Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 491
________________ ४७६ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तीन लेश्याएँ अप्रशस्त हैं और तेजस् आदि शेष तीन लेश्याएँ प्रशस्त हैं।' १९. निन्दा समयसुन्दर ने निन्दा-वृत्ति को अनुचित एवं त्याज्य बताया है। वे उसके दुर्गुण बताते हुए कहते हैं कि परनिन्दा करते हुए मनुष्य पाप-पिण्ड भरता है। इससे वैरवर्धन होता है और प्राणी दुर्गति में जाता है। निन्दक जैसा बुरा और पापी व्यक्ति अन्य कोई दिखाई नहीं देता है। वस्तुतः निन्दक का तो मुख भी नहीं देखना चाहिये, क्योंकि वह चण्डाल के समान है। समयसुन्दर लिखते हैं कि निन्दक रूपी चण्डाल को तो स्पर्श भी नहीं करना चाहिये। निन्दक की जिह्वा अपवित्र हुआ करती है। निन्दक और मांसाहारी – दोनों एक सदृश हैं। परनिन्दा करना पृष्ठ भाग का माँस खाना है। निन्दा करने से वैर-विरोध के बन्धन तो बन्ध ही जाते हैं, व्यक्ति निन्दा करते समय अपने माता-पिता की भी उपेक्षा कर बैठता है और उनकी भी निन्दा करने लग जाता है। समयसुन्दर सुझाव देते हैं कि यदि तुम्हें निन्दा करने की आदत ही पड़ गई है, तो अपनी निन्दा करो ताकि कुछ तुम्हारा भला होगा, आत्म-संस्कार होगा। दूसरों के तो गुणों को ही ग्रहण करना चाहिये। समयसुन्दर के अनुसार ऐसा व्यक्ति प्रशंसनीय है, जो किसी की पर-निन्दा नहीं करता। उनके अनुसार ऐसा व्यक्ति धन्यवाद का पात्र है। २०. स्वार्थ समयसुन्दर का अनुभव है कि यह संसार स्वार्थी है। स्वार्थ के बिना मातापिता-भाई-बहिन आदि कोई भी परिजन अपना नहीं होता है, बिना स्वार्थ के कोई जलपान भी नहीं करवाता । स्वार्थ के वश होकर ही लोग बड़ी आत्मीयता दर्शाते हैं, किन्तु स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर कलह होता है। स्वार्थवशात् पत्नी भी अपने को दासी कहती है, परन्तु स्वार्थ सिद्ध न होने पर आँखें दिखाती है, लाठी लेकर पीछे भागती है। समयसुन्दर कहते हैं कि गुरु और शिष्य- ये सब भी स्वार्थ के संबंध हैं। वस्तुतः संसार स्वार्थ में १. विचारशतक (४७) २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, निन्दापरिहार गीतम्, पृष्ठ ४५१ ३. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, निन्दापरिहार गीतम्, पृष्ठ ४५१ ४. वही, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी, पृष्ठ ५२१ ५. वही, निन्दावारक गीतम्, पृष्ठ ४५१-५२ ६. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, परप्रशंसा गीतम्, पृष्ठ ४७४ ७. वही, निन्दावारक गीतम्, पृष्ठ ४५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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