Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 22
________________ ४ पद्मपुराणे प्रपद्येऽहं जिनेन्द्राणां शासनं पापनाशनम् । देहं निर्वापयाम्यद्य दग्धं विरहवह्निना ॥ ३७॥ ततः संवेगमापद्य गुरुणाभ्यनुमोदितः । कृत्वा परिग्रहत्यागं दीक्षां दैगम्बरीमितः ॥३८॥ तथापि विहरन् क्षोणीं सर्व संगविवर्जितः । चित्तोत्सवास मुत्कण्ठां जातुचित्प्रत्यपद्यते ॥३९॥ सरित्पर्वतदुर्गेषु श्मशानेष्वटवीषु च । वसन् स परमं चक्रे तपो विग्रहशोषणम् ॥४०॥ न यस्य जलदध्वान्ते काले खेदं गतं मनः । हेमन्ते हिमपङ्केन वपुर्यस्य न कम्पितम् ॥ ४१ ॥ 'पूष्णो यस्य करैरुप्रस्तापोऽणुरपि नो कृतः । स्मृत्वासीदत् सतां जातु स्नेहस्य किमु दुष्करम् ॥४२॥ दह्यमानं तथाप्येष शरीरं विरहाग्निना । पुनर्विध्यापयज्जैनव चनोद कसीकरैः ॥४३॥ अर्धदग्धतरुच्छायं तत्तस्य वपुरागतम् । रमणीस्मरणेनोग्रतपसा च निरन्तरम् ॥ ४४ ॥ तावदिदं वक्ष्ये मंण्डितस्याधुनेहितम् । कथा ह्यन्तरयोगेन स्थिता रत्नावली यथा ||४५|| अनरण्ये च राज्यस्थे वृत्तमेतन्निबुध्यताम् । कथानुक्रमयोगेन कथ्यमानमतः शृणु ॥४६॥ स्थानं दुर्गं समाश्रित्य मण्डितेन वसुन्धरा ।" विराधितानरण्यस्य कुशीलेन यथा स्थितिः " ॥४७॥ देशा उद्वासिता तेन दुर्जनेन गुणा यथा । विरोधिताश्च सामन्ताः कषाया इव योगिना ॥ ४८ ॥ नाशक्नोदनरण्यस्तं ग्रहीतुं क्षुद्रमप्यलम् । १३ आखोर्गिरिविलस्थस्य किं करोतु मृगाधिपः ॥ ४९|| १२ ४ हु मैं पापको नष्ट करनेवाले जिनशासनको प्राप्त होता हूँ और विरहरूपी अग्नि से जले स शरीरको आज शान्त करता हूँ || ३७॥ तदनन्तर संवेगको प्राप्त हो तथा गुरुकी आज्ञा लेकर उसने परिग्रहका त्याग कर दिया और दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली ||३८|| यद्यपि वह समस्त परिग्रहसे रहित हो पृथिवो पर विहार करता था तथापि जब कभी भी चित्तोत्सवा के विषय में उत्कण्ठित हो जाता था ॥ ३९ ॥ नदी, पर्वत, दुर्गं, श्मशान और अटवियोंमें निवास करता हुआ वह शरीरको सुखानेवाला परम तपश्चरण करता था ||४०|| मेघोंसे अन्धकारपूर्ण वर्षाकाल में उसका मन खेदको प्राप्त नहीं होता था और न हेमन्त ऋतुमें हिमके पंकसे उसका शरीर कम्पित होता था || ४१ || सूर्यकी तीक्ष्ण किरणोंसे उसे थोड़ा भी सन्ताप नहीं होता था । वह सदा सत्पुरुषोंका स्मरण करता रहता था सो ठीक ही है क्योंकि स्नेहके लिए कौन-सा कार्य दुष्कर अर्थात् कठिन है ? ||४२ || यह सब था तो भी उसका शरीर विरहाग्नि से जलता रहता था जिसे वह जिनेन्द्र भगवान् के वचनरूपी जलके छींटोंसे पुनः पुनः शान्त करता था ||४३|| इस प्रकार निरन्तर होनेवाले स्त्रीके स्मरण तथा उग्र तपश्चरणसे उसका वह शरीर अधजले वृक्षके समान काला हो गया था ||४४ || अथानन्तर गौतमस्वामी कहते हैं कि अब यह कथा रहने दो। इसके बाद कुण्डलमण्डितकी कथा कहता हूँ सो सुनो ! यथार्थ में जिस प्रकार रत्नावली बीच-बीच में दूसरे रत्नोंके अन्तरसे निर्मित होती है उसी प्रकार कथा भी बीच-बीचमें दूसरी दूसरी कथाओं के अन्तरसे निर्मित होती है || ४५|| जिस समय राजा अनरण्य राज्यमें स्थित थे अर्थात् राज्य करते थे उस समयकी यह कथा है सो कथाके अनुक्रमसे कही जानेवाली इस अवान्तर कथाको सुनो || ४६ ॥ कुण्डलfuse दुर्गं गढ़ा अवलम्बन कर सदा अनरण्यकी भूमिको उस तरह विराधित करता रहता था जिस प्रकार कि कुशील मनुष्य कुलकी मर्यादाको विराधित करता रहता है ||४७|| जिस प्रकार दुर्जन गुणोंको उजाड़ देता है उसी प्रकार उसने अनरण्यके बहुत-से देश उजाड़ दिये और जिस प्रकार योगी कषायोंका अवरोध करते हैं उसी प्रकार उसने बहुत-से सामन्तोंका अवरोध कर दिया ||४८|| यद्यपि वह क्षुद्र था तो भी अनरण्य उसे पकड़नेके १. गुरुणात्यनुमोदित: म. । २. प्राप्तः । ३. चित्तोत्सवां समुत्कण्ठां म । ४ म. । ६. पूष्णोर्यस्य म । ७. वचनोत्कर म । ८. कुण्डलमण्डितस्य । नरण्यस्य । ११. स्थिते: म. । १२. कषाय इव म. । १३. मूषकस्य । लिए समर्थ नहीं हो सका । Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रतिपद्यत म । ५. जलधेर्ध्वान्त ९. हितः ख । १०. विरोधिता१४. करोति म. । www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 ... 480