । चिलाया-म्लेच्छविशेषाः । प्रज्ञा० ५५ । चिल्लिया-दीप्यमानाः । जीवा० २६७ । दीप्यमाना लीना चिलिचिल्ल-चिलीचिविल:(ल:) चिलीनः । प्रश्न०४६। वा। भग० ४७८ । औप०६८ । भग०८०२। चिलिणे-चिलीनं-अशुचिकम् । ओघ० ८१ । चिल्ली-हरितभेदः । आचा० ५७ । चिलिमिणिपणगं-पोते वाले रज्जु कडग डंडमती । नि० चिल्लोद्रं-हट्टद्रव्यम् । नि० चू० प्र० ११६ आ। चू० प्र० १८० आ। .. चिवड-चिपटा-निम्ना । ज्ञाता० १३८ ।। चिलिमिणी-यवनिका । ओघ० ४३, ८२ । चिहुर-केशः । व्य० द्वि० १२५ आ। चिलिमिलि-चिलिमिलिः । आव० ७५६ । जवनिका चोडं-जूवयं । नि० चू० तृ० १६ अ । सा दवरकमयी इतरा वा दृष्टव्या । व्य० द्वि० २९६ चीडा-कुन्दुरुक्कः । सम० १३८ । प्रज्ञा० ८७ । अ । चोणंसुए-कोशीरः चीनविषये वा यद् भवति । ठाणा चिलिमिलिणी-जवनिका । ओघ० ७५ । चिलिमिली-चिलिमिलिः । ओघ० १६ । यमनिका । चीणंसुय-सुहुमतरं चीणंसुयं भण्णति, चीणविसए वा जं आचा० ३७० । तं चीणंसुयं । नि० चू० प्र० २५५ अ । चीनांशुकम् । चिलिमिलीए-यवनिकाव्यवधानं कृत्वा । ओघ ० ४३ । भग० ४६० ।। चिलिमिलीपणगं-वालवल्ककटसूत्रदणुमय्यः चिलिमिल्य : चीणंसुयाणि-चीनांशुकादीनि । आचा० ३६३ । पञ्चः । बृ० द्वि० २५३ अ। चीण-चीनः-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न०१४। चिलीए-चिलिमिलिका । बृ० द्वि० १८१ अ। । चीनः-द्वस्वः । ज्ञाता० १३८ । चिलोपामल-अशुच्यादि । उप० मा० गा० ३२६ । चीणअंसुअ-वल्कस्य यान्यभ्यन्तरहीरिभिनिष्पाद्यन्ते सूक्ष्माचिल्लग-शिशुः । आव० ६७० । लीनं दीप्यमानं वा। न्तराणि भवन्ति तानि चीनांशुकानि । जं० प्र० १०७ । प्रश्न- ७१। | चोणपिट्ठ-सिन्दूरम् । दश० ४७ । चीनपिष्टं-सिन्दूरम् । चिल्लणा-श्रेणिकनृपस्य पट्टराणी । बृ० प्र० ३१ अ। जं० प्र० ३४ । चिल्लल-आरण्यक: पशुविशेषः । जीवा० २८२ । चीणापिट-चीनपिष्टम् । प्रज्ञा० ३६१ । चित्तलः-नाखरविशेषः। चित्रलः-हरिणाकृतिद्विखुरविशेषः। चीत्कार:-घोष:-ध्वनिविशेषः । जं० प्र० २१२ । प्रभ० ७० । चिल्ललं-चिकिखल्लमिश्रः । ज्ञाता० ६७ । | चीनपट्टः-चीनांशुकम् । नंदी० १०२ । चिक्खलमिश्रोदको जलस्थानविशेषः। भग० २३८ । म्ले- | चीनपिष्टराशि: ।जीवा० १६१ । च्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । चीनांशुक:-वस्त्रनामविशेषः । प्रज्ञा० ३०७ । चीनदेशोचिल्ललए-चिल्ललकः । आरण्यपशुविशेषः । प्रज्ञा० २५४ । द्भवं अंकुशम् । दश० ६१ । चीनदेशोत्पन्नपतङ्गकीटचिल्लालएसु-छिल्लराणि-अखाताः स्तोकजलाश्रयभूता जम् । अनु० ३५। दुकूलविशेषरूपम् । जीवा० २६६ । ( अल्प० ५२) (४०६ ) 2010_05 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चानाशुकादि। आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: [चुण्णा चीनांशुकादि-विकलेन्द्रियनिष्पन्नम् । आचा० ३६२ । | ८४ । शिकारः तद्वस्त्रं चीनदेशोद्धवं वा जामि- चुचूया-चुचुका:-स्तनाग्रभागाः । राज. ६५ । कम् । बृ० द्वि० २०१ आ। चुच्चुआ-चुञ्चुका:-स्तनाग्रभागाः । जं० प्र०८१ । चीयह-चीयते-चयमुपगच्छति । जीवा० ३०६, ३ -चुञ्चुकः-स्तनाग्रभागः । जीवा० २३४ । ४०० । चुञ्चुय-चुञ्चुक:-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । चीरं-वस्त्रम् । ओघ० ५३। चीरमास्तीर्य । ओघ० ५३ ।। प्रश्न० १४ । घणं । नि० चू० प्र० २२७ आ । चुडण-जीर्यन्ते । ओघ० १३१ । वाससां वर्षाकालादाचीराजिण-चीराणि च-चीवराणि अजिनं च-मृगादिचर्म गप्यधावने वर्षासु जीर्णता भवति शाटो भवतीत्यर्थः । चीराजिनम् । उत्त० २५० । पिण्ड. १२ । चोरिए-चीरिक:-रथ्यापतितचीवरपरिधानः चीरोपकरण चुडलि-प्रदीप्ततृणपूलिका। भग० ४६६ । इति । ज्ञाता० १६५ । चुडली-भूरेखा । नि० चू० तृ० ४० अ। उल्का-अग्रचीरिका-स्फोटकः । आव० ६८० । भागे ज्वलत्काष्ठम् । बृ० तृ० १३ आ। अलातम् । तं०। चीरिग-रथ्यापतितचीरपरिधानाचीरिकाः, येषां चीरमय- चुडलीए-चुडिलिका-संस्तारकभूमिः । बृ० द्वि० १३० अ। मेव सर्वमुपकरणं ते चीरिकाः । अनु० २५ । इलि-चुडली-ज्वलत्पूलिका । उत्त० ३३० । कृतिकर्मचोरिय-चीरिक:-मतविशेषः । आव० ८५६ । __णि द्वात्रिंशत्तमो दोषः । आव० ५४४ । चीवराणि-सङ्घाट्यादिवस्त्राणि । उत्त० ४६३ । चुडुली-उल्का । जीवा० २६ ।। चुंबण-चुम्बनं-चुम्बनविकल्पः, सम्प्राप्तकामस्य अष्टमो चुड्डलि-उल्कामिव पर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रमयन् भेदः । दश० १९४ । वन्दते, कृतिकर्मणि द्वात्रिंशत्तमो दोषः । आव० ५४४ । चुंबनं-मुखेन चुम्बनम् । नि० चू० प्र० २५६ आ। चुडुली-उल्का । आव० ५६६ । चुआचुअसेणियापरिकम्मे-च्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्म । चुडल्ली-उल्का । प्रज्ञा० २६ । । सम० १२८ । चुण्ढो-अखाताल्पोदकविदरिका । ज्ञाता० ३६ । चुए-च्यवेत्-भ्रश्येत् । त्यजेत् । सूत्र० ३४ । च्युतः-निर्गतः। चुण्ण-चौग-अत्थबहुलं महत्थं हेउनिवाओवसग्गभीरं । जं० प्र० १५५ । च्युतं-विनष्टः । आचा० १६ । । बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं । दश० ८७ । चुओ-च्युतः-आयातः । ओघ० ५० । मोदकादिखाद्यकचूरिः । बृ० द्वि० १२६ अ । चूर्णम् । चुक्क-विस्मृतम् । बृ० तृ० १०२ आ। व्य० प्र० ५२ प्रश्न० ५६ । चूर्णः-गन्धद्रव्यसम्बन्धी । भग० २०० । अ। मर० । भ्रष्टः । आव० ३५१ । उप० मा० गा० चूर्ण-रजः । आचा० ५६ । चूर्णपिण्ड:-वशीकरणाद्यर्थ ४६२ । विस्मृतः । नि० चू० प्र० २६६ अ । द्रव्यचूर्णादवाप्तः । उत्पादनायाः चतुर्दशो भेदः । आचा० चक्कइ-भ्रश्यति । आव० ३३०, ८३४ । नाशयति ।। ३५१ । चूर्णो यवादीनाम् । आचा० ३६३ । विशे० १०६७ । चुण्णघणो-तंदुलादी चुण्णो घणीक्कतो लोलीकृत इत्यर्थः । चुक्कखलिता-अञ्चत्यं खरंटेति चुक्कखलिता ण वा नि० चू० द्वि० १४१ अ । अवराहपदछिद्दाणि गेण्हति सेय गुरूणं कहेति पच्छते चुण्णचंगेरी-चूर्णचङ्गेरी । जीवा० २३४ । गुरवो मे खरिटेति, अहवा अणाभोगं चुक्कखलिता चुण्णजोए-द्रव्यचूर्णानां योगः स्तम्भनादिकर्मकारी । भण्णंति । नि० चू० तृ० ६३ अ । ज्ञाता० १८८ । चुक्किहिसि-भ्रश्यसि ( देशी०)। आव० २६२, ५०६ । चुण्णपडलयं-चूर्णपटलकम् । जीवा० २३४ । चचूयआमेलगा-चुचुकामेलको स्तनमुखशेखरी । प्रश्न चुण्णा-वसीकरणादिया चुण्णा । नि० चू० द्वि० १०२ ( ४१०) 2010_05 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुण्णिओ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ चूडामणि D चुल्लणि पर्यायस्तेन क्षुल्लो-महाहिमवदपेक्षाया लघुः । जं० प्र० चुण्णिओ-चूर्णितः-श्लक्ष्णीकृतः । उत्त० ४६१ । चुण्णियभेदे-चूणिकाभेद:-क्षिप्तपिष्टादिकः । प० २६७ । चुल्लकंवस्तु-वस्तुग्रन्थविच्छेदविशेषः तदेव लघुतरं चुल्लकंचुण्णियमेय-चूणिकाभेद:-तिलादिचूर्णवत् यो भेदः । वस्तु । नंदी० २४१ । भग० २२४ । । सम० १५२। चुण्णियाभाग-चूणिकाभाग:-भागभागः । जं० प्र० ४४२। चुल्लपिउ-चुल्लपिता-चुल्लबप्पः, पितृव्यः । दश० २१६ । सूर्य० ५६, ११५ । चुल्ल पिउए-लघुपिता-पितुर्लघुभ्रातेति । विपा० ५७ । चुण्णो-बदिरादियाण चुण्णो । नि० चू० तृ० २३ अ । चुल्लपिता-पित्तियओ । दश० चू० १०६ । चूर्णः-पटवासादिकः । सूर्य० २९३ । चुल्लवप्प-पितृव्यः । दश० २१६ । चन्नं-चूर्ण-रजः । प्रज्ञा० ३६ । सौभाग्यादिजनको द्रव्य- चुल्लमाउगा-लघुमाता । आव० ६७५ । क्षोदः । पिण्ड० १२१ । चुल्लमाउया-लघुमाता-पितृलघुभ्रातृजाया, मातुर्लघुसचुनग-चूर्णः-ताम्बूलचूर्णो गन्धद्रव्यचूर्णो वा । भग० ५४८ । पत्नी वा । विपा० ५७ । क्षुल्लमातृका-कोणिकराजचुन्नजुत्ति । ज्ञाता० ३८ । पत्नी। अन्त० २५ । लघुमाता । ज्ञाता० ३० । अन्त. चुन्नयं-सन्त्रस्तम् । विपा० ४७ ।। २५ । चुल्लजननी-लघुमाता । निरय० ४। . चुन्नवासा-चूर्णवर्षः-गन्धद्रव्यचूर्णवर्षणम् । भग० २०० । | चुनसयए-उपासकदशानां पञ्चममध्ययम् । उपा० १। चुन्नवुट्ठी-चूर्णवृष्टिः-गन्धद्रव्यवृष्टिः । भग० १६६ । आलभियानगर्या गृहपतिनाम । उपा० ३६ । महाचुन्निय-चूणितं-चणक इव पिष्टम् । प्रश्न० १३४ । शतकापेक्षया लघुः शतक:-चुल्लशतकः । ठाणां० ५०६ । चुन्निया-चूर्णयित्वा । भग० ६५४ । चुल्ल हिमवंतकूडे-क्षुल्लहिमवद्गिरिकुमारदेवकूटम् । जं० चुन्नो-गन्धद्रव्यक्षोदै: चूर्णः । प्रश्न० १३७ । प्र० २६६ । चुय-च्युतः-जीवनादिक्रियाभ्यो भ्रष्टः । प्रश्न०१५५ । च्युतः चुनहिमवंत-क्षुल्लकहिमवान् । आव० १२३ । क्षुल्लजीवनादिक्रियाभ्यो भ्रष्टः । मृतः स्वतः परतो वा। प्रश्न हिमवान् । आव० २६५ । चुल्लो-महदपेक्षया लघुहिम१०८ । च्युतः-मृतः । भग० २६३ । कुतोऽप्यनाचारात वान् क्षुल्लहिमवान् । ठाणा० ७० । स्वपदात् पतितः । ज्ञाता० ११८ । चुल्लु-चुल्ली । पिण्ड० ८४ । चुलकप्पसुयं-एकमल्पग्रन्थमल्पार्थं च । नंदी० २०४। चल्ल्यादीनि-मानुषरन्धनानि । आचा० ४११ । चुलणिसुए-चुलनीसुतः-ब्रह्मदत्तः कौरव्यगोत्रः । जीवा० चूअवण-चूतवनम् । आव० १८६ । आम्रवनं वनखण्ड१२१ । नाम । जं० प्र० ३२० । चुलणोपिया-उपासकदशानां तृतीयमध्यमनम् । उपा० चूर-चूतः-आम्रवृक्षः । जीवा० २२ । १ । वाणारसीनगर्या गृहपतिनाम । उपा० ३१ । चूचुय-चूचुकः । जीवा० २७५ । चुलनी-द्रुपदराजपत्नी, द्रौपदीमाता। प्रभ० ८७ । ज्ञाता० | चूचुसाए-चूचुशाकः । उपा० ५। २०७ । ब्रह्मराजस्य पट्टराज्ञी । उत्त० ३७६ । । । चूडा-उक्तानुक्तार्थसङ्ग्राहिकाः । आचा० ३१८ । उद्योतचुलसीश-चतुरशीतं-चतुरक्षीत्यधिकम् । सूर्य० ८। । साधनम् । आचा० ६१ । सम० १३१।। चुलसीयं-चतुरशीतम् । सूर्य० ११ । चूडामणि-चूडामणिः । जं० प्र० २१३ । परममङ्गलभूत चुलुकं । भग० ६६८। आभरणविशेषः । राज०१०४। चूडामणि:-शिरोऽलङ्कारचुल्ल-क्षुल्लः, क्षुद्रः, लघुः । जं० प्र० २८१ । महदपे- रत्नम् । उत्त० ४६० । मुकुटरत्नम् । प्रज्ञा० ८७ । क्षया लघुः । ठाणा० ७० । चुल्लशब्दो देश्यः शुल- मुकुटे रत्नविशेषः । जीवा० १६१ । भूषणविधिविशेषः । ( ४११) 2010_05 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूडोवनयणं ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [चेइय जीवा० २६६ । चूडामणि म सकलपार्थिवरत्नसर्व. चूलिताति । ठाणा०८६ । सारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्धकृतनिवासो निःशेषापमङ्गला- चूलियंग-चतुरशितिर्न युतशतसहस्राणि एकं चूलिकाङ्गम् । शान्तिरोगप्रमुखदोषापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परम- जीवा० ३४५ । चूलिकाङ्गः । सूर्य ० ६१ । भभ० ८८८ । मङ्गलभूत आभरणविशेषः । जीवा० २५३ । -चूलिक:-चिलातदेशनिवासी म्लेच्छविशेषः । प्रश्न चूडोवनयणं-चूडोपनयनं-शिरोमुण्डनम् । जीवा० २८१ ।। चूण्णं-वशीकारकद्रव्यसंयोगः । बृ० द्वि० १० आ। चूलिया-चूलिका-सर्वान्तिममध्ययनं विमुक्त्यभिधानम् । चूत-वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३०।। सम०७३ । दृष्टिवादस्य पञ्चमो भेदः । सम० १२८ । चूतलता-लताविशेषः । प्रज्ञा० ३२। चूलिका। भग० २७५ । कालमानविशेषः । भग० २१०। चूतवर्ण-चूतवनं-आम्रवनम् । भग० ३६ । ठाणां० २३०।। चतुरशीतिश्चूलिकाङ्गशतसहस्त्राणि एका चूलिका । जीवा० चूय-चूतः-सहकारतरुः, आम्रवृक्षः । भग० ३०६ । अम्रवृक्षः । उत्त० ६६२ ।। चूलियागिह-चूलिकागृह-समुद्गकः । जं० प्र० ४८ । चूयणा । भग० ८०२ ।। चेइअ-चैत्यं-व्यन्तरायतनम् । सम० ११७ । चैत्या:चूयफलं-चूतफलं-फलविशेषः । सूर्य० १७३ । चित्ताल्हादकाः । जं० प्र० १६३ । चैत्यः-सन्निवेशचूयवडिसए- । भग० १९४ । विशेषः । आव० १७१। चूर्णभेदः-चूर्णनम् । ठाणां० ४७५ । । चेइअकडं-वृक्षस्याधो व्यन्तरादिस्थलकम् । आचा० ३८२ । चणि-अर्थस्य पञ्चमो भेदः । सम० १११ । भग०२। चेइअथूभे-चैत्या:-चित्ताल्हादकाः स्तूपाश्चैत्यस्तूपाः । जं० चलणी-चूलनी-ब्रह्मदत्तमाता । आव० १६१ ।। प्र० १६३। चूलणीपिय-चुलनीपितृनाम्ना गृहपतिः । ठाणां० ५०६। चेइए-चितेः-लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यं, तच्च चूला-सिहा । नि० चू० प्र० २२ आ । इह चूला शिखर- संज्ञाशब्दत्वाद्देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यद्देमुच्यते, चूला इव चूला दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगे- बताया गृहं तदप्युपचाराच्चैत्यमुच्यते । जं० प्र० १४ । नुक्तार्थसङ्ग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयः, श्रतपर्वते चूला इव चयनं चिति:-इह प्रस्तावात् पत्रपुष्पाद्यपचयः, तत्र साधुराजन्ते इति चूला इत्युक्ताः । नंदी० २४६ । उक्तशेषानु- | रित्यन्ततः प्रज्ञादेराकृतिगणत्वात् स्वार्थिकेऽणि चैत्यं उद्यावादीनी चूडा । आचा०६ । नम् । उत्त० ३०६ । उद्यानम् । उत्त० ४७२। चूलामणि-चूडामणि म सकलनृपरत्नसारो नरामरेन्द्र- चेइज्ज-चेतयेत्-कुर्यात् । आचा० ३६१ । मौलिस्थायी अमङ्गलामयप्रमुखदोषहृत् परममङ्गलभूत | चेइदुमं-चैत्यद्रुमं-अशोकवृक्षम् । । आभरणविशेषः । जं० प्र० १०६ । चेइय-चैत्यं-इष्टदेवताप्रतिमा । सूर्य० २६७ । देवतायतचूलिअंगे-चूलिकाङ्ग-चतुरशीत्यालक्षः प्रयुतः । अनु० | नम् । औप० २। व्यन्तरायतनम् । विपा० ३३ । ज्ञाता० ३। औप०५। इष्टदेवप्रतिमा। औप० ५८ । चैत्यम् । चूलिआ-चूलिका-चतुरशीत्या लक्षश्चूलिकाङ्गैः । अनु आव० २८७ । ज्ञातम् । दश०६८। चैत्यवृक्षः । प्रश्न १०० । चूडा । दश० २६६ । ६५ । जिनविम्बानि । बृ० प्र० २६६ अ । प्रतिमाचूलिआवत्थू-चूलावस्तुनि त्वचाराग्रवदिति । ठाणा०४३४ । लक्षणम् । आव० ७८७ । चितेर्लेप्यादि चयनस्य भावः । चूलिए-चूलिकाः । सूर्य ० ६१ । भग० ८८८ । कर्म वेति चैत्यं-सज्ञाशब्दत्वाद् देवबिम्बं, देवबिम्बाचूलिका-द्वादशाङ्गस्य पञ्चमो भेदः । सम० ४१ । उक्ता- श्रयत्वात्तद्गृहमपि च । भग० ६ । इष्टदेवप्रतिमा । सङ्ग्रहात्मिका ग्रन्थपद्धतिः । नंदी० २०६ । भग० ११५ । चितिः-इष्टकादिचयस्तत्र साधु:-योग्यः चूलितंगाति । ठाणा० ८६ ।। चित्यः, स एव चैत्यः-अघोबद्धपीठिके उपरिचोच्छित ( ४१२ ) 2010_05 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेइयक्खंभ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा २ [चेसिता पताकः । उत्त० ३०६ । ढौकितम् । बृ० द्वि० २०० | चेच्च-व्यूतं विशिष्टं वानमित्यर्थः । जं० प्र० ५५ । आ। चैत्यं इष्टदेवतायतनम् । जं० प्र० १२३ । चैत्यं- चेच्चा-त्यक्त्वा । उत्त० ४४८ । जिनायतनम् । व्य० प्र० २०३ आ । चैत्यं-प्रतिमा ।। चेटक-मात्रसाधनोपाय शास्त्राणि । सम० ४६ । राज० राज० १२१ । १२१ । चेडयक्खंभ-चैत्यस्तम्भः । सम० ६४ । चैत्यवत् पूज्यः चेटककथा । वृ० द्वि० ५१ आ। स्तम्भः चैत्यस्तम्भः । जं० प्र० ५३३ । चेटिका-मन्त्राधिष्ठितदेवविशेषः । प्रश्न० १०६ । चेइयधर-चैत्यगृहम् । औघ० ३६ । चेट्ठा-चेष्टा । आव० ७७१।। चेइयथंभो- । जीवा० २३१ । चेट्ठियं-चेष्टितं-सकाममङ्गप्रत्यङ्गावयवप्रदर्शनपुरस्सरं प्रियचेइयथूभो-चैत्यस्तूपः । जीवा० २२८ । स्य पुरतोऽवस्थानम् । सूर्य० २६४ । चेष्टनं-सकाममङ्गचेइयभत्ति-चैत्येषु भक्तिः चैत्यभक्ति: । आव० ५३५ । प्रत्यङ्गोपदर्शनादि । जीवा० २७६ । हस्तन्यासादि । चेइयमहेसु आचा० ३२८ । | प्रश्न० १३६ । चेइयमहो-चैत्यमहः-चैत्यसत्क उत्सवः । जीवा० २८१ । | चेड-चेटा:-पादमूलिकाः । राज० १४० । दारिकः । आव० चेइयरुक्खा-चैत्यवृक्षाः-व्यन्तरदेवानां चैत्यवृक्षाः तन्नगरेषु | २१२ । चेटक:-बालकः । आव० ६३ । चेटा:-पादसुधर्मादिसभानामग्रतो मणिपीठिकानामुपरि सर्वरत्नमया | मूलिकाः । भग० ३१८, ४६४ ।। छत्रचामरध्वजादिभिरलङ्कृता भवन्ति । सम० १४ । | चेडओ-चेटकः-शिक्षायोगदृष्टान्ते हैहयकुलसंम्भूतो वैशाचैत्यवृक्षाः-सुधर्मादिसभानां प्रतिद्वारं पुरतो मुखमण्डप- | प्रेक्षामण्डपचैत्यस्तूपचैत्यवृक्षमहाध्वजादिक्रमतः श्रूयन्ते । चेडग-चेटक:-वैशाल्यां राजा । भग० ३१६ । वैशालिठाणां० ११७ । चैत्यवृक्षा-मणिपीठिकानामुपरिवत्तिनः राजः । भग० ५५६ । बालकः । नंदी० १५७ । वैशालिसर्वरत्नमया उपरिच्छत्रध्वजादिभिरलङ्कृताः सुध- नगरे राजा । व्य० द्वि० ४२६ अ । वैशालानगर्याः दिसभानामग्रतो ये श्रूयन्ते त एत इति । ठाणां० | राजा । निरय० ८। ४४३ । बद्धपीठवृक्षा येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति । सम० चेडगधूया-चेटकदुहिता। आव० २२३ । १५६ । चैत्यवृक्षः । जीवा० २२८ । चेडयकारिणो-वत्थसोहगा । नि० द्वि० ४३ चू० आ। चेडयवंदगो-चैत्यवन्दकः । आव० ४२१ । चेडरूवं-चेटकरूपः । दश० ६७ । ओघ० १६३ । आव० चेइयाई-चैत्यानि-भगवबिम्बानि । वृ० द्वि० १५५ आ। २०५ । पुत्रः । आव० ३५४ । महान्ति कृतानि । आचा० ३६६ । भगवद्बिम्बानि जिन- चेडा-चेटा:-पादमूलिकाः, दासा वा । जं० प्र० १६० । भवनानि वा। बृ० द्वि० ४ अ। चेटा:-पादमलिकाः । औप०१४। चेडयाणि-चैत्यानि-अर्हत्प्रतिमालक्षणानि । उपा० १३ । । चेडि-चेटी । आव० ३५७ । चेडस्सामो-चेतयिष्याम:-संकल्पयिष्यामः,निर्वर्तयिष्यामः। चेडी-चेटी-राजकन्या। आव० १७४ । दासी, प्रत्याख्यानआचा० ३५०, ३६५ । विधौ उदाहरणः । आव० ६६ । ओघ० १६३ । चेए-चेतयते-जानाति, चेष्टते, करोति, अभिलषयतीति । चेडो-चेटः । आव० ६५ । पुत्रः । आव० ८२४ । ओघ० ११४ । चेत: । भग० ७०१ । चेएइ-चेतयते-अनुभवरूपतया विजानाति-वेदयति करोति | चेतना-चेत:-चैतन्यं, विज्ञानम् । विशे० ८११ । वा। आव २६६ । चेतयति-करोति । ज्ञाता०२०६। चेतितं-चैत्यं जिनादिप्रतिमेव चैत्यं, श्रमणम् । ठाणा ददाति । आचा० ३२५ । साधवे ददाति । आचा० ३६१।। १११ । देवकुलम् । नि० चू० प्र० २६६ अ । चेओ-चेत:-चेतना, चैतन्यं-विज्ञानम् । विशे० ८११। चेतितथूभा-चैत्यस्य-सिद्धायतनस्य प्रत्यासन्नाः स्तूपाः ( ४१३) 2010_05 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतियं] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [चोयं प्रतीताश्चैत्यस्तूपाश्चित्ताल्हादकत्वाद्वा चैत्याः स्तूपाः चैत्य- | चेल्ललकं-देदीप्यमानम् । जीवा० १७३ । स्तूपाः । ठाणा० २३० । चेव-यथार्थः । प्रश्न० १३४ । चैवेत्यखण्डमव्ययं समुछचेतियं-चैत्यं-प्रतिमा । प्रश्न० ८,१६१ । सामान्येन | यार्थ, अपिचेत्यादिवत् । जं० प्र० ७०। प्रतिमा। ज्ञाता० ४६ । चेष्टा-ईहा । दश० १२५ । चेतियघरं-चैत्यगृहम् । आव० ३५५ । चैतन्यं-चेतः-चेतना, विज्ञानम् । विशे० ८११ । चेतेमाणे-चेतयन्तः-कुर्वन्तः । ठाणा० ३१४ । चैत्यवन्दन-प्रतिमावन्दनम् । नंदी० १५७ । चेत्तो-वंसभेओ। नि० चू० प्र० २२८ आ। चैत्यविनाशो-लोकत्तमभवनप्रतिमाविनाशः । बृ० ६ ० आ। चेदो-जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । चोंवालय-मालः । दश० ६८ । चेयकड-चेतः-चैतन्यं जीवस्वरूपभूता चेतनेत्यर्थः ते कृतानि- चो-गन्धद्रव्यम् । जं० प्र० ३५, १०० । त्वग्नामक बद्धानि चेतःकृतानि । भग०७०१ । गन्धद्रव्यम् । जं० प्र०६०। चेयण-चेतनं चेतना-प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी चेतना । चोअअ-चौयआ-फलविशेषः । अनु० १५४ । दश० १२५। चोइअ-चोदित-विद्धः । दश० २५० । चेरं-चरणं । नि० चू० प्र० १ अ। चोडओ-चोदित:-स्खलनायाम् । आव० ७६३ । चेरो-पव्वावितो। नि० चू० द्वि० २८ अ । चोओ-गन्धद्रव्यम् । प्रज्ञा० ३६५ । चेल-वस्त्रम् । प्रज्ञा० ३५६ । चेलं-वस्त्रम् । दश० १५४ । चोक्ख-चोक्ष-स्वच्छम् । आव० ६३१ चोक्षः-लेपसिक्था वस्त्राणि । सम० ४१ । वासांसि । ठाणा० ३४३ । । द्यपनयनेनात एव परमशुचिभूतः । भग० १६४ अहिंचेलकण्ण-चेलकर्णः-वस्त्रैकदेशः । दश० १५४ । द्रव्यशस्त्र- सायाः चतुष्पञ्चाशत्तमं नाम । प्रश्न० ६६ । विशेष: । आचा० ७५ । चोक्खा प्रश्न. ६६ । चेलगोलं-वस्त्रात्मकं कन्दुकम् । सूत्र० ११८ । चोक्षा:-पिशाचभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । चेलणा-श्रेणिकराज्ञी । ज्ञाता० २४७ । चोज्जपसंगी-चौर्यप्रसक्तः-आश्चर्येषु कुहेटकेषु प्रसक्त चेलपेडा-वस्त्रमञ्जूषा । ज्ञाता० १४ । भग० ६६४ । इत्यर्थः । ज्ञाता० २३८ । चेलमयं- ।नि० चू० द्वि०१आ। चोज्जामिसंकी । ज्ञाता० २३६ । चेलवासिणो-वल्कलवाससः। भग० ५१६ । औप०६१। चोदना-प्रोत्साहकरणम् । व्य० प्र० २० आ। चेला-चेटिका । औप० ७७। चोद्दधिज्जाइय ।बृ० प्र० २४८ अ। चेलुक्खेवो-चेलोत्क्षेपक:-ध्वजोच्छायः । ज० प्र० ४१६ । चोद्दहजण-तरुणलोकः । ज्ञाता० २१६ ।। चेलेण । आचा० ३७६।। चोप्पडं-स्नेहः । ओघ० १४५ । चेल्लए-कलभः । आव० ६८२ । शिष्यः । दश० ३७ । | चोप्पालगो-चोप्पालको नाम प्रहरणकोशः । जीवा. चेल्लओ-क्षल्लकः । आव० ३६७, ४१६ । दश० ८६ ।। २५७ ।। क्षुल्लक:-शिष्यः । आव० ४१२, ४३७, ४६४। | चोप्पाले-प्रहरणकोशः । भग० १७२ । प्रहरणकोशःचेल्लग-चेलकः । ओघ० ६४ । नि० चू० प्र० १५ अ। प्रहरणस्थानम् । राज० ६३ । क्षुल्लकः । उत्त० १००। चोप्फाल-चोप्फालं नाम मत्तपारणम् । जं० प्र० १२१ ॥ चेल्लणा-चेल्लना-श्रेणिकराजपत्नी। आव० ६५ । शिक्षा- चोयं-हारुणिभागाशे जे केसरा तं चोयं भण्णति । नि. योगदृष्टान्ते हैहयकुलसंभूतवैशालिकचेटकसप्तमी पुत्री ।। चू० द्वि० १२४ आ। भिन्नं चउभागादी तया चोय आव० ६७६ । विशे०६११ । भण्णति, नक्खादिभिः अक्टुं अंबसालमित्यर्थः । नि० चू. कुणिकजननी । निरय० ४ . द्वि० १२४ आ । वंसहीरसंठितो चोयं भण्णति । नि. ( ४१४ ) 2010_05 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोयगं ] चू० ० २३ अ । त्वक् । बृ० द्वि० १२६ अ । गन्धद्रव्यम् । जीवा० २६५, ३५१ । त्वक् । प्रश्न० १६२ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ चोलकादीनि संघातिमानि । आचा० ४१४ । चोलगं - चूडापनयनं - बालकप्रथममुण्डनम् । प्रश्न० ३६ । चोलपको - चोलपट्टकः - परिधानवस्त्रः । प्रश्न० १५६ । चोलपट्टागारो - चोलपट्टाकारः । आव० ८५४ | चोला- चूडा- बालानां चूडाकर्म । आव० १२६ । चोलोयणगं- चूडाधरणम् । भग० ५४४ । चोयना - स्खलितस्य पुनः शिक्षणं चोदना । व्य० द्वि० चोलोवणयं - चूडापनयनं- मुण्डनम् । ज्ञाता० ४१ । चोल्लए - भोजनम् । उत्त० १४५ । चोल्लक - मनुष्यभवदृष्टान्ते ब्राह्मणविशेषः । आ० ३४१ । चोल्लकादि | आचा० ३२५ । चोलगं परिपाटीभोजनम् । उत्त० १४५ । चोलग - चोल्लकं- भोजनम् । पिण्ड० ११३ । नि० चू० प्र० २६९ अ । भोजनम् । आ० ३४१ । भग० ७१३ । चोयगं - गन्धद्रव्यम् । जीवा० १६१ । 