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षड्विंशतितम पर्व
नक्तंदिवमशुष्यत् स तत्पराजयचिन्तया । अनादरेण शारीरमपि कर्म प्रपन्नवान् ॥५०॥ ततोऽसौ बालचन्द्रेण सेनान्या जास्वभाष्यत । उद्विग्न इव कस्मात्त्वं सततं नाथ लक्ष्यसे ॥५१॥ उद्वेगकारणं भद्र मम मण्डितकः परम् । इत्युक्ते बालचन्द्रेण प्रतिज्ञेयं समाश्रिता ॥५२॥ राजन्नसाधयित्वा तं पापं मण्डितकं तव । सकाशं नागमिष्यामि व्रतमेतन्मया कृतम् ॥५३॥ इति राज्ञः पुरः कृत्वा संगरं रोषमुद्वहन् । बलेन चतुरङ्गेण सेनानीगन्तुमुद्यतः ॥५४॥ चित्तोत्सवासमायुक्तचित्तो मुक्तान्यचेष्टितः । प्रमादबहुलो मिन्नमूलभृत्पक्षतायतिः ॥५५॥ अज्ञातलोकवृत्तान्तो मण्डितः खण्डितोद्यमः । हेलया बालचन्द्रण गत्वा बद्धो मृगो यथा ॥५६॥ गृहीतबलराज्य तं निर्वास्य विषयात् कृती । बालचन्द्रोऽनरण्यस्य समीपं पुनरागमत् ॥५७॥ ततस्तेन सुभृत्येन कृतसुस्थवसुन्धरः । परं प्रमोदमापन्नोऽनरण्यः सुखमन्वभूत् ॥५८॥ शरीरमात्रधारी तु मण्डितः पादचारकः । पर्यटन् धरणी दुःखी पश्चात्ताप-समाहतः ॥५९॥ परिणाप्याश्रमपदं श्रमणानां महात्मनाम् । नरवा च शिरसाचार्य धर्म पप्रच्छ भावतः ॥६॥ दुःखितानां दरिद्राणां वर्जितानां च बान्धवैः । व्याधिसंपीडितानां च प्रायो भवति धर्मधीः ॥६१॥ प्राज्ये यस्य भगवन् शक्तिर्जन्तोन विद्यते । परिग्रहपरस्यास्य धर्मः कश्चिन्न विद्यते ॥६२।।
सो ठीक ही है क्योंकि पहाड़के बिल में स्थित चहेका सिंह क्या कर सकता है ? ॥४९|| वह रातदिन उसीके पराजयको चिन्तासे सूखता जाता था। भोजन, पान आदि शरीर-सम्बन्धी कार्य भी वह अनादरसे करता था ।।५०॥
तदनन्तर किसी दिन उसके बालचन्द्र नामा सेनापतिने उससे कहा कि हे नाथ! आप सदा उद्विग्न-से क्यों दिखाई देते हैं ? ॥५१॥ इसके उत्तरमें राजा अनरण्यने कहा कि हे भद्र ! मेरे उद्वेगका परम कारण कुण्डलमण्डित है। राजाके यह कहनेपर बालचन्द्र सेनापतिने यह प्रतिज्ञा की कि हे राजन् ! 'पापी कुण्डलमण्डितको वश किये बिना मैं आपके समीप नहीं आऊँगा' मैंने यह व्रत लिया है ।।५२-५३॥ इस प्रकार राजाके सामने प्रतिज्ञा कर क्रोध धारण करता हुआ सेनापति चतुरंग सेनाके साथ जानेके लिए उद्यत हुआ ।।५४॥
उघर चित्तोत्सवामें जिसका चित्त लग रहा था ऐसा कुण्डलमण्डित अन्य सब चेष्टाएँ छोड़कर प्रमादसे परिपूर्ण था। उसके मन्त्री आदि मूल पक्षके सभी लोग उससे भिन्न हो चुके थे। लोकमें कहाँ क्या हो रहा है ? इसका उसे कुछ भी पता नहीं था। सब प्रकारका उद्यम छोड़कर वह एक स्त्रीमें ही आसक्त हो रहा था। सो अनरण्यके सेनापति बालचन्द्रने जाकर उसे मृगकी भाँति अनायास ही बांध लिया ॥५५-५६।। चतुर बालचन्द्र उसकी सेना और राज्यपर अपना अधिकार कर तथा उसे देशसे निकालकर अनरण्यके समीप वापस आ गया ॥५७।। इस प्रकार उस उत्तम सेवकके द्वारा जिसकी वसुधामें पुनः सुख-शान्ति स्थापित की गयी थी ऐसा अनरण्य परम हर्षको प्राप्त होता हुआ सुखका अनुभव करने लगा ॥५८।।
कुण्डलमण्डितका सब राज्य छिन गया था, शरीर मात्र ही उसके पास बचा था। ऐसी दशामें वह पैदल ही पृथिवीपर भ्रमण करता था, सदा दुःखी रहता था और पश्चात्ताप करता रहता था ॥५९॥
एक दिन वह भ्रमण करता हुआ दिगम्बर मुनियोंके तपोवन में पहुंचा। वहाँ आचार्य महाराजको शिरसे नमस्कार कर उसने भावपूर्वक धर्मका स्वरूप पूछा ॥६०।। सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी, दरिद्री, भाई-बन्धुओंसे रहित ओर रोगसे पीड़ित मनुष्योंकी बुद्धि प्रायः धर्ममें लगती ही है ।।६१।। उसने पूछा कि हे भगवन् ! जिसको मुनिदीक्षा लेनेकी शक्ति नहीं है उस १. तत्परो जय म. । २. हे राजन् ! असाधयित्वा = तं स्ववशमकृत्वा । ३. पापमहितकं ख. । ४. देशात् ।
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