Book Title: Tattvartha raj Varttikalankara
Author(s): Gajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
View full book text
________________
भाषा
त०रा०
1 इसप्रकार द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा परस्पर गुणोंमें भी अभेद है एवं गुणी और गुणोंमें भी अभेद है,
पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा गुण भी एक दूसरेसे आपसमें जुदे २ हैं एवं गुणी और गुण भी आपसमें भिन्न २ हैं। इस रूपसे पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा जब अग्नि और उष्ण एवं आत्मा और उसके गुण ज्ञानादिक आपसमें भिन्न २ हैं तब वादीने जो यह दोष दिया था कि यदि आत्मा और ज्ञानमें का करणकी व्यवस्था मानी जायगी तो दोनोंको भिन्न २ मानना पडगा वह दोष दूर होगया क्योंकि जैन सिद्धांतमें कथंचित्-पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा आत्मा और ज्ञानका भेद भी माना है। .
इतरथा हि एकार्थपर्यायादन्यत्वप्राप्तिर्वृक्षवत् ॥ २२॥ यदि कर्ता और करणका सर्वथा भेद ही माना जायगा तो एक ही पदार्थकी अर्थात् कर्तास्वरूप ७ पदार्थकी पर्याय जहां करण मानी जाती है वहांपर कर्ता करणका अभेद रहता है परन्तु अब कर्ता || करणका सर्वथा भेद मानना पडेगा इस रातिसे "देवदत्त फरसा आदिसे (लकडीका) मकान बनाता है है " जिस तरह यहां कर्ता-देवदच और करण फरसा आदि सर्वथा भिन्न हैं उस तरह “शाखाओंके या वजनसे वृक्ष टूटा जाता है" यहां पर वृक्षरूप कर्ताकी पर्याय शाखाके करण होनेपर भी दोनोंका |
सर्वथा भेद ही माना जाना चाहिये । परंतु यह वात युक्तिसे बाधित है क्योंक शाखाभारसे भिन्न वृक्ष ॐ पदार्थ है नहीं, शाखाओंका समुदाय ही वृक्ष कहा जाता है इसलिये वृक्ष और शाखाओंका आपसमें 8 अभेद है। तथा यह वृक्षं और यह शाखा है इसप्रकार भेद विवक्षा रहने पर वृक्ष और शाखा जुदे जुदे.
| भी हैं इसलिये वृक्ष और शाखाओंका आपसमें भेद भी है इसतरह कथंचित् भेदाभेद अर्थात् द्रव्या-1 हार्थिक नयकी अपेक्षा अभेद और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भेद ही मानना चाहिये । यदि कर्ता करण
GRBADIREDIBASEARBATE-EFER-1975
R-CHEREALEGEDEOCHEMICAUSEGRESPEECHNICIPMARE