1 घोगस मुग्गयं-चोकसमुद्रकम् । जीवा० २३४ । चोयगो- पीलितेक्षुच्छोदिका । आचा० ३५४ । ७२ आ । चोयपुड - त्वक्पुटं पत्रादिमयं तद्भाजनम् । ज्ञाता २३२ । चोयासव - चोयो- गन्धद्रव्यं तत्सारः आसवश्वोयासवः । जीवा० ३५१ । चोओ-गन्धद्रव्यं तन्निष्पाद्य आसव: चोयासवः । प्रज्ञा० ३६४ । चोरकहा- चौरकथा - गृहीतोऽद्य चौरं इत्थं च कदर्थितः इत्यादिका । दश० ११४ । चोरग | भग० ८०२ । चोरग्गाहो - चोरग्राहः - आरक्षकः । आव० ४३५ । दश० ५२ । उत्त० २१८ । चोरदन्तः । प्रज्ञा० ४७३ । चोरपलिकोट्ठ-कोलिन्दकोट्ठ । नि० ० द्वि० १२८ अ । चोरपल्लि - चौरपल्ली | आव० ३७० । चोरपल्ली। आव ० ६६ । चोरवंद पागड्डिको - चौरवृन्दप्रकर्षकः - तत्प्रवर्त्तकः । प्रश्न ० ५० । चोर साहिएचोरा । ज्ञाता० ४६ । । भग० ८०२ । चोराय - चोराकं नाम सन्निवेशः । आव० २०६ । चौरा । आव० २०२ । चोरिवकं चोरणं चोरिका सैव चौरिक्यं, अधर्मद्वारस्य 2010_05 छ छंटेउं छण्टयति । आव० ८०० । छंद - छन्द - गुर्वभिप्रायः । आव० १०० । अभिप्रायः । दश० १७१ । स्वाभिप्रायः । आचा० ७८ । अभिप्रायोबोधः । भग० ५०२ । अभिप्पाओ । नि० ० प्र० २१७ आ । आयारो । नि० चू० प्र० ३४ अ । गम्यागम्यविभागः । गणां० २१० । देशछन्दः - देशेष्टं गम्यागम्यादिविचारः, देशकथायाः प्रथमभेद: । आव० ५८१ । प्रार्थनाऽभिलाषः, इन्द्रियाणां स्वविषयाभिलाषो वा । सूत्र० १६१ । तत्तद्वस्तुविषयाभिलाषात्मिका इच्छा वा । उत्त० २२३ । पद्यवचनलक्षणशास्त्रम् । औप० ९३ । छन्द:- पद्यवचनलक्षणनिरूपकः । ज्ञाता० ११० । पद्यलक्षणशास्त्रम् । भग० ११२ । छन्दनं छन्दः - परानुवृत्त्याभोगाभिप्रायः । आचा० १२७ । छन्दात् - स्वकीयादभिप्रायविशेषात् । ठाणा ४७४ | छंदए - छन्दयति-निमन्त्रयति । बृ० द्वि० २२८ मा । ( ४१५ ) प्रथमं नाम । प्रश्न० ४३ । चोरियं - चौर्यम् । आव० ३५४ । चोरी-चौरी । दश० ४१ । चोरोद्धरणिक - देसारक्खिओ । नि० त्रु० प्र० १६५ आ । चोल - चोलपट्टकः । ओघ० १११ । चोलक - बालचूडाकर्म, शिखाधारणमिति । प्रश्न० १४० । चोलक : | विशे० ३५३ । [ छंदए चौद्दसम - चतुर्दशं - उपवासषट्कम् । जं० प्र० १५८ ॥ चौपग-चरः । नि० ० प्र० ३२६ अ । चौणं - बाहुलकविधिबहुलं, गमपाठबहुलं, निपातबहुलं, निपाताव्ययबहुलं ब्रह्मचर्याध्ययनवत् । जं० प्र० २५६ । च्युताच्युतश्रेणिक:| नंदी० २३६ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेदणा ] आचार्यश्रीमानन्दसागरसूरिसङ्कलित: [ छगमुत्ते छंदणा-छन्दना प्राग्गृहीतेनाशनादिना कार्या ।। ठाणा० घातिकर्मचतुष्टयम् । राज० ११० ।। ४६६ । आव० २५६ । पूर्वगृहीतेनाशमादिना गुज्ञिया छउमत्थ-छद्मस्थ:-अवधिज्ञानरहितः । भग० ६६ । यथाणिां निमन्त्रणं एषा ज्ञेया विशेषविषयेति छन्दना । छद्मम्थो-निरतिशयज्ञानयुक्तः । औप० १०६ । विशिठाणां० ४६६ । छन्दना पूर्वगृहीतेन भक्तादिना । भग० टावधिज्ञानविकलः । प्रज्ञा० ३०३ । छद्मस्थ:-छद्मनि ६२० । पूर्वानीताशनादिपरिभोगविषये साधूनामुत्साहना | स्थितः छद्मस्थ:-अनतिशयी। नि० चू० प्र० १५२ अ.। छन्दना । अनु० १०३ ।। छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादि तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थान छंदणिरोहे-छन्दो-वशस्तस्य निरोधः छन्दोनिरोधः-स्व- ठाणा० १७१ । अकेवली । ठाणा० ५३ । शाना चछन्दतानिषेधः । उत्त० २२२ । छन्दसा वा-गुर्वभि- वरणादिघातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थः सकषाय - प्रायेण निरोधः-आहारादिपरिहाररूपः छन्दोनिरोधः । इत्यर्थः । ठाणा० ३०५ । ज्ञानावरणादिधातिकर्मचतुष्यं उत्त० २२३ । । तत्र तिष्ठतीति छद्मस्थ:-अनुत्पन्नकेवलज्ञानदर्शनः । ठाणा छंदतो-परिया । नि: चू० प्र० १२५ आ. ४०४ । छद्मस्थ-इह निरतिशय एव दृष्टव्यः । ठाणा. छंदयति-आमन्त्रयति । ओघ० १४३ । । छंदा । ठाणा० ४७३ । छउमत्थमरणं-छद्मस्थमरणं-मरणस्य कादशो भेदः । उत्त. छंदाणवत्तणं-छंदोऽनुवर्तनं-अभिप्रायानुवृत्तिः । सम० २३० । अकेवलिमरणम् । मरणस्यैकादशो भेदः । सम. ९५ । ज्ञाता० ६२ । खंदिअ-छन्दित्वा-निमन्त्र्य । दश २६६ ।। छए-क्षतः-परवशीकृतः । सूत्र० ७२ । छंदिओ-णिमंतितो । नि० चू० द्वि० ३२ अ । छन्दित:- | छकोडीए-षट्कोटीकः । जीवा० २३१ अनुज्ञातः । ओघ० १३९ । छक्कट्ठक-षटकाष्ठकं-गृहस्थबाह्यालन्दकं षट्दारुक, द्वारम् छंदिता-णिमंतिता । नि० चू० प्र० १५६ अ।। छंदिया-निमंतेऊण जति पडिग्गाहिता । दश० १४६ । । छक्कमरयं-षट् कर्माणि यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानछंदेणं-स्वाभिप्रायेण यथेष्टमित्यर्थः । भग० ६८४॥ छंद-। प्रतिग्रहात्मकानि तेषु रतौ-आसक्तौ षट्कर्मरतो । उत्त. सा । बृ० प्र० ७७ आ । छन्देन-द्वादशावर्त्तवन्दने | ५२१ । गुरुवाक्यमेतत् । ओघ० ६३६ । । । छक्कायविउरमण-षट्कायानां विराधनम् । ओघ० १२७१ छंदोगारण्णगादि-: नि० चू० प्र० २४ आ। छक्कायविओरमणं-षट्कायव्युपरमणम् । ओघ० १२७ । छंनंति-छिप्पंति-क्षिप्यन्ते, हिंस्यन्ते । दश० २०४ । छक्केहिंसमज्जिया-एकत्रसमये येषां बहुनि षट्कानि छउम-छादयतीति छद्म-पिधानम्, ज्ञानादीनां गुणानामा- || उत्पन्नानि ते षट्कैः समजिताः । भग० ७६७ । वारकत्वात्-ज्ञानावरणादिलक्षणं घातिकर्म । आव० छक्कोडि-षट्कोटि शुद्धं नाम यत् स्वभावतः षट्स्वपि ५८३ । छम-कर्म । आव० १३४ । शठत्वं, आवरणं दिक्षु शुद्धम् । बृ० प्र० ५८ अ । वा । भग० ७ । छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादिकर्म । ७ । छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादिकम । छग-पूरीषम् । ओघ० ४१ । उत्त० १२६ । छादयतीति आवरयतीति छद्म-घातिकर्म- छगणधम्मिय-छगणधार्मिक:-गोमयोपलक्षितो धार्मिको चतुष्टयम् । जीवा० २५६ । छाद्यते येन तच्छद्म-ज्ञाना- दृष्टान्तः । पिण्ड० ८२ ।। वरणादिघातिकर्मचतुष्टयम् । ठाणा० ३०५ । छादयत्या- | छगणियछारो-गोमयछारेण तत्पात्रक गुण्डयते । ओघ ० त्मस्वरूपं यत्तच्छद्म । ठाणा० ५३ । छद्म-शठत्वमा- १४४ । वरणं वा । सम० ४। छद्म-ज्ञानदर्शनावरणीयमोहनी- | छगडिया-गोमयप्रतरः । अनुत्त० ५ । यान्तरात्मकम् । आचा० ३१५ । छादयन्तीति छद्म- | छगमुत्ते-छगणमूत्र-पुरीषप्रश्रवणे । बृ० द्वि० २१४ अ । ( ४१६) 2010_05 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छगलगगलवलया ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ छज छगलगगलवलया-छगलकस्य पशोर्गलं-ग्रीवां वलयन्ति- छड्डेख-छदि विद्ध्यात् । आचा० ३३० । मोटयन्ति ये ते छगलकगलवलकाः । पिण्ड०१८ । त्यजेत् । आव० ३६५ । छगलपुर-सिंहगिरिराजधानी । विपा० ६५ । छईत्ता-त्यक्त्वा। आव० ३२४ । छगलयं-छगलकम् । आव० २१२ ।। छण-जत्थ विसिद्ध भत्तपाणं उवसाहिज्जति । नि० चू० छगलीए । विपा० ६५। तृ० १४ आ । इन्द्रोत्सवादिलक्षणः । भग० ४७३ । छज्जइ-राजते । जं० प्र० २०२। ऊसवो। नि० चू० द्वि० २०० आ । जत्थ एकतविछज्जीवकायसंजमु-पण्णां जीविनिकायानां पृथिव्यादिल- सेसे कज्जति सो छणो । नि० चू० द्वि० १६२ अ । क्षणानां संयमः-सङ्घट्टनादिपरित्यागः षड्जीवकायसंयमः। क्षणं-इन्द्रमहादि । व्य० द्वि० ३४२ आ । ज्ञाता० ५६ । आव० ४६२ । क्षणः उत्सवः । ओघ० ४६ । ज्ञाता०६६क्षणनं छजीवणियज्झयणं-षड्जीवनिकाध्ययनं, दशवकालिके | क्षण:-हिंसनम् । आचा० १४८ । अवसरः । आचा० चतुर्थमध्ययनम् । दश० १२० । - १४८ । क्षणः। आव० २२०, २७३, ६६२ । क्षण:छटुं-षष्ठं-उपवासद्वयरूपम् । जं० प्र० १४५ । बहलोकभोजनदानादिरूपः । ज्ञाता०८१। छट्टण्णकालिओ-षष्ठान्नकालिकाः । आव० ३५२ ।। छणदिवस-क्षणदिवस:-क्षणमात्रदिवसः । आव० ६६२ । छट्ठभत्तं-षष्ठभक्तम् । आव० ३५२ । छणपए-क्षणपद:-हिंसास्पदेन प्राण्यूपमर्दजनितः । आचा० छटाण-पासत्यो उसण्णो कुपीलो ससत्तो अहाछंदोणिति । १४७ । तो य । नि० चू० प्र० २६१ अ । छणिए-छगलीविशेषः । विपा० ६५ । छट्ठोपक्खेणं । आचा० ४२१ । | छणूसवे-क्षण:-प्रतिनियतः कौमुदीशक्रमहादिकः, उत्सव:छडछड । विपा० ७२ ।। पुनरनियतो नामकरणचूडाकरणपाणिग्रहणादिकः, अथवा छडालं-व्याप्तम् । पउ० २८-११६ । यत्र पक्वान्नविशेषः क्रियते स क्षणः, यत्र तु पक्वान्नं छड्डणं-छर्दनं वाताहिद्रव्यप्रयोगकृतम् । विपा० ८१ । परि- विनाऽपरो भक्तविशेषः स उत्सवः । प्र० बृ० १०४ अ । त्यागः । ओघ० ४६ । छर्दनम् । ओघ० १५२ । छर्दनं- | छणुसवियं-छणो ऊसवो छणूसवो तम्मि जं परिहिज्जति वमनम् ऊर्ध्वादिदोषः । ओघ० १३६ । वमनम् । ओघ० तं छणूसवियं । नि० चू० द्वि० १६२ अ । १६४ । उज्झन-क्षालनजलत्यागः । दश० २०३ । परि- छण्णं-अभ्यन्तरम् । ओघ० ६१ । प्रछन्नम् । ठाणा० त्यागः । ओघ०४६। ४८४ । छड्डुणाई-छादयः । ओघ० ४६ । छण्णकडए-छिन्नकटके । आव० ३५० । छड्डुणिका-छर्दने-परिष्ठापने । बृ० प्र० ८६ आ । छण्णमंडवं-जस्स गामस्स णगरस्स वा उग्गहे सव्वासु छडुन-प्रोज्झनम् । ओघ० १६२ । दिसासु अण्णो गामो नत्थि गोकुलं वा तं छण्णमंडवं । छड्डावण-छड्डावेति-त्याजयति । ओघ० १४६ । नि० चू० प्र० ३४१ आ। छड्डाविओ-त्याजितः । आव० २१२। छण्णालए-षण्नालकानि त्रिकाष्ठिकाः । औप० ९५ । छड्डिअ-छदितं-गृहस्थैर्दत्तम् । अनु० २१६ ।। छण्णालक:-त्रिकाष्ठिका। ज्ञाता० १०५ । छड्डिय-परिशाटवत् । दशम एषणादोषः । आचा० ३४५। छतिपुत्तो-छातीसुतः-दाढादालः । जीवा० १२१ । छदितं भूमावावेडितं, दशम एषणादोषः । पिण्ड० १४७ । | छत्तंतिय-छत्रवती । बृ० प्र० ५६ आ । छड्डी-छर्दी-व्याधिविशेषः । आचा० ३६२ । छत्तंतिया-छत्रान्तिका । बृ० प्र० ६० आ। छड्डे-त्यजति । आव० ६४६ । छत्त-छत्रं-आचार्यः । बृ० द्वि०१८४ आ । छादयतीति छड्डेऊण-त्यक्त्वा । आव० २२६ । | छत्रं-वर्षाकल्पादि । आचा० ४०३ । छत्र-आतपत्रम् । - ( अल्प० ५३ ) ( ४१७ ) 2010_05 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तइलो] आचार्यश्रोमानन्दसागरसूरिसङ्कलितः [छमासिआ दश० ११७ । छत्र-छत्राकारो योगः । सूर्य० २३३ । | छद्दोसो-षड् दोषाः । ठाणा० ३६४ । कउगो । नि० चू० प्र० २८४ अ । ज्ञाता० ३८।। छद्मस्थवीतराग:-जिनः । आव० ५०१ । छत्तइल्लो-छत्रवान् । उत्त० ६७ ।। छन्नं-माया । सूत्र० ६६ । स्वदोषाणां परगुणानां वाऽऽबछत्तकारे-छत्रकार:-शिल्पभेदः । अनु० १४६ । रणम् । प्रश्न० २७ । प्रतिज्छन्न प्रच्छन्नं-अतिलजालुतयाऽछत्तग्गा-छत्रामा-जितशत्रुराजधानी । आव० १७७ । व्यक्तवचनम् । भग० ६१६ । दर्भादिभिरुछादितः । छत्तछाया-छत्रच्छाया । आव० ३४१ । प्रज्ञा० ३३७ । आचा० ३६१ । छन्नः-व्याप्तः । जीवा. १८८ । छत्तज्झया-छत्रध्वजाः-छत्रचिह्नोपेता ध्वजाः । जीवा० छन्नपदं-छद्मपदं-कपटजालम्। सूत्र० १०५ । गुप्ताभि२१५। धानं वा । सूत्र० १०५ । छत्तधारो-छत्रधरः । आव० २०४ । छन्नपदोपजीवी-मातृस्थानोपजीवी । सूत्र० ३६८ । छत्तपलासए-छत्रपलाशं-स्कन्दकचरिते 'कयंगला'नगयाँ छनपरिछन्ना-अत्यन्तमाच्छादिताः । जं० प्र० ३०। चैत्यम् । भग० ११२, १२३ । छन्ना-व्याप्ताः । जं० प्र० ३० । छत्तयं-छत्रकम् । आव० ३०५ । आतपत्रम् । भग० छन्नाम-भग० ७२२ । छन्त्रालयं-षड्नालकम् त्रिकाष्ठिका । भग० ११३ । छत्तरयणे-चक्रवत्तिन एकेन्द्रियं द्वितीयं रत्नम् । ठाणां | छपत्रिक-आभरणविशेषः । नि० चू० प्र० २५५ अ । ३९८ । छप्पइ-षट्पदिका-यूका । आव० ५७४ । छत्तसंठिआ-छत्रसंस्थिताः । जीवा० २७६ । छप्पओ-षट्पदः-भ्रमरः । जीवा० १९८ । छत्तसंठिया-छत्र-आतपत्रं तत्संस्थितमिव संस्थितं संस्था । नि० चू० तृ० १२ अ । नमस्या इति छत्रसंस्थिताः । उत्त० ६८५ । | छप्पतिगिल्ले-यस्याः षट्पदिकाः प्राचुर्येण सम्मूच्छन्ति स छत्ताइछत्ता-छत्रातिच्छत्राणि-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि । षट्पदिकावान् । बृ० द्वि० २२२ अ । सूर्य० २६३ । छत्राल्लोकप्रसिद्धादेकसंख्याकाद् अतिशा- छप्पय-षट्पदः-भ्रमरः । जीवा० १२३ । यीनि द्विसङ्ख्यानि त्रिसङ्ख्यानि वा छत्राणि छत्रातिच्छ- छप्पया-षट्पदिका-यूका । आव० २१३ । त्राणि । जं० प्र० ४४ । छत्रादूपर्यन्यान्यच्छत्रभावतो- छप्पाए-पुच्छेन । ओघ० १८० । ऽतिशायि छत्रं छत्रातिछत्रं तदाकारो योगः। सूर्य०२३३ । व्वं दायब्वं । नि० चू० प्र०१८२ अ । । छत्तागारसंठिता-छत्राकारसंस्थिताः । सूर्य ० ३६ । छप्पुरिमा-तत्र वस्त्रे प्रसारिते सति चक्षुषा निरूप्य छत्तारा-छत्रकाराः, शिल्पार्यभेदः । प्रज्ञा० ५६ । तदर्वाग्भागं तत्परावर्त्य निरूप्य च त्रयः पुरिमाः कर्तव्याः, छत्ता ।भग ८०४ । प्रस्फोटका इत्यर्थः । ठाणां० ३६१ । छत्ताहे । सम० १५२ । छब्ब-छब्बकम् । पिण्ड० १५५ । छत्ति-दोषाच्छादनम् । आव० ७८२ । । । छब्बए-वंशपिटकं शकुनिगृहकं वा । ओघ० १८४ । छत्तोसमट्टिया-ट्त्रिंशच्छोधकाः । मर० । छब्बगं-छब्बकं-पटलिकादिरूपम् । पिण्ड० ६० । छत्तोए-कुहुणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । । छब्बगवारगमाई-छब्बकवारकादिकमनेकविधं भाजनं परछत्तोववणे । भग०३६। . स्थानम्, छब्बकं पटलिकादिरूपं वारक:-लघुर्घट: । छत्तोह-छत्रोपगः,वृक्षविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । भग० ८०३ । छल्मागे-षड्भाग:-षष्ठोभागः । जं. प्र. ४५६ । छत्रक-वंशमयमातपत्रम् । बृ० द्वि० २५३ अ । भामरी-वीणावेशेषः । ज्ञाता० २२६ । । छविसाअरो-षड्दिशाचरः । आव० २१४ ।। | छम-क्षमा-भूमिः। दश: २७५। छद्दि-छर्दिः-दोषविशेषः । आव० ८६० । छमासिआ-षण्मासिकी, षष्ठिभि, क्षुप्रतिमा । ज्ञाता० ७२ । ( ४१८) 2010_05 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छम्मं ] सम० २१ । छम्मं - छन । आ० १७३ । छम्मा-भूमि । दश० चू० १५७ । छम्माणि षण्माणी ग्रामविशेषः । आव० २२६ । छम्मासिएसु । आचा० ३२७ । छाया - जलादो प्रतिबिम्बलक्षणा शोभा वा । ज्ञाता० १७०। छरु - त्सरुः खङ्गादिमुष्टिः । प्रश्न० ८० । जीवा० २७० । छरुपयं - त्सरुप्रगतं क्षुरिकादिमुष्टिग्रहणोपायजातम् । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ प्र० ६७ । छरुप्पवायं - त्सरुः खङ्गमुष्टिस्तदवयवयोगात् त्सरुशब्देनात्र खड्गा उच्यते, अवयेव समुदायोपचारः, तस्य प्रवादो यत्र शास्त्रे तत्त्वरूप्रवादं, खड्ग शिक्षाशास्त्रमित्यर्थः । जं० प्र० १३६ । ज्ञाता० ३८ । छरुहा-यासका:-आदर्शगण्डप्रतिबद्धप्रदेशाः । आदर्शगण्डानां मुष्टिग्रहणयोग्याः प्रदेशाः । जं० प्र० ५७ । छरुको मुष्टिग्रहणस्थानम् । ज्ञाता० २१६ । छदितं - उज्झितं त्यक्तम् । पिण्ड० १६६ । छलं - छलं-वचनविघातोऽर्थ विकल्पोपपत्त्या, सूत्रदोषविशेषः । आव० ३७५, ५५७ । अनिष्टस्यार्थान्तरस्य सम्भवतो विवक्षितार्थोपघातः कत्तु शक्यते तत् । अनु० २६१ । छलओ - छलितो- व्यंसितोऽनर्थं प्राप्तः । ज्ञाता० १६६ । छलणं - छलनं प्रक्षेपणम् । आचा० ३७५ । छलणा - छलना | आव० ८५५ । अशुद्धभक्तादिग्रहणरूपा । पिण्ड० ७० । छलदोस - दोषषट्कम् । मर० । छलायतणं-छलं- नवकम्बलो देवदत्त इत्यादिकं छलायतनम्, षडायतनं वा - उपादानकारणानि आश्रवद्वाराणि श्रोत्रेन्द्रि यादीनि यस्य कर्मणस्तत् छलायतनम् | सूत्र ० २१६ । छलिअ कहा- षट् प्रज्ञकगाथा: । ओघ० ५५ । छलिए - स्खलितम् ओघ० २२५ । 1 छलिकमार्ग - गीतकलायाः द्वितीयो भेदः । सम० ८४ । छलिय- छलितानि शृङ्गारकथाकाव्यानि । बृ० द्वि०. ५१ आ । छलिया दिकव्यकहा । नि० चू० द्वि० ३५ आ । छलुए-द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायलक्षणषट्पदार्थ 2010_05 [ छवित्ताणं प्ररूपकत्वाद् गोत्रेण च कौशिकत्वाद् षडुलुकः । ठाणा० ४१३ । षडुलूकः । दश० ५८ । छलुग - षट्पदार्थ प्रणयनाद् उलूकगौत्रत्वाश्च षडुलूकः । उत्त ० १५३ । नि० ० ० ६८ आ । षडुलूकः यस्मात्त्रराशिका उत्पन्ना स आचार्यः । आव० ३२१ । छलुगा - षडुलूकात् त्रिराशिकानामुत्पत्तिस्थानम् । आव ० ३१२ । त्रैराशिकानामुत्पत्तौ स्थानम् । विशे० ९३४ । छलेज्जा - छलेत् । आव० ६३३ । छलि - अभ्यन्तरं वल्कम् । ठाणा० १८६ । छल्ली - बाह्या त्वक् । बृ० प्र० १६२ अ । छल्लिः- रोहिणी - प्रभृतिः । विपा० ४१ । ज्ञाता० १८३ । छल्ली - वल्कल - रूपा । प्रज्ञा० ३६ । छल्लेउं - निस्त्वचीकृत्य । उत्त० २१६ छल्ल्य: - त्वचः । प्रज्ञा० ३१ । छवडिया - चर्म । ओ० २१७ | छवि - अलङ्कारविशेषः । अनु० २६२ । शरीरम् । आव ० ८१६ | त्वक् । उत्त० २५१ । त्वक् छाया वा । जीवा० ११४ । शरीरम् | ठाणां० ३३७ । छविः - शरीरम् । भग० २१८ । शरीरत्वग् । भग० ३०८ । छविदोषः - छविः - अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यं, सूत्रस्य त्रयविशतितमो दोषः । आव० ३७४ । छवी - शरीरत्वक् । प्रश्न० ६० । त्वक्तद्योगादौदारिकशरीरं तद्वती नारी तिरक्षी वा तद्वान्नरस्तियंग्वा छविरिति उच्यते । ठाणा० १६३ । क्षयि:- व्यवस्थाविशेषः । ठाणा० ४०६ । क्षपिः - स्वपरयोरायासः । भग० ९२५ । छविअद्द - यत् स्निग्धत्वग्द्रव्यं मुक्ताफल रक्ताशोकादिकं तत् । सूत्र० ३८६ । छविग्गहिते - षड्विग्रहिकः । जीवा० २३१ | छविच्छदो - हस्तपादनासिकादिच्छेदः । ठाणा० ३६६ । छविच्छेए- छविच्छेदः - शरीरपाटनम् । आव० ८१८ । छविच्छेओ-छविच्छेदः - शरीरच्छेदनम्: प्राणवधस्यैकविंशतितमः पर्यायः । प्रश्न० ६ । छविच्छेद - शरीरच्छेदः । भग० २१८ । छवित्ताणं - छविः - त्वक् त्रायते - शीतादिभ्यो रक्ष्यतेऽनेनेति छवित्राणं वस्त्रकम्बलादि । उत्त० ८८ । ( ४१६ ) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छविदोसो ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [छारियन्भूय छविदोसो-छवि:-अलङ्कारविशेषस्तेन शून्यं छविदोषः, | प्र० २३० आ । सूत्रस्य त्रयविंशतितमो दोषः । अनु० २६२ । छायणओ-छादनत:-अनुष्ठानभेदः । आचा० ३६८ । छविपत्ता-छवि: प्राप्ता जातेत्यर्थः । ठाणा० ६७ ।। छाया-शङ्कछाया । बृ० प्र० ४२ अ । शङ्कवादिप्रतिच्छाछविपव्वा-छवि-मतुब्लोपाच्छविमन्ति-त्वग्वन्ति पर्वाणि यारूपा छाया । विशे० ४३६ । प्रभया आतपाभावलसन्धिबन्धनानि छविपर्वाणि । ठाणा० ६७ । क्षणया युक्ता । सम० १५५ । आकारः । राजा० ७४ । छविमत्यः-औषधिविशेषाः । आचा० ३६१ । प्रतिबिम्बम् । उपा० २६ । उन्नतिः । उप० मा० गा० छवियत्ता-छवियोगाच्छविः स एव छविकः, स चासो ३२७ । छारा(ताः) कसघातव्रणाङ्कितशरीराः । दश० 'अत्त'त्ति आत्मा-शरीरं छविकात्मा । ठाणा० ६७ । २४८ । दीप्तिः । जीवा० १६१ । प्रभा । बृ० प्र० १५४ छवी-छविमान्, उदात्तवर्णया सुकुमारया च त्वचा युक्तः। आ। सन्निभा । उत्त० ६५२ । समुदायशोभा । प्रज्ञा० जीवा० ७७ । कमलादिसेंगा। नि० चू० प्र० २७३ आ। ८८ । आकार:-छायाशब्दआतपप्रतिपक्षवस्तुवाची । छविया-छविका:-कटादिकाराः । प्रज्ञा० ५६ । जीवा० १८७ । जं० प्र० २८ । कीत्तिः । नि० चू० छाउद्देसे-छायोद्देशः। सूर्य० ६६ । द्वि० १३४ आ। दीप्तिः । औप० १६ । शोभा । छाए-सदृशः । भग० ७५४ । भग० १३२ । औप० ५० । छयति छिनत्ति वाऽऽतपछाएउ-छदित्वा; ढंकिउं । आव० ६६१ । मिति छाया। उत्त० ३८ । आतपवारणलक्षणा । छाएल्लय-छायार्थी । उत्त० ११६ । प्रश्न० ७६ । औप० ६७ । दीप्तिः । सम० १४० । छाओ-बुभुक्षितः । ओघ० १८६ । छातः-बुभुक्षितः । शरीरप्रभा । जीवा० २७७ । प्रकृतिः । भग० ६८३ । पिण्ड० १७६ । शैत्यगुणा । उत्त० ५६१ । कान्तिः । जं० प्र० ५७ । छागलिक: । ठाणा० ५०८ । छायागती-छायामनुसृत्य तदुपष्टम्भेन वा समाश्रयितुं छागले । विपा० ६६ ।। गति: छायागतिः-विहायोगते वमो भेदः । प्रज्ञा० ३२७ । छाण-छादनं-दर्भादिमयं पटल मिति । भग० ३७६ । छायाणुमाणप्पमाणं-छायानुमानप्रमाणम् । सूर्य० ६८ । छाणं-आच्छादनम् । जीवा० १८० । नि० चू० प्र० छायाणुवातगती-छायायाः स्वनिमित्तपुरुषादेरनुपातेन७ अ । भनुसरणेन गतिः छायानुपातगतिः, विहायोगतर्दशमो छाणपिंडो-छगण (गोमय)पिण्ड: । आव० ४२२ । भेदः । प्रज्ञा० ३२७ । छाणविच्छ्य-छगणवृश्चिकः, चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । छायाणुवादिणो-छायानुवादिनी । सूर्य० ६५ । जीवा० ३२। छायालीसं-षट्चत्वारिंशत् । पिण्ड० १७६ । छाणविच्छुया-चतुरिन्द्रियविशेषः । प्रज्ञा० ४२। छारं-क्षारं-रक्षा। ओघ० १४२। आव० ३०८, ६२१ । छाणा । दश० चू० ४४, ५५ । भस्म । आव० २१८ । क्षारम् । आव० ३०८ । छाणिय-क्षालितो-गालितः । बृ०प्र० ८१ अ । भूतिः । ओघ० १४३ । क्षार:-भूतिः । ओघ० १४० । छातो-क्षुधितः । नि० चू० प्र० ३५४ अ । क्षारः भस्म । बृ० प्र० ८० अ । छादयति-आवरयति । जीवा० २५६ । छारकयार-भस्मकचवरः । आव० २१८ । छायंत्ति-प्राकृत्त्वात् छायावन्तः शोभमानशरीराः । सम० | छारा-भोया । नि० चू० द्वि० १०४ अ । १५६ । क्षारावगुण्ठितवपुषः । पिण्ड० ६८ । ... छाय-क्षुधितः । नि० चू० प्र० २८६ अ । छारिए-क्षारकं-भस्म । भग० २१३ । छायणं-छादनं-स्थगनम् । आव० २६४ । दर्भादिपटल- | छारिय-क्षारराशिः । दश० १६४ । करणम् । प्रभ० १२७ । छज्जकरणं छायणं । नि० चू० | छारियब्भूय । भग० १६६ । ( ४२० ) 2010_05 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छारुझियं ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ छिन्न छारुज्झियं-क्षारोष्ट्रिकां-भस्मपरिष्ठापिकाम् । ज्ञाता०११७। छिड्डाणि-छिद्राणि-अल्पपरिवारादीनि । निरय० १२ । छारो-अभिणवडड्ढं अपुंजकयं छारो । नि० चू० प्र० छिण्ण-स्त्यान-कठिन मदीयात्यन्तानुकूलचरिताद्रवीकृतहृद१६२ अ । यत्वात् । ज्ञाता० १६७ । छावढे-षट्षष्टिः । सूर्य० ११ । छिण्णकंटे । नि० चू० तृ० १७ अ । छावण-छादनं-दर्भादिभिराच्छादनम् । बृ० प्र० ६२ अ। छिण्णछेदयणवत्तव्वया-छिन्नच्छेदकवक्तव्यता । आव० छाहि-छाया । आव० ७०६ । ३१६ । छाही-छाया । आव० ४१५, ६२४ । छिण्णछेयणयं-छिन्नच्छेदनक-अनुप्रवादपूर्वे वक्तव्यताविछिडिका-गृहद्वायान्तरस्थः प्रलम्बगमनमार्गः । पिण्ड० शेषः । उत्त० १६३ ।। १०५ । छिण्णद्धाण-छिन्नाध्वा । आव० २०८ । छिडिया-छिण्डिका । आव० ३४६ । छिण्डिका-वृत्ति- छिण्णभं-एगं अब्भयं । नि० चू० द्वि० १४६ आ । च्छिद्ररूपा । ज्ञाता० ७७ । छिण्णसम्म-तथाऽधिकमांसादिच्छेदाच्छिन्नसम्यक् । आचा० छिदंति-व्यवस्था स्थापयन्ति । बृ० प्र० ११० अ। १७६ । छिद-छिन्द-द्विधाकुरु । ज्ञाता० २३८ । छिण्णसोए-छिन्नश्रोता:-छिन्नसंसारप्रवाहः,छिन्नशोकोवा। छिदइ-छेदं करोति । भग० १७५ । जं० प्र० १४६ । छिदति-छिनत्ति-करोति । अन्त० १६ । छिण्णसोय-छिन्नशोकः, छिन्नश्रोता वा । प्रश्न० १५७ । छिदावेमि-छेदयामि । आव० २२४ । छिण्णा-छिन्ना । आव० ३५८ ।। छिदिज्ज-छिन्द्यात्-मार्जारीमूषकादिभिर्वा पुरतो यायात् । छिण्णो-तंदुलघयादि जत्थ परिमाणपरिच्छिण्णा दिज्जंति आव० ७८४ । सो छिण्णो भण्णति । नि० चू० द्वि० १०६ आ। छिपक:-कारुकजातिविशेषः । प्रश्न० ३० । छिण्णोवसंपय-या आवलिका सा छिन्ना यतस्तस्यां यो छिपाय-कारुकजातिविशेषः । जं० प्र० १६४ । लाभ आदित आरभ्य परम्परया छिद्यमानोऽन्तिमेऽभिधाछिइए-क्षुतम् । आव० ७७६ । र्थेऽन्यमनभिधारयति विश्राम्यति सा छिन्नोपसम्पत् । व्य० छिक्क-स्पष्टः । आव० ४१८ । पिण्ड० ७० । स्पष्ट- द्वि० ३७७ अ । वान् । बृ० द्वि० ६२ आ। नि० चू० प्र० ३४५ अ । छित्त-स्पृष्टः । आव० २७४ । हतः । आव० ४१७ । छित्तरा-छित्वराणि वंशादिमयानि छादनाधारभूतानिछिक्का-स्पृष्टा । आव० २०२ । किलिजानि । भग० ३७६ । छिक्कोवणा-शीघ्रकोपनः । वृ० त० २२५ अ। छित्ता-छित्वा-विभज्य । सूर्य० २२, २३३ । छिज्जमाणे छिन्ने-कुठारादिना लतादिविषयच्छेदः । भग० छित्तिकाऊण-थूत्कृत्य । उत्त० ३५६ । १६ । छित्ते-क्षेत्रे । बृ० तृ० ९८ आ । छिज्जेज्ज-संश्छिद्येत-द्विधा क्रियते । अनु० १६१ ।। छिद्द-छिद्रं-अवसरः । आव० ६८२। प्रभ० ५३ । राजछिड्डु-छिद्रं महत्तरं रन्ध्रम् । भग० ८३ । अल्पपरिवा- परिवारविरलत्वम् । विपा० ५३ । प्रदेशद्वारम् । प्रश्न रत्वम् । विपा० ७३ । छिद्र:-छेदनस्यास्तित्वच्छिद्रम् ।। ४२ । जं पुण आभोगओ असामायारिं करेइ तं छिदं भग० ७७६ । भण्णति । नि चू० तृ० ६३ अ । छिद्रः-प्रविरलपरिछिडकुडे-छिद्रकुटः । आव० १०१। । वारत्वादिः, चौरप्रवेशावकाशः । शाता० ८१ । छिड्डविच्छिड्डे-बृहल्लघुच्छिद्रांकितम् । ( तं० ) । छिद्दगुडो ।