Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 506
________________ उपसंहार ४९१ इन तीनों गुणों के समावेश से उनकी रचनाएँ आकर्षक और मार्मिक बन गई हैं। भाषा को गत्यात्मक रूप प्रदान करने वाला छन्द-विधान भी कम रमणीय नहीं है। समयसुन्दर छन्द-चयन में बड़े दक्ष थे। घटना, भाव, विचार या विषय के अनुकूल छन्द-परिवर्तन करना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। साहित्य को जनसाधारण से आबद्ध करने के लिए उन्होंने रागों तथा देशियों को भी अपनाया, जिससे उनके काव्यों की लोकप्रियता तथा संगीतात्मकता में सहज ही समृद्धि हुई। वस्तुतः उनका गेय-साहित्य रागों और देशियों का एक 'बृहत् कोश' बन गया है। उनके रागों में संगीत-शैली की जहाँ गम्भीरता एवं संयतता है, वहीं देशी में स्वर-वैचित्र्य एवं चपलता है। उनके द्वारा गृहीत एवं निर्मापित देशियों की टेर पंक्तियों को अनेक परवर्ती कवियों ने व्यवहृत किया है। वास्तव में रागों तथा देशियों को समयसुन्दर ने ही सर्वप्रथम इतने विपुल परिमाण में प्रयुक्त किया था। समयसुन्दर के सूक्त-सुभाषित सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक हैं। उनकी सूक्तियाँ उनके भावों को सजा-संवार कर सजीव बनाने एवं वक्तव्य-कला को चमकाने में बहत सहायक सिद्ध हुई हैं। इन सूक्तियों द्वारा उनका नीति, धर्म और दर्शन आदि से सम्बन्धित बहुआयामी अनुभव का बोध होता है। उन्होंने स्वयं 'गाथासहस्री' नामक ग्रन्थ में लगभग १००० सुभाषित वचनों का बृहत् संकलन किया था। समयसुन्दर की रचनाओं में कहावतों तथा मुहावरों के प्रयोग से उनके अर्थगौरव का विस्तार हुआ है, प्रेषणीयता तथा प्रभावोत्पादकता का वर्धन हुआ है। संक्षेप में, समयसुन्दर की रचनाओं में कालिदास की-सी सरस काव्य-सृष्टि का दर्शन होता है। षष्ठ अध्याय का निष्कर्ष षष्ठ अध्याय है, 'समयसुन्दर का विचारपक्ष'। महोपाध्याय ने धर्मदर्शन से सम्बद्ध गूढ़ एवं गम्भीर विषयों का हृदयग्राही विवेचन किया है। वस्तुतः वे एक प्रौढ़ चिन्तक एवं विचारक थे। वे सिद्धान्ततः आत्मवादी एवं अनीश्वरवादी थे। उनकी विचार-धाराओं का मूल उत्स है, जैन दर्शन । किन्तु उन पर अन्य विचारधाराओं का भी प्रभाव पड़ा था। उनके विचारों में दार्शनिकता, धार्मिकता एवं नैतिकता -- इन तीनों का संगम हुआ है। उनके विचार समन्वयवादी एवं अनाग्रही थे। उनके जिन प्रातिनिधिक विचारों को हमने प्रस्तुत किया है, उसका सार यही है कि व्यक्ति को 'खाओ, पीओ, मौज उड़ाओ' की भौतिक भूमिका अथवा बाह्य जीवन से ऊपर उठकर आभ्यन्तर जीवन का दर्शन करना चाहिये और विवेकपूर्वक ज्ञान, श्रद्धा एवं चारित्र रूप त्रिविध साधना-मार्ग में विचरण करना चाहिये। वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनाग्रह, वैयक्तिक जीवन में अहिंसा – यही संक्षेप में उनका वैचारिक पक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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