Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 482
________________ समयसुन्दर का विचार- पक्ष ४६७ सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र - यही मुक्ति-मार्ग है। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, इस क्रम से त्रिविधि साधना-मार्ग का विधान किया गया है। ज्ञान अथवा दर्शन में पूर्व-पश्च चाहे जिस किसी को रख सकते हैं, क्योंकि बिना ज्ञान के दर्शन सम्यक् नहीं हो सकता और बिना दर्शन के ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता । ज्ञान, दर्शन, चारित्र - तीनों की पूर्णता आवश्यक है । - १५.१ सम्यग्ज्ञान इसकी व्याख्या करते हुए समयसुन्दर बताते हैं 'यस्तत्तत्त्वागमः स ज्ञानम् '३ अर्थात् तत्त्व का अवगमन यानि उसे समझना ही ज्ञान है । द्रव्य का अन्य निरपेक्ष निज स्वभाव या सर्वस्व - यही तत्त्व से अभिप्राय है । तत्त्व नौ हैं - जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष | ज्ञान का माहात्म्य बताते हुए समयसुन्दर कहते हैं कि ज्ञान संसार में उत्कृष्ट वस्तु है । यह मुक्तिदाता है। यह दीपक है, जो साधक के साधना - मार्ग को आलोकित करता है | ज्ञान- लोचनों का सुविलासक है, यह लोक और अलोक - दोनों का प्रकाश है अथवा प्रकाशक है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य पशु है । " 1 समयसुन्दर के अनुसार चारित्र की अपेक्षा ज्ञान सर्वप्रथम है । वे कहते हैं कि पहले ज्ञान, बाद में क्रिया होनी चाहिये, क्योंकि ज्ञान के समान अन्य कुछ नहीं है । ज्ञानी व्यक्ति का ज्ञान तो मरने के बाद भी उसके साथ सर्वत्र चलता है, जबकि क्रिया- चारित्र तो इसी जन्म तक साथ है । ७ ज्ञान और दया की चर्चा करते हुए समयसुन्दर कहते हैं कि दया से भी पहले ज्ञान आवश्यक है । उनके अनुसार जब तक व्यक्ति ज्ञान के द्वारा जीव के स्वरूप को, उसके रक्षण के उपाय को तथा उससे भविष्य में प्राप्त होने वाले फल को नहीं जानेगा, , तब तक वह दया अथवा क्रिया क्यों, कैसे और किसकी करेगा?" १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, चार मंगल गीतम्, पृष्ठ ४८२ २. तत्त्वार्थ सूत्र (१.१) ३. विशेष शतकम् (६६) ४. नौ तत्त्वों पर समयसुन्दर के विचारों को सविस्तार जानने के लिए द्रष्टव्य है, उन्हीं की लिखित 'नवतत्त्व प्रकरण वृत्ति' । ५. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री ज्ञानपंचमी वृहत्स्तवनम्, पृष्ठ २३६ ६. वही, ज्ञानपंचमी लघुस्तवनम्, पृष्ठ २३९ ७. वही, ज्ञानपंचमी वृहत्स्तवनम्, पृष्ठ २३६ ८. दशवैकालिकसूत्रवृत्ति, पृष्ठ २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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