नि० चू० प्र० १९६ आ। छिड्डाई-छिद्राणि । आव० ६६ । | छिन्न-उर्द्धम् । उत्त० ४६० । छेदनं छिन्नं वसनदशनदा( ४२१) 2010_05 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिन्नकडए] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ छुन्नमुहो %3D छिन्नकहकहे-छिन्ना अ दीनां, तद्विषयशुभाशुभनिरुपिका विद्याऽपि छिन्नम् । डयः । जीवा० ३४ । उत्त० ४१६ । छेदनं-कर्मणो दीर्घकालानां स्थितीनां | छिरारुहिरं-शिरारुधिरं-नाडीरुधिरम् । आव० ४०२१ ह्रस्वताकरणम् । भग० १६ । निरितः । बृ० प्र० | छिरिया-अनन्तकाय भेदः । भग० ३०० । १०२ अ । छिन्नः-खण्डितः। उत्त० ४६० । छिन्दनम् ।। ओघ० २०४ । छिन्न-नियमितम् । पिण्ड० ७६ । छिवा-श्लक्ष्णकषः । प्रश्न० ५७ । श्लक्ष्णः-कषः । ज्ञाता. निपुष्पकम् । पिण्ड० १०१ । परिश्चादिभिवृक्षात् पृथ- ८७ । क्स्थापितम् । दश० १५५, १७६ । विभक्तः । ज्ञाता० छिवाडि-वल्लादिफलिका । प्रज्ञा० ३६३ । मुद्गादेः फलिः। २३८ । आचा० ३२३ । मुगादिफलिः । दश० १८५ । छिन्नकडए-छिन्नकटकम् । उत्त० ४६६ । दश० ६६ । छिवाडिआइ-छेवाडीनाम वल्लादिफलिका सा च क्वचि. छन्ना अपनीता कथं-कथमपि या कथा-राग- देशविशेषे शुष्का सती अतीव शुक्ला भवति : जं० प्र० कथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथंकथः, यदिवा | ३५ । कथमहमिङ्गितमरणप्रतिज्ञां निविहिष्ये इत्येवंरूपा या | छिवाडी-तनुपत्र उच्छितरूपः, अथवा अल्पबाहल्यः प्रथुलः कथा सा छिन्ना येन स छिनकथंकथः । आचा० २८६।। पुस्तकः । बृ० द्वि० २१६ आ । सुपाटिका यत्तनुपत्रोछिन्नम्गंथे-मिथ्यात्वादिभावग्रन्थिच्छेदः । ज्ञाता० १०४।। च्छ्रितरूपम् । आव० ६५२ । छेवाडी-वल्लादिफलिका। छिन्नच्छेयणइयाई-इह यो नयः सूत्रं छिन्नं छेदेनेच्छति जीवा० १६१ । स छिन्नछेदनयः। सम० ४१ । छिवाडोय-सुपाटिका-तनुपत्रोच्छ्रितरूपा। ठाणा० २३३१ छिन्नमूलो-छिन्नमूलः । उत्त० २७६ । छिहलि-शिखा । आव० ६४७ । छिन्नरुहा-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा०३४ । छिहली-शिखा । आव० ६२६ । बृ० तृ० १०१ आ4 छिन्नसोआ-छिन्नशोकाः छिन्नश्रोतसो वा, छिन्नसंसारप्र- सिहं । नि० चू० द्वि० ३५ आ। छीए-क्षुतम् । आव० वाहाः । औप० ३५ । ७७६ । छिन्नसोय-छिन्नशोक:-छिन्नानि वा श्रोतांसीव श्रोतांसि- | छोअ-क्षवणं-क्षुतम् । आव० २५ । मिथ्यादर्शनादीनि येनासौ छिन्नश्रोताः । उत्त० ४८७ । छोत्कृतं-क्षुतिः । भग० ६६४ । छिन्ना-कन्दलीकृताः। आचा० ३२३ । छिन्ना हस्तादिषु । छोय-क्षवणं क्षुतम् । विशे० २७४ । ज्ञाता० २३६ । छीर-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः । प्रज्ञा० ३४ । छिन्नाले-तथाविधदुष्ट जातिः । उत्त० ५५१ । छोरल-क्षीरल: भुजपरिसर्पविशेषः । प्रश्न० ८ । छिन्नावाए-छिन्नः-अपगतः आपात:-अन्यतोऽन्यत आगम- छीरालि-वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । नात्मकः अर्थाज्जनस्य येषु ते छिन्नापाताः । उत्त० ८६ । छोरिविरालिया-अनन्तकायभेदः । भग० ३०० । भुजछिन्नावाय-छिन्ना आपाताः सार्थगोकुलादीनां यस्यां सा। परिसर्पविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । ठाणा० ३१४ । छुक्कारेति-छूत्कारं करोति । जीवा० २४७ । छिपाः-नन्तिक्ताः । व्य० द्वि० ४१६ आ। छज्जइ-कुट्यते । उप० मा० गा० ३१३ । छिप्पंतीणं। राज० ५२ । छुट्टकच्छो । आव० ७१० छिप्पतूरं-द्रुततूर्यम् । विपा० ५६ । क्षिप्ततूर्यः । ज्ञाता० छुट्टा-छुटिताः । आव० २२४ । २३६ । छुडु-सुष्छु । उत्त० २४५ । छिया-वि श्लक्ष्णलोहकुशा । जं० प्र० १४७ । छुड्डिया-शुद्रिका-आभरणविशेषः । प्रभ० १५६ । छिरा-शिरा-धमन्यः । सम० १५० । शिराः-धमनिना- छुन्नमुहो-छुन्नमुख:-क्लीबमुखः । पिण्ड० १२५ । . ( ४२२ ) आप 2010_05 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ छेदावद्वावणिय स्थापनं च यस्मिस्तत्, पूर्वपर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनो यत्र तत् । आव० १६ hagावणिय-छेदे - प्राक्तन संयमस्य व्यवच्छेदे सति यदुपस्थापनीयं - साधावारोपणीयं तच्छेदोपस्थापनीयं, पूर्वपर्यायच्छेदेन महाव्रतानामारोपणमित्यर्थः । भग० ३५० । ओवावणीयं- छेदोपस्थापनीयम् । उत्त० २५८ । छेगे - छेक : - द्वासप्ततिकलापण्डितः । जीवा० १२२ । छेज्जं - छेद्यम् । सूर्य ० ११३ । छेद्यं पत्रछेद्यादि । दश ० ८७ । छेदनकर्म्म - द्विधा करणम् । दश० २७० । जाछेयाणि गच्छचितायां प्रमाणभूतानि स्थेयानि - अनेकशः प्रीतिकराणि । व्य० प्र० २४१ । छुरिय क्षुरिका । आव० ५७८ । शस्त्रविशेषः । नि० ० छेत्तं - क्षेत्रं स्थानम् । औप० ४ । ज्ञाता० ३ । क्षेत्रम् | ओघ० १६३ । छुन्ना ] घुन्ना - छिन्ना: । (सं०) छुषंतु - स्पृशन्तु भवन्त्वित्यर्थः । भग० १२२ । छुपेज क्षिपतु । आव ० ८२५ । छु भइ - प्रक्षिप्यते - प्रवेश्यते । बृ० द्वि० १७५ अ । क्षुभ्यतेजातमहाऽद्भुत शक्तिकः सन् ऊर्द्धमितस्ततो विप्रसरति । जीवा० ३०७ । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ छुति - प्रक्षिपन्ति । आव ० १२८ । छुरं क्षुरप्रम् । आव० ६२७ ॥ छुरघरगसंठिते- क्षुरगृहकसंस्थितम् । सूर्य ० १३० । छुरमुंडो - क्षुरमुण्ड: । आव ० ६४७ | छुरय-तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । प्र० १०५ अ । छुरिया - क्षुरिका । उ० ७११ । छुहति - क्षिपति | आव० २२६ ॥ छुहाचू० द्वि० ६६ आ । छेत्तुंडोअ - दव्वी । नि० ० प्र० १२८ आ । छेत्तण- छित्वा द्विधा विधाय । उत्त० २७३ । । नि० चू० प्र० २६५ अ । नि० छेद- करपत्रादिभिः पाटनम् । आव० ८१६ । प्रव्रज्यापर्यायस्वीकरणम् । भग० ६२० । छेदः - तपसा दुर्दमस्य श्रमणपर्यायच्छेदनम् । आव० ७६४ । जीवादिद्रव्यस्य विभागः । ठाणा० ३४६ । व्य० द्वि० ३४१ आ । छेदन - क्षपणम् । उत्त० ५६३ । छेदनकः - उदकाश्रितजीवः । आचा० ४६ । छेदारिहं-छेदाहं दिनपञ्चकादिना क्रमेण पर्यायच्छेदनम् । औप० ४२ । प्रव्रज्यापर्यायहस्वीकरणार्हम् । भग० ६२० । छेदेत्ता - छित्वा - व्यवच्छेद्य । ज्ञाता० ७७ । छेदोदइए-छेदश्व व्यय औदयिकश्च लाभः छेदौदयिकम् । बृ० द्वि० २३ आ । छेदोवट्ठावण - छेदः - पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च महावतेषु यस्मिन् चारित्रे तच्छेदोपस्थापनम् । प्रज्ञा० ६४ । छेदोवद्वावणिय-छेदश्व पूर्वपर्यायस्योपस्थानं च व्रतेषु यत्र तत्छेदोपस्थानं तदेव छेदोपस्थापनिकं, ते वा विद्येते यत्र तच्छेदोपस्थापनिकमथवा पूर्वपर्यायच्छेदेनोपस्थाप्यते, आरोप्यते यन्महाव्रतलक्षणं चारित्रं तच्छेदोपस्थापनीयम् । ठाणा० ३२३ । पूर्व पर्यायच्छेदोपस्थापनीयं - आरोपणीयं छेदोपस्थापनीयं, व्यक्तितो महाव्रतारोपणम् । ठाणा ०११६८ । छुहाइह - क्षुधार्तयोः । आव० ३६६ । छुहाकुडु - सुधाकुड्यं सुधामाष्टयं कुड्यम् | ओघ० १२७ ॥ छुहातिया - क्षुधादिता । आव० ३२३ । छुहा परद्धो-क्षुधापरिगतः । आव० ८१४ । छुहालुया - क्षुधालुका: । दश० ४२ । छुहिय - बुभुक्षितः । ज्ञाता ० १९२ । छूढाणि क्षिप्तानि । आव० ६३ । छूढो - क्षिप्तः । प्रश्न० ६० । छूहलू - क्षुधार्त्तः । आव० ३६६ । . छेअ - छेकं निपुणं हितं कालोचितम् । दश० १५७ । छेइत्ता - छित्वा - परित्यज्य । भग० १२८ । छेए - छेक:- अवसरज्ञः, द्विसप्ततिकलापण्डित इति । औप० ६५ | कलापण्डितः । जं० प्र०३८८ । छेक:- प्रयोगज्ञः । अनु० १७७ | भग० ६३१ । छेओ - छेकः असांव्यवहारिकः । आव० ५२७ । अट्ठावणं तत्र च्छेदचोपस्थापना च यस्मिंश्चारित्रे तत् छेदोपस्थापनं पूर्वपर्यायस्य च्छेदः महाव्रतेषूपस्थापनं चा-- रमनो यत्र तत् । विशे० ५५४ । छेदोपस्थापनं-छेदोप 2010_05 ( ४२३ ) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छैदोवद्वावणियकप्पद्विती] आचार्यश्रोमानवसागरसूरिसङ्कलितः [ जंकयसुकया छेदोवट्ठावणियकप्पद्वितो-पूर्वपर्यायच्छेदोपस्थापनीयं आ- द्वि० १२६ अ । रोपणीयं व्यक्तित: महावतारोपणं तस्थितिश्वोक्तलक्षणे- छेवट्टिया-छेवट्टिका, संहननविशेषः । ओघ० २२७ । ब्वेव दशसु स्थानकेष्ववश्यं पालनलक्षणा । ठाणा० १६८। छेवटुं-यत्रास्थीनि परस्परं छेदेन वर्तन्ते न किलिकामात्रेछेप्पं-पुच्छम् । विपा० ४६ । - णापि बन्धस्तत् छेदवत्ति । जीवा० १५, ४२ । छेय-छेकः । औप० ४ । छेद:-पुष्पफलादेः खण्डनम् । छेवतितो-असंविग्गहितो। नि० चू० प्र० २६३ आ। पिण्ड० १६१ । छेक:-दक्षः । आव०७० । ज्ञाता० ५८ । |छेवाडिया-छेवाडिनाम वल्लादिफलिका । राज. ३३ ॥ अपच्छेदः । औघ० ७२ । छेक:-निपुणः । ज्ञाता० २२१ । | छेवाडी-दीहो हस्सो वा पिहुलो अप्पबाहल्लो छेवाडी, ठाणां० २००। अहवा तनुपत्तेहिं उस्सीओ छेवाडी । नि० चू० द्वि० छेयकरे छेदनकरम् । आचा० ४२५ । छेयगं-छेदकम् । सूर्य० ११३ । छोए । सूत्र. २७७३ छेयण-छेदनं-कर्मणः स्थितिघातः । ठाणां० २१ । विभ छोटियं-छोटितं-स्फोटितम् । औप० १७ । जनम् । ठाणां ३४६ । विरहः। ठाणां० ३४६ । छेदनं छोडिओ-छोटितः । आव० ३६६ । उत्तरोत्तरशुभाध्यवसायारोहणात्स्थितिहासजननम् आचा० छोडिज्जति-छणिज्जति । नि० चू० प्र० १९२ अ । २६८। छोडियं-छोटितं-घट्टितम् । प्रश्न० ८२ । छेयणग-छेदनक-राशेरीकरणम् । अनु० २०७ । छोडियपडियं-छोटितपतितम् । आव० २१८ । छेयणयं-छेदनकम् । प्रज्ञा० २८१। छोढुं-छोटयित्वा । नि० चू० तृ० ३७ अ । निक्षिप्य । छेयसारहि-छेकसारथिः दक्षप्राजिता । भग० ३२२। आव० २६५ । स्थापयित्वा । आव० १६६ । छेयसुय-छेदश्रुतानि-प्रकल्पव्यवहारादीनि । व्य० प्र० छोता-विदारणं । नि० चू० प्र० ५६ आ। ११५ अ। नि० चू० प्र० २८१ अ। छोभ-अभ्याख्यानम् । बृद्वि० १६४ आ । बृ० द्वि. छया-छेदा:-अर्थच्छेदाः । व्य० प्र० ६० आ । छेका:- | ३१ अ। प्रस्तावज्ञाः । उपा० ४६ । छेका-निपुण।। भग० १६७, छोभगं-कलङ्कम् । नि० चू० प्र० २५२ अ । अब्भ५२७ । ज्ञाता० ३६। क्खाणं । नि० चू० द्वि० ६४ आ। अभ्याख्यानम् । व्य. छेयारियकणगखइयंतकम्म- ।आचा० ४२३ ।। प्र० २०४ अ । छरित्ता-हदित्वा । उत्त० १६६ । आव० ३१६ । | छोभगदिनो-अभ्याख्यानं दत्तं यस्मिन् स छोभगदत्तः । छेला-छगलकः । उत्त० १३८ । व्य० प्र० २०६ आ। छलावणय-छेलापनकं-उत्कृष्णबालक्रीडापनं, सेण्टिताद्यर्थ- | छोभय-अपमानम् । दश० ४७ । वाचकम् । आव० १२६ । छोभवंदणं-आरभटया छोभवन्दनं क्रियते । आव० ५२४॥ छेलिअ-सेंटितं हर्षोत्कर्षेण सीत्कारकरणम् । जं० प्र० छोभिय-क्षोभित:-कदर्थीकृतः। दश. ५८ । २०६। छोमो-निस्सहायः क्षोभणीयो वा। प्रश्न० ६४ । छलिय-सेंटितं-सीत्कारकरणम् । प्रश्न० ४६ । मुखवादि. छोय-छोक: लघुः । भग० ३१८ । पम् । बृ० तृ० २४७ आ। सेण्टनं-सेण्टितम् । विशे० छोल्लेति-निस्तुषीकरोति । ज्ञाता० ११६ । २७४ । छेव-छेवक-अशिवम् । बृ० तृ० १५६ अ । - यत् उद्देशवचनम् । आव० ४३८ । यदा । आव. छेवइओ-अशिवगृहीतः । वृ०४० १५० आ। .३५८ । छेवग-असिवं । नि० चू० प्र० ७५ आ। मारि । ब्य० । जंकयसुकया-यदेव कृतं शोभनमशोभनं वा तदेव सुष्ठ (४२४ ) 2010_05 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किचिमिच्छ ] - अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा०.२ [ जंतुयं कृतमित्यभिमन्यते पितृपौरादिभिर्यस्याः सा यत्कृतसुकृता। जंघापरिजिय-मूलद्वारविवरणे साधुः । जंघापरिजितनामा अन्त० १६ । | साधुः । पिण्ड० १४४ । किचिमिच्छ-खेलसिंघानाविधिनिसर्गाभोगानाभोगसह- | जंघाबलपरिहीणो-परिक्षीणजङ्घाबलः । आव० ५३६ । . साकाराद्यसंयमस्वरूपं यत्किञ्चिन्मिथ्या-असम्यक् तद्वि-जंजुका-तृणविशेषः । प्रज्ञा० ३० । षयं मिथ्येदमित्येव प्रतिपूर्वकं मिथ्यादुष्कृतकरणं | जंत-यन्त्रम् । उत्त० ११६ । प्रपञ्चः । जीवा० १६६ । यत्किञ्चिन्मिथ्या प्रतिक्रमणमिति । ठाणा० ३८०। ३५६ । उच्चाटनाद्याक्षरलेखनप्रकारः, जलसङ्ग्रामादिकिचिमिच्छा-यत्किञ्चिन्मिथ्या-यत्किञ्चिदाश्रित्य मि. | यन्त्रं वा । प्रश्न० ३८ । यन्त्रं-अरघट्टादि । प्रश्न ८ । थ्या । आव० ५४८ । नानाप्रकारम् । जीवा० १६० । अरकोपरिफलकचक्रकिचिमिच्छामि-यत्किञ्चनानुचितं तन्मिथ्या-विपरीत वालम् । जीवा० १६२ । पाषाणक्षेपयन्त्रादि । औप० दुष्ठ मे-मम इत्येवं वासनागर्भवचनरूपा एकाऽन्या गरे । १२ । यन्त्रशाला गुडादिपाका । यन्त्रशालासु गुडादिनाठाणा० २१५ । मुत्सेचनार्थमलाबूनि धार्यन्ते । बृ० द्वि० २४६ अ । यन्त्रजंगंध-यद्गन्ध-यादशगन्धवत् । ओघ० २२३ । । सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपम् । जं० प्र० २६२ । जंगल-निर्जलः । बृ० प्र० १७५ आ । चारकोपरि फलकचक्रवाल: । जं०प्र० ३७ । यन्त्रं-कोल्हजंगला-जङ्गला:-जनपदविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । कादिघाणकविषयम् । पिण्ड० ११३ । यन्त्रिका: । ओघ० जंगिते-जङ्गमा:-त्रसास्तदवयवनिष्पन्नं जाङ्गमिक-कम्ब- ७५ । यन्त्र-व्रीह्यादिदलनोपकरणम् । पिण्ड० १०६ । लादि । ठाणा० ३३८ । जंगमजमौर्णिकादि । ठाणा० गच्छन् । आव० ४२० । जंतकम्म-यन्त्रकर्म-बन्धन क्रिया । भग० ३२२ । जंगियं-जङ्गमोष्ट्राचूर्णानिष्पन्नम् । आचा० ३६३ । त्रसा- | जंतग-मट्टियादी । दश० चू० ७६ । यात:-यायी । आव० वयवनिष्पन्नं वस्त्रम् । बृ० द्वि० २०१ अ। ४३१ । जंगोलं-विषघातक्रियाऽभिधायकं जङ्गोलं-अगदं तत्तन्त्रं तद्धि जंतणा-यन्त्रणा-पीडा । आव० २३४ । सर्पकोटलूतादष्टविनाशार्थं विविधविषसंयोगोपशमनार्थ जंतपत्थर-यन्त्रप्रस्तरः-घरट्टादिपाषाणः, यन्त्रमुक्तपाचेति आयुर्वेदपञ्चमाङ्गम् । विपा० ७५ । षाणो वा । प्रश्न० २० । गोफणादिपाषाणः । प्रभ० ४८ । जंगोली-विषविघाततन्त्रमगदतन्त्रमित्यर्थः। ठाणा०४२७ जंतपासय-यन्त्रपाशकः । आव० ३४२ । जंघा-अङ्गविशेषः । आचा० ३८ । संपूर्णजंघाच्छादकं | जंतपीलग-श्रेणिविशेषः । जं० प्र० १९४ । चर्म । बृ० द्वि० २२२ आ । जान्वधोवर्ती खुरावधिर जंतपोलणकम्म-यन्त्रपीडनकर्म । आव० ८२६ । वयवः । जं० प्र० २३४ । जंतलट्टी-यन्त्रयष्टिः-कृषिकर्मोपयुक्ता । दश० २१८ । जंघाचारण-लूतातन्तुनिर्वतितपुटकतन्तुन् रविकरान् वा जंतवाडचुल्ली-इक्षुयन्त्रपाटचुल्ली । ठाणा० ४१६ । यन्त्रनिश्रां कृत्वा जङ्घाभ्यामाकाशेन चरतीति जङ्घाचारणः । । पाटचुल्ली-इक्षुपीडनयन्त्रं तत्प्रधान: पाटकस्तस्मिन् चुल्ली । विशे० ३८० । जीवा० १२४ । जंघाचारणा-अतिशयचरणाच्चारणाच्चारणा:-विशिष्टाकाश- जंताणि-पाषाणक्षेपणयन्त्राणि । सम० १३८ । गमनलब्धियुक्ताः ते च जनाचारणा: । प्रश्न० १०६ । ये जंतिओ-यन्त्रितः । आव २०७। चारित्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयलब्धिविशे- जंतुर्ग-जन्तुकं- जलाशयजं तृणविशेषं पर्णमित्यर्थः । प्रश्न षास्ते जवाचारणा: । प्रज्ञा० ४२५ । शक्तितः किल | १२८ । रुचकवरद्वीपगमनशक्तिमान् । आव० ४७ । जङ्घाव्या-जंतुगा-वनस्पतिविशेषः । सूत्र० ३०७ । पारकृतोपकाराश्चारणा जङ्घाचारणाः । भग० ७६३ । । जंतुयं-जन्तुकं-तृणविशेषोत्पन्नम् । आचा० ३७२ । ( अल्प० ५४ ) ( ४२५ ) 2010_05 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंदिटुं] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः- [जंपियतिलकीडगा जंदिटुं-यदाचार्यादिना दृष्टमपराधजातं तदेवालोचयति । | ३५ । सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरवर्ती द्वीपः । प्रज्ञा० ३०७ । भग०११६ । ठाणा० ४८४ । जम्ब्या-सुदर्शनापरनाम्न्याऽनाहतदेवावासभूतयोपलक्षितो जनतो-यज्ञयाजिनः । निरय० २५ । द्वीप: जम्बूद्वीपः । जं० प्र० प्रस्ता० ४ । जंपानं-युगम् । अनु० १५६ । जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-जम्ब्वा-सुदर्शनापरनाम्न्याऽनादृतदेवावासजंपियं-जल्पितं-मन्मनोल्लाप दि । उत्त० ६२६ । | भूतयोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्तस्य प्रकर्षण-नि:शेषकुजंबवइ-जाम्बवती, अन्तकृद्दशानां पञ्चमवर्गस्य षष्ठमध्य- तीथिकसागम्य यथावस्थितस्वरूपनिरुपणलक्षणेन ज्ञप्तिःयनम् । अन्त० १५ । ज्ञापनं यस्यां ग्रन्थपद्धती शतिर्शानं वा यस्याः सकाशात जंबवई-जम्बूमती । अन्त० १८ । सो, अथवा जम्बूद्वीप प्रान्ति पूरयन्ति स्वस्थित्येति जम्बूजंबवती-जाम्बूमती, कृष्णवासुदेवराज्ञी। अन्त० १८ ।। द्वीपप्राः जगतीवर्षवर्षधराधास्तेषां ज्ञप्तिर्यस्याः सकाशात् जंबालः-कईमः । ठाणा० १४५ । सा। जं० प्र० ४। जंबुडालं-जम्बूशाखा । आव० ३१८ । जंबूपेठे-जम्बूपीठम् । जं० प्र० ३३० । जंबुद्दीवे-नवमशतके जम्बूद्वीपवक्तव्यताविषयः प्रथमो- जंबूफलं-जम्बूफलं फल विशेषः । प्रज्ञा० ३६० । द्देशकः । भग० ४२५ । जम्ब्वुपलक्षितस्तत्प्रधानो वा | | जंबूफलकलिका-रिष्ठाभा या मदिरासा । जं० प्र० १००। द्वीपो जम्बूद्वीपः । आव० ७८८ । जंबूफलकालिवरप्रसन्ना-सुराविशेषः । जीवा० ३५१ । जंबुफलकालिया-जम्बूफलवत् कालेव कालिका जम्बूफल- | जंबूवई-जम्बूवती। आव० ६५ । कालिका । प्रज्ञा० ३६४ । जंबूवणं-जम्बूवनं-जम्बूवृक्षा एव समूहभावेन यत्र स्थिताजंबुवत्-सुग्रीवराजस्य मन्त्री । प्रश्न० ८६ । स्तत् । जं० प्र० ५४० । जंबुवती-नारायणराज्ञी । बृ० प्र० ३० आ । जंबूसंडं-जम्बूखण्डं-ग्रामविशेषः । आव० २०७ । जंबू-वृक्षविशेषस्तदाकारा सर्वरत्नमयी या सा जम्बूः । जंभका-जम्भकाः तिर्यग्लोकवासिनो देवविशेषः । प्रश्ना० ठाणा० ४३७ । सुधर्मस्वामिनः शिष्यः । सूत्र० ७२ ।। ११६ । प्रज्ञा० २२ । जम्बू:-अपरनामसुदर्शना, वृक्षविशेषः । | जंभगो-जृम्भक:-व्यन्तरः । आव० १८० । उत्त० ३५२ । जम्बू:-उत्तमतरुविशेषः । प्रश्न० १३६ । | जंभया-ज़म्भन्ते विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया चेष्टन्ते ये स्थविरः । बृ० प्र० १६६ अ । सत्पुरुषत्वे दृष्टान्तः । ते जम्भकाः-तिर्यग्लोकवासिनो व्यन्तरदेवाः । भग० बृ० प्र० २३० अ । सुहम्मस्स सिस्सो। नि० चू०प्र० । ६५४ । २४३ अ । जम्बुणामेण पितापव्वावितो । नि० चू० | जंभा-जम्भा मत्स्यबन्धविशेषः । विपा० ८१ । द्वि० २६ आ । एकास्थिवृक्षविशेषः। प्रज्ञा० ३१ ।। जंभाइए-जृम्भितं-विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमः । भग० ८०३ । ज्ञाता० १ । आव० ७७६ । जंबूणय-जाम्बूनदं-रक्तसुवर्णम् । जं० प्र० ३७४ । | जंभायंत-विजृम्भमाणं-शरीरचेष्टाविशेषं विदधानम्। ज्ञाता० सुवर्णम् । जं० प्र० ५६ । जंबूणया-जम्बूनदं-ईषद्रक्तस्वर्णम्, सिरिनिलयम् । जं० भियगाम-जृम्भिकाग्रामम् । आव० २२६, २२७ । प्र० २८४ । जंपिय-यापित:-कालान्तरप्रापितः । ज्ञाता० २३१ । जंबूणयामय-जाम्बूनदमयौ-सुवर्णनिर्वृत्ती। भग० ४५६ । जंपियतिलकीडगा-यापिताः कालान्तरप्रापिता ये तिला:जंबूदीवंतो-जम्बूद्वीपान्तः-जम्बूद्वीपदिक् । जीवा० ३१५।। धान्यविशेषास्तेषां ये कीटकाः-जीवविशेषस्तद्वद् ये वर्णजंबूद्दीवे-जम्बूवृक्षोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः । अनु०६०। साधात् ते तथा तांश्च यापिततिलकीटकाः । ज्ञाता० जम्ब्वा वृक्षविशेषेणोपलक्षितो द्वीपः जम्बूद्वीपः । ठाणा० २३० । ( ४२६ ) 2010_05 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं समयं ] जं समयं यस्मिन् समये । जीवा ० १४३ । जइ-यतिः उत्तमाश्रमी प्रयत्नवान् वा । दश० २६२ । जइच्छा-यहच्छा-अनभिसन्धिपूर्विकाऽर्थ प्राप्तिः । प्रश्न० ३५ । जहण - जयिनी जयित्री । भग० १६७ । गमनान्तरजयवती - जविनी वा वेगवती । औप० ७० । जविनं- शीघ्र म् । भग० ६३१ । अनु० १७७ । जयिनः - शीघ्रौ वेगवतां मध्येऽतिशीघ्रः । औप० ६८ । जविनी वेगवती । ज्ञाता० २३२ । अल्पपरिचित सैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ जइणतरो - जवनतरः- शीघ्रतरः । आव० ६०२ । जइणवेगं - जयी - शेषवेगवद्वेगजयी वेगो यस्य तत् । भग० १७५ । जइणवायाम - जविनव्यायामः - शीघ्रव्यापारः । उपा०४७ । जइत - जयिक:- राजादीनां विजयकारिः शकुनः । ज्ञाता० १२५ । जइत्ती - जित्वा याजयित्वा । उत्त० ३१४ । जइत्थ - जितवान् । भग० ३१७ । जय - प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः । भग० ४८४ । जइया यदा च दुर्भिक्षादो । आव० ५३६ । जउ-जतु - लाक्षादारुमृतिके प्रसिद्धे इति । ठाणा० २७२ । जउण-यमुनः योगसंग्रहे आपत्सु दृढधर्मत्वदृष्टान्ते द्रव्या पद्वान् मथुरायां राजा । आव ० ६६७ । जउणराया - मथुराए राया । नि० चू० द्वि० ४१ अ । जउणा - नदीविशेषः । ठाणा० ४७७ । जउणावकं यमुनावक्रं मथुरायामुद्यानविशेषः । आव ० ६६७ । जए - जय:- विमलजिन प्रथमभिक्षादाता । आव ० १४७ । जय :- सामान्यो विघ्नादिविषयः । औप० २३ । परैरन भिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च । राज०२३ । जीवा ०२४३ । जयः - परानभिभवनीयत्वरूपः । जं० प्र० १५७ । जगत् जीवसमूहः जङ्गमाभिधानः । भग० ५७५ । जओ-यत: यस्तवान् । उत्त० ५५ । जयः । विशे०४८६ । जकारचकारादिभिः - अपरैः प्रकारैः प्रकथ्य निन्दां विधत्ते । आचा० २४२ । जकारमकारं । उत्त० ५७ । 