Book Title: Padmapuran Part 2 Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain Publisher: Bharatiya GyanpithPage 26
________________ पापुराणे ब्रुवते नास्ति तृष्णा न इत्यतोऽपि बलादमी। पाय्यन्ते तदतिकरैः संदंशब्यावृताननाः ॥९॥ प्रपात्य भूतले भूयो वक्षस्याक्रम्य दीयते । पादः क्रूरवचोभिस्तैस्तेषां कल्मषकर्मणाम् ॥१२॥ तेषां निर्दग्धकण्ठानां दधते हृदयं पुनः । निष्कामन्ति पुरीतति निर्भिद्य जठरं सह ॥१३॥ परस्परकृतं दुःखं तथा भवनवासिभिः । नरका यत्प्रपद्यन्ते कस्तद्वर्णयितुं क्षमः ॥९४॥ इति ज्ञात्वा महादुःखं नरके मांससंमवम् । वर्जनीयं प्रयत्नेन विदुषा मांसमक्षणम् ॥१५॥ अत्रान्तरे जगादेवं कुण्डलस्वस्तमानसः । नाथाणुव्रतयुक्तानां का गतिर्दृश्यते वद ॥९६॥ गुरुरूचे न यो मांसं खादत्यतिदृढव्र रः । तस्य वक्ष्यामि यत्पुण्यं सम्यग्दृष्टेर्विशेषतः ॥९॥ उपवासादिहीनस्य दरिद्रस्यापि धीमतः । मांसभुक्तनिवृत्तस्य सुगतिहस्तवर्तिनी ॥१८॥ यः पुनः शीलसंपन्नो जिनशासनमावितः । सोऽणुव्रतधरः प्राणी सौधर्मादिषु जायते ॥१९॥ अहिंसा प्रवरं मूलं धर्भस्य परिकीर्तितम् । सा च मांसान्निवृत्तस्य जायतेऽत्यन्त निर्मला ॥१०॥ दयावान् सङ्गवान् योऽपि म्लेच्छश्चाण्डाल एव वा । मधुमांसान्निवृत्तः सन् सोऽपि पापेन मुच्यते ॥१०॥ मुक्तमात्रः स पापेन पुण्यं गृह्नाति मानवः । जायते पुण्यबन्धेन सुरः सन्मनुजोऽथवा ॥१०२॥ सम्यग्दृष्टिः पुनर्जन्तुः कृत्वाणुव्रतधारणम् । लमते परमान्भोगान् ध्रुवं स्वर्गनिवासिनाम् ॥१०३॥ हैं उनके लिए तामा आदि धातुओंका कलल ( पिघलाया हुआ रस ) दिया जाता है जिससे उनका शरीर जल जाता है तथा अत्यन्त दुःखी हो जाते हैं ।।१०।। यद्यपि वे कहते हैं कि हमें प्यास नहीं लगी है तो भी जबर्दस्ती संडाशीसे मुँह फाड़कर उन्हें वह कलल पिलाया जाता है ॥९१।। पाप करनेवाले उन नारकियोंको जमीनपर गिराकर तथा उनकी छातीपर चढ़कर दुष्ट वचन बोलते हुए बलवान् नारकी उन्हें पैरोंसे रूंदते हैं ।।९२॥ पूर्वोक्त कललपानसे उन नारकियोंके कण्ठ जल जाते हैं तथा हृदय जलने लगते हैं। यही नहीं पेट फोड़कर उनकी आंते भी बाहर निकल आती हैं ।।९३।। इसके सिवाय भवनवासी देव उन्हें परस्पर लड़ाकर जो दुःख प्राप्त कराते हैं उसका वर्णन करने के लिए कौन समर्थ है ? ॥९४|| इस तरह मांस खानेसे नरकमें महादुःख भोगना पड़ता है ऐसा जानकर समझदार पुरुषको प्रयत्नपूर्वक मांसभक्षणका त्याग करना चाहिए ॥९५।। इसी बीचमें जिसका मन अत्यन्त भयभीत हो रहा था ऐसे कुण्डलमण्डितने कहा कि हे नाथ ! अणुव्रतसे युक्त मनुष्योंकी क्या गति होती है सो कहिए ॥९६।। इसके उत्तरमें गुरु महाराजने कहा कि जो मांस नहीं खाता है तथा अत्यन्त दृढ़तासे व्रत पालन करता है उसे तथा खासकर सम्यग्दृष्टि मनुष्यको जो पुण्य होता है उसे कहता हूँ ॥९७|| जो बुद्धिमान् मनुष्य मांस-भक्षणसे दूर रहता है भले ही वह उपवासादिसे रहित हो तथा दरिद्र हो तो भी उत्तम गति उसके हाथमें रहती है ॥९८।। और जो शीलसे सम्पन्न तथा जिनशासनकी भावनासे युक्त होता हुआ अणुव्रत धारण करता है वह सौधर्मादि स्वर्गोंमें उत्पन्न होता है ।।९९॥ धर्मका उत्तम मूल कारण अहिंसा कही गयी है। जो मनुष्य मांस-भक्षणसे निवृत्त रहता है उसीके अत्यन्त निर्मल अहिंसा-धर्म पलता है ॥१००॥ जो परिग्रही म्लेच्छ अथवा चाण्डाल भी क्यों न हो यदि दयालु है और मधु-मांसभक्षणसे दूर रहता है तो वह भी पापसे मुक्त हो जाता है ॥१०१।। ऐसा जीव पापसे मुक्त होते ही पुण्य-बन्ध करने लगता है और पुण्य-बन्धके प्रभावसे वह देव अथवा उत्तम मनुष्य होता है ||१०२।। यदि सम्यग्दृष्टि मनुष्य अणुव्रत धारण करता है तो वह निश्चित ही देवोंके उत्कृष्ट भोग १. अस्माकम् । २. व्यावृताननः म. । ३. प्रयात्य म.। ४. वक्षस्याक्रम म. । ५. ९२-९३ श्लोकयोरयं पाठः 'ब' पुस्तकसंमतः । पुस्तकान्तरेषु वित्थं पाठोऽस्ति 'प्रपात्य भूतले भूयो वक्षस्याक्रमदीयते । तेषां निर्दग्धकण्ठानां दह्यते हृदयं पुनः ।।९२।। निष्क्रामन्ति पुरीतन्ति निभिद्य जठरं सह । ज्वलता कललेनाशु नेपां कलपुकर्मणाम् ॥९३॥ ६. अन्त्राणि । ७. यथा म. । ८. विभः क., ख., ग.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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