Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 494
________________ ४७९ समयसुन्दर का विचार-पक्ष करना ही दया है। वे कहते हैं कि लोग पंचाग्नि-साधना, यज्ञ, होम आदि विविध कर्म करते हैं, यह सोचकर कि इससे हम मुक्ति पा जाएँगे, किन्तु यह सब उनका भ्रम है। जिस साधना में दया का अभाव है, वह कभी मुक्ति नहीं दिला सकती। सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान मानकर व्यवहार करना, यही तो प्राथमिक साधना है। दया धर्म एवं साधना - दोनों का मर्म है। समयसुन्दर का कथन है कि यद्यपि जैनधर्म जीवदया प्रधान है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि वह किसी भी ऐसी क्रिया या कर्म करने का सर्वथा निषेध करता है जिसमें हिंसा की यत्किञ्चित् भी सम्भावना हो। वस्तुतः अहिंसा को विधायक रूप देने के लिए किया गया कोई भी प्रयत्न हिंसा से रहित नहीं हो सकता। जब भी हम जीवनरक्षण रूप दया, दान, सेवा, तथा सहयोग की कोई क्रिया करेंगे, तो वे हिंसा के बिना कदापि सम्भव नहीं होगी। नव-कोटि पूर्ण अहिंसा का आदर्श कभी भी दया, दान, सेवा एवं सहयोग के मूल्यों का सहगामी नहीं हो सकता। अत: जीवन-रक्षण और पूर्ण अहिंसा के आदर्श का पालन – दोनों एक साथ शक्य नहीं है। पुनः पारिवारिक एवं सामुदायिक जीवन में तो उसका पालन असम्भव है। ___ जैन शास्त्रों में ऐसे अनेक पर्याप्त प्रसंग भी मिलते हैं, जिनमें हिंसा के कुछ रूप अनुमोदित हैं। जैसे- नौकागमन, साधु द्वारा नदी-लंघन आदि; यद्यपि इसमें प्रत्यक्ष रूप से हिंसा होती है। इसी तरह श्रमण एवं श्रावक-वर्ग के समस्त धार्मिक कार्यों में पृथ्वीकाय आदि विविध जीवों की हिंसा होती है, फिर भी उन्हें धार्मिक कार्य ही कहा गया। जैसे- श्रेणिक, कोणिक आदि भगवान् महावीर को वन्दन करने के लिए जाते थे, तो गमनागमन में पृथ्वीकाय, वनस्पति, चींटी इत्यादि की हिंसा तो होती ही थी, तथापि उसे प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय बताया गया है। समयसुन्दर का कहना है कि यद्यपि भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी पिलाना, साधुओं को आहार देना इत्यादि क्रियाओं में भी निश्चित ही मनुष्य को हिंसा-दोष लगेगा, किन्तु यह हिंसा निन्दनीय नहीं है। समयसुन्दर के अनुसार हिंसा का पूर्ण निषेध करने वाले दयाधर्म का ही उच्छेद कर देवें, तो फिर धर्मशाला आदि बनाने में भी आरम्भ अर्थात् हिंसा होता है। अतः उसे 'पापशाला' कहना चाहिये, जबकि उसे धर्मसला ही कहा जाता है, पापशाला नहीं। समयसुन्दर का कथन है कि धर्म-कार्य में भी आरम्भ-समारम्भ तो होता है, किन्तु धार्मिक पुष्प का जीव-हिंसात्मक कोई अध्यवसाय नहीं होता है, अपितु रक्षण का ही अध्यवसाय होता है। अतः उसके द्वारा बाह्य रूप से होने वाली हिंसा को निश्चयदृष्टि से हिंसा की कोटि में नहीं रखा जा सकता। यदि मनुष्य के अध्यवसाय और मनोवृत्तियाँ १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी, पृष्ठ ५१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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