'जकारमकारादि - असभ्यम् । भाव० ५८८ । 2010_05 [ जक्खीए जक्ख - श्वानः । नि० चू० द्वि० ६६ अ । जक्क मो-यक्षकर्दमो नाम कुङ्कमागुरुकर्पूरकस्तूरिकाचन्दन मेलापकः । जीवा० ३१४ । जक्खगाह - यक्षग्रहः - उन्मत्तताहेतुः । भग० १६८ । जीवा० २८४ । जक्खघरमंडविया - यक्षगृहमण्डपिका । आव० १६५ । जक्खदिन्ना-यक्षदत्ता - कल्पक वंश प्रसूतशकटालस्य द्वितीया पुत्री | आव० ६६३ । जक्खदत्तगं-यक्षदीप्तकं - नभसि दृश्यमानाग्निसहितः पि शाचः । जीवा० २८३ । जक्खभद्दो- यक्षभद्रः- यक्षे द्वीपे पूर्वार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३७० । जक्खभूय-यक्षो भूतश्च व्यन्तरविशेषौ । ज्ञाता० ४६ । जक्ख मह - यक्ष मह - व्यन्तरविशेषस्य प्रतिनियत दिवसभावी उत्सवः । जीवा० २८१ । आचा० ३२८ । जक्ख महाभद्दो- यक्ष महाभद्रः - यक्षे द्वीपेऽपरार्द्धाधिपतिर्देवः । जीवा० ३७० । जक्ख महावरो-यक्ष महावरः - यक्षे । समुद्रेऽपरार्द्धाधिपतिदेव: । जीवा० ३७० । जक्खरूवं - यक्षरूपं श्वाकृतिः । पिण्ड० १३१ । जक्खवरो - यक्षवर : - यक्षे समुद्रे पूर्वार्द्धादिपतिर्देवः । जीवा० ३७० । जक्खसिरि-चंपायां सोमभूतीमाता ब्राह्मणस्य भार्या । ज्ञाता० १६६ । जक्खहरिलो - यक्षहरिलः - ब्रह्मदत्तपत्नीनां नागदत्ताऽऽदिकानां पिता । उत्त० ३७६ । जक्खा - व्यन्तरभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । यक्षा - कल्पके वंशप्रसूतशकालस्याद्या पुत्री | आव० ६६३ । जक्खादित्तं यक्षोद्दीप्तमाकाशे भवति । आव० ७३५ । जक्खालितं - पक्षाद्दीप्तमाकाशे भवति एतेषु स्वाध्यायं कुर्वतां क्षुद्रदेवता छलनां करोति । ठाणा० ४७६ । जक्खालित्तया - यशोदीप्तानि आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि । भग० १६६ । जक्खिणी-यक्षिणी । अन्त० १७ । सम० १५२ । जवखीए - यक्ष्या - अशुच्या ( शुल्या) । वृ० तृ० २४० म । ( ४२७ ) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जक्खो ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलित: जक्खो-यक्षः-द्वीपविशेषः समुद्रविशेषश्च । जीवा० ३२१, जगारि । बृ० प्र० २५७ अ। ३७० । यक्षः । दश० ६८ । इज्यते पूज्यत इति, याति जग्गण-जागरणं-रात्रौ प्रहरकप्रदानम्। बृ०प्र०२६० अ । वा तथाविद्धि नमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षः । उत्त० १८७ । जग्गहो-यद्ग्रहः । आव० २२३ । जग-यकम् । ६० द्वि० १४६ अ । जगत-औदारिक- जग्गावड-जागरयति-कुशलानुष्ठाने प्रवर्त्तयति । आचा० जन्तुग्रामः । सूत्र० ५१ । यकृत्-दक्षिणकुक्षौ मांसग्रन्थिः । । ३०७ । प्रश्न० ८ । जगन्ति-प्राणिनः । दश०.१७६ । जग:- जघन्यं-अधमम् । आव० ५८५ । जन्तुः । सूत्र० १६२ । जगच्छब्देन सकलचराचरपरि- जघन्य:-नैश्चयिकः । आव० ११ । ग्रहः, सकलचराचररूपः, सकलप्राणीगणपरिग्रहः । नंदी० जघन्यस्थितिका:-जघन्या-जघन्यसङ्ख्या समयापेक्षया १३ । जगच्छब्देन सञ्झिपञ्चेन्द्रियपरिग्रहः । नंदी०१२ । स्थितिर्येषां ते-एकसमयस्थितिकाः । ठाणा० ३५ । लोकालोकात्मकम् । नंदी० २३ । जगद्-धर्माधर्माकाश- जच्च-जात्यः-प्रधानः । ज्ञाता० २६ । जीवा० २७१ । पुद्गलास्तिकायरूपम् । नंदी० २३ । जात्यः उत्कृष्टः । आव० १८३ । जात्य:-काम्बोजादिजगह-जगती-जम्बूद्वीपकोट्टम् । जं० प्र० ३०३ ।। देशोद्धवः । ज्ञाता० ५८ । जगई-जगती-प्राकारकल्पा । जं० प्र० २८४ । जच्चकणगं-जात्यकनक-षोडशवर्णककाञ्चनम् । जं० प्र० जगईपन्वया-पर्वतविशेषाः । जं० प्र० ४४ ।। १४८ । जगच्चन्द्राः-आचार्यविशेषः । जं० प्र० ५४३ । जजुव्वेद-यजुर्वेदः-चतुर्णा वेदानां द्वितीयः । भग०११२ । जगट्ठभासी-जगदर्थभाषी-जगत्या-जगदर्था ये यस्य व्य- जज्जरिते-झर्झरितो जर्जरितो वा सतन्त्रीककरटिकादि वस्थिताः पदार्थास्तानाभाषितुं शीलमस्येति । कुष्ठिनं वाद्यशब्दवत् । ठाणां० ४७१ । कुष्ठीत्यादि यो यस्य दोषस्तं तेन खरपरुषं ब्रूयात् यः सो जज्जियं-यावज्जीवम् । व्य० प्र० २५१ । वा। जयार्थभाषी यथैवाऽऽत्मनो जयो भवति तथैवावि- जज्जीवं-यावज्जीवं-जीवितपर्यन्तम् । पिण्ड० १४५ । द्यमानमप्यर्थं भाषते तच्छीलश्च-येन केनचित्प्रकारेणा- यावज्जीवम् । व्य० द्वि० २८ आ । सदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीति । सूत्र० २३४।। जट्टि-प्रहारविशेषः । नि० चू० प्र० ३२ अ । जगडिज्जंता-कदीमाना । ग० ।। जडालो-जटालः-अष्टाशीतौ महाग्रहे त्रयपञ्चाशत्तमः । जं. जगडितो-प्रेरितो । नि० चू० प्र० ७७ अ । प्र० ५३५ । जगती-जम्बूद्वीपस्य प्राकारकल्पा पालीति । सम० १४ । | जडिज्जइ-बध्यते । आव० ६२१ । वेदिकाधारभूता पाली । ठाणां० ४३६ । जडियाइल्लए-अष्टाशीती महाग्रहे पञ्चपञ्चाशत्तमः । जगतीपव्वयं-जगतीपर्वतक:-पर्वतविशेषः। जीवा० २००। ठाणा० ७६ । जगतीसमिया-जगत्याः समा-समाना सैव जगतीसमिका।। जडिल-जटावती-वलितोद्वलिता । भग० ७०५ । जीवा० १८० । जडिलए-जटिलक:-पञ्चदशभेदेषु कृष्णपुद्गलेषु द्वितीयभेदः । जगत्स्वभावः-द्रव्याणामनादिमत्परिणामयुक्तता प्रादुर्भाव- सूर्य ० २८७ । राहुदेवस्य द्वितीयनाम । सूर्य० २८७ । तिरोभावस्थित्यन्यतानुगुणविनाशा: । तत्त्वा० ७-७। जडी-जटित्वम् । उत्त० २५० । जगनिरिसए-जगनिश्रितः-चराचरसंरक्षणप्रतिबद्धः । दश० जड्ड-स्वहितपरिज्ञानशून्यत्वात् जड्डः । आव० ७६७ । २३१ । हस्ती । बृ० प्र० २४७ आ। बृ० द्वि० १०६ अ । जगय-यतः-दक्षिणकुक्षिगतोदरावयवविशेषः । भग० बृ० तृ० २३६ आ । पिण्ड० ११५। हत्थी। नि० चू० प्र० ४७ आ। नि० चू० प्र० २००आ। नि० चू० जगारमगारं-जन्ममर्मकर्म । ग० । द्वि० १०६ आ । ओघ० ६७ । ( ४२८ ) 2010_05 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जडतरी] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ जति जड्डतरो-बहलतरी । नि० चू० द्वि० १४१ अ । जणवयकुलं-जनपदकुलं-लोकगृहम् । प्रश्न० ५२ । जड्डो-शून्यः । महाप० । जणवयवग्ग-जनपदवर्ग:-देशसमूहः । भग० १६३ । जढं-रहितम् । व्य० प्र० २४६ आ। परित्यक्त: । ओघ० जणवयसच्च-जनपदसत्यं नानादेशभाषारूपमप्यविप्रति८४ । बृ० प्र० १४४ आ । पत्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थम् । दश० २०८ । जढा-त्यक्ताः । ओघ० ४६, १७८ । परित्यक्ताः । दश० जणवयसच्चा-जनपदसत्या-पर्याप्तिकसत्याभाषायाः प्र२०५ । बृ० द्वि० २१३ अ । थमो भेदः । तं तं जनपदमधिकृत्येष्टार्थप्रतिपत्तिजनकजण-जन:-सामान्यो जनः । दश० ८३ । लोकः । उत्त० | तया व्यवहारहेतुत्वात् सत्या जनपदसत्या । प्रशा० १६३ । जायत इति जन:-लोकः । उत्त० २४४ । नगरी- २५६ । वास्तव्यलोकः । ज्ञात०१ । औप०२ । जायत इति जनः।। जणवह-जनवधः जनव्यथा वा । भग० ३२२ । आव० ४६ नंदी० १११ । जन:-नगरीवास्तव्यो लोकः। जणवाए-जनवाद:-जनानां परस्परेण वस्तुविचारणम् । सूर्य० २ । परिजनः । दश०८६ । प्राणी । दश० औप० ५७ । ६४ । नगरवास्तव्यलोकः । भग० ७ । जन:-नगरीवा. जणवायं-जनवाद-बूतविशेषम् । जं० प्र० १३७ । स्तव्यलोकः । जं० प्र० ७५ । जणवूह-जनव्यूहः-चक्राद्याकारः समूहस्तस्य शब्दस्तभेदाजणक्खया-लोकमरणानि । भग. १९७ । ज्जनव्यूहः । विपा० ३६ ।। जणग-जनकः-मिथिलायामधिपतिः । आव० २२१ । जणसंनिवाए-जनसन्निपातः-अपरापरस्थानेम्यो जनानां मिथिलानगयाँ राजा । प्रभ० ८६ । जायते इति जनः | मीलनम् । भग० ११५ । लोकः स एव जनकः । सूत्र. १७७ । जणसंमई-जनसम्मर्दः उरो निष्पेषः । भग० ११३ । जणगा-जनका:-मातापित्रादयो जना वा । आचा०२३९ । जणहियाकारणए-जनहितस्याकर्तेत्यर्थः । ज्ञाता० ८१ । जणपणयं-जनहेला। ग० । जणीओ-स्त्रियः । पउ०५१-१२। नार्यः। पउ०७२-५-१०। जणणी-जनयति-प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी । उत्त० | जणोणं-नारीणाम् । पउ० ७५-५-१० । ३८ । जण्ण-यज्ञ:-प्रतिदिवसं स्वस्वेष्टदेवतापूजा । जं० प्र० जणत्ता-जनता । आव० ५५६ । १२३ । जणवूहे-जनव्यूहः-चकाद्याकारो जनसमुदायः । भग० ११३, | जण्णजत्ता-यज्ञयात्रा । आव० ५७८ । जण्णजसो-यज्ञयशाः सत्यो (शौचो)दाहरणे समुद्रविजयजणमणणयणाणंदो-जनमनोनयनानन्दः । आव० ३५८ । राज्ये उच्छवृत्तिस्तापसः । आव० ७०५ । जणमारि-जनमारि । आव० ६३ । जण्णदत्तो-यज्ञदत्तः । उत्त० १११ । जणवओ-जनपद:-विशिष्टलोकसमुदायो वा ग्रामादिवा- | जण्णवाडं-यज्ञवाट:, यज्ञपाट: वा । उत्त० ३५८ । स्तव्यजनसमुदायः । बृ० प्र० १९६ आ। जण्णिए--यज्ञेन यजति लोकानिति याज्ञिकः । आव०२४०। जणवतो-जनपद:-जनवृन्दम् । उत्त० ११३ । देशः । | जण्णुयं-जानु । आव० ६७० । आव० ३१७ । जण्ण-यज्ञः-नागादिपूजारूपः । आव० १२६ । जणवय-जनपद:-देशः । ठाणा० ४८६ । जनपदे भवाः जतणं-यजनं-अभयस्य दानं यतनं वा-प्राणिरक्षणं प्रयत्नः। जानपदा:-कालप्रष्टादयो राजादयो वा मगधादिजनपदा अहिंसाया अष्टचत्वारिंशत्तमं नाम । प्रश्न. ६९ वा । आचा० १६३ । जति-यतिः-प्रवजितः । ओघ० ११६ । यतिदोष:-अस्थाजणवयकहा-रम्यो मध्यदेश इत्यादिरूपा जनपदकथा । | नविच्छेदः, तदकरणं वा, सूत्रदोषविशेषः । आव० ३७४ । : दश० ११४ । यतन्ते उत्तरगुणेषु विशेषत इति यतयो-विचित्रद्रव्याद्य( ४२६) 2010_05 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जतिणं ] भिग्रहाद्युपेताः साधवः । राज० ४६ । जतिणं -जयनीत्वं शेषकूम्र्म्मगतिजेतृत्वात् । ज्ञाता० ६६ । जतिणा - जयिन्या विपक्षजेतृत्वेन । ज्ञाता० ३६ । जतुगृहं - लाक्षागृहम् । उत० ३७८ । जतो - जयः - अपगमः । व्य० प्र० २२ आ . जत्त - यात्रा - सङ्ग्रामयात्रा । निरय० १७ । यतः । आचा० ५३ । यात्रा । आव० १७३ । वन्दनके चतुर्थस्थानम् । आव० ५४८ । यत् । उत्त० ५५ । जत्ता - यात्रा - तपोनियमादिलक्षणा, क्षायिक मिश्रोपशमिक भावलक्षणा वा । आव० ५४७ । यात्रा - विग्रहार्थं गमनम् । ज्ञाता० १४६ । यात्रा । आव० २१६, २२५ । संयमयात्रा | उत्त० ५५ । जत्ताभयगो- दसजोयणाणि मम सहारण एगागिणा वा गंतव्यं एत्तिएण घणेण ततो परं ते इच्छा, अन्ने उभयं भांति - गंतव्यं कम्मं च से कायव्वंति । नि० चू० द्वि० आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ४४ अ । जत्तासिद्धो-यो द्वादश वारा: समुद्रमवगाह्य कृतकार्य आगच्छति सो । यात्रासिद्धः । आव ० ४१४ । जत्थत्थमिए-यो यत्रैवास्तमुपैति सविता तत्रैव कायत्सर्गादिना तिष्ठतीति यत्रास्तमितः । सूत्र० ६५ । जन - अस्यास्मन्मित्र विग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यति इत्यादिकरूपम् । ठाणा० १५२ । तिर्यग्नरामरा एव, जायन्त इति जनाः । आचा० २५५ । जनपदाः जनानां - लोकानां पदानि अवस्थानानि येषु जनपदाः- अवन्त्यादयः साधुविहरणयोग्याः अर्द्धषड्विंश तिर्देशाः । आचा० २५४ । जना:-जीवाः । नंदी० १११ । ६४ । जन्नदत्तो - यज्ञदत्त :- सत्यो ( शौचो) दाहरणे यज्ञयश: सौमि श्योः पुत्रः । आव० ७०५ । जन्नवाड-यज्ञपाट: । आव० २२६ । उत्त० ३५.८ । जन्नवायपडिए - । आचा० ४२४ 1 जनोवइए - यज्ञोपवीतम् । आव ० ३०५ । जन्म - लोकः । प्रश्न० ८६ । जप-मन्त्र्याद्याभ्यासः । अनु० २६ । जपा - गुच्छविशेषः । आचा० ५७ । जपाकुसुमं - पुष्पविशेषः । जीवा० १६१ । जप्प - परिगृह्यं सिद्धान्तं प्रमाणं च छलजातिनिग्रहस्थानपरं भाषणं यत्र जल्पः । नि० चू० प्र० २४० अ । वाद एव छलजातिनिग्रहस्थानपरो जल्पः । सम० २४ । सम्यग् हेतुदृष्टान्तैर्यो वादः । सूत्र० ९३ । वाद एव विजिगीषुणा साधं छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भः । सूत्र ० २२६ । जम-यमो - दक्षिणदिक्पालः । जं० प्र० ७५ । यमाः -प्राणातिपातविरमणादयः । ज्ञाता० ११० । जमईए - यमकीयं - यमकनिबद्धसूत्रम् । सम० ३१ । जमईयं - यदतीतं - सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धे पञ्चदशमध्ययनम् । आव० ६५१ । जमकाइय-यमकायिकः । भग० १६७ | यमकायिक:दक्षिणदिक्पाल देवनिकायाश्रितोऽसुरः अम्बादिः । प्रश्न० १६ । जनार्दनः - कृष्णः । व्य० प्र० १८८ आ । बृ० तृ० जमग- यमकः - शकुनिविशेषः । जीवा० २८६ ॥ जमगपव्यए - पर्वतविशेषः । भग० ६५४ । जमगप्पभं - यमकप्रभं यमकः - शकुनिविशेषस्तत्प्रभं तदाकारम् । जीवा० २८६ । जमगवरा - यमकवरी - नीलवद्वर्षघरप्रत्यासन्नो शीताभिधानमहानद्युभयतटवर्तनो पर्वती । प्रश्न० ९६ । जमगसंढाणसं ठिआ-यमकी- यमलजाती भ्रातरौ तयोर्यत्संस्थानं तेन संस्थितौ परस्परं सदृशसंस्थानो, अथवा २३० आ । जन्न - यज्ञः -पूजा । बृ० द्वि० १६६ आ । यज्ञः - नगादिपूजा। भग० ४७३ । ज्ञाता ० ५६ । प्रश्न० १४० १५५ । भावतो देवपूजा | अहिंसायाः षट्चत्वारिंशत्तमं नाम । प्रश्न० ६६ । यागः । प्रश्न० ३६ । जन्नइ - यज्ञयाजिनः । भग० ५११ । जन्न इज्जं याशीयं- उत्तराध्ययनेषु पञ्चविंशतितममध्ययनम् । 2010_05 उत्त० ६ । जन्नई - यज्ञयाजिन: । औप० ६० । जन्नतिज्जं - उत्तराध्ययनेषु पञ्चविंशतितममध्ययनम् । सम० [ जमगसंढाणसंठिय (830) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमगसमग ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [जम्मणमहो यमका नाम शकुनिविशेषास्तत्संस्थानसंस्थिती । जं. प्र. जमलपाणिणा-मुष्ठिना । भग० ७६७ । जमला-यम लाति-आदत्त इति यमला। आव० ५६६। जमगसमग-यमकसमक-युगपत् । विपा० ४० । जं० प्र० जमलिय-यमलतया समश्रेणितया तत्तरूणां व्यवस्थित१६२ । यमकसमकं एककालम् । राज० २४ । योग- त्वात् संजातयमलत्वेन यमलितम् । भग० ३७ । यमपद्येनेत्यर्थः । उपा० ३५ । युगपत् । ज्ञाता० १४६ । लतया समश्रेणितया व्यवस्थिताः । ज्ञाता० ५ । जमगा-यमकाः-शकुनिविशेषाः । जं० प्र० ३१६ । यमको। जलियाओ-यमलं नाम समानजातीययोलतयोर्युग्मं तत्सजं० प्र० ३१६ । यमको-उत्तरकुरी पर्वतविशेषो । जं. जातमास्विति यमलिताः । जं० प्र० २५ । प्र० ३१६ । पर्वतविशेषो । जीवा० २८६ । जमलोइया-यमलौकिकात्मनः अ(म्बाम्ब)म्बादयः । जमगाणं-यमकदेवाभिलापेन । जं०प्र० ३१६ । सूत्र० २२१ । जमतीयं-यदतीतं-सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशमध्ययनम् । सूत्र० | जमा । भग० ४६३ । २५३ । जमालि:-सम्यकशास्त्रार्थपरिज्ञानविकलः । बृ० प्र० जमदग्गिओ-जामदग्न्यः-परशुरामः । आव० ३६१ । २१६ आ । निह्नवविशेषः । सूत्र०६८। आव० ५२३ । जमदग्गिजडा-जमदग्निजटा-वालकः । उत्त० १४२ । उत्त० १८ । नंदी० २४८ । मिथ्यादर्शनशल्ये जमदग्गिसुओ-जमदग्निसुतः-पशुरामः । जीवा० १२१ । दृष्टान्तः । आव० ५७६ । प्रथमो निवः । ठाणा० जमदग्नि-परशुरामपिता स । सूत्र० १७०, १७८ ।। ४१० । भग० ६१६, ६२० । यस्माद्बहुरता उत्पन्नाः जमदेवकाइय-यमदेवताकायिक:-यमसत्कदेवतानां सम्ब- | स आचार्यविशेषः । आव० ३११ । विशे० ६३४ । न्धिनः । भग० १६७ । प्रथमो निह्नवः । व्य० द्वि० १७६अ। भग० ५४८ । जमप्पभे । ठाणा० ४८२ । । निर्गमे दृष्टान्तः । ज्ञाता० १५२ । जमलं-सहत्ति । भग० ६७२ । यमलं-समसंस्थितद्वय- जमालिपभवो-जमालिप्रभवः-बहुरतः । आव० ३११ । रूपम् । ज्ञाता० २ । यमलं-समश्रेणिकम् । जीवा जमाली-राजकुमारनाम । निरय० ४० । अश्रद्धायां १६६, २०७, ३५६ । यस्मिन् द्वौ द्वौ वर्गों समुदिती दृष्टान्तः । नि० चू० तृ० १२७ आ । भग० ५४८ । एकं तत् । प्रज्ञा० २८० । जमालि:-भगवद्भागिनेयः । विपा० १० । बहरतविषजमलजणणीसरिच्छा-यमलजननीसदृशः । ओघ०१८५।। यो निह्नवः, सुदर्शनासुतः । उत्त० १५३ । क्षत्रियकुण्डजमलजुगलं-यमलयुगलं-समश्रेणिकयुगलरूपी । जीवा० ग्रामे कुमारविशेषः । भग० ४६१ । २७५ । | जमिगाओ-यमिके नाम राजधान्यौ । जं० प्र० ३१६ । जमलजुगलजीहालो-यमं लाति-आदत्त इति यमला, य- जमत्तं-यदुक्तं-एतत् तात्पर्य मित्यर्थः । विशे० १२२८ । मला युग्मजिह्वा यस्य सः यमलयुग्मजिह्वः। आव०५६६ । जम-चमरेन्द्रस्य द्वितीयो लोकपालः । ठाणा० १६७ । जमलजुयल-यमलयुगलं-समश्रेणिक युगलम् । राज० अहिंसादिर्यमः । प्रश्न० १३२ । २२ । जीवा० १२२ । यमलयुगलं-द्वयम् । भग० ३१८ । जम्बलए-जम्बूलकाः । उपा० ४० । जमलज्जुणा-यमलार्जुनो-कृष्णपितृवैरिणी विकुवितवृश्न- जम्बस्वामी-गुरुपर्यक्रमलक्षणसम्बन्धोपदर्शने सुधर्मस्वामिरूपो विद्याधरो । प्रश्न० ७५ । शिष्यः। भग०६ । अनन्तरागमवान् । आव० ५७ । सुधर्मजमलपयं-समयपरिभाषयाऽष्टानामष्टानामङ्कस्थानानां य- स्वामिनः शिष्यः । नंदी०११४ । अनु० २१९ । आचा० मलपदमिति सज्ञा । प्रज्ञा० २८० । कालतवा । नि० २५। चू० द्वि० ६० आ। जम्म-जन्म-सम्भूतिलक्षणम् । जीवा० ६० । जमलपया-तपःकालयोः सज्ञा । बृ० प्र०६३ आ। जम्मणमहो-जन्ममहः-जन्मोत्सवः । आव० १२१ । ( ४३१) ____ 2010_05 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मणसंतिभावं.] आचार्ययोआनन्दसागरसूरिसकुलितः [ जया %3 TITE जयतमा जम्मणसंतिभावं-जन्म-उत्पादः सद्भावश्व-विवक्षितक्षेत्रा. आव० २८६ । यतं-गवाक्षकादीनामवलोकयन् । दश० दन्यत्र तत्र वा जातस्य तत्र चरणभावेनास्तित्वम् । भग०. २३१ । चक्रवतिविशेषः । उत्त० ४४८ । यतः-यत्न८६५ । वान् । ओघ० ३७ । यतं-तद्वेगमनुत्पादयन् । दश० जम्मन्धो । नि० चू० द्वि० ४१ अ। १८४ । अत्वरितम् । दश० १७८ । जयनामा एका. जम्मपक्कं । विपा० ८० । दशचक्रवर्ती । आव० १५६ । जम्मा-यमा । ठाणा० १३३ । जयई-यजन्ताम् । उत्त० ३७१ । जम्मो-यमः तापसपल्लयां तापसविशेषः । आव० ३६१। जयकुञ्जर:-कुञ्जरमुख्यः । भग० १ । . जयंत-विमानविशेषः । आचा०२१। जयन्त:-पश्चिम- जयघोस-जयघोष:-ब्रह्मगुणनिरूपेण विप्रः । उत्त० ५२० । निरनिजम्नटीपस्य दारः । यतमान:-उदगमादिदोष- जयणं-यतनं-प्राप्तेषु संयमयोगेष प्रयत्न-उद्यमः । प्रथ. परिहारी । आचा० ३६० । सम० ८८ । जम्बूद्वीपस्य १०६ । चतुर्दारे तृतीयम् । ठाणा० २२५ । भाविप्रथमो विष्णुः । जयणा-तिपरिखा अलंभे पछा पणगहाणी । बृ० १५६ सम० १५४ । जयन्त:-अनुत्तरविमानपञ्चके पश्चिमदि आ । तिपरियट्र काऊण अप्पदुप्पणो पच्छा पणगादि पडिसेवणा पडिसेवति एस जयणा । नि० चू० प्र० ३७ ग्वति । ज्ञाता० १२४ । जयंतपवर-जयन्तप्रवरं-जयन्ताभिधानं प्रवरम आ । नि० चू० प्र० १३६ अ । जहा जीवोवघातो मानम् । ज्ञाता० १४६ । न भवतीत्यर्थः । नि० चू० प्र० १८६ अ । असढुभा. रं-मालापहृतद्वारविवरणे नगरम् । पिण्ड ० १०८। वस्स अववादपत्तस्स जो अकप्पपडिसेवणे जोगो तत्थिम जयंत-जयन्त पश्चिम दिग्वति जम्बूद्वीपस्य द्वारम् जं० रागदोसवियुत्तत्तणं सा जयणा । नि० चू० तृ० १४८ प्र० ३०६। आ । यतना-बहुदोषत्यागेनाल्पदोषाश्रयणम् । औप० जयंता-अनुत्तरोपपातिकभेदविशेषः । प्रज्ञा० ६६ । ज. ४८ । उत्त० ५१५ । प्रयत्नकरणलक्षणा । दश०७४ । यन्ता-उत्तरदिग्भाव्यञ्जनपर्वतस्यापरस्यां पुष्करिणी । पृथिव्यादिष्वारम्भपरिहारयत्नरूपा । दश० १२० । जीवा० ३६४ । जयणाए-जयिन्या विपक्षजेतृत्वेन । भग० ५२७ । जयंति-जयन्ती पूर्वदिग्रुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव० / जयति-कर्मक्षपण उद्यतः । ओघ० २२० । इन्द्रियविष. १२२ । नवमी रात्रि नाम । जं० प्र० ४६१ । सर्य, यकषायघातिकर्मपरिषहोपसर्गादिशत्रुगणपरिजयात् सर्वा१४७ । वल्लीविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । नप्यतिशेते तं (प्रति प्रणतोऽस्मि) । नंदी० ३ । ७.यंती-सयाणीयभगिणी । बृ० द्वि० १६८ अ। जयन्ती | जयद्दह-हस्तीनागपुरे राजकुमारः । ज्ञाता० २०८ । राजधानी । जं० प्र० ३५७ । वैजयन्ती राजधानी । जयनंदा-जगन्नन्द जगत्समृद्धिकर । जं० प्र० १४३ । जं० प्र० ३५७ । उत्कृष्टमालापहृते सुरदत्तस्य वास्तव्या- जयनामो । सम० १५२ । पुरी । पिण्ड० १०६ । सम० १५१ । ठाणा० २३१, | जयसंधी-जयसन्धिः-अलोभोदाहरणेऽमात्यः । आव०७०१॥ २०४ । महाग्रहस्य तृतीयाऽग्रमहिषी। भग० ५०५,५५६ । जयसुन्दरी-गर्भाधानपरिरूपमूलद्वारविवरणे सिन्धुराजजयन्ती। जं० प्र० ३६१, ५३२ । नन्दनबलदेवमाता। पत्नी । पिण्ड० १४५ । आव० १६२ । उत्पलभगिनी । आव. २०२ । अक. | जयहत्थि-जयहस्ती-पट्टहस्ती । आव० ७१६ । म्पितमाता । आव० २५५ । जयहत्थी-जयहस्ती। उत्त० ३०० । जयंतीए । भग० ५५६ । जया-यस्मादर्थे । दश० चूं० १५७ । औषधिविशेषः । जयंतीओ । ठाणा० ८०। उत्त० ४६० । जया-वासुपूज्यमाता । आव० १६० । जय-पराभिभवः । ठाणा० २५० । यतः-प्रयत्नवान् । सम० १५१, १५२ । (४३२) 2010_05 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ जलप्पन जर-जरा-वयोहानिलक्षणा । प्रशा० ३ । प्रथमो लोकपालः। ठाण० १९८ । जरकुमार-जराकुमार:-कृष्णवधकः । अन्त० १६ । वसु- जलइ-ज्वलति-ज्वालामालाकुलो भवति । जीवा० २४८ । देवपुत्रः । नि० चू० प्र० १९४ आ । जलइत्तइ-ज्वालयितुं-उत्पादयितुं वृद्धि वा नेतुम् ।दश०२०१॥ जरग्गहिया-ज्वरग्रहिता:-सामायिकलाभे दृष्टान्तः । आव० जलकंत-जलकान्त:-पृथिवीभेदः । आचा० २६ । उदधि७५ । कुमाराणामधिपतिः। प्रज्ञा० ९४ । जीवा० १७० । ठाणां० जरढं-जरठम । जीवा० १५५ । पुराणम् । औप०७।। ८४, २०५ । जलकान्तेन्द्रस्य लोकपालः । ठाणां० १९८। जरठानि, पुराणत्वात् कर्कशानि । जं० प्र० २६ । मणिभेदः । उत्त०६८९। सप्तमो दक्षिणनिकायेन्द्रः । जरते-जरक: ।