Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 473
________________ ४५८ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व मार्ग-दर्शन के लिए गुरु ही सबसे अधिक सहायक हैं। गुरु दीपक है, जो शिष्य को साधना-पथ पर सुचारु रूप से चलने के लिए आलोक दिखाता है। गुरु चन्द्रमा है, जो शिष्य के मन में उत्पन्न होने वाले उद्वेगों को शान्त करता है, शिष्य को आत्मशान्ति रूप शीतलता प्रदान करता है । भव-समुद्र से पार मोक्ष - तट पर उतारने वाला गुरु है। गुरु महान् उपकारी है। समयसुन्दर गुरु के व्यक्तित्व को महान् तेजस्वी मानते हैं। वे गुरु की वाणी को अमृत तथा मोक्ष की निसैनी मानते हैं। वे कहते हैं कि गुरु के नयन, वचन और मुख दर्शन से परम आनन्द होता है । २ के समयसुन्दर के 'अनुसार वे निर्ग्रन्थ साधु गुरु हैं, जो पांच महाव्रतों के पालक हैं, रागदेव-कथित धर्म के आराधक हैं, संसार- सागर के उद्धारक और मोक्ष के साधक हैं। वे कहते हैं कि वस्तुतः गुरु वह है, जो शुद्ध प्ररूपणा करता है और यत्नपूर्वक गमनागमन आदि प्रत्येक क्रिया करता है। स्वयं भी भव-सागर से तिरता है और दूसरों को भी तारता है। समयसुन्दर ने तीन आध्यात्मिक पुरुषों को गुरु कहा है- १. आचार्य, २. उपाध्याय और ३. साधु । ये तीनों ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार (पुरुषार्थ)- इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से पालन करवाते हैं। ९. संघ जैनधर्म में संघ को बहुत महत्त्व दिया गया है। समय सुन्दर भी संघ को महान् समझते थे। संघ से उनका अभिप्राय है श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका का चतुर्विध समुदाय। उनकी मान्यता है कि संघ दुःखियों के दुःख का हर्ता है। यह माता-पिता के समान हितकर और वल्लभ है। , १०. धर्म जैनधर्म में सामान्यतया 'धम्मो वत्थु सहावो" (धर्मः वस्तुस्वभावः) कहकर जीव के निज-स्वभाव को धर्म कहा जाता है । समयसुन्दर ने धर्म का जो अर्थ और लक्षण १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री जिनसिंहसूरि गीतानि, पृष्ठ ३८७ २ . वही, वधावा गीतम्, पृष्ठ ३८३ ३. यति-आराधना (पत्र २) ४. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी, ५१६ ५. सप्तस्मरणवृत्ति, चतुर्थस्मरण, पृष्ठ ३१ ६. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, श्री संघगुण गीतम् (१-४) ७. समणसुत्तं (८३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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