________________
१. सम्यग्दर्शनाधिकार है। सभी जीव सुख-शान्ति चाहते हैं, दुःख व अशान्ति नहीं चाहते, परन्तु इष्टसिद्धि चाहने मात्रसे नहीं होती। जब तक कि सच्चा उपाय न किया जाय । ऐसी स्थिति में सच्चा उपाय या मार्ग बताने वाले सद्गुरु ही होते हैं, जो ज्ञान-वैराग्य सम्पन्न हैं एवं कुशल वक्ता हैं सथा जिनके स्वपर कल्याणको भी भावना है। इसीलिये उनका कहना है कि सबसे पहले कल्याणार्थी जीवोंको निश्चय और व्यवहार का भेदरूप सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और उसके लिये सभी अनुयोगोंके शास्त्रोंका अध्ययन, मनन, धारण करना चाहिये तथा सबका निष्कर्ष निकालकर अन्तर निकालना चाहिये। उसमें जो उपादेय हो उसको ग्रहण करना चाहिये और जो हेय हो उसको छोड़ देना चाहिये। परन्तु निर्णय या परीक्षा बिना यह कार्य नहीं हो सकता है। उसके लिये बाह्य निमित्त मिलानेका एमया करना चाहिये । शास्त्र पढ़ना, प्रमाण-नय-निक्षेप आदिके स्वरूपको जानना, स्मरण रखना, हेय, उपादेय व उपेक्षणीय इन तीन तरहके सेयोंका आनना अनिवार्य है । पश्चात् तदानुकूल क्रिया करना आवश्यक है, ऐसी स्थिति में नयोंका यथार्थ स्वरूप समझना मुख्य कर्तव्य है।
यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि जब लोकव्यवहार था लोकयात्राको चलाने के लिये प्रमाण, मथ और निक्षेप ने तीन साधन माने जाते हैं तब उनमें से पहिले नय-साधनपर जोर क्यों दिया जाता है ? इस समाधान यह है कि जब सारा संसार अज्ञान अंधकारसे व्याप्त हो तथा पूर्ण प्रकाशका मिलना असंभव हो तबएस गाढांधकारके समय कार्य चलानेको तारागणों ( तरइयों) का या छोटे-छोटे दीपकोंका उजेला ( प्रकाश ) ही सहायक या समर्थ होता है किन्तु वह प्रकाश स्पष्ट या निर्मल होना चाहिये, धूमिल या कुहरा जैसा मलीन नहीं होना चाहिए, जिसमें स्पष्ट न दिख पढ़े एवं टकराने की या भूल-भटक हो जानेको संभावना न हो । ठीक उसी तरह अनादिकालसे अज्ञान-अंधकार द्वारा व्याप्त लोकके प्राणियोंको आंशिक कामचलाऊ या लोकव्यवहारचलाक ज्ञान (नयरूप आंशिकज्ञान ) होना अनिवार्य है और वही शक्य व संभव है। परन्तु वह नयरूप आंशिकज्ञान भी स्पष्ट व निर्मल होना चाहिये, धूमिल ( मलीन ) या धोखा देने वाला कुहाकी तरह नहीं होना चाहिए, तभी प्रयोजन या लोकयात्रा या इष्टसिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं । फलतः लोकयात्राके मुख्य साधन नयोंका ठीक-ठीक ज्ञान होना अनिवार्य है क्योंकि वे ही प्रगाढ़ अज्ञानांधकार में हर प्राणियोंको निकालने में समर्थ हैं। इसीसे सदगुरु आचार्य अधिक जोर देते हैं कि निश्चय और व्यवहार दोनों नयों का ज्ञाता होना चाहिए । यद्यपि आरम्भमें व्यवहार अपेक्षणीय है, परन्तु समर्थ अवस्थामें उससे लक्ष्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। अर्थात् उस व्यवहाररूप अशुद्ध मान्यतासे शुद्ध स्वरूप वस्तुकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती, जो अभीष्ट है, क्योंकि शुद्धसे ही शुद्धकी प्राप्ति होती है। इस यथार्थ निर्णय या सिद्धान्तके बल पर ही वस्तुको या लोककी व्यवस्था निराबाध चलती आई है व आगे भी चलेगी । सत्य हमेशा सत्य रहता है और असत्य असत्य ही रहता है। तदनुसार जब जीब ( आत्मा ) के सत्यनय ( निश्चयनय ) का उदय' या प्रकाश होता है, तभी उसे अपना या दूसरेका यथार्थ रूप अथवा शुद्ध स्वरूप दिखने लगता है और उसीका श्रद्धान या विश्वास होने लगता है एवं वही उसे सुहाता है दूसरा कुछ नहीं सुहासा अर्थात् यही