Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
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सदुपयोग करें, अन्यथा पश्चाताप करना पड़ेगा; जैसे समय पर मधु का उपयोग न करने वाली मधुमक्खी को मधु का अपहरण होने के बाद पश्चाताप करना पड़ता है। एक और
उदाहरण
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हैं; यथा
नजरि - नजरि बिहुंनी मिली, जाणि साकर सुँ दूध । मन-मन सुं बिहुँ नउ मिल्यउ, दूध पाणी जिम सूध ॥ - सीताराम चौपाई (१.३.२)
२.१० मालोपमालङ्कार
एक ही उपमेय के अनेक उपमान कथन करने को मालोपमा - अलङ्कार कहते
मुझ मन मोह्यो रे गुरु जी, तुम्ह गुणे जिम बाबीहड़ मेहो जी । मधुकर मोह्यो रे सुन्दर मालती, चन्द चकोर सनेहो जी । मानसरोवर मोह्यो हंसलउ, कोयल जिम सहकारो जी । मयगल मोह्यो रे जिम रेवा नदी, सतिय मोही भरतारो जी ॥
• श्री जिनसिंहसूरि गीतानि (१-२ ) यहाँ गुरु-गुण से शिष्य के चित्त के आकर्षण की सात उपमाएँ प्रयुक्त होने से मालोपमा - अलङ्कार सिद्ध होता है । पुनर्यथा
इन्द्राणी जिमि इन्द्र नइ, हरि नइ लखमी जेम | चन्द तइ जिमि रोहणी, राजा राणी तेम ॥ - सीताराम - चौपाई (१.३. दूहा ५ ) घड़ी मांहि बाधइ घटइ रे, जेहवी वृक्ष नी छांह । अथिर कान हाथी तणउ रे, अथिर कापुरुष नी बांह ॥ अथिर माणस नउ आउखउ रे, अथिर कुमास साथ । अथिर मुंछ उँदिर तणी रे हाँ, अथिर पारधीना हाथ ॥ अथिर घड़ी अरहट्ट नी रे हाँ, अथिर समुद्र नी वेल । अथिर दण्ड ऊपरी ध्वजा रे हाँ, अथिर पणि छसि मेल ॥ अथिक वात-हत पानड़ा रे हाँ, अधिक सीतातुर दन्त । अथिर सूरि बिंब जल तणउ रे हाँ, अथिर असती तणई कंत ॥ थावच्चासुत ऋषि चौपाई (१.८.१ - २, ४-५ )
२.११ स्वभावोक्ति- अलङ्कार
जिसमें किसी वस्तु या व्यक्ति की स्वाभाविक क्रियाओं, गुणों, विशेषताओं आदि का ठीक उसी रूप में वर्णन किया जाता है, जिस रूप में कवि को दिखाई देती है, स्वभावोक्ति- अलङ्कार कहलाता है। आलोच्य रचनाओं में इस अलङ्कार की बहुलता पाई
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