Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर का जीवन-वृत्त
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१४.२ दयनीय वृद्धावस्था - कवि का जीवन दीक्षा से प्रौढ़ावस्था पर्यन्त अति शान्तिमय और सुखमय रहा था । कवि के बयालीस शिष्य थे, ऐसी जनश्रुति है । उनमें से कई तो स्वयं समर्थ, बहुश्रुत एवं प्रकाण्ड विद्वान् थे । उन्हें उत्तम श्रेणी का प्रशिक्षण दिलाने के लिए कवि ने असीम परिश्रम और अपना सर्वस्व त्याग किया था । ज्ञान के साथ गच्छनायकों से कह-कह कर इन्हें पदवियों से सम्मानित भी करवाया था। वे ही शिष्य कवि को ढलती आयु में परित्याग करके चले गये । जीवनभर कवि स्वयं स्वावलम्बी रहे, परन्तु जब वृद्धावस्था में उन्हें वैयावृत्य (सेवा) को आवश्यकता हुई, तब शिष्य ही छोड़ गये। जो सान्निध्य में रहे थे, वे भी कवि के हृदय की व्यथा से अनभिज्ञ थे । दुःख के समय होने वाली विकलताओं से कवि का अन्तस् द्रवित हो उठा । वे उन साधुओं को, जिनके शिष्य परिवार नहीं हैं, सम्बोधित करते हुए कहते हैं
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चेला तहीं तउ म करउ चिन्ता दीसइ घणै चेले पणि दुक्ख । संतान कमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख ॥ केइ मुया गया पणि केइ केइ जुया रहइ परदेश | पासि रहइ ते पीड न जाणइ, कहियउ घणउ तउ थायउ किलेस ॥ १
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वृद्धावस्था के कष्टों या दुःखों में शिष्यों में सेवा-भावना का अभाव देखकर निराश एवं हतोत्साह होकर कवि समयसुन्दर अनिच्छापूर्वक भी अपनी मर्मव्यथा को 'गुरुदुःखित- वचनम् ' आदि उद्गीथों में व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं अत्यन्त क्लेश एवं दुःख उठाकर तथा अपवाद मार्ग का सेवन करके भी मैंने जिस शिष्य - समुदाय को एकत्रित किया, यदि वह गुरु की भक्ति-सेवा नहीं करता, तो ऐसे निरर्थक शिष्यों से क्या प्रयोजन है? मैंने आत्म-प्रवंचना करके अपने शिष्यों का उसी प्रकार पालन-पोषण किया, जिस प्रकार माता-पिता पुत्र का पालन-पोषण करते हैं। मैंने सभी श्रेय कर्मों का परित्याग करके, दुःख उठाकर भी यत्नपूर्वक शिष्यों को अध्ययन कराया। शिष्यों को अपनाते समय मोहवश समाज के उपालम्भ भी सहन किये और उन्हें मोक्षमार्ग पर अग्रसर करने का सतत् प्रयास किया। उन्हें गीतार्थ बनाया । तर्क, व्याकरण, काव्य प्रभृति विद्याओं में उन्हें पारंगत किया, किन्तु इतने पर भी यदि शिष्य गुरुभक्त नहीं हैं, तो ऐसे शिष्य निरर्थक
हैं ।
कवि का कथन है कि यद्यपि मेरे शिष्यों ने आगम निगम के सिद्धान्तों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लिया है, अच्छे वक्ता के रूप में सर्वत्र यश अर्जित कर लिया है, जैन-जैनेतर समाज में वे माननीय हो गये हैं; लेकिन वे गुरु की आज्ञाओं का अनुसरण नहीं करते हैं, तो ऐसे यशस्वी शिष्य भी गुरु के लिए अनुपयोगी और निरर्थक ही हैं ।
१. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, गुरु दुःखित वचनम्, (१.२) पृष्ठ ४२०
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