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१. सम्यग्दर्शनाविकार और विवक्षाका भेद व समझने का भेद रह रहा है, एकता स्थापित नहीं होती। फलत: विवाद खड़ा हो जाता है, इत्यादि अनेक कारण बाधक होनेसे जैनधर्मका प्रचार दिन-प्रतिदिन घटता जाता है, यह दुःख व पश्चात्तापकी बात है।
इसी प्रकार आचार्य अनेकान्तरूप वस्तुको सिद्धि करते है । यथा---
विवक्षिसी मुख्य इतीप्यतेऽन्यो गुणोऽसिवक्षा न मिरास्मकस्से । सथारिमित्रानु भन्यादिशक्ति यायधेः कार्यकरं हि वस्तु ।
ऋ० स्वयंभू. ५३ । अर्थ-पदार्थोंके जिस धर्म या अंशका उपदेश या कथन किया जाता है वह मुख्य या विवक्षित कहा जाता है तथा जिस धर्मका कथन न किया जाय, वह गौण ( उपचरित) या अविवक्षित माना जाता है किन्तु नष्ट नहीं हो जाता अर्थात् वस्तुके मुख्य व गौण दोनों धर्म परस्पर साक्ष ( एक दूसरे की अपेक्षासे) रहते हैं, जो अनेकान्त का सूचक है। जैसे कि एक ही देवदत्त किसीका शत्रु है तो किसीका मित्र है और किसी का न शत्र है न मित्र है ( अनुभयरूप है ), फलत: अनेक धर्म वाला है । सारांश यह कि विरोधी दो आदि अनेक धर्मवाली वस्तु या अनेक धर्मवाला पदार्थ ही कार्यकारी होता है, एक धर्मवाला नहीं, पदार्थ स्वभावतः सामान्य-विशेषरूप या उत्पाद-व्यय-धीच्यरूप है या गुणपर्यायरूप। दूसरे शब्दोंमें निश्चयव्यवहाररूप या मुख्-गौणरूप या विवक्षित-अविवक्षिारूप है। इस प्रकार जो सभी बातोंका ज्ञान रखता हो, अनेकान्तसे परिचित हो, युक्ति-आगम कुशल हो वही संसारमें धर्मका प्रचार कर सकता है ।(प्रारम्भमें किसीको समझाते समय व्यवहारी बैंगसे ही दृष्टान्त वगैरह देकर द्रव्य या पदार्थका यथार्थ बोध कराया जाता है) अतः वह कचित् प्रयोजनीय होता है, किन्तु जब वही जीव पदार्थका असली स्वरूप जान लेता है तब अपने आप वस्तुके नकली स्वरूप व उसके प्रदर्शक साधनोंसे उपेक्षा हो जाती है ---हेयबुद्धि कर लेता है। निश्चयका ज्ञाता व रुचिया
१. जो जिमयं पविज्जइ तामा व्यवहारणिच्चयो भुयाए ।
एक्शेण विणा छिज्जद तिस्थ अण्णोण उप सच्चं ॥
॥ क्षेपक समयसारे
अर्थ---जो जीव जिज्ञासु होकर जिनमत या जिनधर्मको जानना चाहता है उसका कत्तव्य है कि वह यथावसर निश्चय घ व्यवहार दोनों नोंका सहारा ( आश्रय ) लेबे अर्थात् दोनोंके स्वरूपको समझे और वत्तविमें लाये । किन्तु बरावरीका दोनोंको न समझे, न हमेशा उपादेय माने । हाँ, हीनदशामें रहते समय यदि व्यवहार कार्य ( क्रिया या प्रवृतिरूप धर्म सुभराम ) छोड़ दिया जाय तो तीर्थयात्रा आदि बाह प्रभावना मिट जायगी, यह हानि होगी तथा निश्चय कार्य या धर्म ( लत्त्वनिर्ण यरूप स्वभाष ) को छोड़ दिया जाय तो वीतराग सत्यता नष्ट हो जायगी सत्य-असत्यका भेद ही न रहेगा इत्यादि हानि होगी। फलतः व्यवहार और निश्चयका ज्ञासा अवश्य होना चाहिए, वहीं जिनमतको धारण-पालन कर सकता है, यह मूल श्लोकका भाव या आशय ( रहस्य ) है, इति ।