ठाणा० ३६५ । भग० १५७ । जलकान्त:-मणिविशेषः । जीवा० २३ । जरला-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषाः । जीवा० ३२ । आव० ३५५ । प्रज्ञा० २७ । जरा-जरा-बयोहानिलक्षणा । दश०२३३ । वार्द्धक्यम् ।। जलकारी-चतुरिन्द्रियजीवः । उत्त० ६९६ । भग० १६७ । वयोहानिलक्षणा । आव. १४८ । जलकीड-देहशुद्धावपि जलेनाभिरतिः । निरय० २६ । जराउ-जरायु:-गर्भवेष्टनम् । प्रश्न. ६० । जलचर-जलचरः मत्स्यादिः । दश० ५५ । जराउय-जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजाः, गोमहि- जलचारिया-चतुरिन्द्रियविशेषाः । जीवा० ३२ । प्रज्ञा. व्यजाविकमनुष्यादयः । दश० १४१ । मनुष्यादयः । ४२ । प्रश्न०६० । जलज-पद्यम् । जीवा० १३६ । जलजं-पद्यम् । भग. जराकणिम-जराकूणपश्च-जीर्णताप्रधानशब्दः । भग०। जलणं-ज्वलनं शेत्यापनोदाय वैश्वानरस्य ज्वलनं शोधनार्थ जराकुमार-वासुदेवजेट्ठभाऊ। बृ० तृ० ११३ अ । वा प्रकाशकरणाय वा दीपप्रबोधनम् । प्रश्न० १२७ । जराजुण्णा-जराजीर्णाः । व्य० द्वि० २६६ अ । ज्वलयति-दहतीति ज्वलन:-क्रोधः । सूत्र० ५२ । जराघुणियं-जराघूर्णितम् । उत्त० ३२६ । जलणप्पवेसे ।ठाणा०६३ । जरासन्ध-नृपविशेषः। प्रश्न०६०। जरासन्धः । आव० जलणसिहा-ज्वलनशिखा-आचारविषये हुताशनब्राह्मण३६५ । राजविशेषः। दश० ३६ । राजगृहनगरनायको | भार्या । आव० ७०७ । नवमः प्रतिवासुदेवः । प्रश्न० ७५ । अप्रमादविषये राज- जलणाइभयं-ज्वलनादिभयम् । आव० ४०७ । गृहनगरे राजा । आव० ७२१ । जलणो-ज्वलन:-आचारविषये हताशनब्राह्मणज्येष्ठपुत्रः । जरासिंधु-जरासिन्धः-राजगृहे नृपति । उत्त० ४६०। ज्ञाता० आव० ७०७ । २०६ । जरासिन्धु:-कृष्णवासुदेवशत्रुः नवमः,प्रतिवासुदेवः । जलधरा-वृषणौ । बृ० तृ. ६८ आ। नि० चू० द्वि० आव० १५६ । ३२ अ । जरु-जरायुः । आव० ७४२ । जलनं-ज्वलनं-दीपनम् । उत्त० ७११ । जरुला-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । जलपट्टणं-जलेण जस्स भंडं आगच्छति । नि० चू० द्वि० नरो-ज्वरः । प्रश्न० १६ । ७० आ। जलपट्टणं पुरिमाती । नि० चू० प्र०२२६ जलंति-ज्वलन्ति-ज्वालारूपा भवन्ति भास्वराग्नितां प्रति अ। जलपत्तनं-यत्र जलपथेन भाण्डानामागमस्तदाद्यम् । पद्यन्त इत्यर्थः । जं० प्र० ४१६ । प्रश्न० ३८ । जलंतो-जलान्तः-जलपर्यन्तः, जलस्योपरि प्रकटः। जीवा० जलपत्तनं-जलमध्यवर्ति पत्तनम् । उत्त०६०५ । आचा० ३१५ । २८५। . जल-सामायिकलामे दृष्टान्तः । आव०७५ । जलकान्तेन्द्रस्य । जलप्पभ-जलप्रभ:-उत्तरनिकाये सप्तम इन्द्रः । ठामा. ( अल्प० ५५ ) 2010_05 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलप्लव: ] ८४ । जीवा० १७१ । भग० १५७ । उदधिकुमाराणामधिपतिः । प्रज्ञा० ६४ । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः जलप्लवः - उत्पुरः । जल बुब्बुयसमारणे - जलबुबुदसमानः । 1 जलभृङ्गारं जलमलं - मालिन्यम् । ज्ञाता० ३५ । जलमृगो-जहा जले निब्बुड्डो उल्लावेति 'बुडबुडे ति वा जलं एव जलमूगो । नि० चू० द्वि ३६ आ । जलमूय - जलमूक: - जलप्रविष्टस्येव ' बुडबुड' इत्येवं रूपो ध्वनिर्यस्य सः । प्रश्न० २५ । जलमूयओ - जलमूक: - जले ब्रूडित इव भाषमाणः । आव ० ६२८ । जलयं - जलजं - पद्मादि । जं० प्र० ३६० । जलयर - जलचरजं - पुट्ठालविशेषः । आव० ८५४ । जलेचरन्ति पर्यटन्तीति जलचराः । प्रज्ञा० ४३ | जलचर:तन्दुल मत्स्यप्रभृतिः । जीवा० १२६ । जले चरन्ति गच्छति चर्भक्षणमित्यर्थ इति भक्षयन्ति चेति जलचराः । उत्त० ६६८ । जलरत - जलप्रभेन्द्रस्य लोकपालः । ठाणा० १६८ । जलराक्षसा:- राक्षसभेदविशेषः । प्रज्ञा० ७० । जलरुह - जलरुहः - द्वीपः समुद्रोऽपि च । प्रज्ञा० ३०७ । जले रुहन्तीति जलरुहाः- उदकावकपनकादयः । प्रज्ञा० ३० । जीवा० २६ । जले रुहन्तीति पद्मादयः । उत्त० ६६२ । जलवासिणो- जलनिमग्ना । भग० ५१६ । ये जलनिषण्णा एवासते । निरय० २५ । जलविच्छु - जलवृश्चिक : - चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । जीवा० ३२ । जलवोरिए - जलवीर्यः । ठाणा० ४३० । जलाभि सेयं - जलक्षरणम् । भग० ५२० । जलाभि सेय कढिणगायभूता-तत्र जलाभिषेक कठिनगात्रभूताः प्राप्ता ये ते । ये स्नात्वा न मुञ्जते, स्नात्वा स्नात्वा पाण्डुरीभूतगत्रा इति । निरय० २५ । जलुगा-जलौका - जलजन्तुविशेष: । आव० ६२३ । जलूगा - जलौका - अनेषणा प्रवृत्तदायकस्य मृदुभावनिवार 2010_05 [ जव णार्थ सूचकत्वात् साधोरुपमानम् । दश० १८ । जलजन्तुविशेष: । आव० १०२ । जलोकस: - दुष्टरक्तार्काषिण्यः । उत्त० ६६५ । जलोया - द्वीन्द्रियजन्तु विशेषाः । प्रज्ञा० ४१ । जीवा० ३१ । चर्मपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । जोवा ० ४१ । जलौका- जन्तुविशेषः । दश० १४१ । जल्ल - जल्लो - मलः । विशे० ३७६ । शरीरमलः । ज्ञाता ० २०३ | जल्लाः- राज्ञः स्तोत्रपाठकाः । राज० २ । कमढीभूतो । नि० चू० प्र० १०८ आ । मलथिग्गलं जल्लो। नि० चू० प्र० १६० आ । मलः । भग० ३६० । उत्त० ८३ । औप० २८ । आव० ४७ । ठाणा ० ३४३ । जल:वरत्राखेलकः, राजस्तोत्रपाठको वा । जीवा० २८१ । आव० ६१६ । औप० ३ । वरत्राखेलकः । प्रश्न० १३७, १४१ । अनु० ४६ । दश० ११४ । जं० प्र० १२३ । शुष्कप्रस्वेदः । सूत्र० ८२ । चिलातदेशनिवासीम्लेच्छविशेषः । प्रश्न० १४ । रजोमात्रम् । औप० ८६ । मलविशेषः । प्रश्न० १३७ । याति च लगति चेति जल्ल:पृषोदरादित्वा निष्पत्तिः स्वल्पप्रयत्नापनेयः । जीवा ० २७७ । शरीरमलः । प्रश्न० १०५ । जं० प्र० २४८ ॥ जल:- रजोमात्रम् । भग० ३७ | देहमलः । सम० ११ । जल्ल कहा- जल्लकथा - वरत्राखेलकसम्बन्धिनीकथा । दश० ११४ । जल्लखउरियं - मलकलुषितम् । पिण्ड० ९३ । जल्ल गंद्धो - मलगन्ध: । आव० ८१५ । जलगवेज। नि० चू० प्र० ३५२ अ । जलपरीसहे - शरीरवस्त्रादिमलस्य परीषहः, अष्टादशः परीषहः । सम० ४० । जल्लिय - जल्लो - मलः । उत्त० ५१७ । यलितः - यान लगनधर्मोपेतमलयुक्तः । भग० २५४ । जल्लू सत - जलोदरः - व्याधिविशेषः । आव० ६११ । जल्लेसाई - या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेश्यानि यस्या लेश्यायाः सम्बन्धिनीत्यर्थः । भग० १८८ । जव - यवाः - धान्यविशेषः । दश० १९३ । औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । यवो यवनालकः, स च कन्या चोलकोऽवगन्तव्यः । अयं च मरुमण्डलादिप्रसिद्धश्चरण करूपेण ( ४३४ ) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवजव ] कन्यापरिधानेन सह सीवितो भवति, येन परिधानं न खसति, कन्यानां च मस्तकसत्कपक्षेणाऽयं प्रक्षिप्यते । अयं चोर्ध्वः 'सरकञ्चुक' इति व्यपदिश्यते । विशे० ३५३ । उज्जेणीनयरे राया । बृ० प्र० १६१ अ । यव: । आव० ८५५ । जव :- वेगः । आव० ६१८ | यवराजर्षिःखंड लोकाध्येता । भक्त० । जवजव - यवयवः - यवविशेषः । भग० २७४ । जवजवा - औषधिविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । जवजवाइ-यवविशेषः । जं० प्र० १२४ । जवण - जवनं - अतिशीघ्रगतिः । जीवा ० १२२ । यवनः चिलातदेशनिवासी म्लेच्छजातिविशेषः । प्रश्न० १४ । जवणटुं - यापनार्थ - शरीरनिर्वाहणार्थम् । उत्त० २६५ । जवणट्टया - यापनार्थं - संयमभरोद्वाहिशरीरपालनाय । दश० अल्पपरिचित सैद्धान्तिक शब्दकोषः, मा० २ २५३ । जवणा-यापना-वन्दन के पञ्चमं स्थानम् । अव० ५४८ । म्लेच्छविशेषः । प्रज्ञा० ५५ । जवणाणिया-लिपिविशेषः । प्रज्ञा० ५६ । जवणिज्जं - यापनीयम् । आव ० २१९ । जवणिया यवनिका तिरस्करिणी । आव० ३६८ । अन्तः पट्टः । आव० ६७४ । यवनिका - काण्डपटम् । ज्ञाता० " २४ । जवणीदीवं - यवनद्वीपं द्वीपविशेषम् । जं० प्र० २२० । जवण्णं। सूर्य० २६३ । जवनालउ - जवनालकः - कन्याचोलकः, कुमार्या ऊर्द्ध: सरकञ्चुकः । नंदी० ८६ । जवनालका कुमार्या ऊर्द्धः सरकञ्चुकः । नंदी० ८८ । कन्याचोलकम् । प्रज्ञा० ५४२ । जवमज्झ-यवस्येव मध्यं मध्यभागो यस्य विपुलत्वसा - धर्म्यात्तद् यवमयं वाकारमित्यर्थः 1 भग० ८६०, २७५ । अष्टौ यूका एक यवमध्यम् । जं० प्र० ९४ । यवमध्या । व्य० द्वि० ३५६ आ । नि० चू० प्र० ३०६ । आ । जवमज्झा-यवस्येव मध्यं यस्यां सा यवमध्या । औप० ३२ । जवस - यवसः । आव० ४१६ | यवसः - प्रास । आव ० 2010_05 २६१ । जवसए-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । जवसजोगासणं- यवसयोगासनम् । उत्त० २२३ । जवासाकुसुमं - । प्रज्ञा० ३६० । जवितं यावकम् । आव० ३०२ । जसं सी - यशस्वी-शुद्धपारलौकिकयशोवान् । दश० २०७ ॥ ख्यातिमन्तः । भग० १३६ । जसं से- सिद्धार्थ राजस्य तृतीयं नाम । आचा० ४२२ । जस- यश: - पराक्रमकृतं गृह्यते, तदुत्थसाधुवाद इत्यर्थः । आव० ४६६ । बहुसमरसंघट्ट निर्वहणशौर्यलक्षणं यशः । सूत्र० १८२ । पराक्रमकृता सर्वदिग्गामिनी वा प्रख्यातिर्यशः । औप० १०५ । ख्यातिः । ज्ञाता० २४० । जीवा० २१७ । प्रज्ञा० ६०० श्लाघा । सूर्य० २५८ । यशोहेतुत्वाद्यशः संयमो विनयो वा । उत्त० १८६ | यशः पराक्रमकृतं सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिर्वा । प्रश्न० १३६ । चतुर्दशजिनस्य प्रथमः शिष्यः । सम० १५२ । यशः सर्वदिग्गामी । प्रश्न० ८६ । सकलभुवनव्यापि । जीवा० २६६ । सर्वदिग्गामिनीप्रसिद्धिः । बृ० तृ० ३६ आ । संजमो । दश० चू० ८८ । समयपरसमयविसारत णेण लोगे लोगुत्तरे य जसो । नि० ० प्र० २९० अ । यशो जीवितम् । आव० ४५० | यश:- संयमः । दश० १८८ । यस्य । उप० मा० गा० ८४ । यशः - सर्व दिग्गामिप्रसिद्धिविशेषः । ज्ञाता० १८ । जसकर - यशस्करः- पराक्रमकृतं यशस्तत्क रणशीलः । आव ० ४६६ । जसकारी - यशःकारी | आव० ५३६ । जसघाई - यशोघातिनः - यशोऽभिनाशकाः । आव० ५३६ । जसधरे - यशोधरः । जं० प्र० ४१० । जसमद्द - यशोभद्रः - शय्यम्भवप्रधानशिष्यः । दश० २८४ । यशोभद्रः - चतुर्थ दिवसनाम । जं० प्र० ४६० । सूर्य ० १४७ | अलोभोदाहरणे युवराजः । आव० ७०१ । जसभद्दा - यशोभद्रा - अलोभोदाहरणे कण्डरीकयुवराजपत्नी । आव० ७०१ । जसम - यशस्वी नवमः कुलकरनाम । जं० प्र० १३२ । तृतीयः - कुलकरनाम | सम० १५० । आव ० १११ । ( ४३५ ) [ जसम Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जसमंती ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः ठाणा० ३६८ । जसमती - यशोमती-अमोघरथरथिक भार्या । उत्त० ३१३ । जसवइ - यशोमती-यक्षहरिलस्य द्वितीया सुता ब्रह्मदत्तराशी । उत्त • ३७६ । जसवई - यशोमती - तृतीया रात्रितिथिनाम । जं० प्र०४६१। सगरमाता । आव० १६१ । आचा० ४२२ । जसवती - यशोमती - शालमहाशाल भगिनी । उत० ३२३ । शालमहाशालयो राजयुवराजयोर्भगिनी । आव० २८६ । तृतीया रात्रितिथिनाम | सूर्य० १४८ । सगरचक्रवत्तिनो | माता । सम० १५२ । जहन्नजोगी - जघन्ययोगी - सर्वाल्पवीर्यः । प्रज्ञा० ६०८५ | जहन्नपएसिया - जघन्याः सर्वात्पाः प्रदेशाः परमाणवस्ते सन्ति येषां ते जघन्यप्रदेशिकाः । ठाणा० ३५ । जहा - यथा दृष्टान्तार्थोऽयं शब्दः । भग० ८२ । जससा - यशसा प्रसिद्धया । सम० ४३ । जसहर - अचलपुरकुटुंबिगुरुः । मर० । पंचपांडवाः हिमवत्य- जहागयपहिय-यथागतपथिकः । उत्त० ११७ । जहाजायं - रजोहरणं चोलपट्टकश्च । ओघ० ७५ । नशनादरा: ( ? ) | जसा-यशा—काश्यपभार्या । उत्त० २८६ । वसिष्ठगोत्रभृगु जहाजायपसुभूय - यथाजातपशुभूतः - शिक्षारक्षणादिवर्जितपुरोहितभार्या । उत्त० ३६५ । जसोआ-यशोदा- राजकन्यानाम । आव ० १८२ । जसोकामी - यशस्कामी - यो यशः कामयते अहो अयमिति प्रवादार्थं वा । दश० १८७ । जोधर - यशोधरः - पश्चमदिवसनाम । सूर्य ० १४७ । ठाणा० ३०२, ४५३ । जसोधरा - यशोधरा - चतुर्थी रात्रीनाम । सूर्य ० १४७ । जसोया - वर्द्धमानस्वामिनो भार्या । आचा० ४२२ । जसोहरा - यशोधरा-चतुर्थी रात्रिनाम । जं० प्र० ४६१ । दक्षिणरुचकवास्तव्या दिक्कुमारी । आव ० १२२ । दक्षिणरुचकवास्तव्या चतुर्थी दिक्कुमारी महत्तरिका । जं० प्र० ३९१ | यशः - सकलभुवनव्यापि धरतीति यशोधरा, जम्ब्वाः सुदर्शना याचतुर्थं नाम । जीवा० २६६ । सकलभुवनव्यापकं यशो धरतीति यशोधरा । जं० प्र० ३३६ । जस्स -यस्य - मुमुक्षोः । आचा० १८० । जस्समहि-य -यस्य प्रभावेण इहागतोऽस्मि - भवामीतियोगः । भग० १५० । जहक्वाय - यथा सर्वस्मिन् लोके ख्यातं - प्रसिद्धं 'अकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यद् तद् यथाख्यातम् । प्रज्ञा० ६८ । जहणवरं - जघनवरं - वरजघनम् । जीवा० २७५ । 2010_05 [ जाँह जहण्णकसिणं जस्स द्वारसरूवया मुल्लं तं जहण्णकसिणं । नि० चू० प्र० १३९ आ । जहण्गेणं-जघन्यतः । अनु० १६३ । जहन्न - हानं त्यागः । भग० ६०४ । जघन्यं सर्व स्तोकम् । आव० २६ । जहन्नए कुंभे - जघन्यकः कुम्भ: - आढकषष्टिनिष्पन्नः । अनु० १५१ । पशुसदृशः । प्रश्न० ५५ । जहाणुपुरवी - यथानुपूर्वी - यथाऽनुक्रमम् । भग० २०२ । जहातच्चं - यथातथ्यं यथावस्थितम् । सूत्र० १७७ । जहाथामं - यथास्थामं - यथासामर्थ्यम् । दश० १०६ । जहानामए - यथानामकः - यत्प्रकारनामा देवदत्तादिनामेत्यर्थः अथवा 'यथा' इति - दृष्टान्तार्थः 'नाम' इति - संभावनायां 'ए' इति वाक्यालंकारे । भग० ८२ । यथानामक:- अनिर्दिष्टनामकः कश्चित् । जीवा० १२१ । जहाभागं - यथाभागं - यथाविषयम् । दश ० १६६ ॥ जहाभावो - यथाभावः । आव० १६ । जहाभूतं यथाभूतं यथावृत्तं अवितथं नत्वन्यथाभूतम् । ज्ञाता० ३४ । जहा भूयं यथाभूतम् । आव० ४२३ । जहारायणियं - यथारात्निकं यथाज्येष्टम् । प्रश्न० १११ । जहावत्तं - यथावृत्तम् । आव० ३६८ । जहावरक्खा। नि० चू० प्र० १२७ आ । जहासमाही - यथासमाधि - यथासामर्थ्यम् । आव० ८४६ । जहाहिय - यथाहितं - हितानतिक्रमेण । यथाऽधीता वा गुरुसम्प्रदायागतवमनविरेचकादिरूपा । उत्त० ४७५ । जहि- अद्यम् । उत्त० ४०४ । ( ४३६ ) Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहिच्छं ] [ जाणगसरीरं जहिच्छं- इच्छाया अनतिक्रमेण यथेच्छं यदवभासत इति । उत्त० ५०१ । भेदः । जीवा० १९३६ । मातृसमुत्था । आव ० ३४१ । पिण्ड० १२६ । उत्त० १४५ | सूत्र० २३६ । जातिकुसुमवर्णं मद्यम् । विपा० ४६ । मातृकः पक्षः । प्रश्न० जहिच्छियं यथेच्छतम् । आव० २१३ । जहित्ता - हित्वा । उत्त० ३१५ । जहियं यत्र । आव ० ६१८ । ११७ । ज्ञातिः - लोकैषणाबुद्धिः । आचा० १५० । जाई कुलकोडी - जातिप्रधानं कुलं तस्य कोटि: जाति कुलकोटिः । जीवा० ३७२ । जाउ-क्षीरपेया । पिण्ड० १६८ । जाइ - जाति: - प्रसूति: । आचा० १५१ । जातिः- मालती । जं० प्र० ४५ । जातिः - नारकादिप्रसूतिः । आव ० ३२५ । पुष्पविशेषः । उत्त० ६५४ । दश० १७४ । तापस्व्यम्, जाउकण्णिय सगोते - पूर्वाभाद्रपदगोत्रम् । सूर्य ० १५० । बुद्धिः । दश० २३३ । जातिर्नरकादिषु यत् प्रसूतिमात्रं जाउकण्णे - जातुकर्ण - पूर्वाभाद्रपदगोत्रम् । जं० प्र० ५०० । तद्रूपा गृह्यते । विशे० १०४३ । जाउगा -यातरः- ज्येष्ठदेवरजायाः । बृ० प्र० २७० अ । जाइआसोविस - जात्या - जन्मनाऽऽशीविषा जात्याशीविषा । जाउयाओ- देवराजायाणां भार्या इत्यर्थः । ज्ञाता० १६६ । 1 जाउलग-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । जाए - जातं - स्तम्बीभूतम् । दश० १५५ । जाएलओ - जातोऽभवत् । नाव० १८८ । जाओ - जातः - प्रकारः उत्पन्नश्च । आव० ५२४ । जागरओ-जागरणम् । आव० २०४ । जाणंतिया। बृ० प्र० ५७ अ । जागरा - जाग्रतीति जागराः - असुप्ता जागरा इव जागराः । अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्दकोषः, भा० २ भग० ३४१ । जाइउं - यातुम् । बृ० प्र० २७ आ । जाइकहा- ब्राह्मणीप्रभृतीनामन्यतमाया या प्रशंसा निन्दा वा सा जात्या जातेर्वा कथेति जातिकथा | ठाणा० २०६ । जाइकुसुम - जातिकुसुमम् । दश० १०० । जाइए याचित: । आव० ४२६ । जाइत्तु - गत्वा । आव० २०६ । जाइनामं - एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियत्वादिरूपसमानपरिणाम- जागरिय- जागृतं षष्ठीरात्रिजागरणप्रधानमुत्सवम् । विपा० । आचा० १५२ । ५१ । रात्रिजामरिका । औप० १०२ । जागरूकाजागरे - जाग्रत् । प्रज्ञा० ४६१ । जाच्चबाहलो - जात्यबाल्हीकः - अश्वजातिविशेषः । आव ० २६१ । जाण - यानं - गन्त्रीविशेषः । प्रश्न० ६१, १६१ । गन्ध्यादि । भग० १३५ । जीवा० २८१ । रथादिकम् । प्रश्न० १५२ । शकटादि । औप० ४ । शकटम् । भग० १८७, १८८, २३७ । रथादि । औप० ५४ | यानं हास्यादि । आव० ३४६ । उत्त० १४३ । शिबिकादि । भाचा० ६० युग्यादि । दश० २१८ । यानम् । आव ० २३४ । जाणअं - यानकम् । आव० २२१ । जाणए-ज्ञायक: । आव ० ४२८ जाणग- ज्ञापकः - तीर्थकृत् । आचा० २० | जाणगसरीरं - ज्ञायकस्तस्य शरीरं ज्ञायकशरीरम् । ज्ञो (8319) लक्षणमेकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेशभाक् यत्सामान्यं सा जातिस्तज्जनकं नाम जातिनाम । प्रज्ञा० ४६९ । जाइनामनिहत्ताउए - जातिः - एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चप्रकारा सैव नाम नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषरूपं जातिनाम तेन सह निधत्तं निषिक्तं यदायुस्तज्जातिनामनिषतायुः । प्रज्ञा० २१७ । जाइपह-जातिपन्थाः - द्वीन्द्रियादिजातिमार्गः । दश० २४४ । जाइफलं - स्वादिमफलविशेषः । नि० चू० द्वि० ६० अ । जाइमंता - जातिमन्तः - सुजातयः । आचा० ३६१ । जाइमरण-जातिमरणः - संसारः । दश० २५८ । जाइमा - लुणणपायोग्गाओ कीरइ । दश० चू० १११ । जाई - मत्स्यकच्छपविशेषः । जीवा० ३२१ । गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । जातिमदः - यज्जातेर्मानम् । आव ० ६४६ | जातिः - क्षत्रियाद्या, जननं वा क्षत्रियादिजन्म | उत्त० १८१ । ब्राह्मणादिका । पिण्ड० १२६ । जाति 1 2010_05 ठाणा० ३२० । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणा ] वा तस्य शरीरं शशरीरम् । उत्त० ७२ । जाणणा- शानशुद्धि:, प्रत्याख्यानशुद्धया द्वितीयो भेदः । आचार्यश्री आनन्दसागरसूरिसङ्कलितः आव० ८४७ । जाणरहो - यानार्थं रथो यानरथः । जीवा० २८१ । जाणवए-जानपद: - जनपद भवास्तत्रायाताः सन्तो यत्र तत्। भग० ७ । जाणवतं - यानपत्रम् । आव० २६७ । जाणवया - जनपदभवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः सन्तो यत्र सा जानपदाः । सूर्य ० २ । जानपदाः - जनपदभवाः । जं० प्र० ७५ । जानपदाः । औप० २ । जानपदाःजनपदभवास्तत्रायाताः । ज्ञाता ० १ । जानपदाः विषयलोका: । आव० २२६ । जानपदा जनपदे भवा जानपदाः - अनार्याऽऽचरिणो लोकाः । आचा० ३१० । जाणविमाण - यानानि शकटविशेषाः विमानानि ज्योतिष्कवैमानिकदेवसम्बन्धिगृहाणि । यानविमानानि-पुष्पकपालकादीनि । प्र० ९५ । यान विमानम् । आव ० १२१ । 'जाणविही - गमनविधिः । बृ० प्र० २३३ अ । जाणसंठिया - यानसंस्थिता । आव० ३६८ । प्रश्न० १२७ । जाणसालिओ - यानशालिकः । आव० ८६ । जाणा - यानानि शकटादीनि । ज्ञाता० ४३ । जाणाइ शकटादीनि । भग० ५४७ | यानानि - गन्ध्या दीनि । जं० प्र० १२३ । जाणूक- जानु - बाहुजङ्घासन्धिरूपोऽवयवः । जं० प्र० २३४५ जात प्रकारवाचकः । नि० चू० प्र० १५१ अ । भेदवाचकः । नि० चू० प्र० ८४ आ प्रकारवाची । उप्पण्णवाची । नि० चू० द्वि० ६३ अ । उत्पत्तिधर्मक, व्यक्तिवस्तु । ठाणा० १८४ । प्रकारः । आव० २६११ सणिसेज्जं रयोहरणं मुहपोत्तिया चोलपट्टो य। नि० चू० द्वि० ४६ आ । जातकम्मं - जातकर्म्म- प्रसवकर्म्म नालच्छेदन निखननादिकम् । ज्ञाता० ४१ । निरय० ३२ । जाततेए-जाततेजाः - वह्निः । प्रश्न० १५८ । जातयः - वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि । सम० ६४ ॥ जाण सण्णा - ज्ञानसंज्ञाः - मत्याद्याः । आचा० १२ । जाणसाला - यानशाला । आव० ५७८ । रथादिगृहम् । जातरूपं स्वर्णम् । उत्त० ५२७ । रूप्यम् । उत्त० ६६६ ॥ जातरूवे - जातरूपकाण्डं जातरूपाणां विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८६ । जातविम्हयं जातविस्मयः । आव० ३५९ । जाति- तिर्यग्जातिः । जीवा० १३४ । आसन्नलब्धप्रतिभो जातिः । दश० ६ । आर्यभेदः । सम० १३५ । जातिआसी विसा-जातित आशीविषा जात्याशीविषा: [ जातिकुम्भी यंस्या न पुत्रलक्षण: सा जानुकूर्परमात्रा । ज्ञाता० ८० । जानुकूर्परमाता । आव० २१० । जाणुयपुत्ता-ज्ञायकपुत्रः - केवलशास्त्रकुशलपुत्रः । विपा० उप० मा० गा० २० । 2010_05 ४० । जाणुया-ज्ञायकाः- शास्त्रानध्यायिनोऽपि शास्त्रप्रवृत्तिदर्शनेन रोगस्वरूपतः चिकित्सावेदिनः । ज्ञाता० १५० । जाणू - जानुनी - अष्ठीवन्तो । जीवा० २७० । गदिता । ठाणां० १७४ । जाणावणा-रञ्जणा । जाणियं ज्ञातम् । आव० १४६ | वृश्चिकादयः । ठाणा० २६५ । जातिकथा - जातेः प्रशंसनं द्वेषणं वा । स्त्रीकथायाः प्रथमभेद: । आव ० ५८१ । प्रश्न० १३६ । जाणुओ - ज्ञायक : - केवलशास्त्रकुशलः । विपा० ४० । जाणुकोप्परे - जानुकूरः । उत्त० ११८ । जाणुकोप्परमाता - जानुकूर्पराणामेव माता-जननी जानु जातिकहा- जातिकथा - ब्राह्मणादिजातिसम्बन्धेन कथा | कूर्परमाता । निरय० ३० । जाणुकोप्परमाया-जानुकूर्पराणामेव माता-जननी जानु कूर्परमाता, एतान्येव शरीरांशभूतानि तस्याः स्तनौ स्पृशन्ति नापत्यमित्यर्थः । अथवा जानुकूर्पराण्येव मात्रापरप्रणोदे साहाय्ये समर्थ उत्सङ्गनिवेशनीयो वा परिकरो | जातिकुलम् - जातिकुम्भी-यस्य सागारिकं भ्रातृद्वयं वा वातदोषेण शूनं महाप्रमाणं भवति स जातिकुम्भी । बृ० तृ० १०० अ । । जीवा० १३४ ॥ ( ४३८ ) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बातितः ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ जायस्वडिसए जातितः-तत्र जातितो वृश्चिकमण्डूकसर्पमनुष्यजातयः. क- ७७ । यातं-अपगतम् । आव० ८४४ । जातं-प्रकारः । मेण बहुतर-बहुतमविषा: । विशे० ३८० । जातितो प्रश्न० १२४ । जातः पुत्रः । उत्त०३६६ । जातः-प्रवृत्तः । वृश्चिकमण्डूकोरगमनुष्यजातयः । आव० ४८ । । सूर्य० ५ । जातं-जाति: प्रकारोवा। ठाणां० ४६२। जातिथेरा-जातिस्थविरा:-पष्टिवर्षप्रमाणजन्मपर्यापाः । जायइ-जायते-कल्पते । आचा० १४० । ठाणा० ५१६ । जायकुंभी-वायदोषेण जस्स सागारियं वसणं वा सुज्जति मातिपत्रं-पत्रविशेषः । जीवा० १३६ । । सो जायकुंभी रोगीत्यर्थः । नि० चू० द्वि० ३३ अ । जातिपुष्पं-पुष्पविशेषः । प्रज्ञा० ३७ । जायकोउहल्ले-जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहल:मातिफलं-फलविशेषः । जीवा० १३६ । जातीत्सुक्यः । राज० ५८ । ज्ञाता० १ । जातिवंझा-जाते:-जन्मत आरभ्य वन्ध्या-निबिजा जाति- जायक्खघे-जात:-अत्यन्तोपचितीभूतः स्कन्ध एवास्येति वन्ध्या । ठाणा० ३१३ । जातस्कन्धः । उत्त० ३४९ । जातिसंपन्ने-उत्तममात्रकपक्षयुक्तः । ज्ञाता० ७ । जायणं-यातनं-कदर्थनम् । प्रश्न० ३७ । जातिस्मरणं-आभिनिबोधिकविशेषः । आचा० २० ।। जायणजीविणो-याचनेन जीवनं-प्राणधारणमस्येति याचमतिविशेः । प्रज्ञा० ५१ । नजीवनम् । उत्त० ३६० । जातिहिंगुले-जात्यः-प्रधानो हिङ्गलकः जात्यहिंगुलकः । जायणा-याचन-मार्गणम्, चतुर्दशः परीषहः । आव० प्रज्ञा० ३६१ । जाती-याति-प्रवर्तते-अवबुध्यते । ६० द्वि० १९७ अ । जायणावत्थं-जं मग्गिज्जइ कस्सेयंति अपुच्छिय कस्स गन्धद्रव्यविशेषः । जीवा० १९१ । छट्ठा कडंति अगवेसिय । नि० चू० द्वि० १६२ अ । जातीगुम्मा-जातिगुल्माः । जं० प्र० ९८ । जायणि-असत्यामृषाभाषाभेदः । दश० २१० । जातोसरणं-जातिस्मरणं-मतिज्ञानभेदः । आव० ११० ।। जायणिया-याचना । आव० ६७७ । जात्यं ।जीवा १३६। जायणी-याचनी कस्यापि वस्तुविशेषस्य देहीति मार्गणं,' जात्यसुवर्णमय-सुवर्णविशेषः । नंदी० १५७ । असत्या मृषाभाषायास्तृतीयो भेदः । प्रज्ञा० २५६ । जायहिंगुलक:-पुष्पविशेषः । जीवा० १६१ । जायतेअ-जाततेजः-अग्निः । दश० २०१ । नात्यार्या:-इक्ष्वाकुविदेहहरिज्ञातां बष्ठकुरुबुबुनावोग्रभोग- जायतेय-वह्निः । भग० १८४ । राजन्यादिकुलाः । तत्त्वा० ३-१५ । जायधामे-जातस्थामा-अङ्गीकृतमहाव्रतभारोद्वहने जातजात्युत्तर ठाणां० ४६२ । सामर्थ्यः । प्रश्न० १५८ । जानाति-अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते । भग० ३५७ । जायमाण-यान-गच्छन् । भग० १८६ ।। जानु-अङ्गविशेषः । आचा० ३८ । जानिया-जातानि उत्पन्नान्यपत्यानि निर्वृतानि-निर्याजामा-याम्या-दक्षिणदिक् । आव० २१५ । तानि मृतानि यस्याः सा जातनिर्द्वता । विपा० ५१ । जामाउगा- नि० चू० प्र० ३५८ अ। जायभेदे-जातभेदः-उपचितचतुर्थधातुः । उत्त० २७३ । जामि-यामि । आव० २६६ ।। जायरूव-जातरूपं सुवर्णम् । भग० १३५। जीवा० २०४, जामितिया- ।नि० चू० प्र० २३० । २२८ । रूप्यम् । जं० प्र० ३२४ । जातरूपः-सुवर्णजामेय-यामेव । सूर्य० ३ । विशेषः । जं० प्र० २३। जातरूपं-सुवर्णम् । ठाणा. जाम्बुवती-विष्णुराज्ञी । विशे० ६११ । ४२२ । जं० प्र० ६२ । जाय-बीयाणि चेव यवीभूयाणि । दश० चू० ६६ । यागं- जायरूवडिसए-जातरूपावतंसक:- उत्तरस्यामवतंसकः। पूजाम् । ज्ञाता० ८३ । यागं-पूजा यात्रा वा । विपा० जीवा० ३६१ । भग० २०३ । ( ४३६ ) 2010_05 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायसढे ] जायसड्डे - जाता - प्रवृत्ता श्रद्धा- इच्छाऽस्येति जातश्रद्धः । ज्ञाता० ६ । terrariभोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः जायसूयग-जातसूतकं नाम जन्मानन्तरदशाह्नि यावत् । व्य० प्र० ७ आ । जाया- हे पुत्र । ज्ञाता० ५० । जाता-अभियोगकृता विषकृता च । व्य० द्वि० ३१५ आ जाता - मूलगुणैः प्राणातिपातादिभिरशुद्धा । ओ० १६३ । चमरासुरेन्द्रस्य | जालगबाह्या पर्षत् । जीवा० १६४ । यात्रा - संयमनिर्वहणनि - मित्तम् । उत्त० २९४ । जाता - प्रकृतिमहत्त्व वर्जितत्वे नास्थान कोपादीनां जातत्वाज्जाता, चमरस्य तृतीया पर्षत् । भग०२०२ । शक्रदेवेन्द्रस्य बाह्या पर्षद् । जीवा० ३६० । या दोषात्परित्यागार्हाहारविषया सा जाता आव० ६४१ | यात्रा - संयमयात्रा | भग० १२२ चमरेन्द्रस्य बाह्या पर्षत् । ठाणा० १२७ । जायाइ अवश्यं यायजीति यायाजी । उत्त० ५२२ । जाताः । आचा० ३४८ । 2010_05 । । जायामायावित्ती-संयमयात्रामात्रार्थं वृत्तिः - भक्त ग्रहणंयात्रामात्रावृत्ति: । औप० ३७ । जायाहि-याचस्व । उत्त० ५३२ । जार - जारः - नाय्यविशेषः । जं० प्र० ४१४ । मणिलक्ष णविशेषः । जीवा० १५६ । जं० प्र० ३१ । नि० चू० प्र० २६६ अ । जारु - अनन्तकायवनस्पतिविशेषः । भग० ८०४ । जारे कण्हा - वाशिष्ठ गोत्रस्यावशेषः । ठाणा० ३९० । जालं - आनायम् । उत्त० ४०७ । जालं - मत्स्यबन्धनम् । प्रश्न० १३ | मत्स्यबन्धनविशेषः । विपा० ८१ । जालकम् । प्रज्ञा० ६६ । सूर्य० २६४ । जीवा० १७५ । जालंधर - गोत्रविशेषः । आचा० ४२१ । जाल - जालं- सच्छिद्रो गवाक्षविशेषः । ज्ञाता० १४ । जाल:- गवाक्षः । जं० प्र० १८८ । मूलाग्निप्रतिबद्धा ज्वाला | दश ० १५४ । जालः समूहः । उत्त० ४६० । जालकडए - जालानि - जालकानि भवनभित्तिषु प्रसिद्धानि तेषां कटक:- समूहः जालकटकः, जालकाकीर्णा रम्यसं स्थान प्रदेश विशेषपङ्क्तिः । जीवा० १७८ । जाल कडगा - जालकाकीर्णौ रम्यसंस्थानों, प्रदेशविशेषो । जं० प्र० ५२ । जाल किडुगंतरेण - जालकटकान्तरे । आव० ६३ । जालगं - जालक - चरणाभरणविशेषः । औप० ५५ । जालगंठिया-जालं - मत्स्यबन्धनं तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिका - जालिका भग० २१४ । सङ्कलिका । नि० चू० प्र० १२७ अ । । नि० चू० द्वि० ११२ अ जालगद्दहजालगा-द्वीन्द्रियजीवभेदः । उत्त० ६९५ । जालघरगं - जालगृहं - जालकान्वितम् । ज्ञाता ० ६५ जालगृहकं-जालकयुक्तं ग्रहम् । जीवा० २०० | दार्वा दिमयजालकप्रायकुड्यं यत्र मध्यव्यवस्थितं वस्तु वहि:स्थिनैर्दृश्यते । ज्ञाता० १२६ । जालघरगा - जालयुक्तानि गृहकाणि । जं० प्र० ४५ । जालपंजर - जालपञ्जरं- गवाक्षम् । जीवा० २०५, ३६० १ गवाक्षः । जं० प्र० ४९ । गवाक्षापरपर्यायाणि । राज० ६२ । जालयं - जालकं-छिद्रान्वितो गृहावयवविशेषः । प्रश्न० ८ । जालबंद - जालवृन्दं - गवाश्वसमूहः । जीवा० २६६ । जालविद - जालवृन्दः - गवाक्षसमूहः । जं० प्र० १०७ । जालांतररयणं - जालानि - जालकानि तानि च भवनभितिषु लोके प्रतीतानि तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि यत्र तत् जालान्तररत्नम् । जीवा० ३७६ । जाला - सुभूमचक्रवर्त्तिनः माता । सम० १५२ । ज्वालाछिन्नमूलाऽनङ्गारप्रतिबद्धा | आचा० ४६ । महापद्ममाता । आव० १६१ । ज्वाला-अनलसंबद्धा । जीवा० १०७ । अनलसंबद्धा दीपशिखा वा । जीवा० २६ । ज्वाला - जाज्वल्यमानखादिरादिज्वाला अनलसंबद्धा दीपशिखा । प्रज्ञा० २६ । ज्वाला - अग्निशिखा । ठाणा ३३६ | छिन्नमूला - ज्वलनशिखा । उत्त० ६६४ । ज्वाला - इन्धनच्छिन्ना । ज्ञाता० २०४ । जालाउया - द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४१ । जालाणि-बन्धन विशेषरूपाण्यात्मनोऽनर्थहेतुन् । उत्त ०४०७७॥ जालासा- द्वीन्द्रियजीवविशेषः । जीवा० ३१ । जालि - वंशसमूहः । नंदी० १५५ । जालिः - अन्तकृद्दशानां ( ४४० ) मात्रम् । भग० २१५ । [ जालि Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जालिग ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ जिट्टयं जावंतिगा चतुर्थवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अन्त० १४ । अनुत्तरोप- | जावदयं-यावदयं-परिमाणे मर्यादायां अवधारणे च । पातिकदशानां प्रथमवर्गस्य प्रथममध्ययनम् । अनुत्त० १।। विशे० १३२३ । जालिग-जालिक-देशकथाविशेषः । आव० ५८१। जावसिआ-यावसिका-घासवाहिकाः । ओघ० १७ । जालिया-जालिका-लोहकञ्चुकः । प्रभ० ४७ । जावसिया-यवसः-तत्प्रायोग्य मुद्गमाषादिला आहारस्तेन जाली-जाली । आव० ४२१ । तद्वहनेन चरन्तीति यावसिकाः । बृ० प्र० २४७ आ । जालीकुमारो । अनुत्त० १। जवस वहति जे ते जावसिया । नि० चू० प्र० २०० जालो-जाल:-विच्छत्तिच्छिद्रोपेतग्रहावयवविशेषः । औप० आ। जावित-यापयन् । आव० ५३८ । जावं-यावत्-अवधिवाचकः । जं० प्र० ३८६ । जासुमणकुसुमे-जपाकुसुमम् । प्रज्ञा० ३६१ । जावतावति . ।ठाणां० ४६७ । जासूमणा-जासुमणा नाम वृक्षः । भग० ६५६ । । नि० चू० प्र. १८६ अ । णा-जपा वनस्पति विशेषस्तस्याः सूमनसः जावंतिया-यावन्तो भिक्षाचरा आगमिष्यन्ति तावतां पुष्पाणि । अन्त०६ । दातव्यं इति अभिप्रायेण यस्यां दीयते सा यावन्तिका ।। जासुवण-वल्लोविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । बृ० द्वि० १४० अ । यावद्भिक्षुकाणां दानाय संखडी। जाहओ-जाहक:-तिर्यग्विशेषः । आव० १०३ । बृ० द्वि० १४० अ । जाहग-जाहकः-सेहुलकः । विशे० ६२७ । जाहक: । जावंते-यावानू-भगवत्याः प्रथमशतके षष्ठ उद्देशः । भग० व्य० द्वि० ३६३ अ । जाहका:-कण्टकावृतशरीराः । ६ । प्रश्न० ८ । जाव-यावत्-ऐदम्पयर्थः । भग० २६६ । यावत्-सम्पूर्णः । जा(बा)हाडिता-सग जाता । बृ० द्वि० २५७ अ । जं.प्र. २४३ । यावच्छब्दो न संग्राहक: किन्त्ववधि- जाहिति-भविष्यति । आव० ४२२ । मात्रसूचकः । जं० प्र० ३३८ । यावच्छन्दो न गर्भगत- जाहो-भुजपरिसर्पः तिर्यग्योनिकः । जीवा० ४० । संग्रहसूचकः संग्राहापदाभावात्, किन्तु सजातीयभवन - | जिघणा-जिघ्रणम् । ओघ १३८ ।। पतिसूचकः । जं० प्र० १६१ । जिअ-जिता-परिचिता । दश० २३५ । जावई-कन्दविशेषः । उत्त० ६९१ । जिअनिई-जिता निद्रा-आलस्यं येन तत् जितनिद्रं-स्यक्ताजावऊसासो-यावदुच्छ्वासः-यावदायुः । आव० ८४३ । लस्यम् । जं० प्र० २३७ । जावए-यापयति-वादिनः कालयापनां करोति । ठाणां० जिअसत्तु-जितशत्रु:-अजितपिता । आव० १६१ । काक२६१ । जानाति छानस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञापकः । दीनगर्यधिपतिः । अनुत्त० २ । सम० ४ । जिइंदिए-जितेन्द्रियः-संयमी । भग० १२२ । जावग-यापक:-विकल्पभेदः। दश० ५७ । जिच्च-जीयते-हार्यते अतिरौट्टैरिन्द्रियादिभि: आत्मा तदिजावज्जीवाए-यावजीव-आप्राणोपरमादित्यर्थः । दश० ति जेयम् जायेत्-हार्येत । जीयते-हार्यते । उत्त० २८२ । १४३ । जिच्चमाणो-जीयमानो-हार्यमाणः । उत्त० २८२ । ' जावणिज्ज- । नि० चू० प्र० १५० अ । | जिजा-जित्वा-पुनः पुनरभ्यासेन परिचितानू कृत्वा । जाणिजा-यापनीया-यथाशक्तियुक्ता । आव० ५४७ । उत्त० ८१ । जावताव-यावद्वयम् । भग० ४६८ । जिज्जूहइ-निष्काश्यते । वृ० तृ० ४। जावति-वलयविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । जिज्झगारा-तुम्नाकविशेषः, शिल्पार्य भेदः । प्रज्ञा० ५६ । जावतियं-आचंडाला । नि० चू०प्र० २३० आ। | जिट्ठयं-ज्येष्ठकं-अतिशयप्रशस्यमतिवृद्धं वा । उत्त० ४६० । ( अल्प० ५६ ) ( ४४१ ) 2010_05 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिट्ठा ] __आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ जिणुस्सेहो जिट्ठा-ज्येष्ठा-सुदर्शना, अनवद्याङ्गी । विशे० ६३५ ।। आव० ७१२ । आत्मदोषोपहारविषयेऽहमित्रवेष्ठिपुत्रः । नि० चू० द्वि० ४६ अ। आव० ७१४ । मूलगुणप्रत्याख्याने कोटीवर्षे श्रावकः । जिदामले-ज्येष्ठामूल:-ज्येष्ठः । उत्त० ५३७ । आव० ७१५ । सङ्गपरिहरणविषये चम्पायां सार्थवाहः जिणंतस्स-जयत:-अभिभवतः । दश० १६० । श्रावकः । आव० ७२३ । जिणंदासे-जिनदासः-विपाकदशानां द्वितीयश्रुतस्कन्धे पञ्च- जिणधम्म-कांचनपुरश्रेष्ठी यत्पृष्ठि स्थालीदग्धा द्विमासममध्ययनम् । विपा० ८६ । पर्यायः । मर०। जिण-जिन:-रागादिजेता । भग०६७ । जयति-निराक- | जिणपडिमा-जिनप्रतिमा। जीवा० २२८ । रोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिति जिनः । रागादिजयः। जिणपसत्थं-जिनप्रशस्तं-जिनप्रशासितम् । प्रश्न० १४७ । भग० ६ । रागादीनां जेता, यद्वा मनःपर्यवज्ञानी। जं० जिणपालिए-चंपायां माकन्दीभद्रायाः पुत्रः । ज्ञाता० प्र० १३६ । जिन:-तीर्थङ्करः। आव० ६६२ 1 हिताप्त्य- १५६ । निवर्तकयोगसिद्धो गणधारी । जीवा० ३ । हिताप्त्य- जिणमय-जिना:-तीर्थकरास्तेषां आगमरूप प्रवचनम् । निवर्त्तकयोगः, हितप्रवृत्तगोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायवि- आव० ५८८ । आगमः । दश० २५५ । मुखादिको वा । गोत्रविशुद्धोपायाभुमुखहितप्रवृत्तादिभेदः। जिणरविखरा-चंपायां माकन्दीभद्रायाः पुत्रः । ज्ञाता० जीवा० ४ । जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानराती- १५६ । निति जिनः । सम०४ । सयोगीकेवली। ठाणा० २०२। जिर्णालगं-अचेलकत्वम् । बृ० त० ५५ आ। विशिष्टश्रुतधरः, श्रुतजिनः अवधिजिनः, मनःपर्यायज्ञान- जिणवयणं-जिनवचनं-वाच्यवाचकयोरभेदोपचाराज्जिनवजिनः, छद्मस्थवीतरागश्च । आव० ५०१ । चनाभिहितमनुष्ठानम् । उत्त० ७०८ ।। जिणइ-जयति । आव० ५०२ । जिणवयणबाहिरो-जिनवचनबाह्यः-यथावस्थितागमपरिजिणकप्पट्टिति-जिना:-गच्छनिर्गतसाधुविशेषास्तेषां कल्प ज्ञानरहितः । आव० ५३३ । स्थिति: जिनकल्पस्थितिः । ठाणा० १६६. ३७४ । जिणसकहा-जिनसकथा-जिनसक्थीनि । जं० प्र० ५३३ । जिणकप्पिय-जिनकल्पिकः । आव० ३२३ । जिसकहाओ-जिनसक्थोनि-जिनास्थिनि । भग० ५०५ । जिणकप्पिया-कल्पिकविशेषः । नि० चू० प्र० ३३८ आ। जिनसक्थीनि-तीर्थकराणां मनुजलोकनिर्वृतानां सक्थीनि जिणति-जयति । आव० ३४२ । अस्थीनि । सम० ६४ । जिणदत्त-जिनदत्त:-चम्पायां सुश्रावकः । दश० ४७ ।। जिणसासण-जिनशासन-जिनागमम् । उत्त०८८ । जिनलोभोदाहरणे पाटलीपुत्रे श्रावकः । आव० ३६७ । पर. शासनं । क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनम् । दश० लोकनमस्कारफलविषये मथुरायां श्रावकः । आव०४५४ ।। २३२। इहलोके कायोत्सर्गफलमिति दृष्टान्ते श्रेष्ठी सुभद्रापिता। जिणा-रागद्वेषमोहान् जयन्तीति जिना:-सर्वशाः । ठाणा० आव० ७६६ । चम्पायां सार्थवाहः । ज्ञाता० २०० । १७४ । ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनाः । बृ० प्र० जिणदत्तपुत्त-चम्पायां सार्थवाहपुत्रः । ज्ञाता०६१।। २२६ आ। जिनकल्पिकाः । ओघ० २०८ । गच्छनिर्गताः जिणदासो-जिनदासः-मनोगुप्तिदृष्टान्ते श्रेष्ठीसुतः श्रावकः।। साधुविशेषाः । बृ० तृ० २५१ अ । आव० ५७८ । महेश्वरविशेषः । आव० ३९६ । मथुरायां जिणित्ता-जित्वा । उत्त० ३१३ । श्राद्धविशेषः । आव० १६७ । परलोकफलविषये कुलपुत्र- जिणियव्वं-जेतव्ययम् । आव० ३४२ । मित्रम् । आव० ८६३ । रायपुरे श्रावकविशेषः । महा- जिणियाइओ-जितवान् । आव० ५०२ । चन्द्राभिधकुमारस्य सुतः। विपा० ६५ । । जिणुस्सेहो-जिनोत्सेधः-जिनानां उत्कर्षतः पञ्चधनुः शता. जिणदेवो-जिनदेवः-भावप्रणिषिविषये भृगुकच्छे आचार्यः।। नि जधन्यतः सप्तहस्ताः । जीवा० २२८ । ( ४४२ ) 2010_05 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ froणकूar ] जिण्णकूवो - जीर्णकूपः । आव० १५२ । जिष्णुखाणे - जीर्णोद्यानम् । ज्ञाता० ७८ ॥ जितं - परावर्त्तनं कुर्व्वतः परेण वा क्वचित् पृष्टस्य यच्छीघ्रमागच्छति तजितम् । अनु० १५ । जितशत्रु :- छत्रानगर्यां नृपः । आव० १७७ | मिथिलानगर्यां राजा । सूर्य ० २ । सहसम्मत्यादिदृष्टान्ते वसन्तपुरे राजा । आचा० २१ । जितसत्तू - जितशत्रुः - पञ्चालजनपदे राजा काम्पिल्यनगरनायक इति । ठाणा० ४०१ । जितशत्रुः - भद्दिलपुराधि पतिः । अन्त० ४ । बृ० तृ० २३१ अ । जितशत्रु :कौशाम्बीनृपतिः । उत्त० २८७ । चम्पायां नरपतिः । अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ ज्ञाता० १७३ । जितारो - आनन्दपुरनगरे राजा । बृ० तृ० १०७ आ । जितारीराया - आनंदपुरे राया । नि० चू० द्वि० ४२ अ । जिनकल्प - साधुभेदविशेषः । विशे० १० । जिनकल्पिकः - साधुभेदविशेषः । भग० ४ । जिन कल्पिकादिसमाचारः कल्पः । भग० ६१ । जिनदत्तः - आधासम्भवदृष्टान्ते सकुलग्रामे श्रावकः । पिण्ड० ६३ । जिनदासः - आच्छेद्यद्वा रविवरणे वसन्तपुरे भावकः । पिण्ड ० १११ । जिनप्रभसूरि : - आचार्य विशेषः । जं० प्र० ५४३ | जिनभद्र । विशे० १ । जिन मतिः- आधासम्भवदृष्टान्ते सकुलग्रामे जिनदत्तभार्या । पिण्ड० ६३ । जिन मुद्रा :- मुद्राभेद: । भग० १७४ । जिना:- जिनकल्पिकादयः । ओघ० १६७ । गच्छनिर्गतसाधु विशेषाः । ठाणा० १६६ । जिनेश्वरः - अभयदेवसूरीणां गुरुः । औप० ११६ । ज्ञाता० २५४ । जिभाडं - अतीव गिद्धो । नि० चू० द्वि० १३५ आ । जिभिदिए - जिव्हेन्द्रियम् । प्रज्ञा० २६३ । जिभिआ - जिह्निका, प्रणाला । जं० प्र० २६१ । जिमित - जिमत् । आव० ३५३ । जिम्मइ जिम्यते । आव० १५० । 2010_05 जिम्ह-माया । व्य० प्र० २४६ आ । जिम्ह - लज्जनीयं । नि० ० प्र० २६६ अ । बृ० द्वि० ७३ आ । परवञ्चनाभिप्रायेण । भग० ५७३ । जिह्मः । ठाणा० २७० । जैम्हम् । सम० ७१ । जिम्हजढ - मायारहितः । व्य० प्र० २४६ आ । जियंतए - हरितविशेषः । प्रज्ञा० ३३ । राज० जिय - जीतव्यवहारः । उत्त० ६४ । जितं परिचितम् । विशे० ६३५ । जितं - द्रुतमागच्छति । विशे० ४०५ । जियकप्प-जीतकल्पः - जिन प्रतिबोधनलक्षणः आचरितकल्पः ठाणा० ४६३ । नि० चं० तृ० १०२ अ । जियपडिमं - । नि० चू० प्र० २४३ आ । जियपडिमा - जीवप्रतिमा । आव० ६६८ । जियसत्तु - द्वितीयतीर्थङ्करस्य पितृनाम । सम० १५० १ जितशत्रु :- राजा । आव० ३७२ । मिथिलायां नृपतिः । जं० प्र० । शिक्षायोगदृष्टान्ते प्रत्यन्तनगराधिपतिः । आव ० ६७८ । इहलोके कायोत्सर्ग फलमितिदृष्टान्ते वसन्तपुरेऽधिपतिः । आव० ७६६ । क्षितिप्रतिष्ठितनगरस्य राजा । पिण्ड० ३० । जितशत्रुर्नाम नरपति: । व्य० प्र० १५५ आ । श्रावस्त्यां नगर्यां राजा ११६ | वाणिजग्रामनगरे राजा । उपा० १ । खितिपतिनियरे राया । नि० चू० तृ० ६८ आ । नि० चू० प्र० ३५६ आ । सावत्थिनयरे राया । बृ० द्वि० १५२ आ । वणवासीनगरीए राया । बृ० तृ० ११३ आ । जितशत्रुः चम्पानगर्यामधिपतिः । उत्त० ६२ । ज्ञाता० १६३ । अचलपुरेनृपतिः । उत्त० १०० । श्रावस्तिनगर्यां राजा । उत्त० ११४ । मथुरायां नृपतिः । आव० ३६८ । उत्त० १२० । उत्त० १४८ | उज्जयिन्यां नृपतिः । उत्त० १६२, २१३ । सर्वतोभद्रनगराधिपतिः । विपा० ६८ । नृपतिः । विपा० ६५ । वसन्तपुरे नृपतिः । आव ० ३७२, ३७८, ३९३ | ओघ० १५८ । जितशत्रुः - लोहार्गलराजधान्या राजा । आव० २१० | तुरुमिणीनगर्यां राजा । आव० ३६९ । मृगकोष्ठकनगरे राजा । आव ० ३६१ । पाटलीपुत्रे राजा । आव० ३६७ । स्पर्शेन्द्रियदृष्टान्ते वसन्तपुरे राजा । आव० ४०२ । शिल्पसिद्धते पाटलिपुत्रे राजा ! आव० ४०६ । परलोके नम ( ४४३ ) [ जियसत्त Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जियसत्तूराया ] आचार्यश्रोआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [जीवअजीवमीसग स्कारफलविषये वसन्तपुरनगरे राजा। आव० ४५३ । जीयंति-जीयन्ते-हार्यन्ते । उत्त० २७८ । योगसंग्रहे शिक्षादृष्टान्ते क्षितिप्रतिष्ठितनगरे राजा । आव० जीय-जीवितं-श्रुतं, मर्यादा, सवानुचीर्णम् । विशे० ५०७ । ६७० । तितिक्षोदाहरणे मथुरायामधिपतिः । आव०७०२।। जीतं-दृष्टनिग्रहविषयमाचरितम् । प्रश्न. ५८ । जीतंआत्मसंयमविराधनादृष्टान्ते क्षितिप्रतिष्ठितनगरेऽधिपतिः । जीवितं, अवश्यं, अव्यवच्छित्तिनयाभिप्रायतः सूत्रमेव आव० ७३२ । राजाभियोगविषये हस्तिनागपुरनृपतिः । वा । आव० ६८ । जीव:-जीवितं, जीतं-कल्पतः । आव० ८११ । गुणोदाहरणे पाटलिपुत्रे राजा। आव० । प्रश्न० १३ । ८१६ । द्रव्यातङ्कोदाहरणे राजगृहे राजा । आचा० ७५। । जोयदंडो-जीतदण्ड:-रूढदण्ड:. जीवदण्डो वा-जीवितनिपञ्चालाधिपती । ज्ञाता० १२४ । आम्लकल्पायां नरपतिः। ग्रहलक्षणः । प्रश्न० ५८ । ज्ञाता० २४८ । जीया-जीवा-प्रत्यञ्चा। ज्ञाता० २२२1 जियसत्तूराया- । नि० चू० प्र० २१८ आ। जीरंतो-जीर्यन् । आव० ५६६ । जिया-जिता-अभ्यस्ता उचिता वा अनुष्ठीयमाना। आव० जीरक-रसविशेषः । सूर्य० २६३ । हरितकविशेषः । ५६४ । २६३ । जियारी-सम्भवजिनपिता । सम० १५० । जितारि:- जीरा । भग ८०२ सम्भवपिता। आव० १६१ । जीर-साधारणबादरवनस्पतिकायविशेषः। प्रज्ञा० ३४ । जिवंतगाणं । भग ८०२। जीर्णः-हानिगतदेहः । भग० ७०५ । जिवसंथव-जिनसंस्तवः 'लोगस्सुज्जोअगरे' इत्यादिरूपः । जीर्णकर्पट:-कुचेलः । औप० ७४ । दश० १८०। जीवंजीवगसउणे । भग० ६२७ । जिव्हा-रसना । आचा० ३८ । जीवंजीवा-चर्मपक्षिविशेषः । प्रज्ञा० ४६ । जीअं-जीतं-कल्पः, आचारः । जं० प्र० १५६ । कल्पः।। जीवजीवेण-जीवजीवेन-जीवबलेन गच्छति न शरीरबलेजं० प्र० २५२ । नेत्यर्थः । भग० २१६ । ज्ञाता० ७६ । जीववीर्येण न जोअलोगं-जीवलोक-वर्तमानभवादन्यं भवं पृथिवीकायि- तु शरीरवीर्येणेत्यर्थः । अनुत्त० ७ । कादिक, अपमृत्युं प्राप्नुतेत्यर्थः। जं० प्र० २४६ । जीवंजीवेन-जीवबलेन न शरीरबलेनेत्यर्थः । अन्त० २७ । जीए-प्रभूतानेकगीतार्थकृता मर्यादा तत्प्रतिपादको ग्रन्थो- जीवंजीवो-चर्मपक्षिविशेषः । जीवा० ४१ । ऽप्युचारात् जीतम् । व्य० प्र० ५ अ। जीतः-व्यवहारः।। जीवंतिया-अजीविष्यत् । आव० ३६८ । व्य० द्वि० ३६३ । जीव-उपयोगः । विशे० ८८७ । आयुःप्राणादिमान् । जीतं-स्थितिः कल्पो मर्यादा ( सूत्र ) व्यवस्था च । नंदी० अनु०२४२ । जीवितवान् जीवति जीविष्यति चेति जीव:४६ । भग० ३८४ । द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवानु- प्राणधारणधर्मा आत्मा। ठाणा १९ । जीवसामान्यम् । वृत्त्या संहननघृत्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं जीवनिति प्राणान् धारयनित्यर्थः । जीवनपर्यायविशिष्टः । यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्त- जीवा० १४० । प्राणो भूतः सत्त्वो विज्ञो वेदयिता । व्यवहारः प्रवत्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवत्तितस्तज्जीतमिति । भग० १६२ । जीवा-प्रत्यञ्चा । जं० प्र० २०१ । ठाणा० ३१८ । प्राणधारणम् । ठाणा०११६ । जीतम् । व्य० द्वि० ३६३ जीभुमणा-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । आ। जीवः । भग० २२६ । ज्ञानाद्युपयोगः । भग० जीमत-जीमूत:-बलाहकः । जीवा० १८६ । ठाणा० ३२५ । जीवा:-गर्भव्युत्क्रान्तिकसम्मछेनजौपपातिक२७० । जीमूतः-प्रावटप्रारम्भसमयभावीजलभृतः, बला- पंचेन्द्रियाः । आचा० ७१ । हकः । प्रज्ञा० ३६० । जीवअजीवमीसग-जीवाजीवमिश्रा-सत्यामृषाभाषाभेदः । (४४४) 2010_05 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोवअपञ्चक्खाणकिरिया ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ - [ जीवा ६१०। दश० २०६ । २८४ । जीवअपञ्जक्खाणकिरिया-जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन | जीवपाउसिया-जीवे प्रद्वेषाज्जीवप्राद्वेषिकी । ठाणा०४१ । यो बन्धादिापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया ।