Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
चेला नहीं तउ म करउ चिन्ता, दीसइ घणै चेले पणि दुक्ख। संतान करंमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख॥
इस प्रकार इस देखते हैं कि समयसुन्दर ने अपने साहित्य में ऐसे करुण दृश्य उपस्थिति किये हैं, जो हमें भी करुणार्द्र बना देते हैं। विवेच्य रचनाओं में धर्मोपघातज, अर्थापचयोद्भव, शोककृत, चित्त-ग्लानि-जन्य आदि करुण-रस के समस्त उपभेदों के प्रसंग उपलब्ध होते हैं, जिनका संक्षिप्त उल्लेख हम ऊपर कर आए हैं। १.४ रौद्र-रस
कविप्रवर समयसुन्दर ने रौद्र-रस का उपयोग अधिक नहीं किया है। उन्होंने रौद्रता के प्रसंगों को भी अधिकांशतया शान्त या अन्य रसों में घटित कर दिया है, तथापि जहाँ पर रौद्र-रस की निष्पत्ति विशेष आवश्यक थी, वहाँ उन्होंने इस रस का आलम्बन लिया है।
रौद्र-रस का स्थायीभाव क्रोध माना गया है। यह रस किसी प्रकार का अन्याय, अपमान, अशिष्टता, अत्याचार और अनुचित व हानिकारक व्यवहार देखकर उनके प्रतिकार करने के विचार से चित्त में उत्पन्न होने वाले क्रोध से उद्दीप्त होता है। इसके तीन उपभेदों का संकेत भरत ने किया है -
(१) आंगिक या क्रियात्मक, (२) वेषात्मक तथा (३) वचनात्मक।
समयसुन्दर के साहित्य में तीनों ही प्रकार के रौद्र-रस के उल्लेख हमें प्राप्त होते हैं, जिन्हें हम नीचे प्रस्तुत करेंगे।
दुर्भिक्ष ने अपना रौद्र रूप प्रकट किया। प्रजा के धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक आदि प्रत्येक क्षेत्र में इसकी प्रचण्ड रौद्रता मुखरित हुई। जनता की दीन अवस्था देख कवि ने दुर्भिक्ष के अन्याय तथा अत्याचार का जमकर विरोध किया। कवि की प्रतिकार की भावना इतनी प्रबल थी कि वे उस पर विविध दोषारोपण करने के अलावा गालियाँ देते भी नहीं चूकते -
दोहिलउ दंड माथइ करी, भीख मंगावि भीलडा; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासिया, थारो कालो मुंह पग नीलड़ा॥ कूकीया घणुं श्रावक किता, तदि दीक्षा लाभ देखाडीया; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया तई कुटुम्ब बिछोहा पाड़ीया॥ सिरदार घणेरा संहा, गीतार थ गिणती नहीं,
'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, तूं हतियारउ सालो सही॥ १. वही, गुरु-दुःखितवचनम् (१-हिन्दी) २. अग्निपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग, पृष्ठ ५७ ३. नाट्यशास्त्र (६.६८)
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