Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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उपसंहार निजी विशेषता थी।
टीका-साहित्य के अन्तर्गत भी समयसुन्दर की देन महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने न केवल अन्य रचित ग्रन्थों पर व्याख्याएँ कीं, अपितु कतिपय स्वरचित रचनाओं पर भी स्वोपज्ञ वृत्तियाँ लिखीं। जैन साहित्य के साथ-साथ जैनेतर साहित्य पर भी व्याख्या-ग्रन्थ लिखकर उन्होंने साहित्य में भी समन्वय-भावना का विकास किया। इस तरह उन्होंने साहित्य-जगत् में भी अपना धर्मनिरपेक्ष एवं सम्प्रदायातीत रूप प्रस्तुत किया। उन्होंने आगम, प्रकरण, स्तोत्र एवं अन्य साहित्य पर मुख्यतः टीकाएँ लिखी हैं।
इसी प्रकार संस्कृत एवं हिन्दी कथा-साहित्य में भी समयसुन्दर का योगदान सशक्त है। उन्होंने धार्मिक एवं लौकिक आख्यानों की रचना कर साहित्य के भण्डार को समृद्ध किया। उन्होंने न केवल प्राचीन कथानकों के आधार पर कथा-साहित्य का सृजन किया, बल्कि कुछ नयी कथाएँ भी गढ़ीं और कुछ पुरानी कथाओं में परिवर्तन भी किये। कथा, आख्यान, वार्ता, उपमा, दृष्टान्त, संवाद, लोकोक्ति, सूक्त-सुभाषित, प्रश्नोत्तर, समस्यापूर्ति, प्रहेलिका आदि द्वारा इन रचनाओं को उन्होंने अति सरस बनाया। यद्यपि समयसुन्दर ने कथा-साहित्य में राजा, धनवान् या महापुरुषों के ही जीवनकाल का चित्रण किया है, किन्तु जनसामान्य के चित्रण को भी उन्होंने विशेष स्थान दिया है। समयसुन्दर ने विशिष्ट मुनि, साध्वी, सती, सेठ-साहुकार, सार्थवाह आदि के शिक्षाप्रद चरित्र भी चित्रित किये हैं। यद्यपि समयसुन्दर का कथा-साहित्य सभी प्रकार का प्राप्त होता है, किन्तु प्रत्येक कथा को उन्होंने धार्मिक, व्यवस्थामूलक तथा नैतिक पृष्ठभूमि में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। इसीलिए ये कथाएँ मनोरंजन के साथ-साथ अन्धकार में दिग्भ्रमित जीवन के लिये प्रकाशस्तम्भ हैं।
समयसुन्दर की कथाओं के सभी पात्र अथवा चरित्रनायक भव्यरूप लिये हुए हैं। रावण जैसे पात्र को, जहाँ अन्य कथाकार निकृष्ट समझते हैं, समयसुन्दर ने उसके चरित्र को ऊपर उठाने का प्रयास किया है। उन्होंने पुरुषों की तरह स्त्री-पात्रों को भी सदैव ऊँचाई पर रखा। साहित्य-प्रेमियों को सीता, मृगावती आदि स्त्री-पात्रों का चित्र समयसुन्दर की अनुपम भेंट है। वैराग्यमूलक धर्म का जीवनभर प्रचार करने वाला जो कवि स्त्रीविषयक आसक्ति की निन्दा करते कभी नहीं थकता, वह एक स्त्री की इतनी भव्य ओजस्विनी और प्रभावपूर्ण मूर्ति गढ़ सकता है, यह देखकर विस्मय होता है। स्त्री-रति के प्रति समयसुन्दर के पास आलोचना के अतिरिक्त कुछ नहीं था, किन्तु उन्होंने अपने स्त्री-पात्रों को सदैव ऊँचाई पर रखा और उनके स्त्री-पात्र पुरुष-पात्रों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली रूप लिये हुए हैं। यह समयसुन्दर के स्त्री-सम्मान के भाव का सूचक है। पुरुष प्रधान है, किन्तु स्त्री गौण नहीं है - यह बात उन्होंने अनेक स्थानों पर अभिव्यक्त की है।
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