ठाणा०४१। जीवपाओगिअं-जीवप्रायोगिक जीवप्रयोगेन निर्वृत्तं प्रायोजोवआरंभिया-यजीवानारभमाणस्य-उपमृग्दतः कर्मब- गिकप्रथमभेदः । आव० ४५७ । धनं सा जीवारम्भिकी । ठाणा ४१ । जीवपाओसिया-जीवस्य-आत्मपरतदुभयरूपस्योपरि प्रवे. जीवइ-गुच्छाविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । षाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव वा जीवप्रवेषिका । भग० नोवकप्पो-बहुशोऽनेकवारं प्रवृत्तः महाजनेन वानुवत्तित | १८२ । एष पञ्चमको जीतकल्पः । व्य० द्वि० ४४१ अ । जीवपारिग्गहिया-जीवानु परिगृह्णाति जीवपारिग्रहिकी, जीवकिरिया-जीवस्य क्रिया-व्यापारो जीवक्रिया। ठाणा० पारिग्रहिकी क्रियायाः प्रथमो भेदः । आव० ६१२ । ४० । जीवप्रदेशा:-निह्नवाश्चरमप्रदेशजीवपरूपिण इति हृदयम् । जीवगाहो-जीवग्राहम् । उत्त० ५१ । विशे० ९३३ । जीवग्गाहो गिण्हंति-जीवतीति जीवस्तं जीवन्तं गृह्णान्ति। जीवफुडा-जीवेनस्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि । ठाणा० ज्ञाता० ८७ । २५२ । जीवघणो-जीवधनः-निचितीभूतजीवप्रदेशरूपः । प्रज्ञा० | जीवभावं-जीवभाव:-जीवत्वं, चैतन्यम् । भग० १४६ । जीवमीसए-जीवविषयं मिश्रं सत्यासत्यं जीवमिश्रम् । जोवजढं-आहाकम्म । बृ० द्वि० १०६ अ । ठाणा० ४६०। जीवजीवक-जीवजीवकः-पक्षिविशेषः । प्रश्न० ८। । जीवमीसग-जीवमिश्रा सत्यामृषाभाषाभेदः । दश० २० । जीवणं-जीवन-तथैवाजन्मापि प्रवृत्तिः। प्रश्न० १०६ । । जीवमीस्सिया-प्रभूतानां जीवतां गतोकानां च मृतानां जीवदय-जीवनं जीवो भावप्राणधारणममरणधर्मत्वमित्य- शङ्खशङ्खनकादीनामेकत्र राशौ दृष्टे यदा कश्चिदेवं वदति र्थस्तं दयत इति जीवदयो, जीवेषु वा दयः यस्य स जीव- अहो ! महान् जीवराशिरयमिति तदा सा जीवमिश्रिता। दयः । सम० ४ । प्रज्ञा० २५६ । जोवदिट्ठिया-अश्वादिदर्शनार्थ गच्छतः या सा जीव- जोवलोग-जीवलोक-ब्रह्माण्डम् । जं० प्र० २०६ । जीवदृष्टिका । ठाणा० ४२ । लोक:-जीवाधार:-क्षेत्रम् । प्रश्न० ११५ । जीवन-स्थिति:-आयः कर्मानुभूतिरिति । प्रज्ञ. १६६। जीवविप्पजढं-आत्मना विप्रमत्तम । ज्ञाता०८५.१६८ जीवनिव्वत्ती-निर्वर्तनं निर्वृत्तिनिष्पत्तिर्जीवस्यैकेन्द्रियादि | जीववेयारणिया-जीवं विदारयति-स्फोटयतीति, अथवा तया निर्वृत्तिः जीवनिर्वृत्तिः । भग० ७७२ । जीवं-पुरुषं वितारयति-प्रतारयति वञ्चयतीत्यर्थः । ठाणा० जोवनेसत्थिया-राजादिसमादेशाद्यदुदकस्य यन्त्रादिभिनि- ४३ । सर्जनं सा जीवनसृष्टिकी। ठाणा० ४३ । जीवसामंतोवणिवाइया-जीवसामन्तोपनिपातिकी- समजीवपएसा जीव: प्रदेशा एव येषां ते जीवप्रदेशाः । न्तादनुपततीति सामन्तोपनिपातिकी क्रिया, तस्याः प्रथमो ठाणां ४१० । जीव:-प्रदेश एवैको येषां मतेन ते जीव- भेदः । आव० ६१३ । प्रदेशाः । औप० १०६ । जोवसाहस्थिया-यत् स्वहस्तगृहीतेन जीवेन जीवं मारजीवपतेसिता-जीवः प्रदेश एव येषां ते जीवप्रदेशास्त यति सा जीवस्वाहस्तिकी । ठाणा० ४२।। एव जीवप्रादेशिकाः, अथवा जीवप्रदेशो जीवाभ्युपगतो जीवा-जीविता इत्यर्थः । व्य० द्वि० १६२ अ । प्राणविद्यते येषां ते. चरमप्रदेशजीवप्ररूपिणः । ठाणा ४१०।। धारणम् । उपा० ४ । जीवा:-जीवन्ति जीविष्यन्ति जोवपरिणाम-जीवस्य-परिणामो जीवपरिणामः । प्रज्ञा० जीवितवन्त इति । अनु०७४ । पञ्चेन्द्रियाः। ज्ञाता०६१ । ( ४४५ ) 2010_05 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाओ] * आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [जुआणा प्रशा० १०७ । ठाणा० १३६ । ज० प्र० ५३९ । जीवन्ति जीवियरसहे-साधारण वादर वनस्पतिकायविशेषः । जीविष्यन्ति अजीविषुरिति जीवाः-नारकतिर्यग्नरामरा | प्रज्ञा० ३४ । लक्षणाश्चतुर्गतिकाः । आचा. १७६ । प्रत्यञ्चा-दवरि- जोवियववरोवणं-जीवितव्यपरोपणम् । ओघ १५६ । केत्यर्थः । सूर्य० २१. २३३ । उत्त०३११ । जीवा- जीवाया-जीवस्य-देहस्य सम्बन्धी अधिष्ठातृत्वादात्मा ऋज्वी सर्वान्तिमप्रदेशपङ्क्तिः । जं० प्र०६८। । जीवात्मा पुरुषः, जीवात्मा तु सर्वभेदानुगामि जीवद्रव्यं, जीवाओ-जम्बूद्वीपलक्षणवत्तक्षेत्रस्य वर्षाणां वर्षधाराणां जीवस्यैव स्वरूपम् । भग० ७२४ । ऋज्वीसीमा जीवोच्यते । सम० ४३ । जीवियाइओ-जीवितवान् । बृ० २८ अ । जीवाजीवमिस्सिया-मृतजीवतिजीवराशी एतावन्तोऽत्र जोवियारिहं-आजन्मनिर्वाहयोग्यम् । ज्ञाता० २४ । जीवन्त एतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयतो विसं- जीवियासंसप्पओगे-जीवितं-प्राणधारणं तत्राभिलाषवादे जीवाजीवमिश्रिता । प्रज्ञा० २५६ । प्रयोग:-यदि बहकालं जीवेयमिति जीविताशंसाप्रयोगः । जीवाजोवमीसए-जीवाजीवविषयं मिश्रक जीवाजीव- । आव० ८६६। मिकम् । ठाणा० ४६०। जीव-जीवेत्-अविकृत आस्ते । सूत्र० २७८ । जीविते । जीवाजोवविभत्ति-जीवाजीवविभक्तिः-उत्तराध्ययनेषु षट्- ठाणां ५२० । त्रिंशत्तममध्ययनम् । उत्त० है । जीवेजीवे-जीवेजीवे-इह एकेन जीव शब्देन जीव एवं जीवाजोवविभत्ती-उत्तराध्ययनेषु षट्त्रिंशत्तममध्ययनम् । गृह्यते द्वितीयेन च चैतन्यम् । भग० २८५ । । सम० ६४ । जीवो-जीवनं जीव:-भावप्राणधारणं, अमरणधर्मत्वमित्मर्थः जीवानां-संयमजीवितेन जोवतां जिजीविषूणां च । आचा० । औप० १५ । १. २५६ । जीहा-जिह्वा-रसना । जीवा० २७३ । जीवाभिगमे-जीवानां ज्ञेयानां अवध्यादिनवाभिगमो जुंगमच्छा-मत्स्यविशेषः । प्रज्ञा० ४४ । जीवाभिगमः । ठाणा० १३३ । जुंगिओ-जात्यङ्गहीनः । ठाणा० १६५ । जोविआरिहं-जीविताह-आजीविकायोग्यम् ज०प्र० १८८। मुंगियंग-जुङ्गिताङ्ग-कत्तितहस्तपादाद्यवयवः । पिण्ड • जीविऊसविए-जीवितमुत्सूते-प्रसूति इति जीवितोत्सवः स १३१ । व्यङ्गितः । ठाणा० ३४२ । एव जीवितोत्सविकः । जीवितविषये वा उत्सवो-महः स जुंजकं-तृणविशेषः । जीवा० २६ । इव यः स जीवितोत्सविकः । भग० ४६८ । | जुजणाकरणं-योजनाकरणं मनःप्रभृतीनां व्यापारकृतिः जीविए-असयमजीवितः। उत्त० २६६ । आचा० १०७, । आव० ४६६ । १२३ । यद्यस्य स्वकार्य साधनं प्रति समर्थ रूपं तत्तस्य | जंजंति-युञ्जन्ति-परिसमापयन्ति । सूर्य. १७२ । जीवितमिति रूढम् । उत्त० २२६ । जुजुक-तृणविशेषः । उत्त० ६६२ । ' जोवियंतकरणो-जीवितान्तकरणः प्राणवधस्य द्वाविंशति- जुंजे-युज्यात्-सङ्घट्टयेत् । उत्त० ५४ । तम: पर्यायः । प्रश्न०६। । नि० चू० प्र० १४८ अ । जोविय-असंयमाख्यः । आचा० २५१ । जीवितम्-कर्मणो | जुअणद्धे-युगनद्धः-युगमिव नद्धो-योगः, यथा युगं वृषदीर्घा स्थितिः । भग० २८६ । जोविकार्य । उत्त० भस्कन्धयोरारोपितं वर्तते तद्वत् योगोऽपि यः प्रतिभाति ४७८ । स युगनद्ध इत्युच्यते । सूर्य० २३३ । जीवियकारण-जीवितकारणं-असंयमजीवितहेतुः । दशजअल-यूगलं-सजातीयविजातिययालतयाद्वन्द्वम् । ज०प्र० २५ । जावियकिच्छ-कृच्छ्रजीविता । ६० त० २४२ अ। आणा-जुवाणा । नि० चू० प्र० २५८ अ । ( ४४६ ) जुअ 2010_05 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुइ ] अल्पपरिचितसद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ जुग्म नुइ-युतिः, मेलः । जं० प्र० १९२ । जुगलं-युगलं-द्वन्द्वम् । जीवा० १६६ । सजातीयविजामुई-युक्ति: इष्ट परिवारादियोगः । उपा० २६ । शरीरगता तीययोलतयोर्द्वन्द्वम् । जीवा० १८२ । आभरणगता च । जीवा० २१७ । युतिः-इष्टार्थसंयोगः | जुगलजोहो-युग्मजिह्वः-आत्मोत्कर्षपराभिभवजिह्वाद्वययु। भग० १३२ । शरीराभरणाश्रिता । सूर्य० २५८ । क्तः । आव० ५६६ । विवक्षितार्थयोगः । औप० ५०। शरीराभरणविषया जुगवं-युगं-कालविशेष: तत्प्रशस्तमस्यास्तीति युगवान् । । सूर्य० २८६ । प्रज्ञा० ६०० । द्युतिः-आन्तरं तेजः । उपा० ४६ । युगं-शुषमादुष्षमादिकालः स स्वेन रूपेण ज्ञाता० १४० । यस्यास्ति न दोषदुष्टः स युगवान् । राज० २२ । युगंजुइए-आभरणादिसम्बन्धिन्या युक्त्या वा उचितेषु वस्तु सुषमदुष्षमादिकालः सोऽदुष्टो निरुपद्रवो विशिष्टबलहेतुर्यघटना लक्षणया। विपा० ८६ । द्युतिः-शरीरगता आभ- स्यास्त्यसो युगवान् । अनु० १७५ । रणगता च । जं० प्र० ६२ । द्युति:-दीप्तिः शरीरा जुगसंवच्छरे-पञ्चसंवत्सरात्मकं युगं तदेकभूदेशभूतो भरणादिसम्पत् तस्याः-युतिर्वा इष्टपरिवारादिसंयोगलक्षणा वक्ष्यमाणलक्षणश्चन्द्रादिर्युगसंवत्सरः । ठाणा० ३४४ । तस्याः । जं० प्र० २०२ । युगं पञ्चवर्षात्मकं तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः । सूर्य जुउ-पृथक् । नि० चू० प्र० २४३ अ । १५३ । [ए-युगं-पञ्चसंवत्सरमानम् । भग० २११ । जुगसन्निभ-युगसनिभः-वृत्ततया आयततया च यूपतुल्यः जुगतर-यूपप्रमाणभूभागः युगान्तरं । प्रश्न० ११० । । । जीवा० २७१ । जुगं-बदिल्लाणखंधे आरोविज्जति । नि० चू० प्र० ११७ | जुगाति-युगानि-पञ्चसंवत्सराणि । ठाणा ८६ । आ । युगं-यूपः । भग० १४० । प्रश्न० ८१ । विपा० जुगुछितो-कोलिगजातिभेदो । नि० चू० द्वि० ४३ आ। ३७ । सुषमदुष्षमादिकालः । जीवा० १२१ । युगम् । जुगुप्सना-परिस्थापना । उत्त० ४७८ । आव० ३४५ । चन्द्रादिसंवत्सरपञ्चात्मकम् । सूर्य०६१। जुगुप्समान:-निन्दन्परिहरन् । आचा० ११४ । युग:-कालः । व्य० प्र० २५६ आ। शरीरम् । दश | जुगुप्से-निन्दामि । आव० ४५६ । चू० ७४ । चतुर्हस्तम् । अनु० १५४ । पञ्चसंवत्स- जुगुप्सितानि-चर्मकारकुलादीनि । आचा० ३२७ । . रिकम् । जं० प्र० ६१, ४६५ । पञ्चसंवत्सरम् । जीवा० । जुगेइ-षण्णवतिरङ्गलानि युगम् । जं० प्र० ६४ । ३४४ । सम. ९८ । भग० ८८८ । यूपः । ठाणा जुग्ग-युग्य-गोल्लविषयप्रसिद्धं द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशो. ४५० । युगानि पञ्चवर्षमानानि कालविशेषाः । लोक भितं जम्पानम् । औप० ४ । जीवा १८६। गोल्लविप्रसिद्धानि वा कृतयुगादीनि । पट्टपद्धतिपुरुषाः । जं० । षयप्रसिद्ध द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्रवेदिकोपशोभितं जम्पानमा प्र० १५५ । जीवा० २८१ । अनु० १५१ । पुरुषोत्क्षिप्तमाकाशयानम्। जुगपहाण । नि० चू० प्र०६ आ । सूत्र० ३३० । वाहनं, गोल्लदेशप्रसिद्धजम्पानविशेषः । जुगप्पहाण-युगप्रधान: । आव० ३०२ । नि० चू० प्र० प्रश्न० ६१वाहनमात्र, गोल्लकदेशप्रसिद्धो वा जम्पान३४० अ । विशेषः । प्रश्न० १५२ । वाहनं-गोल्लदेशप्रसिद्ध वा जुगबाहु-सुविधिनाथस्य पूर्वभवनाम । सम० १५१। । जम्पानम् । भग० ५४७ । प्रश्न. १६१ । योग्यंजुगबाहू-युगबाहुः-महाविदेहे तीर्थकरः । विपा० १४ । सर्वोपाधिशुद्धम् । अनुरूपम् । आव० ४७० । समनु सत्यो( । शौचो। )दाहरणे वासुदेवः । आव० ७०६ । रूपम् । आव० ५२४ । युग्य-गोलविषय प्रसिद्ध जम्पानं जुगमच्छो-युगमत्स्यः, मत्स्यविशेषः । जीवा० ३६ ।। द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितम् । भग० १८७ । जुगमाया-युगमात्रा दृष्टिः । भा० ७५४ । गन्त्रिकादि । आचा० ६० । युग्यं पुरुषोत्क्षिप्तमाकाश. जुगयं-पृथक् । दश० ४७ । यानं जम्पानमित्यर्थः । जं० प्र० १२३ । युग्यानि( ४४७ ) 2010_05 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुग्गछिड्डु ] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ जुयलं गोलविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्रवेदिकायु- जुत्तोया-युक्त्या आकाशसंयोगेन । ज्ञाता० २७० । तानि जम्पानानि । जं० प्र० ३० । जुद्धंग-युद्धाङ्गम् । उत्त० १४३ । यानावरणप्रहरणयुद्धजुग्गछिटुं-युगछिदम् । आव० ३४५ । कुशलत्व नीतिदक्षत्वव्यवसायशरीरारोग्यरूपम् । उत्त. जुग्गायरिय-युग्यस्य चर्या वहनं गमनमित्यर्थः । युग्या १४३ । चार्यः । ठाणा० २४० । जुद्ध-युद्धं-बाहुयुद्धादिकं लावकादीनां वा तत् । आव• जुद्धसि-युज्यसे-अर्हसि । ज्ञाता० १६७।। . १२६ । अड्डियपच्छड्डियादिकरणेहिं जुद्धं । नि० चू० द्वि. जुण्णतेपुरं-हसिय जोवणाओ अपरिभुज्जमाणीओ अ- ७१ अ । युद्धं कुर्कुटानामिव । जं० प्र० १३६ । युद्ध च्छति एवं जुण्णतेपूर । नि० चू० प्र० २७१ आ। आयुधयुद्धम् । ज्ञाता० २२० । जुण्णकुमारी-शरीरजरणाद् वृद्धा सैव जीर्णत्वापरिण त्वा- जुद्धणिजुद्धं-पुव्वं जुद्धे ण जुद्धिउं पच्छा संधी विक्खोहिभ्यां जीर्ण कूमारी । ज्ञाता० २५० । ज्जति जत्थ तं जुद्धणिजुद्धं । नि० चू० द्वि०७१। जुण्णथेरी-जीर्णस्थविरा । आव० ३४२ । जुद्धमहे । नि० चू० प्र० ३४४ आ। जुण्णा-जीर्णा-चिरकालप्रव्रजिता । व्य० प्र० २४८ । जुद्धसज्जा-युद्धसज्जा: युद्धप्रागुणाः । ज्ञाता० ५६ ।। जूर्णा:-कीर्णाः । ओघ० ७१ । स्थविरा । बृ० द्वि० जुद्धातिजुद्धं-युद्धातियुद्धं-खगादिप्रक्षेपपूर्वकं महायुद्धं यत्र २५४ आ । जीर्णा-शरीरजरणादवद्धत्यर्थः । ज्ञाता० प्रतिद्वन्द्विहतानां पुरुषाणां पात: स्यात् । जं० प्र० १३६। २५० । | जुद्धिक्कओ-युद्धीयः । आव० ७१६ । जण्णो -जीर्णः । आव० १०१ । । जुन्नइत्तो-जीर्णवान् । आव० ४१८ । जुत्त-धर्माविरुद्धम् । नि० चू० प्र० ३२७ अ । युक्तम् । जुन्ना-जीर्णा इव जीर्णाः । ज्ञाता० १७२ । जूर्णानि पुराभग० ३२२। ओघ . १४१ । परस्परसम्बन्धः । भग० णानि । ओघ० १३८ । १९४ । थोवं । नि० चू० प्र० २२० अ । युक्तः-युक्त्युप- जुमलपदानि ।बृ० प्र०६६. पन्नः । सूत्र० ७ । देशकालोपपन्नः । सूर्य० २६४ । जुम्मपएसिए-समसङ्ख्यप्रदेशनिष्पन्नम् । भग० ८६१ । ' सेवकगुणोपेततयोचितः । परस्परं बद्धो न तु बृहदन्त- जुम्मपएसे-समसङ्ख्यप्रदेशः । भग० ८६० । रालः । जीवा० २६० । ज्ञाता० १८५ । जुम्मा-सञ्ज्ञाशब्दत्वाद्राशिविशेषाः । भग० ८७३ । जुत्तगती-मिदुगती न शीघ्र गच्छतीति । नि० चू० तृ० गणितपरिभाषया समो-राशियुग्मम् । भग० ७४४ । ३८ अ । जुम्मो -युग्म:-समः । सूर्य० १५६ । जुत्तपालिया-युक्तपालिकाः-निरन्तरमण्डलीकाः । भग० | जयंतकरभूमी-इह युगानि-कालमानविशेषास्तानि च १६४ । युक्ताः-सेवकगुणोपेततयोचिताः, परस्परं बद्धा क्रमवर्तीनि तत्साधाद्ये क्रमवत्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिन तु बृहदन्तराला पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः । जीवा० रूपा: पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमिताऽन्तक र भूमिः युगा. २६० । न्तकरभूमिः । ज्ञाता० १५४ । जुत्तफुसिएणं-उचितबिन्दुपातेन । सम० ६१ । जुय-यूप:-युगम् । प्रश्न० ८ । जुत्ति-युक्ति:-मीलनम् । जं० प्र० १०० । जुयगं-पृथक् । आव० ७६६, ८१३ । जुत्तिलेवो-युक्तिलेपः । बृ० प्र० ८२ अ । जुयगो-सन्ध्याप्रभाचा प्रभयोमिश्रत्वमिति भावः । ठाणा. जुत्तिसेणं-एरवते अष्टमः तीर्थकरनाम । सम० १५३ । ४७६ । जुत्तो-युक्ति:-मीलनम् । युक्तिसुवर्णम् । दश० २६३ । जुययं-घरं कथां सा सूर्णत्ति । दश० चू० २३ । जीवा० २६५ । यो जन-समविषमविभागनीतिर्वा । उत्त० जुयलं-युगलं-बालवृद्धरूपम् । बृ० द्वि० १०० अ । युगलं। ३० । चतुर्थवर्गस्य षष्ठमध्ययनम् । निरय० ३६ । आव० ३०५ । युगलं-द्वयम् । ज्ञाता० २२१ । ( ४४८ ) 2010_05 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुवरज्जं] अल्पपरिचितसद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ जूहवतित्तं जुवरज्ज-जुवरायाणां णाभिसिंचति ताव तं । नि० चू० | ठाणा० ७६ । द्वि० ११ अ । जयक-पातालकलशविशेषः । ठाणा० ४८० । जुवराइ-युवराजः । आव० ७०२ । जयखलयं ।विपा० ५२। जुवराए-अनभिषिक्तयुवराजपदं राज्यम् । नाभिषिक्तो जूयखलयाणि-छूतखलकानि-बूतस्थण्डिलानि । ज्ञाता० राजा । बृ० द्वि० ८२ अ । जुवराय-युवराज:-राज्यचिन्ताकारी राजप्रतिशरीरम् । जूयगो-यूपकः । जीवा० २८३ । प्रज्ञा० ३२७ । उस्थिताशनः । जीवा० २८०। जूयपसंगी-छूतप्रसङ्गी-छूतासक्तः । ज्ञाता० ८१ । जुवराया-आस्थानिकामध्यगतः सन् कार्याणि प्रेक्षते चिन्त- | जूयस्सवि ।सम० ८७। यति स युवराजः । व्य० प्र० १६६ आ। जया-पासंतादी। नि० चू० द्वि०७१ अ। त्रीन्द्रियजन्तुजुवलं-बालवुड्ढा । नि० चू० प्र० १०१ आ । विशेषः । प्रज्ञा० ४२। यका-अलिक्षाप्रमाणा। भग जुवलगं-युग्मम् । आव० ४२३ । २७५ । जुवलय-युगलम् । आव० ३४१ । युगलतया तत्तरूणां | जूयारो-द्यूतकारः । आव० ४१७ । संजातत्वेन युगलितम् । भग० ३७ । युगलितया स्थितः। जूरणं-वयोहानिरूपम् । सूत्र० ३६८ । औप० ७ । | जरति-जूरयति-गहति । सूत्र० ३२५ । जुवाणो-युवा-यौवनस्थः प्राप्तवया एष इत्येवं अणति- जूरह-कदर्थयथ । सूत्र० ६७ । व्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशात् युवानः । अनु० जरावणा-शोकातिरेकाच्छरीरजीर्णता प्रापणा । भग १७७ । १८४ । जुसिए-प्रीते । ठाणां० ३४२ । जूवए-पातालकलशविशेषः। ठाणा० २२६ । जुसिय-जूषित:-क्षपितः । भग० १२७ । जूवगो-यूपक:-सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च येन युगपद्भवतः, जुहि-युधि । आव० ४०७ । अमोघो वा । आव ० ७३५ । संज्झप्पभा चंदप्पभा य जुहिगपुप्फा-पुष्पविशेषः । नि० चू० द्वि० १४१ आ। जेण जुगवं भवंति तेण जुवगो । नि० चू० तृ०७० अ । जुहिट्ठिलो-युधिष्ठिरः । आव० ३६५ । य-जूवयं णाम चीडं, पाणियपरिक्खित्तं । नि० चू० जुहिदिल्ल-युधिष्ठिरः । ज्ञाता० २०८ । तु०१६ अ । शुक्लपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं यावद्यैः सन्ध्या-जुहोमि-अन्येभ्यो ददामि । ठाणा० ३८१ । छेदा आव्रीयन्ते ते यूपकाः । भग० १६६ । सेवाम्यनुतिष्ठामि । ठाणा० ३८२ । जूस-जूषो-मुद्गतन्दुलजीरककटुभाण्डादिरसः । ठाणा०११८ जूइगारो-द्युतकारः । उत्त० २१८ । प्रश्न० १६३ । जूषः । ओघ० ६७ । यूषः-मुद्गतण्डुल जूईकरा-द्यूतकराः । प्रभ० ४६ । जीरककडुभाण्डादिरसः । सूर्य ० २६३ । जूए-यूप:-द्विपृष्ठवासुदेवनिदानकारणम् । आव० १६३ । जूसणा-जोषणा-सेवा तल्लक्षणधर्म इत्यर्थः । ठाणा० ५७ । भग० २७५ । जोषणा सेवानालक्षणो यो धर्मः । ठाणा० २३७ । सेवा । जूतं-द्यूतम् । आव० ३४२ । भग० १२७ । क्षपणा-सेवना । सूत्र० ४२१ । जूतिकरो-द्यूतकारः । आव० ४२१ । जूसिते-जुष्ट:-सेवितः, क्षपितः । ठाणा० २३७ । जूय-द्यूतम् । आव० ५०२ । द्यूतम् । उत्त० १४७ । | सिया-सेविता:-तद्युक्ताः । ठाणा० ५७ । यूपः-यज्ञस्तम्भः । जं०प्र० १८३ । यूपः-युगम् । प्रश्न जह-युथ:-वानरादिसम्बन्धिः । ज्ञाता० ३६ । जूहबई-युथपतिः तत्स्वामी। ज्ञाता० ६७ । जूयए-सन्ध्याप्रभा चन्द्रप्रभा च यद्युगपद् भवतस्तत् । । जूहवतित्तं-यूथपतित्वम् । आव० ३४८ । ( अल्प० ५७ ) (४४६ ) 2010_05 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जूहाहिवती] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः [ जोइसिआ जूहाहिवती-यूथस्य-गवां समूहस्याधिपतिः-स्वामी यूथा- ज्येष्ठानुज्येष्ठः । विशे० ४४३ । धिपतिः । उत्त० ३४६ । यूथस्य-साध्वादिसमूहस्याधि- जोइ-ज्योति:-शरावाद्याधारो ज्वलन्नग्निः । नंदी० ८४ । पतिः-आचार्यपद्वीं गतः यूथाधिपतिः । उत्त० ३४६ । ज्योति:-अग्निः । सम० १८ । भग० ३१३ । दश० जूहिआगुम्मा-यूथिकागुल्माः । जं० प्र० ६८। ११७ । वन्हिः । भग० ३०७ । देवविशेषाणामालयः । जूहिया-गुल्मविशेषः । प्रज्ञा० ३२ । आव० १८४ । जूहियापुडा । ज्ञाता० २३२ । जोइक्कं-ज्योतिष्क-ज्योतिश्चक्रम् । जीवा० १७५ । जे-इति निपातोऽलङ्कारार्थः । विशे० २५१ । वाक्याल- ज्योतिष्कदेवविमानरूपम् । सूर्य ० २७४ । ङ्कारार्थः। विशे० १२१० । निपात: । प्रश्न० १२४, जोइक्खं-ज्योतिः । आव० ६२१ । ज्योतिष्कम् । आव० १२८, १४१ । पादपूर्ती । आव०६१७ । निपातः ८४५। ज्योतिष्कस्पर्शः । ओघ० २०४ । सर्वत्र पूरणे । उत्त० ४५७ । जोइक्खे-दीपः । छाइलयं दीवं मुणेज्जाहि । व्य० द्वि० जेट-ज्येष्ठ इति प्रथमः । सूर्य० ४ । परियायजाइसुण २५४ अ । घेत्तव्वो, सुणेत्ताण जो गहणधारणाजुत्तो समत्ते वक्खाणे | जोइजसा-ज्योतिर्यशा-आर्जवोदाहरणे वत्सपालिका । जो भासती, पडिभणतीत्यर्थः सो जेट्टो । नि० चू० आव० ७०४ । तृ० ८१ अ । जोइयं-दृष्टम् । आव० ५६१ । अवलोकितम् । दश० जेट्टमहाजण-जेष्ठार्यसमुदायः । बृ० प्र० २३८ आ । | ६६ । जेट्रा-षोडशो नक्षत्रः । ठाणा० ७७ । ज्येष्ठा-स्वामि- जोइरसा-ज्योतिरसं नाम रत्नम् । जं० प्र० २३ । ज्ञाता० दुहित्ता । आव० २५५, ३१२ । शिक्षायोगदृष्टान्ते | ३४ । हैहयकुलसम्भूतवैशालिकचेटकपञ्चमी पुत्री। आव०६७६ । । जोइस-ज्योतिष-ज्योतिश्चक्रम् । सम० २१ । प्रश्न० ६५ । जेट्टानक्खत्तं-ज्येष्ठानक्षत्रम् । सूर्य० १३० । जीवा० ३७७ । नक्षत्रचन्द्रयोगादिज्ञानोपायशास्त्रम् । जेट्टामूल-जेष्ठा मूलं वा नक्षत्रं पौर्णमास्यां यत्र स्यात् | प्रश्न० १०६ । ज्योतिषदेवविमानरूपम् । जीवा० ३३६ । स जेष्ठामूलः जेष्ठ इति । औप० ६५। जेष्ठः । ज्ञाता० ज्योत्स्न:-शुक्लः । जीवा० ३३६ । ज्योति:-चन्द्रः । उत्त० १५० । ज्योतिष्कशब्देन तारकाः । प्रश्न जेट्टामौली-ज्येष्ठामौली । सूर्य० ११६ । १६ । नवमशतके ज्योतिष्कविषयो द्वितीय उद्देशः । जेटोग्नहो-ठवणा । वासावासास चत्तारि मासा तम्हा भग० ४२५ । ज्योतिः-अग्निः । जं० प्र० ७४ । उदुबखियाओ वासे उग्गहो जेट्ठो भवति । नि० चू० द्योतयन्तीति ज्योतींषि विमानानि । उत्त० ७०१ । प्र० ३३६ आ। जोइसामयणं-ज्योतिषामयनं-ज्योतिःशास्त्रम्। औप०६३ । जेण-यया । उत्त० १३४ । जोइसि-ज्योतींषि-विमानानि । देवाः सूर्यादयः । प्रशा० जेणेव-येनेति यस्मिन्नित्यर्थे । सूर्य०६ । ७०। ज्योतींषि ज्योतिष्का देवास्त एव ज्योतिषिकाः । जेमण-जेमनम् । ओष. १६३ । जेमनानि बटकपूरणा- जं० प्र० १०३। दीनि । उपा० ५। जोइसिअ-ज्योतिषिक:-सूर्यः । जं० प्र० १०३ । जेमणिगा-भोषनम् । नि० चू० द्वि० १०७ अ । जोइसिआ-ज्योतिष्का:-द्योतयन्ति-प्रकाशयन्ति जगदिति जेमामणं । भग० ५४४ ।। ज्योतींषि विमानानि, तेषु भवा ज्योतिष्काः । यदिवा जेमेंतो-जेनन् । बाव. ३०३ । द्योतयन्ति-शिरोमुकुटोपगूहिभिः प्रभामण्डलकल्पः सूर्याजेमेर-तमारयति । उप० मा० गा ३५८ । दिमण्डलः प्रकाशयन्तीति ज्योतिषो-देवाः सूर्यादयः । जेया-जितः । बाव. १५७ । . प्रज्ञा० ६६ । ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः । जं० प्र०१०३ । ( ४५०) 2010_05 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइसियउद्देसए ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, मा० २ [ जोगसंगहा जोइसियउद्देसए- . । भग० ५०५।। णादिरूपसंयमयोगः । पिण्ड० १६७ । भावाध्यनचिन्तजोइसिया-ज्योतिषिक:-द्रमविशेषः । जीवा० २६७ ।। नादिशुभव्यापारः । उत्त०८ । मनोवाक्कायव्यापारः । जोई-योग:-धर्मशुक्लध्यानलक्षणः स येषां विद्यत इति प्रज्ञा० ३८२। योजनं योगः-आत्मकर्मसम्बन्धः, आत्मयोगिनः साधवः । आव० ५८२ । योगिन:-अध्यात्मशा- नश्चलनस्पन्दनादिक्रियया सम्यगाधानं योजनं योगः स्त्रानुष्ठायिनः । औप०६१। सकर्मक आत्मव्यापारः । विशे० १३१८ । किरिया । जोईरसं-ज्योतीरसं-रत्नविशेषः । जीवा० १८० । नि० चू० प्र० ७६ आ। दो घयपला मधुपलं दहियस्स जोईसर-योगेश्वर:-युजयन्त इति योगा:-मनोवाक्काय य आढयं मिरियवासा खंडगुलदभागासडसालूनि च, व्यापारलक्षणास्तरीश्वरः-प्रधानः । आव ०५८२ । योगी- विद्देसणवसीकरणाणि वा । दश० चू० १२६ । श्रुताश्वर:-युज्यते वाऽनेन केवलज्ञानादिना आत्मेति योग:-धर्म- ध्ययननिबन्धनतपोविशेषः । बृ० प्र० ११८ अ । शुक्लध्यानलक्षणः स येषां विद्यत इति योगिन:-साधव- गच्छेयपलिभागा-योग:-मनोवाक्कायविषयं वीर्य तस्य स्तरीश्वरः । आव० ५८२ । योगिस्मर्यः-योगिचिन्त्यः केवलिप्रज्ञाच्छेदेन प्रतिविशिष्टा निविभागा भागाः योगयोगिध्येयो वा । आव० ५८२ ।। च्छेदप्रतिभागाः । अनु० २४० । जोएइ-( देशी० ) निरुपयति । व्य० प्र० २० आ। जोगजंजणा-योगयोजना:-वशीकरणादि योगाः । प्रज्ञा जोएति-पश्यति । नि० चू० प्र० २०५ आ। ६५ । जोएमि-गवेषयामि । नि० चू० प्र० १७८ अ । जोगजुत्तया-योगयुक्तता-संयमयोगयुक्तता । पंचविंशतिजोएह-पश्यत । आव० ६८ । पश्य । ओघ ० १६१। तमोऽनगारगुणः । आव ० ६६० । जोक्कारो-जोत्कारः । आव०६०। जोगधूव विओ-योगधूपधूपितः । आव० ११६ । जोगंधरायणो-योगन्धरायणः, शिक्षायोगदृष्टान्ते प्रद्योत- जोगपरिवुड्डो-योगपरिवृद्धि:-अभिगृहीतेतरतपसोर्वद्धिः । राज्ञो मन्त्री । आव० ६७४ । बृ० तृ० १५० अ । जोग-योग:-सम्बन्धः । उपायोपेयभावलक्षणः । अवसर- जोगपरिवाइया-योगपरिवाजिका-समाधिप्रधानतिनीलक्षणः । योग्यः । ठाणा० १ । योगो-लब्धस्य परिपाल- | विशेषः । ज्ञाता० १५८ । नम् । ज्ञाता० १०३ । सम्बन्धः-अवसरः । जं.प्र.३। जोगभूमी-विरायणजोगभूमीए वि जे केति दिवसा सेसा योगोऽत्र शरीरजीवव्यापारः । विशे० २१० । योग: यन्तो भण्णति । नि० चू० प्र० १६७ आ। सामर्थ्यम् । दश ० २३१ । वशीकरणादि । दश० २३६ । जोगवड्डी-जाव दिणे दिणे आहारेओ जोगवड्ढीए इमा सम्बन्धः । प्रज्ञा० २५८ । ठाणा० ४८६ । व्यापारः । जोगवड्ढी । नि० चू० प्र० ३४२ अ । . निचू० प्र. ६१ अ । जोगः-आकाशगमनादिफलो द्रव्य- जोगवहणं-योगवहनम् । दश० १०८ । सङ्घातः । पिण्ड० २१ । योग:-अन्तःकरणादिः । दश जोगवाही-योगवाही । आव० ८५४ । १७ । बीजाधानोभेदपोषणकरणम् । जीवा० २५५ । जोगविही-योगविधिः । ओघ० १७८ । क्षीराश्रवादीलब्धिकलापसम्बन्धः। सूत्र०७। दिग्योगः । | जोगसंगहा-युज्यन्त इति योगा:-मनोवाक्कायव्यापारा:, जं० प्र० ४६६ । मिथ्यात्वादिः । आव० ४७८ । द्रव्योप- ते चाशुभप्रतिक्रमणात्प्रशस्ता एव गृह्यन्ते, तेषां शिष्याचारः । आव० ५६६ । मनोवाक्कायव्यापारलक्षणः धर्म- चार्यगतानामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण सङ्ग्रहशुक्लध्यानलक्षणो वा । आव० ५८२ । औदारिकादि- णानि योगसङ्ग्रहा: । आव० ६६३ । योगानां प्रशस्तशरीरसंयोगसमुत्थ आत्मपरिणामविशेषव्यापारः । आव० व्यापाराणां सङ्ग्रहा: योगसङ्ग्रहाः । प्रश्न० १४६ । योग५८३ । ज्ञानादिभावनाव्यापारः, सत्त्वसूत्रतपःप्रभृतिर्वा । | सङ्ग्रहः। दश. १०७ । योगसङ्ग्रहः-मनोवाक्कायव्याआव० ५६३ । मनःप्रभृति । आव० ६०७ । प्रत्युपेक्ष- पारसमहः। आव०. ६६३ । ..." (४५१) 2010_05 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगलीया ] जोगसंलीणया - योगसंलीनता - अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं । कज्जमि य विहिगमणं जोए संलीणया भणिया ||१|| दश० २६ । मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः - कुशलानामुदीरणमित्येवंभूता योगसंलीनता । दश० २६ । जोगसच्च- योगसत्यं नाम छत्रयोगाच्छत्री दण्डयोगाद्दण्डीत्येवमादि । दश० २०६ । जोगसच्चा-पर्याप्तिकसत्यभाषाया नवमो भेदः । योगः सम्बन्धः तस्मात् सत्या योगसत्या । प्रज्ञा० २५६ । जोगहाणी - योगहानि: - प्रत्युपेक्षणादिरूपसंयम योगभ्रंशः । पिण्ड० १६७ । आचा० २४ । आव० ७३१ । जोग होणं- योगहीनं- योगरहितं सम्यग् कृतयोगोपचारम् । जोणीपमुहं - योनि प्रमुखं- योनिप्रवाहम् । जीवा० १३४ । जोणीयं- योनिपदं - प्रज्ञापनायां नवमं पदम् । भग० ४६६ ॥ जोणोपोसगो-योनिपोषकः । आव० ८३० । जोणी संगहे - योनि ः- उत्पत्तिहेतुर्जीवस्य तया सङ्ग्रह - अनेकेषामेकशब्दाभिलाप्यत्वं योनिसङ्ग्रहः । भग० ३०३ । योन्य सङ्ग्रहणं योनिसङ्ग्रहो योन्युपलक्षितं ग्रहणम् । जीवा० १३३ । जोगा - योगा:- आवश्यकव्यापाराः । बृ० तृ० १४६ आ दुगमादिदव्वनियरा विद्देसणवसीकरण उच्छादण रोगावणयणकरा व जोगा । नि० ० द्वि० ४४ अ । योगाःवशीकरणादिप्रयोजनाः । प्रश्न० ११६ । जोगाणुजोगे - वशीकरणादियोगाभिधायकानि हरमेखलादिशास्त्राणि । सम० ४६ । जोगाणुभावजणियं - योगानुभावज नितं - मनोयोगादिगुण जोण्हा - ज्योत्स्ना - चन्द्रिका । ज्ञाता० १६१ | जोहिया - चिलात देशोत्पन्नम्लेच्छविशेषः । भग० ४६० । आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः 2010_05 [ जोनकनामक देशजाः जोणिसूल - योनिशूलम् । भग०० १९७ । जोणी - योनिः प्रज्ञापनाया नवमं पदम् । प्रज्ञा० ६ । युवन्ति तैजस कार्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकादिशरीरप्रायोग्य पुद्गलस्कन्ध समुदायेन मिश्रीभवन्त्यस्यामिति योनि ः-उत्पत्तिस्थानम् । प्रज्ञा० २२५ । उप्फत्तिट्ठाणं । नि० ० प्र० ५६ आ । योनिः योति मिश्रीभवति कार्मणशरीरिण औदारिकादि शरीरंरस्यां जन्तवो जुषन्ते सेवन्त इति वा । उत्त० १८३ । जोणीओ-यौति मिश्रीभवत्यौदारिकादिशरीरवर्गणापुद्गरसुमान् यस्यां ता योनयः प्राणिनामुत्परिस्थानानि । प्रभवम् । आव० ५६८ । जोगियं - यौगिकं - यदेतेषामेव द्वयादिसंयोगवत् । प्रश्न० ११७। जोण्हे - ज्योत्स्न:-शुक्लपक्षः | सूर्य ० १४६ । शुक्लः । जोगी- वेज्जो । नि० चू० द्वि० १३९ अ । 1 जोग्गं - युग्यं - गोल्लदेशप्रसिद्धो द्विहस्तप्रमाणो वेदिकोपशोभितो जम्पानविशेषः । प्रश्न० ८ । जोग्गा - योग्यां- मण्डलीकरणाभ्यासः । जं० प्र० २३५ । योग्या । पिण्ड० ३३ । गुणनिका । औप० ६५ । जोणए - जोनक:- म्लेच्छविशेषः । जं० प्र० २२० । जोगं -योनकम् । आव ० १४७ । जोणगाजोणि-योनि :- गर्भनिर्गमनद्वारम् । भग० २६८, ४९६ । जोणिष्पमूहं - योनिप्रमुख - योनिप्रवाहम् । जीवा० ३७२ । जोणि भू-योनिभूतं - अविध्वस्तयोनि, प्ररोहसमर्थम् । । आव ० १४८ । दश० १४० । जोणिविहाण - योनिविधानं योनि प्राभृतम् । विशे० ७५० । सूर्य १७ । जोति - ज्योतिः - अग्निः । सौम्यप्रकाशः | ठाणा० ५१७ ॥ जोतिर से- ज्योति रस काण्ड - ज्योतरसाणां विशिष्टो भूभागः । जीवा० ८६ । जोतिष्मती - तैलविधानोपयोगे वनस्पतिविशेषः । आव ० ६१ । जोतिसामयणे- ज्योतिषामयनं ज्योतिःशास्त्रम् । भग० ११२ । जोती- उद्दित्तं । नि० ० प्र० ४८ अ । जोत्तं - योत्रम् । सूत्र० ३१२ । योक्त्रं - यूपे वृषभ संयमनम् । प्रश्न० १६४ | योक्त्रं - कण्ठबन्धनरज्जू । उपा० ४४ । जोन्तयं - योक्त्रकम् । जं० प्र० ५२७ । जोनकनामक देशजाः - जोनिवयः । जं० प्र० १६१ । ( ४५२ ) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोनिक्यः ] जोनिक्य:- जोनकनामकदेशजः । जं० प्र० १६१ । जोयइ - योजयति । आव० ६५४ । जोयण - चत्वारि गव्यूतानि योजनम् । अनु० १५६ । जीवा० ४० । भग० २७५ । प्रज्ञा० ४८ । जोयणणीहारि-योजननिहारि - योजनव्यापि । आव ० २३४, २३७ । जोयनीहारिणा सरेण योजनातिक्रामिणा शब्देन । उपा० अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ २८ । जोयनीहारी - योजनातिक्रमी स्वर इति । सम० ६२ । जोयसा - सतिसामत्थो, जं पमाणं भणितं तो पमाण उणहाणमहि वा । दश० चू० १२१ । जोयाविया - दर्शिताः । बृ० प्र० ५७ अ । जोवणं - शकटे गवादेर्योजनम् । बृ० द्वि० ५० अ । धान्यप्रकारः । ओघ० ७५ । जोव्वण - यौवनम् । आव ० ५६६ । यौवनं - तारुण्यम् । ज्ञाता० २२० । परमस्तरुणिमा । प्रज्ञा० ५५१ । जो सेमाणे - जुषन - आचरन् । आचा० २६५ । जोह - योधः - अतिशयशौर्यवान् । भग० ११५ । जोहा - योधाः - भटेम्यो विशिष्टतराः सहस्रयोधादयः । औप० २७ । जोहारो - जुहार : - जयोत्कारः । आव० १०१ | जोहिट्ठिल्लो - युधिष्ठिरः - पाण्डवानां मध्ये ज्येष्ठः । अन्त० १५ । ज्भ-ध्याननिर्देशे । आव० ४४६ । ज्भवणाक्षपणा । विशे० ४५० । ज्झामि ध्यामं ध्यामलीकृतं - आपादितपर्यायान्तरमित्यर्थः । भग० २१३ । ज्झामिय- ध्यानमितं श्यामीकृतम् । भग० २१३ । ज्भुक्खुरं - शाखा । आव० ५१३ । ज्भूसिय- सेवितं - शोषितम् । भग० ११३ । ज्ञप्ति:- ज्ञापनं - ज्ञानम् । जं० प्र० ४ । ज्ञा-संवित्तिः । आव० २८२ । 2010_05 ज्ञातं - उदाहरणम् । नंदी० २३० । अध्ययनम् । प्रश्न०२ । ज्ञातपुत्रीयम् - महावीरसम्बन्धि | आचा० ४६ ॥ ज्ञाता:- महावीरशान्तिजिनपूर्वजाः । ठाणा० ३५८ । [ झंझा १३५ । । दश० ८० 1 ज्ञातिः - लोकैषणाबुद्धिः । आचा० १८० | ज्ञान-चेतना | आव० २४ । सम० ज्ञाननय:ज्ञानपिण्डो-ज्ञानं स्फाति नीयते येन । ओष० १४७ । ज्ञानविसंवादयोगः - अकालस्वाध्यायादिना । आव०५८० । ज्ञानशुद्धं यस्मिन् काले यत्प्रत्याख्यानं मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वा कर्तव्यं भवति तत् जानाति तज्ज्ञानशुद्धम् । ठाणा० ३५० । ज्ञानसंज्ञा-संज्ञाभेदः । जीवा० १५ । ज्ञानोपसम्पत्- सूत्रार्थयोः पूर्वगृहीतयोः स्थिरीकरणार्थं तथा वित्रुटितसन्धानार्थं तथा प्रथमतो ग्रहणार्थमुपसम्पद्यते । ठाणा० ५०१ । आव० २७० । ज्ञापकम - अनुमानम् । नंदी० १६५ । ज्येष्ठामूले - ज्येष्ठमास इत्यर्थः । मोघ० १५९ । ज्येष्ठो । विशे० ४४३ । ज्योतिः - नक्षत्रः । ठाणा० ६६ । उद्योतः । ओघ० २०१ । ज्वलनप्रभनागाधिप| जं० प्र० २२३ । वा गणस्य मनोदुःखं समुत्पद्यते तद्भाषी, अष्टादशमसमाधिस्थानम् । सम० ३७ । झञ्झाकर : - येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करी, येन च गणस्य मनोदुःखमुत्पद्यते तद्भाषी । प्रश्न० १२५ । भंभकारी -झञ्झकारी-यो येन येन गणस्य भेदो भवति सर्वो वा गणो झञ्झितो वर्त्तते तादृशं भाषते करोति वा । अष्टादश समाधिस्थानम् । आव० ६५५ | झंडिया-झंझडिया-रिणे अदिज्जते वणिएहि अणगप्पकाहि दुव्वयणेहि झडिया । नि० ० द्वि० ४३ अ । झंझडिया - लतकसा दिएहि वा झडिता । नि० चु० द्वि० ४३ अ । भंभविओ - सञ्झितः - उद्विग्नः । आव० ६५५ । झंझा - झञ्झा - कलहः । आव० ६६२ । तृष्णा । सूत्र० ३२६ । क्रोधो माया वा । सूत्र० २३५ । माया लोभेच्छा वा । आचा० २१० । कलहः । बृ० द्वि० १६ अ । ( ४५३ ) झ ख - भषः - वारंवारं जल्प | पिण्ड० ६२ । भंकरे - येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करो, येन Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झंझाए] आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः . [झाणंतरिना विप्रकीर्णा कोपविशेषाद्वचनपद्धतिः, अणत्थयबहुप्पलावित्तं । चविनद्धा । भग० ४७६ ।। भग० ६२४ । झल्लरी-वल्लयाकारा । औप० ७३ । चर्मावनद्धविस्तीर्ण झंझाए-व्याकुलितमतिर्भवेत् व्याकुलतां परित्यजेत् । आचा० वलयाकारा आतोद्यविशेषरूपा। प्रज्ञा० ५४२ । चर्मा१७० । वनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा। जीवा० १०५ । चविनद्धा झंझाकारित्वम-गणस्य चित्तभेदकारित्वं मनोदुःखकारि- विस्तीर्णा वलयरूपा । जीवा० २४५ । चविनद्धा विस्ती. वचनभाषित्वं वा । अष्टादशमसमाधिस्थानम् । पञ्चमा- .र्णवलयाकारा आतोद्यविशेषरूपा। नंदी० ८८ । चर्माधर्मद्वारेऽष्टादशमसमाधिस्थानम् । प्रश्न० १४४ । वनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा आतोद्यविशेषः । आव० ४१ । झंझावाए-मञ्झावातः-यः सवृष्टिको वातः, अशुभनिष्ठुरो | उभयतो विस्तीर्णचविनद्धमूखो मध्ये संकीर्णो ढक्काल. वा । जीवा० २६ । झञ्झावातः-सवृष्टिरशुभनिष्ठुरः। क्षणाऽऽतोद्यविशेषो झल्लरी । विशे० ३५३ । प्रज्ञा० ३० । झल्लरीसंठिय-झल्लरीसंस्थित:-आवलिकाबाह्यस्य विंशझंझावाया-झञ्झावाता:-अशुभनिष्ठुरा वाताः। भग० तितमं संस्थानम् । जीवा० १०४ ।। भवंति-विध्यापयन्ति । बृ० द्वि० १२ अ । झंपित्ता-झंपयित्वा-अनिष्टवचनावकाशं कृत्वा। सम०५३। झविया-क्षपिता-निर्मूलिताः । उत्त० ४३८ । झगिति-झटिति कृत्वा । भग० १७५ । झस-शष:-मत्स्यः । ज्ञाता० १६८ । अरुणशिखेनाहतोऽनझडिज्झति-क्लिश्यति । आव० २६२ । शनी मत्स्यः । मर० । झष:-मत्स्यविशेषः । प्रश्न०७। झडित्ति-झटिति । आव० ६६० । जीवा० २७० । झडियंगा-क्षपिताङ्गः । मर० । झसोदरो-झषो-मत्स्यस्तदुदरमिव तदाकारतयोदरं यस्या झडरविडुरं-कण्डलविण्टलादि । व्य० प्र० २४६ । सौ झषोदरः । उत्त० ४६० । झत्ति-झटितीकृत्वा । भग० १७५ । झटिति । उत्त० झाइ-ध्यायति-प्रज्वलयति । बृ० तृ० २०१ अ । २२३ । झाएज्ज-प्रज्वलेत् । बृ० द्वि० ११३ आ । झय-ध्वजाः-सिंहगरुडादिरूपकोपलक्षिता बृहत्पट्टरूपा । झाटनं-इह तीर्थे षण्मासान्तमेव तपस्ततः षण्णां मासानुजं० प्र० १८८ । ज्ञाता० २० । परियान् मासानापन्नोऽपराधी तेषां क्षपणं-अनोरोपणं, झयसंठिओ-ध्वजसंस्थितः । जीवा० २७६ । प्रस्थे चतु:सेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव । ठाणा० ३२६ । झया-ध्वजा-गरुडादिध्वजा। प्रश्न० ४८ । विपा०४६ । झाटयन्-प्रस्फोटनं कारयन् । ठाणा० ३२६ । झरंति-स्वाध्यायं कुर्वन्ति । बृ० द्वि० १७६ अ । झाणं-अभ्यन्तरतपभेदः । भग० ६२२ । ध्यानं-एकाग्रझरए-झरति-परावर्तयति । व्य० द्वि० १०८ आ। तया करणम् । बृ० द्वि० १४७ आ। ध्यानं-दृढमध्य. झरओ-स्मारकः। आव० ३०७ ।। वसानं, एकाग्रस्य चिन्तानिरोधश्च । दश० चू० १४ । झरित-क्षरित:-पतितः । ओघ० २२२ । ध्यातिनिमिति भावसाधनः । आव० ५८१। चित्तझरिय-स्थितसारः । व्य० प्र० २५७ । ज्ञातं निश्चितम् ।। निरोधलक्षणं धर्मध्यानाधिकम् । सूत्र० १७५ । चित्तमर० । निरोधरूपम् । प्रभ० १०७। चित्तनिरोधः । प्रश्न० १२८ । झलझला-उदकशब्दविशेषः । ओघ० १६७ । एकाग्रतालक्षणम् । आर्त रौद्रधर्मशुक्लाभिधानकम् । झल्लरि-झल्लरी-चर्मावनद्धा विस्तीर्णा वलयाकारा । प्रभ० १४३ । राज० २५, ४६ । मल्लरि:-वलयाकारो वाद्यविशेषः । झाणंतरिआ-अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका, अथवा भग० २१७ । झल्लरी-चतुरङगुलनालिः करटीसदृशी | अन्तरमेवान्तयं, ध्यानस्यान्तरिका ध्यानान्तरिका-आरब्धवलयाकारा । जं० प्र० १६२ । अल्पोच्छ्रया महामुखा | ध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणम् । जं० प्र० १५० । ( ४५४ ) 2010_05 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाणंतरिआ ] अल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः, भा० २ [ झोसेथ झाणंतरिया-ध्यानान्तरिका । आव० २२७ । आरब्ध-झियाइ-ध्यायति-चिन्तयति । भग० १७५ । ध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणम् । जं० प्र० १५१।। झियायंति-ध्यायन्ति इन्धनैर्दीप्यन्त इति । ठाणा० ४२० । अन्तरस्य, विच्छेदस्य करणमन्तरिका ध्यानस्यान्तरिका झियायमाण-ध्यायमानः, ध्मायनु वा दह्यमान इत्यर्थः । ध्यानान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भण- भग० १२२। मित्यर्थः । भग० २२१ । झिल्लिया-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा०४२ । जीवा०३२ । झाणकोट्रोवगय- । आचा० ४२४ । झिल्लिरी-मत्स्यबन्धनविशेषः । विपा० ८१ । झाणिग्गहो-ध्याननिग्रहः । उत्त० ३३२ । झिल्ली-झिल्लिका-वनस्पतिविशेषरूपा। प्रज्ञा० ३७ । माणसंताणो-ध्यानसन्तान:-ध्यानप्रवाहः । आव० ५८४। झुझिय-बुभुक्षित: । प्रश्न ५२ । । झाणसंवरजोगे-ध्यानमेव संवरयोगः ध्यानसंवरयोगः । | झुषिर । आचा० ३०७। द्वात्रिंशद्योगसंगृहेऽष्टाविंशतितमो योगः । आव० ६६४ । | झुसिर-झुषेः शोषस्य दानात् शुषिरम् । भग० ७७६ । झात्कारं-झल्लरीशब्दः । नंदी० १७१ ।। शुषिरम् । आव० ६२५ । शुषिरं-शुषिरशतकलितम् । झापं-ध्यायं-स्वाध्यायम् । बृ० द्वि०१४५ । आ । जीवा० ११४ । वादिनविशेषः । जं० प्र० ४१२ । झाम-ध्याम-दग्धच्छायम् । जीवा० ११४ । दग्धम् । शुषिर-अन्तःसाररहितम् । दश० १७५ । पलालादिच्छ आचा० ३२२ । ध्यामः-अनुज्ज्वलन्छायः । प्रश्न ४१ । नम् । ओघ० १२३ । शुषिरं वंशादिकम् । भग० झामलं-ध्यामलम् । आव० १४६ । २१७ । शुषिर:-असारकायः। प्रश्न० ४१ । शुषिरं. झामवन्ना-ध्यामवर्णाः-अनुज्ज्वलवर्णाः । भग० ३०८ । वंशादिकम् । जं० प्र० १०२ । शुषिरः । ग० । झामिअं-मातम् । आव० ६१ । झूसणं-जोषणं-सेवनम् । आव० ८४० । झामिता-दग्धा । आव० ३४५ । -जोषणा-सेवणा । उपा० १२ । झामिया-दड्ढा । नि० चू० द्वि० ११० अ । माता- झूसिए-जुष्ठः-सेवितः । भूषितः-क्षपितः । जं० प्र० २८० । दग्धा । उत्त० १५० । भूसिया-भूषिता:-क्षीणा वा। जुष्टाः सेवितः। औप०६६ । झामेह-मापयत-स्ववर्णत्याजनेन वर्णान्तरमापादयत । झोडा-झोड:-पत्रादिशाटनं, तद्योगात्तेऽपि झोडाः । ज्ञाता. अग्निसंस्कृतानि कुरुत । जं० प्र० १६२ । १७३ । झावण-मापनं-दाहः-भस्मसात्करणमिन्धनः । आचा० झोष:-इह तीर्थे षण्मासान्तमेव तपस्ततः षण्णां मासाना मुपरि यान् मासानापन्नोऽपराधी तेषां क्षपणं अनारोपणं, झावणया-प्रदीपनकम् । ओघ० ११२ । प्रस्थे चतुःसेतिकाऽतिरिक्तधान्यस्येव झाटनमित्यर्थः । झावणा-मापना-अग्निसंस्कारः । आव० १२९ । ठाणा० ३२५ । झिखिता-झिखित्वा-प्रभाष्य । आव० ५५ । झोसित्ता-क्षपयित्वा । ज्ञाता० ७७ । सोषिता:-क्षपिताः झिगिरा-त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः । प्रज्ञा० ४२ । जीवा० ३२। | क्षपितदेहाः । ठाणा० ५७ । झिगिरिडा-चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः । जीवा० ३२। झोस इ-झोषयति-शोषयति, क्षयं नयति । आचा० १६२ । झिझिए-बुभुक्षातः । बृ० तृ० १५६ आ । भोसणं-जोषणा:-सेवना: कारणानि । सम० १२० । झिज्जिए-क्षितः क्षीणशरीरः । जीवा० १२२ । झोसमाणे-झोषयन-क्षपयन् । आचा० २०४ । झिझिरिपलंबं । आचा० ३४८ । झोसिए-झोषित:-क्षपितः । आचा० २०९ । झिझिरी-वल्लीपलाशः । आचा० ३४८ । झोसिओ-सेवितः । आचा. २०६। क्षपितः । आचा. झिमियं-जाड्यता सर्वशरीरावयवानामवशित्वमिति ।। २२४ । आचा० २३५ । झोसेथ-गवेषयत(देशी.)। बृ. द्वि० १६२ आ । .. (४५५ ) 2010_05 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमवाचनादातृ-बहुश्रुत-युगप्रधानसदृशदेवसूरतपागच्छसमाचारीसंरक्षणकटिबद्ध-श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाईजैनपुस्तकोद्धारश्रीजैनानन्दपुस्तकालयाद्यनेकसंस्थासंस्थापक-अनेकग्रन्थप्रणेतृश्रीवर्धमानजैनागम मंदिर(सिद्धक्षेत्र)श्रीवर्धमानजैनताम्रपत्रागममंदिर(सूर्यपुर)संस्थापक-आग मोद्धारक-ध्यानस्थ स्वर्गत आचार्यश्रीआनन्दसागरसूरिसङ्कलितः - - | श्रीअल्पपरिचितसैद्धान्तिकशब्दकोषः . . (कतो झपर्यन्तो द्वितीयो विभागः ) . श्रेष्ठि-देवचन्द्रलालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे प्रन्थाङ्कः ११५ ॥ 2010_05 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. ઓ. | 1-0 4-7 શેઠ દેવચંદ લાલભાઇ જૈન પુસ્તકેદ્ધાર કુંડ ગ્રંથાંક હાલમાં મળતા ગ્રન્થ 86 લેકપ્રકાશ મૂળ ચેથા વિભાગ (પ્રત ) 87 ભરતેશ્વબાહુબલિવૃત્તિ દ્વિતીય વિભાગ સંપૂર્ણ ... 2-0 88 પ્રશમરતિપ્રકરણ-બહગચ્છીય શ્રીહરિભદ્રસૂરિકૃત વિવરણ સમેત 1-4 89 અયામ ક૯૫૬મ, રત્નચંદ્રગણુ-વર્ધન ગણિકૃત ટીકાયુકત, 90 ગૌતમીયકાવ્ય, રૂપચંદ્રગુણિકૃતમ્ 1-8 91 સટીક વૈરાગ્યશતકાદિ ગ્રંથપંચકમ 1-0 92 અભિધાનચિન્તામણિ કાશ 93 જૈનકુમારસંભવ 2-8 94 સિદ્ધ હેમ શબ્દાનુશાસને બહદું વ્રત્ત્વવચૂર્ણિનવપાદ, અવચૂંણકાર શ્રીમદ્દ અમરચંદ્ર 5-0 95 વીતરાગસ્તોત્ર અવચૂણિ વિવરણ અને ભાષાંતર સમેત 1-8 99 શમણુસૂત્રાદિ અવસૂરિ 100 વંદનપ્રતિક્રમણ એવચૂરિ 1-8 ભક્તામરસ્તાત્રે પાદ પૂર્તિરૂપ કાવ્ય, પ્રથમ વિભાગ ટીકા ભાષાંતર 3-0 , કાવ્ય, બીજો વિભાગ ટીકા ભાષાંતર 3-8 જીવસમાપ્રકરણ સટિક સ્તુતિચતુર્વિશતિકા સચિત્રા શ્રી!ભનમુનિક્તા સંસ્કૃતા. સ્તુતિચતુર્વિશતિકા સચિત્રા થીબુગ્ધભટ્ટીસૃરિકતા ભાષાંતરયુક્તા 6-0 રતુતિચતુર્વિશતિકા સચિત્રા કવિ ધનતા વ. કસ્તુતિ ચતુર્વિશતિકા જિનાનંદસ્તુતિ સચિત્રા મેરૂવિજયકૃત ભાષાંતર સમેતા નંવાદિગાથાદ્યકારાદિયુતો ( સપ્તસૂત્ર ) વિષયાનુક્રમ .. 2-. આવશ્યકસૂત્ર મલયગરિકૃત ટીકાયુકત પૂર્વ ભાગ ... - બીજો ભાગ 2-8 - ત્રીજો ભાગ (દે. લા. અંક 85 ) ... લેકપ્રકાશ પ્રથમ વિભાગ, દ્રવ્યલોક, સર્ગ 1 થી 11 ભાષાંતર ... O, કિંતીય વિભાગ, ક્ષેત્રલોક, સર્ગ 12 થી 20 ભાષાંતર ... 3-8 * વેચાણમાં નવીન પુસ્તકો છે 102 શ્રાવકધર્મપચાશિકા 2-0 110 સૂત્રકૃતાંગ દીપિકા ભાગ 2 ... પ્રેસમાં 103 દશવૈકાલિક અવચૂરિ : ... 111 જમ્બુદ્ધિપપ્રજ્ઞપ્તિ ચૂણિ : Jy 105 પિંડનિકિત અવચૂરિ ... 3-0 112 આવશ્યક અવગૂરી ભાગ 2 ... , 19 પૂત્રકૃતાંગદીપીકા 3-0. 113 નંદીસૂત્ર અવગૂરી ભાગ 2 ... ,, 104 ઉત્તરાધ્યયન અવગૂરી ભાગ 1 ( 4-0 114 ઉત્તરાધ્યયન અવગૂરી ભાગ 2 ... ,, 10 6 શ્રાદ્ધવિધ કૌમુદી ... 115 અ૬૫ પરિચિત સદાન્તિક શબ્દકેાષ રે ,, શ્રાવિધિ મરાઠી સારાંશ ... 1-0 119 જિન ભક્તિ વિધિ વેચાય છે 107 નદીસૂત્ર અવગૂરી ભાગ 1 ... પ્રેસમાં 120 આત્મબોધ સજઝાયસંગ્રહ 108 આવશ્યક અવગૂરી ભાગ 1 ... 9 : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : : 1-8 2- 3-8 3-0. 4-0 આર્ટપ્લેટ તથા પૂ. જે રીતે મિં દહી * grgagtવાદ ary.org