Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कविवर्य समयसन्दर की भाषा-शक्ति की दूसरी विशेषता है - चित्रात्मकता। यहाँ चित्रात्मकता से अभिप्राय है, शब्दों द्वारा चित्र-निर्माण करना। कवि ने अपने कथन को वाचकों तक पूर्णतः पहुँचाने हेतु विविध चित्र उपस्थित किये हैं। यही चित्र उनकी काव्यभाषा को चित्रमय बना देते हैं। कथ्य की स्पष्टता ही चित्र की स्पष्टता है। यदि कथ्य स्पष्ट नहीं होगा, तो चित्र भी धूमिल रह जायेगा। समयसुन्दर के चित्र स्पष्ट एवं आकर्षक हैं। कहीं-कहीं इन चित्रों में दार्शनिक शब्दावली भी प्रयुक्त हुई है। इससे उनमें दुरूहता अवश्य आयी है, किन्तु उन शब्दों का अर्थबोध हो जाए, तो अस्पष्टता सामान्य-सी भी नहीं रहती है। उसके स्थान पर और अधिक अर्थ-विस्तार होता है।
आलोच्य साहित्य में स्थूल एवं सूक्ष्म - दोनों प्रकारीय चित्र हैं । बृहद् रचनाओं में स्थूल चित्र एवं लघु रचनाओं में सूक्ष्म चित्रों का आधिक्य है। सूक्ष्म चित्र स्थूल चित्रों की अपेक्षा अधिक सजीव एवं संवेदनशील हैं, क्योंकि वे जीवन के अनुभवों को प्रकट करते हैं। ये चित्र पद्यबद्ध हैं। संक्षेप में, कवि इन चित्रों के द्वारा इच्छित भावों को पाठक तक प्रेषणीय बनाने में समर्थ हुए हैं।
समयसुन्दर की भाषा की तीसरी विशेषता है, स्वाभाविक अभिव्यक्ति। वस्तुतः काव्य में स्वाभाविकता का गुण जितना ज्यादा होगा, वह उतना ही ज्यादा प्रभावशाली बनेगा। यद्यपि यह सही है कि समयसुन्दर की भाषा काव्यभाषा है, लेकिन वह जन-भाषा से दूर नहीं है। यही कारण है कि उनकी अधिकांश रचनाएँ सप्रयत्न शृंगारित नहीं हैं। स्वाभाविकता शृंगार तो काव्य को और अधिक मार्मिक बना देता है। देखिये, कवि की स्वाभाविक और भाषा-शक्ति
कागद थोड़ो हेत घणउ, सो पिण लिख्यो न जाय। सायर माँ पाणी घणउ, गागर में न समाय॥ प्रीत प्रीत ए सह को कहइ, प्रीति प्रीति में फेर।
जब दीवा बड़ा किया, तब घर में भया अंधेर॥१ 'प्रस्ताव सवैया छत्तीसी' आदि रचनाओं में तो कविवर साधारण शब्दावली में भी गूढ़ रहस्यात्मक बातों को व्यक्त करने में पूर्ण सफल हुए हैं। ऐसी रचनाओं में वे कबीर की भांति पूर्ण उन्मुक्त है, कुण्ठा-रहित हैं। वे स्वयं दृढ़, उग्र, कुसुमादपि कोमल
और वज्रादपि कठोर दिखाई पड़ते हैं। इसी कारण वे न केवल दूसरों को अपितु अपने शिष्यों व श्रावकों को भी करणीय कार्य न करने पर फटकार देते थे। देखिये उनकी स्वाभाविकता और व्यंग्यात्मकता -
बूढ़ा ते पिण कहियइ बाल, व्रत बिना जे गमावइ काल। जीमइ पोहर बि पोहर प्रमाण, पण न करइ नोकारसी पचखाण ॥
१. प्रीति दोहा (१-२)
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