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षड्विंशतितमं पर्व अधस्तस्याः क्षितेरन्या दारुणः षट् च भूमयः । नारका यासु पापस्य भुञ्जन्ते कर्मणः फलम् ॥७॥ कुरूपा दारुणारावा दुःस्पर्शा ध्वान्तपूरिताः । उपमोज्झितदुःखाना कारणीभूतविग्रहाः ॥७८॥ कुम्भीगकाख्यमाख्यातं नरकं भीमदर्शनम् । नदी वैतरणी घोरा 'शाल्मली करकण्टका ॥७९॥ असिवनच्छन्नाः क्षुरधाराश्च पर्वताः । ज्वलदग्निनिमास्तीक्ष्णलोहकीला निरन्तराः ॥८॥ तेषु ते तीव्रदुःखानि प्राप्नुवन्ति निरन्तरम् । प्राणिनो मधुमांसादा घातकाश्चासुधारिणाम् ॥८१॥ नास्त्यर्धाङ्गुलमानोऽपि प्रदेशस्तत्र दुःखितः । क्रियते नारकैर्यत्र निमेषमपि विश्रमः ॥८२॥ प्रच्छन्नमिह तिष्टाम इति वात्वा पलायिताः । हन्यन्ते निर्दयैरन्यैर्नारकैरमरैश्च ते ॥४॥ ज्वलदङ्गारकुटिले दग्धा मत्स्या इवानिले । विरसं विहिताक्रन्दा विनिःसृत्य कथंचन ॥८४॥ नारकाग्निभयग्रस्ताः प्राप्ता वैतरणीजलम् । चण्डक्षारोमिमियो दह्यन्ते वह्नितोऽधिकम् ।।८।। असिपत्रवनं याताश्छायाप्रत्याशया दूतम् । पतद्भिस्तत्र दार्यन्ते चक्रखड्गदादिभिः ॥८६॥ विच्छिन्ननासिकाकर्णस्कन्धजङ्घादिविग्रहाः । कुम्भीपाके नियुज्यन्ते वान्तशोणितवर्षिणः ॥८७।। प्रपीड्यन्ते च यन्त्रेषु क्रूरारावेषु विह्वलाः । पुनः शैलेषु भिद्यन्ते तीक्ष्णेषु विरसस्वराः ॥८॥ उल्लध्यन्तेऽतितुङ्गेषु पादपेष्वन्धकारिषु । ताड्यन्ते मुदगरावातैमहद्भिर्मस्तके तथा ॥८९|| जलं प्रार्थयमानानां तृष्णार्तानां प्रदीयते । ताम्रादिकललं तेन दग्धदेहाः सुदुःखिताः ॥९॥
कहलाते हैं तथा ये दुष्ट कार्य करनेवाले होते हैं ।। ७५-७६।। रत्नप्रभा पृथिवीके नीचे छह भयंकर पृथिवियाँ और हैं जिनमें नारकी जीव पाप कर्मका फल भोगते हैं ॥७७॥ वे नारकी कुरूप होते हैं, उनके शब्द अत्यन्त दारुण होते हैं, वे अन्धकारसे परिपूर्ण रहते हैं तथा उनके शरीर उपमातीत दुःखोंके कारण हैं |७८। उन पृथिवियोंमें कुम्भीपाक नामका भयंकर नरक है, भय उत्पन्न करनेवाली वैतरणी नदी है, तथा तीक्ष्ण काँटोंसे युक्त शाल्मली वृक्ष है ॥७९।। असिपत्र वनसे आच्छादित तथा क्षुरोंकी धारके समान तीक्ष्ण पर्वत हैं और जलती हुई अग्निके समान निरन्तर लोहेकी तीक्ष्ण कीलें वहाँ व्याप्त हैं ।।८०॥ मधु मांस खानेवाले तथा प्राणियोंका घात करनेवाले जीव उन नरकोंमें निरन्तर तीव्र दुःख पाते रहते हैं ।।८१।। वहाँ अर्ध-अंगुल प्रमाण भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहाँ दःखी नारकी निमेषमात्रके लिए भी विश्राम कर सकें ॥८२॥ 'हम यहाँ छिपकर रहेंगे' ऐसा सोचकर नारकी भागकर जाते हैं पर वहींपर दयाहीन अन्य नारकी और दुष्ट देव उनका घात करने लगते हैं ।।८३।। जिस प्रकार जलते हुए अंगारोंसे कुटिल अग्निमें जलते हुए मच्छ विरस शब्द करते हैं उसी प्रकार नारकी भी अग्निमें पड़कर विरस शब्द करते हैं। यदि अग्निके भयसे भयभीत हो किसी तरह निकलकर वैतरणी नदोके जलमें पहुँचते हैं तो अत्यन्त खारी तरंगोंके द्वारा अग्निसे भी अधिक जलने लगते हैं ।।८४-८५|| यदि छायाकी इच्छासे शीघ्र ही भागकर असिपत्र वनमें पहुंचते हैं तो वहाँ पड़ते हुए चक्र, खड्ग, गदा आदि शस्त्रोंसे उनके खण्ड-खण्ड हो जाते हैं ||८६|| जिनके नाक, कान, स्कन्ध तथा जंघा आदि अवयव काट लिये गये हैं तथा जो निकलते हुए खूनकी मानो वर्षा करते हैं ऐसे उन नारकियोंको कुम्भीपाकमें डाला जाता है अर्थात् किसी घड़े आदिमें भरकर उन्हें पकाया जाता है ।।८७॥ जिनसे क्रूर शब्द निकल रहा है ऐसे कोल्हुओंमें उन विह्वल नारकियोंको पेल दिया जाता है फिर तीक्ष्ण नुकीले पर्वतों पर गिराकर उनके टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं जिससे वे विरस शब्द करते हैं ॥८८॥ अन्धा कर देनेवाले बहुत ऊँचे वृक्षोंपर उन्हें चढ़ाया जाता है तथा बड़े-बड़े मुद्गरों की चोटसे उनका मस्तक पीटा जाता है ।।८९।। जो नारको प्याससे पीड़ित होकर पानी मांगते १. शाल्मली क्रूरकण्टका क.। २. मांसादिघातका म.। ३. चन्द्र म.। तीव्र ब.। ४. पाकेन युज्यन्ते । ५. दान्त म. । वात ब.।
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