Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व रत्नकम्बल एवं नामाङ्कित अंगूठी देकर उसे अपने चाचा के पास अयोध्या जाने को कहा। जब क्षुल्लक अयोध्या पहुँचा, तो वहाँ एक नाटक खेला जा रहा था। एक नर्तकी द्वारा सारी रात नृत्य करते रहने पर भी राजा ने उसे पारितोषिक स्वरूप कुछ नहीं दिया। अन्यमनस्का नर्तकी के स्वर-भंग होने लगे। ऐसी स्थिति में नट ने निम्नाङ्कित पद में कहा कि यह रङ्ग में भङ्ग कैसा -
सुटु, गाईयं सुटु वाइयं, सुटु, नच्चियं सामसुन्दरि।
अणुपालिय दीह रायं सुयिणं ते मास मास माय ए॥ नट के इस पद्य से प्रभावित होकर राजकुमार ने दो कुण्डल, क्षुल्लक ने रत्नकम्बल, मुंहता (मन्त्री या विदूषक) ने कंगन, महावत ने अंकुश और सार्थवाहिनी ने हार – इस प्रकार कुल पाँच बहुमूल्यवान चीजें नर्तकी को भेंट दे दी।
आगामी दिवस नृप ने पाँचों व्यक्तियों से नर्तकी को भेंट देने का कारण पूछा, तब राजकुमार ने कहा - राजन्, योग्य हो जाने पर भी मुझे आधा राज्य न मिलने के कारण मैं सोच रहा था कि क्यों न राजा को मार दिया जाए? उसी समय नट की गाथा से यह शिक्षा मिली कि बहुत बीती, थोड़ी रही; अतः शेष को क्यों खो रहे हो? क्षुल्लक ने बताया कि मैं दीक्षा-पर्याय के कष्टों एवं परीषहों का स्मरण कर राज्यसुख सोच रहा था। मुंहता ने कहा - आपने मेरे भोजन एवं आवास की व्यवस्था नहीं की थी; अतएव मैं आपके विनाश की बात सोच रहा था। महावत बोला – राजन् ! मैं हाथी का अपहरण करके अन्यत्र चले जाने का विचार कर रहा था, क्योंकि आपने कभी मुझे अपेक्षित भोजन नहीं दिया। सार्थवाहिनी ने प्रत्युत्तर में कहा – मेरे प्रियतम को परदेश गये बारह वर्ष हो गये, अभी तक लौटे नहीं। इस गाथा से मुझे यह अर्थबोध हुआ कि अब वे आने वाले हैं।
इस तरह सभी ने अपनी-अपनी दृष्टि से उक्त गाथा का अर्थ लगाया। राजा उनके उत्तर सुनकर बड़ा प्रभावित हुआ। वह बोला- मैं आप सबकी आन्तरिक इच्छाएँ पूरी करूँगा; किन्तु पाँचों संसार से विरक्त हो गये थे। अतः सभी ने प्रत्युत्तर में कहा कि अब हम इस असार संसार में नहीं पड़ना चाहते। सभी ने पवित्र चारित्र-धर्म ग्रहण कर अपना जीवन सार्थक किया।
इस प्रकार क्षुल्लककुमार एवं अन्य चार लोग अपथगामी होने से बच गये। उसे आचार्य, मातृसाध्वी आदि द्वारा अनेक प्रकार से दिये गये उपदेश पथभ्रष्ट होने से न रोक सके, जबकि नट की एक गाथा ने उसके जीवन में विलक्षण परिवर्तन ला दिया।
अन्त में क्षुल्लक ऋषि ने उत्कृष्ट संयम का पालन किया और उत्तम गति पाई।
यहाँ कवि ने क्षुल्लककुमार के संबंध में लिखा है कि 'दशवैकालिक सूत्र माहे कह्यो, ते उत्तम गति पायोजी।' किन्तु यह तथ्य दशवैकालिकसूत्र' में कहीं भी उल्लिखित नहीं है। सम्भव है कि उक्त तथ्य दशवैकालिकसूत्र की किसी वृत्ति में कथित हो।
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