________________
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका आर्तध्यान और रौद्रध्यान रूप दो प्रकार के संक्लेश परिणाम में । तीन प्रकार के अप्रशस्त अर्थात् पाप गणनन के कारणात संक्लेश परिणाममाया, मिथ्या और निदान में |
मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र मिथ्यात्व के प्रयोग से अर्थात् मिथ्यात्व के वश से अतत्त्व में रुचि होना, असंयम का प्रयोग, कषाय का प्रयोग, मन, वचन काय- तीन योग का प्रयोग, अप्रयोग्य का सेवन करना अर्थात त्याग करने योग्य का सेवन करना, फल-फूल आदि बिना प्रयोजन तोड़ना, हँसी-ठट्ठा करना, गीत नृत्यादि करना आदि अप्रयोजनीय कार्य किया हो।
प्रयोजनीय ग्रहण करने योग्य सम्यक्त्व-ज्ञान-संयम-तप की वृद्धि करने वाले संयतों की आयतनों की निंदा की हो तो ! मैं उस पाप की आलोचना करता हूँ]
इस प्रकार मेरे द्वारा रात्रि-देवसिक क्रियाओं में जो भी कोई अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, आभोग, अनाभोग किया गया हो, हे भगवन् ! उन सब दोषों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। मैंने उन सब दोषों का प्रतिक्रमण किया है, उन दोषों को दूर कर अपनी आत्मा को शुद्ध किया है। हे प्रभो ! मैं अपने व्रतों का अन्तिम फल यही चाहता हूँ कि मेरा सम्यक्त्व सहित मरण हो, धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान सहित समाधिमरण हो, पंडित मरण हो, वीर मरण हो । मेरे सब शारीरिक-मानसिक दुखों का नाश हो । द्रव्यकर्म, नोकर्म व भावकर्मों का क्षय हो । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रत्नत्रय की प्राप्ति हो । मोक्ष गति, श्रेष्ठ गति में गमन हो । अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य रूप जिनेन्द्र देव के गुणों की सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो।
वद-समि-दिदिय रोधो, लोचावासय-मचेल-मण्हाणं । खिदि-सयण-मदंतवणं, ठिदि--भोयण-मेय-भत्तं च ।।१।। एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहिं पपणत्ता । एत्थ पमाद-कदादो, अइचारादो णियत्तोहं ।। २।।