Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur

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Page 474
________________ समयसुन्दर का विचार-पक्ष ४५९ बताया है, वह इससे कुछ भिन्न है। उनके अनुसार 'धर्मो दुर्गति प्रपंचन्तु धारणा लक्षणम्' है। यही बात उन्होंने अपनी एक अन्य रचना में कही है कि 'दुरगति पडतां धइ आडी बांहि श्रीजिनधर्म। २ इस तरह समयसुन्दर के मतानुसार धर्म दुर्गति में गिरते हुए को धारण करता है। यही धर्म का लक्षण है और यह उत्कृष्ट प्रधान मंगल है। समयसुन्दर की मान्यता है कि वही वास्तव में धर्म है जो केवलज्ञानी वीतराग द्वारा भाषित है, हिंसा से प्रतिकूल है, जीवदया ही जिसका मूल है और जो मुक्तिमार्ग में पाथेय के समान है।३।। समयसुन्दर लिखते हैं कि इस असार लोक में यदि कोई सार वस्तु है, तो वह धर्म ही है। भव-भ्रमण से छुटकारा दिलाने वाला यही एक मात्र परम आधार है। धर्म तो एक कल्पवृक्ष के समान है। इसकी छाया शीतल है, जो इसका सिंचन करेगा वह मुक्ति के फल को प्राप्त करेगा।६ समयसुन्दर ने धर्म के चार अङ्ग माने हैं- दान, शील, तप और भाव। इन चारों पर समयसुन्दर के विचार इस प्रकार हैं१०.१ दानधर्म समयसुन्दर के अनुसार दान धर्म-रथ के चार पहियों में से एक है। उन्होंने दान करना अनिवार्य माना है। वे कहते हैं कि यद्यपि कुछ लोग यह मानते हैं कि दान से धन का ह्रास होता है, पर वह गलत है। दान से धन घटता नहीं अपितु बढ़ता है। यह इहलोक एवं परलोक - दोनों में लाभदायक है। इस लोक में यह सुयशकर है और परलोक में सम्बल है। इससे सारा विश्व वशीभूत होता है। जनता प्रथम पहर में दाता का नाम-स्मरण करती है। इस तरह दान का फल प्रत्यक्ष है। यद्यपि समयसुन्दर ने दानधर्म को श्रेष्ठ अवश्य माना है, किन्तु वे इस बात की ओर भी संकेत करते हैं कि दान में आडम्बर की भी सम्भावना हो सकती है। उन्होंने १. दशवैकालिकवृत्ति (पृष्ठ १) २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी (५) ३. श्रावकाराधना (पत्र १) ४. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, जीव-प्रतिबोध गीतम् (१) ५. वही, जीव-प्रतिबोध गीतम् (१) ६. वही, धर्ममहिमागीतम् (६) ७. (क) समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, दान-शील-तप-भाव संवाद (ढाल ५) (ख) वही, धर्ममहिमा गीतम् (१) ८. (क) समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, दानशील-तप-भाव-संवाद (ढाल १ एवं उसके पूर्व के दोहे) (ख) वही, दान गीतम् (१-४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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