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१. सम्यग्दर्शनाधिकार उपायमें भूले हुए हैं, इसलिये उपेय ( साध्य ) की सिद्धि कदापि नहीं हो सकती, न उस भूलके कारण अभी तक हो पाई है। सिर्फ चाह कर लेनेसे ही कार्य सिद्ध नहीं होता, जब तक उपाय न किया जाय । यद्यपि वस्तुका संयोग-वियोग होगा अर्थात् कार्य सिद्ध होना व न होना स्वतंत्र है, परतन्त्र नहीं है, जब जैसा होना है तभी तैसा होगा, यह निश्चय है तथापि श्रद्धा में यह विश्वास रखते हुए भी परीक्षाके तौर पर या कषायके वश होकर संयोगीपर्याय में जीवोंके कर्मधारा बहती है अर्थात् कुछ करमे धरनेका भाव या विकल्प अवश्य हुआ करता है और उसको पुत्तिके लिये जीव तरह-तरहके प्रयत्न या पुरुषार्थ भी करता है अतएवं उपाय करना कोई आश्चर्यकी चीज नहीं है न मिथ्याकी निशानी है, कारणकि अन्तरंगमें वस्तुस्वभावको दृढ़ श्रद्धा रखते हुए विवश अरुचि या अनिच्छापूर्वक वह वैसा करता है अर्थात् वह उसका स्वामी या कर्ता नहीं बनता, यह विशेषता उसके रहा करती है इत्यादि विवेकशीलता है जो विवेककी हमेशा रक्षा करती
यही सब सोच-विचार कर आचार्य महाराजने भी अपने उद्धारका और अन्य जीवोंके उद्धारका उपाय, इस ग्रन्थको बनाकर तथा उसमें हितकी बातें ( धर्मका सच्चा स्वरूप ) लिखकर और अहितको वाते ( धर्मका मिथ्या स्वरूप ) निकालकर जीवोंको लक्ष्य कर उपदिष्ट किया है एवं उनका ध्यान आकर्षित किया है तथा उसमें लगाया है अर्थात् जीवोंको धर्म ( कल्याण के उपाय ) के विषयमें सम्यकथावान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् आचरण कराया है या कराना चाहते हैं। बस, यही उनका अभिधेय है जो इस ग्रन्थ में उत्तरोत्तर दर्शाया गया है, यही उनको प्रतिज्ञा, अभिलाषा या हार्दिक इच्छा रही है व अन्त तक उसका निर्वाह किया गया है। इस अन्य में मुख्यतया रत्नत्रय या सम्यग्दर्शनादित्रयका ही वर्णन किया गया है तथा उसीके सिलसिलेमें उसके .. निमित्त व भेद व अतिचार आदिका भी अतीव विशेषताके साथ कथन किया गया है जो दर्शनीय अनुभवनीय एवं करणीय है । फलतः यह ग्रन्थ अनुपम है, निश्चय धर्म ( कर्तव्य ) और व्यवहारका बड़े मार्मिक शब्दों द्वारा स्वरूप बताया गया है, अतः यह बेजोड़ है । वीतरागता व विज्ञानता ( मिथ्यात्वका छूटना ) ही धर्म है तथा सरागता च अज्ञानता (मिथ्यात्वपन ) ही अधर्म है ॥३॥
श्री अमृतचन्द्राचार्य यह बताते हैं कि संसारमें धर्मतीर्थ ( रथ ) को चलाने वाले या । प्रसार करने वाले सन्त-महात्मा कैसे होना चाहिये
मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनयदुर्योधाः । व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ।। ४ ।।
पञ्च मुख्य और उपचार कथन कर जन-अज्ञान मिटाते हैं । ऐसे ज्ञाता व्यवहार-निइन्नय, जगमें तीर्थ चलाते हैं।