Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर का विचार-पक्ष लिप्त है। स्वार्थ-त्याग के लिए परमार्थ की साधना उपयोगी है। २१. रात्रिभोजन-परिहार
समयसुन्दर ने रात्रि-भोजन का निषेध अहिंसा-व्रत की रक्षा के लिए अनिवार्य माना है। समयसुन्दर के सामने विपक्ष के द्वारा यह प्रश्र उठाया गया था कि रात्रि में भोजन करना किस प्रकार से अनुचित हो सकता है? दिन में तो मक्खी आदि जीवों की हिंसा का भय बना रहता है, जबकि रात्रि में भोजन ग्रहण करने से इससे छुटकारा पाया जा सकता है। इसका समाधान करते हुए समयसुन्दर ने कहा है कि रात्रिभोजन शास्त्रीय एवं नैतिक-दोनों दृष्टियों से उचित नहीं है। रात्रि-भोजन हिंसा से मुक्त नहीं हो सकता। रात्रि में भोजन-सेवन करते समय कुन्थु, पिप्पली एवं अन्य अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा सम्भव है, जो हम रात्रि में भोजन पकाने से लेकर उसे खाने तक की प्रक्रिया में स्पष्टतः देखते हैं। अतः रात्रि भोजन वर्ण्य है। २२. जिनप्रतिमा
महोपाध्याय समयसुन्दर के अनुसार जिन-प्रतिमा एवं उसकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही थी। यह बात स्वयं समयसुन्दर द्वारा उल्लिखित शास्त्रीय उद्धरणों से स्पष्ट हो जाती है। समयसुन्दर के समय में जैनधर्म में एक ऐसी परम्परा पनपी, जो मूर्तिपूजा का विरोध करती थी। समयसुन्दर ने इस परम्परा का विरोध किया। उनकी मान्यता थी कि 'जिनप्रतिमा जिन सारखी'३ अर्थात् जिनप्रतिमा जिन के सदृश है। यह बात उनकी रचनाओं में अनेक स्थानों पर अभिव्यक्त हुई है। समाचारी-शतक' नामक ग्रन्थ में उन्होंने इसी बात की पुष्टि के लिए अनेक प्रमाण भी दिए हैं।
वस्तुतः ऐसा लगता है कि समयसुन्दर कट्टर मूर्तिपूजक थे। वे लिखते हैं कि यद्यपि जिनमूर्ति ज्ञानादि गुणरहित है, तथापि वह जिनवत् ही मानी जाती है। उनके मतानुसार साक्षात् जिन की पूजा और अर्चना करने से जो फल मिलता है, वही फल जिन की प्रतिमा की पूजा से उपलब्ध होता है। अतः जिनप्रतिमा जिन के सदृश ही माननी चाहिये। उनके अनुसार यदि कोई इसमें संशय करता है, तो उसका सम्यक्त्व उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे एक बूंद विष से अमृत। १. वही, स्वार्थ गीतम्, पृष्ठ ४३५ २. विचारशतक (१८) ३. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री पार्श्वजिन (प्रतिमा स्थापन) स्तवनम्, पृष्ठ २०० ४. समाचारी-शतक (१४, २६, ३९-४२, ४८) ५. वही (४०) ६. समाचारी-शतक (४१) ७. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री पार्श्वजिन (प्रतिमा स्थापन) स्तवनम्, पृष्ठ २००
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