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षड्विंशतितम पर्व अमात्यं धूर्तमाहूय समायं पार्थिवोऽब्रवीत् । चिराय मा कृथा माम जायास्यान्विष्यतामिति ॥२३॥ जगारेति च तत्रैकः सविकारेण चक्षुषा । सा दृष्टा पथिकैर्देव पौदनस्थानवर्मनि ॥२४॥ क्षान्त्यार्यावृन्दमध्यस्था तपः कतु समुद्यता । विनिवर्तय तां क्षिप्रं किं विरौषि व्रज द्विज ॥२५॥ को वा प्रानज्यकालोऽस्या दधत्यास्तरुणीं तनुम् । वरस्त्रीगुणपूर्णाया हरन्यास्तरुणं जनम् ॥२६॥ इत्युक्ते द्विज उत्थाय बद्ध्वा परिकरं दृढम् । दधाव रंहसा विद्धो भ्रष्टाश्वतरको यथा ॥२७॥ पौदने नगरेऽन्विष्य चैत्येषूपवनेषु च । अदृष्वा पुनरागच्छद् विदग्धनगरं द्रुतम् ॥२८॥ नृपाज्ञया नरैः क्रूरैर्गलघातैः स तर्जनैः । यष्टिलोटप्रहारैश्च दूरं निर्वासितो भृशम् ॥२९॥ स्थानभ्रंशं परिक्लेशमवमानं वधं तथा । अनुभूय परं दीर्घमध्वानं स प्रपन्नवान् ॥३०॥ रतिं न लमते क्वापि रहितः प्रियया तया । शुष्यत्यहनि रात्रौ च पतितोऽग्नाविवोरगः ॥३१॥ विशालपङ्कजवनं दावाग्निमिव पश्यति । सरोऽपि गाहमानोऽसौ दह्यते विरहाग्निना ॥३२॥ एवं सुदुःखितमतिः पर्यटन् पृथिवीतले । नगरस्य स्थितं द्वारे ददर्श गगनाम्बरम् ॥३३॥ आचार्यमार्यगुप्तं च समेत्य रचिताञ्जलिः । प्रणम्य शिरसा हृष्टो धर्म शुश्राव तत्त्वतः ॥३४॥ श्रुत्वा धर्म मुनेः प्राप्तः स वैराग्यमनुत्तमम् । प्रशशंस जिनेन्द्राणां शासनं शान्तमानसः ॥३५॥ अहो परममाहात्म्यो मार्गोऽयं जिनदेशितः । ममान्धकारयातस्य यो भास्कर इवोदितः ॥३६॥
दुःखी होते हैं उनका राजा ही शरण होता है ।।२२॥ यह सुन राजाने एक धूतं मन्त्रीको बुलाकर मायासहित कहा कि विलम्ब मत करो, शीघ्र ही इसकी स्त्रीका पता चलाओ ।।२३।। तब एक मन्त्रीने विकारसहित नेत्र चलाकर कहा कि हे राजन् ! उस स्त्रीको तो पथिकोंने पोदनपुरके मार्गमें देखा था ॥२४॥ वह आर्यिकाओंके समूहके बीच में स्थित थी तथा शान्तिपूर्वक तप करनेके लिए तत्पर जान पड़ती थी। अरे ब्राह्मण ! जल्दी जाकर उसे लौटा ला । इधर क्यों रो रहा है ? ॥२५।। जब कि वह यौवनपूर्ण शरीरको धारण कर रही है, उत्तम स्त्रियोंके गुणोंसे परिपूर्ण है तथा तरुण जनोंको हरनेवाली है तब उसका यह तप करनेका समय ही कौन-सा है ? ॥२६।। मन्त्रीके ऐसा कहते ही वह ब्राह्मण उठा और अच्छी तरह कमर कसकर वेगसे इस प्रकार दौड़ा जिस प्रकार कि बन्धनसे छूटा घोड़ा दौड़ता है ॥२७॥ वहाँ जाकर उसने पोदनपुरके मन्दिरों तथा उपवनोंमें अपनी स्त्रोको बहुत खोज की। जब नहीं दिखी तब वह पुनः शीघ्र हो विदग्धनगरमें वापस आ गया ॥२८॥ राजाकी आज्ञासे दुष्ट मनुष्योंने उसे गले में घिच्चा देकर नाना प्रकारकी डॉट दिखाकर तथा लाठी और पत्थरोंसे मारकर बहत दर भगा दिया ||२९|| स्थानभ्रंश. अत्यन्त क्लेश.. और मारका अनुभव कर उसने लम्बा रास्ता पकड़ लिया अर्थात् वह बहुत दूर चला गया ॥३०॥ स्त्रीके बिना वह कहीं भी रतिको प्राप्त नहीं होता था। वह अग्निमें पड़े हुए साँपके समान रातदिन सूखता जाता था ॥३१।। वह कमलोंके विशाल वनको दावानलके समान देखता था और सरोवरमें प्रविष्ट होता हुआ भी विरहाग्निसे जलने लगता था ।।३२।। इस प्रकार दुःखितहृदय होकर वह पृथिवीपर घूमता रहा । एक दिन उसने नगरके द्वारपर स्थित आर्यगुप्त नामक दिगम्बर आचार्यको देखा। उनके पास जाकर उसने हाथ जोड़कर शिरसे प्रणाम किया तथा हर्षित हो धर्मका यथार्थ स्वरूप सुना ॥३३-३४॥ मुनिराजसे धर्म श्रवणकर वह परम वैराग्यको प्राप्त हुआ तथा शान्त-चित्त होकर इस प्रकार जिनशासनको प्रशंसा करने लगा ॥३५॥ कि अहो ! जिनभगवान्के द्वारा प्रदर्शित यह मार्ग उत्कृष्ट प्रभावसे सहित है। मैं अन्धकारमें पड़ा था सो यह मार्ग मेरे लिए मानो सूर्यके समान ही उदित हुआ है ॥३६।।
१. मायासहितं यथा स्यात्तथा । २. मध्यस्थां म.। ३. समुद्यतां म.। ४. ग्राहमानो म.। ५. दूरे ज., क., ख.। दूरं म. । ६. दिगम्बरमुनिम् । ७. -मर्यगुप्तिं च म. ।
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