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पद्मपुराणे अथासौ ज्ञातसद्भावा तेन चित्तोत्सवा रहः । हियतेस्म महारूपा कीर्तिर्दुर्यशसा यथा ॥१०॥ दूरं देशं यदानायि तदाज्ञायि सुबन्धुमिः । हृता प्रमाददोषेण मोहेन सुगतिर्यथा ॥११॥ कन्यया मुदितश्चौरः पिङ्गलो धनवर्जितः । न विभाति यथा लोभी तृष्णया धर्मवर्जितः ॥१२॥ विदग्धनगरं चाप दुर्गमं परराष्ट्रिणाम् । बहिः कृत्वा कुटीं तत्र तस्थौ निःस्वकपाटके ॥१३॥ ज्ञानविज्ञानरहितस्तृणकाष्टादिविक्रियात् । अनुरक्षति तां पत्नीं मग्नो दारिद्रयसागरे ॥१४॥ पुत्रः प्रकाशसिंहस्य परराष्ट्रभयंकरः । जातोऽत्र प्रवरावल्यां राजा कुण्डलमण्डितः ॥१५॥ तेन दृष्टान्यदा बाला निर्यातेन कथंचन । हतश्च पञ्चभिर्बाणर्मारस्याभूत सुदुःखितः ॥१६॥ प्रच्छन्नं प्रेषिता दूती तया रात्रौ नृपालयम् । यथासीत् कमलामेला सुमुखस्य प्रवेशिता ॥१७॥ तया सह सुखं रेमे प्रीतः कुण्डलमण्डितः । उर्वश्या सह संरक्को यथासीनलकूबरः ॥१८॥ ततः स पिङ्गलाख्योऽपि श्रान्तः स्वगृहमागमत् । तामपश्यन् विशालाक्षी मग्नो वैधुर्यसागरे ॥१९॥ विस्तीर्णन किमुक्तेन सोऽयं विरहदुःखितः । न क्वचिल्लभते सौख्यं चक्रारूढ इवाकुलः ॥२०॥ हृतभायों द्विजो दीनस्तं राजानमुपागमत् । ऊचे चान्विष्य मे राजन् पत्नी केनापि चोरिता ॥२१॥ भीषितानां दरिद्राणामार्तानां च विशेषतः । नारीणां पुरुषाणां च सर्वेषां शरणं नृपः ॥२२॥
अथानन्तर जब पिंगलको चित्तोत्सवाके अभिप्रायका पूर्ण ज्ञान हो गया तब वह उस रूपवतीको एकान्त पाकर हर ले गया। जिस प्रकार अपयशके द्वारा कीर्ति का अपहरण होता है उसी
कार पिंगलके द्वारा चित्तोत्सवका हरण हआ ||१०|| जब वह उसे बहुत दूर देशमें ले गया तब बन्धुजनोंको उसका पता चला। जिस प्रकार मोहके द्वारा उत्तम गतिका हरण होता है उसी प्रकार प्रमादके द्वारा उस कन्याका हरण हुआ था ॥११॥ इधर कन्याको चुरानेवाला पिंगल कन्या पाकर प्रसन्न था, पर निर्धन होनेके कारण वह उससे उस प्रकार सुशोभित नहीं हो रहा था जिस प्रकार कि धर्महीन लोभी मनुष्य तुष्णासे सुशोभित नहीं होता है ।।१२।। पिंगल कन्याको लेकर जहाँ दसरे देशके लोगोंका प्रवेश नहीं हो सकता था ऐसे विदग्ध नगरमें पहँचा और वहाँ नगरके बाहर जहाँ अन्य दरिद्र मनुष्य रहते थे वहीं कुटी बनाकर रहने लगा ॥१३॥ वह ज्ञान-विज्ञानरो रहित था साथ ही दरिद्रतारूपी सागरमें भी निमग्न था इसलिए तृण, काष्ठ आदि बेंचकर अपनी उस पत्नीकी रक्षा करता था ॥१४॥ उसी नगरमें राजा प्रकाशसिंह और प्रवरावली रानीका पुत्र राजा कुण्डलमण्डित रहता था जो कि शत्रुओंके देशको भय उत्पन्न करनेवाला था ।।१५।। एक दिन वह नगरके बाहर गया था सो वहाँ चित्तोत्सवा उसकी दृष्टिमें आयी। देखते ही वह कामके पाँचों बाणोंसे ताड़ित होकर अत्यन्त दुःखी हो गया ॥१६|| उसने गुप्तरूपसे चित्तोत्सवाके पास दूती भेजी सो उस दूतीने उसे रात्रिके समय राजमहल में उस तरह प्रविष्ट करा दिया जिस प्रकार कि पहले राजा सुमुखकी दूतीने कमलामेलाको उसके महल में प्रविष्ट कराया था ।।१७।। जिस प्रकार अनुरागसे भरा नलकूबर उर्वशीके साथ रमण करता था उसी प्रकार प्रीतिसे भरा कुण्डलमण्डित उस चित्तोत्सवाके साथ रमण करने लगा ।।१८।।
तदनन्तर जब वह पिंगल थका-माँदा अपने घर आया तो उस विशाललोचनाको न देखकर दुःखरूपी सागरमें निमग्न हो गया ॥१९|| गौतमस्वामी कहते हैं कि अधिक कहनेसे क्या? उसके विरहसे दुःखी हुआ वह चक्रारूढ़की तरह आकुल होता हुआ किसी भी जगह सुख प्राप्त नहीं करता था ।।२०।। तदनन्तर जिसकी भार्या हरी गयी थी ऐसा वह दीनहीन ब्राह्मण राजाके पास गया और जिस किसी तरह राजाका पता चलाकर बोला कि हे राजन् ! किसीने मेरी स्त्री चुरा ली है ॥२१|| राजा ही सबका शरण है और खासकर जो स्त्री-पुरुप भयभीत, दरिद्र तथा १. यथानायि म.। २. निस्वक्रपाटकः म. ।
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