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पुरुषार्थसिन्धुपाय उसे प्रिय लगता है, उसीमें उसका उपयोग या चित्त लगता है, यह स्वाभाविक है। हो, जब तक उस शुद्ध स्वरूपका दर्शन या उसको प्राप्ति एवं उसका अनुभव या स्वाद नहीं आता तब तक जोत्र बराबर भूला रहता है और नकलीको असली मानता है व उसीमें संतुष्ट रहता है, जो कूपमंडूक जैसा है अथवा तिलीके तेलको हो सर्वोत्कृष्ट मानता है, या मुड़को ही उत्तम मानता है किन्तु जिसने घीका स्वाद या मिश्रीका स्वाद ले लिया हो वह कभी गलत या नकली धारणा या सत्यता नहीं कर सकता, न करेगा, यह पक्का है, अटल है। फलत: स्वाभावभाव या सहज स्वभावकी अपेक्षासे नय व प्रमाण दोनी साधनोंक द्वारा यथार्थ ज्ञान होता है किन्तु तीसरे साधन (निक्षेप ) द्वारा, व्यवहारका चलाना मात्र माना जाता है, यह सारांश है।।
अनादिसे संयोगीपर्यायमें रहने वाले तमाम जीवोंको पेश्तर पर्यायको अपेक्षा शुद्ध व अशुद्ध का ठीक-ठीक ज्ञान करानेके लिए ही निश्चयचय और व्यवहारनयका उपदेश दिया है कि संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंको निश्चयनय और व्यवहारमय ( साधनरूप ) का स्वरूप जानना अनिवार्य है। क्योंकि वह एक निर्णय करनेकी या सत्य असत्यको पहचाननेकी कसौटी है। उसके साथ-साथ दोनोंकी यथावसर आवश्यकता भी है और उनकी परस्पर संधि या सापेक्षता भी है। कारण कि वस्तु एक स्वभाववाली नहीं है, अनेकस्वभाव ( धर्म ) वाली है तब उसका कथन पूरा तो एक साथ नहीं होता। किन्तु काम-क्रम से होता है लेकिन वे अनेक धर्म उस समय भी वस्तुके साथ-साथ गौणरूपसे ( अविवक्षित ) बराबर मौजूद रहते हैं, नष्ट नहीं हो जाते अथवा दृष्टिके बाहर नहीं हो जाते किन्तु दृष्टि के भीतर ही रहते हैं, जब अमुक धर्मको विवक्षा होती है। ऐसो
१. तिलतलमेव मिष्टं येत न दृष्टं घृत क्यापि ।
अविदितपरवान्दो पदति जनो विषय एवं रमणीयः ।।
अर्थ----जिस पुरुषने जन्मसे तिलीका तेल ही खाया है, कभी भी नहीं खाया, यह तिलीफे तेलकी ही प्रदांसा (तारोफ) करेगा, क्योंकि उसको दृष्टि में दूसरी कोई श्रेष्ठ वस्तु है ही नहीं उसीका संस्कार है। इसी तरह जिसको वषयिक सुखका ही अनाहिसे स्वाद आया है अर्थात् जो परारित व्यवहार में ही लीन हो रहा है या पग रहा है किन्तु कभी स्वामित निश्चयरूप आत्मिक सुखका स्वाद नहीं मिला है यह कभी उसकी चाह, मचि या प्रशंसा नहीं करेगा, यह स्वाभाविक संस्कार है । पीलिया रोगीकी तरह (अशुद्ध दृधि वाले को तरह ) यथार्थ वस्तु को देख नहीं सकता इत्यादि समझना ।
*बस, उन्न प्रकारके कथनका नाम हो 'स्यावाद है । अर्थात् वस्तुमें परस्पर सापेक्ष ( संधिपूर्वक ) रहने वाले अनेक धर्मोंका शब्दशक्तिके अनुसार क्रमशः कथन करना 'स्याद्वाद' कहलाता है। इसीका दूसरा माम कथंचिट्ठाद या अपेक्षावाद है । और अनेकान्तबाद उसका विषय है।
१. इसीका नाम 'स्यात्नय' है । अर्थात् क्रम-कापसे अनेक धर्मोको जानना, कारण कि भायोपशमिक शानके अंशोंका यही स्वभावहै ( शक्ति है कि थोड़ा-थोड़ा परस्पर सापेक्ष जानना । इस प्रकार 'स्यावाद या स्यात् नय, वस्तु ( पदार्थ ) को जानने व कहने वाला है इति ।