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वंशतितमं पर्व
इत्याचार्यस्य वचनं श्रुत्वा कुण्डलमण्डितः । मन्दभाग्यतया शक्त्या रहितोऽणुव्रतेष्वपि ॥ १०४॥ प्रणिपत्य गुरुं मूर्ध्ना मधुमांसविवर्जनम् । जग्राह शरणोपेतं समीचीनं च दर्शनम् ॥ १०५ ॥ कृत्वा चैये नमस्कारं गुरोर्दिग्वाससां तथा । निष्क्रान्तः स ततो देशादिति चिन्तामुपागतः ॥ १०६ ॥ मातुः सहोदरो भ्राता कृतान्तसमविक्रमः । ध्रुवं मे सीदतः सोऽयं भविष्यत्यवलम्बनम् ॥१०७॥ राजा भूत्वा पुनः शत्रुं जेष्यामीति सुनिश्चितः । आशां वहन् प्रवृत्तोऽसावातुरो दक्षिणापथम् ॥ १०८ ॥ श्रमादिदुःखपूर्णस्य व्रजतोऽस्य शनैः शनैः । उदीयुर्व्याधयो देहे पापैरन्यभवार्जितैः ॥१०९ ॥ सन्धिषु च्छिद्यमानेषु भिद्यमानेषु मर्मसु । सर्वस्य जगतोऽत्राणं मरणं तस्य ढौकितम् ॥ ११० ॥ मुञ्चते समये यस्मिन् जीवं कुण्डलमण्डितः । तत्रैव च्यवते देवः शेषपुण्याद्दिवश्च्युतः ॥ १११ ॥ गर्भं च तौ विदेहाया विधिना परियोजितौ । पश्य कर्मानुभावस्य विचित्रमिति चेष्टितम् ॥११२॥ एतस्मिन्नस्तरे साधु कालं कृत्वा स पिङ्गलः । तपोबलान्महातेजा महाकालोऽसुरोऽभवत् ॥ ११३ ॥ भवनेऽवधिना स्मृत्वा धर्मस्य च फलोदयम् । दध्यौ चित्तोत्सवा क्वेति तावज्जज्ञे यथाविधि ॥ ११४ ॥ दुष्टा किं तथा कृत्यं कासौ कुण्डलमण्डितः । येनाहं प्रापितोऽवस्थां विधुरां विरहार्णवे ॥ ११५ ॥ पन्यां जनकराजस्य गर्भमाश्रित्य मण्डितः । साकमन्येन जीवेन विवेद स्थित इत्यसौ ॥ ११६ ॥ सूतां तावदियं देवी युगलं किं ममानया । गर्भद्वितययोगिन्या मृतयास्ति प्रयोजनम् ॥ ११७ ॥
प्राप्त करता है || १०३ || इस प्रकार आचार्यके वचन सुनकर कुण्डलमण्डित मन्द भाग्य होनेसे अणुव्रत धारण करने के लिए भी समर्थ नहीं हो सका || १०४ || अतः उसने शिरसे गुरुको नमस्कार कर मधुमांसका परित्याग किया और शरणभूत सम्यग्दर्शन धारण किया || १०५ ||
तदनन्तर जन-प्रतिमा और दिगम्बराचार्यको नमस्कार कर वह ऐसा विचार करता हुआ उस देश से बाहर निकला कि मेरी माताका सगा भाई यमराज के समान पराक्रमका धारी है सो वह विपत्ति में पड़े हुए मेरी अवश्य ही सहायता करेगा। मैं फिरसे राजा होकर निश्चित ही शत्रुको जीतूंगा । ऐसी आशा रखता हुआ वह कुण्डलमण्डित दुःखी हो दक्षिण दिशाकी ओर चला ||१०६-१०८।। वह थकावट आदि दुःखोंसे परिपूर्ण होनेके कारण धीरे-धीरे चलता था । बीच में पूर्वभवमें संचित पाप कर्मके उदयसे उसके शरीर में अनेक रोग प्रकट हो गये ||१०९ || उसकी सन्धियाँ छिन्न होने लगीं और मर्म स्थानोंमें भयंकर पीड़ा होने लगी । अन्तमें समस्त संसार जिससे नहीं बचा सकता ऐसा उसका मरण आ पहुँचा ॥ ११० ॥ जिस समय कुण्डलमण्डितने प्राण छोड़े उसी समय चित्तोत्सवाका जीव जो स्वर्ग में देव हुआ था शेष पुण्य के प्रभाव स्वर्ग से च्युत हुआ ॥ १११ ॥
भाग्यवश वे दोनों ही जीव राजा जनककी रानी विदेहाके गर्भ में उत्पन्न हुए । गौतमस्वामी कहते हैं कि अहो श्रेणिक ! कर्मोदयकी यह विचित्र चेष्टा देखो ॥ ११२ ॥ इसी बीचमें वह पिंगल ब्राह्मण अच्छी तरह मरण कर तपके प्रभावसे महातेजस्वी महाकाल नामका असुर हुआ ||११३ | | उसने उत्पन्न होते ही अवधिज्ञानसे धर्मके फलका विचार किया और साथ ही इस बातका ध्यान किया कि चित्तोत्सवा कहाँ उत्पन्न हुई है ? वह अपने अवधिज्ञानसे इन सब बातों को अच्छी तरहसे जान गया | ११४ || फिर कुछ देर बाद उसने विचार किया कि मुझे उस दुष्टसे क्या प्रयोजन है ? वह कुण्डलमण्डित कहाँ है जिसने मुझे विरहरूपी सागर में गिराकर दुःखपूर्ण अवस्था प्राप्त करायी थी ॥ ११५ ॥ उसने अवधिज्ञानसे यह जान लिया कि कुण्डलमण्डित राजा जनककी पत्नी के गर्भ में चित्तोत्सवाके जीवके साथ विद्यमान है ॥ ११६ ॥ | उसने विचार किया
१. चैत्यनमस्कारं ब. । २. सततं ख. ।
३ - न विद्यते त्राणं यस्मात्तत्, व. पुस्तके टिप्पणम् । ४. तस्मिन्
म. । ५. देवी शेपपुण्याद्दिवः सती ब
।
६. चित्तौ म । ७. यस्य म. ।
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