Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 490
________________ समयसुन्दर का विचार-पक्ष ४७५ धन को बाहर निकालने के लिए जमीन को खोदता है, तो उसे सर्प का शिकार होना पड़ता है। अत: चतुर पुरुषों को माया से सदैव दूर रहना चाहिये। समयसुन्दर का कथन है कि माया का प्रभाव बहुव्यापी है। जो योगी, तपस्वी और संन्यासी नग्न भी हो गए, अग्नि जलाकर शीर्षासन में भी स्थिर रहे, वे भी माया से मुक्ति न पा सके। अणोर से अणीयान और महान-महियान-सभी को इस सर्पिनी ने ग्रस रखा है। इससे बचकर रहना नितान्त जरूरी है। १७.४ लोभ समयसुन्दर धन-पिपासुओं को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तुम रात-दिन धन के पीछे क्यों पड़े हो? बिना पुण्य के तुम धन कैसे प्राप्त करोगे? विश्वास न हो तो जाओ, पंचजनों को भी पूछ लो। समयसुन्दर कहते हैं कि तुम धन के लोभ में पड़कर देव-गुरु की भक्ति-प्रार्थना भी भूल गये हो। भला, गठड़ी बान्धकर कोई परभव में ले गया है? फिर तुम हे जीव! इतना अधिक लोभ क्यों कर रहे हो? लोभ एक प्रकार का गहन माया-जाल है। इसमें फँसने का प्रयास मत करो। यदि फँस गये, तो वापस उससे निकलना बहुत कठिन हो जाएगा। समयसुन्दर अपने शिष्य-प्रशिष्यों को भी लोभ-त्याग का निर्देश देते हैं। वे कहते हैं, शिष्यो! पुस्तक, पन्ने और उपाधियों का लोभ छोड़ दो और संयम का पालन करो। समयसुन्दर का कहना है कि मुक्ति सम्पदा के लोभ के सिवा मुझे किसी तरह का लोभ नहीं है। समयसुन्दर ने उक्त चारों कषायों को अकरणीय बताया है। पूर्वकृत कषायकर्मों को क्षय करना चाहिये और भविष्य में कषाय न करें, इसका संकल्प ग्रहण करना चाहिये। १८.लेश्या शुभ-अशुभ प्रवृत्ति का मूलाधार शुभ-अशुभ लेश्या ही है। लेश्या अर्थात् मनोवृत्तियाँ। समयसुन्दर ने लेश्या के छः भेदों का उल्लेख किया है - १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या, ४. तेजस्लेश्या, ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या। भाव से द्रव्य और द्रव्य से भाव की कार्यकारण रूप परम्परा होने से उन्होंने लेश्या को भी भाव और द्रव्य, दोनों प्रकार की स्वीकार की है। उनके अनुसार द्रव्य लेश्याएँ पौद्गलिक होने के कारण इनके वर्ण, रस, गंध, स्पर्श आदि भी होते हैं । उक्त लेश्याओं में कृष्णादि प्रथम १. वही, माया निवारण सज्झाय, पृष्ठ ४३०-३१ २. वही, माया निवारण सज्झाय, पृष्ठ ४३०-३१ ३. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, माया-निवारण गीतम्, पृष्ठ ४३२ ४. वही, यतिलोभ निवारण गीतम्, पृष्ठ ४५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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