Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 493
________________ ४७८ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व समयसुन्दर ने लिखा है कि सम्प्रति, यहाँ कोई तीर्थङ्कर विद्यमान नहीं हैं और न ही कोई अतिशयवान महापुरुष हैं। ऐसी स्थिति में जिनप्रतिमा ही एक ऐसा आधार है, जो मुक्तिदायक है। वे लोग जिन्होंने सूत्र-सिद्धान्त तर्क, व्याकरण आदि का अध्ययन किया है और लोक में पण्डित भी कहलाते हैं, किन्तु यदि जिनप्रतिमा को अस्वीकार करते हैं, तो उनका यह सब निरर्थक है। समयसुन्दर अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का उपहास करते हुए कहते हैं कि जिन ग्रन्थों में मूर्ति-पूजा का उल्लेख है, उन ग्रन्थों को तो वे मानते हैं, किन्तु उनमें उल्लिखित जिनमूर्ति को नहीं मानते, उनकी मान्यता वैसी ही आत्मविरोधी है, जैसे यह कहना कि मेरी मां बन्ध्या है। समयसुन्दर का कथन है कि वास्तव में जिनप्रतिमा भव-दुःखहर्ता, सुखकर्ता है और इसकी नित्य पूजा करना श्रावक का कर्त्तव्य है। यह भविकजनों को भवसागर से पार उतारने के लिए प्रवहण के समान है। श्रावक को द्रव्य और भाव पूजा करनी चाहिये और श्रमण को केवल भाव पूजा।३ २३. क्षमा समयसुन्दर क्षमा की साधना के लिए विशेष प्रेरणा देते हैं। उनका कहना है कि क्षमा की साधना चाहे गार्हस्थ्यमूलक जीवन हो या साधनामूलक जीवन - दोनों में अपरिहार्य है। वे क्षमा में समता का भी पर्यवसान मानते हैं। क्षमा की साधना वस्तुतः आन्तरिक साधना है अर्थात् उसका हृदय से ही सम्बन्ध होता है। इसीलिए वे कहते हैं कि क्षमा-प्रदान करने से मनुष्य को कोई व्यय-भार नहीं उठाना पड़ता। समयसुन्दर ने अपनी रचनाओं में लिखा है कि क्षमा अनेक प्रकार के कलहक्लेश की विनाशिका है। क्रोध रूपी शत्रु इसके आगे स्थिर नहीं रह सकता। यह परस्पर प्रेम-भावना का प्रसार करती है। अतः लोक में कीर्ति अर्जित होती है। २४. जीवदया समयसुन्दर के अनुसार दया धर्म का मूल है। जीवदया रूप धर्म की बेल जिनेश्वर द्वारा रोपित है। यह बेल मुक्तिरूपी फल देती है। समयसुन्दर का मत है कि दया न केवल जैनधर्म का सार है, अपितु सभी धर्मों का मुख्य उपदेश है। किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न देना तथा उसके दुःख दूर १. वही, पृष्ठ २०० २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, शाश्वतजिनचैत्यप्रतिमा वृहत्स्तवनम् (१६) ३. (क) वही, श्री पार्श्वजिन (प्रतिमास्थापन) स्तवन, पृष्ठ २०० (ख) वही, श्री जिनप्रतिमा पूजा गीतम्, पृष्ठ २२० ४. वही, क्षमा छत्तीसी, पृष्ठ ५२३-२६ ५. वही, जीवदया गीतम्, पृष्ठ ४४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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